Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय पांच
आत्मा के करण
यदि हमें अपनी सत्ता की सक्रिय पूर्णता प्राप्त करनी हो तो पहली आवश्यक बात यह है कि जिन करणों का प्रयोग हमारी सत्ता आज बेसुरे राग के लिये करती है उनकी क्रिया को शुद्ध किया जाये । स्वयं सत्ता किंवा आत्मा को, मनुष्य में अवस्थित दिव्य सद्वस्तु को शुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं; वह तो सदा से शुद्ध है; उपनिषद् कहती है कि जैसे सूर्य देखनेवाली आंख के दोषों से प्रभावित या लिप्त नहीं होता वैसे ही आत्मा अपने करणों की त्रुटियों से या मन, हृदय और शरीर के अपने कार्यगत स्खलनों से प्रभावित नहीं होती । मन, हृदय, प्राणिक- कामनामय पुरुष और देहस्थित प्राण अशुद्धि के घर हैं; अतएव, यदि हम चाहते हैं कि आत्मा अपना कार्य-व्यापार पूर्णत: निर्दोष रीति से करे तथा इस समय यह निम्न प्रकृति के भ्रान्तिपूर्ण सुख को जो न्यूनाधिक स्वीकृति प्रदान करती है उसकी छाप इसके कार्य पर न रहने पाये तो हमें इसके मन, हदय आदि करणों को ही शुद्ध करना होगा । साधारणत: जिसे सत्ता की शुद्धि कहा जाता है वह एक अभावात्मक शुभ्रता एवं पापमुक्तता होती है; उसकी प्राप्ति हमें इस प्रकार होती है कि जिस भी कार्य, भाव, विचार या संकल्प को हम अशुद्ध समझते हैं उसका हम बारम्बार नियन्त्रण करते हैं । या फिर सम्पूर्ण जगत् को प्रभुमय देखना, कर्म का अभाव, क्रियाशील मन और कामनामय पुरुष को पूर्णरूपेण शान्त कर देना जो निवृत्तिमार्गी साधनाओं में परम शान्ति प्राप्त करने का साधन है--इन सब को ही साधारणतः हमारी सत्ता की शुद्धि, सर्वोच्च अभावात्मक या निष्क्रिय शुद्धि, कहा जाता है; क्योंकि तब आत्मा अपने निर्मल सार-तत्त्व के सम्पूर्ण सनातन शुद्ध स्वरूप में प्रक्ट हो उठता है । इस शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति हो जाने पर उपभोग करने या सम्पन्न करने के लिये और कुछ भी शेष नहीं रह जायेगा । परन्तु इस योग में हमारे सामने एक अधिक कठिन समस्या उपस्थित है, वह यह है कि हमें अपने कर्म में किसी प्रकार की कमी किये बिना उसे समग्र रूप में, यहांतक कि पहले से अधिक विशाल और शक्तिशाली रूप में, करना है, एक ऐसा कर्म करना है जो सत्ता के पूर्ण आनन्द पर, अन्तरात्मा के करणों की प्रकृति तथा आत्मा की मूल प्रकृति की विशुद्धता पर प्रतिष्ठित हो । मन, हृदय, प्राण और शरीर को भगवान् के कार्यों को करना है, जिन कार्यों को वे इस समय करते हैं उन सभी को और उनसे भी अधिक कार्यों को, पर करना है दिव्य ढंग से जैसा कि इस समय वे नहीं करते । पूर्णता के अन्वेषक को यह भली-भांति हृदयंगम कर लेना होगा कि उसके सामने जो समस्या है उसका प्रमुख रूप यही है कि उसका लक्ष्य अभावात्मक, निषेधक,
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निष्क्रिय या शान्तिमय पवित्रता नहीं, बल्कि भावात्मक, विधेयात्मक तथा सक्रिय पवित्रता प्राप्त करना है । दिव्य शान्ति से उसे परमात्मा के परम पवित्र सनातन स्वरूप की उपलब्धि होती है, दिव्य क्रियाशीलता इस उपलब्धि में अन्तरात्मा, मन और शरीर की सत्य, विशुद्ध एवं अस्खलनशील क्रिया को भी जोड़ देती है ।
अपिच, सर्वागीण सिद्धि हमसे जिस शुद्धि की मांग करती है वह समस्त जटिल करणों की, प्रत्येक करण के सभी भागों की पूर्ण शुद्धि ही है । अन्तिम रूप से देखा जाये तो यह नैतिक प्रकृति की अधिक संकीर्ण नैतिक शुद्धि नहीं है । नैतिकता का सम्बन्ध केवल हमारे कामनामय पुरुष से तथा हमारी सत्ता के सक्रिय बाह्य शक्तिप्रधान भाग से ही है; इसका क्षेत्र चरित्र और कर्मतक ही सीमित है । यह कुछ-एक विशेष कार्यों विशेष कामनाओं, आवेगों तथा प्रवृत्तियों का निषेध एवं दमन करती हैं, --यह कार्य में कुछ-एक विशेष गुणों को, जैसे सत्य, प्रेम, उदारता, करुणा तथा ब्रह्मचर्य को अपनाने की शिक्षा देती है । जब यह हमारी सत्ता में इतना कार्य सिद्ध करा लेती है और पुण्य कर्म का एक सुनिश्चित आधार करा लेती है, अर्थात् जब हम शद्ध संकल्प तथा कार्य करने के निर्दोष स्वभाव से सम्पन्न हो जाते हैं तो इस (नैतिकता) का कार्य समाप्त हो जाता है । परन्तु सर्वांगीण सिद्धि से सम्पन्न सिद्ध को शुभ और अशुभ से परे परमात्मा की सनातन पवित्रता के विशालतर