Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ११
आत्मा की अभिव्यक्ति के प्रकार
ज्ञानमार्ग के द्वारा हम जिस आत्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं वह केवल हमारी मानसिक एवं आभ्यन्तरिक सत्ता की अवस्थाओं और क्रियाओं के पीछे रहकर उन्हें धारण करनेवाली सद्वस्तु नहीं है, बल्कि एक ऐसी परात्पर एवं विराट् सत्ता भी है जिसने विश्व की समस्त गतियों में अपने को व्यक्त कर रखा है । अतएव, आत्मा के ज्ञान में सत्ता के मूलतत्त्वों एवं उसके आधारभूत प्रकारों का तथा गोचर जगत् के मूलतत्त्वों के साथ उसके सम्बन्धों का ज्ञान भी समाविष्ट हों जाता है । उपनिषद् ने एक स्थल पर ब्रह्म का वर्णन इस रूप में किया है कि वह एक ऐसा तत्त्व है जिसका ज्ञान होने पर सब वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है । वहां उसका मतलब ब्रह्म के उक्त प्रकार के ज्ञान से ही है ।१ सबसे पहले उसे सत्ता के शुद्ध तत्त्व के रूप में अनुभव करना होगा; तदनन्तर, उपनिषद् कहती है, उसे अनुभव करनेवाले आत्मा के प्रति उसकी अभिव्यक्ति के मूल प्रकार स्पष्ट हो जाते हैं । निःसन्देह, इस अनुभव से पहले भी हम दार्शनिक तर्क के द्वारा इस विषय का विश्लेषण करने और यहांतक कि बुद्धि के द्वारा इसे समझने का भी यत्न कर सकते हैं कि सत्ता और जगत् का स्वरूप क्या है, किन्तु ऐसे दार्शनिक बोध को ज्ञान नहीं कह सकते । अपि च, चाहे ज्ञान और अन्तर्दर्शन के रूप में हमें उसका साक्षात्कार प्राप्त हो भी जाये तो भी यह तबतक अपूर्ण ही रहेगा जबतक हम एक समग्र आत्मानुभव के रूप में उसका साक्षात्कार न कर लें और जिस वस्तु का साक्षात्कार हमने किया है उसके साथ अपनी सम्पूर्ण सत्ता को एक न कर दें ।२ योग की विद्या यह है कि हम उस परमोच्च सत्ता का शान प्राप्त करें और योग की कला यह है कि हम इसके साथ एकमय हो जायें, ताकि हम आत्मा में निवास करते हुए अपनी इस सर्वोच्च स्थिति से कर्म कर सकें । इसके लिये हमें उस परात्पर भगवान् के साथ जिसे सब पदार्थ और प्राणी अज्ञानपूर्वक या अधूरे ज्ञान एवं अनुभव से, अपने अंगों के निम्नतर नियम के द्वारा प्रकट करने का यत्न करते हैं, अपनी सत्ता के चेतन सारतत्त्व में ही नहीं, बल्कि सचेतन विधान में भी एकत्व प्राप्त करना होगा । सर्वोच्च सत्य को जानना तथा उसके साथ समस्वर होना सच्चा अस्तित्व धारण करने की शर्त है, जो कुछ भी हम हैं, जो भी अनुभव और कर्म हम करते हैं उस सबमें इस सत्य को प्रकट करना सच्चा जीवन यापित करने की शर्त है ।
१ यस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातम् । -शाणण्डिल्य उपनिषद्
२ गीता ने सांख्य और योग में जो भेद किया है वह यही है; पूर्ण ज्ञान के लिये दोनों ही आवश्यक हैं ।
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परन्तु सर्वोच्च सत्ता को ठीक प्रकार से जानना और व्यक्त करना मनोमय प्राणी, मनुष्य के लिये आसान नहीं है, क्योंकि सत्ता का सर्वोच्च सत्य और फलत: उसकी अभिव्यक्ति के सर्वोच्च प्रकार मन से परे की वस्तुएं हैं । ये उन तत्त्वों की मूल एकता पर आधारित हैं जो मन एवं बुद्धि को सत्ता और विचार के विरोधी ध्रुव और अतएव समन्वय-अयोग्य परस्पर-विपरीत एवं विरोधी तत्त्व प्रतीत होते हैं और जो जगद्विषयक हमारे मानसिक अनुभव के