Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २३
अतिमानसिक करण-विचार-प्रक्रिया
अतिमानस, दिव्य विज्ञान, कोई ऐसी चेतना नहीं जो हमारी वर्तमान चेतना के लिये पूर्णतः विजातीय हो : वह आत्मा का एक उत्कृष्टतर करण है और हमारी सामान्य चेतना की सभी क्रियाएं अतिमानसिक क्रिया के ही सीमित और निम्नतर रूप हैं जो उसीसे उद्भूत हुए हैं, क्योंकि ये तो तात्कालिक प्रयोग और रचनाएं हैं, और वह आत्मा की सच्ची एवं पूर्ण, स्वयंस्फूर्त एवं समस्वर प्रकृति और क्रिया है । अतएव, जब हम मन सें अतिमानस की ओर उठते हैं, तो चेतना की वह नयी शक्ति हमारी आत्मा और हमारे मन एवं प्राण की क्रियाओं का परित्याग नहीं कर देती, बल्कि उन्हें ऊपर उठाती, विशाल बनाती और रूपान्तरित करती है । वह उन्हें उदात्त बनाती तथा उन्हें उनकी शक्ति और क्रिया का नित अधिकाधिक सच्चा स्वरूप प्रदान करती है । वह मन, चैत्य भागों और प्राण की स्थूल शक्तियों और क्रिया के रूपान्तरतक ही अपने को सीमित नहीं रखती, बल्कि वह हमारी प्रच्छन्न सत्ता की उन विशिष्ट दुर्लभतर शक्तियों और उस विशालतर बल एवं ज्ञान को भी व्यक्त और रूपान्तरित करती है जो हमें आज गुह्य, अद्भुत-रूप से चैत्य तथा असामान्य वस्तुओं के समान प्रतीत होते हैं । अतिमानसिक प्रकृति में ये वस्तुएं जरा भी असामान्य नहीं रहतीं, बल्कि पूर्णतया स्वाभाविक एवं सामान्य बन जाती हैं, पृथक् रूप से चैत्य नहीं रहतीं, बल्कि आध्यात्मिक बन जाती हैं, एक गुह्य और विचित्र क्रिया नहीं रहतीं, बल्कि एक सीधी, सरल, स्वाभाविक और स्वयंस्कूर्त क्रिया बन जाती हैं । आत्मा जाग्रत् भौतिक चेतना की भांति सीमित नहीं है, और अतिमानस जब जाग्रत् चेतना को अपने अधिकार में ले आता है तो वह उसे अभौतिक बना देता है, सीमाओं से मुक्त कर देता है, पार्थिव तथा चैत्य भाग को आध्यात्मिक सत्ता की प्रकृति में रूपान्तरित कर देता है ।
इस बात का संकेत हम पहले ही कर आये हैं कि मन की जो क्रिया अत्यन्त सहज रूप से व्यवस्थित की जा सकती है वह शुद्ध विचारणात्मक ज्ञान की क्रिया है । उच्चतर स्तर पर यह वास्तविक ज्ञान, अतिमानसिक विचार, अतिमानसिक अन्तर्दर्शन तथा तादात्म्यलभ्य अतिमानसिक ज्ञान में रूपान्तरित हो जाती है । इस अतिमानसिक ज्ञान की सारभूत क्रिया का वर्णन पिछले अध्याय में किया जा चुका है । परन्तु यह देखना भी आवश्यक है कि अपने बाह्य व्यावहारिक प्रयोग में यह ज्ञान किस प्रकार कार्य करता है और सत्ता की ज्ञात सामग्री के साथ यह कैसा व्यवहार करता है । मन की क्रिया से इसका पहला भेद यह है कि जो क्रियाएं मन के लिये अत्युच्च तथा अत्यन्त कठिन हैं उनका प्रयोग यह सहज-स्वाभाविक रूप में
८६०
करता है, उनके अन्दर या उनपर यह ऊपर से नीचे की ओर क्रिया करता है, इस क्रिया में इसे मन की तरह ऊर्ध्वगति के लिये कुण्ठित आयास नहीं करना पड़ता, न उसकी तरह अपने स्तर तथा निम्नतर स्तरों की सीमाओं में आबद्ध होकर ही कार्य करना पड़ता है । उच्चतर क्रियाएं निम्नतर स्तर की सहायता पर निर्भर नहीं करतीं, बल्कि वस्तुत: निम्नतर क्रियाएं अपने मार्गदर्शन के लिये ही नहीं, वरन् अपने अस्तित्व के लिये भी उच्चतर क्रियाओं पर निर्भर करती हैं । अतः रूपान्तर के द्वारा मन की निम्नतर क्रियाओं का केवल रूप ही नहीं बदलता, बल्कि वे पूर्णतया अधीन भी हो जाती हैं । साथ ही, मन की उच्चतर क्रियाएं भी अपना रूप बदल लेती हैं, क्योंकि विज्ञानमय बनकर वे अपना प्रकाश सीधे उच्चतम ज्ञान से, आत्म ज्ञान या असीम ज्ञान से प्राप्त करने लगती हैं ।
इस प्रयोजन के लिये मन की सामान्य विचार-क्रिया को तीन स्तरों की गतियों से गठित माना जा सकता है । उनमें से पहला, सबसे निचला तथा देहस्थित मनोमय पुरुष के लिये सबसे आवश्यक स्तर है रूढ़ विचारात्मक मन । वह अपने विचारों की नींव इन्द्रियों के द्वारा तथा स्नायविक एवं भावप्रधान सत्ता के स्थूल अनुभवों के द्वारा दी हुई तथ्य-सामग्री पर और शिक्षा, बाह्य जीवन एवं परिस्थिति के द्वारा बने हुए प्रथानुगत विचारों पर रखता है । यह रूढ़ मन दो प्रकार की क्रियाएं करता है, उनमें से एक है यन्त्रवत् पुन: -पुन: आनेवाले विचार की एक प्रकार की सतत गुप्त धारा । यह विचार सदा एक भौतिक, प्राणिक, भाविक, व्यावहारिक और संक्षिप्त बौद्धिक धारणा एवं अनुभव के एक ही चक्र में अपने-आपको दुहराता रहता है । इस मन की दूसरी क्रिया उस समस्त नये अनुभव पर, जिसे मन स्वीकार करने को बाध्य होता है, अधिक सक्रिय रूप से कार्य करती है तथा उसे रूढ़ चिन्तन के सूत्रों में परिणत कर देती है । औसत मनुष्य की मानसिकता इस रूढ़ मन के द्वारा सीमित होती है और इसके घेरे के बाहर तो वह अत्यन्त अपूर्ण रूप में ही विचरण करती है ।
चिन्तन-क्रिया का दूसरा स्तर है व्यवहारलक्षी विचारात्मक मन, वह प्राण से ऊपर उठ जाता है और विचार तथा प्राण-शक्ति के बीच, जीवन के सत्य तथा अभीतक जीवन में व्यक्त न हुए विचार के सत्य के बीच एक मध्यस्थ की भांति सर्जनशील रूप से कार्य करता है । वह अपनी सामग्री जीवन से ही लेता है और उसमें से तथा उसीके आधार पर ऐसे सर्जनशील विचारों का निर्माण करता है जो भावी जीवन-विकास के लिये सक्रिय एवं प्रभावशाली बन जाते हैं । दूसरी ओर, वह मन की भूमिका से या, अधिक मूत्र रूप में, अनन्त की विचारोत्पादक शक्ति से नया विचार एवं मानसिक अनुभव ग्रहण करता है और तुरन्त ही उसे मानसिक विचार-शक्ति में तथा वास्तविक अस्तित्व- धारण एवं जीवन-यापन की शक्ति में परिणत कर देता है । इस व्यवहारलक्षी विचारात्मक मन का सारा झुकाव आन्तर
८६१
तथा बाह्य कर्म और अनुभव की ओर होता है । आन्तर कर्म एवं अनुभव सत्य की पूर्णतर तृप्ति के लिये अपने को बाहर की ओर झोंकता रहता है । उधर, बाह्य कर्म एवं अनुभव आन्तर में समा लिया जाता है और आत्मसात् एवं परिवर्तित होकर अभिनव रचनाओं के लिये फिर उसकी ओर अभिमुख होता है । इस मानसिक भूमिका में विचार अन्तरात्मा के लिये केवल या मुख्यतया कर्म और अनुभव के एक विशाल क्षेत्र के साधन के रूप में ही आकर्षक होता है ।
चिन्तन का तीसरा स्तर हमारे अन्दर शुद्ध विचारणात्मक मन को खोल देता है । यह मन, कर्म और अनुभव के लिये विचार की जो उपयोगिता है उसके प्रति किसी प्रकार की भी आवश्यक अधीनता को एक ओर छोड़कर, विचार के सत्य में तटस्थ रूप से निवास करता है । यह इन्द्रियों तथा उथले आन्तरिक अनुभवों के द्वारा दी हुई सामग्री पर केवल इसलिये विचार करता है कि जिस विचार, जिस सत्य की वे साक्षी देते हैं उसे यह ढूंढ़ निकाले और ज्ञान की परिभाषाओं में परिणत कर सके । यह प्राण में मन की सर्जनशील क्रिया को भी इसी ढंग से तथा इसी प्रयोजन के लिये देखता है । इसका प्रमुख कार्य है ज्ञान प्राप्त करना, इसका सम्पूर्ण उद्देश्य है चिन्तन-क्रिया का आनन्द प्राप्त करना, सत्य की खोज करना, अपने- आपको, जगत् को तथा उस सबको जानने का प्रयत्न करना जो उसके अपने कार्य तथा जगत्-कार्य के पीछे विद्यमान हो । यह विचारणात्मक मन बुद्धि की उच्चतम भूमिका है जिसमे कि वह विशिष्ट रूप से, अपने लिये, अपनी निज शक्ति के द्वारा तथा अपने निज उद्देश्य के लिये ही कार्य करती है ।
बुद्धि की इन तीन क्रियाओं को ठीक ढंग से मिलाना तथा समस्वर करना मानव-मन के लिये कठिन है । साधारण मनुष्य मुख्यतया रूढ़िग्रस्त मन में निवास करता है । उसके अन्दर सर्जनशील एवं व्यवहारलक्षी मन की क्रिया अपेक्षाकृत दुर्बल ही होती है और शुद्ध विचारणात्मक मन का प्रयोगभर करने में या उसकी क्रिया के भीतर प्रवेश करने में उसे बड़ी कठिनाई अनुभव होती है । सर्जनशील व्यवहारलक्षी मन साधारणत: अपनी ही गति में इतना अधिक व्यस्त रहता है कि वह शुद्ध विचारणात्मक ढंग के वातावरण में स्वतन्त्र और तटस्थ रूप से विचरण नहीं कर सकता और दूसरी ओर, रूढ़ मन के द्वारा लादी गयी प्रत्यक्ष एवं यथार्थ अवस्थाओं तथा बाधाओं पर उसका अधिकार प्रायः अपूर्ण ही होता है, इसी प्रकार व्यवहारलक्षी चिन्तन और सर्जन की जिस क्रिया का निर्माण करने में उसे स्वयं रस आता है उससे भिन्न क्रियाओं पर भी उसका अधिकार पर्याप्त नहीं होता । शुद्ध विचारणात्मक मन सत्य की अमूर्त और मनमानी प्रणालियों, बौद्धिक खण्डों और विचारात्मक भवनों का निर्माण करने की प्रवृत्ति रखता है, और वह या तो जीवन के लिये आवश्यक व्यावहारिक क्रिया को त्यागकर केवल या मुख्य रूप से विचारों में ही निवास करता है या फिर जीवन के क्षेत्र में पर्याप्त शक्ति के साथ और प्रत्यक्ष रूप से कार्य नहीं