स्तर में निवास करना होगा । उतावली से परिणाम निकालनेवाली अविवेकपूर्ण बुद्धि ''शुभ और अशुभ से परे'' इस उक्ति का अर्थ अपनी ही कल्पना से ऐसा करने में प्रवृत्त होगी कि सिद्ध पुरुष शुभ और अशुभ कार्यों को उदासीन भाव से करेगा तथा यह घोषणा करेगा कि आत्मा के निकट इन दोनों में कोई भेद नहीं है; वैयक्तिक कर्म के क्षेत्र में यह अर्थ स्पष्टतः ही असत्य होगा और सम्भवत: अपूर्ण मानव-प्रकृति की स्वच्छन्द भोगवृत्ति पर पर्दा डालने का काम करेगा, पर असल में इस उक्ति का अर्थ यह नहीं है । इसका अर्थ यह भी नहीं है कि चूंकि शुभ और अशुभ इस जगत् में एक-दूसरे के साथ सुख और दुःख के समान अविच्छेद्य रूप में उलझे हुए हैं, --यह एक ऐसी स्थापना है जो इस समय कैसी भी सच्ची क्यों न हो तथा एक व्यापक सिद्धान्त के रूप में कितनी भी युक्तियुक्त क्यों न दीखती हो, तो भी महत्तर आध्यात्मिक विकास को प्राप्त हुए मनुष्य के बारे में इसका सच्चा होना आवश्यक नहीं, --अतएव, मुक्त व्यक्ति आत्मा में निवास करेगा और अनिवार्यत: --अपूर्ण प्रकृति की सतत यान्त्रिक क्रियाओं से पीछे हटकर अपने अन्दर ही स्थित रहेगा । यह समस्त कार्य-व्यापार के अन्तिम निरोध की दिशा में एक अवस्था के रूप में भले ही सम्भव हो, पर स्पष्टत: ही, यह सक्रिय सिद्धि का आदर्श तो नहीं है । परन्तु शुभ और अशुभ से परे होने का अर्थ यह है कि सर्वांगीण सक्रिय सिद्धि से सम्पन्न सिद्ध व्यक्ति भागवत आत्मा की परात्पर शक्ति की क्रिया में सक्रिय रूप से जीवन धारण करेगा । यह शक्ति
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ऐसे सिद्ध पुरुष के अन्दर अपने कार्य के लिये अतिमानस को व्यक्तिभावापन्न रूप देकर इसके द्वारा विराट् संकल्पशक्ति के रूप में कार्य करती है । अतएव, ऐसे सिद्ध पुरुष के कर्म सनातन ज्ञान, सनातन सत्य, सनातन शक्ति, सनातन प्रेम और सनातन आनन्द के कर्म होंगे; किन्तु वह जो भी कार्य करेगा, सत्य, ज्ञान, शक्ति, प्रेम और आनन्द उस कार्य का सम्पूर्ण मूल भाव होंगे और ये सब तत्त्व उस कार्य के बाह्य रूप पर निर्भर नहीं करेंगे; ये ही अन्तःस्थ भावात्मा से उसके कार्य का निर्धारण करेंगे, पर कार्य भावात्मा का निर्धारण नहीं करेगा, न ही यह इसे काम करने के किसी नियत आदर्श या कठोर सांचे के अनुसार ढालेगा । उसके अन्दर किसी निरे चारित्रिक अभ्यास का प्रभुत्व नहीं होगा, बल्कि होगा केवल आध्यात्यिक अस्तित्व एवं संकल्प जिसके साथ बहुत हुआ तो कार्य के लिये एक स्वतन्त्र एवं नमनीय स्वभावात्मक सांचा भी रहेगा । उसका जीवन सीधे ही सनातन स्रोत से निकलते हुए एक प्रवाह के समान होगा, यह कोई ऐसा रूप नहीं होगा जो किसी अस्थायी मानवीय सांचे के अनुसार गढ़ा गया हो । उसकी पूर्णता किसी प्रकार की सात्त्विक शुद्धि नहीं होगी, बल्कि एक ऐसी चीज होगी जो प्रकृति के गुणों से ऊपर उठी होगी, आध्यात्मिक ज्ञान, आध्यात्मिक शक्ति, आध्यात्मिक आनन्द, एकत्व तथा तज्जनित सामञ्जस्य की पूर्णता होगी; उसके कर्मों की बाह्य पूर्णता इस आन्तर आध्यात्मिक परात्परता और विश्वमयता की अभिव्यक्ति के रूप में स्वतन्त्रतापूर्वक गठित होगी । इस परिवर्तन के लिये उसे अपने भीतर आत्मा और अतिमानस की उस शक्ति को सचेतन करना होगा जो इस समय हमारे मन के लिये अतिचेतन है । परन्तु यह शक्ति उसके अन्दर अपना कार्य तबतक नहीं कर सकती जबतक उसकी वर्तमान मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक सत्ता अपनी प्रकृत निम्न क्रिया से मुक्त न हों जाये । अतएव, निम्न सत्ता की इस प्रकार की शुद्धि करना सबसे पहले आवश्यक है ।
दूसरे शब्दों में, हमें शुद्धि का कोई ऐसा सीमित अर्थ नहीं लेना चाहिये कि किन्हीं बाह्य रजोगुणी चेष्टाओं को चुनकर उन्हें नियमित करना, अन्य सब कार्यों का निषेध करना अथवा चरित्र के कुछ-एक रूपों या किन्हीं विशेष मानसिक एवं नैतिक क्षमताओं को उत्युक्त करना--इसीका नाम शुद्धि है । ये चीजें तो हमारी निर्मित सत्ता के गौण लक्षण हैं, मूलभूत शक्तियां एवं प्रमुख बल नहीं । हमें अपनी प्रकृति की मौलिक शक्तियों के विषय में एक अधिक विशाल मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना होगा । हमें अपनी सत्ता के गठित भागों को मूल सत्ता से पृथक् रूप में स्पष्टतया जानना होगा, उनकी अशुद्धता या अशुद्ध क्रिया-रूपी मूल त्रुटि को ढ़ूंढ़कर सुधारना होगा । यह निश्चय रखते हुए कि शेष सब फिर स्वभावत: ही ठीक हो जायेगा । हमारा कर्तव्य अशुद्धता के बाह्य लक्षणों का निदान करना नहीं है, अथवा यदि यह कार्य करना भी हो तो केवल गौणतया, एक सामान्य सहायक साधन के
