योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

तीसरा अध्याय

 

आत्म-पूर्णता का मनोविज्ञान

 

इस प्रकार सारतः, इस दिव्य आत्म-पूर्णता का अर्थ है मानव-प्रकृति को एक ऐसे आकार में रूपान्तरित कर देना जो दिव्य प्रकृति के स्वरूप से सादृश्य रखता हो तथा उसके साथ मूलत: एक हो, साथ ही, इसका अर्थ है मनुष्य में ईश्वर की प्रतिमूर्ति को वेगपूर्वक निर्मित करना और उसकी आदर्श रूपरेखाओं को भरना । इसे साधारणतया सादृश्य-मुक्ति। कहा जाता है जिसका अर्थ है दृश्यमान मानवीय सत्ता के बन्धन में से निकलकर भगवत्सदृश स्थिति में मुक्त हो जाना, अथवा गीता की भाषा का प्रयोग करें तो इसे साधर्म्य-गति कह सकते हैं जिसका मतलब है परात्पर, विराट् और अन्तर्वासी भगवान् के साथ अपनी सत्ता का साधर्म्य प्राप्त कर लेना । ऐसे रूपान्तर के लिये हमारा जो मार्ग होना चाहिये उसे जानने तथा उसका ठीक विचार अपने मन में लाने के लिये हमें इस मानव-प्रकृति के बारे में, जो अपने विविध तत्त्वों के अस्तव्यस्त मिश्रणों में आज एक उलझी हुई वस्तु है, एक पर्याप्त कामचलाऊ धारणा बना लेनी होगी जिससे हम यह देख सकें कि इसके प्रत्येक अङ्ग को जिस रूपान्तर में से गुजरना होगा उसका ठीक स्वरूप क्या है तथा उसका अधिक-से-अधिक प्रभावशाली साधन कौन-सा है । मानवीय अस्तित्व और जीवन की वास्तविक समस्या यह है कि मनोमय मर्त्य जड़ देह की गांठ में से इसकी अन्तर्निहित अमर्त्य सत्ता को कैसे उन्मुक्त किया जाये, इस मानसभावापन्न प्राणप्रधान पशुत्वमय मानव में से इसके देवत्व के प्रच्छन्न संकेतों के सुखद पूणैंश्वर्य को कैसे प्रकट किया जाये । जीवन देवत्व के कितने ही प्राथमिक संकेतों को विकसित करता है, पर उन्हें पूर्ण रूप से प्रकट नहीं करता; किन्तु योग का अर्थ है 'जीवन' की कठिनाई की गांठ को खोलना ।

 

      सबसे पहले हमें मनोवैज्ञानिक जटिलता के उस केन्द्रीय रहस्य को जानना होगा जो इस समस्या तथा इसकी सभी कठिनाइयों को जन्म देता है । परन्तु साधारण मनोविज्ञान जो केवल मन और उसके बाह्य व्यापारों को उनके स्थूल रूपों में ही स्वीकार करता है, हमारे लिये तनिक भी सहायक नहीं होगा; अपने-आपको खोजने और अपना रूपान्तर करने की इस दिशा में यह हमारा किञ्चित् भी मार्गदर्शन नहीं कर सकता । जड़वाद पर आधारित वैज्ञानिक मनोविद्या में अपनी समस्या के निराकरण का सूत्र पा सकना हमारे लिये और भी दुष्कर है क्योंकि वह यह मानती है कि शरीर और इसके साथ ही हमारी प्रकृति के जीवविज्ञानीय एवं शरीरक्रियाशास्रीय तत्त्व (हमारे समग्र जीवन का) केवल आरम्भ-बिन्दु ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण वास्तविक आधार हैं और मानव-मन, प्राण और शरीर से विकसित, 