८६२
कर सकता, और उसे व्यावहारिक एवं रूढ़िग्रस्त मन के जगत् से बिल्कुल अलग जा पड़ने या उसमें दुर्बल हो जाने का खतरा बना रहता है । इनमें किसी-न-किसी प्रकार का समझौता कर लिया जाता है, किन्तु इनमें से प्रमुख प्रवृत्ति की उग्रता मनुष्य की चिन्तनात्मक सत्ता की समग्रता और एकता में हस्तक्षेप करती है । मन अपनी समग्रता का भी सुनिश्चित स्वामी नहीं बन पाता, क्योंकि उस समग्रता का रहस्य इससे परे आत्मा की उस मुक्त एकता में निहित है जो मुक्त होने के कारण ही अनन्त बहुलता और विविधता को धारण कर सकती है, साथ ही यह उस अतिमानसिक शक्ति में भी निहित है जो अकेली ही आत्मा की एकता की सजीव अनेकात्मक गति को एक स्वाभाविक पूर्णता के रूप में प्रकट कर सकती है ।
अतिमानस अपनी पूर्ण अवस्था में मन के चिन्तन के सम्पूर्ण ढंग को बदल देता है । वह इन्द्रियगोचर नहीं, वरन् तात्त्विक सत्ता में अर्थात् आत्मा में निवास करता है और सब वस्तुओं को आत्मा की सत्ता के अंश, उसकी शक्ति, आकृति और गति के रूप में ही देखता है । अतिमानस में समस्त चिन्तन तथा चिन्तन की प्रक्रिया भी इसी ढंग की होनी चाहिये । उसकी समस्त मूलभूत विचारणा अतिमानसिक साक्षात्कार का तथा भूतमात्र के साथ एकत्व के द्वारा अपना कार्य करनेवाले आध्यात्मिक ज्ञान का ही एक रूपान्तर होती है । अतएव, वह मुख्यतया आत्मा, सत्ता और चेतना के नित्य, तात्त्विक और सार्वभौम सत्यों में तथा सत्ता के (जो चीजें हमारी वर्तमान चेतना को अ-सत्ता प्रतीत होती हैं उन सबके भी) अनन्त बल और आनन्द में विचरण करता है । उसका समस्त विशिष्ट चिन्तन इन नित्य सत्यों की शक्ति से उद्भूत होता तथा उसीपर निर्भर करता है । पर इसके साथ ही वह सनातन की सत्ता के सत्यों के अनन्त पक्षों, अनन्त व्यावहारिक रूपों, क्रमबद्ध स्तरों और सामंजस्यों से सुपरिचित होता है तथा उनके साथ स्वच्छन्दतापूर्वक व्यवहार कर सकता है । अतएव, अपने शिखरों पर वह उन सब चीजों में निवास करता है जिन्हें प्राप्त करने और जानने के लिये शुद्ध विचारणात्मक मन अपनी क्रिया के द्वारा यत्न करता है, और उसके निम्न स्तरों पर भी ये चीजें उसकी प्रकाशमय ग्रहणशीलता के प्रति निकट या सुप्राप्त एवं सुलभ होती हैं ।
पर जहां सत्य या विशुद्ध विचार विचारणात्मक मन के लिये अमूर्त भाव ही होते हैं, क्योंकि मन कुछ तो बाह्य दृग्विषयों में और कुछ बौद्धिक रचनाओं में निवास करता है और उच्चतर सद्वस्तुओं तक पहुंचने के लिये उसे अमूर्तीकरण की पद्धति का प्रयोग करना पड़ता है, वहां अतिमानस आत्मा में निवास करता है और अतएव, वह उस वस्तु के वास्तविक सारतत्त्व में निवास करता है जिसका कि ये विचार और सत्य प्रतिनिधित्व करते हैं या वस्तुतः जो इनका मूत्र रूप है । वह वास्तविक रूप में इनका साक्षात्कार करता है । वह इनपर केवल विचार ही नहीं करता, बल्कि विचारते समय इनके सारतत्त्व को अनुभव करता है तथा उसके साथ
८६३
अपने को एकाकार कर लेता है । उसके लिये ये, इस संसार में जो अधिक-से-अधिक वास्तविक वस्तुएं हों सकती हैं, उनमें स्थान रखते हैं । चेतना और सारभूत सत्ता के सत्य अतिमानस के लिये सद्वस्तु का वास्तविक उपादान ही हैं, वे सत्ता की बाह्य गति और आकृति की अपेक्षा अधिक अन्तरंग रूप में और, हम यहांतक भी कह सकते हैं कि, अधिक सघन रूप में वास्तविक हैं, यद्यपि ये भी उसके लिये सद्वस्तु की गति और आकृति हैं, कोई भ्रान्ति नहीं जैसी कि वे आध्यात्मीकृत मन की एक विशेष क्रिया के लिये हैं । विचार भी उसके लिये एक परमार्थसत् विचार, अर्थात् चिन्यय सत्ता के वास्तविक स्वरूप का एक उपादान होता है, जो सत्य के स्थूल, भौतिक प्राकट्य के लिये और अतएव, सर्जन के लिये शक्ति से परिपूर्ण होता है ।
अपिच, जहां शुद्ध विचारणात्मक मन ऐसी मनमानी प्रणालियों का निर्माण करने की प्रवृत्ति रखता है जो सत्य की मानसिक एवं आंशिक रचनाएं होती हैं, अतिमानस सत्य के किसी भी प्रकार के निरूपण या उसकी किसी भी प्रणाली से बंधा नहीं है, यद्यपि वह अनन्त के व्यवहारलक्षी प्रयोजनों के लिये सत्य का निरूपण और उसकी व्यवस्था करने तथा उसके सजीव सारतत्त्व के अनुसार रचना करने में पूर्ण रूप से समर्थ है । मन जब अपनी एकांगिता से, सत्य को प्रणालीबद्ध करने की अपनी चेष्टाओं से तथा अपनी रचनाओं के प्रति आसक्ति से मुक्त हो जाता है, तो वह अनन्त की अनन्तता में पहुंचकर हक्का-बक्का रह जाता है । अनत्त उसे 'अव्यवस्था' -रूप प्रतीत होता है, भले वह अव्यवस्था ज्योतिर्मय ही क्यों न हो । तब मन पहले की तरह रूप गढ़ने और अतएव निश्चयात्मक रूप से विचार एवं कार्य करने में समर्थ नहीं रहता, क्योंकि वहां सभी चीजें, यहांतक कि अत्यन्त विभिन्न या परस्पर-विरोधी चीजें भी, इस अनन्तता के किसी सत्य की ओर निर्देश करती हैं, तथापि वह जो कुछ भी सोच सकता है उसमें से कुछ भी पूर्णतया सत्य नहीं होता, और उसकी सभी रूप-रचनाएं अनन्त से आनेवाले नये निर्देशों की कसौटी पर टूट-फूट जाती हैं । वह संसार को इन्द्रजाल के रूप में और विचार को ज्योतिर्मय 'अनिश्चित सत्ता' में से निकलनेवाली स्थित चिनगारियों के रूप में देखने लगता है । मन अतिमानस की विशालता और स्वतन्त्रता से आक्रान्त होकर अपने-आपको खो बैठता है और उस विशालता में उसे पग टेकने के लिये कोई दृढ़ आधार नहीं मिलता । इसके विपरीत, अतिमानस अपनी स्वतन्त्रता में स्थित रहता हुआ सद्वस्तु के दृढ़ आधार पर सत्ता-सम्बन्धी अपने विचार और अभिव्यक्ति के सामंजस्यपूर्ण स्तरों का गठन कर सकता है, और फिर भी वह अपने असीम स्वातंत्र्य को धारण किये रहता है तथा अपनी अनन्ततया बृहत् सत्ता का आनन्द भी लेता रहता है । वह जो कुछ भी है, जो भी कार्य वह करता है तथा जो कुछ भी वह चरितार्थ करता है वह सब, इसी प्रकार जो कुछ भी वह सोचता हैं वह सब भी सत्यम्, ऋतम्, बृहत् से सम्बन्ध रखता है ।
८६४
इस अखण्डता का परिणाम यह होता है कि मन के विशुद्ध, स्वतन्त्र, निष्पक्ष और नि:सीम विचार से सादृश्य रखनेवाला अतिमानस का मुक्त, तात्त्विक चिन्तन और उसका सोद्देश्य, निर्धारक, सर्जनशील एवं व्यवहारलक्षी चिन्तन इन दोनों में कोई विभेद या असंगति नहीं होती । सत्ता की अनन्तता स्वभावतः ही अभिव्यक्ति के सामंजस्यों की मुक्तता को जन्म देती है । अतिमानस सदा ही कर्म को परम आत्मा के आविर्भाव एवं अभिव्यक्ति के रूप में तथा सृष्टि को अनन्त के आत्म-प्रकाश के रूप में देखता है । उसका समस्त सर्जनशील एवं व्यवहारलक्षी विचार आत्मा की सम्पूति के लिये एक यन्त्र एवं प्रकाशप्रद शक्ति है, वह अपरिमेय सत् की शाश्वत एकता तथा अनन्त विचित्रता एवं विविधता के और सभी लोकों में तथा उनके जीवन में उसकी आत्म-अभिव्यक्ति के बीच मध्यस्थ का काम करता है । अतिमानस सदा इसी विचार को देखता और मूर्त रूप देता है और जहां उसका विचार-सर्जक अन्तर्दर्शन और चिन्तन उसके समक्ष उस अनन्त की अपरिमेय एकता एवं विविधता की व्याख्या करते हैं जिसके साथ शाश्वत तादात्म्य के कारण वह स्वयं भी वही है और जिसमें वह अपनी सत्ता और सम्पूति की सम्पूर्ण शक्ति के साथ निवास करता है, वहां उसमें एक विशिष्ट सर्जनशील विचार भी सदा विद्यमान रहता है । यह विचार अनन्त संकल्प, अर्थात् तपस् या सत्ता की शक्ति की क्रिया के साथ सम्बद्ध है । यही इस बात को निश्चित करता है कि काल के प्रवाह में अतिमानस अनन्त में से किस चीज को सामने लायेगा अथवा प्रकट या उत्पन्न करेगा तथा इस लोक में और अभी अथवा काल की किसी भी अवधि में या किसी भी लोक में--विश्व के अन्दर हो रही आत्मा की शाश्वत अभिव्यक्ति को क्या रूप देगा ।
अतिमानस इस व्यवहारलक्षी क्रिया के द्वारा सीमित नहीं होता और इस पद्धति से अपने विचार और जीवन में वह जो कुछ बनता एवं उत्पन्न करता है उसकी एक आंशिक गति या सम्पूर्ण धारा को अपनी सत्ता का या अनन्त का समग्र सत्य नहीं मानता । वर्तमान में या सत्ता के किसी एक ही स्तर पर वह अपने चुनाव के अनुसार जो स्वरूप धारण करता है तथा जो कुछ सोचता एवं करता है, केवल उसमें ही वह निवास नहीं करता; वह अपने जीवन का आधार केवल वर्तमान के ऊपर या क्षणों की उस अविच्छिन्न शृंखला के ऊपर ही नहीं रखता जिसकी धड़कनों को हम 'वर्तमान' का नाम देते हैं । वह अपने-आपको काल की या कालगत चेतना की एक गति के रूप में या फिर सन्भुति के शाश्वत चक्र में रहनेवाले एक जीव के रूप में ही नहीं देखता । वह एक ऐसी कालातीत सत्ता से सचेतन है जो अभिव्यक्ति से परे है पर यहां का सब कुछ जिसकी एक अभिव्यक्ति है, वह उस सत्ता को जानता है जो 'काल' के भीतर भी नित्य है, सत्ता के जो अनेकानेक स्तर हैं उनका भी उसे ज्ञान है, वह अभिव्यक्ति के अतीत सत्य को