लिये तो निश्चितरूपेण ऐसे ही हैं, पर अतिमानसिक अनुभव के लिये एक ही सत्य के पूरक पक्ष हैं । यह बात हम पहले भी देख चुके हैं जब हमने कहा था कि आत्मा को एक ही साथ एक और बहु के रूप में अनुभव करना आवश्यक है; क्योंकि हमें प्रत्येक पदार्थ और प्राणी को 'वही' अनुभव करना होगा; सब 'वही' हैं । इस रूप में सबकी एकता अनुभव करनी होगी--वस्तुओं के कुलयोग की एकता तथा उनके सारतत्त्व की एकता इन दोनों रूपों में सबको 'उस' में एकमय अनुभव करना होगा; और 'उसे' एक ऐसे परात्पर के रूप में अनुभव करना होगा जो इस सब एकता और अनेकता के जिसे हम सत्तामात्र के दो विरोधी, पर सहचारी ध्रुवों के रूप में सर्वत्र देखते हैं, परे विद्यमान है । कारण, प्रत्येक व्यक्ति वास्तव में आत्मा एवं भगवान् ही है, भले ही वह अपने मानसिक और शारीरिक रूप के उन बाह्य बन्धनों से जकड़ा हुआ हो जिनके द्वारा वह काल-विशेष एवं देश-विशेष में, व्यक्ति को जानने के लिये उपयोगी आन्तरिक अवस्था एवं बाह्य क्रिया और घटना के जाल का निर्माण करनेवाली परिस्थितियों की किसी विशेष शृंखला में अपने-आपको प्रकट करता है । बिलकुल इसी प्रकार प्रत्येक समष्टि भी, वह छोटी हो या बड़ी, आत्मा एवं भगवान् ही है जो इस अभिव्यक्ति की अवस्थाओं में अपने-आपको उक्त ढंग से प्रकट कर रहे हैं । यदि हम किसी व्यक्ति या समष्टि का ज्ञान केवल उसी रूप में प्राप्त करें जिसमें कि वह भीतर से अपने-आपको या बाहर से हमें दिखायी देती है तो हम उसे वास्तविक रूप में बिलकुल नहीं जान सकते, उसका ज्ञान तो हम असल में तभी प्राप्त कर सकते हैं यदि हम उसे भगवान् तथा एकमेव के रूप में, अपने उस परम आत्मा के रूप में जान लें जो आत्म-अभिव्यक्ति के नानाविध मूल प्रकारों तथा नैमित्तिक परिस्थितियों का प्रयोग करता है । जबतक हम अपने मन के अभ्यासों को इस प्रकार रूपान्तरित नहीं कर डालते कि वह एकमेव में सब भेदों का सामंजस्य कर देनेवाले इस ज्ञान में पूर्ण रूप से निवास करने लगे तबतक हम वास्तविक सत्य में जीवन यापन नहीं करते, क्योंकि हमारा निवास वास्तविक एकता में नहीं होता । एकता की पूर्ण भावना वह नहीं है जिसमें सबको एक ही अखण्ड समष्टि के अंग, एक ही समुद्र की लहरें समझा जाता है, बल्कि वह है जिसमें प्रत्येक तथा 'सब' को परम तादात्म्य में पूर्ण रूप से भगवान, पूर्ण रूप से हमारा अपना आत्मा माना जाता है ।
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तथापि, अनन्त की माया के अति जटिल होने के कारण, एक ऐसी भावना भी है जिसमें सबको अखण्ड समष्टि के अंगों एवं समुद्र की लहरों के रूप में अथवा यहांतक कि, एक अर्थ में, पृथक् सत्ताओं के रूप में देखना भी पूर्ण सत्य और पूर्ण ज्ञान का आवश्यक अंग बन जाता है । क्योंकि, यद्यपि आत्मा सदा सबमें एक ही है, तथापि हम देखते हैं कि कम-से-कम सृष्टि-चक्र के प्रयोजनों के लिये वह अपने-आपको ऐसे नित्य जीवों के रूप में प्रकट करता है जो लोक-लोकान्तरों और युग-युगान्तरों में हमारे व्यक्तित्व की गतियों पर शासन करते हैं । यह नित्य जीव-सत्ता ही हमारी वास्तविक व्यष्टि-सत्ता है जो उस वस्तु के जिसे हम अपना व्यक्तित्व कहते हैं सतत परिवर्तनों के पीछे अवस्थित है । यह कोई सीमित अहंभाव नहीं है, बल्कि एक ऐसी वस्तु है जो अपने-आपमें अनन्त हैं; वास्तव