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 एक सूक्ष्म तत्त्वमात्र है । यह सत्य मानव-प्रकृति के पशुत्वमय पक्ष के बारे में यथार्थ हो सकता है तथा मानव-मन के बारे में भी यह वहांतक यथार्थ हो सकता है जहांतक कि वह हमारी सत्ता के भौतिक भाग के द्वारा सीमित और परिच्छिन्न है । परन्तु मनुष्य और पशु में सारा भेद ही यह है कि पशु का मन, जैसा कि हम इसे जानते हैं, अपने मुल स्रोतों से क्षणभर के लिये भी दूर नहीं जा सकता । शारीरिक जीवन ने अन्तरात्मा के चारों ओर जो आवरण या घना खोल बुन रखा है उसे भेदकर तथा उससे बाहर निकलकर यह अपनी वर्तमान सत्ता से अधिक महान् सत्ता नहीं बन सकता, एक अधिक स्वतन्त्र, विशाल और उत्कृष्ट जीवन नहीं बन सकता; परन्तु मनुष्य में मन अपने-आपको एक ऐसी महत्तर शक्ति के रूप में प्रकट करता है जो सत्ता के प्राणिक और भौतिक नियम के बन्धनों से मुक्त होती है । तथापि मनुष्य जो कुछ है या बन सकता है वह इतना ही नहीं है : उसके अन्दर एक और भी महान् आदर्श शक्ति को विकसित और उन्मुक्त करने की सामर्थ्य है; यह शक्ति, यथाक्रम, उसकी प्रकृति के मानसिक सूत्र की सीमाओं को भी पार कर जाती है और आध्यात्मिक सत्ता के अतिमानसिक रूप एवं उसकी आदर्शशक्ति को प्रकट कर देती है । योग में हमें भौतिक प्रकृति और स्थूल मानव व्यक्तित्व से परे जाकर वास्तविक मानव की समग्र प्रकृति की क्रियाओं को खोजना होगा । दूसरे शब्दों में हमें आध्यात्मिक आधार पर प्रतिष्ठित मनोभौतिक ज्ञान को प्राप्त करके उसका प्रयोग करना होगा ।

 

     मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप की दृष्टि से एक आत्मा है जो इस विश्व में व्यक्तिगत और समष्टिगत अनुभव तथा आत्म--आविर्भाव के लिये मन, प्राण और शरीर का उपयोग करती है, --यह सत्य आज हमारी वर्तमान बुद्धि और स्व-चेतना के लिये कितना ही अस्पष्ट क्यों न हो, पर योग के प्रयोजनों के लिये हमें इसमें श्रद्धा रखनी होगी और ऐसा करने पर हमें पता चलेगा कि हमारी श्रद्धा बढ़ते हुए अनुभव और महत्तर आत्म-ज्ञान के द्वारा सच्ची प्रमाणित होती है । मनुष्य की यह वास्तविक आत्मा एक अनन्त सत्ता है जो व्यक्तिगत अनुभव लेने के लिये अपने--आपको एक प्रत्यक्ष एवं सान्त सत्ता में सीमित करती है । यह एक अनन्त चेतना है जो सत्ता के विविध ज्ञान और विविध बल के आनन्द के लिये अपने--आपको चेतना के सान्त रूपों में सीमित करती है । यह सत्ता का एक अनन्त आनन्द है जो अपने--आपको तथा अपनी शक्तियों को विस्तृत और संकुचित करता है, अपनी सत्ता के आनन्द के अनेकानेक रूपों को छुपाता और ढूंढ़ता है तथा उन्हें व्यक्त भी करता है, यहांतक कि इस प्रक्रिया में यह अपनी प्रकृति को प्रत्यक्षत: आच्छन्न कर देता तथा उसका निषेध भी कर डालता है । अपने--आपमें यह सनातन सच्चिदानन्द है, पर यह जटिलता अर्थात् अनन्त को सान्त में उलझा देना और फिर उस उलझी हुई ग्रन्थि को सुलझाना भी उसका एक रूप है; हम देखते हैं कि यह वैश्व और

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 व्यक्तिगत प्रकृति में अपने इस रूप को धारण करता है । दस सनातन सच्चिदानन्द को, अपने अन्दर विद्यमान अपनी सत्ता की इस वास्तविक आत्मा को खोजकर इसमें निवास करना आध्यात्मिक सिद्धि का स्थिर आधार है, इसकी वास्तविक प्रकृति को प्रत्यक्ष रूप में प्रकट करके उसे अपने करणों में अर्थात् अतिमानस, मन, प्राण और शरीर में दिव्य जीवन--प्रणाली की उत्पादिका बना देना आध्यात्मिक सिद्धि का सक्रिय सिद्धान्त है ।

 