८६५
जानता है और सत्ता का जो बहुत-सा सत्य अभी भविष्य में अभिव्यक्त होने को है पर जो सनातन की आत्म-दृष्टि में पहले से ही विद्यमान है उसे भी वह जानता है । वह व्यावहारिक सत्य को, जो कर्ममय और विकारशील अवस्था का सत्य है, एकमात्र सत्य समझने की भूल नहीं करता, बल्कि उसे उस सत्ता की, जो सनातन रूप से वास्तविक है, एक सतत चरितार्थता के रूप में देखता है । वह जानता है कि जड़तत्त्व, प्राण, मन और अतिमानस में से किसी भी स्तर पर सृष्टि करने का अर्थ सनातन सत्य के स्व-निर्धारित रूप को आविर्भूत करना एवं सनातन को अभिव्यक्त करना ही होता है और हो भी यही सकता है । साथ ही वह अन्तरङग रूप से यह भी जानता है कि सभी वस्तुओं का सत्य सनातन में पहले से ही विद्यमान है । यह दृष्टि उसके सभी व्यवहारलक्षी विचारों एवं उनके परिणामस्वरूप होनेवाली क्रियाओं को मर्यादित करती है । उसके अन्दर की निर्मात्री शक्ति द्रष्टा और मनीषी की एक चुनाव करनेवाली शक्ति है, आत्मस्रष्टी शक्ति आत्मद्रष्टा की एक शक्ति है, आत्म-अभिव्यक्ति करनेवाली शक्ति अनन्त आत्मा की एक शक्ति है । वह अनन्त अध्यात्म-सत्ता एवं आत्मा में से स्वतन्त्रता के साथ सृजन करता है, और उस स्वतन्त्रता के कारण ही और भी अधिक सुरक्षित एवं निश्चयात्मक रूप से सृजन करता है ।
अतएव वह अपनी विशिष्ट अभिव्यक्ति में कैद नहीं हो जाता, न अपने घेरे या अपनी कार्यपद्धति में आबद्ध ही होता है । जब वह सर्जनात्मक अभिव्यक्तिसम्बन्धी अपने निज सामंजस्य के लिये एक निश्चयात्मक संकल्प, विचार और क्रिया का प्रबल रूप से प्रयोग करता है तब भी वह इस अभिव्यक्ति के अन्य सामंजस्यों के सत्य की ओर एक ऐसे ढंग से तथा ऐसी मात्रा में खुला होता है जो मन की पहुंच से बाहर हैं । जब वह एक संघर्ष के ढंग के कार्य में लगा होता हैं, --उदाहरणार्थ, अतीत या किसी अन्य विचार, रूप और अभिव्यक्ति के स्थान पर उस विचार, रूप और अभिव्यक्ति को स्थापित करना जिसे व्यक्त करने का काम उसे सौंपा गया है, --तो वह जिसे पदच्युत करता है उसके सत्य को जानता होता है और पदच्युत करते हुए भी उसे सार्थकता प्रदान करता है; साथ ही उसके स्थान पर वह जिस चीज को प्रतिष्ठित करता है उसका सत्य भी उसे ज्ञात होता है. । वह अपनी अभिव्यक्ति और चुनाव करने की क्रिया से एवं अपनी व्यवहारलक्षी सचेतन क्रिया सें बंधता नहीं, किन्तु फिर भी एक विशिष्ट रूप से सर्जनशील विचार का और कर्म-सम्बन्धी यथार्थता की चयनशील वृत्ति का सम्पूर्ण आनन्द, अपनी तथा दूसरों की अभिव्यक्ति के रूपों एवं गतियों के सत्य का आनन्द उसे समान रूप से प्राप्त होता है । जीवन, कर्म और सर्जन-सम्बन्धी उसका समस्त चिन्तन एवं संकल्प समृद्ध और बहुविध होता है तथा अनेक स्तरों के सत्य को केन्द्रित करता है, वह मुक्त होने के साथ-साथ सनातन के अपरिमेय सत्य से आलोकित होता है ।
८६६
अतिमानसिक विचार और चेतना की इस सर्जनशील या व्यवहारलक्षी गति के साथ-साथ एक ऐसी क्रिया भी जन्म लेती है जो रूढ़ या यान्त्रिक मन की क्रिया के सदृश होती हुई भी अत्यन्त भिन्न प्रकार की होती है । उसके द्वारा सृष्ट होनेवाली वस्तु सामंजस्य का एक आत्मनिर्धारित रूप होती है और समस्त सामंजस्य साक्षात्कृत या स्वीकृत पद्धतियों के आधार पर अपना कार्य करता है तथा एक सतत स्पन्दन एवं तालबद्ध पुनरावर्तन की गति भी सदा उसके संग रहती है । अतिमानसिक विचार, अतिमानसिक भूमिका की व्यक्त सत्ता के सामंजस्य को संघटित करता हुआ इसे सनातन तत्त्वों पर प्रतिष्ठित करता है, जिस सत्य को व्यक्त करना है उसकी यथार्थ प्रणालियों के आधार पर इसे ढालता है, अनुभव और कर्म के जो सतत उपयोगी तत्त्व सामंजस्य का गठन करने के लिये आवश्यक होते हैं उनके पुनरावर्तन को विशेष स्वरों के रूप में गुंजायमान रखता है । वहां विचार का क्रम-विधान, संकल्प का नियमित चक्र एवं गति की स्थिरता विद्यमान होती है । तथापि उसकी स्वतन्त्रता उसे उक्त पुनरावर्तन के वश उस रूढ़ क्रिया की गरारी में बन्द हो जाने से रोकती है जो सदा ही विचारों के परिमित भण्डार के चारों ओर यन्त्रवत् चक्कर काटती रहती है । वह रूढ़ मन के समान चिन्तन के रूढ़ लोकप्रचलित सांचे को अपना आधार मानकर समस्त नये विचार और अनुभव को इसके आगे पेश नहीं करता न उसे इसके समान ही बना डालता है । उसका आधार, जिसके आगे वह सब कुछ निर्णयार्थ प्रस्तुत करता है, ऊपर है, उपरि बुध्ने, आत्मा की विशालता में, अतिमानसिक सत्य की परमोच्च आधारभूमि में स्थित हैं, बुध्ने ऋतस्य । उसके चिन्तन का क्रम-विधान, उसका संकल्पचक्र, उसकी कर्मसम्बन्धी स्थिर गति यान्त्रिकता या रूढ़ि का बंधा-बधाया रूप नहीं धारण करती, बल्कि सदैव मूल भाव से अनुप्राणित रहती है, अन्य सब क्रमों एवं चक्रों का बहिष्कार करके अथवा अन्य सहवर्ती या सम्भव क्रम का विरोध करते हुए अपना अस्तित्व धारण नहीं करती, बल्कि जिन चीजों के भी सम्पर्क में आती है उन सबसे पोषक तत्त्व खींच लेती है तथा उन्हें अपने मूल-तत्त्व के अनुकूल बनाकर आत्मसात् कर लेती है । इस प्रकार का आध्यात्मिक आत्मसात्करण सम्भव है क्योंकि विज्ञानमय भूमिका में सभी कुछ आत्मा की विशालता तथा मुक्त ऊर्ध्वस्थ दृष्टि के समक्ष निर्णयार्थ प्रस्तुत किया जाता है । अतिमानसिक चिन्तन और संकल्प का क्रम-विधान निरन्तर ही ऊपर से नयी ज्योति और शक्ति प्राप्त कर रहा है और इन्हें अपनी गति के अन्दर स्वीकार कर लेने में उसे कोई कठिनाई नहीं होती : जैसा कि अनन्त के क्रम-विधान का अपना विशिष्ट स्वभाव है, उसके अनुसार वह अपनी गति की स्थिरता में भी अवर्णनीय रूप से नरम एवं नमनीय है, एकमेव में सब वस्तुओं का एक-दूसरे के साथ जो सम्बन्ध है उसे वह देख सकता तथा प्रकट कर सकता है, अनन्त के स्वरूप को सदा ही अधिकाधिक व्यक्त कर सकता है, अपनी पूर्णतम अवस्था में
८६७
वह अनन्त के उस समस्त स्वरूप को अपने ढंग से व्यक्त कर सकता है जिसे व्यक्त करना सचमुच में सम्भव हो ।
इस प्रकार अतिमानसिक ज्ञान की जटिल गति में किसी प्रकार का असामञ्जस्य एवं विषमता नहीं होती, न उसमें सामञ्जस्य स्थापित करने की ही कोई कठिनाई होती है, बल्कि वहां जटिलता में भी सरलता होती है तथा बहुमुखी समृद्धता में भी एक ऐसी सुरक्षित विश्रान्ति की अवस्था बनी रहती है जो आत्मज्ञान की सहज सुनिश्चितता एवं समग्रता से उत्पन्न होती है । विघ्न-बाधा, अन्त:संघर्ष, विषमता, कठिनाई, अवयवों और गतियों में असामंजस्य--ये सब मन के अतिमानस में रूपान्तर की प्रक्रिया में ही देखने में आते हैं, पर वहां भी ये केवल तभीतक रहते हैं जबतक रचना की अपनी ही विधियो पर आग्रह करनेवाले मन का व्यापार, प्रभाव या दबाव बना रहता है अथवा जबतक आदि अज्ञान के आधार पर ज्ञान का विचार एवं कर्मसम्बन्धी संकल्प का गठन करने की उसकी प्रक्रिया अतिमानस की इससे उल्टी प्रक्रिया का प्रतिरोध करती है जिसके द्वारा अतिमानस सब चीजों का संगठन आत्मा और इसके सहजात एवं सनातन आत्मज्ञान में से होनेवाली एक प्रकाशमय अभिव्यक्ति के रूप में करता है । इस ढंग से ही अतिमानस आत्मा के तादात्म्यलभ्य ज्ञान की एक प्रतिनिधिभूत, व्याख्याकारिणी, सत्य का दर्शन करानेवाली अलंध्य शक्ति के रूप में कार्य करता है, अनन्त चेतना की ज्योति को मुक्त और असीम रूप से वास्तविक विचार के उपादान और आकार में परिणत कर देता है, चिन्मय सत्ता और वास्तविक विचार की शक्ति के द्वारा सृजन करता है, एक ऐसी क्रिया को स्थिर रूप दे देता है जो अपने विधान का अनुसरण करती है किन्तु फिर भी अनन्त की एक नमनशील एवं सुनम्य क्रिया होती है । अपनी इन सब क्रियाओं के द्वारा वह प्रत्येक विज्ञानमय व्यक्ति के अन्दर एकमेव पुरुष एवं आत्मा की तत्तद् व्यक्ति के अनुसार विशिष्ट एवं यथार्थ अभिव्यक्ति की व्यवस्था करने के लिये अपने विचार और ज्ञान का तथा एक ऐसे संकल्प का प्रयोग करता है जो अपने सारतत्त्व और ज्योति में ज्ञान से एकाकार होता है ।