में यह जीव स्वयं 'अनन्त' ब्रह्म ही है जो अपनी सत्ता के एक स्तर से जीवात्मा के नित्य अनुभव के रूप में अपने-आपको स्वेच्छापूर्वक प्रतिबिम्बित कर रहे हैं । सांख्यों के अनेक 'पुरुषों' के सिद्धान्त के मूल में भी यही सत्य काम कर रहा है; इस सिद्धान्त के अनुसार अनेक, बीजरूप, अनन्त, मुक्त और निर्व्यक्तिक जीव एक ही विश्व-शक्ति की गतियों को प्रतिबिम्बित कर रहे हैं । विशिष्टाद्वैतवाद के दर्शन ने भी जो सांख्य मत से अत्यन्त भिन्न है तथा जो बौद्धों के शून्यवाद एवं वेदान्तियों के मायावादी अद्वैत की दार्शनिक अतियों के विरुद्ध एक विद्रोह के रूप में उदित हुआ था, इसी सत्य को एक भिन्न ढंग से अपना आधार बनाया है । बौद्ध और सांख्य सिद्धान्तों का मिश्रण-रूप एक प्राचीन सिद्धान्त यह मानता था कि विश्व में केवल एक शान्त निष्क्रिय पुरुष सर्वत्र व्याप्त है और
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अपिच, यह एकमेव जिससे सब वस्तुएं उद्भूत होती हैं, ये बहु जिनका कि यह एकमेव सारतत्त्व और आदिमूल हैं, और यह ऊर्जा, शक्ति या प्रकृति जिसके द्वारा एक और बहु के सम्बन्धों को स्थिर रखा जाता है-- इन सबके सम्मवनीय, शाश्वत और अनन्त सम्बन्धों के दृष्टिकोण से यदि हम सत्ता का अवलोकन करें तो हम देखेंगे कि द्वैतवादी दर्शन और धर्म भी जो सब सत्ताओं की एकता का अत्यन्त जोरदार शब्दों में खष्ठन करते और परमेश्वर तथा उसके जीवों के बीच एक दुर्लंध्य भेद पैदा करते प्रतीत होते हैं, कुछ हदतक युक्तियुक्त हैं । यद्यपि अपने स्थूलतम रूपों में इन धर्मो का लक्ष्य निम्नतर स्वर्गों के अज्ञानपूर्ण सुख प्राप्त करना ही हो तथापि इनका एक अत्यधिक ऊंचा और गहरा अर्थ भी है । उस अर्थ में हम एक भक्त कवि के उस उद्गार का सही मूल्य आंक सकते हैं जिसके द्वारा उसने एक सुपरिचित, पर बलपूर्ण रूपक की भाषा में यह दावा किया था कि परमात्मा के आलिंगन के दिव्यानन्द का सदा-सर्वदा उपभोग करना आत्मा का निज अधिकार है । उसने लिखा था कि ''मै शक्कर बनना नहीं चाहता, मैं शक्कर खाना चाहता हू ।'' सबमें व्याप्त एकमेव आत्मा की तात्त्विक एकता पर हम अपना आधार कितनी ही दृढ़ता से क्यों न रखें, फिर भी भक्त कवि के उक्त उद्गार को एक प्रकार की आध्यात्मिक विलासिता की अभिलाषामात्र या परम सत्य की शुद्ध एवं उच्च कठोरता का एक आसक्त एवं अज्ञ आत्मा के द्वारा परित्यागमात्र समझना हमारे लिये उचित नहीं । इसके विपरीत, अपने भावात्मक भाग में इस उद्गार का लक्ष्य परम पुरुष के एक ऐसे गहरे और रहस्यमय सत्य को प्राप्त करना है जिसे कोई भी मानवी भाषा व्यक्त नहीं कर सकती, मानवी तर्कबुद्धि जिसका उपयुक्त विवरण नहीं दे सकती, पर जिसकी कुंजी हृदय के पास है और जिसे अपनी शुद्ध तपस्या पर आग्रह करनेवाले आत्मज्ञानी का अहंकार मिटा नहीं सकता । परन्तु यह सत्य विशेष रूप से भक्तिमार्ग के शिखर से सम्बन्ध रखता है और वहां हमें इसकी पुनः चर्चा करनी होगी ।
