योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २

 

आत्म-निवेदन

 

योगमात्र स्वरूपतः एक नूतन जन्म है । इसका अर्थ मनुष्य के साधारण मनोमय एवं स्थूल जीवन से निकलकर एक उच्चतर आध्यात्मिक चेतना और महत्तर तथा दिव्यतर सत्ता में जन्म लेना है । जब तक एक विशालतर आध्यात्मिक जीवन की आवश्यकता के प्रति प्रबल जागृति नहीं हो जाती तब तक किसी भी योग का सफलतापूर्वक प्रारम्भ तथा अनुसरण नहीं किया जा सकता । जिस आत्मा को इस गंभीर एवं बृहत्तर परिवर्तन के लिये आह्वान प्राप्त हुआ है वह इसके पथ पर नाना प्रकार से पदार्पण कर सकती है । वह इस पर अपने उस प्राकृतिक विकास के द्वारा पहुंच सकती है जो उसे अब तक, उसके अनजाने ही, आध्यात्मिक जागरण की ओर अग्रसर करता आ रहा है; वह किसी धर्म के प्रभाव अथवा किसी दर्शनशास्त्र के आकर्षण के कारण इस राह पर लग सकती है । एक क्रमश: बढ़ते हुए ज्ञान के प्रकाश के द्वारा भी वह इसमें प्रवेश पा सकती है अथवा सहसा किसी संस्पर्श या आघात की सहायता से एक छलांग में भी इस पर पहुंच सकती है । वह और साधनों से भीबाह्य परिस्थितियों के दबाव से या आन्तरिक आवश्यकता के कारण, मन के आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देनेवाले किसी एक ही शब्द से अथवा सुदीर्घ चिन्तन से, किसी अनुभवी के दूरस्थ दृष्टान्त से अथवा सम्पर्क या दैनिक प्रभाव से इस ओर अभिप्रेरित या संचालित हो सकती है । वस्तुत: पुकार सदा साधक की प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार आती है ।

 

     परन्तु यह चाहे जैसे भी आवे, मन और इच्छा-शक्ति का निर्णय आवश्यक है और, उसके परिणामस्वरूप, पूर्ण तथा अमोघ आत्म-निवेदन भी । सत्ता में एक नवीन आध्यात्मिक विचारशक्ति का स्वागत और ऊर्ध्व की ओर अभिमुखता, ज्ञान का प्रकाश, एक ऐसा दिशा-परिवर्तन या रूपान्तर जिसे इच्छा-शक्ति और हृद्गत अभीप्सा एकदम ग्रहण कर लेंयह सब एक ऐसी वेगयुक्त प्रक्रिया है जिसमें सभी योगजन्य फल बीज-रूप में विद्यमान हैं । किसी उच्चतर परतत्त्व की कोरी कल्पना या बौद्धिक जिज्ञासा को हमारा मन चाहे कितनी भी रुचि और दृढ़ता के साथ क्यों न अपना ले, किन्तु हमारे जीवन पर इसका तब तक कुछ भी प्रभाव नहीं होगा जब तक हृदय इसे इस रूप में अंगीकार न कर ले कि सही एक चाहने योग्य वस्तु है और इच्छाशक्ति इस रूप में स्वीकार न कर ले कि यही एक करने योग्य कार्य है । कारण, आत्मा के सत्य को केवल विचार का विषय ही नहीं बनाना है अपितु, उसे जीवन में उतारना भी है और उसे जीवन में लाने के लिये सत्ता की एक संगठित एकाग्रता अनिवार्य रूप से आवश्यक है । जिस अतिमहान् परिवर्तन

 


 

को यह योग साधित करना चाहता है वह विभक्त इच्छा-शक्ति से, या शक्ति के एक स्वल्प अंश से, या दोलायमान मन से सम्पादित नहीं हो सकता । जो व्यक्ति भगवान् को पाना चाहता है उसै भगवान् के प्रति और केवल भगवान् के ही प्रति अपने-आपको उत्सर्ग करना होगा ।

 

     यदि परिवर्तन किसी अदम्य प्रभाव के द्वारा एकाएक और सुनिश्चित रूप में सम्पन्न हो जाय तो आगे कोई मूलगत या स्थायी कठिनाई रह ही नहीं जाती । विचार के बाद ही या उसके साथ-ही-साथ साधक मार्ग चुन लेता है और चुनाव के बाद आत्म - निवेदन भी कर देता है । पैर मार्ग पर धरे ही जा चुके हैं, चाहे वे पहले-पहल अनिश्चित दिशा में भटकते ही मालूम दें और चाहे हमें स्वयं मार्ग भी धुंधला-सा दिखायी दे और लक्ष्य का पूरा-पूरा ज्ञान भी न हो । गुप्त एवं अन्तःस्थ मार्ग-दर्शक की क्रिया शुरू हो चुकी है, भले ही वह अभी अपने को प्रकट न करे या अपने मानव-प्रतिनिधि के रूप में हमें अभी दिखायी न दे । साधक के आगे चाहे कैसी भी कठिनाइयां और दुविधाएं क्यों न पैदा हों, वे अन्त तक उस अनुभव की शक्ति के आगे टिकी नहीं रह सकतीं जिसने उसकी जीवन- धारा को पलट दिया है । जब एक बार निश्चित  रूप से पुकार आ जाती है तो वह स्थायी हो जाती है; जो चीज उत्पन्न हो चुकी है वह अन्तिम तौर पर नष्ट नहीं की जा सकती । भले ही परिस्थिति का बल बाधा डाले और हमें प्रारम्भ से ही नियमित रूप में योगाभ्यास तथा पूर्ण एवं क्रियात्मक आत्म-निवेदन न भी करने दे तो भी, क्योंकि मन ने अपनी दिशा निश्चित कर ली है, वह डटा रहता है और सदा-वृद्धिशील प्रभाव के साथ अपने प्रमुख कार्य की ओर फिर-फिर लौट आता है । आन्तर सत्ता में एक अजेय दृढ़ता होती है, जिसके सामने र्पारेस्थितियों का अन्त में कुछ बस नहीं चलता और प्रकृति की कोई भी दुर्बलता अधिक समय तक बाधा नहीं पहुंचा सकती ।

 

     परन्तु साधना का प्रारम्भ सदा इसी ढंग से नहीं होता । साधक प्रायः क्रमश: ही आगे ले जाया जाता है और मन जब पहले-पहल अपने ध्येय की ओर झुकता है तो उसके बाद भी प्रकृति द्वारा उस ध्येय की पूर्ण स्वीकृति में बहुत लम्बा समय लग जाता है । हो सकता है कि प्रारम्भ में साधक को अपने ध्येय में केवल एक जीवन्त बौद्धिक रुचि तथा उसके प्रति एक प्रबल आकर्षण भर हो और वह किसी प्रकार की अपूर्ण साधना का ही अभ्यास करे । अथवा यह भी सम्भव है कि वह प्रयत्न तो करे, परन्तु उसे पूरी प्रकृति का समर्थन प्राप्त न हो और उसका निर्णय या झुकाव बौद्धिक प्रभाव द्वारा थोपा हुआ हो या किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति वैयक्तिक प्रेम तथा आदर द्वारा निधारित हो जो अपने-आपको परम देव के चरणों में निवेदित और समर्पित कर चुका है । ऐसी दशा में, अटल आत्म-निवेदन की घड़ी आने से पूर्व, तैयारी के एक लंबे काल की आवश्यकता हो सकती है । कुछ व्यक्तियों में

 

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शायद वह घड़ी आये ही नहीं; सम्भव है कि कुछ प्रगति हो, प्रबल प्रयत्न हो, यहां तक कि पर्याप्त शुद्धि भी हो और प्रधान या परमोच्च अनुभवों से भिन्न अन्य अनेक अनुभव भी प्राप्त हों; परन्तु हो सकता है कि जीवन या तो तैयारी में ही बीत जाय या शायद, अपने भरसक पुरुषार्थ से एक विशेष अवस्था तक पहुंच चुकने के बाद, मन का प्रेरक उत्साह और बल-वेग कम प जाय और वह उतने में ही सन्तुष्ट हो रहे, यहां तक कि शायद पुनः निम्नतर जीवन की ओर लौट जाय, जिसे योग की सामान्य परिभाषा में पथभ्रष्ट होना कहते हैं । ऐसे पतन का कारण यह होता है कि ठीक केंद्र में ही कोई दोष रह जाता है । बुद्धि उस पुरुषार्थ के प्रति अनुरक्त हो गयी है और हृदय आकृष्ट, इच्छाशक्ति ने भी उसके साथ गठबन्धन कर लिया है, परन्तु सम्पूर्ण प्रकृति भगवान् पर मुग्ध नहीं हुई है । उसने केवल उस अनुराग, आकर्षण या पुरुषार्थ के प्रति अपनी सहमति प्रकट कर दी है, एक परीक्षण किया है, यहां तक कि शायद उत्सुकतापूर्वक परीक्षण भी किया है, पर आत्मा की अलंघ्य आवश्यकता या अपरिहार्य आदर्श के प्रति पूर्ण आत्मदान नहीं किया है । परन्तु ऐसा अपूर्ण योग भी निष्फल नहीं होता, क्योंकि कोई भी ऊर्ध्वमुख प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता । इस समय यह असफल भले ही हो जाय या केवल एक आरम्भिक अवस्था या प्राथमिक उपलब्धि तक ही पहुंच पाये, पर फिर भी इसने आत्मा का भविष्य निश्चित कर दिया है ।

 

