Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २२
अतिमानसिक विचारशक्ति और ज्ञान
मन सें अतिमानस मे संक्रमण करने का अर्थ मन के स्थान पर विचार और ज्ञान के एक महत्तर करण को प्रतिष्ठित करना नहीं बल्कि समुर्ण चेतना को परिवर्तित और रूपान्तरित करना ३ । अतिमानस के विकास सें अतिमानसिक विचार ही नहीं, अतिमानसिक संकल्प, इन्द्रियानुभव और भाव भी अभिव्यक्त हों जाते हैं; कि बक्का, जो-जो क्रियाएं आज मन के द्वारा सम्पन्न की जाती हैं उन सबके स्थान पर अनुरूप अतिमानसिक क्रियाएं विकसित हों जाती हैं । ये सब उच्चतर क्रियाएं पहले स्वयं मन मे एक महत्तर शक्ति के अवतरणों, प्रस्कुटनों, सन्देशों या दिव्य दर्शनों के रूप मे अभिव्यक्त होती हैं । प्रायः यह मन की अधिक साधारण क्रियाओं के साथ मिली होती हैं और हमारी आरम्भिक अनुभवहीन दशा मे इनकी उच्चतर ज्योति, शक्ति और आनन्द के सिवा और किसी भी चिह्न के द्वारा मन की क्रियाओं से इनका भेद करना आसान नहीं होता । जब मन इनके पुन: -पुन: प्रादुर्भाव से महान् बनकर या उद्दीप्त होकर अपनी क्रिया का वेग बढ़ा देता है और अतिमानसिक क्रिया के बाह्य गुणों का अनुकरण करता है तब तो इन्हें मानसिक क्रिया से पृथक् रूप मे पहचानना और भी कठिन होता ३ : तब मन की अपनी क्रिया अधिक वेगवती, प्रकाशपूर्ण, प्रबल और निश्चयात्मिका बन जाती ३ और वह एक प्रकार का अनुकरणात्मक अन्तर्ज्ञान भी प्राप्त करता ३ जो प्रायः ही मिथ्या होता है तथा ज्योतिर्मय, साक्षात् एवं स्वयम्पू सत्य बनने का यत्न करता ३ पर वास्तव मे बन नहीं पाता । इससे अगला कदम है-अन्तर्ज्ञानमय अनुभव, विचार, संकल्प, वेदना और इन्द्रियानुभव सें युक्त एक ऐसे ज्योतिर्मय मन का निर्माण जिसमें से कि छतर मन और अनुकरणात्मक अन्तर्ज्ञान का मिश्रण उत्तरोत्तर बाहर निकाल दिया जाये : यह शुद्धि की प्रक्रिया है जो नयी रचना और सिद्धि के लिये आवश्यक ३ । इसके साथ ही मन के ऊपर अन्तर्ज्ञानात्मक क्रिया का फ्ल स्रोत उसुक्त हो जाता ३ और एक सच्ची अतिमानसिक चेतना, जो मन मे नहीं वरन् अपने हीं उच्चतर स्तर पर क्रिया करती ३, अधिकाधिक व्यवस्थित ढंग सें अपना कार्य करने लगती है । अन्त मे यह अन्तर्ज्ञानमय मन को, जिसे इसने अपने प्रतिनिधि के रूप मे रचा ३, अपने अन्दर समेट लेती ३ और चेतना के सम्पूर्ण कार्य का भार अपने हाथ मे ले लेती ३ । यह प्रक्रिया क्रमश: आगे बढ्ती जाती ३, दीर्घकालतक यह कतर क्रिया के मिश्रण के कारण चितकबरी बनीं रहती ३ और साधक को निम्नतर क्रियाओं का सुधार और रूपान्तर करने के लिये उनकी ओर लौटने की आवश्यकता पड़ती है । कभी-कभी उच्चतर और निम्नतर शक्तियां बारी-बारी से कार्य करती हैं, चेतना
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जिन ऊचाइयोंतक पहुंच चुकी होती है उनसे उतरकर फिर अपने पहले स्तर पर आ जाती है पर सदा ही पहले से कुछ बदली हुई होती है, --किन्तु कभी-कभी ये दोनों मिलकर एक प्रकार के पारस्परिक विचार-परामर्श के साथ कार्य करती हैं । अन्त में मन पूर्ण रूप से अन्तर्ज्ञानमय बन जाता है और अतिमानसिक क्रिया की एक निष्क्रिय प्रणालिका मात्र रह जाता है । पर यह अवस्था भी आदर्श नहीं है और साथ ही, अबतक भी यह एक प्रकार की कठिनाई उपस्थित करती है, क्योंकि उच्चतर क्रिया को अबतक भी एक बाधक और ह्रासजनक चेतन तत्त्व में स गुजरना पड़ता है, -वह तत्त्व है भौतिक चेतना का तत्त्व । अतः रूपान्तर की अन्तिम अवस्था तब आयेगी जब अतिमानस हमारी सम्पूर्ण सत्ता को अपने अधिकार में लाकर अतिमानसिक बना देगा और प्राणमय तथा अन्नमय कोषों को भी अपने सांचों में ढालकर प्रत्युत्तरशील एवं सूक्ष्म बना देगा तथा अपनी शक्तियों से परिपूरित भी कर देगा । तब मानव पूर्ण रूप से अतिमानव बन जायेगा । कम-से-कम, रूपान्तर की स्वाभाविक एवं सर्वांगीण प्रणाली यही है ।
अतिमानस के सम्पूर्ण स्वरूप का यथावत् निरूपण करने जैसे किसी कार्य के लिये प्रयत्न करना अपनी वर्तमान सीमाओं से सर्वथा बाहर जाना होगा; अपिच, उसका पूर्ण निरूपण करना भी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि अतिमानस अपने अन्दर अनन्त की एकता को ही नहीं वरन् उसकी विशालता तथा नानाविध अनेकता को भी धारण करता है । इस समय इतना ही करना आवश्यक है कि यौगिक रूपान्तर की यथार्थ प्रक्रिया के दृष्टिकोण से उसके कुछ प्रमुख लक्षणों का वर्णन कर दिया जाये और मन के कार्य के साथ उसका सम्बन्ध तथा रूपान्तर के कुछ एक दृग्विषयों का सिद्धान्त भी प्रतिपादित कर दिया जाये । मन के साथ उसका मूलभूत सम्बन्ध यह है कि मन का समस्त कार्य गुप्त अतिमानस से उद्भूत होता है, यद्यपि जबतक हम अपनी उच्चतर आत्मा को नहीं जान लेते तबतक हमें इस तथ्य का पता नहीं चलता । मन के कार्य में जो कुछ भी सत्य और मूल्यवान् है उस सबको वह अपने इसी उद्गम से ग्रहण करता है । हमारे सभी विचारों, संकल्पों, भावों और ऐन्द्रिय बोधों में या उनके मूल में सत्य का कुछ अंश होता है, जो उनकी सत्ता का उद्गम और धारक होता है, भले ही वे अपने प्रत्यक्ष तात्कालिक स्वरूप में विकृत या मिथ्या ही क्यों न हों । उनके पीछे एक और भी महान् सत्य होता है जो उनकी पकड़ में नहीं आया होता । यदि वे उसे पकड़ में ला सकें तो वह उन्हें शीघ्र ही एकीकृत, समस्वर तथा कम-से-कम अपेक्षाकृत पूर्ण बना देगा । पर, वास्तव में, उनमें सत्य का जो अंश रहता है उसका क्षेत्र संकुचित हो जाता है, वह पतित होकर एक निम्नतर गति का रूप धारण कर लेता है, विखण्डन के द्वारा विभक्त होकर असत्य बन जाता है, अपूर्णता से उत्पीड़ित तथा विकृति के द्वारा क्षत-विक्षत हो जाता है । मानसिक ज्ञान समग्र नहीं बल्कि सदा ही आंशिक होता