इस प्रकार की गठनवाले अतिमानसिक ज्ञान की क्रिया, स्पष्ट ही, मनोमय बुद्धि की क्रिया से बहुत ही उत्कृष्ट है और अब हमें देखना यह है कि अतिमानसिक रूपान्तर में मानसिक बुद्धि के स्थान पर कौन-सी शक्ति प्रतिष्ठित होती है । मनुष्य के चिन्तनात्मक मन को अपना अत्यन्त निर्मल और विशेष सन्तोष तर्कशील एवं युक्तिप्रधान बुद्धि में ही प्राप्त होता है और सत्ता की व्यवस्था करने के लिये अपने अत्यन्त सुनिश्चित एवं प्रभावशाली सिद्धान्त की प्राप्ति भी उसे इसीमें होती है । यह ठीक है कि मनुष्य अपने विचार या कर्म में पूर्ण रूप से तर्क-बुद्धि के द्वारा ही नियन्त्रित नहीं होता और ऐसा होना सम्भव भी नहीं है । उसका मन तर्कशील बुद्धि तथा अन्य दो शक्तियों की संयुक्त, मिश्रित एवं गहन क्रिया के प्रति जटिल रूप से
८६८
अधीन है । उन दो शक्तियों में से एक है अन्तर्ज्ञान, जो मानव-मन के अन्दर वस्तुतः केवल अर्द्ध-आलोकित है, बुद्धि की अधिक प्रत्यक्ष क्रिया के पीछे रहकर कार्य करता है या फिर सामान्य बुद्धि की क्रिया में छुपा रहता है या उसमें आकर परिवर्तित हो जाता है । दूसरी शक्ति है सम्वेदन, अन्धप्रेरणा और आवेग से युक्त प्राणिक मन । वह अपने स्वभाव में एक प्रकार का धूमिल तिरोहित अन्तर्ज्ञान ही है और वह बुद्धि को नीचे से उसकी आरम्भिक सामग्री एवं ज्ञात तथ्य प्रदान करता है । इन अन्य शक्तियों में से प्रत्येक अपने-अपने ढंग से, मन और प्राण में कार्य कर रहे आत्मा की एक अन्तरंग क्रिया है और इसका कार्य करने का ढंग तर्कशील बुद्धि की अपेक्षा अधिक सीधा एवं सहज-स्फूर्त है, तथा इसकी अनुभव एवं कर्म करने की शक्ति भी उसकी अपेक्षा अधिक अपरोक्ष है । तथापि इनमें से कोई भी शक्ति मनुष्य के मानसिक जीवन को व्यवस्थित करने में समर्थ नहीं है ।
उसका प्राणिक मन-इसकी अन्धप्रेरणाएं इसके आवेग, --उस तरह स्वतः - पर्याप्त एवं प्रभुत्वपूर्ण नहीं है और हो भी नहीं सकता जिस तरह वह निम्नतर सृष्टि में है । इसे बुद्धि ने अपने अधिकार में लाकर अत्यधिक बदल डाला है । जहां बुद्धि का विकास अपूर्ण है और यह (प्राण-मन) स्वयं अपनी श्रेष्ठता पर अत्यधिक आग्रह करता है वहां भी यही बात देखने में आती है । यह अपने अन्तर्ज्ञानात्मक स्वरूप को अधिकांश में खो चुका है, वास्तव में अब यह ज्ञान की सामग्री और ज्ञात तथ्यों के जुटानेवाले एक करण के रूप में पहले से अनन्तगुना समृद्ध है, पर अब यह सर्वथा स्वरूपप्रतिष्ठ नहीं रहा और न ही यह अपना कार्य सहज में कर सकता है, क्योंकि यह आधा बौद्धिक बन गया है, कम-से-कम यह तार्किक या बौद्धिक क्रिया के किसी अन्त:सञचारित तत्त्व पर आश्रित रहता है, भले वह तत्त्व कितना ही अस्पष्ट क्यों न हो; अतएव अब यह बुद्धि की सहायता के बिना किसी अच्छे उद्देश्य के लिये कार्य नहीं कर सकता । इसकी जड़ें अवचेतन में हैं जहां से यह उद्भूत होता है, और इसका पूर्णता प्राप्त करने का स्थान भी वहीं है और मनुष्य का कार्य अभिवृद्धि प्राप्त करना है, इस अर्थ में कि वह अधिकाधिक चेतन ज्ञान और कर्म की ओर प्रगति करता जाये । यदि वह प्राणिक मन के द्वारा अपनी सत्ता का नियन्त्रण करने की ओर लौटे तो वह या तो विवेकहीन एवं अव्यवस्थित बन जायेगा या जड़ एवं निःशक्त और मानवता के मूल लक्षण को गंवा बैठेगा ।
इसके विपरीत अन्तर्ज्ञान का मूल और इसका पूर्णता प्राप्त करने का धाम अतिमानस में है जो आज हमारे लिये अतिचेतन है, और मन में इसकी क्रिया न तो विशुद्ध होती है न व्यवस्थित, बल्कि वह तत्क्षण ही तर्कशील बुद्धि की क्रिया के साथ मिल जाती है, बिल्कुल अपने ही स्वरूप में नहीं रह पाती, बल्कि सीमित, खण्डत्मक, मिश्रित, हलकी एवं अशुद्ध हो जाती है, और अपने निर्देशों के व्यवस्थित प्रयोग एवं संगठन के लिये तर्कबुद्धि की सहायता पर निर्भर करती है ।
८६९
मानव-मन अपने अन्तर्ज्ञानों के विषय में तबतक कभी भी पूरी तरह से निश्चयवान् नहीं होता जबतक तर्कबुद्धि की निर्णय-शक्ति उनपर विचार करके उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर देती : तर्कबुद्धि की इस शक्ति में ही वह अपने को अत्यन्त सुदृढ़ रूप से प्रतिष्ठित एवं सुरक्षित अनुभव करता है । यदि मनुष्य अन्तर्ज्ञानात्मक मन के द्वारा अपने चिन्तन और जीवन की व्यवस्था करने के लिये तर्कबुद्धि से ऊपर उठ जाये तो इतने से ही वह अपनी मानवता के विशिष्ट लक्षण को पार कर अतिमानवता के विकास के पथ पर चल रहा होगा । यह कार्य केवल ऊर्ध्व भूमिका में ही किया जा सकता है : क्योंकि नीचे की भूमिका में इसके लिये यत्न करने का अर्थ एक अन्य प्रकार की अपूर्णता प्राप्त करना ही है : वहां तो मनोमय बुद्धि एक आवश्यक करण है ।
तर्कशील बुद्धि, प्राणिक मन और अबतक अविकसित अतिमानसिक अन्त-र्ज्ञान--इन दोनों के बीच का एक करण है । उसका कार्य एक मध्यस्थ का कार्य है, अर्थात् एक ओर तो उसका काम है--प्राणिक मन को आलोकित करना, इसे सचेतन बनाना तथा इसकी क्रिया को यथासम्भव नियन्त्रित एवं व्यवस्थित करना । यह सब उसे तबतक करते जाना होगा जबतक विश्व-प्रकृति अतिमानसिक शक्ति का विकास करने के लिये तैयार नहीं हों जाती । यह शक्ति विकसित होकर प्राण को अपने अधिकार में ले लेगी और उसकी सभी क्रियाओं को आलोकित करके पूर्ण बनायेगी । इसके लिये वह उसकी कामना, भावावेश, सम्वेदन और कर्म की अस्पष्टत: अन्तर्ज्ञानमय गतियों को आत्मा और अध्यात्मसत्ता की एक ऐसी प्राणिक अभिव्यक्ति में रूपान्तरित कर देगी जो आध्यात्मिक एवं ज्योतिर्मय रूप से सहजस्कूर्त होगी । दूसरी ओर, उच्चतर स्तर पर तर्कबुद्धि का कार्य है--ऊपर से आनेवाली ज्योतिरश्मियो को ग्रहण करना तथा उन्हें बौद्धिक मन की परिभाषाओं का रूप देना, साथ ही, अन्तर्ज्ञान की जो धाराएं अपनी सीमा को पार कर अतिचेतना से मन में उतर आती हैं उन्हें स्वीकार करना, परखना, विकसित करना तथा बौद्धिक ढंग से उपयोग में लाना । यह कार्य वह तबतक करती है जबतक मनुष्य अपने स्वरूप, अपनी परिस्थिति और अपनी सत्ता के प्रति अधिकाधिक बौद्धिक रूप से सचेतन होकर यह भी नहीं जान जाता कि वास्तव में वह इन चीजों को अपनी बुद्धि के द्वारा नहीं जान सकता, बल्कि अपनी बुद्धि के समक्ष इनका मानसिक निरूपणमात्र कर सकता है ।
परन्तु बुद्धिप्रधान मनुष्य में तर्कबुद्धि अपने सामर्थ्य और व्यापार की सीमाओं की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति रखती है और 'पुरुष' एवं आत्मा का एक यन्त्र एवं करण नहीं बल्कि उसकी स्थानापन्न शक्ति बनने की चेष्टा करती है । अपनी सफलता और प्रधानता के कारण एवं अपने प्रकाश की अपेक्षाकृत महत्ता के कारण आत्मविश्वास से पूर्ण होकर वह अपनेको एक प्रधान एवं निरपेक्ष तत्त्व समझती है, अपने पूर्ण
८७०
सत्य एवं स्वयं-समर्थता के बारे में विश्वस्त अनुभव करती है और मन एवं प्राण की सर्वतन्त्र स्वतन्त्र शासिका बनने का यत्न करती है । पर यह कार्य वह सफलता-पूर्वक नहीं कर सकती, क्योंकि वह अपने वास्तविक सारतत्त्व एवं अस्तित्व के लिये निम्नतर प्राणिक अन्तर्ज्ञान पर तथा प्रच्छन्न अतिमानस एवं उसके अन्तर्ज्ञानात्मक सन्देशों पर निर्भर करती है । उसे केवल अपनेको ऐसा लग सकता है कि मैं सफल हो रही हूं क्योंकि वह अपने समस्त अनुभव को तार्किक सूत्रों में परिणत कर देती है और इसके पीछे विचार और क्रिया का जो वास्तविक स्वरूप विद्यमान है उसमें से आधे की ओरसे तथा जो अपरिमित सत्य उसके सूत्रों के घेरे में नहीं आता उसकी ओरसे अपनी आंखें मूंद लेती है । बुद्धि की अति तो केवल जीवन को एक कृत्रिम वस्तु एवं बुद्धि-चालित यन्त्र-सा बना देती है, इसे इसकी स्वाभाविकता एवं जीवनशक्ति से वञ्चित कर देती है और आत्मा के स्वतंत्र्य एवं विस्तार को रोक देती है । सीमित और परिसीमक मनोमय बुद्धि को अपने-आपको सुनम्य एवं संस्कारग्राही बनाना होगा, अपने मूल स्रोत के प्रति अपने-आपको खोलना होगा, ऊपर से ज्योति प्राप्त करनी होगी, अपने को अतिक्रम करके रूपान्तर-रूपी सहजमृत्यु-प्रक्रिया के द्वारा अतिमानसिक बुद्धि के रूप में परिणत हो जाना होगा । इस बीच उसे विशिष्ट मानवीय स्तर पर चिन्तन और कर्म की व्यवस्था के लिये सामर्थ्य और नेतृत्व प्रदान किया गया है । मानवीय स्तर एक बीच का स्तर है जिसके एक ओर तो आत्मा की अवचेतन शक्ति है जो पशु के जीवन की व्यवस्था करती है और दूसरी ओर आत्मा की अतिचेतन शक्ति है जो चेतन बनकर आध्यात्मिक अतिमानवता के अस्तित्व एवं जीवन की व्यवस्था कर सकती है ।
