योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २१

आत्म-अतिक्रमण की सीढ़ी

 

साधारणतया हमारी चेतना और इसकी शक्तियां एवं परिणाम इस निम्न त्रिविध सत्ता एवं इस निम्न त्रिविध जगत् तक ही सीमित हैं । इस सत्ता एवं जगत् का अतिक्रमण, जिसका वर्णन वैदिक ऋषियों ने इन शब्दों में किया था कि यह द्यौ और पृथ्वी के दो लोकों को अतिक्रम कर या भेद कर उनके परे जाना है, अनन्तता के स्तरों की क्रमपरम्परा को खोल देता है । मनुष्य की सामान्य सत्ता अपनी ऊंची- से-ऊंची तथा विस्तृत-से-विस्तृत उड़ानों में भी इस स्तर-परम्परा से अभीतक अपरिचित है । इस अत्युच्च भूमिका पर, यहांतक कि इसकी सोपान-परम्परा के सबसे निचले सोपान पर भी, आरोहण करना उसके लिये कठिन है । एक विभाजन, जो सार रूप में तो अवास्तविक है पर व्यवहार में अत्यन्त तीव्र है, मनुष्य अर्थात् पिंड की सम्पूर्ण सत्ता को विभक्त करता है, अपितु पिण्ड की भांति वह विश्व-सत्ता अर्थात् ब्रह्माण्ड को भी विभक्त करता है । दोनों में उच्च और निम्न गोलार्द्ध हैं जिन्हें प्राचीन ज्ञानियों ने परार्द्ध और अपरार्द्ध कहा था । उच्च गोलार्द्ध में परम आत्मा का पूर्ण और सनातन राज्य है क्योंकि वहां यह बिना विराम या न्यूनता के अपनी अनन्तताओं को व्यक्त करता है; अपनी असीम सत्ता, असीम चेतना और ज्ञान, असीम बल और शक्ति तथा असीम आनन्द की अनावृत गरिमाओं को विस्तारित करता है । इसी प्रकार निम्न गोलार्द्ध भी आत्मा का है; पर यहां वह सीमाकारी मन, सीमित प्राण तथा पृथक्कारी शरीररूपी अपनी निम्न अभिव्यक्ति के द्वारा सूक्ष्म तथा घने रूप से ढका हुआ है । निम्न गोलार्द्ध में 'पुरुष' नाम और रूप के अन्दर आच्छादित है; उसकी चेतना आन्तरिक और बाह्य व्यक्ति और विराट् के बीच विभाजन के द्वारा खण्डित है; उसकी दृष्टि और इन्द्रियशक्ति बाहर की ओर मुड़ी हुई है; उसकी शक्ति, उसकी चेतना के विभाजन के द्वारा सीमित होने के कारण, बन्धन में जकड़ी हुई की तरह कार्य करती है; उसका ज्ञान, संकल्प, बल और आनन्द इस विभाजन से विभक्त तथा इस सीमाबन्धन सें आबद्ध होने के कारण अपने विरोधी या विपरीत रूपों के अनुभव की ओर अर्थात् अज्ञान, दुःख और दुर्बलता की ओर खुले हुए हैं । निश्चय ही हम अपनी इन्द्रियों और अपनी द्रष्टि को अन्दर की ओर फेरकर अपने अन्तःस्थित सच्चे पुरुष या आत्मा को जान सकते हैं; बाह्य जगत् और उसके दृश्य प्रपञ्च में भी हम, अपनी दृष्टि और इन्द्रियशक्ति को उनके अन्दर गहराई में ले जाकर, नामों और रूपों के पर्दे को भेदते हुए उनमें या उनके पीछे अवस्थित वस्तुतक ले जाकर इस वास्तविक पुरुष या आत्मा को प्राप्त कर सकते हैं । हमारी सामान्य चेतना इस अन्तर्मुख दृष्टि के द्वारा पुरुष की

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अनन्त सत्ता, चेतना और आनन्द को अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करके जान सकती है और उसकी सत्-चित्-आनन्दसम्बन्धी निष्किय या स्थितिशील अनन्तता में भाग ले सकती है । परन्तु उसके ज्ञान, बल और आनन्द की सक्रिय या गतिशील अभिव्यक्ति में हम बहुत कम अंश में ही भाग ले सकते हैं । अपने अन्दर सच्चिदानन्द के प्रतिबिम्ब के द्वारा प्राप्त होनेवाली यह स्थितिशील एकता भी, साधारणतया, सुदीर्घ और कठिन प्रयास से तथा अनेक जन्मों में होनेवाले प्रगतिशील आत्मविकास के फलस्वरूप ही साधित की जा सकतीं है; क्योंकि हमारी सामान्य चेतना अपनी सत्ता के अपरार्द्ध के नियम के साथ अत्यन्त दृढ़तापूर्वक बंधी हुई है । इसको अतिक्रम करने की संभावना तक को समझने के लिये हमें इन दो गोलार्द्धों के लोकों के पारस्परिक सम्बन्धों का एक व्यावहारिक सूत्र के रूप में पुनः प्रतिपादन करना होगा ।

 