पूर्णयोग का साधक अपने लक्ष्य के सर्वांगीण रूप को ही अपनी दृष्टि में लायेगा और उसकी सर्वांगीण चरितार्थता के लिये यत्न करेगा । भगवान् अपनी अभिव्यक्ति के अनेक मूल प्रकारों के द्वारा अपने-आपको नित्य ही प्रकट करते रहते हैं, अपनी सत्ता के अनेक स्तरों पर तथा उसके अनेक ध्रुवों के द्वारा वह अपना अस्तित्व धारण करते हैं तथा अपने-आपको प्राप्त भी करते हैं । अभिव्यक्ति के इन प्रकारों में से प्रत्येक का अपना उद्देश्य है, प्रत्येक स्तर या ध्रुव की अपनी चरितार्थता है-सनातन एकता के सर्वोच्च शिखर तथा महान् क्षेत्र दोनों में । एकमेव की प्राप्ति हमें, अनिवार्य रूप से, व्यष्टिगत आत्मा के द्वारा ही करनी होगी, क्योंकि यही हमारे समस्त अनुभव का आधार है । ज्ञान के द्वारा हम एकमेव के साथ तादात्म्य प्राप्त करते हैं; क्योकि, द्वैतवादी की मान्यता के रहते भी, एक
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तात्त्विक अद्वैतभाव है जिसके द्वारा हम अपने आदि स्रोत में निमज्जित होकर व्यक्तिभाव के समस्त बन्धन से और यहांतक कि विश्वात्मभाव के समस्त बन्धन से भी मुक्त हो सकते हैं । यह बात नहीं कि इस अद्वैतभाव का अनुभव केवल ज्ञान के लिये या अमूर्त्त सत्ता की शुद्ध अवस्था के लिये ही लाभदायक होता है । अपितु हम देख ही चुके हैं कि हमारे समस्त कर्म का शिखर भी कर्ममार्ग के द्वारा भागवत इच्छाशक्ति या चिच्छक्ति के साथ एकत्व प्राप्त करके अपने-आपको सर्वकर्ममहेश्वर में निमज्जित कर देना है; प्रेम की पराकाष्ठा अपने प्रेम और आराधना के पात्र के साथ आनन्दोद्रेकमय एकत्व में अपने-आपको परमोल्कास के साथ निमग्र कर देना है । परन्तु फिर जगत् में दिव्य कर्म करने के लिये व्यष्टिगत आत्मा अपने-आपको चेतना के एक केन्द्र के रूप में परिणत कर देता हैं । उस केन्द्र के द्वारा भागवत इच्छाशक्ति जो भागवत प्रेम और प्रकाश के साथ एकीभूत होती है, विश्व के बहुत्व में अपने-आपको उंडेल देती है । इसी प्रकार हम परमात्मा के साथ तथा अन्य सबकी आत्मा के साथ अपनी इस आत्मा की एकता के द्वारा अपने सब मनुष्य-भाइयों के साथ अपनी एकता उपलब्ध कर लेते हैं । साथ ही, प्रकृति के कर्म में हम इसके द्वारा एकमेव के अंशभूत जीव के रूप में एक भेदस्थिति को भी सुरक्षित रखते हैं जो हमें अन्य प्राणियों के साथ तथा स्वयं परमात्मा के साथ 'अभेद में भी भेद' के सम्बन्धों को सुरक्षित रखने की सामर्थ्य प्रदान करती है । अवश्य ही ये सम्बन्ध अपने सारतत्त्व और अपनी भावना में उनसे अत्यन्त भिन्न होंगे जो हम ईश्वर और जीवों के साथ उस समय रखते थे जब हम पूर्ण रूप से अज्ञान में ही निवास करते थे तथा जब एकत्व हमारे लिये एक निरा नाम था या फिर अपूर्ण प्रेम, सहानुभूति या उत्कण्ठा की संघर्षमयी अभीप्सा के रूप में ही अस्तित्व रखता था । तब एकत्व ही हमारे जीवन का नियम होगा, भेद का अस्तित्व तो केवल इस एकत्व के नानाविध उपभोग के लिये रह जायगा । विभाजन का जो स्तर अहंभाव की पृथक्ता से चिमटा रहता है उसमें फिर से न उतरते हुए और शुद्ध अद्वैत की जिस अनन्य स्पृहा को भेद की किसी भी क्रीड़ा से कुछ भी मतलब नहीं हो सकता, उसमें आसक्त न होते हुए हम सत्ता के दो ध्रुवों का उस बिन्दु पर जहां है परमोच्च पुरुष की अनन्तता मे स्व-दूसरे से मिल जाते हैं, आलिंगन तथा समन्वय करेंगे ।
परम आत्मा, यहांतक कि व्यक्ति की आत्मा भी, जैसे हमारे मानसिक अहंभाव से भिन्न है वैसे ही हमारे व्यक्तित्व से भी भिन्न है । हमारा व्यक्तित्व सदा एक-सा नहीं रहता; यह तो एक प्रकार के अनवरत परिवर्तन तथा नानाविध संयोग का नाम है । यह मूलभूत चेतना नहीं है, बल्कि चेतना के रूपों का एक प्रकार का विकास है, -सत्ता की कोई शक्ति नहीं है, बल्कि उसकी अपूर्ण शक्तियों की नानाविध लीला है, --हमारी सत्ता के आनन्द का भोक्ता नहीं है, वरन् अनुभव के उन विविध स्वरों और तानों की खोज है जो इस आनन्द को, कम या अधिक, क्षर