तर्कबुद्धि की विशिष्ट शक्ति अपने पूर्ण विकसित रूप में एक तार्किक क्रिया है । यह क्रिया सर्वप्रथम, निरीक्षण और व्यवस्था के द्वारा, समस्त प्राप्य सामग्री एवं स्वीकृत तथ्यों का सुनिश्चित ज्ञान प्राप्त कर लेती है, और फिर इसके परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाले ज्ञान के लिये यह उनपर कार्य करती है । यह ज्ञान चिन्तन-शक्तियों के प्राथमिक प्रयोग के द्वारा प्राप्त, सन्तुष्ट तथा परिवर्द्धित होता है, अन्त में तर्कबुद्धि अपने परिणामों की यथार्थता के बारे में अपनेको आश्वस्त करती है । इसके लिये वह एक अधिक सतर्क, औपचारिक, जागरूक, सुचिन्तित एवं कठोर-तर्कयुक्त क्रिया का प्रयोग करती है जो विचार और अनुभव के बल पर विकसित हुए कुछ-एक सुरक्षित मानदण्डों एवं प्रक्रियाओं के अनुसार इन परिणामों को परखकर इनका खण्डन या मण्डन करती है । अतएव तर्कबुद्धि का पहला कार्य अपनी प्राप्य सामग्री एवं स्वीकृत तथ्यों का यथार्थ, सतर्क एवं पूर्ण निरीक्षण करना है । स्वीकृत तथ्यों का जो सबसे पहला एवं सहजतम क्षेत्र हमारे ज्ञान के सामने खुला है वह प्राकृतिक जगत् है, उन भौतिक पदार्थों का जगत् है जिन्हें मन की पृथक्कारी क्रिया ने उसे अपने प्रति बाह्य बना रखा है, ऐसी वस्तुओं का जगत् है जो अनात्मा हैं और
८७१
इसलिये जो केवल हमारे इन्द्रियानुभवों की व्याख्या के द्वारा, निरीक्षण, सञ्चित अनुभव, अनुमान और ध्यानपूर्ण चिन्तन के द्वारा परोक्ष रूप से ही जानी जा सकती हैं । ज्ञात तथ्यों का दूसरा क्षेत्र है हमारी अपनी आन्तरिक सत्ता और उसकी क्रियाएं जिन्हें मनुष्य, स्वभावतः ही, अन्दर से कार्य करनेवाले मानसिक बोध, अन्तर्ज्ञान एवं सतत अनुभव के द्वारा तथा हमारी प्रकृति की साक्षियों पर ध्यानपूर्ण चिन्तन के द्वारा जानता है । इन आन्तर क्रियाओं के सम्बन्ध में भी बुद्धि सर्वोत्तम रूप में अपना कार्य तभी करती है तथा इनका अत्यन्त यथार्थ ज्ञान तभी प्राप्त करती है यदि वह अपने-आपको इनसे पृथक् करके इन्हें सर्वथा निर्व्यक्तिक दृष्टि से एवं बहि:स्थित रूप में देखे । इस प्रकार का साक्षिभाव एक ऐसी क्रिया है जिसका परिणाम ज्ञानयोग में यह होता है कि हम अपनी सक्रिय सत्ता को भी अनात्मा के रूप में, शेष जगत्-सत्ता की भांति प्रकृति की एक यान्त्रिक रचना के रूप में देखने लगते हैं । अन्य विचारशील एवं सचेतन जीवों-विषयक ज्ञान इन दो क्षेत्रों के बीच में आता है, पर यह भी परोक्ष रूप में निरीक्षण एवं अनुभव से तथा आदान-प्रदान के नाना साधनों से और इन साधनों पर चिन्तन एवं अनुमान के द्वारा कार्य करके प्राप्त किया जाता है । यह चिन्तन एवं अनुमान अधिकतर हमारी अपनी प्रकृतिसम्बन्धी हमारे ज्ञान के साथ इस ज्ञान के सादृश्य के आधार पर (उपमान प्रमाण पर) प्रतिष्ठित होता है । स्वीकृत तथ्यों का एक अन्य क्षेत्र भी है जिसका बुद्धि को निरीक्षण करना होता है । वह उसकी अपनी क्रिया तथा सम्पूर्ण मानवीय बुद्धि की क्रिया का क्षेत्र है, क्योंकि इस अध्ययन के बिना वह अपने ज्ञान की यथार्थता या अपनी पद्धति एवं प्रक्रिया की शुद्धता के बारे में असंदिग्ध नहीं हो सकती । अन्त में, ज्ञान के कुछ अन्य क्षेत्र भी हैं जिनके लिये स्वीकृत तथ्य इतने सुलभ नहीं हैं और जिनके लिये लोकोत्तर शक्तियों का विकास करना आवश्यक है । उदाहरणार्थ, एक क्षेत्र उन वस्तुओं तथा सत्ता के उन स्तरों की खोज का है जो स्थूल जगत् की प्रतीतियों के पीछे विद्यमान हैं और दूसरा क्षेत्र है मनुष्य एवं विश्वप्रकृति के गुप्त आत्मा की या उनकी सत्ता के मूल तत्त्व की खोज का । इनमें से पहले पर तर्कबुद्धि, जो भी तथ्य प्राप्त हो जायें उन्हें अपनी छानबीन के लिये स्वीकार करके, उन्हींके आधार पर विचार करने का यत्न कर सकती है जिस तरह वह स्थूल जगत् पर विचार करती है, पर साधारणतया उसमें उन तथ्यों पर विचार करने की प्रवृत्ति बहुत ही कम होती है, क्योंकि, उसे सन्देह और इन्कार करना ही अधिक आसान मालूम होता है, साथ ही इस क्षेत्र में उसकी क्रिया भी कदाचित् ही सुनिश्चित या प्रभावशाली होती है । दूसरे क्षेत्र की खोज वह सामान्यतया एक ऐसे रचनात्मक दार्शनिक तर्क के द्वारा करने का यत्न करती है जो प्राण, मन और जड़तत्त्व के दृग्विषयों के सम्बन्ध में बुद्धि द्वारा किये हुए विश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक निरीक्षण पर आधारित होता है ।
८७२
अपने ज्ञात तथ्यों के इन सभी क्षेत्रों में तर्कबुद्धि की क्रिया एक-सी होती है । सबसे पहले बुद्धि निरीक्षणों, संस्कारों, प्रत्यक्ष-बोधों, गृहीत-विचारों तथा प्रत्ययों की विपुल सामग्री का संग्रह करती है, उनके पारस्परिक सम्बन्धों का तथा सभी पदार्थों का, उनकी समानताओं और विषमताओं के अनुसार एक कम या अधिक स्पष्ट व्यवस्थापन एवं वर्गीकरण करती है, और फिर विचारों, स्मृतियों, कल्पनाओं एवं निर्णयों की संचित होती हुई निधि एवं सतत वृद्धि के द्वारा उनपर क्रिया करती है; मुख्य रूप से यही चीजें हमारे ज्ञान की क्रिया का स्वरूप गठित करती हैं । अपने ही गतिको के द्वारा विकसित होते हुए मन की इस बुद्धिप्रधान क्रिया का एक प्रकार का स्वाभाविक विस्तार भी होता है, यह एक ऐसा विकास होता है जिसमें व्यक्ति के सचेतन योगदान से अधिकाधिक सहायता प्राप्त होती है, विकास के इस सचेतन अनुशीलन से शक्तियों में जो वृद्धि होती है वह फिर अपने क्रम में, जैसे ही ये शक्तियां एक अधिक सहज-स्वाभाविक क्रिया के रूप में प्रतिष्ठित होती हैं, प्रकृति का एक अंग बन जाती हैं । इसके परिणामस्वरूप जो विकास साधित होता है वह बुद्धि की अपनी स्वरूपगत विशेषता एवं सारभूत शक्ति का नहीं, वरन् उसकी शक्ति की मात्रा, उसकी नमनीयता, सामर्थ्य की विविधता एवं सूक्ष्मता का विकास होता है । तब भ्रान्तियों का संशोधन, सुनिश्चित विचारों एवं निर्णयों का संग्रह तथा नवीन ज्ञान का ग्रहण या निर्माण--ये सब क्रियाएं आरम्भ हो जाती हैं । साथ ही, बुद्धि की एक अधिक यथार्थ एवं सुनिश्चित क्रिया की आवश्यकता भी उत्पन्न हो जाती है, ऐसी क्रिया की जो बुद्धि की इस साधारण पद्धति की स्थूलता से मुक्त होकर प्रत्येक पग की जांच करेगी, प्रत्येक निष्कर्ष की कठोरतापूर्वक छानबीन करेगी और मन की क्रिया को एक दृढ़प्रतिष्ठ प्रणाली एवं व्यवस्था का रूप दे देगी ।
यह क्रिया पूर्ण तार्किक मन का विकास करती है और बुद्धि की तीक्ष्णता एवं क्षमता को पराकाष्ठातक पहुंचा देती है । एक अधिक अनगढ़ एवं स्थूल निरीक्षण के स्थान पर या उसके परिपूरक के रूप में दो अन्य क्रियाएं प्रतिष्ठित हो जाती हैं । उनमें से एक तो पदार्थ का गठन करनेवाली या उससे सम्बद्ध सभी प्रक्रियाओं, गुणों, उपादानों तथा शक्तियों की छानबीन करनेवाले विश्लेषण की क्रिया है और दूसरी पदार्थ की समूचे रूप में संश्लेषणात्मक रचना करने की क्रिया है जो मन की उस पदार्थ-विषयक स्वाभाविक परिकल्पना में जोड़ दी जाती है या अधिकांश में उस परिकल्पना के स्थान पर प्रतिष्ठित कर दी जाती है । उस पदार्थ का अन्य सब पदार्थों से भेद अधिक ठीक रूप में किया जाता है और साथ ही अन्य पदार्थों के साथ उसके सम्बन्धों की खोज भी अधिक पूर्ण रूप से की जाती है । साम्य या सादृश्य एवं सम्बन्ध का और साथ ही भेदों एवं विषमताओं का भी निर्धारण कर लिया जाता है । इसके परिणामस्वरूप एक ओर तो सत्ता और विश्वप्रकृति की मूलभूत एकता तथा उनकी प्रक्रियाओं की सदृशता एवं अविच्छिन्नता का अनुभव
८७३
होता है और दूसरी ओर विभिन्न शक्तियों तथा विभिन्न प्रकार के प्राणियों और पदार्थों का स्पष्ट निर्धारण एवं वर्गीकरण भी सम्भव हो जाता है । ज्ञान के लिये आवश्यक सामग्री और स्वीकृत तथ्यों का संग्रह एवं व्यवस्था भी वहांतक पूर्णता को पहुंचा दी जाती है जहांतक कि तर्कबुद्धि के लिये ऐसा करना सम्भव है ।