     परन्तु यदि हम उस अवसर का जो हमें इस जीवन ने प्रदान किया है अच्छे-से- अच्छा उपयोग करना चाहते हैं, यदि हम उस आवाहन का जो हमें प्राप्त हुआ है पूरी तरह से प्रत्युत्तर देना चाहते हैं और यदि हम उस लक्ष्य को जिसकी हमें झलक मिली है अधिगत करना चाहते हैं, न कि केवल उस ओर थोड़ा-सा बढ़ना भर चाहते हैं, तो यह अनिवार्य है कि हमारा आत्मदान पूर्ण हो । योग में सफलता का रहस्य ही यह है कि इसे जीवन के अनेक अनुसरणीय लक्ष्यों में से कोई एक नहीं, बल्कि जीवन का एक अनन्य लक्ष्य समझा जाये ।

 

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     अधिकतर मनुष्यों के साधारण, स्थूल एवं पाशविक जीवन से या कुछ लोगों की एक अधिक मानसिक, पर तो भी संकुचित जीवन-शैली से मुंह मो कर एक अधिक महान् आध्यात्मिक जीवन और दिव्य जीवन-प्रणाली की ओर उन्मुख होना ही योग का सार है । अतएव, हमसि शक्तियों का जो भी भाग निम्न सत्ता को उसी सत्ता की भावना में सौंपा जाता है वह हमारे लक्ष्य और हमारे आत्म-उत्सर्ग का विरोधी होता है । दूसरी ओर, जब हम किसी भी शक्ति या चेष्टा को रूपान्तरित करके उसे निम्नतर की सेवा से हटाकर उच्चतर की सेवा में लगाने में सफल हो

 

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जाते हैं तब मानों हम इस मार्ग में उतनी कमाई कर लेते हैं और अपनी उन्नति की बाधक शक्तियों के हाथ से उतना वापस छीन लेते हैं । इसी आमूलचूल रूपान्तर की कठिनाई योगमार्ग की समस्त विघ्न-बाधाओं का मूल है । कारण, हमारी सारी प्रकृति तथा इसकी परिस्थिति और हमारी सब व्यक्तिगत एवं विश्वगत सत्ता कुछ ऐसे अभ्यासों और प्रभावों से परिपूर्ण है जो हमारे आध्यात्मिक नवजन्म के प्रतिकूल हैं और हमारे पूरे दिल से किये गये पुरुषार्थ का भी विरोध करते हैं । एक विशेष अर्थ में हम उन मानसिक, स्नायविक और शारीरिक अभ्यासों के जटिल पुंज के सिवा और कुछ नहीं हैं जिन्हें हमारे कुछ प्रधान विचार, कामनाएं और संस्कार एक- दूसरे के साथ जोड़े रखते हैं । हम उन बहुत-सी छोटी-छोटी पुनरावर्ती शक्तियों का संघात हैं जिनमें कुछ-एक मुख्य कंपन होते रहते हैं । इस योग में हम ने अपने सामने जो लक्ष्य रखा है वह इससे लेशभर भी कम नहीं है कि हम अपने भूत और वर्तमान के उस सारे ढांचे को तो डालें जो साधारण भौतिक तथा मानसिक मनुष्य का निर्माण करता है और उसके स्थान पर अपने अन्दर दृष्टि के उस नवीन केंद्र तथा कर्मण्यताओं के उस नये संसार की रचना करें जो एक दिव्य मानवता या अतिमानव प्रकृति का गठन करेंगे ।

 

     इसके लिये सब से पहली आवश्यक बात यह है कि हम मन की उस केंद्रीय श्रद्धा और दृष्टि को तिलांजलि दे दें जिनके अनुसार यह एक चिरअभ्यस्त बहिर्मुखी संसार-व्यवस्था और घटनाक्रम में ही अपना विकास, सुख-संतोष और रस लाभ करने में अपनी सारी शक्ति लगाये रखता है । अवश्य ही इस बहिर्मुख झुकाव के स्थान पर हमें उस गभीरतर श्रद्धा और दृष्टि को प्रतिष्ठित करना होगा जो केवल भगवान् को देखती और केवल भगवान् की ही खोज करती है । दूसरी आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी सारी निम्नतर सत्ता को इस नवीन श्रद्धा और महत्तर दृष्टि के सम्मुख सीस नवाने के लिये बाधित करें । हमारी सारी प्रकृति को पूर्ण समर्पण करना होगा; उसे अपने-आपको अपने एक-एक अंग और एक-एक चेष्टा समेत, उस वस्तु के प्रति सौंप देना होगा जो असंस्कृत इंद्रिय-मानस को स्थूल संसार और इसके पदार्थों की अपेक्षा बहुत ही कम सत्य प्रतीत होती है । हमारी सम्पूर्ण सत्ता को अन्तरात्मा, मन, इंद्रिय, हृदय, इच्छाशक्ति, प्राण और शरीर कोअपनी सभी शक्तियों का अर्पण इतनी पूर्णता के साथ तथा ऐसे तरीके से करना होगा कि वह भगवान् का उपयुक्त वाहन बन जाय । पर यह कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु अपने रूढ़ स्वभाव का, जो उसके लिये एक नियम होता है, अनुसरण करती है और मौलिक परिवर्तन का प्रतिरोध करती है । इसके विपरीत, पूर्णयोग एक ऐसी क्रान्ति के लिये प्रयास करता है जिससे बढ़कर मौलिक रूपान्तर कोई हो ही नहीं सकता । इस योग में हमें अपने अन्दर की प्रत्येक चीज को बारंबार केंद्रगत श्रद्धा, संकल्प और दृष्टिकी ओर फेरना

 

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होगा । प्रत्येक विचार और आवेग को उपनिषद् की भाषा में यह स्मरण कराना होगा कि दिव्य ब्रह्म वह है, न कि यह जिसकी लोग यहां उपासना करते हैं । अपने प्राण के तन्तु-तन्तु को इस बात के लिये प्रेरित करना होगा कि आज तक जो चीजें उसकी सत्ता की प्रतिनिधि थीं उन सब को वह पूरी तरह से त्यागना स्वीकार कर ले । मन को मन ही बने रहना छोड़कर अपने से परे की किसी वस्तु से प्रकाशमान बनना होगा । प्राण को एक ऐसी विशाल, शान्त, तीव्र और शक्तिशाली वस्तु में बदल जाना होगा जो अपनी पुरानी अन्ध, आतुर एवं संकीर्ण सत्ता को या क्षुद्र आवेग एवं कामना को पहचान तक न सके । यहां तक कि शरीर को भी परिवर्तन में से गुजरना होगा और आज की तरह एक तृष्णामय पशु या बाधक रोड़ा न रहकर आत्मा का सजग सेवक और तेजस्वी यन्त तथा जीवन्त विग्रह बनना होगा ।

 

     इस कार्य की कठिनाई के कारण स्वभावत: ही सरल और मर्मस्पर्शो उपायों का अनुसरण किया गया है । इस कठिनाई के कारण ही धर्मों और योग-सम्प्रदायों में जगत् के जीवन को आन्तरिक जीवन से पृथक् कर देने की प्रवृत्ति पैदा हुई है जो फिर गहराई से जमकर बैठ गयी है । ऐसा अनुभव किया जाता है कि इस जगत् की शक्तियां और उनके वास्तविक कार्य या तो ईश्वर से बिलकुल सम्बन्ध नहीं रखते अथवा वे माया या और किसी अबोध्य एवं विषम कारण के वश दिव्य सत्य के अन्धकारमय विरोधी हैं । इनसे विपरीत दिशा में हैं 'सत्य' की शक्तियां और उनके आदर्श कार्य । वे चेतना के उस स्तर से, जो अपने आवेगों एवं बलों में अन्ध, अज्ञ तथा विकृत हैं और जो हमारे पार्थिव जीवन का आधार हैं, एक सर्वथा भिन्न स्तर के साथ सम्बन्ध रखते दिखायी देते हैं । इस प्रकार, ईश्वर का शुभ्र और पवित्र राज्य तथा दानव का अन्धेरा और मलिन राज्यइन दोनों में विरोध तुरन्त दीख पड़ता है । हम अपने रेंगनेवाले पार्थिव जन्म एवं जीवन का उदात्त आध्यात्मिक ईश्वर-चेतना से विरोध अनुभव करते हैं । हमें सहज ही निश्चय हो जाता है कि जीवन का माया के वश में होना और आत्मा का शुद्ध ब्रह्म-सत्ता में एकाग्र होनादोनों में किसी प्रकार का भी मेल नहीं साधा जा सकता । इसलिये सब से सुगम उपाय यह है कि जो चीजें पार्थिव जीवन से सम्बन्ध रखती हैं उन सब से हम मुंह मो लें और केवल नग्न आत्मा के साथ सीधे ऊपर चढ़कर ऊर्ध्वस्थित आध्यात्मिक लोक में वापिस लौट जायं । इस प्रकार एक अनन्य एकाग्रता का सिद्धान्त हमें अपनी ओर आकृष्ट करता है और साथ ही आवश्यक भी जान पड़ता है । योग के कुछ विशिष्ट संप्रदायों में इसे अत्यन्त प्रमुख स्थान प्राप्त है, क्योंकि इस एकाग्रता के द्वारा हम संसार का आग्रहपूर्वक त्याग करते हुए उस एक परम देव के प्रति पूर्ण आत्म-निवेदन के लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं जिस पर हम अपने-

 

  १तदेव ब्रह्म त्व विद्धि नेदं यदिदमुपासते | — केनोपनिषद् १ -४

 

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आपको एकाग्र करते हैं । उस समय हमारे लिये यह आवश्यक नहीं रहता कि हम सभी निम्न चेष्टाओं को नये एवं उच्चतर आध्यात्मीकृत जीवन की कठिन दीक्षा के लिये बाध्य करें और उन्हें इसके प्रतिनिधि या कार्यवाहक शक्तियां बनने के लिये शिक्षित करें । तब इतना ही काफी होता है कि हम उन्हें समाप्त या शान्त कर दें, और, अधिक-से-अधिक, कुछ-एक ऐसी शक्तियां सुरक्षित रखें जो एक ओर शरीर के भरण-पोषण के लिये तथा दूसरी ओर भगवन्मिलन के लिये आवश्यक हों ।