  सब वस्तुओं का निर्धारण परम आत्मा ही करता है, क्योंकि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म सत्ता से लेकर स्थूल-से-स्थूल जड़तत्त्वतक सभी कुछ आत्मा की ही अभिव्यक्ति है । परन्तु आत्मा, पुरुष या परम 'सत्' उस लोक को जिसमें वह निवास करता है, तथा उसमें अपनी चेतना, शक्ति और आनन्द के अनुभवों को पुरुष और प्रकृति के सम्बन्धों की (अनेक संभव, संतुलित स्थितियों में से) किसी एक स्थिति के द्वारा निर्धारित करता है, यह स्थिति उसके अपने वैश्व तत्त्वों में से किसी एक या दूसरे में (उस तत्त्व में बने जगत् के साथ उसके सम्बन्धों की) कोई आधारभूत स्थिति होती है । 'जड़पदार्थ' रूपी तत्त्व में स्थित होने पर आत्मा भौतिक प्रकृति के शासन में स्थूल जगत् का स्थूल 'पुरुष' बन जाता है; वह तब जड़तत्त्व के अनुभव में ग्रस्त होता है; वह भौतिक सत्ता की अपनी विशिष्ट तामसिक शक्ति की अज्ञानमयता और जड़ता से अभिभूत होता है । व्यक्ति में वह अन्नमय पुरुष बन जाता है जिसका प्राण और मन स्थूल भौतिक तत्त्व के अज्ञान और जड़तत्त्व में से विकसित हुए हैं और उनकी मूल सीमाओं के अधीन हैं । क्योंकि, जड़तत्त्व में प्राण शरीर के अधीन रहकर ही कार्य करता है; जड़तत्त्व में मन शरीर और प्राणिक या स्नायविक सत्ता के अधीन रहकर ही कार्य करता है; जड़तत्त्व के अन्दर स्वयं आत्मा भी अपने आभ्यन्तरिक सम्बन्ध और अपनी शक्तियों में इस जड़-शासित तथा प्राण-चालित मन के सीमाबन्धनों और विभाजनों से सीमित और विभक्त है । यह अन्नमय पुरुष स्थूल शरीर तथा इसकी संकीर्ण उपरितलीय बाह्य चेतना के साथ बंधा रहता है, और सामान्यतया यह अपने भौतिक करणों अर्थात् अपनी इन्द्रियों तथा अपने देहबद्ध प्राण एवं मन के अनुभवों को और अधिक-से-अधिक कुछ सीमित आध्यात्मिक झांकियों को ही सत्ता का सम्पूर्ण सत्य समझता है ।

 

  मनुष्य एक आत्मा है, पर एक ऐसी आत्मा जो भौतिक प्रकृति में मनोमय पुरुष के रूप में निवास करती है; अपनी आत्मविषयक चेतना के प्रति वह स्थूल देह में

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रहनेवाला एक मन ही है । परन्तु पहले-पहल यह मनोमय सत्ता अन्नमय पुरुष का रूप धारण करती है और तब मनुष्य असमय पुरुष को ही अपनी वास्तविक आत्मा समझता है । जैसा कि एक उपनिषद् में कहा गया है, वह जड़तत्त्व (अन्न) को ही ब्रह्म मानने के लिये बाध्य होता है क्योंकि यहां उसकी दृष्टि जड़तत्त्व को एक ऐसी वस्तु के रूप में देखती है जिससे सब उत्पन्न होते हैं, जिसके द्वारा सब जीवित रहते हैं और जिसमें सब प्रयाण के समय लौट जाते हैं । आत्मा के सम्बन्ध में उसका स्वाभाविक सर्वोच्च प्रत्यय यह होता है कि वह एक अनन्त सत्ता है, वरञ्च एक निश्चेतन अनन्त सत्ता है; यह सत्ता जड़जगत् में वास कर रही है या व्याप्त है (वास्तव में यह केवल इस जड़जगत् को ही जानती है); साथ ही यह अपनी उपस्थिति की शक्ति से उसके चारों ओर के इन सब रूपों को प्रकट कर रही है । अपने विषय में उसका स्वाभाविक सर्वोच्च विचार यह है कि वह एक आत्मा या अन्तरात्मा है, पर इस आत्मा के विषय में उसकी कल्पना अस्पष्ट ही है । उसके विचार में यह एक ऐसी अन्तरात्मा है जो केवल स्थूल जीवन के अनुभवों के द्वारा ही व्यक्त होती है, भौतिक दृश्य प्रपच्च में जकड़ी हुई है और विघटित होने पर एक सहज-स्वाभाविक आवश्यकता के द्वारा अनन्त के विशाल अनिर्धारित स्वरूप में पुनः लय प्राप्त करने के लिये बाध्य होती है । परन्तु क्योंकि उसमें अपना विकास करने की शक्ति है, वह अन्नमय-पुरुषविषयक इन स्वाभाविक कल्पनाओं के ऊपर उठ सकता है; इनकी त्रुटियों को वह अतिभौतिक भूमिकाओं और लोकों से प्राप्त एक प्रकार के गौण अनुभव से पूरा कर सकता है । वह अपनी शक्ति को मन पर एकाग्र करके अपनी सत्ता के मानसिक भाग को विकसित कर सकता है, पर इसके लिये उसे प्रायः अपने प्राणिक और शारीरिक जीवन की पूर्णता की बलि देनी पड़ती है । इस प्रकार, अन्त में मन प्राण और शरीर से अधिक प्रबल हों जाता है और परब्रह्म की ओर खुल सकता है । इसके बाद, अपने-आपको मुक्त करनेवाले इस मन को वह परम आत्मा पर एकाग्र कर सकता है । यहां भी वह प्रायः इस एकाग्रता की प्रक्रिया में अपने पूर्ण मानसिक और भौतिक जीवन से अधिकाधिक दूर हटता जाता है प्रकृति में उसका भौतिक आधार जहांतक उसे अनुमति देता है वहांतक वह अपने मानसिक और शारीरिक जीवन की सम्भावनाओं को परिमित या निरुत्साहित कर देता है । अन्त में उसका आध्यात्मिक जीवन प्रधानता प्राप्त कर लेता है, वह उसकी संसारोन्मुख प्रवृत्ति का उन्मूलन करके इसके बन्धनों और सीमाओं को तोड़ डालता है । अध्यात्ममय बनकर वह अपनी वास्तविक सत्ता का आधार इस लोक से परे अन्य लोकों में, प्राणिक या मानसिक भूमिका के स्वर्गों में स्थापित करता है । वह ऐहलौकिक जीवन को एक ऐसी दुःखमय या क्लेशप्रद घटना या यात्रा मानने लगता है जिसमें वह अपनी आन्तरिक आदर्श सत्ता किंवा अपने आध्यात्मिक सारतत्त्व का कोई पूर्ण रसास्वादन कभी नहीं प्राप्त कर सकता ।