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है । वह (मन) निरन्तर एक व्योरे में दूसरे व्योरे को जोड़ता रहता है, पर उन सबको एक-दूसरे के साथ ठीक प्रकार से सम्बद्ध करने में उसे कठिनाई पड़ती है; उसके बनाये हुए अखण्ड अवयवी वास्तविक नहीं बल्कि अपूर्ण अवयवी होते हैं जिन्हें वह अधिक वास्तविक एवं समग्र ज्ञान का स्थान देने की प्रवृत्ति रखता है । चाहे वह एक प्रकार के समग्र ज्ञान पर पहुंच भी जाये, तो भी वह खण्डों को एक प्रकार से एकत्र करके, मन और बुद्धि के द्वारा क्रमबद्ध करके अर्थात् एक प्रकार की कृत्रिम एकता के द्वारा ही उसपर पहुंचता है, न कि सारभूत और वास्तविक एकता के द्वारा । यदि इतनी ही बात होती तो भी यह कल्पना की जा सकती थी कि मन समग्र ज्ञान के किसी प्रकार के अर्द्ध-प्रतिबिम्ब एवं अर्द्ध-अनुवाद पर पहुंच सकता है, पर फिर भी उसमें मूल दोष यह रहेगा कि वह प्रतिबिम्ब या अनुवाद वास्तविक वस्तु नहीं होगा, बल्कि, अपने सर्वोत्तम रूप में भी, वह एक बौद्धिक प्रतिरूपमात्र होगा । मानसिक सत्य सदा ही ऐसा होता है, सत्य का एक बौद्धिक, भावमय एवं साम्वेदनिक प्रतिरूप, न कि अपरोक्ष सत्य या अपने शरीर और तात्त्विक रूप में विद्यमान साक्षात् सत्य ।
मन जो भी कार्य करता है वह सब अतिमानस कर सकता है, अर्थात् वह व्योरों तथा उन तथ्यों का, जिन्हें हम सत्य के पक्ष या गौण अवयवी कह सकते हैं, निरूपण और संयोजन कर सकता है, पर यह कार्य वह मन की अपेक्षा भिन्न प्रकार से तथा भिन्न आधार पर करता है । वह मन की भांति सत्य में विच्युति, मिथ्या विस्तार तथा आरोपित भ्रान्ति का तत्त्व नहीं लाता, पर जब वह आंशिक ज्ञान प्रदान करता है तब भी वह इसे स्थिर और यथार्थ ज्योति के द्वारा प्रदान करता है, और इसके पीछे वह तात्त्विक सत्य, जिसपर ज्ञान के व्योरे और गौण अवयवी या पक्ष आश्रित होते हैं, सदा विद्यमान रहता है, भले वह चेतना के प्रति प्रकट हो या अप्रकट । अतिमानस में निरूपण करने की शक्ति भी है, पर उसके निरूपण बौद्धिक ढंग के नहीं होते, वे तात्त्विक सत्य की ज्योति के रूप और सारतत्त्व से परिपूर्ण होते हैं, वे उसके वाहन होते हैं न कि स्थानापन्न प्रतिरूप । अतिमानस में इस प्रकार की असीम निरूपण-शक्ति है और वह एक दिव्य शक्ति है; मन की क्रिया उस (शक्ति) का एक प्रकार का हीन प्रतिनिधि है । अतिमानस की यह निरूपण शक्ति उस बुद्धि में, जिसे मैंने अतिमानसिक बुद्धि का नाम दिया है, और जो मनोमय बुद्धि के निकटतम है, तथा जिसमें मनोमय बुद्धि को अत्यन्त सुगमता से उन्नीत किया जा सकता है, एक निम्न क्रिया करती है, और समग्र अतिमानस में, जो सभी वस्तुओं को दिव्य चेतना और स्वयम्भू सत्ता की एकता और अनन्तता में देखता है, यह एक उच्चतर क्रिया करती है । किन्तु किसी भी स्तर पर क्यों न हो, इसकी क्रिया स्व-सदृश मानसिक क्रिया से भिन्न होती है, वह अपरोक्ष, ज्योतिर्मय तथा सुरक्षित होती है । मन की सम्पूर्ण निम्न क्रिया का मूल कारण यह है कि वह
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अन्तरात्मा की उस अवस्था की क्रिया है जब वह निर्ज्ञान और अज्ञान में पतित हो चुकी होती है और आत्मज्ञान की ओर लौटने का यत्न कर रही होती है, पर इसके लिये वह अभी निर्ज्ञान और अज्ञान के आधार पर ही यत्नशील होती है । मन अज्ञान का एक करण है जो ज्ञान पाने की चेष्टा कर रहा है अथवा जिसे एक गौण प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है : वह अविद्या की एक क्रिया है । अतिमानस सदा ही सहजात एवं स्वयम्भू ज्ञान का आविर्भावस्वरूप होता है; वह विद्या की क्रिया है ।
मन और अतिमानस में जो दूसरा भेद हम अनुभव करते हैं वह यह है कि अतिमानस में एक महत्तर एवं स्वयं-स्फूर्त समस्वरता और एकता विद्यमान है । समस्त चेतना एकात्मक है, पर क्रिया में वह अनेक गतिविधियों को अपनाती है और इन मूल गतिविधियों में से प्रत्येक के अनेक रूप और प्रक्रियाएं होती हैं । मनोमय चेतना के रूपों और प्रक्रियाओं का विशेष लक्षण होता है मानसिक शक्तियों और गतियों का एक ऐसा विभाजन एवं पार्थक्य जो हमारे अन्दर क्षोभ और व्याकुलता उत्पन्न करता है । इन मानसिक शक्तियों एवं गतियों मे सचेतन मन की मूल एकता या तो बिलकुल ही नहीं प्रकट होती या फिर वह विच्छिन्न रूप में ही प्रकट होती है । हम अपने मन में विभिन्न विचारों के बीच निरन्तर ही एक संघर्ष या अस्तव्यस्तता एवं असंगति पाते हैं अथवा यदि उनमें कोई संगति हुई भी तो वह टूटी-फूटी-सी होती है । हमारी संकल्पशक्ति और कामना की नाना चेष्टाओं तथा हमारे भावावेशों और वेदनों पर भी यही बात लागू होती है । अपिच, हमारा विचार, संकल्प और वेदन एक-दूसरे के साथ स्वाभाविक समस्वरता और एकता की स्थिति में नहीं हैं, बल्कि जब उन्हें मिलकर कार्य करना होता है तब भी वे अपनी पृथक्-पृथक् शक्ति के द्वारा कार्य करते हैं, बहुधा ही परस्पर संघर्ष करते हैं अथवा कुछ अंश में एक-दूसरे का विरोध करते हैं । दूसरे की बलि चढ़ाकर एक का असम विकास भी देखने में आता है । मन विरोधों की बनी वस्तु है जिसमें जीवन के कार्यों के लिये एक सन्तोषजनक समस्वरता तो नहीं, वरन् एक प्रकार की क्रियात्मक व्यवस्था स्थापित की जाती है । बुद्धि एक अधिक अच्छी व्यवस्था पर पहुंचने का यत्न करती है, अधिक उत्तम नियन्त्रण एवं तर्कसंगत या आदर्श सामंजस्य को अपना लक्ष्य बनाती है । इस प्रयत्न में वह अतिमानस का एक प्रतिनिधि या स्थानापन्न है और वह कार्य करने की चेष्टा कर रही है जिसे केवल अतिमानस ही अपने निज अधिकार के साथ कर सकता है : पर वास्तव में वह शेष सारी सत्ता पर पूरी तरह काबू नहीं पा सकती और हम अपने विचारों में जो तर्कमूलक या आदर्श सामंजस्य उत्पन्न करते हैं उसमें तथा जीवन की गतिविधि में सामान्यतया अत्यधिक भेद होता है । बुद्धि की रची हुई उत्तम-से-उत्तम व्यवस्था में भी कृत्रिमता और आरोपण का कुछ अंश सदा ही रहता है, क्योंकि अन्तत: साहजिक समस्वर गतियां तो केवल दो ही हैं, एक तो है निश्चेतन या अधिकांशतः अवचेतन जीवन