 

     पूर्णयोग का असली उद्देश्य और विचार ही हमें इस सीधी, किन्तु कष्टसाध्य तथा उत्तुंग विधि को अपनाने से रोकता है । सर्वांगीण रूपान्तर की आशा हमें इस बात से रोकती है कि हम किसी छोटी पगडंडी का अवलंबन करें अथवा लक्ष्य की ओर वेगपूर्वक अग्रसर होने के लिये अपनी सब विघ्न-बाधाओं को परे फेंककर अपने को हल्का बना लें । कारण, हम तो अपनी सम्पूर्ण सत्ता को और संसार को ईश्वर के लिये जीतने चले हैं । हमने अपनी सम्भूति और सत्ता दोनों को उसे दे देने का निश्चय किया है न कि केवल किसी दूरस्थ लोक में सुदूर और निगूढ़ देवता के प्रति अमूर्त्त-सी भेंट के रूप में केवल विशुद्ध और नग्न आत्मा को प्रस्तुत करने का अथवा जो कुछ भी हम हैं उस सब को अचल कूटस्थ ब्रह्म के प्रति सर्वमेध में स्वाहा करके मिटा देने का ही निश्चय किया है । जिस भगवान् की हम उपासना करते हैं वह केवल दूरस्थ विश्वातिरिक्त सद्वस्तु नहीं, बल्कि एक अर्द्ध-आवृत अभिव्यक्ति है जो यहीं विश्व में हमारे पास और सामने विद्यमान है । जीवन भगवान् की एक ऐसी अभिव्यक्ति का क्षेत्र है जो अभी पूर्ण नहीं हुई है । यहीं, इसी जीवन में, इसी भूतल पर, इसी शरीर में, इहैव, जैसा कि उपनिषदें बार-बार कहती हैं, हमें देवाधिदेव को प्रकट करना है । उसकी परात्पर महिमा, ज्योति और मधुरिमा को हमें यहीं अपनी चेतना के लिये जीवित-जागृत बनाना है, यहीं उसे अधिगत और यथासम्भव व्यक्त करना है । अतः अपने योग में हमें जीवन को, उसका पूर्ण रूपान्तर करने के लिये, अवश्य स्वीकार करना होगा । यह स्वीकृति हमारे संघर्ष में चाहे जो भी कठिनाइयां बढ़ा दे, उनसे हमें घबराना नहीं होगा । यद्यपि हमारा रास्ता अधिक ऊब-खाब है, प्रयत्न अधिक जटिल, विकट, और चकरा देने यहां तक कि हताश कर देनेवाला है, तथापि इसके पुरस्कार-स्वरूप एक विशेष अवस्था के बाद हमें एक महान् लाभ प्राप्त हो जाता है । जब एक बार हमारा मन केंद्रीय दृष्टि में काफी हद तक स्थिर होता है और हमारी इच्छा-शक्ति समूचे रूप में उस एक ही उद्देश्य की ओर अभिमुख हो जाती है, तब जीवन स्वयं हमारा सहायक बन जाता है । एकनिष्ठ, जागरूक एवं पूर्णत: सचेतन रहकर हम जीवन के रूपों की हर एक छोटी-मोटी बारीकी को और उसकी चेष्टाओं के सभी प्रसंगों को अपने अन्दर की यज्ञीय अग्नि के लिये हवि के रूप में ग्रहण कर सकते हैं | संघर्ष में विजयी होकर, हम इस जड़ सत्ता तक को विवश कर सकते हैं कि

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यह पूर्णता की प्राप्ति में हमारी सहायक हो । जो शक्तियां हमारा विरोध करती हैं उन्हीं का राज्य छीन कर हम अपनी उपलब्धि को समृद्ध कर सकते हैं ।

 

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     एक और दिशा भी है जिसमें किसी साधारण योग का साधक सरलता की शरण लेता है । वह सरलता सहायक होने पर भी संकीर्णता पैदा करनेवाली है और सर्वांगीण लक्ष्य के साधक के लिये निषिद्ध है । योगसाधना करने से हमारी सत्ता की असाधारण जटिलता, हमारे व्यक्तित्व की उद्दीपक पर साथ ही व्याकुलकारी बहुविधता और विश्वप्रकृति की विपुल असीम अस्तव्यस्तता हमारे सामने उपस्थित होती है । जो मनुष्य आत्मा की प्रच्छन्न गहराइयां और विशालताएं न जानता हुआ अपने साधारण जागरित अवस्था के स्तर पर रहता है उस साधारण मनुष्य के लिये उसकी मनोवैज्ञानिक सत्ता काफी सरल होती है । इच्छाओं का एक छोटा-सा पर कोलाहलकारी दल, कुछ एक अनुपेक्षणीय बौद्धिक एवं सौन्दर्यमूलक तृष्णाएं कुछ रुचियां, और असंगत या विसंगत एवं अधिकतर क्षुद्र विचारों की एक प्रबल धारा के बीच कतिपय प्रभुत्वपूर्ण और प्रधान विचार, न्यूनाधिक-अनिवार्य प्राणिक आवश्यकताओं का एक समुदाय, शारीरिक स्वास्थ्य और रोग की हेरा-फेरी, एक- के-बाद-एक करके आनेवाले विकीर्ण एवं असंगत हर्ष और शोक, बार-बार होनेवाली मामूली हलचलें और परिवर्तन, मन या शरीर की बहुत विरली प्रबल गवेषणाएं और उतार-चढ़ाव, अपि च, कुछ तो मनुष्य के विचार एवं संकल्प की सहायता लेकर और कुछ इसके बिना या इसके रहते भी, प्रकृति का इन सब चीजों को एक स्थूल व्यावहारिक ढंग से, एक कामचलाऊ अव्यवस्थित क्रम के साथ व्यवस्थित करनायही उसकी सत्ता का उपादान होता है । औसत मानव प्राणी आज भी अपनी आन्तरिक सत्ता में उतना ही असंस्कृत और अविकसित है जितना कि पुरातन और आदिम मनुष्य अपने बाह्य जीवन में था । परन्तु ज्यों ही हम अपने भीतर गहरे उतरते हैं, और योग का अर्थ ही आत्मा की समस्त बहुविध गहराइयों में डुबकी लगाना है, त्यों ही हमें पता चलता है कि जैसे मनुष्य ने अपने विकास में अपने-आपको बाहरी तौर पर एक समूचे जटिल जगत् से घिरा पाया है वैसे ही हम आन्तरिक तौर पर भी एक जटिल जगत् से घिरे हुए है, जिसे जानने तथा जीतने की जरूरत है ।

 

     यह एक अत्यन्त क्षोभजनक उपलब्धि होती है जब हमें पता चलता है कि हमारे प्रत्येक अंग का, अर्थात् बुद्धि, इच्छा-शक्ति, इन्द्रिय-मानस, प्राणिक या कामनामय आत्मा, हृदय और शरीर का मानो सचमुच ही, अपना-अपना जटिल व्यक्तित्व है और शेष अंगों से स्वतन्त्र प्राकृतिक गठन है । प्रत्येक अंग न तो अपने-आपसे मेल

 

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खाता है, न दूसरों से और न ही उस प्रतिनिधिरूप अहं से मेल खाता है जो हमारे उथले अज्ञान पर किसी केंद्रस्थ और केंद्रस्थकारक आत्माद्वारा डाला गया प्रतिबिम्ब है । इस उपलब्धि से हमें ज्ञात होता है कि हम एक ही नहीं, अपितु अनेक व्यक्तित्वों से गठित हैं और उनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी मांगें और पृथक्- पृथक् प्रकृति है । हमारा अस्तित्व भद्दे रूप से गढ़ा हुआ एक गड़बड़झाला है जिसमें हमें दिव्य व्यवस्था के नियम का सूत्रपात करना है । और, साथ ही हमें यह भी पता लगता है कि जैसे बाहर से वैसे ही अन्दर से भी हम संसार में अकेले नहीं हैं और हमारे अहं का तीव्र भेद एक प्रबल अध्यारोप एवं भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है; हमारा कोई अपना पथक् अस्तित्व नहीं, और वास्तव में हम भीतरी निर्जनता या एकान्त में अलग-अलग भी नहीं रहते । हमारा मन एक ऐसी मशीन है जो ग्रहण, संवर्धन एवं परिवर्तन करती है और जिसमें ऊपर से, नीचे से और बाहर से प्रतिक्षण अविरत विजातीय द्रव्य, विषम पदार्थों का एक प्रवहमान पुंज, लगातार प्रविष्ट होता रहता है । हमारे आधे से अधिक विचार और भाव हमारे निजी नहीं होते अर्थात् उनका रूप हम से बाहर ही तैयार होता है । कदाचित् ही किसी विचार या भाव के विषय में ऐसा कहा जा सकता हो कि वह हमारी प्रकृति का सचमुच मौलिक अंग है । अधिकांश में वे दूसरों से या परिपार्श्व से हमारे अन्दर आते हैं, चाहे कच्चे माल के रूप में आवें या तैयार सामान के रूप में । परन्तु इससे भी बड़े परिमाण में वे यहां की विश्व-प्रकृति से या अन्य लोकों तथा स्तरों और उनके जीवों, शक्तियों एवं प्रभावों से आते हैं । हमारे ऊपर और चारों ओर चेतना के अन्य स्तर भी हैं,मन के स्तर, प्राण के स्तर और सूक्ष्म अन्नमय स्तर जो हमारे ऐहिक जीवन और कर्म को पोषण प्रदान करते हैं, अथवा जो अपने पदार्थों और शक्तियों की अभिव्यक्ति के लिये हमारे जीवन और कर्म को अपना साधन बनाते हैं, इन पर दबाव डालते तथा इन्हें वश में करके अपने काम में लाते हैं । क्योंकि हमारी सत्ता जटिल है और हम विश्व की अन्तःप्रवाही शक्तियों के प्रति बहुत तरफ से खुले हुए हैं और उनके दास हैं, हमारे पृथक् मोक्ष की कठिनाई अत्यधिक बढ़ जाती है । इस सब का हमें विचार करना है, इससे निबटना है, अपनी प्रकृति के गुप्त उपादान को तथा इसकी घटक और परिणामभूत चेष्टाओं को जानना है, और फिर इस सब में एक दिव्य केंद्र, एक सच्चा सामंजस्य और ज्योतिर्मय व्यवस्था स्थापित करना भी आवश्यक है ।