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अपि च, पुरुष या आत्मा के विषय में उसका उच्चतम विचार कम या अधिक निवृत्तिमार्ग की ओर ही झुक सकता है; कारण, हम देख ही चुके हैं कि वह केवल उसकी स्थितिशील अनन्तता को, प्रकृति की सीमाओं से न बंधे हुए पुरुष की निश्चल स्वतंत्रता को तथा प्रकृति के पीछे अवस्थित आत्मा को ही पूर्ण रूप से अनुभव कर सकता है । निःसन्देह, उसके अन्दर कोई दिव्य क्रियाशील अभिव्यक्ति भी साधित हो सकती है, पर वह स्थूल प्रकृति से सर्वथा ऊपर नहीं उठ सकतीं । शान्त और निष्क्रिय आत्मा की शान्ति अधिक सुगमता से प्राप्त हो सकती है और इसका धारण भी वह अधिक सुगमता से तथा पूर्णता के साथ कर सकता है; पर अनन्त क्रिया का आनन्द एवं अपरिमेय शक्ति की सक्रिय स्थिति प्राप्त करना उसके लिये नितान्त कठिन है ।

 

  परन्तु परम आत्मा जड़तत्त्व में स्थित न होकर प्राणतत्त्व में भी स्थित हो सकता है । इस प्रकार स्थित होकर वह सचेतन रूप से क्रिया करनेवाली प्रकृति के शासन में प्राणलोक की प्राणमय सत्ता, प्राणशक्ति का प्राणमय पुरुष बन जाता है। सचेतन प्राण की शक्ति और लीला के अनुभवों में मग्न होकर वह प्राणिक सत्ता के अपने विशिष्ट राजसिक तत्त्व की कामना, और क्रिया-प्रवृत्ति तथा उसके राग-विकार के वशीभूत रहता है । व्यक्ति में यह आत्मा प्राणमय पुरुष बन जाता है जिसकी प्रकृति के शासन में प्राणशक्तिया मानसिक और भौतिक तत्त्वों को उत्पीड़ित करती हैं । प्राणलोक में भौतिक तत्त्व अपनी क्रियाओं और रचनाओं को कामना और उसकी कल्पनाओं के अनुरूप अनायास ही ढाल लेता है, वह प्राण के आवेश और बल की तथा इनकी रचनाओं की सेवा करता है तथा उनके वश में रहता है, वहां वह उन्हें उस प्रकार बाधा नहीं पहुंचाता और न सीमित ही करता है जिस प्रकार कि वह यहां इस भूलोक में करता है जहां जीवन जड़प्रकृति में होनेवाली एक अनिश्चित-सी घटना है । इस भूमिका में मानसिक तत्त्व भी प्राणशक्ति के द्वारा गठित और सीमित होता है, इसके वश में रहता है और इसकी कामनाओं की प्रेरणा तथा इसके आवेगों की शक्ति को समृद्ध और चरितार्थ करने में ही सहायता पहुंचाता है । यह प्राणमय पुरुष प्राणिक शरीर में निवास करता है जो भौतिक जड़तत्त्व से कहीं अधिक सूक्ष्म उपादान से बना हुआ है । वह उपादान सचेतन शक्ति से परिपूरित है, पार्थिव तत्त्व के स्थूल अणु-परमाणु जिन अनुभवों, क्षमताओं तथा इन्द्रिय-क्रियाओं को प्रस्तुत कर सकते हैं उनकी अपेक्षा वह कहीं अधिक शक्तिशाली अनुभवों, क्षमताओं तथा इन्द्रिय-क्रियाओं को प्रस्तुत कर सकता है । मनुष्य के अन्दर भी उसकी भौतिक सत्ता के पीछे यह प्राणमय पुरुष, यह प्राणिक प्रकृति और प्राणिक शरीर विद्यमान हैं जो स्थूल सत्ता के तल के नीचे छुपे हैं, इसके लिये अगोचर और अज्ञात हैं किन्तु फिर भी इसके अत्यन्त निकट हैं और इसके साथ मिलकर उसकी सत्ता के अत्यन्त स्वाभाविक रूप में क्रियाशील भाग का निर्माण करते हैं । प्राणलोक