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रूप में ही करना होगा, --पर हमारा मुख्य कार्य है इसका बहुत गहरा निदान करके इसकी जड़ों पर कुठाराघात करना । गहरा निदान करने पर हमें पता चलता है कि अशुद्धता के दो रूप हैं जो सम्पूर्ण अव्यवस्था की जड़ हैं । उनमें से एक तो वह है जिसे हमारे अतीत विकास के स्वरूप से अर्थात् भेदमूलक अज्ञान के स्वरूप से उत्पन्न हुई त्रुटि कह सकते हैं; अपनी करणात्मक सत्ता के प्रत्येक भाग की विशिष्ट क्रिया को हम जो मूलत: अयथार्थ एवं अज्ञानमय रूप दे देते हैं वही इस त्रुटि या अशुद्धता का स्वरूप है । दूसरी अशुद्धता विकास की क्रमिक प्रक्रिया से उत्पन्न होती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में प्राण शरीर में प्रकट होता है तथा उसीपर निर्भर करता है, मन शरीरस्थ प्राण में प्रकट होता है और उसपर निर्भर करता है, अतिमानस मन में उद्भूत होता है तथा उसपर शासन करने के स्थान पर उसीका सहायक बन जाता है, स्वयं अन्तरात्मा भी मनोमय प्राणी के शारीरिक जीवन की एक घटना के रूप में ही प्रतीत होता है और आत्मा को निम्नतर अपूर्णताओं में ढक देता है । हमारी प्रकृति की यह दूसरी त्रुटि निम्नतर भागों के प्रति उच्चतर भागों की इस अधीनता से उत्पन्न होती है; यह (त्रुटि) कार्यों का एक प्रकार का मिश्रण (धर्मसंकर) ही है जिसके द्वारा निम्न करण की अशुद्ध क्रिया उच्चतर करण की विशिष्ट क्रिया में घुस जाती है और इसके अन्दर जटिलता, अशुद्ध दिशा एवं अव्यवस्था-रूपी एक और अपूर्णता की वृद्धि कर देती है ।
इस प्रकार जीवन-तत्त्व किंवा प्राणशक्ति की अपनी विशिष्ट क्रिया उपभोग और प्राप्ति है, ये दोनों ही चीजें पूर्णतया उचित हैं, क्योंकि परमात्मा ने जगत् की रचना आनन्द के लिये ही की थी । आनन्द का मतलब है एक के द्वारा बहु का, बहु के द्वारा एक का तथा बहु के द्वारा बहु का उपभोग एवं उसकी प्राप्ति; पर भेदजनक अज्ञान इस आनन्द को कामना एवं वासना का असत्य रूप दे देता है, यह कामना एवं वासना समस्त उपभोग एवं प्राप्ति को कलुषित करके इसपर इसके विरोधी रूपों अर्थात् अभाव और दुःख को थोप देती है--यह पहले प्रकार की त्रुटि (अशुद्धि) का उदाहरण है । फिर, क्योंकि मन जिस प्राण में से विकसित होता है उसीमें उलझ जाता है, यह कामना और वासना मानसिक संकल्प और ज्ञान की क्रिया में मिश्रित हो जाती हैं; यह मिश्रण संकल्प को बुद्धि-नियत संकल्प के और बुद्धिमत्तापूर्ण परिणाम उत्पन्न करने में सक्षम विवेकपूर्ण शक्ति के स्थान पर वासनामय संकल्प एवं कामनामय शक्ति बना देता है, और यह निर्णय-शक्ति तथा तर्कबुद्धि को विकृत कर देता है । परिणामत: हम अपनी कामनाओं और पूर्व धारणाओं के अनुसार ही निर्णय और तर्क-वितर्क करते हैं न कि शुद्ध निर्णय-शक्ति की निःस्वार्थ निष्पक्षता तथा एक ऐसी बुद्धि की यथार्थता के साथ जो केवल सत्य को स्पष्ट रूप में जानना तथा इसकी क्रियाओं के लक्ष्यों को ठीक-ठीक समझना चाहती है । यह मिश्रण का एक उदाहरण है । ये दो प्रकार की त्रुटियां, अर्थात् क्रिया का अशुद्ध रूप और क्रिया का अनुचित मिश्रण, इन विशेष दृष्टान्तोंतक ही सीमित नहीं हैं;
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बल्कि सभी करणों से तथा उनकी क्रियाओं के प्रत्येक मिश्रण से सम्बन्ध रखती हैं । ये हमारी प्रकृति की सम्पूर्ण मितव्ययतापूर्ण व्यवस्था में ओतप्रोत हैं । ये हमारी निम्नतर करणात्मक प्रकृति की मूलभूत त्रुटियां हैं, और यदि हम इन्हें सुधार सकें, तो हमारी करणात्मक सत्ता अपनी शुद्ध स्थिति में पहुंच जायेगी और हम शुद्ध संकल्प की निर्मलता तथा शुद्ध भावमय हृदय का, अपने प्राण के शुद्ध भोग एवं शुद्ध काया का आनन्दोपभोग करेंगे । यह प्रारम्भिक अर्थात् मानवीय पूर्णता होगी, पर इसे दिव्य पूर्णता का आधार बनाया जा सकता है तथा आत्मोपलब्धि के प्रयत्न में यह एक महत्तर एवं दिव्य पूर्णता की ओर खुल सकती है ।