स्मृति मन का एक अनिवार्य साधन है जो उसके अतीत निरीक्षणों को सुरक्षित रखने में उसकी सहायता करता है । यहां 'स्मृति' में व्यक्ति की ही नहीं सम्पूर्ण जाति की स्मृति भी सम्मिलित है, चाहे वह सचित अभिलेखों के कृत्रिम रूप में हो या सर्वसामान्य जातिगत स्मृति के रूप में जो एक प्रकार के सतत पुनरावर्तन एवं नवीकरण के द्वारा अपने लाभों की सुरक्षा करती है । इनके साथ ही एक और तत्त्व भी होता है जिसका उचित मूल्यांकन नहीं किया गया है । वह प्रसुप्त स्मृति का तत्त्व है । वह नाना प्रकार के उत्तेजकों का दबाव पड़ने पर ज्ञान की अतीत क्रियाओं को नयी अवस्थाओं में दुहरा सकती है जिससे कि बढ़ी हुई जानकारी एवं बुद्धि के द्वारा उन क्रियाओं पर विचार किया जा सके । विकसित तर्कप्रधान मन मानव स्मृति की क्रिया एवं साधन-सम्पदा को व्यवस्थित करता है और उसे अपनी सामग्री का अधिकतम उपयोग करने की प्रशिक्षा देता है । मानव की निर्णयशक्ति, स्वभावत: ही, इस सामग्री पर दो विधियों से कार्य करती है, उनमें से एक निरीक्षण, अनुमान, सर्जनशील या आलोचनात्मक निष्कर्ष, अन्तर्दृष्टि और तात्कालिक विचार को कम या अधिक द्रुत एवं संक्षिप्त रूप से संयुक्त करती हैं । यह अधिकांश में मन का सहज ढंग से तथा ऐसी प्रत्यक्षता के साथ कार्य करने का प्रयत्न है जो केवल अन्तर्ज्ञान की उच्चतर शक्ति के द्वारा ही सुरक्षित रूप से प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि मन में यह बहुत-कुछ मिथ्या विश्वास एवं अविश्वसनीय निश्चय-भाव पैदा कर देती है । दूसरी विधि खोज, विचार तथा परीक्षा करनेवाले निर्णय की है जो अपेक्षाकृत धीमी है, पर अन्त में बौद्धिक रूप से अधिक सुनिश्चित होती है तथा एक सावधानतापूर्ण तार्किक क्रिया के रूप में विकसित हो जाती है ।
स्मृति और निर्णय-शक्ति दोनों को कल्पना-शक्ति से सहायता प्राप्त होती है । कल्पना-शक्ति, ज्ञान के एक करण के रूप में, ऐसी सम्भावनाओं का संकेत देती है जिन्हें अन्य शक्तियों ने प्रत्यक्षतया प्रस्तुत या समर्थित नहीं किया होता । साथ ही वह नये दृश्य क्षेत्रों के द्वार भी खोल देती है । विकसित तर्कबुद्धि कल्पना-शक्ति का प्रयोग नये अनुसन्धान एवं नये वाद का संकेत देने के लिये करती है, पर निरीक्षण एवं संशयशील या सतर्क निर्णयशक्ति के द्वारा उसके संकेतों को पूरी तरह से परखने का ध्यान रखती है । वह' स्वयं निर्णय-शक्ति के समस्त व्यापार को भी यथासम्भव परखने का आग्रह करती है, निगमन और उपपादन की व्यवस्थित प्रणाली के पक्ष में उतावले अनुमान का परित्याग कर देती है और अपने सभी पगों के बारे में तथा अपने निष्कर्षों की न्यायपरता, शृंखलाबद्धता, सुसंगतता एवं संहतता के बारे
८७४
में अपने-आपको आश्वस्त कर लेती है । एक अतीव रूढ़िबद्ध तार्किक मन सद्यः अन्तर्दृष्टि की एक विशेष क्रिया को, अर्थात् उच्चतर अन्तर्ज्ञान की ओर मन की निकटतम पहुंच को, निरुत्साहित करता है, किन्तु तर्कबुद्धि के समस्त व्यापार का उन्मुक्त प्रयोग इस क्रिया को अपेक्षाकृत उन्नत ही कर सकता है, पर वह इसपर अमर्यादित रूप से भरोसा नहीं करता । तर्कबुद्धि का प्रयत्न सदा यही रहता है कि वह एक अनासक्त, निष्पक्ष एवं सुप्रतिष्ठित विधि के द्वारा भूल, पूर्वनिर्णय एवं मन के मिथ्या विश्वास से मुक्त होकर विश्वसनीय ध्रुव सत्यों पर पहुंचे ।
और यदि मन की यह विस्तृत एवं सुनिष्पन्न विधि सत्य की खोज के लिये सचमुच में पर्याप्त होती तो ज्ञान के विकास में इससे ऊंचे किसी सोपान की आवश्यकता ही न पड़ती । वास्तव में, यह मन के अपने ऊपर तथा अपने चारों ओर के जगत् के ऊपर प्रभुत्व को बढ़ाती है तथा इसके ऐसे महान् उपयोग भी हैं जिनसे इन्कार नहीं किया जा सकता : पर इस विषय में यह कभी असंदिग्ध नहीं हो सकती कि इसकी ज्ञात तथ्य-सामग्री इसे वास्तविक ज्ञान का ढांचा प्रदान करती है या केवल एक ऐसा ढांचा प्रदान करती है जो मानव-मन एवं संकल्प के लिये उसकी वर्तमान कार्यप्रणाली में ही उपयोगी एवं आवश्यक है । यह अधिकाधिक अनुभव में आता है कि दृग्विषयों का ज्ञान तो बढ़ जाता है, पर सद्वस्तु का ज्ञान इस श्रमपूर्ण प्रक्रिया से छूट जाता है । एक ऐसा समय अवश्य आयेगा और वह आ ही रहा है जब मन अन्तर्शान को और इसके शब्द के अस्पष्ट प्रयोग तथा इसके अर्थ के अनिश्चित बोध के पीछे जो महान् शक्तियां छिपी पड़ी हैं उन सबको अपनी सहायता के लिये पुकारने तथा पूर्ण रूप से विकसित करने की आवश्यकता अनुभव करेगा । अन्त में वह इस सत्य को अवश्य उपलब्ध कर लेगा कि ये शक्तियां उसकी अपनी विशिष्ट क्रिया में सहायता देकर उसे पूर्ण ही नहीं कर सकतीं, बल्कि उसका स्थान भी ले सकती हैं । इस सत्य की उपलब्धि आत्मा की अतिमानसिक शक्ति की उपलब्धि का आरम्भ होगी ।
हम देख ही चुके हैं कि अतिमानस मानसिक चेतना की क्रिया को अन्तर्ज्ञान की ओर ऊपर ले जाकर उसके अन्दर प्रविष्ट करा देता है । पहले वह एक मध्यवर्ती अन्तर्ज्ञानात्मक मन की सृष्टि करता है जो अपने-आपमें अपर्याप्त होता हुआ भी तर्कबुद्धि की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है । इसके बाद वह इस मन को भी और ऊपर ले जाकर सच्ची अतिमानसिक क्रिया में रूपान्तरित कर देता है । आरोही क्रम में अतिमानस का प्रथम सुव्यवस्थित करण है अतिमानसिक बुद्धि, उच्चतर तर्कबुद्धि नहीं, बल्कि घनिष्ठतया आत्मगत एवं घनिष्ठतया विषयगत ज्ञान का एक सीधा प्रकाशपूर्ण व्यवस्थित करण, अर्थात् उच्चतर बुद्धि, तर्कात्मक या यूं कहें कि शब्दब्रह्मात्मक विज्ञान । विज्ञानमय बुद्धि तर्कबुद्धि का समस्त कार्य करती है और उससे भी अधिक कुछ करती है, पर करती है एक महत्तर शक्ति के साथ तथ
८७५
एक भिन्न ढंग से । फिर वह स्वयं भी ज्ञान-शक्ति के एक उच्चतर स्तर में उन्नीत हो जाती है और उसमें भी खोया कुछ भी नहीं जाता, बल्कि सब कुछ और भी उन्नत हो जाता है, उसका क्षेत्र और भी विस्तृत तथा उसकी कार्य करने की शक्ति रूपान्तरित हो जाती है ।
बुद्धि की साधारण भाषा विज्ञानबुद्धि के इस कार्य का वर्णन करने के लिये पर्याप्त नहीं, क्योंकि शब्द तो वही-के-वही प्रयोग में लाने पड़ते हैं जो कुछ सादृश्य का ही संकेत देते हैं, पर असल में एक भिन्न वस्तु को अपूर्ण रूप से प्रकट करने के लिये भी प्रयोग में लाये जाते हैं । इस प्रकार, अतिमानस इन्द्रियों की एक प्रकार की क्रिया का प्रयोग करता है जो स्थूल इन्द्रियों को प्रयोग में लाती है, पर उनसे सीमित नहीं होती । यह क्रिया अपने स्वरूप एवं स्वभाव में रूप-चेतना एवं (इन्द्रियार्थ) स्पर्श-चेतना होती है, परन्तु इन्द्रिय के सम्बन्ध में हमारी जो मानसिक धारणा और अनुभूति हैं वे हमें इस अतिमानसीकृत इन्द्रिय-चेतना की तात्त्विक एवं विशिष्ट क्रिया की कुछ भी कल्पना नहीं करा सकतीं । अतिमानसिक क्रिया में चिन्तन भी मनोमय बुद्धि के चिन्तन से भिन्न होता है । अतिमानसिक चिन्तन, मूलत:, ज्ञात वस्तु की सत्ता के सारतत्त्व के साथ ज्ञाता की सत्ता के सचेतन सम्पर्क या मिलन या तादात्म्य के रूप में अनुभूत होता है और उसके विचार का स्वरूप आत्मा की स्वचेतनता की एक ऐसी शक्ति के रूप में अनुभूत होता है जो मिलन या एकत्व के द्वारा किसी विषय के अन्तर्निहित तत्त्व, व्यापार और मर्म के एक विशेष ज्ञानात्मक रूप को प्रकट करती है, क्योंकि वह उसे अपने अन्दर धारण किये होती है । अतएव, निरीक्षण, स्मृति और निर्णय में से भी प्रत्येक का मनोमय बुद्धि की प्रक्रिया में जो अर्थ होता है, अतिमानस में उसका उससे भिन्न अर्थ होता है ।
मनोमय बुद्धि जिस सबका अवलोकन करती है, अतिमानसिक बुद्धि उस सबका और उससे भी बहुत अधिक अवलोकन करती है । दूसरे शब्दों में, वह ज्ञेय वस्तु को बोध-क्रिया का एक क्षेत्र, अर्थात् एक प्रकार से एक बाह्य विषय बनाती है । यह बोधक्रिया उस वस्तु के स्वरूप, स्वभाव, गुण ओर व्यापार को प्रकट करा देती है । पर विषय की यह बाह्यता वह कृत्रिम बाह्यता नहीं होती जिसके द्वारा बुद्धि अपने अवलोकन में वैयक्तिक या विषयिगत भूल का अंश दूर करने की चेष्टा करती है । अतिमानस प्रत्येक वस्तु को आत्मा के अन्दर देखता है और इसलिये उसका अवलोकन एक आत्मगत वस्तु का अवलोकन होता है तथा हम अपनी आन्तरिक गतियों को ज्ञान का विषय मानकर उनका जो अवलोकन करते हैं, अतिमानस का अवलोकन उसके अत्यधिक सदृश होता है, यद्यपि बिल्कुल वैसा ही नहीं होता । वह अपनी पृथक्-वैयक्तिक सत्ता के अन्दर या उसकी शक्ति के द्वारा नहीं देखता और अतएव उसे व्यकिमूलक भूल के अंश से बचने के लिये सतर्क नहीं रहना पड़ता : व्यक्तिगत भूल तो केवल तभी हस्तक्षेप करती है जब मन का तल या पारिपार्श्विक वायुमण्डल अभी बचा होता है और अपना प्रभाव डाल सकता
८७६
