योग-समन्वय

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १५

 

आत्मशक्ति और चतुर्विध व्यक्तित्व

 

सामान्य मन, हृदय, प्राण और शरीर को पूर्ण बनाने से हमें केवल अपने मनोभौतिक यन्त्र की, जिसका हमें प्रयोग करना पड़ता है, पूर्णता प्राप्त होती है तथा दिव्य जीवन एवं दिव्य कर्मों के लिये करणों की कुछ-एक समुचित अवस्थाएं भी उत्पन्न हो जाती हैं । तब जीवन एक अधिक पवित्र, महान् और निर्मल शक्ति एवं ज्ञान के द्वारा बिताया जाता है और कर्म भी उसीके द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं । अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसा होने के बाद जो शक्ति उन करणों में प्रवाहित की जाती है वह कौन-सी है तथा जो एकमेव उसे अपने वैश्व उद्देश्यों के लिये कार्य में प्रवृत्त करता है वह कौन है । तब जो शक्ति हमारे अन्दर कार्य करेगी उसे व्यक्त दिव्य शक्ति होना चाहिये, परमोच्च या विश्वगत शक्ति होना चाहिये, जो मुक्त जीव के रूप में प्रकट होती है, परा प्रकृतिर्जीवभूता; वह जीवभूत पस प्रकृति ही कर्त्ता की भांति समस्त कर्म करेगी तथा इस दिव्य जीवन की संचालक शक्ति होगी । इस शक्ति के पीछे रहनेवाली एकमेव सत्ता ईश्वर अर्थात् समस्त सत्ता के प्रभु ही होंगे । जब हम पूर्णता प्राप्त कर लेंगे तब हमारी समस्त सत्ता उन प्रभु के साथ एक प्रकार का 'योग' (एकत्व) होगी । इस योग का अभिप्राय यह है कि भगवान् हमारे अन्दर विराजमान हैं और साथ ही जिनमें हम अब रहते-सहते, चलते-फिरते तथा अपना अस्तित्व रखते हैं उनकी सत्ता के साथ हमारी सत्ता का एकत्व और एक ऐसा मिलन जिसमें उनके साथ पुरुष और उसकी प्रकृति के नानाविध सम्बन्ध भी बने रह सकते हैं । ईश्वर को अपने अन्दर या अपने पीछे धारण किये हुई इस शक्ति की ही दिव्य उपस्थिति और कार्यप्रणाली का हमें अपने समस्त अस्तित्व और जीवन में आवाहन करना होगा । क्योंकि इस दिव्य उपस्थिति और इस महत्तर कार्य--प्रणाली के बिना प्रकृति की शक्ति की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती ।

 

  जीवन में मनुष्य का समस्त कर्म अन्तरात्मा की उपस्थिति और प्रकृति की क्रियाओं (दोनों) की अर्थात् पुरुष और प्रकृति की ग्रन्थि है । पुरुष की उपस्थिति एवं उसका प्रभाव प्रकृति में हमारी सत्ता की एक विशेष शक्ति के रूप में अपने-आपको प्रकट करता है । उस शक्ति को हम अपने वर्तमान प्रयोजन के लिये आत्मशक्ति कह सकते हैं; सदा-सर्वदा यह आत्मशक्ति ही बुद्धि, मन, प्राण और शरीर की शक्तियों की समस्त क्रियाओं को आश्रय देती है और हमारी चेतन सत्ता की गठन तथा हमारी प्रकृति के विशिष्ट रूप का निर्धारण करती है । सामान्य मनुष्य, जो विकास की साधारण कोटितक ही पहुंचा होता है, इसे एक गौण, परिवर्तित, यान्त्रिकताग्रस्त एवं तिरोहित रूपमें--स्वभाव और चरित्र के रूप