     अतिमानस, मन, प्राण और शरीर आत्मा के चार करण हैं । इन्हें वह प्रकृति के व्यापारों में अपने--आपको प्रकट करने के लिये प्रयोग में लाती है । इनमेंसे अतिमानस आध्यात्मिक चेतना है जो स्वयंप्रकाश ज्ञान, संकल्प, इन्द्रिय--शक्ति, सौन्दर्यवृत्ति और ऊर्जा के रूप में तथा अपने आनन्द और अपनी सत्ता की आत्मसर्जनशील एवं आविर्भावकारी शक्ति के रूप में कार्य करती है । मन भी इन्हीं शक्तियों का एक व्यापार है, पर वह सीमित है तथा इनका प्रकाश उसे अत्यन्त परोक्ष और आंशिक रूप में ही प्राप्त होता है । अतिमानस एकता में निवास करता है यद्यपि वह विभिन्नता का खेल भी खेलता है; मन विभिन्नता की विभाजक क्रिया में निवास करता है, यद्यपि वह एकता की ओर भी खुल सकता है । मन अज्ञान को धारण कर सकता है, इतना ही नहीं, बल्कि सदा आंशिक और सीमित रूप से कार्य करने के कारण वह स्वभाव से ही अज्ञान की शक्ति के रूप में कार्य करता है : यहांतक कि वह पूर्ण निश्चेतना या निर्ज्ञान में अपनेको भूल जा सकता है और भूल ही जाता है, इस अवस्था से जागकर वह आंशिक ज्ञानरूपी अज्ञान की ओर विकसित हो सकता है और फिर अज्ञान से पूर्ण ज्ञान की ओर अग्रसर हों सकता है, --मनुष्य में उसकी स्वाभाविक क्रिया यही है, --पर वह अपने बल पर पूर्ण ज्ञान कभी नहीं प्राप्त कर सकता । अतिमानस वास्तविक अज्ञान को धारण नहीं कर सकता; चाहे वह किसी विशेष क्रिया की सीमा में रहने पर पूर्ण ज्ञान को अपने पीछे रख छोड़े, तथापि इसकी समस्त क्रिया उस पीछे रखे हुए ज्ञान से सम्बन्ध बनाये रखती है और स्वयं-प्रकाश ज्ञान से अनुप्राणित रहती है; चाहे यह जड़- प्राकृतिक निर्ज्ञान में अपने-आपको ग्रस्त कर दे, फिर भी यह वहां पूर्ण संकल्प और ज्ञान के कार्यों को ठीक-ठीक सम्पन्न करता है । अतिमानस निम्नतर करणों की क्रिया में सहायता करता है; वस्तुतः यह उनकी क्रियाओं के गुप्त आश्रय के रूप में उनके भीतर सदा ही विद्यमान रहता है । जड़तत्त्व में यह वस्तुओं के अन्तर्निहित गुप्त 'विचार' की स्वयंचालित क्रिया एवं कार्यान्यिति के रूप में उपस्थित रहता है; प्राण में इसका अत्यन्त ग्राह्य रूप है अन्ध प्रेरणा, स्वयंप्रेरित, अवचेतन या अंशत: अवचेतन ज्ञान और क्रिया; मन में यह सहज ज्ञान के रूप में अर्थात् बुद्धि, संकल्प, सम्वेदन और सौन्दर्यवृत्ति के द्रुत, प्रत्यक्ष और अमोघ प्रकाश के रूप में प्रकट होता है । परन्तु ये सब अतिमानस की दीप्तियामात्र हैं जो अपेक्षाकृत

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तमसाच्छन्न करणों की सीमित क्रिया के साथ किसी प्रकार का मेल साध लेती हैं : उसकी अपनी विशिष्ट प्रकृति तो एक ऐसे विज्ञान से युक्त प्रकृति है जो मन, प्राण और शरीर के लिये अतिचेतन है । अतिमानस या विज्ञान आत्मा की, अपने स्वाभाविक सत्स्वरूप में स्थित आत्मा की, एक विशिष्ट, आलोकित और अर्थपूर्ण क्रिया है ।

 