 

     योग के प्रचलित मार्गों में इन संघर्षकारी उपादानों का समाधान करने के लिये जो विधि प्रयोग में लायी जाती है वह सीधी और सरल है । हमारे अन्दर की प्रधान मानसिक शक्तियों में से कोई एक भगवत्पाप्ति के एकमात्र साधन के तौर पर चुन ली जाती है और शेष सभी को जडवत् स्तब्ध कर दिया जाता है अथवा अपनी  ? में '-'० मरने दिया जाता है । भक्त सत्ता की भावमय शक्तियों को

 

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और हृदय को तीव्र उमंगों को अधिकार में लाकर ईश्वर-प्रेम में निमग्न रहता है, मानों वह एक अनन्य एकतान अग्निशिखा के रूप में समाहित हो । वह विचार की हलचल के प्रति उदासीन होता है, बुद्धि के आग्रहों को पीछे छोड़ देता है और मन की ज्ञान-पिपासा की कुछ परवाह नहीं करता । उसे जिस ज्ञान की आवश्यकता है वह केवल उसकी श्रद्धा और उसकी वे अनुप्रेरणाएं हैं जो भगवान् के साथ युक्त हृदय से फूट निकलती हैं । कर्म करने के ऐसे किसी भी संकल्प से उसे कुछ मतलब नहीं जो प्रियतम की प्रत्यक्ष पूजा में या उसके मन्दिर की सेवा में तत्पर न हो । उधर, ज्ञानवान् मनुष्य स्वेच्छापूर्वक विवेकशक्ति तथा मनन-चिन्तन में लीन रहकर मन के अन्तर्मुख प्रयत्न में स्वातंत्र्य लाभ करता है । वह आत्मा का एकाग्र चिन्तन करता है, सूक्ष्म अन्तर्विवेक से वह प्रकृति के माया-प्रपंच में आत्मा की शान्त उपस्थिति को पहचान सकने में समर्थ होता है और बोधात्मक विचार के द्वारा प्रत्यक्ष अध्यात्म अनुभव प्राप्त करता है । वह भावावेशों की क्रीड़ा के प्रति तटस्थ, वासना की आतुर पुकार के प्रति बधिर और प्राण की हलचलों से विरत रहता है । जितनी भी जल्दी ये उससे झड़ जायं और उसे स्वतन्त्र, स्थिर और शान्त नित्य अकर्ताबने रहने दें उतना ही अधिक वह भाग्यशाली होता है । शरीर उसके मार्ग का रोड़ा है, प्राण के व्यापार उसके शत्रु हैं; यदि उनकी मांगें कम-से-कम की जा सकें तो वह उसका महान् सौभाग्य होता है । चारों ओर के संसार से जो अनगिनत कठिनाइयां पैदा होती हैं उनके विरुद्ध बाह्य भौतिक और आन्तर आध्यात्मिक एकान्त की मजबूत बाड़ खड़ी करके वह उनका निवारण करता है । आभ्यन्तर शान्ति की दीवार की ओट में सुरक्षित रहकर वह निर्विकार रहता है और साथ ही संसार से तथा दूसरों से निर्लिप्त भी । अपने संग या भगवान् के संग एकाकी रहना, ईश्वर और उसके भक्तों के संग एकान्तवास करना, मन के एकमात्र आत्मोन्मुख प्रयत्न के घेरे में या हृदय की ईश्वरमुखी उमंग के घेरे में अपने-आपको बन्द कर लेनायही इन योगों की प्रवृत्ति की दिशा है । इनमें सभी ग्रंथियों को काटकर समस्या हल कर ली जाती है, केवल एक केंद्रीय कठिनाई रह जाती है जो हमारी एकमात्र मनोतीत प्रेरक-शक्ति का पीछा करती है । अपनी प्रकृति की विक्षिप्त करनेवाली पुकारों के बीच हम विशेष रूप से एकांगी एकाग्रता के सिद्धान्त की शरण लेते हैं ।

 

     परन्तु पूर्णयोग के साधक के लिये यह आन्तरिक या बाह्य एकान्तवास उसकी आध्यात्मिक उन्नति में एक प्रसंग या अवसरमात्र हो सकता है । जीवन को स्वीकार करते हुए उसे केवल अपना भार ही नहीं, बल्कि अपने काफी भारी बोझ के साथ-साथ जगत् का बहुत-सा भार भी वहन करना होता है । अतएव, उसका योग दूसरों के योग की अपेक्षा बहुत अधिक संग्राममय है, किन्तु वह केवल व्यष्टिगत संग्राम नहीं, बल्कि एक विस्तृत प्रदेश पर छोड़ा गया समष्टिगत युद्ध भी है । साधक को केवल अपने अन्दर ही अहंकारमूलक असत्य और अव्यवस्था की शक्तियों पर

 

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विजय प्राप्त नहीं करनी है, बल्कि संसार में भी इन पर विजय प्राप्त करनी है जहां कि ये इन्हीं विरोधी और अक्षय शक्तियों का प्रतिनिधित्व कर रही होती हैं । इनका यह प्रातिनिधिक स्वरूप इन्हें एक बहुत अधिक दुर्दम प्रतिरोध-शक्ति ही नहीं, बल्कि पुनरावर्तन का लगभग अनन्त अधिकार भी प्रदान करता है । प्रायः ही उसे यह अनुभव होता है कि अपना व्यक्तिगत युद्ध अविचल तौर पर जीत चुकने के बाद भी उसे, एक प्रत्यक्षत: अनन्त युद्ध के रूप में, वह युद्ध बार-बार जीतना है, क्योंकि उसकी आन्तरिक सत्ता अब इतनी अधिक विस्तृत हो चुकी है कि वह न केवल साधक की अपनी सुनिश्चित आवश्यकताओं और अनुभवों से युक्त उसकी अपनी सत्ता को समाविष्ट किये हुए है, अपितु वह दूसरों की सत्ता के साथ भी एकाकार है । कारण, अब साधक अपने अन्दर ब्रह्माण्ड को धारण किये होता है ।

 

     सर्वांगीण पूर्णता के अन्वेषक को ऐसी छूट भी प्राप्त नहीं है कि वह अपने आन्तरिक अंगों के संघर्ष को मनमाने ढंग से हल कर ले । उसे विचार-लब्ध ज्ञान को संशयरहित श्रद्धा के साथ समन्वित करना होगा; प्रेम की सौम्य आत्मा को शक्ति की अदम्य मांग के साथ सुसंगत करना होगा तथा परात्पर शांति में सन्तुष्ट रहनेवाली आत्मा की निष्क्रियता को दिव्य सहायक और दिव्य योद्धा की क्रियाशीलता के साथ घुला-मिला देना होगा । अन्य आत्म-जिज्ञासुओं की भांति उसके सामने भी बुद्धि के प्रतिकूल तर्क-वितर्क, इन्द्रियों का दुर्जय वेग, हृदय के विक्षोभ, कामनाओं के दांव-घात और स्थूल शरीर का बन्धनये सब अपने समाधान के लिये उपस्थित होते हैं । परन्तु इनके पारस्परिक तथा आन्तरिक संघर्षों के साथ और उसके लक्ष्य में ये संघर्ष जो बाधाएं पहुंचाते हैं उनके साथ उसे और ही ढंग से निबटना होता है । इन सब विद्रोही तत्त्वों के साथ बरतते हुए उसे एक असंख्यगुना अधिक दु:साध्य पूर्णता प्राप्त करनी है | इन्हें दिव्य उपलब्धि और अभिव्यक्ति के यन्त्र मानकर उसे इनके बेसुरे स्वरों को बदलना होगा, इनकी घनी अन्धेरी गुहाओं में आलोक पहुंचाकर इन्हें अलग-अलग तथा सम्मिलित तौर पर रूपान्तरित करना होगा, इन्हें अपने-आपमें तथा एक-दूसरे के साथ पूर्णतया सुसंगत करना होगा । किसी एक भी कण या तंतु या कंपन की उपेक्षा नहीं करनी होगी, कहीं लेशमात्र भी अपूर्णता नहीं रहने देनी होगी । एकांगी एकाग्रता, यहां तक कि इस प्रकार की अनेक क्रमागत एकाग्रताएं भी उसके जटिल कार्य की सिद्धि के लिये केवल अस्थायी साधन ही हो सकती हैं; इनकी उपयोगिता समाप्त होते ही इन्हें त्याग देना होगा । जिस कठिन सिद्धि के लिये उसे श्रम करना है वह एक सर्वांगीण एकाग्रता है ।

 

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     निःसन्देह, किसी भी योग की पहली शर्त होती है एकाग्रता, परन्तु पूर्णयोग के

 