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की समस्वरता जिसे हम निश्चेतन या अवचेतन प्राणियों की सृष्टि में एवं निम्न प्रकृति में पाते हैं, और दूसरी है आत्मा की समस्वरता । मानव की अवस्था इन दोनों समस्वरताओं के बीच की, प्राकृतिक और आदर्श या आध्यात्मिक जीवन के बीच की, एक संक्रमण, प्रयत्न और अपूर्णता की अवस्था है और यह अनिश्चित जिज्ञासा एवं अव्यवस्था से पूर्ण है। यह नहीं कि मनुष्य किसी प्रकार की अपनी निजी सापेक्ष समस्वरता प्राप्त किंवा निर्मित नहीं कर सकता, पर हां, वह इसे स्थायी नहीं बना सकता, क्योंकि उसपर आत्मा का दबाव पड़ता रहता है । मनुष्य के अन्दर अवस्थित एक शक्ति उसे बाधित करती है कि वह एक न्यूनाधिक सचेतन आत्म-विकास के लिये प्रयास करे जो उसे आत्म-प्रभुत्व एवं आत्मज्ञान प्राप्त करायेगा ।
इसके विपरीत, अतिमानस अपने कार्य की दृष्टि से एक ऐसी शक्ति है जो एकता, समस्वरता और सहजात व्यवस्था से युक्त है । मन पर जब पहले-पहल ऊपर से दबाव पड़ता है तो वह अनुभव में नहीं आता, यहांतक कि कुछ समय के लिये एक विपरीत दृग्विषय भीं सामने आ सकता है । इसके कई कारण होते हैं । प्रथम, निम्न चेतना पर जब एक महत्तर एवं अपरिमेय-सी शक्ति का प्रभाव पड़ता है तो उसके कारण एक बड़बड़ी, यहांतक कि उन्माद भी उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि निम्न चेतना उस महत्तर शक्ति को सजीव रूप से प्रत्युत्तर देने में, यहांतक कि शायद उसका दबाव सहने में भी समर्थ नहीं होती । जब दो सर्वथा विभिन्न शक्तियां एक ही समय, किन्तु बिना मेल-मिलाप के अपना-अपना कार्य कर रही हों तब विशेषकर यदि मन अपनी पद्धति पर अड़ा रहे, यदि वह अपने-आपको अतिमानस तथा उसके उद्देश्य के प्रति अर्पित करने के बजाय उससे लाभ उठाने के लिये जोर-जबर्दस्ती के साथ या हठपूर्वक चेष्टा करे, यदि वह उच्चतर मार्गदर्शन के प्रति पर्याप्त निष्क्रिय एवं आज्ञापालक न हो तो इस अवस्था के परिणामस्वरूप मनोमय शक्ति अत्यधिक उद्दीप्त हो सकती है, पर साथ ही अव्यवस्था भी बहुत बढ़ सकतीं है । इसी कारण पूर्व तैयारी और दीर्घकालीन शुद्धि, --ये जितनी अधिक पूर्ण हों उतना ही अच्छा-तथा स्थिरता और दृढ़ता के साथ आत्मा की ओर खुले हुए मन की प्रशान्तता एवं साधारणत: उसकी निष्क्रियता, ये सब योग के अनिवार्य साधन हैं ।
अपिच, मन, सीमाओं के भीतर कार्य करने का आदि होने के कारण, अपनी शक्तियों में से किसी एक की दिशा में अपने-आपको विज्ञानमय बनाने का यत्न कर सकता है । वह बोधिमय अर्द्ध-अतिमानसीकृत विचार और ज्ञान की प्रचुर शक्ति विकसित कर सकता है, पर संकल्पशक्ति चिन्तनात्मक मन के इस आंशिक अर्द्ध-अतिमानसिक विकास के साथ असमस्वरित एवं अरूपान्तरित ही रह सकती है, और शेष सत्ता अर्थात् भाव-प्रधान तथा स्नायविक सत्ता भी पहले जैसी या
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उससे भी अधिक असंस्कृत बनी रह सकती है । अथवा सम्भव है कि बोधिमय या तीव्रतया अनुप्रेरित संकल्पशक्ति तो अत्यधिक विकसित हो जाये, पर उसके अनुरूप चिन्तनात्मक मन या भावप्रधान एवं चैत्य सत्ता का आरोहण सम्पन्न न हो, या फिर, संकल्प-क्रिया पूरी तरह से रुक ही न जाये इसके लिये जितना आरोहण विशेष रूप से आवश्यक है, अधिक-से-अधिक उतना ही सम्पन्न हो । भाव-प्रधान या चैत्य मन अपने-आपको बोधिमय एवं विज्ञानमय बनाने का यत्न कर सकता है और बहुत हदतक इसमें सफल भी हो सकता है, किन्तु फिर भी चिन्तनात्मक मन साधारण बना रह सकता है, उसकी विचार-सामग्री क्षुद्र और उसका प्रकाश धूमिल रह सकता है । नैतिक या सौन्दर्यात्मक क्ला में अन्तर्ज्ञान का विकास हो सकता है, पर शेष सारी सत्ता बहुत कुछ पहले जैसी ही बनी रह सकती है । यही कारण है कि हमें प्रतिभाशाली मनुष्य में, कवि, कलाकार, विचारक, सन्त या गुह्यवादी में, बहुधा ही एक प्रकार की अस्तव्यस्तता या एकांगिता दिखायी देती है । जो मन कुछ अंश में ही बोधिमय बना है उसमें, उसकी विशेष क्रिया के क्षेत्र को छोड़कर, अत्यन्त विकसित बौद्धिक मन की अपेक्षा बहुत ही कम समस्वरता और व्यवस्था दिखायी दे सकती है । अतः सर्वांगीण विकास की, मन के सम्पूर्ण रूपान्तर की परम आवश्यकता है; अन्यथा एक ऐसे मन की क्रिया देखने में आती है जो अतिमानस के अन्तःप्रवाह को अपने सांचे में ढालकर अपने ही लाभ के लिये प्रयुक्त करता है, और हमारी सत्ता में-भगवान् के तात्कालिक उद्देश्य की पूर्ति के लिये उक्त अवस्था को भी स्वीकार्य समझा जाता है, यहांतक कि उसे व्यक्ति के लिये इस एक जीवन में पर्याप्त भी माना जा सकता है : पर यह अपूर्णता की अवस्था है, न कि सत्ता का पूर्ण एवं सफल विकास । पर यदि बोधिमय मन का समग्र विकास साधित हो जाये तो हमें पता चलेगा कि एक महान् सामंजस्य ने अपनी आधारशिला रखना आरम्भ कर दिया है । यह सामंजस्य बौद्धिक मन द्वारा सृष्ट सामंजस्य से भिन्न होगा और निःसन्देह सुगमता से अनुभव में भी नहीं आयेगा अथवा, यदि अनुभव में आया भी सही, तो भी यह तर्कवादी मानव के लिये बुद्धिगम्य नहीं होगा, क्योंकि इसपर वह अपनी मानसिक पद्धति के द्वारा नहीं पहुंचेगा और न ही उसके द्वारा उसका विश्लेषण कर सकेगा । यह तो आत्मा की साहजिक अभिव्यक्ति का सामंजस्य होगा ।
ज्योंही हम मन से ऊपर उठकर अतिमानस में पहुंचेंगे, त्योंही इस आरम्भिक सामंजस्य का स्थान एक महत्तर एवं समग्रतर एकता ले लेगी । अतिमानसिक बुद्धि के विचार जब सर्वथा विपरीत दिशाओं से उद्भूत हुए होते हैं तब भी वे एकत्र होकर एक-दूसरे को समझते हैं तथा आप-से-आप ही एक स्वाभाविक व्यवस्था के सूत्र में ग्रथित हो जाते हैं । संकल्प की जो गतियां मन में परस्पर संघर्ष करती रहती हैं वे अतिमानस में अपना-अपना ठीक स्थान प्राप्त कर लेती हैं तथा वहां उनके