      प्राण आत्मा की एक शक्ति है जो मन और शरीर की क्रिया के अधीन है; यह मन और शरीर के द्वारा अपने-आपको चरितार्थ करती है और इन दोनों के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करती है । इसकी अपनी एक विशिष्ट क्रिया भी होती है, पर यह कहीं भी मन और शरीर से स्वतन्त्र रूप में कार्य नहीं करती । कार्यरत आत्मा की समस्त शक्ति सत्ता और चेतना इन दो रूपों में कार्य करती है, अर्थात् वह सत्ता के रूपों का निर्माण करने, चेतना की लीला और आत्मोपलब्धि को सम्पन्न करने और सत्ता एवं चेतना का आनन्द लेने के लिये कार्य करती है । सत्ता की जिस निम्नतर रचना में हम इस समय निवास करते हैं उसमें आत्मा की प्राण-शक्ति मन और जड़तत्त्व इन दो रूपों के बीच कार्य करती है, जड़ उपादान की रूप- रचनाओं को धारण करती है तथा उन्हें निर्मित भी करती है और भौतिक शक्ति के रूप में कार्य करती है, मन की चेतना के रूपों को तथा मानसिक शक्ति की क्रियाओं को धारण करती है, मन और शरीर की परस्पर-क्रिया को धारण करती हैं तथा सम्वेदक एवं स्नायविक शक्ति के रूप में कार्य करती है । जिसे हम प्राण कहते हैं वह चेतन सत्ता की एक ऐसी शक्ति है जो हमारे साधारण मानव-जीवन के कार्यों के लिये जड़तत्त्व में से प्रकट होती है, इसमें से और इसके अन्दर मन तथा उच्च शक्तियों को उन्मुक्त करती है और स्थूल जीवन में उनकी सीमित क्रिया को धारण करती है, --इस प्रकार जिसे हम मन कहते हैं वह चेतन सत्ता की एक ऐसी शक्ति है जो शरीर में अपनी चेतना के प्रकाश के प्रति जाग जाती है तथा अपने बिल्कुल आसपास की शेष सारी सत्ता के प्रति भी चेतन हो जाती है और शुरू-शुरू में शरीर और प्राण के द्वारा निश्चित किये हुए एक सीमित कार्य के घेर में अपनी क्रिया करती है, पर कुछ स्थलों में तथा एक विशेष ऊंचाईतक पहुंचने पर इस कार्य को अतिक्रम कर इसके क्षेत्र से परे की क्रिया को कुछ अंश में करने लगती है । परन्तु प्राण या मन की सारी शक्ति इतनी ही नहीं है; उनकी अपनी विशिष्ट प्रकार की चेतन सत्ता के स्तर भी हैं जो इस जड़पार्थिव स्तर से भिन्न हैं; वहां वे अधिक स्वतन्त्रता के साथ अपनी विशिष्ट क्रिया कर सकते हैं । स्वयं जड़तत्त्व या शरीर भी आत्मा-रूपी तत्त्व का एक परिसीमक रूप है जिसमें प्राण, मन और आत्मा निवर्तित एवं गुप्त रूप में विद्यमान हैं तथा अपने बहिर्मुख करनेवाले कार्य मे डूबे रहने के कारण अपने--आपको भूले हुए हैं, पर एक अनिवार्य विकास के द्वारा उसमें से अवश्य प्रकट होंगे । परन्तु जड़तत्त्व भी परिष्कृत

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 होकर उपादान के अधिक सूक्ष्म रूप ग्रहण कर सकता है जिनमें वह अधिक प्रत्यक्ष रूप में प्राण, मन और आत्मा का घनतायुक्त आकार बन जाता है । स्वयं मनुष्य में भी इस स्थूल-भौतिक शरीर के अतिरिक्त इसे आवृत करनेवाला एक प्राणमय कोष है तथा एक मनोमय कोष और आनन्द एवं वितान का कोष भी है । परन्तु समस्त जड़तत्त्व में एवं देहमात्र में इन उच्चतर तत्त्वों की गुप्त शक्तियां निहित हैं; जड़तत्त्व प्राण की ही एक रचना है जिसका सर्वप्रेरक विराट् आत्मा के बिना कोई वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि यह आत्मा ही उसे शक्ति और स्थूल सत्ता प्रदान करती है ।

 

     यही है आत्मा और उसके करणों का स्वरूप । परन्तु उसकी क्रियाओं को समझने के लिये तथा हमारा जीवन जिस स्थिर गरारी में घूमता रहता है उसमें से अपने करणों को ऊपर उठाने के लिये जो ज्ञान हमें उन्नायक शक्ति दे सकता है उसे पाने के लिये हमें यह देखना होगा कि परम आत्मा ने अपनी सब क्रियाओं का आधार अपनी सत्ता के दो जुड़वें पक्षों अर्थात् पुरुष और प्रकृति पर रखा है । इन दोनों के साथ हमें शक्ति की दृष्टि से इन्हें भिन्न और पृथक् सत्ताएं समझते हुए व्यवहार करना होगा, --क्योंकि चेतना के व्यवहार में यह भेद सबल रूप में विद्यमान है, --यद्यपि असल में यह एक ही सद्वस्तु के दो पक्षमात्र हैं, एक ही चेतन सत्ता के दो ध्रुव हैं । 'पुरुष' आत्मा है जो अपनी प्रकृति की क्रियाओं को जानता है, उन्हें अपनी सत्ता के द्वारा धारण करता है, अपनी सत्ता के आनन्द में उनका उपभोग करता है या उनके उपभोग को त्याग देता है । प्रकृति आत्मा की शक्ति है, और यह उसकी शक्ति की एक ऐसी क्रिया एवं पद्धति भी है जो सत्ता के नाम और रूप को निर्मित करती है, चेतना और ज्ञान की क्रिया का विकास करती है, संकल्प और प्रेरणा तथा बल और ऊर्जा के रूप में अपने-आपको प्रकट करती है, आनन्द के उपभोग के रूप में अपने-आपको चरितार्थ करती है । यह प्रकृति, माया एवं शक्ति है । यदि हम इसके अत्यन्त बाह्य रूप पर, जिसमें कि यह पुरुष से ठीक उल्टी प्रतीत होती है, दृष्टिपात करें तो अपने उस रूप में यह प्रकृति है, अर्थात् एक जड़ और यान्त्रिक स्वयंचालित क्रिया है, यह निश्चेतन है या फिर पुरुष के प्रकाश के द्वारा ही चेतन होती है, इसकी क्रियाओं को वह जो आत्मिक प्रकाश देता है उसकी विविध कोटियों--प्राणिक, मानसिक और अतिमानसिक कोटियों--कें द्वारा यह उन्नत होती है । यदि हम इसके उस दूसरे अर्थात् आन्तरिक रूप पर दृष्टि डालें जिसमें कि यह पुरुष के साथ एकत्व के अधिक निकट विचरण करती है, तो अपने उस रूप में यह माया है, अर्थात् अस्तित्व और प्राकट्य का अथवा अस्तित्व और प्राकटय के लय का एक संकल्प है; अस्तित्व और प्राकटय के या इन के लय के सभी परिणाम, जो चेतना के लिये प्रत्यक्ष होते हैं, इस संकल्प के साथ जुड़े रहते हैं । इसके साथ ही यह (मायारूप शक्ति) निवर्तन और