 ७५४


में--धारण करता है; परन्तु वह रूप इसका एक अत्यन्त बाह्य सांचामात्र है जिसमें, ऐसा प्रतीत होता है कि, यान्त्रिक प्रकृति पुरुष को अर्थात् चिन्मय सत्ता या आत्मा को सीमित और परिच्छिन्न करती है तथा कोई आकार भी प्रदान करती है । विकसित होती हुई प्रकृति बौद्धिक, नैतिक, सौन्दर्यात्मक, क्रियाशील, प्राणिक और भौतिक मन और स्वभाव-विशेष के जिन भी रूपों को ग्रहण करती है उनमें अन्तरात्मा प्रवाहित होती है और यह गठित प्रकृति उसपर जिस प्रणाली को थोपती है उसीके अनुसार वह कार्य कर सकती है और इसकी संकीर्ण प्रणालिका या इसके अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत घेरे में ही गति कर सकती है । तब मनुष्य सात्त्विक, राजसिक या तामसिक होता है या फिर इन गुणों का मिश्रण और उसका स्वभाव आत्मा के एक प्रकार के सूक्ष्मतर रंग से रंगा होता है । आत्मा ने ही उसकी प्रकृति के इन रूढ़ गुणों की प्रधान एवं सुस्पष्ट क्रिया को वह रंग प्रदान किया होता है । जो मनुष्य प्रबलतर शक्ति से सम्पन्न होते हैं उनमें आत्मा की शक्ति अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में ऊपरी सतह पर आयी होती है और वे एक ऐसे व्यक्तित्व का विकास कर लेते हैं जिसे महान् या शक्तिशाली कहा जाता है गीता के 'विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमद ऊर्जितमेव वा' इस वाक्य में जिस विभूति का वर्णन किया गया है उसका कुछ अंश उनमें विद्यमान होता है, अर्थात् उनमें सत्ता की एक ऐसी उच्चतर शक्ति होती है जिसे बहुधा किसी दिव्य अन्तःप्रेरणा का स्पर्श प्राप्त रहता है या जो कभी-कभी उससे पूर्णतया परिप्लुत भी होती है, अथवा उनमें देवत्व की अभिव्यक्ति साधारण कोटि से अधिक होती है । निःसन्देह वह देवत्व सभी में, यहांतक कि दुर्बल-से-दुर्बल या अत्यन्त तमसाच्छन्न प्राणी में भी, विद्यमान है, पर यहां उसकी कोई विशेष शक्ति सामान्य मानवता के पर्दे के पीछे से प्रकट होने लगती है और साध ही इन असाधारण व्यक्तियों में कोई सुन्दर, आकर्षक, भव्य या शक्तिशाली वस्तु होती है जो उनके व्यक्तित्व, चरित्र, जीवन और कार्य-कलाप में चमक उठती है । ये व्यक्ति भी अपनी प्रकृति-शक्ति के विशिष्ट सांचे में उसके गुणों के अनुसार कार्य करते हैं । परन्तु उनमें कोई विशेष वस्तु अवश्य विद्यमान होती है, वह होती तो है सुस्पष्ट पर उसका विश्लेषण आसानी से नहीं किया जा सकता । वह वास्तव में 'पुरुष' एवं आत्मा की एक प्रत्यक्ष शक्ति होती है जो प्रकृति के सांचे और उसकी दिशा को एक प्रबल उद्देश्य के लिये प्रयोग में लाती है । उसके द्वारा स्वयं प्रकृति भी अपनी सत्ता के एक उच्चतर स्तरतक उठ जाती है या उस ओर उठने लगती है । उस शक्ति की क्रिया का बहुत-सा अंश अहंकारमय या यहांतक कि विकृत भी प्रतीत हो सकता है, किन्तु फिर भी पीछे अवस्थित भगवान् का स्पर्श ही, वह चाहे कोई भी दैविक, आसुरिक या यहांतक कि राक्षसिक रूप क्यों न धारण करे, प्रकृति का परिचालन करता है तथा अपने महत्तर उद्देश्य के लिये उसका प्रयोग करता है ।  

सत्ता की शक्ति यदि और भी अधिक विकसित हो जाये तो वह इस

७५५


 आध्यात्मिक उपस्थिति के वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित कर देगी और तब ऐसा दिखायी देगा कि यह उपस्थिति एक निर्व्यक्तिक, स्वयं-सत् एवं स्वतः --समर्थ सत्ता है, एक विशुद्ध आत्म-शक्ति है जो मनःशक्ति, प्राण-शक्ति तथा बुद्धि-शक्ति से भिन्न है, पर उन्हें प्रेरित करती है और उनकी क्रिया-प्रणाली, उनके गुण तथा प्रकृति-वैशिष्टय का कुछ अंश में अनुसरण करती हुई भी, एक आरम्भिक त्रिगुणातीतता, निर्व्यक्तिकता तथा शुद्ध आत्माग्रि की छाप उनपर लगा देती  । इस प्रकार, हमें यह प्रत्यक्ष अनुभव होगा कि यह उपस्थिति कोई ऐसी सत्ता है जो हमारी सामान्य प्रकृति के गुणों से परे है । जब हमारे अन्दर का आत्मा मुक्त हो जाता है तो इस आत्मशक्ति के पीछे जो कुछ विद्यमान था वह अपनी समस्त ज्योति, सुषमा और महिमा के साथ प्रकट हो उठता है, अर्थात् जो परम आत्मा किंवा भगवान् अपने विराट् अस्तित्व. मन, कर्म और जीवन में मनुष्य की प्रकृति और आत्मा को अपना आधार एवं जीवन्त प्रतिनिधि बनाता है वह आविर्भूत हो जाता है ।

  

  भगवान् अर्थात् प्रकृति में अभिव्यक्त आत्मा अनन्त गुणों के महासिन्धु के रूप में लीला करता दिखायी देता है । परन्तु कार्यवाहिका या यान्त्रिक प्रकृति सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से निर्मित है और अनन्त-गुणमय भगवान् अर्थात् उनके अनन्त गुणों की आध्यात्मिक क्रीड़ा इस यान्त्रिक प्रकृति में अपने स्वरूप को इन तीन गुणों के विशिष्ट रूप में परिवर्तित कर देती है । मनुष्य की उपर्युक्त आत्मशक्ति में यह प्रकृतिगत भगवान् चार प्रकार की कार्यक्षम शक्ति, चतुर्व्यूह के रूप में अपने-आपको प्रकट करते हैं । वे चार शक्तियां ये हैं-ज्ञान-शक्ति, पौरुष-शक्ति (क्षात्र-शक्ति), पारस्परिकता और सक्रिय एवं उत्पादन-व्यवसायगत सम्बन्ध और आदान-प्रदान की शक्ति (वैश्य-शक्ति) और कार्य-कलाप, श्रम एवं सेवा की शक्ति (शूद्र-शक्ति) । भगवान् की उपस्थिति समस्त मानवजीवन को इन चार शक्तियों की ग्रन्थि तथा बाह्याभ्यन्तर क्रिया के रूप में ढाल देती है । भारत के प्राचीन मनीषी सक्रिय मानव-व्यक्तित्व और प्रकृति के इस चतुर्विध विभेद से अभिज्ञ थे । अतएव उन्होंने इससे बाह्म, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-रूपी चार वर्णों का सृष्टि की थी । इन वर्णोंमें से प्रत्येक की अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति, उपयुक्त शिक्षा-दीक्षा तथा अपना नैतिक आदर्श होता था, समाज में प्रत्येक का नियत कर्तव्य तथा आत्मा की विकास-शृंखला में अपना विशेष स्थान होता था । जब हम अपनी प्रकृति के सूक्ष्मतर सत्यों को अत्यधिक बाह्य और यान्त्रिक रूप देते हैं तो वे सदा ही एक कठिन और कठोर पद्धति का रूप धारण कर लेते हैं, इस नियम के अनुसार वर्ण-व्यवस्था भी एक ऐसी कठोर एवं रू पद्धति बन गयी जो मनुष्य की विकसित होती हुई सूक्ष्मतर आत्मा की स्वतन्त्रता, विविधता और जटिलता के साथ असंगत थी । तथापि इस व्यवस्था के पीछे एक सत्य अवश्य विद्यमान है जो हमारी प्रकृति-शक्ति की पूर्णता की साधना में बहुत कुछ महत्त्व रखता है; परन्तु इसपर