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सम्बन्धों के रूप में परिणत कर दें । यह व्यक्तित्व भी 'पुरुष' और ब्रह्म है, पर है क्षर पुरुष, सनातन का दृश्य रूप न कि उसका स्थिर सत्स्वरूप । गीता पुरुष के तीन भेद प्रतिपादित करती है, ये तीन पुरुष भागवत सत्ता की सब भूमिकाओं और उसके सम्पूर्ण कार्य-व्यापार का गठन करते हैं; ये हैं क्षर, अक्षर और परात्पर जो अन्य दो से परे है तथा उन्हें अपने अन्दर समाविष्ट किये हुए है । यह परात्पर पुरुष ही परमेश्वर है जिसमें हमें निवास करना होगा, यहीं हमारे और सबके अन्दर अवस्थित परम आत्मा है । अक्षर पुरुष शान्त, निक्रिय, सम, और निर्विकार आत्मा है । इसे हम तब प्राप्त करते हैं जब हम कर्म से पीछे हटकर निष्क्रियता की ओर, चेतना और शक्ति की लीला तथा आनन्द की खोज से भी पीछे हटकर चेतना, शक्ति और आनन्द के उस शुद्ध और नित्य आधार की ओर मुड़ते हैं जिसके द्वारा परात्पर पुरुष मुक्त, सुरक्षित और अनासक्त रहते हुए लीला का धारण तथा उपभोग करता है । क्षर पुरुष व्यक्तित्व के उस परिवर्तनशील प्रवाह का, जिसके द्वारा हमारे विश्वगत जीवन के सम्बन्ध सम्भव बनते हैं, उपादान और प्रत्यक्ष प्रेरक है । क्षर पुरुष में प्रतिष्ठित मनोमय प्राणी उसके प्रवाह में ही गति करता रहता है और इसे शाश्वत शान्ति, शक्ति एवं आत्मानन्द प्राप्त नहीं हैं; अक्षर पुरुष में प्रतिष्ठित आत्मा के अन्दर ये सब विद्यमान होते हैं पर वह जगत् में कर्म नहीं कर सकती; किन्तु जो आत्मा परात्पर पुरुष में निवास कर सकती है वह सत्ता की शाश्वत शान्ति, शक्ति, आनन्द और विशालता का उपभोग करती है, अपने आत्मज्ञान और आत्मशक्ति में चरित्र एवं व्यक्तित्व से या अपनी शक्ति के रूपों तथा अपनी चेतना के अभ्यासों से नहीं बंधी होती और फिर भी जगत् में भगवान् को प्रकट करने के लिये इन सबको विशाल स्वतन्त्रता और शक्ति के साथ प्रयुक्त करती है । यहां भी इस परिवर्तन का अभिप्राय आत्मा के मूल प्रकारों में किसी प्रकार का हेरफेर नहीं वरन् यह है कि हम परात्पर पुरुष के स्वातंत्र्य में उदित होकर अपनी सत्ता के दिव्य विधान का यथावत् प्रयोग करते हैं ।
पुरुष का यह त्रिविध रूप उस भेद से सम्बन्ध रखता है जो भारतीय दर्शन ने सगुण और निर्गुण ब्रह्म में और यूरोपीय विचार ने सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक ईश्वर में किया है । उपनिषद् जब परात्पर ब्रह्म का वर्णन ''निर्गुण गुणी''१ इन शब्दों में करती है तो वह उक्त विरोध के सापेक्ष स्वरूप की ओर काफी स्पष्ट रूप में संकेत कर देती है । यहां फिर सनातन सत्ता के दो तात्त्विक प्रकार, दो मूल रूप, दो ध्रुव हमारे सामने हैं, ये दोनों परात्पर भागवत सद्वस्तु में अतिक्रान्त हो जाते हैं । वास्तव में ये दोनों (वेदान्त के) शान्त-निष्किय ब्रह्म और सक्रिय ब्रह्म से मिलते-जुलते हैं । क्योंकि, एक विशेष दृष्टिकोण से विश्व के सखूर्ण कार्य-व्यापार को ब्रह्म के अगणित और अनन्त गुणों का नानाविध प्रकाश और रूपायण समझा जा सकता है । उनकी