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 विवर्तन का, अस्तित्व और उसके अभाव का, आत्मा के स्व-गोपन और स्व-अन्वेषण का संकल्प भी है । दोनों एक ही वस्तु अर्थात् शक्ति के दो पक्ष हैं; यह शक्ति आत्मा की सत्ता की शक्ति है जो एक प्रतीयमान निश्चेतना के भीतर आत्मा की ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में अतिचेतन या चेतन या अवचेतन क्रिया करती है, --वास्तव में ये सब क्रियाएं एक ही आत्मा में एक ही साथ होती रहती हैं । इस शक्ति के द्वारा आत्मा अपने अन्दर सब वस्तुओं का सृजन करता है, अपनी अभिव्यक्ति के आकार में तथा उसके पर्दे के पीछे वह अपनी सारी सत्ता को छुपाता और ढूंढ़ता है ।

 

     पुरुष अपनी प्रकृति की इस शक्ति से अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थिति को ग्रहण कर सकता है तथा सत्ता के उस विधान और रूप का अनुसरण कर सकता है जो किसी आत्म-रूपायण का अपना विशिष्ट विधान और रूप हो । यह अपनी स्वयंभू सत्ता की शक्ति से युक्त एक सनातन पुरुष और आत्मा है जो अपनी अभिव्यक्तियों से परे है तथा इनपर शासन करता है यह विराट् पुरुष और आत्मा है जो अपनी सत्ता के प्राकट्य की शक्ति के रूप में विकसित है, सान्त में अनन्त हैं; यह व्यष्टिगत पुरुष और आत्मा है जो अपने प्राकटय की किसी विशिष्ट धारा के विकास में निमग्न है, अनन्त में सान्त एवं परिवर्तनशील दिखायी देता है । इन तीनों अवस्थाओं में यह एक साथ भी रह सकता है, अर्थात् यह एक ऐसी सनातन आत्मा हो सकता है जो विश्व में विराट् स्वरूप तथा उसके सर्वभूतों में व्यक्तिगत रूप धारण किये हों; इसी प्रकार यह इन तीनों रूपों में से किसी एक में अपनी चेतना को स्थापित करके प्रक्रति की क्रिया को अस्वीकार कर सकता है अथवा इसे अपने नियन्त्रण में रख सकता है या इसके प्रति प्रतिक्रिया कर सकता है, उस एक के सिवाय अन्य दोनों रूपों को अपने पीछे या अपने से दूर रख सकता है, अपने--आपको शुद्ध सनातन सत्ता, आत्मधारक विराट् सत्ता या अन्यवर्जक व्यक्तिगत सत्ता के रूप में जान सकता है । ऐसा प्रतीत हो सकता है कि इसकी प्रक्रति का जो भी बाह्य स्वरूप हो, अपनी चेतना के सम्मुखीन सक्रिय भाग में यह वही बन जाता है तथा उसी रूप में अपने को देखता है; पर ऐसा कभी नहीं होता कि यह जितना कुछ दिखायी देता है उतना कुछ ही हो;  यह वह और भी बहुत कुछ होता है जो कुछ कि यह बन सकता है; गुप्त रूप में, इसका जो भी अंश अभीतक छुपा दुआ है, यह वह सब ही है । काल में होनेवाली अपनी किसी भी विशेष रूप-रचना से यह अटल रूप में बंध नहीं जाता, बल्कि उसे भेदकर उससे परे जा सकता है, उसे छिन्न-भिन्न या विकसित कर सकता है, अपनी इच्छानुसार किसी भी रूप-रचना का चुनाव या परित्याग कर सकता है, अपने अन्दर से किसी महत्तर रूप-रचना का नव-निर्माण कर उसे प्रकट भी कर सकता है । अपने करणों में अपनी चेतना के सम्पूर्ण सक्रिय संकल्प के द्वारा यह अपने जिस स्वरूप में विश्वास रखता है वही