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असली स्वरूप के अनुसार वह एकाग्रता सर्वग्राही होनी चाहिये । इसमें सन्देह नहीं कि यहां भी विचारों, भावों या इच्छा-शक्ति को अलग-अलग एक ही धारणा, विषय, अवस्था, आन्तरिक गति या तत्त्व पर दृढ़ता से टिकाने की आवश्यकता बारंबार पड़ती है, परन्तु यह केवल एक गौण एवं सहायक प्रक्रिया है । इस योग की अधिक विशाल क्रिया हैसम्पूर्ण सत्ता को एक विशाल और बृहत् रूप में परम देव की ओर उद्घाटित करना और समग्र सत्ता को अपने सब अंगों में तथा अपनी सभी शक्तियों के द्वारा उस एक विश्वात्मा में एक स्वर से तन्मय करना । इसके बिना यह योग अपने लक्ष्य को सिद्ध नहीं कर सकता । कारण, हम उस चेतना को पाने के अभिलाषी हैं जो परम देव में निहित है और विश्व में कार्य करती है; उसीको हम अपनी सत्ता के एक-एक अंग की और अपनी प्रकृति की एक-एक चेष्टा की अधिष्ठात्री बनाना चाहते हैं । विशालता और एकाग्रता से युक्त सम्पूर्ण सत्ता और प्रकृति ही इस साधना का सारभूत स्वरूप है और यह स्वरूप ही इसकी क्रिया-प्रणाली को निश्चित  करेगा ।

 

     यद्यपि समस्त सत्ता को भगवान् पर एकाग्र करना योग का स्वरूप है तथापि हमारी सत्ता इतनी जटिल वस्तु है कि हम इसे आसानी से और एकदम ऊपर नहीं उठा सकतेयह तो ऐसा होगा मानों हम सारे संसार को दो हाथों में भर लेना चाहते हों । न ही हम सारी सत्ता को एक ही साथ किसी काम में लगा सकते हैं । मनुष्य को अपने स्व-अतिक्रमण के प्रयत्न में साधारणतया अपनी प्रकृतिरूपी जटिल मशीन के किसी एक करण या शक्तिशाली उपकरण को ही अपने वश में करना होता है । इस करण या उपकरण को दूसरों की अपेक्षा अधिक अच्छा समझकर ही वह उसको चुनता है और उसके सामने जो लक्ष्य है उसकी ओर मशीन को चलाने के लिये इसका उपयोग करता है । इस चुनाव में विश्व-प्रकृति ही सदा उसकी मार्गदर्शिका होनी चाहिये । परन्तु यहां उसके अन्दर प्रकृति अपनी उच्चतम और विशालतम अवस्था में होनी चाहिये, न कि अपनी निम्नतम अवस्था में या किसी संकीर्ण गति के रूप में । निम्नतर प्राणिक क्रियाओं में से एक कामना ही ऐसी है जिसे प्रकृति अपने अत्यन्त शक्तिशाली उपकरण के तौर पर अपनाती है । परन्तु मनुष्य का विशेष लक्षण यह है कि वह एक मानसिक प्राणी है, केवल प्राणमय जीव नहीं । जैसे वह अपने प्राणिक आवेगों को संयत और मर्यादित करने के लिये अपने चिन्तनशील मन और इच्छा-शक्ति का प्रयोग कर सकता है, वैसे ही वह उस उच्चतर प्रकाशमान मन की क्रिया को भी अवतरित कर सकता है जिसे उसके अन्दर की गभीरतर आत्मा या ह्रुत्पुरुष की सहायता प्राप्त होती रहती है, और इस प्रकार इन महत्तर तथा विशुद्धतर प्रेरक शक्तियों के द्वारा वह इस कामनारूपी प्राणिक और सांवेदनिक आवेग का प्रभुत्व दूर कर सकता है । वह इसे पूरी तरह से वशीभूत या परिचालित कर सकता है और रूपान्तर के लिये इसे इसके दिव्य स्वामी

 

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को सौंप भी सकता है । यह उच्चतर मन और यह गभीरतर आत्मा, अर्थात् मनुष्य के अन्दर स्थित चैत्य तत्त्व दो अंकुश हैं जिनके द्वारा भगवान् उसकी प्रकृति को अपने अधिकार में ला सकते हैं ।

 

     मनुष्य में जो उच्चतर मन है वह तार्किक मन या तर्क-बुद्धि से भिन्न है, वह एक अधिक उच्च, पवित्र, विशाल और शक्तिशाली वस्तु है । पशु प्राणमय और इन्द्रिय-प्रधान जीव है; यह कहा जाता है कि मनुष्य पशु से इस बात में भिन्न है कि उसमें बुद्धि की शक्ति है । परन्तु यह इस विषय का एक अत्यन्त संक्षिप्त, अत्यन्त अपूर्ण और भ्रामक वर्णन है । बुद्धि तो एक विशिष्ट और सीमित, प्रयोजनीय और साधनभूत क्रियामात्र है । इस क्रिया का मूल इससे एक बहुत बड़ी वस्तु में है, एक ऐसी शक्ति में है जो एक उज्ज्वलतर, बृहत्तर एवं असीम आकाश में रहती है । निरीक्षण, तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श तथा निर्णय करनेवाली हमारी बुद्धि के तात्कालिक या मध्यवर्ती महत्त्व से भिन्न इसका सच्चा और अन्तिम महत्त्व यह है कि यह मनुष्य को, एक ऊर्ध्व ज्योति को, ठीक प्रकार से ग्रहण करने के लिये तथा उसकी सम्यक् क्रिया के लिये तैयार करती है । यह ज्योति उत्तरोत्तर मनुष्य के उस निम्न तमसाच्छन्न प्रकाश का, जो पशु का परिचालन करता है, स्थान ग्रहण करती जाती है । पशु में भी प्राथमिक बुद्धि, एक प्रकार का मन, आत्मा, इच्छा-शक्ति और तीव्र भावावेश विद्यमान हैं; इसकी मानसिक रचना, कम विकसित होते हुए भी, मनुष्य के समान ही है । परन्तु पशु की ये सब शक्तियां स्वयंचल और सर्वथा सीमित, यहां तक कि प्रायः निम्नतर स्नायविक सत्ता से निर्मित होती हैं । उसके सभी बोधों,संवेदनो और क्रियाओं पर वे स्नायविक और प्राणिक सहज-प्रेरणाएं क्षुधाएं कामनाएं एवं भोग्य वस्तुएं शासन करती हैं जो जीवन-आवेग और प्राणिक कामना से बंधी हुई हैं । मनुष्य भी प्राणिक प्रकृति की इस यन्त्रिक क्रिया से बंधा हुआ है, पर अपेक्षाकृत कम । वह अपने आत्म-विकास के कठिन कार्य में एक प्रबुद्ध संकल्प, प्रबुद्ध विचार और प्रबुद्ध भावों का प्रयोग कर सकता है । वह कामना के निम्न व्यापार को उत्तरोत्तर इन अधिक सचेतन और विचारवान् मार्गदर्शकों के वश में ला सकता है । जितना ही वह अपने निम्न स्व को इस प्रकार नियन्त्रित और प्रबुद्ध कर सकता है उतना ही वह मनुष्य है, पशु नहीं । परन्तु एक इससे भी महत्तर प्रबुद्ध विचार, दृष्टि और संकल्प है जो अनन्त के साथ सम्बद्ध है और जो मनुष्य के अपने संकल्प से अधिक दिव्य संकल्प का सचेतन रूप से अनुसरण करता है तथा अधिक विराट् एवं परात्पर ज्ञान के साथ गुंथा हुआ है । इस विचार, दृष्टि एवं संकल्प को जब मनुष्य अपनी कामना के स्थान पर पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करना शुरू कर पाता है तब समझो कि उसने अतिमानवत्व की ओर आरोहण आरम्भ कर दिया है, वह भगवान् की ओर अपनी ऊर्ध्वमुखी यात्रा में अग्रसर होने लगा है |

 

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     इसलिये हमें सब से पहले विचार, प्रकाश और संकल्प से युक्त उच्चतम मन को या गभीरतम वेदन और भाव से समन्वित अन्तरीय हृदय को, दोनों में से किसी एक को या, यदि हम समर्थ हों तो, एक साथ दोनों कोअपनी चेतना का केंद्र बनाना होगा और फिर उसे प्रकृति को पूरी तरह से भगवान् की ओर ले जाने के लिये एक साधन के रूप में प्रयुक्त करना होगा । योग का श्रीगणेश तब होता है जब हमारा प्रबुद्ध विचार, संकल्प और हृदय सब एक स्वर से हमारे ज्ञान के एकमात्र बृहत् ध्येय की ओर, हमारे कर्म के एकमात्र प्रकाशमय तथा अनन्त स्रोत की ओर, और हमारे भाव के एकमात्र अक्षय भाजन की ओर अभिमुख होकर उसीमें एकाग्र हो जाते हैं । हमारी खोज का ध्येय होना चाहिये उस प्रकाश का मूलस्रोत जो हमारे अन्दर उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, और उस शक्ति का वास्तविक उद्गम जिसे हम अपने अंगों के संचालन के लिये पुकार रहे हैं । हमारा एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये स्वयं भगवान् जिनके लिये हमारी गुप्त प्रकृति का कोई भाग, जाने-अनजाने, सदैव अभीप्सा करता है । मन को एकमेव भगवान् के विचार, बोध, दिव्य दर्शन, उद्बोधक स्पर्श और आत्म-साक्षात्कार पर ही व्यापक, बहुमुख किन्तु अनन्य भाव में एकाग्र होना चाहिये । हृदय की ज्वाला को सर्वमय और सनातन भगवान् की ओर एकाग्र भाव से प्रज्ज्वलित होना चाहिये और, एक बार जब हम उन्हें प्राप्त कर लें तो हमें सर्वसुन्दर की उपलब्धि और दिव्यानन्द में गहरी डुबकी लगाकर निमग्र हो जाना चाहिये । भगवान् जो कुछ भी हैं उस सब की प्राप्ति और चरितार्थता में संकल्प को दृढ़ और अचल रूप से एकाग्र होना चाहिये और भगवान् हमारे अन्दर जो कुछ प्रकट करना चाहते हैं उस सबकी ओर हमें अपने संकल्प को स्वतंत्र और नमनीय रूप में खोल देना चाहिये । यही योग का त्रिविध मार्ग है ।

 