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बीच आपस में ठीक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । अतिमानसिक वेदन भी एक-दूसरे के बीच आत्मीयता के सम्बन्धों को खोज लेते हैं और एक स्वाभाविक सम्वाद एवं सामंजस्य में आबद्ध हो जाते हैं । एक उच्चतर अवस्था में यह सामंजस्य प्रगाढ़ होते-होते एकता की ओर अग्रसर होता है । ज्ञान, संकल्प, वेदन तथा अन्य सब क्रियाएं एक ही गति का रूप धारण कर लेती हैं । यह एकता उच्चतम अतिमानस में अपनी महत्तम पूर्णता को पहुंच जाती है । सामंजस्य एवं एकत्व अवश्यम्भावी ही हैं, क्योंकि अतिमानस में ज्ञान, विशेषतः आत्म-ज्ञान, आत्मा के सभी पक्षों का ज्ञान ही आधार है । अतिमानसिक संकल्प इस आत्मज्ञान का एक सक्रिय व्यक्त रूप होता है और अतिमानसिक वेदन आत्मा के ज्योतिर्मय आनन्द का एक व्यक्त रूप, अतिमानस की अन्य सब क्रियाएं भी इसी एक क्रिया के अंग होती हैं । अपने उच्चतम शिखर पर यह, जिसे हम ज्ञान कहते हैं उससे एक अधिक महान् वस्तु बन जाता है, वहां यह हमारे अन्दर विद्यमान भगवान् की सारभूत एवं समग्र आत्म-सम्वित् का, उसकी सत्ता, चेतना, तपस् और आनन्द का रूप धारण कर लेता है, और सभी कुछ उसी एक सत्ता की समस्वर, एकीभूत, प्रकाशमय क्रिया बन जाता है ।
यह अतिमानसिक ज्ञान मुख्यत: या तत्त्वतः कोई विचारात्मक ज्ञान नहीं होता । बुद्धि जबतक किसी वस्तु की अनुभूति को विचार की परिभाषाओं में परिणत नहीं कर लेती, अर्थात् जबतक वह उसे निरूपक मानसिक प्रत्ययों की प्रणाली में आबद्ध नहीं कर देती तबतक वह यह नहीं समझती कि उसने उस वस्तु को जान लिया है, और इस प्रकार का ज्ञान अपनी अत्यन्त निर्णयात्मक पूर्णता तभी प्राप्त करता है जब उसे स्पष्ट, यथार्थ और परिभाषात्मक शब्दों में प्रकट किया जा सके । यह ठीक है कि मन अपना गान मुख्यतया नाना प्रकार के संस्कारों से प्राप्त करता है जो प्राण और इन्द्रिय के संस्कारों से आरम्भ होकर ऊपर बुद्धिगत संस्कारों तक पहुंचते हैं, पर विकसित बुद्धि इन्हें केवल ज्ञात तथ्यों के रूप में ही ग्रहण करती है और उसे ये अपने-आपमें तबतक अनिश्चित एवं अनिर्दिष्ट प्रतीत होते हैं जबतक ये बाध्य होकर अपना सब अन्तर्निहित सार विचार-शक्ति के सम्मुख क्षरित नहीं कर देते और किसी बौद्धिक सम्बन्ध-परम्परा या व्यवस्थित विचार-शृंखला में अपना स्थान नहीं ले लेते । यह भी सच है कि ऐसी वाणी एवं ऐसे विचार भी होते हैं वो व्याख्यात्मक होने की अपेक्षा कहीं अधिक निर्देशक होते हैं और जिनमें अपने ढंग की एक महत्तर क्षमता एवं अर्थ-वैभव होता है, और इस प्रकार की वाणी एवं विचार प्रायः अन्तर्ज्ञान के किनारे को स्पर्श करते हैं; किन्तु फिर भी बुद्धि में यह मांग होती है कि इन निर्देशों के यथातथ बौद्धिक अन्त:-सार को स्पष्ट शृंखला और सम्बन्ध परम्परा के साथ प्रकट किया जाये और जबतक ऐसा न हो जाये तबतक उसे अपने ज्ञान की पूर्णता के बारे में सन्तोष अनुभव नहीं होता । तार्किक बुद्धि में
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रहकर सत्य-प्राप्ति के लिये यत्न करती हुई विचार-शक्ति ही एक ऐसी शक्ति है जो सामान्यतया मानसिक क्रिया को सर्वोत्तम रूप से व्यवस्थित करती प्रतीत होती है और मन को उसके ज्ञान में तथा ज्ञान के प्रयोग में अचूक सुनिश्चित, सुरक्षितता एवं पूर्णता की भावना प्रदान करती है । परन्तु अतिमानसिक ज्ञान के सम्बन्ध में इनमें से कोई भी बात किञचित् भी सत्य नहीं है ।
अतिमानस विचार के नहीं, तादात्म्य के द्वारा अत्यन्त पूर्ण एवं सुरक्षित रूप से ज्ञान प्राप्त करता है, यहां तादात्म्य का अर्थ है आत्मा में और आत्मा के द्वारा वस्तुओं के आत्म-सत्य की शुद्ध अनुभूति, आत्मनि आत्मानमू आत्मना । सत्य के साथ, ज्ञान के विषय के साथ एक होकर ही मैं सर्वोत्तम रूप में अतिमानसिक ज्ञान प्राप्त करता हूं; जब ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय, ज्ञाता, ज्ञानम् ज्ञेयम् में कुछ भी भेद नहीं रह जाता तभी अतिमानसिक सन्तुष्टि और समग्र ज्योति सर्वाधिक प्राप्त होती हैं । मैं ज्ञात वस्तु को अपने से बाहर स्थित विषय के रूप में नहीं बल्कि अपनी ही आत्मा के रूप में या अपनी विराट् सत्ता के एक ऐसे अंश के रूप में देखता हूं जो मेरी निकटतम चेतना में विद्यमान है । इसके परिणामस्वरूप उच्चतम एवं सम्पूर्णतम ज्ञान प्राप्त होता है; मन का विचार और वाणी ज्ञान के प्रतिनिधि हैं न कि उपर्युक्त, चेतनागत प्रत्यक्ष उपलब्धि, इसलिये अतिमानस के लिये वे ज्ञान का निम्नतर रूप हैं और यदि विचार आत्मिक सचेतनता से परिपूरित न हो तो वास्तव में वह ज्ञान का एक हीन रूप बन जाता है । कारण, मान लो कि वह एक अतिमानसिक विचार है तो वह उस महत्तर ज्ञान की, जो आत्मा में विद्यमान तो है पर तत्क्षण की सक्रिय चेतना के समक्ष उस समय उपस्थित नहीं है, एक आंशिक अभिव्यक्तिमात्र होगा । अनन्त के उच्चतम स्तरों में विचार के अस्तित्व की बिल्कुल जरूरत नहीं रहेगी क्योंकि वहां सब कुछ आध्यात्मिक रूप में, एक अविच्छिन्न शृंखला एवं नित्य उपलब्धि के रूप में तथा निरपेक्ष प्रत्यक्षता एवं सम्पूर्णता के साथ अनुभूत होगा । विचार तो केवल एक अन्यतम साधन है जो इस महत्तर स्वयम्भू ज्ञान में छुपे पड़े सत्य को आंशिक रूप से व्यक्त और वर्णित करता है । जबतक हम अतिमानस के अनेक स्तरों में से होते हुए उस अनन्ततक नहीं पहुंच पाते तबतक निःसन्देह यह सर्वोच्च प्रकार का ज्ञान अपने पूर्ण विस्तार और मात्रा में हमें प्राप्त नहीं हो सकता । किन्तु फिर भी जैसे-जैसे अतिमानसिक शक्ति आविर्भूत होकर अपना कार्य-विस्तार करती हैं, वैसे-वैसे इस उच्चतम प्रकार के ज्ञान की कोई कला प्रकट और विकसित होती जाती है, यहांतक कि जैसे-जैसे मनोमय सत्ता के करण अन्तर्ज्ञानमय और विज्ञानमय बनते जाते हैं, वैसे-वैसे वे भी अपने स्तर पर एक अनुरूप क्रिया का अधिकाधिक विकास करते चलते हैं । अपनी चेतना के विषयभूत सभी पदार्थों और प्राणियों के साथ ज्योतिर्मय प्राणिक, आन्तरात्मिक, भाविक, क्रियाशील तथा अन्य प्रकार का तादात्म्य स्थापित करने की शक्ति हमारे अन्दर बढ़ती जाती है और पृथक्कारक चेतना का अतिक्रमण करनेवाली
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ये अवस्थाएं अपने साथ अपरोक्ष ज्ञान के अनेक रूप और साधन लाती हैं ।