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 यह होता है या वही यह बनता चला जाता है, --यों यच्छद्ध: स स्व स:, अर्थात् जो कुछ बन सकने में वह विश्वास रखता है तथा जैसा बन सकने में इसकी पूर्ण श्रद्धा होती है, इसकी प्रकृति उसीमें बदलती जाती है, यह उसीको विकसित या उपलब्ध करता है ।

 

     पुरुष का अपनी प्रकृति के ऊपर यह अधिकार आत्मसिद्धियोग में अत्यधिक महत्त्व रखता है; यदि यह न हो तो हम चेतन प्रयत्न और अभीप्सा के द्वारा अपने वर्तमान अपूर्ण मानव-जीवन के स्थिर चक्र में से कभीं नहीं निकल सकते; यदि कोई महत्तर पूर्णता हमारे लिये अभिप्रेत है तो हमें प्रतीक्षा करनी होगी कि प्रकृति विकास की अपनी मन्द या तीव्र प्रक्रिया के द्वारा उसे साधित करे । सत्ता के निम्नतर रूपों में 'पुरुष' प्रकृति के प्रति इस पूर्ण अधीनता को स्वीकार करता है, पर जैसे-जैसे वह क्रमविकास की शृंखला में ऊंचा उठता है, वह अपने अन्दर के एक ऐसे तत्त्व के प्रति सचेतन होता जाता है जो प्रकृति पर अपना अधिकार चला सकता है; परन्तु उसका यह स्वतन्त्र संकल्प एवं अधिकार पूर्ण रूप से वास्तविक तभी बनता है जब वह आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है । यह परिवर्तन प्रकृति की एक प्रक्रिया के द्वारा ही सम्पन्न होता है; सुतरां, यह किसी मनमौजी जादू के द्वारा नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित विकास तथा बुद्धिगम्य पद्धति के द्वारा ही साधित होता है । जब पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त हो जाता है, तब इस परिवर्तन की प्रक्रिया अपने प्रभावशाली वेग के कारण बुद्धि को एक चमत्कार प्रतीत हो सकती है, तथापि वास्तव में यह आत्मा के सत्य के नियम के अनुसार ही अपना कार्य करती है, --तब हमारे अन्त:स्थ भगवान् अपने साथ हमारे संकल्प और हमारी सत्ता के घनिष्ठ एकत्व के द्वारा योग को अपने हाथ में ले लेते हैं और हमारी प्रकृति के सर्वशक्तिमान् स्वामी के रूप में कार्य करते हैं । क्योंकि, भगवान् हमारी परमोच्च आत्मा तथा सम्पूर्ण प्रकृति की आत्मा हैं, सनातन और विराट् 'पुरुष' हैं ।

 

    पुरुष सत्ता के किसी भी स्तर में अपने-आपको प्रतिष्ठित कर सकता है, सत्ता के किसी भी तत्त्व को अपनी शक्ति के तात्कालिक नायक के रूपमें अपनाकर उसके चेतन कार्य की अपनी विशिष्ट प्रणाली की क्रिया में जीवन यापन कर सकता है । पुरुष स्वयंस्थित सत्ता की अनन्त एकता के तत्त्व में निवास कर सकता है और समस्त चेतना, शक्ति, आनन्द, ज्ञान, संकल्प तथा क्रिया को इस रूप में जान सकता है कि ये इस मूल सत् या सत्य के चेतन रूप हैं । वह अनन्त चेतन शक्ति अर्थात् तपसू के तत्त्व में निवास कर सकता है और इसे इस रूप में जान सकता है कि यह सत्ता के असीम आनन्द के उपभोग के लिये अपनी स्वयंभू सत्ता में से ज्ञान, संकल्प और शक्तिशाली आत्मिक क्रिया के परिणामों को प्रकट कर रहा है । वह असीम स्वयंस्थित आनन्द के तत्त्व में निवास कर सकता है और इस तथ्य से सचेतन हों सकता है कि भागवत आनन्द अपनी शक्ति के द्वारा अपनी स्वयंभू सत्ता 