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या कामना-लोक के साथ सम्बद्ध एक प्राणमय भूमिका, पूरी-की-पूरी, हमारे अन्दर छुपी हुई है, वह एक गुप्त चेतना है जिसमें प्राण और कामना दोनों निर्बाध रूप से अपनी लीला करते हैं तथा सहज रूप से अपने-आपको प्रकट करते हैं और वहां से वे हमारे बाह्य जीवन पर अपना प्रभाव डालते हैं तथा अपनी रचनाओं को प्रक्षिप्त करते हैं ।

 

  जैसे-जैसे इस प्राणिक स्तर की शक्ति उसके अन्दर प्रकट होती है तथा उसकी स्थूल सत्ता को अपने अधिकार में करती जाती है, वैसे-वैसे यह 'पृथिवीपुत्र' प्राणशक्ति का वाहन बनता जाता है, इसकी कामनाएं शक्तिशाली हों जाती हैं, इसके राग-विकार और भावावेश उग्र हो जाते हैं और इसके कर्म प्रचण्ड-शक्तिशाली अर्थात् यह अधिकाधिक राजसिक मनुष्य बनता जाता है । अब यह अपनी चेतना में प्राण-भूमिका की ओर जागरित होकर प्राणमय पुरुष बन सकता है, प्राणिक प्रकृति को धारण कर के गुप्त एवं सूक्ष्म प्राण-शरीर तथा प्रत्यक्ष स्थूल शरीर दोनों में निवास कर सकता है । यदि वह राजसिक मनुष्य इस परिवर्तन को किसी प्रकार की पूर्णता या एकनिष्ठता के साथ साधित कर लेता है-साधारणतः तो यह परिवर्तन महान् और हितकर सीमाओं के अधीन ही साधित होता है, या फिर उद्धारकारी जटिलताओ से युक्त रहता है--और यदि वह इन कामना, आवेश और विकार आदि चीजों से ऊपर नहीं उठता, प्राण से परे के उस शिखर पर आरोहण नहीं करता जहां से इन चीजों का प्रयोग किया जा सकता है, इन्हें शुद्ध और उदात्त किया जा सकता है, तो वह निम्न प्रकार का असुर या दानव या स्वभाव से राक्षस बन जाता है, निरे बल और निरी प्राणशक्तिवाली आत्मा बन जाता है जो असीम कामना तथा आवेश की शक्ति से परिवर्द्धित या परिपूरित होती है, सक्रिय शक्ति और महाकाय राजसिक अहंकार से अनुधावित और परिचालित होती है, पर साधारण जड़तर पार्थिव प्रकृति में देहप्रधान मनुष्य के पास जो शक्तियां होती हैं उनसे कहीं अधिक बड़ी तथा अधिक विविध प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न होती है । चाहे वह प्राणमय भूमिका पर मन का अत्यधिक विकास कर ले तथा इसकी सक्रिय शक्ति का प्रयोग भी आत्मसंयम और स्व-तुष्टि के लिये करे तो भी ऐसा वह आसुरिक तपस्या के द्वारा ही करेगा यद्यपि यह तपस्या अपेक्षाकृत ऊंचे ढंग की होगी तथा इसका उद्देश्य भी राजसिक अहं की अधिक नियंत्रित तुष्टि करना होगा ।

 

  परन्तु अन्नमय भूमिका की भांति प्राणमय भूमिका में भी उसके अपने प्रकार में एक विशेष आध्यात्मिक महानता की ओर उठना संभव है । प्राणप्रधान मनुष्य के लिये यह मार्ग खुला है कि वह अपने-आपको कामनामय पुरुष और प्राणमय भूमिका की अपनी स्वाभाविक धारणाओं और शक्तियों के परे उठा ले जाये । वह उच्चतर मन का विकास कर सकता है और प्राणमय पुरुष की अवस्थाओं में अपने रूपों और शक्तियों के पीछे या परे विद्यमान आत्मा या पुरुष का कोई साक्षात्कार प्राप्त करने के लिये