अतिमानसिक ज्ञान या तादात्म्य-लब्ध अनुभव अपने अन्दर अपने एक परिणाम या एक गौण अङग के रूप में अतिमानसिक अन्तर्दर्शन को वहन करता है । इस अन्तर्दर्शन को किसी प्रतिमा के सहारे की जरूरत नहीं होती, जो चीज मन के लिये अमूर्त होती है उसे भी यह मूर्त बना सकता है और इसका स्वरूप एक अन्तर्दर्शन का होता है भले इसका विषय रूपवान् पदार्थ का अदृश्य सत्य हो या अरूप पदार्थ का सत्य । यह अन्तर्दर्शन किसी भी प्रकार के तादात्म्य के पहले, उससे होनेवाले एक प्रकार के पूर्वगामी ज्योति-विकिरण के रूप में प्राप्त हो सकता है, या फिर यह उससे पृथक् रहकर एक स्वतन्त्र शक्ति के रूप में भी कार्य कर सकता है । उस दशा में ज्ञात सत्य या पदार्थ मेरे साथ पूर्णतया एकीभूत नहीं होता या कम-से-कम अभीतक एकीभूत नहीं होता, बल्कि वह मेरे ज्ञान का एक विषय होता है : किन्तु अबतक भी वह एक ऐसा विषय होता है जो आत्मा में आन्तरिक रूप से देखा जाता है या कम-से-कम, चाहे वह ज्ञाता के लिये अभी एक बाह्य विषय के रूप में उससे पृथक् एवं बहुत दूर अवस्थित हो फिर भी, वह आत्मा के द्वारा ही देखा जाता है । आत्मा उसे किसी मध्यवर्ती क्रिया के द्वारा नहीं वरन् या तो एक प्रत्यक्ष आन्तरिक ग्रहण के द्वारा या विषय के साथ आध्यात्मिक चेतना के अन्तर्वेधक एवं आच्छादक ज्योतिर्मय संस्पर्श के द्वारा देखती है । इस ज्योतिर्मय ग्रहण एवं संस्पर्श को ही आध्यात्मिक 'दृष्टि' कहते हैं, उपनिषद् आध्यात्मिक ज्ञान के बारे में निरन्तर ''पश्यति'' (अर्थात् ''वह साक्षात् करता है'') शब्द का प्रयोग करती है; और सृष्टि की परिकल्पना करते हुए परम आत्मा के बारे में वह हमारी आशा के अनुरूप यह कहने के बजाय कि ''उसने विचार किया'' यह कहती है कि उसने ''ईक्षण किया'' । यह ''दृष्टि'' आत्मा के लिये वही काम करती है जो स्थूल, मन के लिये इन्द्रियां करती हैं और व्यक्ति को एक ऐसी क्रिया में से गुजरने का अनुभव होता है जो सूक्ष्म रूप से इन्द्रियों की क्रिया के ही तुल्य होती है । विचार को जिन पदार्थो का एक सकेत या मानसिक वर्णनमात्र प्राप्त हुआ होता है उनका प्रत्यक्ष आकार स्थूल दृष्टि हमारे समक्ष प्रस्तुत कर सकती है और वे हमारे लिये एक ही साथ वास्तविक और प्रत्यक्ष हो जाती हैं, इसी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि विचार के संकेतों या निरूपणों को भी पार कर सभी वस्तुओं के आत्मा एवं सत्य को हमारे समक्ष उपस्थित एवं प्रत्यक्ष बना सकती है ।
इन्द्रिय हमारे सामने पदार्थों की स्थूल प्रतिमा ही प्रस्तुत कर सकतीं है और उस प्रतिमा को पूरित तथा अनुप्राणित करने के लिये उसे विचार की सहायता की आवश्यकता होती है; पर आध्यात्मिक दृष्टि हमारे सामने वस्तु का निज स्वरूप तथा तद्विषयक सम्पूर्ण सत्य प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखती है । उस अध्यात्म-दृष्टि की प्रक्रिया में ऋषि को विचार की सहायता की आवश्यकता ज्ञान के साधन के रूप में
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नहीं बल्कि वर्णन और अभिव्यक्ति के एक साधन के रूप में ही होती है, --विचार तो उसके लिये एक क्षुद्रतर शक्ति के समान होता है और उसका प्रयोग भी वह एक गौण प्रयोजन के लिये ही करता है । यदि और आगे ज्ञान के विस्तार की आवश्यकता हो तो उसे वह नये साक्षात्कार के द्वारा प्राप्त कर सकता है । उसके लिये उसे उन मन्दतर विचार-प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती जो मन की खोज के लिये सहारे का काम करती हैं और सत्य के लिये उसकी टोह-टटोल में सहायक होती हैं, --यह कार्य ऋषि ठीक वैसे ही करता है जैसे कि हम प्रथम अवलोकन के समय अपनी दृष्टि से छूट गयी वस्तु को जानने के लिये आंख से पुन: छानबीन करते हैं । आध्यात्मिक दृष्टि के द्वारा प्राप्त होनेवाला यह अनुभव एवं ज्ञान प्रत्यक्षता और महानता में अतिमानसिक शक्तियों के बीच दूसरे नम्बर पर आता है । यह मानसिक साक्षात्कार की अपेक्षा कहीं अधिक घनिष्ठ, गहन और व्यापक वस्तु है, क्योंकि यह सीधे तादात्म्यलब्ध ज्ञान से उद्भूत होता है, और इसमें यह गुण होता है कि जिस प्रकार हम तादात्म्य से साक्षात्कार की ओर बढ़ सकते हैं उसी प्रकार इस आध्यात्मिक साक्षात्कार से हम एकदम तादात्म्य की ओर बढ़ सकते हैं । इस प्रकार जब हमारी अन्तरात्मा आध्यात्मिक साक्षात्कार के द्वारा ईश्वर, परम आत्मा या ब्रह्म को देख चुकती है तो उसके बाद वह परम आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म में प्रवेश कर उसके साथ एक हो सकती है ।
एकता स्थापित करने की यह क्रिया समग्र रूप से तो अतिमानसिक स्तर पर या उसके परे जाने पर ही सम्पन्न की जा सकती है, पर इसके साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टि अपने मानसिक रूप ग्रहण कर सकती है जिनमें से प्रत्येक अपने-अपने ढंग से इस एकीकरण में सहायता कर सकता है । मानसिक बोधिमय अन्तर्दर्शन या आध्यात्मीकृत मानसिक दृष्टि, चैत्य अन्तर्दर्शन, हृदय का भावावेगमय अन्तर्दर्शन, ऐन्द्रिय मन का अन्तर्दर्शन--ये सभी योगानुभव के अङग हैं । यदि ये अन्तर्दर्शन निरे मानसिक हों, तो वे सत्य हो तो सकते हैं पर यह जरूरी नहीं कि वे सत्य हों ही, क्योंकि मन अपने अन्दर सत्य और भ्रान्ति दोनों को स्थान दे सकता है, वह सच्चे और झूठे दोनों प्रकार के वर्णन कर सकता है । पर जैसे-जैसे मन बोधिमय और अतिमानसिक बनता जाता है, वैसे-वैसे ये शक्तियां अतिमानस की अधिक ज्योतिर्मय क्रिया के द्वारा शुद्ध और संशोधित होती जाती हैं और अपने-आप भी अतिमानसिक एवं वास्तविक अन्तर्दर्शन के रूप बन जाती हैं । यह ध्यान में रखने योग्य है कि अतिमानसिक अन्तर्दर्शन अपने साथ एक पूरक एवं परिपूरक अनुभव लाता है जिसे सत्य का, --उसके सार का तथा इसके द्वारा उसके मर्म का--आध्यात्मिक श्रवण और स्पर्श कहा जा सकता है, अर्थात् उस अनुभव के द्वारा सत्य की गति, स्पन्दना और लय हमारी पकड़ में आ जाती हैं और उसका घनिष्ठ सान्निध्य, सम्पर्क और सारतत्त्व भी हम अधिकृत कर लेते हैं । ये सब