 ७५६


विचार करते हुए हमें इसके आन्तरिक पक्षों को ही ग्रहण करना होगा, वे पक्ष हैं--प्रथम तो व्यक्तित्व, चरित्र, स्वभाव एवं विशिष्ट आत्म-स्वरूप, उसके बाद वह आत्मशक्ति जो उनके पीछे स्थित है तथा ये सब रूप धारण करती है, और अन्त में उस मुक्त आध्यात्मिक शक्ति की लीला जिसमें वे समस्त गुणों से परे अपनी सर्वोच्च अवस्था और एकता को प्राप्त कर लेते हैं । कारण, यह असंस्कृत बाह्य धारणा कि मनुष्य जन्म से ही बाह्म, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के रूप में और एकमात्र इसी रूप में पैदा होता है, हमारी सत्ता का मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है । मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि हमारे अन्दर परम आत्मा की तथा उसकी कार्यवाहिका शक्ति की ये चार सक्रिय शक्तियां और प्रवृत्तियां हैं और हमारे व्यक्तित्व के अपेक्षाकृत सुगठित भाग में इनमें से किसी एक या दूसरे की प्रधानता के कारण ही हमें हमारी मुख्य प्रवृत्तियां, प्रभुत्वपूर्ण गुण और क्षमताएं कर्म और जीवन की प्रभावशाली दिशा प्राप्त होती हैं । परन्तु ये न्यूनाधिक मात्रा में सभी मनुष्यों में विद्यमान हैं, कहीं प्रकट हैं तो कहीं प्रच्छन्न, यहां विकसित हैं तो वहां दमित एवं अवसन्न, या वशीभूत । सिद्ध पुरुष में ये एक ऐसी पूर्णता एवं समस्वरता में उन्नीत हो जायेंगी जो आध्यात्मिक मुक्ति की अवस्था में आत्मा के अनन्त गुणों की मुक्त लीला के रूप में फूट पड़ेगी । वह लीला आन्तर और बाह्य जीवन में तथा अपनी और जगत् की प्रकृति-शक्ति के साथ पुरुष की आत्मरतिपूर्ण एवं सर्जनशील रासक्रीड़ा में प्रकट होगी ।

 

   इन चार शक्तियों का अत्यन्त बाह्य मनोवैशानिक रूप है--कुछ-एक प्रबल प्रवृत्तियों, क्षमताओं एवं विशेषताओं की ओर तथा सक्रिय शक्ति के रूप, मन और अन्तजींवन के गुण, एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व या विशिष्ट रूप की ओर प्रकृति का झुकाव या उसका तदनुकूल गठन । बहुधा ही प्रकृति का झुकाव बौद्धिक तत्त्व की प्रधानता, ज्ञान की खोज और प्राप्ति में सहायक क्षमताओं, बौद्धिक सृजन या रचनाशीलता, विचारों में निमग्नता, विचारों के या जीवन के अध्ययन तथा चिन्तनात्मक बुद्धि के ज्ञानसंग्रह एवं विकास की ओर होता है । विकास के स्तर के अनुसार प्रथम तो सक्रिय, उन्मुक्त एवं जिज्ञासाशील बुद्धिवाले मनुष्य, उसके बाद बुद्धिप्रधान मनुष्य और अन्त में विचारक, ज्ञानी एवं महान् मनीषी का स्वरूप एवं स्वभाव निर्मित होता है । इस स्वभाव, व्यक्तित्व, और विशिष्ट आत्मस्वरूप के प्रचुर विकास के द्वारा जो आत्मिक शक्तियां प्रादुर्भूत होती हैं वे ये हैं--स्व ऐसा ज्योतिर्मय मन जो समस्त विचारों तथा ज्ञान की ओर और सत्य के अन्तःप्रवाहों की ओर उत्तरोत्तर खुलता जाता है; ज्ञान के लिये क्षुधा एवं उत्कट अभिलाषा, अर्थात् अपने अन्दर उसके विकास के लिये, दूसरोंतक उसे पहुंचाने के लिये तथा जगत् में उसके शासन के लिये अर्थात् बुद्धि, सत्य, ऋत और न्याय के शासन के लिये तथा, हमारी महत्तर सत्ता के सामञ्जस्य के उच्चतर स्तर पर, आत्मा एवं उसके वैश्व