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अपने-आपको एकाग्र कर सकता है । इस आध्यात्मिक साक्षात्कार में निष्किय शांति की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम प्रबल होगी; क्योंकि वहां सनातन के आनन्द और बल तथा अधिक प्रबल एवं स्वतुप्त शक्तियों की सक्रिय चरितार्थता की ओर क्रियाशील अनन्त सत्ता के अधिक समृद्ध विकास की सम्भावना बहुत ही बढ़ जायेगी । तथापि यह चरितार्थता सच्ची और समग्र पूर्णता के आसपास कदापि नहीं पहुंच सकती; क्योंकि अन्नमय लोक की भांति कामनालोक की अवस्थाएं भी पूर्ण आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिये उपयुक्त नहीं हैं । प्राणमय पुरुष को भी हमारी सत्ता के निम्न गोलार्द्ध में अपने जीवन की पूर्णता, सक्रियता और शक्ति को हानि पहुंचाकर ही आत्मा का विकास करना होगा और अन्त में प्राणिक सूत्र से तथा जीवन से विमुख होकर या तो नीरवता की ओर या अपनेसे परे अवस्थित अनिर्वचनीय शक्ति की ओर मुड़ना होगा । यदि वह प्राणिक जीवन से विमुख नहीं होता तो वह उसकी जंजीरों से बंधा रहेगा, उसको आत्म-पूर्णता केवल अपने ही अधिकार-बल से युक्त कामनामय लोक के तथा उसके प्रबल राजसिक तत्त्व के अधोमुख आकर्षण के द्वारा सीमित रहेगी । अतएव, प्राणिक स्तर पर भी समग्र पूर्णता प्राप्त करना सम्भव नहीं; जो आत्मा केवल यहींतक पहुंचती है उसे अधिक महान् अनुभव एवं अधिक उच्च आत्मविकास के लिये तथा आत्मा की ओर अधिक सीधे आरोहण के लिये पुन: स्थूल जीवन में आना होगा ।

 

  जड़तत्त्व और प्राण के ऊपर स्थित है मन का तत्त्व जो वस्तुओं के गुप्त 'मूल' के अधिक निकट है । मन में प्रतिष्ठित परम आत्मा मनोलोक का मनोमय पुरुष बन जाता है और वहां अपनी शुद्ध, प्रकाशमय मानसिक प्रकृति के राज्य में निवास करता है । वह विराट् बुद्धि की अतिशय स्वतंत्रता में कार्य करता है । साथ ही वहां इस बुद्धि को चैत्य मन और उच्चतर भावप्रधान मन की शक्ति की सम्मिलित क्रियाओं से सहायता प्राप्त होती है और मानसिक सत्ता के अपने विशिष्ट सत्त्वगुण के विशद ज्ञान और सुखरूपी धर्म से भी इसे सूक्ष्मता और आलोक प्राप्त होते हैं । इस भूमिका में स्थित आत्मा व्यक्ति में मनोमय पुरुष बन जाता है जिसकी प्रकृति के शासन में मन की विशदता एवं प्रकाशमय शक्ति अपने निज अधिकार से कार्य करती है; वह प्राणिक या शारीरिक साधनों के किसी प्रकार के बन्धन या उत्पीड़न के अधीन नहीं होती । बल्कि वहां मनोमय पुरुष अपने शरीर के रूपों और अपने प्राण की शक्तियों पर पूर्ण रूप से शासन करता है तथा उनका निर्धारण भी करता है । क्योंकि, मन अपने स्तर में प्राण के द्वारा सीमित और जड़तत्त्व के द्वारा प्रतिहत नहीं है जैसा कि वह यहां पार्थिव प्रक्रिया में देखने में आता है । यह मनोमय पुरुष मनोमय या सूक्ष्म शरीर में निवास करता है जो ज्ञान एवं अनुभव की तथा अन्य मनुष्यों के साथ सहानुभूति और उनके मन में प्रवेश करने की ऐसी शक्तियों का उपभोग करता है जिनकी हम कदाचित् कल्पना भी नहीं कर सकते । साथ ही, वह सूक्ष्म शरीर इन्द्रियों की एक ऐंसी स्वतंत्र,

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सूक्ष्म और व्यापक मानसीकृत शक्ति का भी उपभोग करता है जो प्राणिक या भौतिक प्रकृति की स्थूलतर अवस्थाओं से सीमित नहीं होती ।

 

  मनुष्य के अन्दर भी यह मनोमय पुरुष, मानसिक प्रकृति, मनोमय शरीर और मानसिक स्तर हैं जो स्थूल सत्ता के तल के नीचे प्रच्छन्न हैं, अज्ञात और अगोचर हैं, उसकी जाग्रत् चेतना और दृश्य शरीर के पीछे छुपे हुए हैं । वह मानसिक स्तर अन्नमय रूप को प्राप्त नहीं हुआ है । उसमें 'मन'-रूपी तत्त्व निज लोक की भांति सहज-स्वाभाविक रूप में विद्यमान है और अन्नमय भूमिका की तरह वहां उसका किसी ऐसे लोक के साथ संघर्ष नहीं है जो उसके प्रतिकूल हो, उसकी स्वतंत्रता में बाधा पहुंचाता तथा उसकी शुद्धता और विशदता को कलुषित करता हो । जैसे-जैसे मनुष्य के अन्दर का यह मानसिक स्तर उसपर दबाव डालता है वैसे-वैसे उसकी सब उच्चतर क्षमताएं उसकी बौद्धिक एवं चैत्य-मानसिक सत्ता और शक्तियां, उसकी उच्चतर आवेशात्मक प्राणशक्ति उसके अन्दर जागरित होकर बढ़ती जाती हैं । क्योंकि, जितना अधिक यह व्यक्त होता है, जितना अधिक यह भौतिक भागों पर अपना प्रभाव डालता है, उतना ही अधिक यह अन्नमय प्रकृति के अपने मिलते-जुलते मानसिक स्तर को समृद्ध और समुन्नत करता है । अपने बढ़ते प्रभुत्व के एक विशेष शिखर पर यह मनुष्य को केवल तर्कशील प्राणी न रहने देकर सच्चे अर्थो में मनुष्य बना सकता है; क्योंकि, तब यह हमारे अन्दर के मनोमय पुरुष को अपनी विलक्षण शक्ति प्रदान करता है । यह मनोमय पुरुष ही हमारी मानवता की मनोवैशानिक रचना का सारतत्त्व है जो अन्दर से शासन करता हैं, पर फिर भी जिसकी शक्ति अभीतक अत्यन्त कुंठित है ।