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     परन्तु जिस वस्तु को हम अभी जानते नहीं उस पर हम अपने-आपको एकाग्र कैसे करें? और फिर भी जब तक हम भगवान् पर अपनी सत्ता की एकाग्रता को सिद्ध नहीं कर लेते तब तक हम उसका ज्ञान भी प्राप्त नहीं कर सकते । योग में ज्ञान तथा उसकी प्राप्ति के प्रयत्न से हमारा मतलब यह है कि हम एकमेव पर अपने को इस प्रकार एकाग्र करें कि हमें अपने अन्दर तथा उस सब के अन्दर जिससे हम अभिज्ञ हैं उसकी उपस्थिति का जीवन्त साक्षात्कार और सतत अनुभव प्राप्त हो । इतना ही बस नहीं कि हम शास्त्रों के स्वाध्याय से या दार्शनिक तर्क- वितर्क के बल पर भगवान् को बुद्धि द्वारा समझने में अपने को उत्सर्ग कर दें । क्योंकि अपने लंबे मानसिक श्रम के अन्त में हम चाहे वह सब कुछ जान लें जो

 

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सनातन देव के विषय में कहा गया है, वह सब कुछ आत्मसात् कर लें जो अनन्त के सम्बन्ध में सोचा जा सकता है, फिर भी सम्भव है कि हम उसे बिल्कुल न जान पायें । इसमें सन्देह नहीं कि बौद्धिक तैयारी किसी भी शक्तिशाली योग में प्रथम अवस्था हो सकती है, किन्तु यह अनिवार्य नहीं है; यह कोई ऐसी अवस्था नहीं है जिसमें से गुजरना सब के लिये आवश्यक हो या जिसमें से गुजरने को सब से कहा जा सके । ध्यान-चिन्तन करनेवाली बुद्धि ज्ञान की जिस बौद्धिक प्रतिभा को प्राप्त करती है वह यदि योग की आवश्यक शर्त या अनिवार्य प्रारम्भिक प्राप्ति हो तो योग इने-गिने लोगों के सिवा शेष सब के लिये असाध्य हो जाय । ऊपर से आनेवाला प्रकाश अपना काम शुरू कर सकने के लिये हम से जिस चीज की मांग करता है वह केवल आत्मा की पुकार है और है मन के भीतर पर्याप्त मात्रा में समर्थन । वह समर्थन मन में बार-बार भगवान् का विचार करके, क्रियाशील अंगों में तदनुरूप संकल्प करके और अभीप्सा, श्रद्धा तथा हार्दिक कामना के द्वारा किया जा सकता है । यदि ये सब एकस्वर होकर या एकताल होकर न चल सकते हों तो इनमें से किसी को अग्रणी या प्रधान भी बनाया जा सकता है । विचार प्रारम्भ में असमर्थ हो सकता है और होगा ही; अभीप्सा संकीर्ण और अपूर्ण हो सकती है । श्रद्धा अल्प प्रकाशित हो सकती है, यहां तक कि, ज्ञान की चट्टान पर सुप्रतिष्ठित न होने के कारण चलायमान तथा अनिश्चित भी हो सकती है । वह आसानी से मन्द भी पड़ सकती है । यह भी सम्भव है कि वह बार-बार बुझ जाय और आंधीदार घाटी में मशाल की भांति उसे कठिनाई से फिर-फिर प्रच्चलित करना पड़े । परन्तु यदि साधक एक बार अन्तर की गहराई से दृढ़ आत्म-निवेदन कर दे और आत्मा की पुकार के प्रति जाग जाय तो ये अपूर्ण चीजें भी दिव्य प्रयोजन के लिये पर्याप्त साधन हो सकती हैं । अतएव, ज्ञानी लोग ईश्वर की ओर मनुष्य की पहुंच के मार्गों को सीमित कर देने में सदा ही संकोचशील रहे हैं । वे उसके प्रवेश के लिये तंग- से-तंग द्वार, सब से नीची और सब से अंधेरी खिड़की तथा तुच्छ-से-तुच्छ प्रवेश- पथ भी बन्द नहीं करना चाहते । कोई भी नाम, कोई भी रूप, कोई भी प्रतीक, कोई भी अर्घ्य पर्याप्त समझा गया है यदि उसके साथ आत्म-निवेदन का भाव हो; क्योंकि जिज्ञासु के हृदय में भगवान् अपने को विराजमान देखते हैं और यज्ञ को स्वीकार कर लेते हैं ।

 

     तो भी, आत्म-निवेदन को प्रेरित करनेवाला विचार-बल जितना महान् और विशाल होगा, साधक के लिये यह उतना ही उत्तम होगा; उसकी उपलब्धि सम्भवत:, उतनी ही अधिक पूर्ण और प्रचुर होगी । यदि हमें पूर्णयोग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करना है तो यह अच्छा होगा कि भगवान् के एक ऐसे विचार को लेकर चलें जो स्वयं पूर्ण हो । हृदय में एक ऐसी अभीप्सा होनी चाहिये जो किन्हीं संकुचित सीमाओं से रहित साक्षात्कार को प्राप्त करने के लिये खूब विशाल हो ।

 

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हमें केवल एक सांप्रदायिक एवं धार्मिक बहिर्दृष्टि को ही नहीं, अपितु उन सभी एकपक्षीय दार्शनिक विचारों को भी त्यागना होगा जो अनिर्वचनीय भगवान् को एक सीमित करनेवाले मानसिक सूत्र में आबद्ध कर देने का यत्न करते हैं । हमारा योग जिस शक्तिशाली विचार या प्रबल भावना को लेकर सुचारु रूप से चल सकता है वह स्वभावतः ही एक ऐसे चेतन अनन्त देव का विचार या भाव है जिसमें सब कुछ आ जाता है तथा जो सब को अतिक्रान्त कर जाता है । हमें अपनी ऊर्ध्वदृष्टि उस स्वतन्त्र, सर्वशक्तिमान्, पूर्ण और आनन्दमय परम एकमेव तथा परम एकत्व की ओर रखनी होगी जिसमें भूतमात्र गति करते और निवास करते हैं और जिसके द्वारा सभी मिल सकते और एक हो सकते हैं । यह 'सनातन' परमदेव आत्मा को समक्ष अपने को प्रकट करने और उसपर अपना वरदहस्त रखने में एक साथ ही वैयक्तिक भी है और निर्वैयक्तिक भी । वह वैयक्तिक है, क्योंकि वह चेतन भगवान् एवं अनन्त पुरुष है जो विश्व के असंख्य दिव्य एवं अदिव्य व्यक्तियों में अपनी एक टूटी-फूटी छाया डालता है । वह निर्वैयक्तिक है, क्योंकि वह हमें अनन्त सत्, चित् और आनन्द प्रतीत होता है और क्योंकि वह सभी सत्ताओं और सभी शक्तियों का मूल स्रोत, आधार एवं घटक है और हमारी सत्ता अर्थात् हमारे मन-प्राण-शरीर का वास्तविक उपादान है तथा हमारी आत्मा और हमारी भौतिक सत्ता है । भगवान् पर एकाग्र होने का अभ्यास करते हुए विचार के लिये केवल यही पर्याप्त नहीं है कि यह उसके अस्तित्व को बौद्धिक रूप में समझ ले अथवा उसे एक अमूर्त्त भाव या तर्कसिद्ध आवश्यक तत्त्व मान ले । इसे एक द्रष्टा का विचार बनना होगा जो घट- घटवासी भगवान् से यहीं मिल सके, जो हमारे अन्दर उसे साक्षात् कर सके और जो उसकी शक्तियों की गति का साक्षी एवं स्वामी बन सके । वह एकमेव सत् है; वह मूल और विश्वव्यापी आनन्द है जिससे यह सब जगत् बना है और जो इससे परे भी है । वह एकमेव अनन्त चेतना है जो सब चेतनाओं को गठित करती और उनकी सब गतियों को अनुप्राणित करती है । वह एकमेव असीम सत् है जो समस्त कर्म और अनुभव को धारण करता है । उसका संकल्प वस्तुओं के विकास को उनके अब तक असिद्ध पर अनिवार्य लक्ष्य तथा पूर्णता की ओर ले चलता है । उस पर हृदय अपने-आपको उत्सर्ग कर सकता है, परम प्रियतम के रूप में उसके पास पहुंच सकता है और प्रेम के सार्वभौम माधुर्य एवं आनन्द के सजीव सिन्धु के रूप में उसके अन्दर स्पन्दन और विचरण कर सकता है । क्योंकि उसका हर्ष वह गुप्त हर्ष है जो आत्मा को उसके सभी अनुभवों में आश्रय देता है और भ्रान्तिशील अहं को भी उसकी अग्नि-परीक्षाओं और संघर्षों में तब तक धारण करता है जब तक समस्त दुःख और क्लेश मिट नहीं जाते । उसका प्रेम और आनन्द उस अनन्त दिव्य प्रेमी का प्रेम और आनन्द है जो सभी वस्तुओं को उनके पथ से अपनी सुखमय एकता की ओर खींच रहा है । उसी पर संकल्प अपने को इस रूप में

 

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दृढ़तया एकाग्र कर सकता है कि वह एक अदृश्य शक्ति है जो इसे संचालित और क्रियान्वित करती है तथा इसके बल का स्रोत है । निर्वैयक्तिकता में यह प्रेरक बल एक स्वयं-प्रकाशमान शक्ति है जो सब परिणामों को धारण करती है और स्थिरतापूर्वक तब तक कार्य करती है जब तक कि वह उन्हें सिद्ध ही नहीं कर लेती । वैयक्तिकता में यह योग का सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ईश्वर है जिसे अपने संकल्प के उद्देश्य की सिद्धि में कोई चीज बाधा नहीं पहुंचा सकती । इसी श्रद्धा से जिज्ञासु को अपनी खोज और प्रयत्न शुरू करना होता है । इस भूतल पर अपने सम्पूर्ण पुरुषार्थ में और, सब से बढ़ कर, अगोचर को प्राप्त करने के अपने पुरुषार्थ में मनोमय मनुष्य विवश होकर श्रद्धा द्वारा ही आगे बढ़ता है । जब उसे प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होगा, तब श्रद्धा दिव्य रूपसे कृतार्थ और पूर्ण होकर ज्ञान की नित्य ज्योतिशिखा में परिणत हो जायगी ।