मन, प्राण और शरीर हमारी निम्न प्रकृति की तीन शक्तियां हैं । परन्तु इन्हें बिलकुल पृथक्-पृथक् रूप में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि प्राण एक जोड़नेवाली कड़ी के रूप में कार्य करता है और शरीर को तथा एक बड़ी हदतक हमारे मन को भी अपना स्वभाव दे देता है । हमारा शरीर एक प्राणयुक्त शरीर है; प्राण-शक्ति इसकी सभी क्रियाओं में मिल जाती है तथा उन्हें निर्धारित करती है । हमारा मन भी अधिकांश में प्राणप्रधान मन है जो भौतिक संवेदन को ही ग्रहण करता है; अपने उच्चतर व्यापारों में ही यह स्वाभाविक रूप से, प्राणग्रस्त स्थूल मन की क्रियाओं से अधिक बड़ी कोई क्रिया कर सकता है । इन करणों को हम इस चढ़ती हुई क्रम-शृंखला में रख सकते हैं । सबसे पहले है हमारा शरीर जिसे भौतिक प्राणशक्ति अर्थात् स्थूल प्राण धारण किये है; यह प्राण सम्पूर्ण स्नायुमण्डल में गति करता है और हमारे शरीर के कार्य पर अपनी छाप लगा देता है । परिणामस्वरूप, इसके सभी कार्य किसी जड़-यान्त्रिक शरीर की नहीं, बल्कि एक सजीव शरीर की क्रिया का स्वभाव धारण किये रहते हैं । प्राण और भौतिक सत्ता इन दोनों के मेल से स्थूल शरीर बनता है । यह केवल बाह्य करण है, इसमें प्राण की स्नायविक शक्ति स्थूल-भौतिक इन्द्रियों से युक्त शरीर के रूप में कार्य करती है । इसके बाद आता है आभ्यन्तरिक करण, अन्तःकरण, चेतन मन । प्राचीन दर्शन में इस अन्तःकरण को चार शक्तियों में विभक्त किया गया है; चित्त या आधारभूत मानसिक चेतना; मन अर्थात् इन्द्रियाश्रित मन; बुद्धि, अहंकार अर्थात् अहं-भावना । यह वर्गीकरण आरम्भबिन्दु का काम कर सकता है, यद्यपि एक अधिक महान् क्रियात्मक प्रयोजन के लिये हमें कुछ और भेद करने होंगे । यह मन प्राणशक्ति से व्याप्त है जो कि सूक्ष्म प्राणमय चेतना के लिये तथा प्राण पर सूक्ष्म क्रिया के लिये यहां एक यन्त्र बनकर रहती है। इन्द्रियाश्रित मन और आधारभूत चेतना (चित्त) का एक-एक रेशा इस सूक्ष्म प्राण की क्रिया से ओतप्रोत है, यह स्नायविक या प्राणिक एवं भौतिक मन है । यहांतक कि बुद्धि और अहंकार भी इस प्राण से अभिभूत हैं, यद्यपि इनके अन्दर मन को इस प्राणिक, स्नायविक एवं स्थूल-मानसिक भूमिका के बन्धन से ऊपर उठाने की शक्ति विद्यमान है । यह स्थूल तथा सूक्ष्म प्राण, चित और
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इन्द्रियाश्रित मन मिलकर हमारे अन्दर सम्वेदनप्रधान कामनामय पुरुष को जन्म देते हैं; यह कामनामय पुरुष उच्चतर मानवीय पूर्णता तथा इससे भी महान् दैवी पूर्णता की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है । अन्त में, हमारे वर्तमान चेतन मन के ऊपर एक गुह्य अतिमानस है जो इस दिव्य पूर्णता का वास्तविक साधन एवं निज धाम है ।
चित्त अर्थात् आधारभूत चेतना अधिकांश में अवचेतन है; इसकी, प्रकट और गुप्त, दो प्रकार की क्रियाएं होती हैं, उनमेंसे एक में यह निष्क्रिय या ग्रहणशील होता है और दूसरी में सक्रिय या प्रतिक्रियाशील एवं रचनाकारी । एक निष्क्रिय शक्ति के रूप में यह सभी बाह्य स्पर्शों को ग्रहण करता है, उनको भी जिनका अनुभव मन को नहीं होता या जिनकी ओर वह ध्यान नहीं देता । उन सब स्पर्शों को यह निष्क्रिय अवचेतन स्मृति के बृहत् भण्डार में सच्चित कर रखता है । मन एक सक्रिय स्मृति-शक्ति के रूप में इस भण्डार में से उन्हें प्राप्त कर सकता है । पर साधारणत: मन इनमें से उसी चीज को ग्रहण करता है जिसे इसने उसके प्रथम स्पर्श के समय ध्यानपूर्वक देखा और समझा था, --जिसे इसने अच्छी तरह देखा तथा ध्यानपूर्वक समझा था उसे तो अधिक आसानी से ग्रहण करता है और जिसे इसने ध्यानपूर्वक नहीं देखा था या अच्छी तरह नहीं समझा था उसे कम आसानी से; साथ ही, चेतना के अन्दर यह शक्ति भी है कि सक्रिय मन ने जिस चीज को बिल्कुल ही नहीं देखा था या जिसपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया था अथवा जिसे सचेत रूप में अनुभवतक नहीं किया था उसे भी यह प्रयोग के लिये उपरितल पर मन के पास भेज सकती है । यह शक्ति उन असामान्य अवस्थाओं में ही प्रत्यक्ष रूप से कार्य करती है जब अवचेतन चित्त का कोई भाग मानो ऊपरी तल पर आ जाता है अथवा जब हमारे अन्दर की प्रच्छन्न सत्ता प्रकट होकर मन की डयोढ़ी पर आ खड़ी होती है