 

  मनुष्य के लिये यह सम्भव है कि वह इस उच्चतर मानसिक चेतना के प्रति जागरित होकर मनोमय पुरुष बन जाये, इस मानसिक प्रकृति को धारण कर ले और केवल प्राणमय तथा अन्नमय कोषों में ही नहीं, बल्कि इस मनोमय कोष में भी निवास करे । यदि यह रूपान्तर पर्याप्त पूर्ण रूप से साधित हो जाये तो वह एक ऐस जीवन और अस्तित्व को धारण करने के योग्य हों जायेगा जो कम-से-कम आधे दिव्य होंगे । क्योंकि, वह इस साधारण जीवन और शरीर के क्षेत्र से परे की शक्तियों, अनुभूतियों और अन्तर्दृष्टि का उपभोग करेगा; वह शुद्ध ज्ञान की विशदताओं के द्वारा सबका नियमन करेगा; वह प्रेममयी और प्रसन्नतापूर्ण सहानुभूति के द्वारा दूसरे प्राणियों के

 

   यहां मैं 'मन' शब्द के अन्दर मन की उस उच्चतम भूमिका को ही समाविष्ट नहीं करता जिससे मनुष्य साधारणतया परिचित है बल्कि इससे और अधिक ऊंची भूमिकाओं को भी समाविष्ट करता हूं । उनमें प्रवेश पाने के लिये या तो इस समय उसके पास कोई शक्ति नहीं है या फिर वह उनकी शक्तियों के किसी क्षीण भाग को ही आंशिक एवं मिश्रित रूप में ग्रहण कर सकता है । वे भूमिकाएं हैं--प्रकाशयुका मन, बोधिमय मन, और अन्त में सृष्टिक्षम अधिमानस या माया जो बहुत ही ऊपर स्थित है और हमारे वर्तमान अस्तित्व का मूल है । यदि मन को बुद्धिशक्ति या मानवबुद्धि के अर्थ में ही लिया जाना हो तो स्वतंत्र मनोमय पुरुष एवं उसकी भूमिका यहां दिये गये वर्णन की अपेक्षा कहीं अधिक सीमित और अत्यन्त निम्न कोटि की वस्तु होगी ।

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साथ एकता में बंधा होगा; उसके भावावेश चैत्य मन के स्तर की पूर्णतातक उठ जायेंगे, उसके संवेदन स्थूलता से मुक्त हो जायेंगे, उसकी बुद्धि सूक्ष्म, शुद्ध और नमनीय बनकर अशुद्ध प्राणशक्ति की पथभ्रष्टताओं से तथा जड़तत्त्व की बाधाओं से मुक्त हो जायेगी । साथ ही, वह किसी भी मानसिक हर्ष और ज्ञान की अपेक्षा अधिक ऊंचे ज्ञान और आनन्द को अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करने की शक्ति का विकास कर लेगा; क्योंकि, वह विज्ञान-भूमिका से आनेवाली अन्त:-प्रेरणाओं और सम्बोधियों को अधिक पूर्ण रूप में तथा हमारे अक्षम मन के विकृतिजनक और मिथ्याकारक मिश्रण के बिना ग्रहण कर सकेगा । वे अन्त:-प्रेरणाएं और सम्बोधियां विज्ञान-ज्योति के तीर के समान होती हैं और उसकी पूर्णताप्राप्त मानसिक सत्ता को इस बृहत्तर ज्योति के शक्तिपुंज और सांचे मे ढाल देती हैं । तब वह अपनी सत्ता के तृप्त सामंजस्थ में आज की अपेक्षा कहीं अधिक विशाल, अधिक ज्योतिर्मय और प्रगाढ़ तीव्रता के साथ तथा आत्मा की सक्रिय शक्ति और आनन्द की महत्तर लीला के साथ पुरुष या आत्मा का साक्षात्कारु भी प्राप्त कर सकेगा ।

 