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में से अपनी इच्छानुसार सत्ता के सामंजस्य का सृजन कर रहा है । इन तीनों अवस्थाओं में एकता की चेतना प्रबल होती है; 'पुरुष' अपनी सनातनता, विश्वव्यापकता और एकता की चेतना में निवास करता है, और वहां जो कोई विभिन्नता होती भी है वह पृथक् करनेवाली नहीं होती, बल्कि एकत्व का बहुलतामय रूपमात्र होती है । इसी प्रकार वह अतिमानस के तत्त्व में अर्थात् उस प्रकाशमान आत्म-निर्धारक ज्ञान, संकल्प एवं कर्म में भी निवास कर सकता है जो चिन्मय सत्ता के पूर्ण आनन्द की किसी सुसमन्वित अवस्था का विकास करता है । उच्चतर विज्ञान में एकता ही आधार है, पर वह विविधता में आनन्द लेती है; विज्ञान या अतिमानस के निम्न स्तर में विविधता ही आधार है, पर वह सदा ही एक चेतन एकता के साथ अपना सम्बन्ध बनाये रखती है और एकता में ही आनन्द लेती है । चेतना की ये भूमिकाएं हमारे वर्तमान स्तर से परे हैं; ये हमारे साधारण मन के लिये अतिचेतन हैं, हमारा मन तो सत्ता के निम्न गोलार्ध के अन्तर्गत है ।

 

     यह निम्न सत्ता वहां आरम्भ होती है जहां पुरुष और प्रकृति अर्थात् विज्ञानमय पुरुष और मन, प्राण तथा शरीर में स्थित पुरुष के बीच पर्दा पड़ जाता है । जहां यह पर्दा नहीं पड़ा होता वहां ये करणात्मक शक्तियां वैसी नहीं होतीं जैसी कि ये हमारे अन्दर हैं, बल्कि ये विज्ञान और आत्मा की एकीकृत क्रिया का प्रकाशयुक्त अंग होती हैं । मन जब अपने निर्णयों के लिये अपने उद्गमभूत प्रकाश का आश्रय लेना भूल जाता है और अपने पृथक्कारक कार्य तथा उपभोग की सम्भावनाओं में निमग्न हो जाता है तो उसके अन्दर अपनी क्रिया के स्वतन्त्र होने का विचार उत्पन्न होता है । जब 'पुरुष' इस मन-रूपी तत्त्व में निवास करता है तथा अभी प्राण और शरीर के अधीन नहीं बल्कि इनका उपयोक्ता होता है तो वह अपने-आपको एक मनोमय पुरुष के रूप में जानता है जो अपने व्यक्तिगत ज्ञान, संकल्प और क्रियाबल के अनुसार अपने मानसिक जीवन, मानसिक शक्तियों और मूर्तियों को तथा सूक्ष्म-मानसिक तत्त्व के आकारों को निर्मित करता है । विराट् मन में विद्यमान उस जैसी अन्य सत्ताओं और शक्तियों के साथ उसके सम्बन्ध के कारण इस ज्ञान, संकल्प और क्रियाबल में कुछ परिवर्तन हो जाता है । जब वह प्राण के तत्त्व में निवास करता है तो वह अपने-आपको विराट् प्राण के एक ऐसे केन्द्र के रूप में जानता है जो विराट् प्राण-पुरुष की उक्त प्रकार की अपनी विशिष्ट परिवर्तनकारी अवस्थाओं में अपनी इच्छाओं के अनुसार किसी क्रिया और चेतना को अभिव्यक्त करता है; यह विराट् प्राण-पुरुष प्राण के अनेक व्यक्तिगत केन्द्रों के द्वारा अपना कार्य कर रहा है । जब वह अन्न के तत्त्व में निवास करता है, तो वह अपने को एक ऐसी असमय चेतना के रूप में जानता है जो अन्नमय सत्ता की शक्ति के उक्त प्रकार के नियम के अनुसार कार्य करती है । जैसे-जैसे वह ज्ञान के पक्ष की ओर झुकता है, वैसे-वैसे वह कम या अधिक स्पष्ट रूप में यह जानता जाता है कि वह

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 मनोमय, प्राणमय या अन्नमय पुरुष है जो अपनी प्रकृति का अवलोकन करता तथा उसके अन्दर अपनी क्रिया करता है या फिर जिसपर प्रकृति अपनी क्रिया करती है । परन्तु जहां वह अज्ञान के पक्ष की ओर झुकता है, वहां वह अपने को एक ऐसे अहं के रूप में जानता है जो मन, प्राण या शरीर की प्रकृति के साथ तदाकारता स्थापित किये हुए है, अर्थात् वहां वह अपने को प्रकृति की ही एक रचना समझता है । परन्तु अन्नमय पुरुष की स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम यह होता है कि पुरुष की शक्ति रूप-निर्माण की क्रिया में तथा स्थूलभौतिक गति में मग्न हो जाती है और फलत: चिन्मय पुरुष अपने स्वरूप को भूल जाता है । यह जड़ जगत् प्रतीयमान निश्चेतना से ही आरम्भ होता है ।

 