और कुछ समय के लिये मन के बाह्य प्रकोष्ठ की हलचल में कुछ भाग लेती है जहां कि बाह्य जगत् के साथ हमारा सीधा व्यवहार एवं आदान- प्रदान चलता है और अपने साथ हमारे आभ्यन्तरिक व्यवहार उपरितल पर प्रस्कृटित होते हैं । स्मृति-शक्ति की यह क्रिया सम्पूर्ण मानसिक व्यापार के लिये इतनी मौलिक रूप से आवश्यक है कि कभी-कभी यह कहा जाता है--स्मरणशक्ति ही मनुष्य है । यहांतक कि शरीर और प्राण की अवमानसिक क्रिया में भी, जो चेतन मन के नियन्त्रण में न रहती हुई भी इस अवचेतन चित्त की क्रिया से परिपूर्ण है, एक प्रकार की प्राणिक एवं शारीरिक स्मृति कार्य करती है । प्राण और शरीर के अभ्यास अधिकांश में इस अवमानसिक स्मरणशक्ति के द्वारा ही निर्मित होते हैं । इस कारण इन्हें चेतन मन और संकल्प की अधिक शक्तिशाली क्रिया के द्वारा अनिश्चित सीमातक बदला जा सकता है, पर ऐसा तभी हों सकता है जब चेतन मन एवं संकल्प विकसित होकर प्राणिक और शारीरिक कार्य के नये नियम के लिये आत्मा के संकल्प को अवचेतन चित्ततक पहुंचाने का साधन प्राप्त करने में सफल
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हों जाये । अपिच, हमारे प्राण और शरीर की सम्पूर्ण रचना का वर्णन इस रूप में किया जा सकता है कि यह आदतों का गट्ठर है । ये आदतें अतीत प्राकृतिक विकास से निर्मित हुई हैं और इस गुप्त चेतना की सुस्थिर स्मृति के द्वारा एक साथ सुरक्षित रखी गयी हैं । क्योंकि, प्राण और शरीर के समान चित्त अर्थात् चेतना का मौलिक उपादान भी विश्व-प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त है, पर जड़ात्मक प्रकृति में यह अवचेतन और यान्त्रिक है।
किन्तु वास्तव में मन या अन्तःकरण की समस्त क्रिया इस चित्त या आधारभूत चेतना में से उद्भूत होती है, यह चेतना हमारे सक्रिय मन के लिये कुछ अंश में तो चेतन है और कुछ अंश में अवचेतन या प्रच्छन्न । जब इसपर बाहर से जगत् के सम्पर्कों का आघात पड़ता है अथवा जब यह स्वानुभवात्मक अन्तःसत्ता की चिन्तनात्मक शक्तियों से प्रेरित होती है तो यह कुछ विशेष प्रकार की अभ्यस्त क्रियाओं को उपरितल पर फेंकती है । इन क्रियाओं का सांचा हमारे विकास के द्वारा निर्धारित हुआ होता है । क्रिया के इन रूपों में से एक है भावप्रधान मन, --सुविधाजनक संक्षेप के लिये हम इसे हृदय कह सकते हैं । हमारे भावावेग प्रतिक्रिया और प्रत्युत्तर की तरंगें, चित्तवृत्तियां, हैं जो आधारभूत चेतना से उठती हैं । उनकी क्रिया भी अधिकांश में अभ्यास और भावमय स्मृति के द्वारा नियन्त्रित होती है । वे कोई अलंध्य सत्य नहीं हैं, अटल नियम नहीं हैं; हमारी भावमय सत्ता का ऐसा एक भी नियम नहीं है जो हमारे लिये वस्तुत: अनिवार्य हो तथा जिसके अधीन होने के सिवा हमारे लिये और कोई चारा न हो; हम इस बात के लिये बाध्य नहीं हैं कि मन पर पड़नेवाले अमुक आघातों के प्रति शोक के रूप में प्रतिक्रिया करें तथा अमुक आघातों के प्रति क्रोध के रूप में, किन्हीं अन्य आघातों के प्रति घृणा या विद्वेष के रूप में प्रतिक्रिया करें एवं किन्हीं और के प्रति पसन्दगी या प्रेम के रूप में । ये सब चीजें तो हमारे भावना-प्रधान मन के अभ्यासमात्र हैं; इन्हें आत्मा के सचेतन संकल्प के द्वारा बदला जा सकता है; इनका दमन किया जा सकता है; यहांतक कि हम शोक, क्रोध एवं घृणा के प्रति तथा रुचि और अरुचि के द्वंद्व के प्रति समस्त अधीनता से सर्वथा ऊपर भी उठ सकते हैं । इन चीजों के दास हम तभीतक रहते हैं जबतक हम भावप्रवण मन में होनेवाली चित्त की यान्त्रिक क्रिया के अधीन बने रहते हैं, पर यह एक ऐसी क्रिया है जिससे मुक्त होना अतीत अभ्यास की शक्ति के कारण और विशेषकर मन के प्राणिक भाग अर्थात् स्नायविक प्राणप्रधान मन या सूक्ष्म प्राण के अति दृढ़ आग्रह के कारण कठिन है । भावप्रधान मन की यह प्रकृति चित्त की एक प्रकार की प्रतिक्रिया ही है, इसमें वह स्नायविक प्राण-सम्वेदनों पर और सूक्ष्म प्राण की प्रतिक्रियाओं पर एक प्रकार से घनिष्ठ रूप में निर्भर करता है, उसकी यह प्रकृति एक इतनी विशिष्ट प्रकृति है कि कुछ भाषाओं में उसे चित्त और प्राण, हृदय एवं प्राणमय पुरुष कहा