है अथवा जब अतिमानस मन को बदलने के लिये अभीतक उसके अन्दर उतरकर कार्य कर रहा होता है । और भूल के साथ बरताव करने का अतिमानस का ढंग यह है कि उसे किसी अन्य युक्ति से नहीं वरन् अतिमानसिक विवेक की बढ़ती हुई स्वयंस्फूर्तता से तथा उसकी अपनी शक्ति की सतत वृद्धि के द्वारा दूर किया जाये । अतिमानस की चेतना वैश्व चेतना है और विराट् चेतना की इस सत्ता में ही, जिसमें व्यष्टि-रूप ज्ञाता निवास करता है और जिसके साथ वह कम या अधिक घनिष्ठ रूप से एकीभूत होता है, वह उसके सम्मुख ज्ञान के विषय को प्रस्तुत करती है ।
ज्ञाता अपने अवलोकन में एक साक्षी होता है और इससे ऐसा प्रतीत होगा कि यह सम्बन्ध एक अन्य-पन एवं भेद को सूचित करता है, किन्तु असली बात यह है कि यह कोई पूर्ण रूप से पृथक् करनेवाला भेद नहीं है, यह दृष्ट वस्तु के सम्बन्ध में उस विचार को स्थान नहीं देता जो उसे पूर्णतया अनात्मा मानकर द्रष्टा से बहिष्कृत कर देता है, जैसा कि किसी बाह्य पदार्थ के मानसिक अवलोकन में किया जाता है । अतिमानस में तो ज्ञात वस्तु के साथ एकत्व की मूलगत अनुभूति सदा ही बनी रहती है, क्योंकि इस एकत्व के बिना अतिमानसिक ज्ञान हो ही नहीं सकता । ज्ञाता अपने विषय को अपनी विश्वभावापन्न चिन्मय सत्ता में अपनी साक्षि-दृष्टि के केन्द्र-स्थान के सामने अवस्थित पदार्थ के रूप में धारण करता हुआ अपनी विशालतर सत्ता के अन्तर्गत कर लेता है । अतिमानसिक अवलोकन ऐसी वस्तुओं का अवलोकन होता है जिनके साथ हम अपनी सत्ता और चेतना में एकीभूत होते हैं और जिन्हें हम उस एकत्व के बल पर उसी प्रकार जानने में समर्थ होते हैं जिस प्रकार हम अपने-आपको जानते हैं : अवलोकन की क्रिया छुपे हुए ज्ञान को बाहर लाने की क्रिया है ।
इस प्रकार सर्वप्रथम, चेतना की एक मूलभूत एकता है जिसकी शक्ति अतिमानसिक स्तरों में हमारे जीवन-धारण, अनुभव और अवलोकन की प्रगति, उच्चता और गभीरता के अनुसार कम या अधिक होती है तथा इन्हींके अनुसार जो अपने अन्दर निहित ज्ञानसामग्री को कम या अधिक पूर्ण एवं तात्क्षणिक रूप से प्रकट करती है । इस मूलभूत एकता के परिणामस्वरूप ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सचेतन सम्बन्ध की एक धारा या सेतु स्थापित हो जाता है--हम रूपकों का प्रयोग करने को बाध्य होते हैं, भले वे रूपक कितने ही अपूर्ण क्यों न हों--और फिर उसके फलस्वरूप एक ऐसा सम्पर्क या सक्रिय मिलन स्थापित हो जाता है जो व्यक्ति को, पदार्थ में या उसके बारे में जो कुछ भी जानने योग्य है उसे अतिमानसिक रूप से देखने, अनुभव करने और जानने की सामर्थ्य प्रदान करता है । कभी-कभी सम्बन्ध की यह धारा या सेतु उस विशेष क्षण में सचेतन रूप से अनुभूत नहीं होता, केवल इस सम्बन्ध के परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं, पर वास्तव में यह सदा ही वहां विद्यमान होता है और यदि हम बाद में स्मरण करके देखें तो हमें
८७७
सदैव यह पता चल सकता है कि वास्तव में यह सेतु सारा समय वहां विद्यमान था : जैसे-जैसे हम अतिमानसिक अवस्था में विकसित होते हैं, वैसे-वैसे यह एक स्थायी तत्त्व बनता जाता है । जब यह आधारभूत एकता एक पूर्ण सक्रिय एकता बन जाती है तब सम्बन्ध की इस धारा या इस सेतु की आवश्यकता नहीं रहती । यह प्रक्रिया उस पद्धति का आधार है, जिसे पतञ्जलि संयम कहते हैं । संयम का अभिप्राय है एकाग्रता, चेतना का किसी एक ही विषय की ओर प्रेरण या उसकी उसमें निमग्रता । पतञ्जलि का कहना है कि संयम के द्वारा साधक किसी पदार्थ में जो कुछ भी है उस सबका ज्ञान प्राप्त कर सकता है । परन्तु जब सक्रिय एकत्व विकसित हो जाता है तब एकाग्रता की आवश्यकता बहुत कम हो जाती है या बिल्कुल ही नहीं रहती; ज्ञेय और उसके अन्तर्निहित तत्त्वों के सम्बन्ध में प्रकाशपूर्ण चेतना अधिक स्वयंस्फूर्त, सामान्य एवं सहजसाध्य हों जाती है ।
इस प्रकार के अतिमानसिक अवलोकन की क्रिया तीन प्रकार की हो सकती है । प्रथम, ज्ञाता अपने-आपको अपनी चेतना में ज्ञेय पदार्थ पर प्रक्षिप्त कर सकता है, यह अनुभव कर सकता है कि उसकी बोधशक्ति पदार्थ का स्पर्श कर रही है अथवा इसे चारों ओर से आच्छादित कर रही है या इसमें पैठ रही है और वहां, मानों स्वयं पदार्थ में ही, वह ज्ञातव्य तथ्यों को जान सकता है । अथवा, वह ज्ञेय के साथ चेतना के संस्पर्श के द्वारा, जो कुछ ज्ञेय में है या उससे सम्बनन्ध रखता है उस सबको जान सकता है, उदाहरणार्थ, किसी अरे व्यक्ति के विचार या वेदन को; वह अनुभव करता है कि ज्ञेयगत ये सभी चीजें ज्ञेय से आ रहा हैं और उसके अन्दर वहां प्रवेश कर रही हैं जहां वह अपनी साक्षी की भूमिका में स्थित है । अथवा वह, किसी ऐसे प्रक्षेप या प्रवेश के बिना, अपनी साक्षि-स्थिति में केवल एक प्रकार के अतिमानसिक बोध के द्वारा अपने अन्दर ज्ञेय को जान सकता है । अवलोकन का आरम्भ-बिन्दु एवं प्रत्यक्ष आधार स्थूल या किन्हीं अन्य इन्द्रियों के सम्मुख पदार्थ की उपस्थिति-मात्र हो सकता है, पर अतिमानस के लिये स्थूल पदार्थ की ऐसी उपस्थिति अनिवार्य नहीं है । वहां इसके स्थान पर पदार्थ की आन्तरिक प्रतिमा या केवल उसका विचार ही आरम्भ-बिन्दु या आधार का काम कर सकता है । ज्ञाता की जानने की इच्छामात्र या, सम्भव है कि, ज्ञेय पदार्थ की ज्ञात होने की या अपना ज्ञान प्रदान करने की इच्छामात्र, अतिमानसिक चेतना के समक्ष अपेक्षित ज्ञान ला सकती है ।
तार्किक बुद्धि विश्लेषणात्मक निरीक्षण एवं संश्लेषणात्मक निर्माण की जिस श्रमसिद्ध प्रक्रिया का अवलम्बन करती है वह अतिमानस की पद्धति नहीं है और फिर भी अतिमानस एक इससे मिलती-जुलती क्रिया करता है । वह एक प्रत्यक्ष अवलोकन के द्वारा वस्तु के विशेष व्योरों अर्थात् इसके रूप, शक्ति-सामर्थ्य, व्यापार, गुण, मन और आत्मा को, जो उसकी दृष्टि में होते हैं, पृथक्-पृथक् जान
८७८
लेता है, इसके लिये उसे वस्तु को खण्ड-खण्ड करने की किसी मानसिक प्रक्रिया का आश्रय नहीं लेना पड़ता । साथ ही, वह उस अर्थपूर्ण समग्र वस्तु को भी, ये विशेष व्योरे जिसके गौण अङ्गमात्र होते हैं, उतनी ही प्रत्यक्षता के साथ तथा समन्वयात्मक रचना की किसी प्रक्रिया के बिना ही देखता है । स्वयं वस्तु के स्वभाव को भी वह देखता है । किसी पदार्थ की समग्रता (समग्र स्वरूप) तथा उसकी विशिष्टताएं उसके स्वभाव की ही अभिव्यक्ति होती हैं । और फिर, इस स्वभाव के पृथक् रूप में हो या इसके द्वारा, वह उस एकमेव आत्मा को उस एकमेव सत्ता, चेतना, शक्ति एवं तपस् को भी देखता है जिसमें से यह एक आधारभूत तत्त्व के रूप में प्रकट होता है । हो सकता है कि किसी विशेष समय में वह किसी पदार्थ की विशिष्टताओं का ही अवलोकन कर रहा हो, पर उस समय पदार्थ की समग्रता भी उस अवलोकन में गर्भित रहती है, और इसी प्रकार समग्रता के अवलोकन के समय विशिष्टताएं गर्भित रहती हैं, --उदाहरणार्थ, यदि किसीके मन में से एक विचार या वेदन उत्पन्न हो तो उस विचार या वेदन के ज्ञान के साथ वह उसके मन की समग्र अवस्था को भी जान सकता है । अपिच, अतिमानस की बोध-शक्ति समग्रता और विशिष्टता में से किसी एक से अपना कार्य आरम्भ कर सकती है और फिर एक अविलम्ब निर्देश के द्वारा तुरंत ही गर्भित ज्ञान की ओर अग्रसर हो सकती है । इसी प्रकार स्वभाव पदार्थ के समग्र स्वरूप में और उसकी प्रत्येक या सभी विशिष्टताओं में अन्तर्निहित रहता है और यहां भी वही प्रक्रियाएं विकल्प से या बारी-बारी से तथा द्रुत वेग से या तत्क्षण हो सकती हैं । अतिमानस का तर्क मन के तर्क से भिन्न है : वह सदा-सर्वत्र आत्मा को ही एक सत् पदार्थ के रूप में देखता है, पदार्थ के स्वभाव को आत्मा की सत्ता और शक्ति की एक आधारभूत अभिव्यक्ति के रूप में तथा पदार्थ के समग्र स्वरूप एवं विशिष्ट गुणों को इस शक्ति के एक परिणामभूत आविर्भाव तथा इसकी एक सक्रिय अभिव्यक्ति के रूप में देखता है । अतिमानसिक चेतना और ज्ञान-शक्ति की पूर्ण-विकसित अवस्था में यही स्थायी विधान होता है । अतिमानसिक बुद्धि एकता, सदृशता, विषमता, जाति और विशिष्टता का जो भी ज्ञान प्राप्त करती है वह सब इस विधान के साथ समस्वर होता है तथा इसपर निर्भर करता है ।
अतिमानस की यह अवलोकन-क्रिया सब पदार्थों पर प्रयुक्त होती है । उसका स्थूल पदार्थों का अवलोकन, जब बाह्य व्योरों पर एकाग्र होता है तब भी, केवल एक उपरितलीय या बाह्य अवलोकन नहीं होता ओर न हो ही सकता है । वह पदार्थ के आकार, व्यापार और विशेष धर्मों को देखता है, पर इनके साथ ही वह उन गुणों या शक्तियों को भी जानता है जिनका कि वह आकार एक रूपान्तर होता है और उन्हें वह आकार या व्यापार के आधार पर अनुमान या उपपादन करके नहीं देखता, बल्कि सीधे पदार्थ की सत्ता में ही तथा बिल्कुल उतने ही स्पष्ट रूप से