 ७५७


एकत्व, ज्योति और प्रेम के शासन के लिये उत्कण्ठा एवं आतुरता; मन और संकल्प में इस ज्योति की शक्ति जो सम्पूर्ण जीवन को बुद्धि और उसके सत्य एवं ऋत या आत्मा तथा आत्मिक सत्य एवं ऋत के अधीन कर देती है और निम्नतर करणों को उनके महत्तर विधान के अनुगत बना देती है; स्वभाव की एक ऐसी सन्तुलित स्थिति जो आरम्भ से ही धैर्य, स्थिर निदिध्यासन और शान्ति तथा चिन्तन एवं ध्यान की ओर मुड़ी होती है और जो संकल्प एवं आवेगों के क्षोभ को वशीभूत और शान्त करती है तथा उच्च चिन्तन एवं शुद्ध जीवन की ओर अग्रसर होती है, आत्म-शासित सात्त्विक मन की नींव डालती है और एक अधिकाधिक कोमल, उदात्त, निर्व्यक्तित्व-सम्पन्न एवं विश्वात्मभावयुक्त व्यक्तित्व में विकसित होती जाती है । यह बाह्मण की अर्थात् ज्ञानयज्ञ के पुरोहित की आदर्श प्रकृति एवं आत्मशक्ति है । यदि यह उसके अन्दर अपने सभी पहलुओं के साथ विद्यमान न हों तो इस विशिष्ट प्रकार की प्रकृति की अपूर्णताएं या विकृतियां हमारे देखने में आयेंगी । ये अपूर्णताएं या विकृतियां ये हैं एक कोरी बौद्धिकता या विचारों के लिये कुतूहलता जिसमें नैतिक या अन्य प्रकार की उच्चता न हो, किसी प्रकार की बौद्धिक क्रिया पर संकुचित एकाग्रता जिसमें मन, अन्तरात्मा एवं आत्मा की एक अधिक महान् अपेक्षित विशालता न हो, अथवा अपनी बौद्धिकता में ही बन्द बुद्धिविलासी व्यक्ति का अहंकार और एकांगीपन, या जीवन पर किसी प्रकार के प्रभुत्व से रहित एक निःशक्त आदर्शवाद, अथवा बौद्धिक, धार्मिक, वैज्ञानिक या दार्शनिक मन की अपनी खास प्रकार की अपूर्णताओ एवं संकीर्णताओं में से कोई अन्य । ये ब्राह्मणत्व के मार्ग में पाये जानेवाले गत्यवरोध हैं या फिर अस्थायी एकपक्षीय एकाग्रताएं हैं, परन्तु मनुष्य में दिव्य आत्मा का पूणैंश्वर्य एवं सत्य और ज्ञान की शक्ति ही इस धर्म या स्वभाव की पूर्णता है, पूर्ण बाह्मण का ससिद्ध ब्राह्मणत्व है ।

 

   दूसरी ओर, मानव-प्रकृति का झुकाव संकल्पशक्ति तथा उन क्षमताओं की प्रधानता की ओर हो सकता है जो बल, ऊर्जा, साहस, नेतृत्व, रक्षण और शासन के कार्य में, प्रत्येक प्रकार के युद्ध में विजय पाने तथा सर्जनशील और रचनात्मक कार्य करने में सहायक होती हैं, इसी प्रकार उसका झुकाव उस संकल्पशक्ति की ओर हो सकता है जो जीवन के उपकरणों पर तथा अन्य मनुष्यों के संकल्पों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करती है तथा चारों ओर की चीजों को उन आकारों में ढलने के लिये बाध्य करती है जिन्हें हमारे अन्दर स्थित आत्मशक्ति जीवन पर बलपूर्वक आरोपित करना चाहती है, अथवा जो व्यवस्था किसी समय विद्यमान है उसको रक्षा करने या उसे नष्ट करके जगत् की प्रगति के मार्गों को साफ करने के लिये या जो कुछ आगे होनेवाला है उसे सुनिश्चित रूप देकर प्रकट करने के लिये जो कार्य करना आवश्यक है उसके अनुसार वह संकल्पशक्ति अत्यन्त प्रबल रूप ले कार्य