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शक्तियां हमें उस तत्त्व के साथ एक होने के लिये तैयार करती हैं जो इस प्रकार ज्ञान के द्वारा हमारे निकटवर्ती बन चुका है ।
अतिमानसिक विचार तादात्म्यलब्ध ज्ञान का एक रूप है और अतिमानसिक अन्तर्दर्शन के समक्ष प्रस्तुत सत्य का विचार के रूप में विकास है । तादात्म्य और अन्तर्दर्शन सत्य के सारतत्त्व, देह और अंगों को एक ही अखण्ड दृष्टि में प्रत्यक्ष करा देते हैं : विचार सत्य की इस प्रत्यक्ष चेतना और अव्यवहित शक्ति को विचारमय ज्ञान और संकल्प का रूप दे देता है । वैसे वह कोई नयी चीज नहीं जोड़ता न उसे ऐसा करने की कोई आवश्यकता ही होती है, वह तो केवल ज्ञान की देह को पुन: एक रूप और वाणी प्रदान करता हैं तथा उसकी परिक्रमा करता है । किन्तु जहां तादात्म्य और अन्तर्दर्शन अभी अपूर्ण ही होते हैं वहां अतिमानसिक विचार का कार्य इससे अधिक महान् होता है और वह उस सत्य की अभिव्यक्ति और व्याख्या कर देता है या मानों अन्तरात्मा की स्मृति को उसकी याद करा देता है जिसे प्रकट करने के लिये वे (तादात्म्य और अन्तर्दर्शन) अभी तैयार नहीं होते । और जहां ये महत्तर अवस्थाएं एवं शक्तियां अभी आवृत होती हैं, वहां विचार सामने आकर आवरण के आंशिक विदारण की तैयारी करता है और कुछ अंश में उसका विदारण भी कर देता है अथवा वह आवरण के हटाने में सक्रिय रूप से सहायता करता है । अतएव मानसिक अज्ञान में से अतिमानसिक ज्ञान की ओर विकसित होने में यह आलोकित विचार हमारे सामने सदा नहीं तो प्रायः ही सबसे पहले प्रकट होता है, इसका उद्देश्य अन्तर्दर्शन का मार्ग खोलना या फिर तादात्म्य की बढ़ती चेतना एवं उसके महत्तर ज्ञान को आरम्भिक आश्रय देना होता है । साथ ही, यह विचार आदान-प्रदान और अभिव्यक्ति का एक प्रभावशाली साधन भी है और व्यक्ति के अपने निम्न मन एवं सत्ता पर या दूसरों के मन एवं सत्ता पर सत्य का संस्कार डालने या उसकी सुदृढ़ प्रतिष्ठा करने में सहायक होता है । अतिमानसिक विचार बौद्धिक विचार से केवल इस कारण ही भिन्न नहीं होता कि वह अज्ञान के प्रति सत्य का एक प्रकार का निरूपण नहीं बल्कि माक्षात् सत्यमय विचार होता है, --आत्मा सत्य-चैतन्य होता है जो सदा ही अपने प्रति यथार्थ रूपों को प्रकट करता है, जिन्हें वेद में सत्यम् और ऋतम् कहा गया है, --अपितु इस कारण भी कि वह एक प्रबल वास्तविकता, ज्योतिर्मय देह और सारतत्त्व से युक्त होता है ।
बौद्धिक विचार सूक्ष्म और परिष्कृत होकर एक विरलीमृत् अमूर्त अवस्था की और ऊपर उठ जाता है; उधर अतिमानसिक विचार जैसे-जैसे अपनी उच्चता में ऊपर उठता है वैसे-वैसे वह अधिकाधिक आध्यात्मिक मूर्तता धारण करता जाता है । बुद्धि का विचार अपने-आपको मन-रूपी इन्द्रिय के द्वारा गृहीत किसी वस्तु के अमूर्त सार के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करता है और मानों बुद्धि की अगोचर शक्ति ही उसे
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मन के शून्य एवं सूक्ष्म वातावरण में टिकाये होती है । यदि वह चाहे कि अन्तरात्मा की इन्द्रिय और दृष्टि उसे अधिक ठोस रूप में अनुभव करें और देखें तो उसे मन की रूप-निर्माण शक्ति के प्रयोग का आश्रय लेना पड़ेगा । इसके विपरीत, अतिमानसिक विचार किसी भाव को सदा ही सत्ता के एक प्रकाशमान तत्त्व के रूप में तथा चेतना के एक ऐसे ज्योतिर्मय उपादान के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करता है जो एक अर्थसूचक विचारात्मक रूप ग्रहण कर लेता है और इसलिये वह विचार तथा यथार्थ वस्तु के बीच किसी ऐसी खाई की अनुभूति नहीं पैदा करता जैसी हमें मन में अनुभव हो सकती है, बल्कि वह अपने-आप एक वास्तविक सत्य, एक वास्तविक विज्ञानमय विचार होता है तथा किसी वास्तविक सत्ता का मूर्त रूप होता है । जब वह अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है तब उसके साथ, उसके एक परिणाम के रूप में, बौद्धिक स्पष्टता से भिन्न प्रकार की एक आध्यात्मिक ज्योति का विलक्षण तथ्य, चरितार्थता प्राप्त करनेवाली एक महान् शक्ति और ज्योतिर्मय हर्षोल्लास भी जुड़े रहते हैं । वह सत्ता, चेतना और आनन्द का एक ऐसा स्पन्दन होता है जो तीव्र रूप से अनुभव किया जा सकता है ।
जैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है, अतिमानसिक विचार की प्रखरता के एक-से-एक ऊंचे तीन स्तर हैं । पहला है साक्षात् विचारमय अन्तर्दृष्टि का, दूसरा अर्थद्योतक अन्तर्दृष्टि का जो एक महत्तर सत्यप्रकाशक विचार-दृष्टि की ओर इङ्गित करती है तथा उसकी तैयारी करती है, तीसरा प्रतिनिधिभूत अन्तर्दृष्टि का जो मानों आत्मा के ज्ञान को उस सत्य का स्मरण करा देती है जिसे उच्चतर शक्तियां अधिक सीधे रूप से प्रकाशित करती हैं । मन में ये चीजें अन्तर्ज्ञानात्मक मन की तीन साधारण शक्तियों का रूप ग्रहण कर लेती हैं । वे शक्तियां हैं--संकेतात्मक और विवेककारी अन्तर्ज्ञान, अन्तःप्रेरणा और साक्षात्कार-स्वरूप विचार । ऊपर वे अतिमानसिक सत्ता और चेतना के तीन उच्च स्तरों से सम्बन्ध रखती हैं और, जैसे-जैसे हम आरोहण करते हैं, निम्नतर शक्ति पहले तो उच्चतर शक्ति को पुकारकर अपने अन्दर उतार लाती है और पीछे स्वयं उसीमें उन्नीत हो जाती है, जिससे कि प्रत्येक भूमिका में तीनों के तीनों स्तरों का पुनः -गठन होता है, पर सदा ही विचार के सारतत्त्व में उस विशेष शक्ति की प्रधानता होती है जो उस स्तर के चैतन्य एवं आध्यात्मिक उपादान के अपने विशिष्ट रूप से सम्बन्ध रखती है । इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है; कारण, अन्यथा मन अतिमानस के स्तरों के प्रकट होने पर उनकी ओर दृष्टि डालता दुआ यह सोच सकता है कि उसे उच्चतम शिखरों का साक्षात्कार हो गया है जब कि असल में निम्न आरोहण का उच्चतम क्षेत्र ही उसके अनुभव के समक्ष प्रस्तुत होता है । प्रत्येक शिखर पर, सानो: सानुम् आरुहत् अतिमानसिक शक्तियों की प्रखरता, विस्तृतता एवं समग्रता बढ़ती जाती है ।