      विराट् पुरुष इन सब भूमिकाओं में एक प्रकार से एक ही साथ निवास करता है और इनमें से प्रत्येक तत्त्व के आधार पर एक लोक या लोक-शृंखला तथा उसके प्राणियों की रचना करता है जो उस-उस तत्त्व की प्रकृति के अनुसार जीवन धारण करते हैं । मनुष्य ब्रह्माण्ड का ही एक पिण्ड है; अत: उसकी अपनी सत्ता में भी ये सब भूमिकाएं उसके अवचेतन-स्तर से अतिचेतन-स्तरतक शृंखलाबद्ध रूप में विद्यमान हैं । योग की बढ्ती हुई शक्ति के द्वारा वह इन गुप्त लोकों को जान सकता है जो उसके स्थूल एवं जड़तापन्न मन और इन्द्रियों से छुपे हुए हैं क्योंकि इन्हें केवल जड़ जगत् का ही ज्ञान प्राप्त होता है । इन लोकों को जान लेनेपर उसे पता चलता है कि जिस प्रकार यह जड़ जगत् जिसमें वह रहता है कोई पृथक् और स्वयंस्थित सत्ता नहीं है उसी प्रकार उसकी स्थूल-भौतिक सत्ता भी कोई पृथक् तथा स्वयंस्थित वस्तु नहीं है, बल्कि उसकी सत्ता और जड़ जगत् दोनों ही उच्चतर भूमिकाओं से सतत सम्बद्ध हैं तथा उनकी शक्तियों से और सत्ताओं से प्रभावित होते रहते हैं । वह अपने अन्दर इन उच्चतर भूमिकाओं की क्रिया शुरू करा सकता है और उसे बढ़ा सकता है तथा अन्य लोकों के जीवन में किसी-न-किसी प्रकार का भाग लेने का आनन्द उठा सकता है, --ये लोक मृत्यु के बाद या मृत्यु तथा स्थूल देह में पुनर्जन्म के बीच विश्राम लेने के लिये उसके निवासस्थान अर्थात् उसकी चेतना के धाम होते हैं या बन सकते हैं । परन्तु उसकी सबसे प्रधान सामर्थ्य यह है कि वह अपने अन्दर उच्चतर तत्त्वों की शक्तियों का, अर्थात् प्राण की महत्तर शक्ति, मन की शुद्धतर ज्योति, अतिमानस के प्रकाश और आत्मा की अनन्त सत्ता, चेतना एवं आनन्द को विकसित कर सकता है । आरोहणात्मक गति के द्वारा वह मानवीय अपूर्णता में से इस महत्तर पूर्णता की ओर अपना विकास साधित कर सकता है ।

 

     परन्तु उसका लक्ष्य चाहे जो हो, उसकी अभीप्सा चाहे कितनी भी ऊंची क्यों न हो, फिर भी उसे अपनी साधना का आरम्भ अपनी वर्तमान अपूर्णता के नियम से ही करना पड़ेगा, इसके स्वरूप को पूरी तरह से अपने विचार में लाकर यह देखना

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 होगा कि किस प्रकार इसे सम्भवनीय पूर्णता के नियम में रूपान्तरित किया जा सकता है । उसकी सत्ता का यह वर्तमान नियम जड़ जगत् की निश्चेतना से, बाह्य आकार के अन्दर आत्मा के तिरोभाव तथा जड़ प्रकृति के प्रति अधीनता से आरम्भ होता है; और, यद्यपि इस जड़-तत्त्व में प्राण और मन ने अपनी शक्तियां विकसित कर ली हैं तथापि वे निम्नतर स्थूल--भौतिक तत्त्व के द्वारा सीमित हैं तथा इसके कार्य में ही जकड़े हुए हैं, क्योंकि उसकी व्यावहारिक स्थूल चेतना के अज्ञान के लिये यह निम्न-- भौतिक तत्त्व ही उसका मूल तत्त्व है । यद्यपि वह देहधारी मनोमय प्राणी है तथापि उसके मन को शरीर तथा स्थूल प्राण के नियन्त्रण में रहना पड़ता है;  ताप:शक्ति और एकाग्रता के किसी कम या अधिक गुरुतर प्रयत्न के द्वारा ही उसका मन, प्राण और शरीर को सचेतन रूप से नियन्त्रण में रख सकता है । इस क्रिया में अधिकाधिक वृद्धि करक ही वह पूर्णता की ओर बढ़ सकता है, --और आत्म-शक्ति को विकसित करके ही वह इसे प्राप्त कर सकता है । उसके अन्दर की प्रकृति-शक्ति को अधिकाधिक पूर्ण रूप में अन्तरात्मा की एक सचेतन क्रिया किंवा आत्मा के समस्त संकल्प और ज्ञान की एक सचेतन अभिव्यक्ति बनना होगा । प्रकृति को पुरुष की शक्ति के रूप में प्रकट होना होगा । 

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