 ७५८


करती है । मानव-प्रकृति में इस प्रकार की (क्षात्र) शक्ति का बल-सामर्थ्य या रूप-आकार कम या अधिक महान् हो सकता है और इसकी कोटि तथा शक्ति के अनुसार यथाक्रम एक निरा योद्धा या कर्मवीर मानव, अदम्य सक्रिय संकल्प और व्यक्तित्ववाला मनुष्य तथा शासक, विजेता, किसी विशेष कार्य का कर्णधार, नव-स्रष्टा एवं जीवन के सक्रिय निर्माण के किसी भी क्षेत्र में संस्थापक का कार्य करनेवाला मानव हमारे देखने में आते हैं । अन्तरात्मा और मन की नानाविध अपूर्णताओं से इस क्षात्र आदर्श के अनेक अपूर्ण एवं विकृत रूप पैदा होते हैं, जैसै, निरी पाशव संकल्पशक्तिवाला मनुष्य, किसी अन्य आदर्श या उच्चतर लक्ष्य के बिना कोरी शक्ति की पूजा करनेवाला, स्वार्थपरायण, दूसरों पर अपनी हुकूमत चलानेवाला व्यक्ति, आक्रामक एवं अत्याचारी राजसिक मनुष्य, बहुत ही बड़ा अहंकारी, दैत्य, असुर, राक्षस । पर इस प्रकार की क्षात्रप्रकृति अपने उच्चतर स्तरों पर जिन आत्मिक शक्तियों की ओर खुलती है वे हमारी मानव-प्रकृति की पूर्णता के लिये उतनी ही आवश्यक हैं जितनी बाह्मण की आत्मिक शक्तियां । उच्च कोटि की निर्भयता जिसे कोई भी भय-संकट या कठिनाई हतोत्साह नहीं कर सकती और जौ मनुष्य या दैव के या प्रतिकूल देवताओं के चाहे किसी भी आक्रमण का सामना और मुकाबला करने तथा उसे सहने के लिये अपनी शक्ति को उसके समकक्ष अनुभव करती है, क्रियाशील दुःसाहसिकता एवं साहसपूर्ण पराक्रम जो किसी भी दु:साहसिक अभियान या महोद्योग को असामर्थ्यजनक दुर्बलता एवं भय से मुक्त मानव-आत्मा की शक्तियों से परे न समझकर उससे कतराता नहीं, यश से प्रेम जो मनुष्य की परम उदात्तता के उच्च शिखरों को नाप सकता है और किसी भी क्षुद्र, निकृष्ट, नीच या दुर्बल वस्तु के आगे नहीं झुक सकता, बल्कि उच्च साहस, शूरवीरता, सत्य, सरलता, उच्चतर आत्मा पर निम्नतर 'स्व' की बलि, मनुष्यों की सहायता, अन्याय और अत्याचार का अडिग प्रतिरोध, आत्मसंयम और प्रभुत्व, महान् नेतृत्व, जीवनयात्रा और रणक्षेत्र के योद्धा और नायक का कर्म--इन सबके आदर्श को अकलंकित रूप में सुरक्षित रखता है, अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य में तथा अपने चरित्र और साहस में उच्च कोटि का आत्मविश्वास जो कर्मवीर मनुष्य के लिये एक अनिवार्य गुण है, --ये ही तत्त्व क्षत्रिय की प्रकृति का निर्माण करते हैं । इन्हें इनकी पराकाष्ठा तक पहुंचाना तथा एक प्रकार की दिव्य समृद्धता, पवित्रता और महिमा प्रदान करना ही उन व्यक्तियों की पूर्णता है जिनका स्वभाव उक्त प्रकार का होता है तथा जो उक्त धर्म का अनुसरण करते हैं ।

 

   प्रकृति का तीसरे प्रकार का झुकाव वह है जो हमारे सामने व्यावहारिक व्यवस्थाशील बुद्धि का तथा प्राण की एक विशिष्ट सहजप्रवृत्ति का उभरा दुआ चित्र प्रस्तुत करता है । वह प्रवृत्ति है वस्तुओं का उत्पादन और आदान-प्रदान करने की, उनकी प्राप्ति और उपभोग करने, उनकी नयी युक्ति ढूंढ निकालने, उन्हें व्यवस्थित

 ७५९


और सन्तुलित करने, अपना व्यय और उपार्जन करने एवं देने और लेने की तथा जीवन के सक्रिय सम्बन्धों को उत्तम-से-उत्तम लाभ के रूप में परिणत करने की प्रवृत्ति । यह व्यावहारिक बुद्धि ही वह शक्ति है जो अपनी बाह्य क्रिया में निपुण एवं आविष्कारक बुद्धि, वैधानिक, व्यावसायिक, व्यापारिक, द्योगिक, आर्थिक, व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक, यान्त्रिक प्राविधिक और उपयोगितावादी मन के रूप में प्रकट होती है । जब किसी मनुष्य में इस प्रकार की प्रकृति अपनी पूर्णता के साधारण स्तर पर होती है तो इसके संग उसके स्वभाव में, सामान्यत:, अर्थ--लोलुपता के साथ-साथ उदारता भी पायी जाती है, वह स्वभाव से ही उपार्जन और संचय करने तथा उपभोग, प्रदर्शन और उपयोग करने में प्रवृत्त होता है, जगत् या इसकी परिस्थितियों को अपने कार्य के लिये दक्षतापूर्वक उपयोग में लाने पर तुला होता है, किन्तु क्रियात्मक परोपकार, दया तथा व्यवस्थित दान-कार्य करने में भी भली-भांति समर्थ होता है, नियमत: ही व्यवस्था और नैतिकता से सम्पन्न होता है पर सूक्ष्मतर नैतिक भावना का कोई उच्च उत्कर्ष उसमें नहीं होता, उसका मन मध्यम स्तर का होता है जो, न तो शिखरों की ओर उड़ान के लिये जोर मारता है और न इतना महान् ही होता है कि जीवन के वर्तमान सांचों को तोड़कर अन्य श्रेष्ठ सांचों की सृष्टि कर ले, पर वह क्षमता, अनुकूलनशीलता तथा संयम-मर्यादा-रूपी विशेष लक्षणों से युक्त होता है । इस वैश्य-प्रकृति की शक्तियां, सीमाएं और विकृतियां एक बहुत बड़े परिमाण में हमें ज्ञात हैं, क्योंकि ठीक इसी भावना ने हमारी आधुनिक व्यापारिक एवं औद्योगिक सभ्यता का निर्माण किया है । परन्तु यदि हम इसके महत्तर आन्तरिक सामर्थ्यों तथा आत्मिक मूल्यों पर दृष्टिपात करें तो हमें पता चलेगा कि इसमें भी ऐसे तत्त्व हैं जो मानव-पूर्णता की सर्वांगीणता में स्थान पाते हैं । जो शक्ति हमारे वर्तमान निम्नतर स्तरों पर अपने-आपको इस प्रकार बाह्य रूप में प्रकट करती है वह ऐसी है कि जीवन के महान् उपयोगी कार्यों में भी अपने-आपको झोंक सकती है और, अपने मुक्ततम तथा विशालतम रूप में, वह यद्यपि उस एकत्व एवं तादात्म्य में तो सहायक नहीं होती जो ज्ञान का सर्वोच्च शिखर है, और न उस प्रभुत्व एवं आध्यात्मिक राजत्व में ही सहायक होती है जो शक्ति की पराकाष्ठा है, फिर भी एक ऐसी चीज की प्राप्ति में अवश्य सहायक होती है जो जीवन की समग्रता के लिये अन्य चीजों की भांति ही अनिवार्य है, वह चीज है साम्यपूर्ण पारस्परिक आदान-प्रदान और आत्मा का आत्मा के साथ तथा प्राण का प्राण के साथ लेन-देन । इस वैश्य-प्रकृति की शक्तियां ये हैं--सर्वप्रथम, कौशल जो नियम-विधान का निर्माण करता तथा पालन करता है, सम्बन्धों के उपयोगों और सीमा-बन्धनों को जानता है, अपने--आपको सुनिश्चित एवं विकसनशील गतियों के अनुकूल बनाता है, वस्तुओं का उत्पादन करता है तथा सृजन, कर्म और जीवन के बाह्य शिल्प-विधान को पूर्ण बनाता है, धन-प्राप्ति की सुनिक्षित आशा प्रदान करता