१ 'निर्गुणो गुणी ।
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सत्ता सचेतन संकल्प के द्वारा सब प्रकार के गुणों तथा चेतन सत्ता के उपादान के रूपायणों का, मानों क्रियाशील आत्म-चेतना के वैश्व स्वभाव और सामर्थ्य के अभ्यासों का, गुणों का, रूप ग्रहण करती हैं जिनमें कि जगत् के समस्त कार्य-व्यापार को विश्लेषण के द्वारा परिणत किया जा सकता है । परन्तु वे इन गुणों में है किसी एक से या इन सबसे अथवा इनकी चरम एवं अनत्त सम्भाव्य शक्ति से बंधे हुए नहीं हैं; अपने सब गुणों से ऊपर हैं और सत्ता के एक विशेष स्तर पर उनसे मुक्त रूप में अवस्थित हैं । निर्गुण ब्रह्म गुणों को धारण करने में असमर्थ नहीं हैं, वरन् ठीक ये निर्गुण या गुणाभाव-रूप ब्रह्म ही अपने-आपको सगुण एवं अनन्तगुण ब्रह्म के रूप में तथा अनन्त गुणों के रूप में प्रकट करते हैं, क्योंकि वे अपनी असीमतया विविध आत्म-अभिव्यक्ति की पूर्ण क्षमता में सब वस्तुओं को धारण किये हुए हैं । है इनसे मुक्त हैं इसका यही अर्थ है कि वे इनसे पर हैं, और वास्तव में यदि वे इनसे मुक्त न होते तो ये अनन्त नहीं हो सकते थे; तब ईश्वर अपने गुणों के अधीन होते, अपनी प्रकृति से बंधे होते, प्रकृति सर्वोपरि सत्ता होती और पुरुष होता उसकी रचना और उसका खिलौना । सनातन न तो गुण से बंधे हैं और न गुण के अभाव से, न व्यक्तित्व से न निर्व्यक्तित्व से । है तो स्वयं वे ही हैं, हमारी सब भावात्मक और अभावात्मक परिभाषाओं से परे ।
पर यद्यपि हम सनातन की परिभाषा नहीं कर सकते तथापि उसके साथ अपने-आपको एक कर सकते हैं । यह कहा गया है कि हम निर्व्यक्तिक ईश्वर तो बन सकते हैं पर सव्यक्तिक ईश्वर नहीं, किन्तु यह केवल इस अर्थ में सत्य है कि कोई भी व्यक्तिगत रूप में सब लोकों का प्रभु नहीं बन सकता; हम सक्रिय ब्रह्म की तथा निष्चल-नीरवता की सत्ता में मुक्त होकर प्रवेश कर सकते हैं; हम दोनों में निवास कर सकते हैं, दोनों में अपने सत्-स्वरूप की ओर लौट सकते हैं, पर इनमें से प्रत्येक में उसके अपने विशिष्ट ढंग से, अर्थात् निर्गुण ब्रह्म के साथ तो अपने सारतत्त्व में एक होकर तथा सगुण के साथ अपनी सक्रिय सत्ता की स्वाधीनता में, अपनी प्रकृति में, एक होकर ।१ परम पुरुष सनातन शान्ति, समता और नीरवता में से अपने-आपको एक ऐसी सनातन क्रिया के रूप में बाहर उंडेल देते हैं जो मुक्त और अनन्त होती है, अपने लिये अपने आत्म-निर्धारणों को स्वतन्त्रतापूर्वक नियत करती है, गुणों के नानाविध संयोग का गठन करने के लिये अनन्त गुणों का प्रयोग करती है । हमें इस शान्ति, समता एवं नीरवता को प्राप्त करना होगा और इनमें से कर्म करना होगा--गुणों के बन्धन सें भगवान् की तरह मुक्त रहकर पर फिर भी जगत् में भगवत्कर्म के लिये गुणों का, यहांतक कि अत्यन्त विरोधी गुणों का भी विशाल और नमनीय रूप में प्रयोग करते हुए कर्म करना होगा । अन्तर इतना ही होगा कि जहां परमेश्वर सब वस्तुओं के केंद्र में काम करते हैं वहां हमें व्यक्तिरूपी
१ साध्मर्य-मुक्ति ।