  हमारे साधारण विचारों को यह प्राप्ति, सहज ही, सर्वोच्च पूर्णता प्रतीत हो सकती है, एक ऐसी चीज प्रतीत हो सकती है जिसे पाने के लिये मनुष्य आदर्शवाद की अपनी सर्वोच्च उड़ानों में अभीप्सा कर सकता है । निःसंदेह, शुद्ध मनोमय पुरुष के लिये उसके अपने गुण-धर्म में यह पूर्णता पर्याप्त होगी, किन्तु फिर भी आध्यात्मिक प्रकृति की महत्तर सम्भावनाओं सें यह बहुत अधिक नीचे रहेगी । क्योंकि, यहां भी हमारी आध्यात्मिक उपलब्धि मन की सीमाओं के अधीन रहेगी; और मन की प्रकृति तो एक ऐसे प्रतिबिम्बित प्रकाश से युक्त है जो हलका और छितरा हुआ है या फिर संकुचित रूप में तीव्र है, वह आत्मा के विशाल और सर्वग्राही स्वयंस्थित प्रकाश और आनन्द से युक्त नहीं है । वह बृहत्तर प्रकाश, वह गभीरतर आनन्द मानसिक प्रदेशों से परे स्थित हैं । सच पूछो तो मन आत्मा का पूर्ण यंत्र कदापि नहीं हों सकता; परम आत्माभिव्यक्ति इसकी क्रियाओं में हो ही नहीं सकती, क्योंकि, पृथक् करना, विभक्त और सीमित करना इसका निज स्वभाव ही है । यदि मन समस्त भावात्मक अनृत और प्रमाद से मुक्त हो भी सके, यदि वह पूर्ण तथा अचूक रूप से अन्तर्ज्ञानमय बन भी सके, तथापि वह केवल अर्द्ध-सत्यों या पृथक् सत्यों को ही प्रस्तुत और व्यवस्थित कर सकेगा और इन्हें भी इनके अपने स्वरूप में नहीं बल्कि ऐसे उज्जल प्रतिनिधिभूत आकारों के रूप में प्रस्तुत कर सकेगा जिन्हें इस प्रकार इकट्ठा कर दिया जाता है कि वे मिलकर एक पुंजीभूत समग्र या स्तूपमय रचना बना दें । इसलिये यहां अपनी पूर्णता को साधित करनेवाले मनोमय प्राणी को या तो अपनी निम्न सत्ता का त्याग कर शुद्ध आत्मा में चले जाना होगा अथवा पूर्णता प्राप्त करके स्थूल जीवन को फिर से अपनाना होगा, ताकि इसमें उस शक्ति का विकास किया जा सके जो हमारी मानसिक और चैत्य प्रकृति में अभीतक नहीं पायी जाती । यही सत्य उपनिषद् में भी प्रकट किया

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गया है । वहां कहा गया है कि मनोमय पुरुष को प्राप्त होनेवाले स्वर्ग वे हैं जिनकी ओर मनुष्य सूर्य की किरणों अर्थात् अतिमानसिक सत्य चेतना की प्रखर पर विकीर्ण और पृथक्-पृथक् रश्मियों के द्वारा ऊपर उठता है और इन स्वर्गों से उसे पार्थिव जीवन में लौटना पड़ता है । परन्तु जो ज्ञानदीप्त व्यक्ति पार्थिव जीवन का त्याग कर सूर्य के द्वारों में से होते हुए इस लोक के परे चले जाते हैं वे फिर यहां नहीं लौटते । मनोमय प्राणी अपने गोलार्द्ध को अतिक्रम करके फिर नहीं लौटता क्योंकि इस अतिक्रमण के द्वारा वह सत्ता के उस उच्च स्तर में प्रवेश पा लेता है जो उच्चतर गोलार्द्ध का अपना विशिष्ट स्तर है । वह उसकी महत्तर आध्यात्मिक प्रकृति को नीचे उतारकर इस निम्नतर त्रिविध सत्ता में नहीं ला सकता; क्योंकि यहां तो मनोमय पुरुष ही आत्मा की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है । यहां त्रिविध-मानसिक, प्राणिक और भौतिक-शरीर ही हमारी धारणशक्ति का प्रायः संपूर्ण क्षेत्र है और यह उस महत्तर चेतना को धारण करने के लिये पर्याप्त नहीं हों सकता; इस त्रिविध सत्ता में वह आधार अभी बना ही नहीं है जो महत्तर दिव्यता को अपने अन्दर समा सके अथवा इस अतिमानसिक शक्ति और ज्ञान के ऐश्वर्यों को अपने अन्दर प्रतिष्ठित कर सके ।

 

  परन्तु धारण-शक्ति की यह सीमा तभीतक वास्तविक होती है जबतक मनुष्य मानसिक माया की चहारदीवारी के भीतर बन्द रहता है । यदि वह उच्चतम मनोमय अवस्था से परे ज्ञानमय आत्मा में उठ जाये, यदि वह विज्ञानमय पुरुष अर्थात् विज्ञान-तत्त्व में प्रतिष्ठित आत्मा बन जाये और उसके अनन्त सत्य एवं शक्ति की प्रकृति को धारण कर ले, यदि वह विज्ञानमय कोष अर्थात् कारण शरीर में तथा प्राणमय एवं स्थूलतर अन्नमय कोषों या शरीरों को परस्पर जोड़नेवाले इस सूक्ष्म मानसिक कोष या शरीर में निवास करे तब, पर केवल तब ही वह अनन्त आध्यात्मिक चेतना के पूर्ण वैभव को अपने पार्थिव जीवन के अन्दर पूर्ण रूप से उतार लाने में समर्थ होगा; तभी वह अपनी समस्त सत्ता को और यहांतक कि अपनी संपूर्ण व्यक्त एवं मूर्त प्रकटनकारी प्रकृति को भी आध्यात्मिक राज्य में उठा ले जाने के उपयुक्त होगा । परन्तु यह कार्य अत्यन्त ही कठिन है; क्योंकि केवल कारण शरीर ही आध्यात्मिक स्तरों की चेतना और शक्तियों के प्रति सहज में खुल सकता है । और वह अपने स्वभाव से ही सत्ता के उच्चतर गोलार्द्ध का तत्त्व है, मनुष्य में तो वह या तो बिलकुल ही विकसित नहीं दुआ है या अबतक केवल अपक्व रूप में ही विकसित एवं संगठित है और हमारे अन्दर प्रच्छन्न सत्ता के अनेक मध्यवर्ती द्वारों के पीछे छुपा हुआ है । वह अपना उपादान-तत्त्व सत्य-ज्ञान तथा असीम आनन्द के स्तरों से आहरण करता है और ये स्तर पूर्णरूपेण एक उच्चतर गोलार्द्ध से सम्बन्ध रखते हैं जो अभीतक भी हमारी पहुंच से परे है । इस निम्नतर सत्ता पर अपने सत्य-प्रकाश और आनन्द की वृष्टि करते हुए ये उन सब चीजों के मूल उद्गम हैं जिन्हें हम आध्यात्मिकता तथा पूर्णता कहते हैं । परन्तु ये सत्य आदि हमारे अन्दर उन मोटे आवरणों के पीछे से छनते हुए आते हैं