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एक ऐसी वाणी अर्थात् एक ऐसा अतिमानसिक शब्द भी है जिसका वेष धरकर उच्चतर ज्ञान, अन्तर्दर्शन या विचार हमारे अन्दर प्रकट हो सकता है । पहले-पहल यह एक ऐसे शब्द, सन्देश या अन्तःप्रेरणा के रूप में हमतक पहुंच सकता है जो हमारे पास ऊपर से अवतरित होकर आती है, या फिर यह परम आत्मा या ईश्वर की वाणी या आदेश भी प्रतीत हो सकता है । बाद में इसका यह पृथक् रूप समाप्त हो जाता है और यह विचार का एक सामान्य रूप बन जाता है जिसे यह तब प्रयोग में लाता है जब यह अपने-आपको अन्तर्वाणी के रूप में प्रकट करता है । विचार अपने-आपको किसी संकेतप्रद या विकसनशील शब्द की सहायता के बिना भी प्रकट कर सकता है और अतिमानसिक अनुभव के किसी प्रकाशपूर्ण तत्त्व के रूप में ही, किन्तु फिर भी सर्वथा सम्पूर्ण और स्पष्ट रूप से तथा अपने अन्तनर्हित समग्र तत्त्वों के साथ अपने-आपको व्यक्त कर सकता है । जब वह इतना स्पष्ट नहीं होता तो वह एक संकेतपूर्ण अन्तर्वाणी की सहायता ले सकता है जो उसके सम्पूर्ण मर्म को प्रकट करने के लिये उसके साथ रहती है । अथवा विचार एक मौन अनुभव के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसी वाणी के रूप में प्रकट हो सकता है जो सत्य में से स्वयमेव जन्म लेती है और अपने निज अधिकार के बल पर ही पूर्ण होती है और अपना अन्तर्दर्शन और ज्ञान अपने ही अन्दर धारण किये होती है । ऐसी दशा में वह एक सत्य-दृष्टि-सम्पन्न, अन्त:प्रेरित या अन्तर्ज्ञानमयशब्द होता है अथवा वह इनसे भी उच्च कोटि का एक ऐसा शब्द होता है जो उच्चतर अतिमानस एवं आत्मतत्त्व के असीम आशय या निर्देश को अपने अन्दर धारण कर सकता है । वह अपने-आपको उस भाषा के रूप में गठित कर सकता है जो आज बुद्धि और ऐन्द्रिय मन के विचारों, अनुभवों और आवेगों को प्रकट करने के लिये प्रयोग में लायी जाती है, पर उसका प्रयोग वह एक भिन्न ढंग से करता है और ऐसा करते हुए वह उन गूढ़ अन्तर्ज्ञानात्मक या सत्य-दर्शक अर्थों को, जिन्हें वाणी प्रकाश में ला सकती है, तीव्र रूप से प्रकट करता है । अतिमानसिक शब्द अन्तर में एक ऐसी ज्योति एवं शक्ति के साथ तथा विचार और अन्तर्ध्वनि की एक ऐसी लय के साथ प्रकट होता है जो उसे अतिमानसिक विचार और अन्तर्दर्शन का स्वाभाविक एवं जीवन्त शरीर बना देती हैं, और वह अपनी भाषा में, जो चाहे मानसिक वाणी की ही भाषा होती है, सीमित बौद्धिक, भावप्रधान या सम्वेदनात्मक अर्थ से भिन्न अर्थ भर देता है । वह अन्तर्ज्ञानमय मन या अतिमानस में गठित होता और सुनायी देता है और आरम्भ में, कुछ एक उच्च शक्ति-सम्पन्न आत्माओं को छोड़कर अन्यों में, उसका वाणी और लेख के रूप में सहजतः प्रकट होना आवश्यक नहीं, पर जब भौतिक चेतना और उसके करणों को तैयार किया जा चुका हो तब वाणी और लेख में भी उसे निर्बाध रूप से प्रकट किया जा सकता है, और यह सर्वांगीण सिद्धि की अपेक्षित पूर्णता एवं शक्ति का एक अंग है ।
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अतिमानसिक विचार, अनुभव और अन्तर्दर्शन का ज्ञान-क्षेत्र उस समस्त क्षेत्र के समान विस्तृत होगा जो पार्थिव ही नहीं वरन् अन्य सब भूमिकाओं पर भी मानव-चेतना के सामने खुला हुआ है । परन्तु वह उत्तरोत्तर मानसिक चिन्तन और अनुभव की भावना से ठीक उल्टी भावना के साथ कार्य करेगा । मानसिक चिन्तन का केन्द्र है अहं, अर्थात् व्यष्टि-रूप विचारक का अहंमय रूप । इसके विपरीत, विज्ञानमय मानव अधिकतर वैश्व मन के द्वारा चिन्तन करेगा अथवा वह इससे भी परे उठ सकता है, और उसकी व्यष्टि-सत्ता परम आत्मा की विराट् विचार-शक्ति और ज्ञानशक्ति का केन्द्र नहीं होगी वरन् उनका प्रसारण और उनके साध आदान-प्रदान करने के लिये एक ऐसा आधार होगी जिसकी ओर वे स्वभावतः ही अभिमुख होंगी । मनोमय मनुष्य एक ऐसे घेरे में चिन्तन और कार्य करता है जो उसके मन तथा मानसिक अनुभव की क्षुद्रता या विशालता के द्वारा निर्धारित होता है । विज्ञानमय मानव का क्षेत्र सम्पूर्ण भूतल के साथ-साथ वह सब भी होगा जो कुछ कि इसके पीछे सत्ता के अन्य स्तरों पर विद्यमान है । और अन्तिम बात यह है कि मनोमय मनुष्य वर्तमान जीवन के स्तर पर ही सोचता और देखता है, भले वह ऊर्ध्वमुख अभीप्सा के साथ ही ऐसा क्यों न करे, और उसकी दृष्टि के सामने सब तरफ रुकावट ही रुकावट है । उसके ज्ञान और कर्म का मुख्य आधार वर्तमान है । इसके साथ वह अतीत के गर्भ में भी दृष्टि डालता है तथा उसके दबाव का प्रभाव भी अस्पष्ट रूप से अनुभव करता और भविष्य की ओर भी अन्धभाव से निहारता है । वह अपना आधार पार्थिव जीवन के यथार्थ तथ्यों पर रखता है, उनमें भी पहले तो वह बाह्य जगत् के तथ्यों को अपना आधार बनाता है, --साधारणत: उसकी यह आदत ही है कि वह अपने सम्पूर्ण आन्तर चिन्तन और अनुभव का नहीं तो उसके नव-दशमांशो का सम्बन्ध इन तथ्यों से ही जोड़ता है, --पर बाद में वह अपनी अन्तःसत्ता के अधिक ऊपरी भाग के परिवर्तनशील तथ्यों को ही अपना आधार बनाता है । जैसे-जैसे उसकी मानसिक शक्ति विकसित होती है, वह इनसे परे अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक उन शक्यताओंतक जाता है जो इनसे उद्भूत होती हैं और फिर इन्हें अतिक्रम भी कर जाती हैं; उसका मन सम्भावनाओं के वस्तृततर क्षेत्र में अपना कार्य करता है : पर अधिकांश में ये उसके लिये वहींतक पूर्णतः वास्तविक होती हैं जहांतक किसी यथार्थ वस्तु के साथ इनका सम्बन्ध होता है और जहांतक इन्हें इस लोक में, आज या बाद में, यथार्थ रूप दिया जा सकता है । वस्तुओं के मूल तत्त्व को वह यदि देखता भी है तो अपने स्वभाव से ही उसे इस रूप में देखता है कि वह उसके अपने प्रत्यक्ष एवं यथार्थ तथ्यों का परिणाममात्र है, उनके साथ सम्बन्ध रखता है तथा उनपर निर्भर करता है, और अतएव वह वस्तुओं को निरन्तर एक मिथ्या आलोक में या सीमित रूप में ही देखता है । इन सब विषयों में विज्ञानमय मानव इससे उल्टे अर्थात् सत्य-दर्शन के सिद्धान्त के आधार पर ही कार्य करेगा ।