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केन्द्र में से, उनके अंशभूत जीव के रूप में हमारी जो सत्ता है उसमें से होनेवाले उनके संकल्प, बल और शान के संचार के द्वारा कर्म में प्रवृत्त होना होगा । परमेश्वर किसी भी वस्तु के अधीन नहीं हैं; परन्तु प्रत्येक व्यक्ति का जीवात्मा अपने परमोच्च आत्मा के अधीन है और उसकी यह अधीनता जितनी ही अधिक और पूर्ण होती है, उसके अन्दर निरपेक्ष शक्ति और स्वतन्त्रता की अनुभूति उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है ।
Personal (सव्यक्तिक) और Impersona (निर्व्यक्तिक) में भेद सारतः सगुण और निर्गुण में किये गये भारतीय भेद के ही समान है, किन्तु अंग्रेजी के इन शब्दों के साथ जो संस्कार जुड़े हुए हैं उनके अन्दर एक प्रकार की संकीर्णता है जो भारतीय विचार के प्रतिकूल है । यूरोप के धर्मों का सव्यक्तिक ईश्वर 'सव्यक्तिक' शब्द के मानवीय अर्थ में एक 'व्यक्ति' है जो अपने गुणों से सीमित है यद्यपि वैसे सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ है; यह विचार शिव, विष्णु या ब्रह्मा अथवा सबकी भगवती माता, दुर्गा या काली, की विशिष्ट भारतीय कल्पनाओं से मिलता-जुलता है । वस्तुतः प्रत्येक धर्म ईश्वर की आराधना और सेवा के लिये अपने अन्त:सार और विचार के अनुसार भिन्न-भिन्न सव्यक्तिक इष्टदेव की स्थापना करता है । कल्विन (Calvin)१ का उग्र और निठुर ईश्वर सेंट फ्रांसिस२ के मधुर और प्रेममय ईश्वर से भिन्न प्रकार की सत्ता है, जैसे कि दयामय विष्णु रौद्र पर सदा ही प्रेममयी और कल्याणकारिणी काली से भिन्न हैं जो अपने संहार-कार्य में भी करुणा से युक्त होती हैं और अपने विनाश-कार्यों के द्वारा भी रक्षा करती हैं । तपोमय त्याग के देवता तथा सब वस्तुओं का संहार करनेवाले शिव, विष्णु और ब्रह्मा से भिन्न प्रकार की सत्ता प्रतीत होते हैं । क्योंकि, विष्णु और ब्रह्मा प्रेम तथा प्राणिमात्र के प्रतिपालन की भावना से अथवा जीवन तथा सृजन के लिये कार्य करते हैं । यह स्पष्ट ही है कि ऐसी परिकल्पनाएं एक अत्यन्त अपूर्ण एवं सापेक्ष अर्थ में ही विश्व के अनन्त एवं सर्वव्यापक स्रष्टा तथा शासक की सच्ची व्याख्याएं हो सकती हैं । न ही भारतीय धार्मिक विचार इन्हें उपयुक्त व्याख्याओं के रूप में प्रतिपादित करता है । सगुण ईश्वर अपने गुणों से मर्यादित नहीं हैं, वे अनन्तगुण हैं, अनन्त गुणों को धारण कर सकते हैं और उनसे परे तथा उनके स्वामी भी हैं और अपनी इच्छानुसार उनका उपयोग करते हैं । व्यक्ति की आत्मा की कामना और आवश्यकता को उसके स्वभाव और व्यक्तित्व के अनुसार पूरा करने के लिये वे अपने अनन्त देवत्व के नानाविध नामों और रूपों में अपने-आपको प्रकट करते हैं । यही कारण है कि यूरोपीय मन को वेदान्त या सांख्य दर्शन से भिन्न प्रकार के ऐसे हिन्दुधर्म को समझने में इतनी अधिक कठिनाई मालूम होती है, क्योंकि वह अनन्त गुणों से युक्त
१ जेनेवा के एक महान् धार्मिक सुधारक ।
२ रोमन कैथोलिक चर्च के संस्थापक असीसी के एक संत ।n
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सव्यक्तिक ईश्वर को सहज ही कल्पना में नहीं ला सकता, ऐसे सव्यक्तिक ईश्वर को जो 'कोई एक' व्यक्ति नहीं, बल्कि एकमात्र वास्तविक व्यक्ति है तथा व्यक्तित्वमात्र का मूल स्रोत है । तथापि दिव्य व्यक्तित्व का एकमात्र यथार्थ और पूर्ण सत्य यही है