 

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     हमारे समस्त ऊर्ध्वमुख प्रयत्न में कामना का निम्नतर तत्त्व प्रारम्भ में स्वभावत: ही आ घुसेगा । कारण, जिसे ज्ञानदीप्त संकल्प एकमात्र करने योग्य कार्य समझता है और एकमात्र प्राप्तव्य सर्वोच्च ध्येय के रूप में खोजता है, जिसे हृदय एकमात्र आनन्दपूर्ण वस्तु जानकर गले लगाता है, उसीको हमारे अन्दर का कामनामय पुरुष भी अहंमय कामना की क्षुब्ध व्यग्रता के साथ खोजेगा । यह कामनामय पुरुष अपने-आपको सीमित और व्याहत अनुभव करता है, और क्योंकि यह सीमित है, इसलिये यह कामना और संघर्ष करता है । अपने अन्दर की इस कामनाशील प्राणशक्ति या कामनामय पुरुष को हमें शुरू में स्वीकार करना होता है, पर केवल इसलिये कि इसका रूपान्तर किया जा सके । यहां तक कि सर्वथा प्रारम्भ से ही इसे सिखाना होता है कि यह और सभी इच्छाएं त्यागकर केवल भागवत्प्राप्ति की कामना पर ही अपने-आपको एकाग्र करे । इस महत्त्वपूर्ण अवस्था के प्राप्त हो जाने के बाद इसे यह सिखाना होता है कि यह अपने पृथक् स्वार्थ के लिये नहीं, बल्कि संसारवासी ईश्वर और हमारे अन्तर्वासी भगवान् के लिये कामना करे । किसी भी व्यक्तिगत आध्यात्मिक लाभ में इसे ध्यान नहीं लगाना होगा, यद्यपि हमें निश्चय है कि समस्त सम्भव आध्यात्मिक लाभ हमें प्राप्त होगा । बल्कि, इसे उस महान् कर्म में ध्यान लगाना होगा जो हमारे और दूसरों के अन्दर किया जाना है, उस उच्च, भावी अभिव्यक्ति में जो संसार में भगवान् की एक भव्य चरितार्थता होनेवाली है, उस परम सत्य में जिसे खोजना, जीवन में लाना और सदा के लिये सिंहासनाधिरूढ़ करना है । परन्तु सबसे अन्त में इसे जो बात सिखानी होती है वह इसके लिये अत्यन्त कठिन है । वह है ध्येय की ठीक प्रकार से खोज करना । यह बात ठीक

 

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ध्येय को खोजने की अपेक्षा भी कहीं अधिक कठिन है, क्योंकि इसे अपने अहंभावमय तरीके से नहीं, बल्कि भगवान् के तरीके के अनुसार कामना करना सीखना होगा । इसे परिपूर्णता की अपनी शैली का, लक्ष्य-प्राप्ति के अपने स्वम्न का का, उचित और काम्य के विषय में अपने विचार का वैसा आग्रह करना सर्वथा छोड़ देना होगा जैसा कि प्रबल भेदमूलक इच्छा-शक्ति सदा ही किया करती है । एक अधिक विशाल और अधिक महान् इच्छा-शक्ति को चरितार्थ करने की इसे स्पृहा करनी होगी और एक कम स्वार्थासक्त तथा कम अज्ञ पथप्रदर्शन के द्वार पर प्रतीक्षा करने को राजी होना होगा । इस प्रकार शिक्षित होकर यह कामना जो अत्यन्त चंचल है, जो मनुष्य को अत्यधिक हैरान और परेशान करती है तथा प्रत्येक प्रकार का सखलन पैदा करती है, अपने दिव्य स्वरूप में परिणत होने योग्य बन जायगी । क्योंकि, कामना और रागावेश के भी अपने दिव्य रूप हैं । समस्त तृष्णा और दुःख से परे आत्मा की जिज्ञासा का एक विशुद्ध हर्षावेश है, आनन्द की एक ऐसी इच्छा है जो परम दिव्यानन्दों की प्राप्ति में महामहिम होकर विराजमान है ।

 

     जब एक बार हमारी एकाग्रता का ध्येय हमारे तीन प्रधान करणों अर्थात् विचार, हृदय और संकल्प को अधिकृत कर लेता है और इनसे अधिकृत हो जाता है, यह एक ऐसी ऊंची स्थिति है जो पूरी तरह तभी प्राप्त हो सकती है यदि हमारे अन्दर की कामनात्मा दिव्य विधान के अधीन हो जाय, तभी हमारी रूपान्तरित प्रकृति में तन-मन-जीवन की पूर्णता सफलतापूर्वक प्राप्त की जा सकती है । किन्तु यह कार्य अहंकार की निजी तृप्ति के लिये नहीं, वरन् इसलिये करना होगा कि सम्पूर्ण सत्ता दिव्य उपस्थिति के लिये उपयुक्त। मन्दिर एवं दिव्य कर्म के लिये निर्दोष यन्त्र बन सके । दिव्य कर्म सचमुच किया ही तभी जा सकता है जब यन्त्र समर्पित और पूर्णतायुक्त होकर निःस्वार्थ कार्य के योग्य बन जाय, और यह तब होगा जब वैयक्तिक कामना और अहंकार तो मिट जायं, पर स्वातंत्र्यप्राप्त व्यक्ति बना रहे । जब क्षुद्र अहं मिट जाता है तब भी सच्चे आध्यात्मिक पुरुष का अस्तित्व रह सकता है और उसके अन्दर ईश्वर का संकल्प, कर्म और आनन्द तथा उसकी पूर्णता और समृद्धि का आध्यात्मिक उपयोग भी बना रह सकता है । हमारे कर्म तब दिव्य होंगे और दिव्य ढंग से ही किये जायंगे । हमारा ईश्वरार्पित मन, जीवन और संकल्प तब दूसरों के अन्दर और संसार के अन्दर उस चीज को चरितार्थ करने में सहायता पहुंचाने के लिये प्रयुक्त होंगे जिसे हम अपने अन्दर चरितार्थ कर चुके हैं, अर्थात् उस सब साकार एकता, प्रेम, स्वतन्त्रता, बल, शक्ति, ज्योति और अमर आनन्द को चरितार्थ करने में प्रयुक्त होंगे जिसे हम स्वयं प्रकट कर सकते हैं और जो इहलोक में आत्मा के साहसिक कर्म का लक्ष्य है ।

 

     इस पूर्ण एकाग्रता के प्रयत्न से या कम-से-कम इसकी ओर स्थिर प्रवृत्ति से ही योग का आरम्भ होता है । यह आवश्यक है कि परम देव के प्रति अपना सर्वस्व

 

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समर्पित करने के लिये हमारे अन्दर अडिग और अटूट संकल्प हो और हम अपनी सम्पूर्ण सत्ता तथा प्रकति को अंग-प्रत्यगसहित उस सनातन देव पर उत्सर्ग कर दें जो 'सर्व' है । अपनी एकमात्र काम्य वस्तु पर हमारी अनन्य एकाग्रता जितनी शक्तिशाली तथा पूर्ण होगी, एकमात्र स्पृहणीय एकमेव के प्रति हमारा आत्म-समर्पण भी उतना ही पूर्ण होगा । परन्तु यह अनन्यता, अन्त में, संसार को देखने के हमारे मिथ्या ढंग और हमारे संकल्प के अज्ञान के सिवा और किसी चीज का बहिष्कार नहीं करेगी । सनातन देव पर हमारी एकाग्रता मन के द्वारा तब पूर्ण होगी जब हम सदा-सर्वदा-सर्वत्र भगवान् के ही दर्शन करने लगेंगेकेवल उनके निज स्वरूप में तथा अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि सब पदार्थों प्राणियों और घटनाओं में भी । हृदय के द्वारा यह तब पूर्ण होगी जब सारे भाव भगवान् के ही प्रेम में संपुटित हो जायेंगे, शुद्ध और निरपेक्ष भगवान् के प्रेम में ही नहीं, बल्कि संसार के अन्दर अपने सभी जीवों, शक्तियों व्यक्तियों और दृश्य पदार्थों में रहने वाले भगवान् के प्रेम में भी | संकल्प के द्वारा यह तब पूर्ण होगी जब हम सदा दैवी प्रेरणा को अनुभव और ग्रहण करेंगे तथा उसीको अपनी एकमात्र चालक शक्ति स्वीकार करेंगे । परन्तु इसका अर्थ यह होगा कि अहंमूलक प्रकृति के भटकनेवाले आवेगों का तथा उनमें भी अन्तिम विद्रोही, उन्मार्गगामी आवेगतक का वध करके हमने अपने को विश्वमय बना लिया है और सभी पदार्थों में हो रही एक ही दैवी क्रिया को सदा हर्षपूर्वक स्वीकार करने के लिये हम योग्य बन गये हैं । यह पूर्णयोग की पहली आधारभूत सिद्धि है ।

 

     जब हम भगवान् के प्रति व्यक्ति के पूर्ण आत्म-निवेदन की बात करते हैं तब हमारा अभिप्राय अन्त में इसी चीज से होता है, इससे कम किसी चीज से नहीं । परन्तु निवेदन की यह समग्र पूर्णता अनवरत प्रगति के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है जब कि कामना का रूपान्तर करके उसका अस्तित्व मिटाने की लंबी और कठिन प्रक्रिया निःशेष रूप से पूर्ण कर ली जाय । पूर्ण आत्मनिवेदन में पूर्ण आत्म-समर्पण भी निहित है |

 