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जाता है । निःसन्देह, वह कामनामय पुरुष की एक अत्यन्त प्रत्यक्षत: उत्तेजक तथा प्रबलतया आग्रहपूर्ण क्रिया है जिसे प्राणिक कामना और प्रतिक्रियाशील चेतना के मिश्रण ने हमारे अन्दर जन्म दिया है । किन्तु फिर भी सच्चा भावप्रधान पुरुष, हमारे अन्दर का सच्चा चैत्य, कोई कामनामय पुरुष नहीं, बल्कि शुद्ध प्रेम और आनन्द से युक्त पुरुष है; पर हमारी शेष सच्ची सत्ता के समान वह भी तभी प्रकट हो सकता है जब कामनामय जीवन के द्वारा उत्पन्न विकृति ऊपरी सतहपर से मिट जाये और पहले की तरह हमारी सत्ता की एक विशिष्ट क्रिया न रहे । इस कार्य को सम्पन्न कराना हमारी शुद्धि, मुक्ति और सिद्धि का एक आवश्यक अंग है ।
सूक्ष्म प्राण की स्नायविक क्रिया हमारे शुद्ध सम्वेदनात्मक मन में अत्यन्त प्रत्यक्ष रूप से अनुभूत होती है । यह स्नायविक मन वस्तुत: अन्तःकरण की समस्त क्रिया का पीछा करता है और बहुधा सम्वेदन से भिन्न अन्य मानसिक क्रियाओं के अधिक बड़े अंश का निर्माण करता प्रतीत होता है । भावावेगों पर यह विशेष रूप से आक्रमण करता है और उनपर प्राण की छाप लगा देता है; यहांतक कि भय भावावेग की अपेक्षा कहीं अधिक एक स्नायविक सम्वेदन है, क्रोध अधिकांश में या बहुधा ही एक सम्वेदनात्मक प्रत्युत्तर होता है जो भावावेश के रूप में परिणत हो जाता है । अन्य भाव अधिकांश में हृदय के अर्थात् अधिक अन्तरीय होते हैं, पर वे सूक्ष्म प्राण की स्नायविक और भौतिक लालसाओं या आवेगपूर्ण बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के साथ सम्बन्ध जोड़ लेते हैं । प्रेम हृदय का एक आवेग है और एक शुद्ध भाव हो सकता है, --क्योंकि हम देहाधिष्ठित मन हैं, समस्त मानसिक क्रिया को जीवन पर किसी प्रकार का प्रभाव तथा शरीर के उपादान-तत्त्व में कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न करनी ही चाहिये, यहांतक कि विचार भी कोई ऐसा प्रभाव एवं प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है, पर यह आवश्यक नहीं कि वे प्रभाव और प्रतिक्रिया इसी कारणवश भौतिक ढंग के ही हों, --किन्तु हृदय का प्रेम शरीर में रहनेवाली प्राणिक कामना के साथ सहज में ही सम्बन्ध स्थापित कर लेता है । इस भौतिक तत्त्व को शारीरिक कामना के प्रति उस दासता से जिसे कामवासना कहते हैं, मुक्त एवं शुद्ध किया जा सकता है, यह एक ऐसा प्रेम बन सकता है जो शरीर का प्रयोग भौतिक तथा मानसिक एवं आध्यात्मिक समीपता के लिये करे; पर यह भी सम्भव है कि प्रेम अपने-आपको सब चीजों से, यहांतक कि अत्यन्त निर्दोष भौतिक तत्त्व से भी या इसकी छाया के सिवा सभी चीजों से पृथक् करके आत्मा के साथ आत्मा एवं चैत्य के साथ चैत्य के मिलन के लिये एक शुद्ध क्रिया बन जाये । तथापि सम्वेदनप्रधान मन का अपना विशेष धर्म भावावेश नहीं है, बल्कि सचेतन स्नायविक प्रत्युत्तर एवं स्नायविक भाव-भावना है, स्थूल इन्द्रिय और शरीर को किसी कार्य के लिये प्रयुक्त करने का आवेग है, सचेतन प्राणिक लालसा और कामना है । एक पहलू तो है ग्रहणशील प्रत्युत्तर का और दूसरा है शक्तिशाली
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प्रतिक्रिया का । इन चीजों का अपना विशेष स्वाभाविक उपयोग तभी होता है जब उच्चतर मन यान्त्रिक रूप से इनके अधीन न होकर इनकी क्रिया को नियन्त्रित एवं व्यवस्थित करता है । किन्तु इससे भी ऊंची अवस्था वह होती है जब ये आत्मा के सचेतन संकल्प के द्वारा एक प्रकार का रूपान्तर प्राप्त कर लेती हैं; यह संकल्प सूक्ष्म प्राण को उसकी विशिष्ट क्रिया का अशुद्ध या कामनामय रूप नहीं, बल्कि यथार्थ रूप प्रदान करता है ।
हमारी साधारण चेतना में मन अर्थात् इन्द्रियाश्रित मन ज्ञानप्राप्ति के लिये तो बाह्य स्पर्शो को ग्रहण करनेवाली स्थूल ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर करता है और इन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति के लिये किये जानेवाले कार्य के लिये शरीर की कर्मेन्द्रियों पर । इन्द्रियों के स्थूल एवं बाह्य कार्य का स्वरूप भौतिक एवं स्नायविक होता है, और इन्हें सहज में ही स्नायुओं की क्रिया के परिणाममात्र समझा जा सकता है; प्राचीन ग्रन्थों में इन्हें कहीं-कहीं प्राणा: अर्थात् स्नायविक या प्राणिक क्रियाएं भी कहा गया है । किन्तु फिर भी उनके अन्दर जो सारभूत वस्तु है वह कोई स्नायविक