७६०


है और फिर प्राप्ति से विकास की ओर बढ़ता है, व्यवस्था के सम्बन्ध में सतर्क तथा प्रगति करने के विषय में सावधान रहता है और जीवन के समस्त उपकरणों तथा साधनों एवं लक्ष्यों का अधिक-से-अधिक लाभ उठाता है; कौशल के बाद दूसरे नम्बर पर उसमें अपनी सम्पदा का व्यय करने की शक्ति होती है जो काड़ाऊपन तथा मितव्ययता दोनों में कुशल होती है, जो पारस्परिक आदान-प्रदान के महान् नियम को स्वीकार करती है और बदले में बहुत बड़ी मात्रा में लुटाने के लिये ही संग्रह करती हैं तथा इस प्रकार आदान-प्रदान के प्रवाह एवं जीवन की फलवत्ता में वृद्धि करती है; इसके बाद दान की तथा प्रचुर सर्जनशील उदारता की शक्ति, परस्पर सहायता करने की एवं दूसरों के लिये उपयोगी बनने की वृत्ति जो एक उन्मुक्त आत्मा में निष्पक्ष परोपकार, मानवहित तथा क्रियात्मक ढंग के परार्थ का मूल स्रोत बनती है; अन्त में, उपभोग की शक्ति तथा उत्पादनशील, संग्रहपरायण और क्रियाशील समृद्धि जो जीवन के उर्बर आनन्द का विलासिता के साथ भोग करती है । पारस्परिक विनिमय की विशालता, जीवन के सम्बन्धों की उदार पूर्णता, मुक्तहस्त व्यय और पुन:-उपार्जन तथा जीवन-जीवन के बीच प्रचुर आदान-प्रदान, फलशाली और उत्पादनशील जीवन के लयताल और सन्तुलन का पूर्ण उपभोग एवं उपयोग--ये सब उन लोगों की पूर्णता के तत्त्व हैं जिनमें उक्त प्रकार का स्वभाव होता है तथा जो उक्त धर्म का अनुसरण करते हैं ।

 

   मानव-प्रकृति की एक अन्य प्रवृत्ति कार्य तथा सेवा की ओर होती है । प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में यह शूद्र का धर्म या विशिष्ट आत्मिक रूप थी और उस व्यवस्था में शूद्र को 'द्वि' वर्णों में से किसी के अन्तर्गत नहीं बल्कि निम्न श्रेणी का माना जाता था । जीवन के मूल्यों के एक अधिक आधुनिक विवेचन में श्रम की महत्ता एवं प्रतिष्ठा पर बल दिया गया है और श्रमिक के घोर परिश्रम को मानव-मानव के सम्बन्धों की दृढ़ आधारशिला के रूप में देखा गया है । इन दोनों मनोवृत्तियों में कुछ सत्य है । कारण, जड़ जगत् में शूद्र की जो यह श्रम-शक्ति देखने में आती है वह अपनी अनिवार्यता की दृष्टि से स्थूल जीवन का आधार है या, सच पूछो तो, वह एक ऐसी वस्तु है जिसके सहारे स्थूल जीवन गति करता है, प्राचीन उपमा की भाषा में कहें तो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का पादयुगल है, और इसके साथ-साथ अपनी उस आदिम अवस्था में, जो ज्ञान और आदान-प्रदान या शक्ति-सामर्थ्य के द्वारा उन्नीत नहीं होती, वह एक ऐसी वस्तु भी होती है जो अन्धप्रेरणा, कामना और जड़ता पर आधार रखती है । शूद्र की सुविकसित प्रकृति में घोर परिश्रम करने की सहज-प्रेरणा एवं श्रम और सेवा की शक्ति होती है; परन्तु सरल या स्वाभाविक कार्य है विरुद्ध श्रम का कार्य प्राकृत मनुष्य पर एक ऊपर से लादा गया कार्य होता है जिस वह इसलिये सहन करता है कि उसके बिना वह न तो अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकता है और न अपनी कामनाओं की ही पूर्त्ति कर सकता है और,