हमारे समन्वय में दिव्य व्यक्तित्व का क्या स्थान है इसपर सम्यक् रूप से विचार तो तभी हो सकेगा जब हम भक्तियोग का वर्णन आरम्भ करेंगे, यहां इतना संकेत करना ही यथेष्ट होगा कि पूर्णयोग में इसका स्थान है और वह तब भी सुरक्षित रहता है जब कि मोक्ष प्राप्त हो जाता है । क्रियात्मक दृष्टि से, वैयक्तिक इष्ट देवता के पास पहुंचने के लिये तीन सोपान हैं; प्रथम वह जिसमें हम उनकी कल्पना एक विशेष आकार या विशेष गुणों के रूप में करते हैं; वह आकार या वे गुण भगवान् का एक ऐसा नाम-रूप होते हैं जिन्हें हमारी प्रकृति एवं हमारा व्यक्तित्व अपेक्षाकृत अधिक पसन्द करते हैं ।१ दूसरा वह जिसमें वे एकमात्र वास्तविक व्यक्ति होते हैं, सर्वव्यक्ति-स्वरूप और अनन्त-गुणमय होते हैं; तीसरा वह जिसमें हम व्यक्तित्व के समस्त विचार और तथ्य के चरम मूल में जा पहुंचते हैं, यह मूल उस तत्त्व में निहित है जिसका निर्देश उपनिषद् मे बिना कोई विशेषण लगाये केवल एक शब्द 'स:' के द्वारा किया गया है । इस तत्त्व में ही सगुण और निर्गुण भगवान्सम्बन्धी हमारे अनुभव एक बिन्दु पर मिल जाते हैं और विशुद्ध देवत्व में एक हो जाते हैं । क्योंकि, निर्गुण भगवान् अपने चरम रूप में, सत्ता का कोई अमूर्त भाव या निरा मूलतत्त्व अथवा उसकी केवल एक अवस्था या शक्ति एवं भूमिका नहीं हैं वैसे ही जैसे कि हम स्वयं वास्तव में ऐसी अमूर्त वस्तुएं नहीं हैं । बुद्धि आरम्भ में ऐसी परिकल्पनाओं के द्वारा ही उनके निकट पहुंचती है, परन्तु साक्षात्कार की परिणति इनके परे जाने से ही होती है । सत्ता के अधिकाधिक ऊंचे मूलतत्त्वों और सचेतन सत्ता की अवस्थाओं के साक्षात्कार के द्वारा हम किसी ऐसी अवस्था में नहीं पहुंचते जिसमें एक प्रकार के भावात्मक शून्य में अथवा यहांतक कि सत्ता की किसी अवर्णनीय स्थिति में सब वस्तुओं का लय हो जाता हों, बल्कि उस साक्षात् परात्पर सत्ता को जा पहुंचते हैं जो सत् भी है, वह सत् सभी व्यकित्वमूलक परिभाषाओं से परे है और फिर भी सदा एक ऐसी सत्ता है जो व्यक्तित्व का फ तत्त्व है ।
जब हम 'उस'में निवास करते तथा अपना अस्तित्व धारण करते हैं, तो हम उसे उसके दोनों रूपों में प्राप्त कर सकते हैं; सत्ता और चेतना की परमोच्च अवस्था में, आत्मनिष्ठ शक्ति और आनन्द की अनन्त निर्गुणता में तो हम निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त कर सकते हैं, व्यक्ति की जीवात्मा के माध्यम से कार्य करनेवाली दिव्य प्रकृति के द्वारा और इस जीवात्मा तथा इसके परात्पर एवं विश्वमय आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध के द्वारा हम सगुण ब्रह्म को भी प्राप्त कर सकते हैं । हम व्यक्ति-स्वरूप
१ इष्ट देवता ।
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इष्टदेवता के साथ भी, उसके नामों और रूपों के द्वारा, सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं; उदाहरणार्थ, यदि हमारा कर्म प्रधानतया प्रेम का कर्म हो तो हम प्रेममय परमेश्वर के रूप में उनकी सेवा और अभिव्यक्ति करने का यत्न कर सकते हैं, पर साथ ही हमें उनके सब नामों, रूपों और गुणों में भी उनका पूर्ण साक्षात्कार प्राप्त करना चाहिये और जगत् के प्रति हमारी मनोवृत्ति में उनका जो अम्मुखवर्ती रूप प्रमुख रूप से विद्यमान है उसीको अनन्त देवाधिदेव का समुर्ण स्वरूप मान लेने की भूल नहीं करनी चाहिये ।
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