उत्तेजना नहीं, वरन् एक चेतना है अर्थात् चित्त की एक क्रिया है जो हमारी इन्द्रिय का तथा इस इन्द्रिय-रुपी माध्यम से प्राप्त होनेवाले स्नायविक स्पर्श का उपयोग करती है । मन अर्थात् इन्द्रियाश्रित मन एक ऐसी क्रिया है जो आधारभूत चेतना से उद्भूत होती है; जिसे हम इन्द्रिय कहते हैं उसका सम्पूर्ण सारतत्त्व इस क्रिया में ही निहित है । देखना, सुनना, चखना, सूंघना और छूना वास्तव में शरीर के नहीं मन के गुण हैं; परन्तु स्थूल मन, जिसका हम साधारणतया प्रयोग करते हैं, स्नायुमण्डल तथा स्थूल इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये हुए बाह्य स्पर्शोंतक ही अपने को सीमित रखकर उन्हींको इन्द्रियानुभव का रूप देता है । परन्तु आभ्यन्तरिक मन में भी देखने, सुनने और विषय के साथ सम्पर्क स्थापित करने की अपने ढंग की एक सूक्ष्म शक्ति है जो स्थूल इन्द्रियों पर अवलम्बित नहीं है । अपिच, इसमें स्थूल पदार्थ के साथ मन का सीधा सम्बन्ध एवं आदान-प्रदान स्थापित करने की शक्ति भी है-जो अपनी क्रिया की पराकाष्ठा होने पर भौतिक स्तर के भीतर या परे की वस्तु के अन्तर्निहित तत्त्वों का बौधतक प्राप्त करा देती है, --इतना ही नहीं, वरन् इसमें मन का मन के साथ सीधा सम्बन्ध एवं आदान-प्रदान स्थापित कर देने की शक्ति भी है । इन्द्रियों पर (बाह्य जगत् के) जो आघात होते हैं उनके क्षेत्र को, उनके मूल्यों और वेगों को मन परिवर्तित, संशोधित तथा नियन्त्रित भी कर सकता है । साधारणतया हम मन की इन शक्तियों का प्रयोग या विकास नहीं करते; ये अन्त-सत्ता में प्रच्छन्न रहती हैं और एक अनियमित तथा उत्तेजनात्मक क्रिया के रूप में कभी-कभी ही उद्भूत होती हैं, कुछ लोगों के मन में ये अन्यों की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से प्रकट होती हैं, या फिर ये सत्ता की असामान्य अवस्थाओं में ही ऊपरी सतह पर आती हैं । दिव्य दृष्टि, दिव्य श्रवणशक्ति, विचार और आवेग का
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स्थानान्तरण, दूरविचार-प्राप्ति, अधिक साधारण प्रकार की अनेकों गुह्य शक्तियां,--इन सबके मूल में (सूक्ष्म, आभ्यन्तर) एक मन की उक्त शक्तियां ही कार्य करती हैं । जिन शक्तियों को गुह्य कहते हैं उन्हें अधिक अच्छे ढंग से, एक अपेक्षाकृत कम रहस्यमय रूप में यों वर्णित किया जाता है कि ये मन की अद्यावधि प्रच्छन्न क्रिया की शक्तियां हैं । सम्मोहन-वशीकरण के तथा और भी बहुत से दृग्विषय इन्द्रियाश्रित मन की इस प्रच्छन्न क्रिया पर आधार रखते हैं, यह मतलब नहीं कि इन दृग्विषयों के सभी तत्त्वों का गठन एकमात्र यही क्रिया करती है, पर पारस्परिक सम्बन्ध, आदान-प्रदान तथा प्रत्युत्तर का प्रथम आश्रयभूत साधन यही होती है, यद्यपि वास्तविक क्रिया का अधिकांश आन्तरिक बुद्धि से ही सम्बन्ध रखता है । भौतिक मन, अतिभौतक मन-यह दोनों प्रकार का इन्द्रियाधिष्ठित मन हमारे अन्दर है और हम इसका उपयोग कर सकते हैं ।
बुद्धि चेतन सत्ता की एक रचना है जो आधारभूत चित्त में से उत्पन्न हुए अपने आरम्भिक रूपों से सर्वथा परे. है; यह ज्ञान और संकल्प की शक्ति से युक्त बुद्धि है । यह मन, प्राण और शरीर की शेष सब क्रियाओं को अपने हाथ में लेकर उन्हें निष्पन्न करने का यत्न करती है । यह स्वरूपत: आत्मा की विचार-शक्ति एवं संकल्प-शक्ति है जो मानसिक क्रिया के निम्न रूप में परिणत हो गयी है । इस बुद्धि की क्रिया को हम तीन क्रमिक भूमिकाओं में विभक्त कर सकते हैं । उनमेंसे पहली भुमिका है निम्न बोधात्मक समझ जो इन्द्रियाश्रित मन, स्मरण-शक्ति, हृदय और सम्वेदनात्मक मन के सन्देशों को केवल ग्रहण और अंकित करती है, समझती और प्रत्युत्तर देती है । इनकी सहायता से वह एक प्राथमिक चिन्तनात्मक मन को जन्म देती है जो इनके द्वारा प्राप्त तथ्यों के परे नहीं जाता, बल्कि अपने-आपको इनके सांचे के अनुसार ढाल लेता है और इनकी पुनरावृत्तियों को ही गुंजारित करता है, इनके सुझाये हुए विचार और संकल्प के अभ्यस्त घेरे में ही चक्कर काटता रहता है अथवा, प्राण के सुझावों के प्रति बुद्धि की आज्ञानुवर्तिता के साथ, ऐसे किन्हीं भी नये निर्धारणों का अनुसरण करता है जो उसके बोध और विचार के समक्ष प्रस्तुत हों । इस प्राथमिक बुद्धि का उपयोग तो हम सभी प्रचुर मात्रा में करते हैं; इसके परे बुद्धि के व्यवस्थाकारी या चयनशील विवेक एवं संकल्प की शक्ति है जिसका कार्य एवं लक्ष्य जीवन-विषयक बौद्धिक विचार के निमित्त ज्ञान और संकल्प की एक आपात-सत्य, उपयुक्त और सुस्थिर व्यवस्था को प्राप्त करने के लिये यत्न करना है ।