८७९
अनुभव करता और देखता है जितने स्पष्ट रूप से कि आकार या गोचर व्यापार को, --हम यह भी कह सकते हैं कि उन्हें वह एक सूक्ष्म मूर्तता एवं सूक्ष्म वास्तविकता के साथ अनुभव करता है । वह उस चेतना को भी जानता है जो अपने-आपको गुण, शक्ति एवं रूप में प्रकट करती है । जो शक्तियां, प्रवृत्तियां, प्रेरणाएं और वस्तुएं हमारे लिये अमूर्त हैं उन्हें वह बिल्कुल उन पदार्थों की तरह ही, जिन्हें हम आज प्रत्यक्ष एवं गोचर कहते हैं, अपरोक्ष और स्पष्ट रूप में अनुभव कर सकता एवं जान सकता है तथा देख सकता एवं साक्षात् कर सकता है । व्यक्तियों और समस्त सत्ताओं को भी वह ठीक इसी प्रकार से, प्रत्यक्ष रूप में, देखता है । किसी व्यक्ति या सत्ता का ज्ञान प्राप्त करने के लिये वह उसकी वाणी, क्रिया एवं बाह्य चिह्नों को अपने आरम्भबिन्दु या प्रथम संकेत के रूप में अपना सकता है, पर वह उनके द्वारा सीमित या उनके अधीन नहीं हो जाता । वह दूसरे की ठेठ आत्मा एवं चेतना को जान सकता, अनुभव कर सकता और देख सकता है, वह या तो किसी चिह्न के द्वारा सीधे उसकी ओर अग्रसर हों सकता है या अपनी अधिक शक्तिशाली क्रिया में आत्मा एवं चेतना से ही आरम्भ कर सकता है और, बाह्य अभिव्यक्ति की साक्षी के द्वारा अन्तःसत्ता को जानने की चेष्टा करने के स्थान पर, अन्तःसत्ता के प्रकाश में समस्त बाह्य अभिव्यक्ति को तुरत समझ सकता है । अतिमानसिक (विज्ञानमय) जीव अपनी आन्तरिक सत्ता और प्रकृति को भी ठीक इसी प्रकार जानता है । भौतिक व्यवस्था के पीछे जो कुछ छुपा है उसपर भी अतिमानस इतनी ही शक्ति के साथ कार्य कर सकता है और उसे भी वह सीधे अनुभव के द्वारा साक्षात् देख सकता है; वह जड़ जगत् से इतर स्तरों में भी विचरण कर सकता है । वह वस्तुओं की आत्मा एवं वास्तविक सत्ता को तादात्म्य के द्वारा, एकत्व के अनुभव या संस्पर्श के द्वारा तथा एक अन्तर्दर्शन, अर्थात् साक्षात्कार एवं उपलब्धि करानेवाले विचार एवं ज्ञान, के द्वारा जानता है जो इन वस्तुओं पर निर्भर करते हैं या इनसे उद्भूत होते हैं, और आत्मा के सत्यों के विषय में उसका विचारात्मक निरूपण इस प्रकार की दृष्टि और अनुभूति की अभिव्यक्ति-रूप होता है ।
अतिमानसिक स्मरणशक्ति मानसिक स्मरणशक्ति से भिन्न है, वह अतीत ज्ञान और अनुभव का संग्रह नहीं बल्कि ज्ञान की एक स्थायी उपस्थिति है जिसे सामने लाया जा सकता है या जो, अपने अधिक लाक्षणिक रूप में आवश्यकता होने पर अपने-आपको स्वयं ही प्रस्तुत कर देती है । वह ध्यान देने या सचेतन रूप से ग्रहण करने के ऊपर निर्भर नहीं करती, क्योंकि अतीत की जो वस्तुएं व्यक्ति को वस्तुतः ज्ञात नहीं होतीं या जो उसने नहीं देखी होतीं उन्हें भी एक विशेष क्रिया के द्वारा निगढ़ावस्था से ऊपरी तल पर लाया जा सकता है । यह क्रिया (स्मरणात्मक न होने पर भी) मूलतः एक स्मृति ही होती है । विशेषकर, एक विशेष स्तर पर समस्त ज्ञान
८८०
अपने-आपको स्मरण के रूप में ही हमारे सामने प्रस्तुत करता है, क्योंकि सभी कुछ अतिमानस की सत्ता के अन्दर प्रसुप्त या सहजात रूप में विद्यमान है । भूत की तरह भविष्य भी अपने-आपको अतिमानस के ज्ञान के समक्ष पूर्व-ज्ञात की स्मृति के रूप में प्रस्तुत करता है । कल्पनाशक्ति, अतिमानस में रूपान्तरित होकर, एक ओर तो सच्चे प्रतिरूप एवं प्रतीक का निर्माण करनेवाली शक्ति के रूप में कार्य करती है, यह प्रतिरूप या प्रतीक सदा ही सत्ता के किसी मूल्य या गूढ़ार्थ या किसी अन्य सत्य को प्रकट करता है । दूसरी ओर, अतिमानसिक कल्पनाशक्ति उन सम्भावनाओं एवं शक्यताओं की अन्तःप्रेरणा देने या उनका अर्थबोधक साक्षात्कार करानेवाली शक्ति के रूप में कार्य करती है जो यथार्थ या सिद्ध वस्तुओं से कम वास्तविक नहीं होतीं । इन सम्भावनाओं एवं शक्यताओं को इनके साथ रहनेवाली एक अन्तर्ज्ञानमय या अर्थ-प्रकाशक विवेकशक्ति अथवा प्रतिमा, प्रतीक या शक्यता के अन्तर्दर्शन में अन्तर्निहित विवेकशक्ति इनके अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करती है । या फिर जो तत्त्व प्रतिमा या प्रतीक के पीछे अवस्थित है या जो शक्य एवं यथार्थ का तथा उनके सम्बन्धों का निर्धारण करता है और, सम्भवतः, उन्हें पादाक्रान्त एवं अतिक्रम करके चरम सत्यों तथा परम ध्रुवताओं की स्थापना करता है उसका परमोच्च साक्षात्कार इन सब सम्भावनाओं को यथास्थान स्थापित कर देता है ।
अतिमानसिक विवेकशक्ति अतिमानसिक अवलोकन-शक्ति या स्मरणशक्ति से अपृथक् रहकर कार्य करती है, वह मूल्यों, गूढ़ार्थों, कारणों, परिणामों, सम्बन्धों आदि के प्रत्यक्ष दर्शन या ज्ञान के रूप में उसके अन्दर रहती हुई कार्य करती है; अथवा वह अवलोकन के ऊपर एक अतिरिक्त प्रकाशपूर्ण एवं अनावरक विचार या सुझाव के रूप में आ उपस्थित होती है; या फिर वह किसी भी अवलोकन से स्वतन्त्र रूप में, उससे पहले ही आ सकती है, और उसके बाद हमें पदार्थ का स्मरण आता है तथा हम उसका अवलोकन करते हैं और तब वह पदार्थ हमारे विचार के सत्य को प्रत्यक्ष रूप से पुष्ट करता है । परन्तु इनमें से हर एक अवस्था में वह अपने कार्य के लिये अकेली ही पर्याप्त होती है, वह अपना प्रमाण आप ही होती है तथा वास्तव में अपने सत्य के लिये वह किसी भी प्रकार की बाहरी सहायता या पुष्टि पर निर्भर नहीं करती । अतिमानसिक बुद्धि का भी अपना एक प्रकार का तर्क है, पर उसका कार्य परीक्षा या छानबीन करना, पुष्ट एवं प्रमाणित करना या भूल को ढूंढ़ निकालना और दूर करना नहीं हीं । उसका कार्य तो बस ज्ञान को ज्ञान से जोड़ना, सामंजस्यों को और व्यवस्था एवं सम्बन्धों को खोजना और उपयोग में लाना है तथा अतिमानसिक ज्ञान की क्रिया को व्यवस्थित करना है । यह कार्य वह किसी रूढ़ नियम या अनुमान-रचना के द्वारा नहीं करता बल्कि शृंखला और सम्बन्ध को सीधे, जीवन्त और प्रत्यक्ष रूप में देखकर तथा स्थापित करके करता है । अतिमानस में समस्त विचार अन्तर्ज्ञान, अन्तःप्रेरणा या साक्षात्कार के ढंग
८८१
का होता है और ज्ञान की सारी कमी इन्हीं शक्तियों की और आगे की क्रिया से पूरी करनी होती है; भूल का निवारण एक सहजस्फूर्त एवं प्रकाशमय विवेक की क्रिया के द्वारा किया जाता है; वहां गति सदा ज्ञान से ज्ञान की ओर ही होती है । वह हमारी मानवीय परिभाषा में बौद्धिक नहीं है, बल्कि अतिबौद्धिक है, --जिस कार्य को मनोमय बुद्धि के द्वारा स्खलनशील एवं अपूर्ण रूप से करने की चेष्टा की जाती है उसे वह प्रभुत्वपूर्ण ढंग से करता है ।
विज्ञानमय बुद्धि के ऊपर ज्ञान के जो स्तर हैं, जो उसे ऊपर उठाकर अतिक्रम कर जाते हैं, उनका सम्यक् वर्णन करना सम्भव नहीं । यहां उनके वर्णन का प्रयास करने की आवश्यकता भी नहीं है । इतना कहना ही पर्याप्त है कि इन भूमिकाओं में ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया अपनी ज्योति में अपेक्षाकृत अधिक स्वयं-पूर्ण, गभीर और विशाल है, साथ ही वह अटल है और क्षणमात्र में सम्पन्न हो जाती है । इनमें सक्रिय ज्ञान का क्षेत्र अधिक विशाल है, इनकी पद्धति तादात्म्यलभ्य ज्ञान के अधिक निकट है, इनमें जो विचार उद्भूत होता है वह आत्मचैतन्य और सर्व-दृष्टि के ज्योतिर्मय तत्त्व से अधिक ठसाठस भरा होता है और निम्न कोटि के किसी अन्य आश्रय या सहायता से, अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट रूप में, स्वतन्त्र होता है ।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि ये लक्षण अन्तर्ज्ञानात्मक मन की तीव्रतम क्रिया पर भी पूरी तरह से नहीं घटते, बल्कि वहां ये अपनी आरम्भिक झांकियों में ही दिखायी देते हैं । जबतक अतिमानसिक सत्ता केवल निर्माण की प्रक्रिया में होती है और उसके नीचे मानसिक क्रिया की धारा बह रही होती है या वह उसके साथ मिली या उससे घिरी रहती है तबतक ये लक्षण पूर्ण या विशुद्ध रूप से प्रकट हो भी नहीं सकते । जब मानसिक सत्ता का अतिक्रमण हो जाता है और वह निष्क्रिय-नीरवता में डूब जाती है तभी अतिमानसिक विज्ञान पूर्णतया अनावृत होकर अपनी प्रभुत्वपूर्ण और सर्वांगीण क्रिया कर सकता है ।
८८२
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.