 ७६१


क्योंकि वह कर्म के रूप में अपनी शक्ति का व्यय करने के लिये स्वयमेव या दूसरों या परिस्थितियों के द्वारा बाध्य होता है । जो मनुष्य स्वभाव से ही शूद्र होता है वह श्रम की महत्ता की भावना से या सेवा के उत्साह के वश कार्य करता हो ऐसी बात नहीं, --द्यपि अपने धर्म के विकास के द्वारा उसके अन्दर यह भावना एवं उत्साह भी आ जाता है, --वह ज्ञानी मनुष्य की तरह ज्ञान के आनन्द या प्राप्ति के लिये अथवा क्षत्रिय की तरह अपनी मान-प्रतिष्ठा की भावना से भी कार्य नहीं करता, न ही वह जन्मजात शिल्पी या कलाकार की भांति अपने कर्म से प्रेम होने या उसकी शिल्प-प्रणाली की सुन्दरता के लिये उत्साह होने के कारण अथवा पारस्परिक आदान-प्रदान या विशाल उपयोगिता की व्यवस्थित भावना के कारण कार्य करता है, वह तो अपने जीवन की रक्षा तथा अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही कार्य करता है, और जब ये आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं तब यदि उसे अपनी इच्छा पर छोड़ दिया जाये तो वह अपने स्वभावगत आलस्य का जी भरकर मजा लेता है, ऐसे आलस्य का जो हम सबके अन्दर विद्यमान तमोगुण का एक सर्वसामान्य अंग है पर एक असभ्य आदिम मनुष्य में, जो कर्म करने के लिये बाध्य न हो, अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकट हों उठता है । अतएव असंस्कृत शूद्र स्वतन्त्र श्रम की अपेक्षा कहीं अधिक सेवा के लिये जन्मा होता है और उसका स्वभाव जड़ अज्ञानता, अन्धप्रेरणाओं में स्थूल विचारहीन ग्रस्तता, दासता, विवेकरहित आज्ञाकारिता एवं कर्तव्य का यन्त्रवत् पालन जिसमें आलस्य, टालमटोल तथा आकस्मिक आवेगात्मक विद्रोह के द्वारा हेरफेर होता रहता है, अन्धप्रेरणामय और अशिक्षित जीवन-इन सबकी ओर झुका होता है । प्राचीन ज्ञानियों का मत यह था कि सभी मनुष्य अपनी निम्नतर प्रकृति में शूद्रों के रूप में उत्पन्न होते हैं और नैतिक तथा आध्यात्मिक संस्कार के द्वारा ही द्विज (संस्कृत) बनते हैं, पर अपनी उच्चतम आन्तरिक सत्ता में सभी ब्राह्मण होते हैं जो पूर्ण आत्म- स्वरूप एवं देवत्व प्राप्त कर सकते हैं । यह एक ऐसा सिद्धान्त जो शायद हमारी प्रकृति के मनोवैज्ञानिक सत्य से दूर नहीं है ।

 

   तथापि जब अन्तरात्मा विकसित होती है तो कार्य और सेवा-रूपी इस स्वभाव और धर्म में ही हमारी महत्तम पूर्णता के कुछ-एक अत्यन्त आवश्यक एवं सुन्दर तत्त्व देखने में आते हैं; इसके साथ ही उच्चतम आध्यात्मिक विकास के रहस्य के अधिकांश की कुंजी भी इसीमें पायी जाती है । कारण, आत्मा की जो शक्तियां हमारे अन्दर की इस सामर्थ्य (शूद्र-प्रकृति) के पूर्ण विकास से सम्बन्ध रखती हैं वे अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हैं । वे (शक्तियां) इस प्रकार हैं--दूसरों की सेवा करने की शक्ति, अपने जीवन को ईश्वर और मनुष्य के काम और उपयोग की वस्तु बनाने और हर प्रकार के महान् प्रभाव एवं आवश्यक अनुशासन को स्वीकार करके उनका पालन एवं अनुसरण करने का संकल्प, एक ऐसा प्रेम जो अपनी सेवा को समर्पित

 ७६२


करता है, पर बदले में किसी भी चीज की मांग नहीं करता, बल्कि जिससे हम प्रेम करते हैं उसकी तुष्टि के लिये अपने को खपा देता है, इस प्रेम और सेवा को भौतिक क्षेत्र में उतार लाने की शक्ति और अपना शरीर एवं प्राण तथा अपनी अन्तरात्मा, अपना मन, संकल्प और शक्ति-सामर्थ्य ईश्वर और मनुष्य की सेवा के लिये सौंप देने की कामना और, परिणामत:, पूर्ण आत्मसमर्पण की शक्ति जो आध्यात्मिक जीवन के क्षेत्र में प्रयुक्त की जाने पर मुक्ति और पूर्णता की महान्-से-महान् तथा अत्यन्त रहस्य-प्रकाशक कुंजियों में स्थान पाती है । इस शूद्र-धर्म की पूर्णता एवं इस शूद्र-स्वभाव की महानता इन्हीं तत्त्वों में निहित है । यदि मनुष्य के अन्दर प्रकृति का यह तत्त्व अपनी दिव्य शक्तितक उन्नीत होने के लिये विद्यमान न होता तो वह पूर्ण और सर्वांगसम्पन्न न बन सकता ।