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     इस योग की दो गतियां हैं जिनके बीच में एक संक्रमण-अवस्था आती है, अथवा यूं कहें कि इस योग में दो काल आते हैं, एक तो समर्पण की क्रिया- प्रणाली का, दूसरा उसके शिखर और परिणाम का । पहले में व्यक्ति भगवान् को अपने अंगों में ग्रहण करने के लिये अपने-आपको तैयार करता है । इस सारे प्रारम्भिक काल में उसे निम्नतर प्रकृति के करणों द्वारा काम करते हुए भी ऊपर से अधिकाधिक सहायता प्राप्त करनी होती है ।  परन्तु इस गति की पिछली संक्रमण-

 

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अवस्था में हमारा व्यक्तिगत और अनिवार्यत:-अज्ञानपूर्ण प्रयत्न उत्तरोत्तर कम होता जाता है और उच्चतर प्रकृति कार्य करने लगती है; अनादि परम शक्ति इस सीमित मर्त्य शरीर में अवतरित होती है और इसे उत्तरोत्तर अधिकृत तथा रूपान्तरित करती जाती है । दूसरी अवस्था में महत्तर गति निम्नतर गति का, जो पहले अनिवार्य प्रारम्भिक क्रिया थी, पूर्णतया स्थान ले लेती है । किन्तु यह केवल तभी किया जा सकता है जब हमारा आत्म-समर्पण पूर्ण हो । हमारे अन्दर का अहं-रूप पुरुष अपने बल, ज्ञान या इच्छा-शक्ति के सहारे या अपने किसी गुण के बल पर अपने-आपको भगवान् की प्रकृति में रूपान्तरित नहीं कर सकता । वह केवल इतना ही कर सकता है कि वह अपने-आपको रूपान्तर के योग्य बनाये और जो कुछ वह बनना चाहता है उसके प्रति अपना अधिकाधिक समर्पण करता जाय । जब तक अहं हमारे अन्दर क्रियाशील रहता है तब तक हमारी व्यक्तिगत क्रिया अपने स्वरूप में सत्ता के निम्नतर स्तरों का एक अंगमात्र रहती है और सदा रहेगी ही । वह अज्ञानमय या अर्द्ध-प्रकाशयुक्त अपने क्षेत्र में सीमित और अपनी शक्ति की दृष्टि से बहुत अपूर्ण रूप में प्रभावशाली होती है । यदि आध्यात्मिक रूपान्तर किंचित् भी सिद्ध करना है, और यदि अपनी प्रकृति का केवल प्रकाशप्रद परिवर्तन करना ही इष्ट नहीं है, तो हमें अपनी व्यष्टि-सत्ता में यह चमत्कारक कार्य सिद्ध करने के लिये दिव्य शक्ति का आह्वान करना होगा; कारण, उसीमें इस कार्य के लिये अपेक्षित सामर्थ्य, निर्णायक, सर्वज्ञानमय और असीम सामर्थ्य विद्यमान है । परन्तु मानवीय व्यक्तिगत क्रिया के स्थान पर भगवान् की क्रिया को पूर्णतया स्थापित करना तुरत ही पूरी तरह से सम्भव नहीं होता, क्योंकि नीचे से होनेवाला हस्तक्षेप ऊर्ध्व स्तर की क्रिया के सत्य को मिथ्या रूप दे देता है । इसलिये पहले हमें ऐसे समस्त हस्तक्षेप को बन्द या निष्फल कर देना होगा और वह भी अपनी स्वतन्त्र इच्छा से । जिस चीज की हमसे मांग की जाती है वह यह है कि हम निम्नतर प्रकृति की प्रवृत्तियों और मिथ्यात्वों का सतत और सदा-सर्वदा पुनः-पुनः परित्याग करें और जैसे-जैसे हमारे अंगों में सत्य की वृद्धि हो वैसे-वैसे हम इसे दृढ़ आश्रय प्रदान करते जायें । क्योंकि, भीतर प्रविष्ट होती हुई संजीवनी ज्योति, पवित्रता और शक्ति को अपनी प्रकृति में उत्तरोत्तर प्रतिष्ठित करने और इनकी चरम पूर्णता साधित करने के लिये हमें इनका पोषण एवं संवर्धन करना होगा । इसके लिये यह आवश्यक है कि हम इन्हें मुक्त हृदय से अंगीकार करें और जो कुछ भी इनके विपरीत एवं इनसे हीनतर या असंगत है उस सबका दृढ़तापूर्वक परित्याग करें ।

 

     अपने- आपको तैयार करने की प्रथम गति में अर्थात् व्यक्तिगत प्रयत्न के काल में जिस विधि का हमें प्रयोग करना है वह सम्पूर्ण सत्ता की एकाग्रता है, उस भगवान् पर एकाग्रता है जिसे वह पाना चाहती है और, इसके स्वाभाविक परिणाम के तौर पर उस सबका सतत परित्याग एवं उस सबका परिवर्जन है जो भगवान्

 

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का सच्चा सत्य नहीं है । इस दृढ़ परित्याग का परिणाम उस सबका समग्र निवेदन होगा जो कुछ कि हम हैं और जो कुछ हम सोचते, अनुभव करते और कार्य करते हैं । आत्म-निवेदन क्रमश: सर्वोच्च देव के प्रति समग्र आत्मदान में परिसमाप्त होगा, क्योंकि आत्म-निवेदन का शिखर और उसकी पूर्णता का चिह्न है सम्पूर्ण प्रकृति का सर्वसंग्राहक निरपेक्ष समर्पण । योग की दूसरी अवस्था में, जो मानवीय और दिव्य क्रिया के बीच की संक्रमण-अवस्था है, मानवीय क्रिया के स्थान पर एक अन्य क्रिया ऊर्ध्व में अधिष्ठित होगी । वह है दिव्य शक्ति के प्रति वृद्धिशील, विशुद्ध और जागरूक नमनशीलता, उसके प्रति अधिकाधिक प्रकाशयुक्त दिव्य प्रत्युत्तर किन्तु उसीके प्रति, किसी अन्य के प्रति नहीं । इसके फलस्वरूप, ऊपर से आयेगा एक महान् और सचेतन चमत्कारी क्रिया का वर्धमान प्रवाह । अन्तिम अवस्था में किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं होता, न कोई नियत विधि और न कोई बंधी साधना ही होती है । प्रयत्न और तपस्या का स्थान एक सहज-स्वाभाविक विकास ले लेता है । विशुद्ध और पूर्णता-प्राप्त पार्थिव प्रकृति की कली में से भगवान्रूपी कुसम शक्तिशाली और आनन्दप्रद ढंग से स्वयमेव विकसित होने लगता है । योग की क्रिया के स्वाभाविक क्रम यही हैं ।

 

     ये गतियां वास्तव में सदा तथा अटल रूप में इस प्रकार एक कठोर आनुक्रमिक रूप में बंधी हुई नहीं होतीं । पहली अवस्था की समाप्ति से पूर्व दूसरी अवस्था कुछ-कुछ शुरू हो जाती है । पहली अवस्था अंशत: तब तक जारी रहती है जब तक दूसरी पूर्ण नहीं हो लेती । इस बीच चरम दिव्य क्रिया समय-समय पर आश्वासन के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है और बाद में वह हमारे अन्दर अन्तिम तौर पर प्रतिष्ठित तथा हमारी प्रकृति के लिये सहज-स्वाभाविक हो जाती है । वैसे तो सदा ही व्यक्ति की अपेक्षा कोई उच्चतर और महत्तर शक्ति उसके पीछे विद्यमान होती है जो उसके वैयक्तिक प्रयत्न और पुरुषार्थ में भी उसका पथ- प्रदर्शन करती है । पर्दे की ओट में प्रच्छन्न इस महत्तर पथप्रदर्शन के प्रति वह कितनी ही बार सचेतन भी हो सकता है, यहां तक कि कुछ काल के लिये पूर्ण रूप से और अपनी सत्ता के कुछ भागों में तो नित्य रूप से भी सचेतन रह सकता है । बल्कि, यह सचेतनता उसे बहुत पहले भी प्राप्त हो सकती है, जब कि उसकी सम्पूर्ण सत्ता अपने सभी अंगों में निम्नतर परोक्ष नियंत्रण की अपवित्रता से अभी मुक्त भी नहीं हुई होती । यहां तक कि वह प्रारम्भ से ही इस प्रकार सचेतन रह सकता है; उसके अन्य अंग न भी सही, किन्तु उसका मन और हृदय दोनों योग में सर्वप्रथम पदार्पण करने के बाद से ही इस प्रच्छन्न शक्ति के अभिभूतकारी और तीक्ष्ण पथ-प्रदर्शन का प्रत्युत्तर एक प्रकार की प्रारम्भिक पूर्णता के साथ दे सकते हैं । परन्तु संक्रमण-अवस्था जैसे-जैसे आगे बढ़ती और अपनी समाप्ति के निकट पहुंचती है वैसे-वैसे जो लक्षण उसे अन्य अवस्थाओं से अधिकाधिक स्पष्ट रूप में

 

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पृथक् करता है वह इस महान् प्रत्यक्ष नियन्त्रण की सतत, पूर्ण एवं समरस क्रिया है । यह महत्तर एवं दिव्यतर पथ-प्रदर्शन हमारे लिये व्यक्तिगत नहीं होता, इसकी प्रधानता इस बात का चिह्न होती है कि प्रकृति समग्र आध्यात्मिक रूपान्तर के लिये उत्तरोत्तर परिपक्व हो रही है । यह इस बात का अचूक चिह्न होती है कि आत्म- निवेदन केवल सिद्धान्तत: ही स्वीकार नहीं किया गया है अपितु वह क्रिया और शक्ति में भी पूर्णतः चरितार्थ हो गया है । परम देव ने अपनी चमत्कारमयी ज्योति, शक्ति और आनन्द के चुने हुए मानवीय आधार के सिर पर अपना ज्योतिर्मय हस्त धर दिया है ।

 

 

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