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जिनमें से ये इतने हलके और दुर्बल होकर पहुंचते हैं कि ये हमारे स्थूल-भौतिक बोधों की जड़ता में पूर्णतया आच्छादित हो जाते हैं, हमारे प्राणिक आवेगों में स्थूल ढंग से विरूप और विकृत बन जाते हैं, हमारी विचारात्मक खोजों में भी, कुछ कम स्थूल रूप से ही सही, विकृत हो जाते हैं, हमारी मानसिक प्रकृति के उच्चतम अन्तर्ज्ञानात्मक क्षेत्रों की अपेक्षाकृत अधिक शुद्धता और तीव्रता में भी ये अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं । विज्ञान-तत्त्व सत्तामात्र में गुप्त रूप से अवस्थित है । स्थूल-से-स्थूल जड़ सत्ता में भी वह विद्यमान है, वह अपनी निगूढ़ शक्ति और नियमों के द्वारा निम्नतर लोकों की रक्षा करता तथा उनपर शासन करता है; पर वह शक्ति पर्दे के पीछे छुपी हुई है और वह नियम हमारी भौतिक, प्राणिक और मानसिक प्रकृति के हीनतर नियम की जकड़ी हुई-सी सीमाओं और पंगु बनानेवाली विकृतियों के द्वारा अलक्षित रूप में कार्य करता है । तथापि निम्नतम रूपों के अन्दर विज्ञान-तत्त्व की प्रभुत्वपूर्ण उपस्थिति, समस्त सत्ता के एक होने के कारण, हमें इस बात का आश्वासन देती है कि सभी पर्दों के होते हुए भी, हमारी दृश्यमान दुर्बलताओं के समस्त स्तूप तथा हमारे मन-प्राण-शरीर की अक्षमता या अनिच्छा के रहते भी वह शक्ति और नियम यहां जागरित हों सकते हैं, यहांतक कि वे पूर्ण रूप से प्रकट भी हो सकते हैं । और जो कुछ हो सकता है वह एक दिन होकर रहेगा, क्योंकि यह सर्वशक्तिमान् आत्मा का एक नियम है ।

 

  'पुरुष' की इन उच्चतर भूमिकाओं तथा इनके आध्यात्मिक प्रकृतिवाले महत्तर लोकों के स्वरूप को समझना स्वभावतः ही कठिन है । यहांतक कि वेद और उपनिषदें भी रूपकों, संकेतों और प्रतीकों के द्वारा ही इनका आभास देती हैं, तथापि दो गोलार्द्धों की सीमा पर अवस्थित मन इन्हें जहांतक समझ सकता है वहांतक इनके सिद्धान्तों और इनके क्रियात्मक प्रभाव का कुछ वर्णन करने की चेष्टा करना आवश्यक है । मन की सीमा के परे जाना आत्म-ज्ञान के द्वारा आत्म-अतिक्रमण करनेवाले योग का शिखर एवं पूर्णत्व होगा । उपनिषद् में कहा गया है कि पूर्णता की अभीप्सा करनेवाली आत्मा अन्दर तथा ऊपर की ओर मुड़कर अन्नमय पुरुष से प्राणमय में तथा प्राणमय से मनोमय में प्रवेश करती है,--मनोमय पुरुष से विज्ञानमय में तथा उस विज्ञानमय से आनन्दमय पुरुष में प्रवेश करती है । यह आनन्दमय पुरुष पूर्ण सच्चिदानन्द का चिन्मय आधार है और इसमें पहुंच जानें से आत्मा का आरोहण पूरा हो जाता है । अतएव मन को मूर्त चेतना के इस सुनिश्चित रूपान्तर का, सदा अभीप्सा करनेवाली हमारी प्रकृति के इस प्रोज्ज्वल रूपान्तर एवं आत्म-अतिक्रमण का कुछ विवरण अपने सामने प्रस्तुत करने का यत्न अवश्य करना चाहिये । मन जो वर्णन करने में समर्थ हो सकता है वह स्वयं वर्णनीय वस्तु के अनुरूप कदापि नहीं हो सकता, पर वह, कम-से-कम, उसकी किसी संकेतप्रद छाया या शायद किसी अर्द्ध-प्रकाशमान प्रतिमा की ओर अंगुलि-निर्देश अवश्य कर सकता है ।

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