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विज्ञानमय जीव वस्तुओं को ऊपर से विशाल व्योम में देखता है और अपनी सर्वोच्च स्थिति में तो वह उन्हें अनन्त के व्योम से देखता है । उसकी दृष्टि वर्तमान के दृष्टिकोणतक ही सीमित नहीं होती, बल्कि काल के अविरत प्रवाहों में या फिर काल के ऊपर से परम आत्मा के अविभाज्य विस्तारों में वस्तुओं को देख सकती है । वह सत्य को उसके ठीक क्रम में से देखता है, अर्थात् पहले तो वह उसके सारतत्त्व को देखता है, फिर इससे उद्भूत होनेवाली उसकी सम्भाव्य शक्तियों को और केवल अन्त में ही वह उसकी यथार्थ एवं प्रत्यक्ष अवस्थाओं को देखता है । मूलभूत सत्य उसकी दृष्टि में स्वयंसत् और स्वयंप्रकाश होते हैं, वे अपनी प्रामाणिकता के लिये इस या उस प्रत्यक्ष तथ्य पर आश्रित नहीं होते; सम्भाव्य सत्य स्वयं 'सत्' की तथा वस्तुओं में विद्यमान 'सत्' की शक्ति के सत्य हैं, शक्ति की अनन्तता के सत्य हैं, और वे इस या उस प्रत्यक्ष तथ्य के रूप में अपनी अतीत या वर्तमान चरितार्थता से पृथक् भी वास्तविक हैं अथवा उन व्यवहारसिद्ध स्थूल रूपों से, जिन्हें हम सम्पूर्ण प्रकृति समझते हैं, पृथक् भी वे वास्तविक ही हैं । प्रत्यक्ष एवं यथार्थ तथ्य तो केवल कुछ ऐसे सत्य होते हैं जो उसके साक्षात्कृत सम्भाव्य सत्यों में से चुने गये होते हैं, उनपर निर्भर करते हैं और सीमित तथा परिवर्तनशील होते हैं । विज्ञानमय मानव के चिन्तन और संकल्प पर वर्तमान का, यथार्थ का, तथ्यों की तात्कालिक शृंखला का और कर्म करने की तात्क्षणिक उत्तेजना एवं मांग का अत्याचार कुछ भी प्रभाव नहीं रखता, और अतएव वह एक अधिक व्यापक ज्ञान पर आधारित विशालतर संकल्पशक्ति को धारण कर सकता है । वह वस्तुओं को एक ऐसे व्यक्ति की तरह नहीं देखता जो वर्तमान तथ्यों और दृग्विषयों के जंगल से घिरे स्तरों में स्थित होता है, बल्कि उन्हें ऊपर से देखता है, वह उन्हें बाहर से तथा उस रूप में नहीं देखता जो उनके उपरितलों के द्वारा निर्णीत होता है, बल्कि भीतर से तथा उस रूप में देखता है जो उनके केन्द्र के सत्य से देखने पर दृष्टिगत होता है । अतएव वह दिन सर्वज्ञता के अधिक निकट होता है । वह एक प्रभुत्वशाली शिखर पर से, कालप्रवाह में सुदीर्घ कालतक चलनेवाली गति के साथ तथा शक्तियों की विशालतर क्षमता के द्वारा संकल्प और कार्य करता है । अतः वह दिव्य सर्वशक्तिमत्ता के अधिक निकट होता है । उसकी सत्ता क्षणों की क्रम-शृंखला में आबद्ध नहीं होती, बल्कि अतीत की सम्पूर्ण शक्ति से सम्पन्न होती है और द्रष्टा के रूप में भविष्य के आरपार देखती है : वह सीमित करनेवाले अहं और व्यक्तिगत मन के अन्दर बन्द नहीं होती, बल्कि विराट् की मुक्तता में, ईश्वर में तथा सर्वभूतों और सर्वपदार्थों में निवास करती है; भौतिक मन की जड़ घनता में नहीं बल्कि अन्तरात्मा की ज्योति और परम आत्मा की अनन्तता में निवास करती है । विज्ञानमय मानव मन और अन्तरात्मा को परम आत्मा की केवल एक शक्ति और गति के रूप में तथा जड़तत्त्व को उसके एक परिणामभूत आकार के रूप में ही देखता है ।
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उसका समस्त विचार एक ऐसा विचार होगा जो ज्ञान से उद्भूत होता है । वह दृश्य जीवन की वस्तुओं को आध्यात्मिक सत्ता की वास्तविकता के प्रकाश में तथा सक्रिय आध्यात्मिक सारतत्त्व की शक्ति के द्वारा देखता तथा कार्य-व्यवहार में लाता है ।
पहले-पहल, इस महत्तर अवस्था में रूपान्तर के आरम्भ में विचार कम या अधिक समयतक, न्यूनाधिक परिमाण में, मन की पद्धति के अनुसार ही कार्य करता रहेगा, पर यह कार्य वह मुक्तता और परात्परता की महत्तर ज्योति के साथ तथा उनकी अधिकाधिक ऊंची उड़ानों, विशालताओ और गतियों के साथ करेगा । बाद में मुक्तता और परात्परता प्रभुत्व प्राप्त करने लगेंगी; चाहे कोई भी कठिनाइयां और पतन क्यों न हों विचारदृष्टि का पलटाव और विचार-पद्धति का रूपान्तर चिन्तनात्मक मन की, एक के बाद एक, विभिन्न गतियों के रूप में सम्पन्न होगा, जबतक कि वह समग्र रूप में प्रभुत्व प्राप्त करके पूर्ण रूपान्तर साधित नहीं कर देता । साधारणत: अतिमानसिक ज्ञान विशुद्ध विचार और ज्ञान की क्रियाओं में सबसे पहले तथा सर्वाधिक सुगमता के साथ संगठित होगा, क्योंकि इन क्षेत्रों में मानव-मन की गति पहले से ही ऊपर की ओर है और इनमें वह सर्वाधिक मुक्त भी है । इसके बाद ही वह व्यवहारलक्षी और ज्ञान की प्रक्रियाओं में संगठित होगा और वह भी अपेक्षाकृत कम सुगमता के साथ, क्योंकि वहां मनुष्य का मन अत्यन्त सक्रिय होने के साथ-साथ अपनी निम्नतर विधियों के साथ अत्यधिक बद्ध और आसक्त भी है । अन्तिम और अत्यन्त दुष्कर विजय होगी तीनों कालों का ज्ञान, त्रिकालदृष्टि; दुष्कर इसलिये कि आज यह उसके मन के लिये एक अटकलबाजी का या शून्यता का क्षेत्र है । इन सभी विजयों में आत्मा का यह स्वभाव समान रूप से देखने में आयेगा कि वह जिस शरीर को धारण किये है उसके अन्दर ही नहीं वरन् उसके ऊपर और चारों ओर भी सीधे रूप से देखेगा और संकल्प करेगा और इन सब में तादात्म्यलब्ध अतिमानसिक ज्ञान, अतिमानसिक साक्षात्कार, अतिमानसिक विचार और अतिमानसिक वाणी की क्रिया भी, पृथक्-पृथक् या संयुक्त गति के साथ, समान रूप से होगी ।
इस प्रकार, अतिमानसिक विचार एवं ज्ञान का सामान्य स्वरूप यही होगा और उसकी मुख्य शक्तियां और क्रियाएं भी यही होंगी । अब उसके विशेष करणों पर वर्तमान मानव-मन के विभिन्न तत्त्वों में अतिमानस जो परिवर्तन लायेगा उसपर तथा जो विशेष क्रियाएं विचार को उसके उपादान, प्रेरक भाव और तथ्यसामग्री प्रदान करती हैं उनपर विचार करना बाकी है ।
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