इस गौण या मध्यवर्ती बुद्धि का स्वरूप अधिक विशुद्ध रूप में बौद्धिक होनेपर भी, इसका उद्देश्य वस्तुत: व्यावहारिक है । यह एक विशेष प्रकार की बौद्धिक रचना, ढांचे एवं नियम का निर्माण करती है जिसके अनुसार यह आभ्यन्तरिक एवं बाह्य जीवन को ढालने का यत्न करती है ताकि यह किसी प्रकार के बुद्धिमूलक
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संकल्प के प्रयोजनों के लिये एक प्रकार के प्रभुत्व और अधिकार के साथ उसका (जीवनका) प्रयोग कर सके । यही बुद्धि हमारी सामान्य बौद्धिक सत्ता को हमारे नियत सौन्दर्यात्मक एवं नैतिक मानदण्ड, हमारी गढ़ी-गढ़ायी सम्मतियां तथा विचार एवं उद्देश्यसम्बन्धी हमारे प्रचलित आदर्शमान प्रदान करती है । यह अत्यधिक विकसित है और सभी मनुष्यों में एकमात्र विकसित बुद्धि का प्रधान पद ग्रहण करती है । परन्तु इसके परे एक विवेक-बुद्धि हैं, बुद्धि की एक उच्चतम क्रिया है, जो निष्काम भाव से शुद्ध सत्य और यथार्थ ज्ञान की खोज में लगी रहती है; वह जीवन और जगत् तथा हमारी दृश्यमान सत्ताओं के पीछे वास्तविक सत्य को खोजने और अपनी इच्छाशक्ति को सत्य के नियम के अधीन करने का यत्न करती है । यदि हममें से कोई इस उच्चतम बुद्धि का प्रयोग किसी शुद्ध रूप में कर भी पाते हैं तो वे विरले ही होते हैं, किन्तु इसके लिये प्रयत्न करना अन्तःकरण की सबसे ऊंची क्षमता है ।
बुद्धि वस्तुत: एक मध्यवर्ती भूमिका है; इसके ऊपर एक कहीं अधिक उच्च सत्यमानस है जो हमें इस समय सक्रिय रूप में उपलब्ध नहीं है, पर जो आत्मा का प्रत्यक्ष करण है; इसके नीचे शरीर में विकसित हुए मानव मन का स्थूल जीवन है । इसमें ज्ञान और संकल्प-सम्बन्धी जो शक्तियां हैं वे इसे महत्तर प्रत्यक्ष सत्य-मानस या अतिमानस से ही प्राप्त होती हैं । बुद्धि अहं-भावना को ही अपनी मानसिक क्रिया का केन्द्र बनाती है, वह भावना यह है कि मैं यह मन, प्राण और शरीर ही हूं अथवा इनकी क्रिया के द्वारा निर्धारित एक मनोमय सत्ता हूं । बुद्धि इस अहंभावना की सेवा करती है चाहे यह भावना हमारी अपनी अहंता किंवा अहमात्मक सत्ता के द्वारा सीमित हो अथवा अपने चारों ओर के जीवों के प्रति हमारी सहानुभूति के द्वारा विस्तृत हो । एक अहंबुद्धि पैदा हो जाती है जो शरीर, व्यक्तिभावापन्न प्राण तथा मानसिक प्रत्युत्तरों की भेदजनक क्रिया पर अपना आधार रखती है, और बुद्धि में रहनेवाली अहंभावना इस अहं के विचार, स्वभाव और व्यक्तित्व की सम्पूर्ण क्रिया का केन्द्र होती है । निम्न स्तर की समझ और मध्यवर्ती बुद्धि अनुभव और आत्म-विस्तार प्राप्त करने की इसकी कामना के यन्त्र हैं । परन्तु जब उच्चतम बुद्धि और इच्छाशक्ति का विकास हो जाता है तब हम उस तत्त्व की ओर मुड़ सकते हैं जिसे ये बाह्य वस्तुएं उच्चतर आध्यात्मिक चेतना के प्रति द्योतित करती हैं । तब अपने 'अहं' को आत्मा, परमात्मा, भगवान् किंवा एकमेव सत्ता के मानसिक प्रतिबिम्ब के रूप में देखा जा सकता है; यह एकमेव सत्ता परात्पर और विश्वमय होने के साथ-साथ अपने बहुत्व में व्यक्ति-रूप भी है; जिस चेतना में ये सब चीजें संयुक्त हो जाती हैं, एक ही सत्ता के पक्ष बनकर अपने यथार्थ सम्बन्धों को प्राप्त कर लेती हैं, उसे तब इन सब भौतिक तथा मानसिक आवरणों से मुक्त करके प्रकट किया जा सकता है । जब हम अतिमानस की भूमिका में पहुंचते हैं
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तब बुद्धि की शक्तियां नष्ट नहीं हो जातीं, बल्कि उन सबको उनके अतिमानसिक मूल्यों में परिणत कर देना होता है । परन्तु अतिमानस का विवेचन एवं बुद्धि का रूपान्तर उच्चतर सिद्धि या दिव्य पूर्णता के प्रश्न से सम्बन्ध रखता है । इस समय हमें मनुष्य की सामान्य सत्ता की शुद्धि पर विचार करना है, यह शुद्धि उक्त प्रकार के किसी भी रूपान्तर की तैयारी के रूप में आवश्यक है तथा हमें अपनी निम्न प्रकृति के बन्धनों से मुक्त कराती है ।
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