 

  व्यक्तित्व के इन चार भेदों में से कोई भी यदि अन्य गुणों का कुछ अंश अपने अन्दर नहीं लाता तो वह अपने क्षेत्र में भी पूर्ण नहीं हो सकता । उदाहरणार्थ, यदि ज्ञानी मनुष्य में बौद्धिक और नैतिक साहस, संकल्प एवं निर्भयता, तथा नये राज्यों का द्वार खोलने एवं उन्हें जीतने की सामर्थ्य न हो तो वह स्वतन्त्रता और पूर्णता के साथ सत्य की सेवा नहीं कर सकता; उक्त गुणों के अभाव में वह सीमित बुद्धि का दास बन जाता है अथवा एक निरे स्थापित ज्ञान का सेवक या, अधिक-से-अधिक, उसका एक कर्मकाण्डीय पुरोहित बनकर रह जाता है, --अपने ज्ञान को सर्वोत्तम लाभ के लिये प्रयोग में नहीं ला सकता जबतक कि उसके सत्यों को जीवन के व्यवहारार्थ क्रियान्वित करने के लिये उसके अन्दर अनुकूलनशील कौशल न हो, अन्यथा वह केवल विचार में ही निवास करता रहता है, --अपने ज्ञान को पूर्णतया समर्पित नहीं कर सकता जबतक कि मानवजाति के प्रति, मनुष्य में अवस्थित भगवान् तथा अपनी सत्ता के स्वामी के प्रति सेवा की भावना उसके अन्दर न हो । इसी प्रकार शक्तिप्रधान मनुष्य (क्षत्रिय) को चाहिये कि वह अपने शक्ति-सामर्थ्य को ज्ञान के द्वारा, बुद्धि या धर्म या आत्मा के प्रकाश के द्वारा आलोकित, उन्नत और शासित करे, अन्यथा वह कोरा शक्तिशाली असुर बन जायेगा, --उसके अन्दर वह कौशल होना चाहिये जो उसे अपनी शक्ति को प्रयुक्त, परिचालित एवं नियमबद्ध करने एवं सर्जनशील और फलप्रद रूप देने में तथा दूसरों के साथ उसके सम्बन्धों के लिये उपयुक्त बनाने में सर्वोत्तम सहायता करे, अन्यथा वह जीवन के क्षेत्र के आरपार सांय-सांय चलनेवाली शक्ति की एक प्रचण्ड आंधीमात्र बन जाती है, एक ऐसे तूफान का रूप ले लेती है जो प्रबल वेग से आता है और रचना करने की अपेक्षा कहीं अधिक विनाश करके चला जाता

 

    ' सम्भवत: यही कारण है कि सर्वप्रथम एक क्षत्रिय ने ही अपने साहस और निर्भयता को तथा विजय की भावना को बोधिमूलक ज्ञान और आध्यात्मिक अनुभव के क्षेत्रों में लाकर वेदान्त के महान् सत्यों का आविष्कार किया । 

७६३


 है, -साथ ही क्षत्रिय में आज्ञापालन करने की सामर्थ्य भी होनी चाहिये और उसे अपनी शक्ति का प्रयोग ईश्वर और जगत् की सेवा के लिये करना चाहिये, अन्यथा वह स्वार्थी एवं स्वेच्छाचारी शासक, अत्याचारी तथा मनुष्यों की आत्माओं और शरीरों का क्रूर नियन्त्रक बन जायेगा । उत्पादन-सम्बन्धी मनोवृत्ति और कार्यप्रवृत्ति रखनेवाले मनुष्य में खुला और जिज्ञासाशील मन, विचार-समूह और ज्ञान होना चाहिये, अन्यथा वह विस्तारशील विकास के बिना अपने दैनिक कार्य-व्यापार के सीमित घेरे में ही विचरण करता रहेगा, उसमें साहस और बड़े कार्य का बीड़ा उठाने की वृत्ति भी होनी चाहिये, अपने उपार्जन और उत्पादन के कार्य में सेवा की भावना लानी चाहिये, ताकि वह केवल उपार्जन ही न करे, बल्कि दान भी कर सके, केवल बटोर करके अपने जीवन के सुखों का ही उपभोग न करे, अपितु अपने चारों ओर के जीवन की, जिससे वह लाभ उठाता है, फलशालिता और पूर्ण समृद्धता में सचेतन रूप से सहायता पहुंचाये । इसी प्रकार यदि श्रम और सेवा करनेवाला मनुष्य (शूद्र) अपने कार्य में ज्ञान, सम्मान-भावना, अभीप्सा और दक्षता न लाये तो वह एक असहाय श्रमिक एवं समाज का दास बन जायेगा, क्योंकि उक्त गुणों को अपने अन्दर लाकर ही वह ऊर्धोन्मुख मन और संकल्पशक्ति तथा सद्भावनापूर्ण उपयोगिता के द्वारा उच्चतर वर्णों के धर्मों की ओर उठ सकता है । परन्तु मनुष्य की महत्तर पूर्णता तभी साधित होती है जब वह अपने-आपको विशाल बनाकर इन चारों शक्तियों को अपने अन्दर समाविष्ट कर लेता है और अपनी प्रकृति को चतुर्विध आत्मा की सर्वतोमुखी पूर्णता एवं विराट् शक्ति-सामर्थ्य की ओर अधिकाधिक खोलता जाता है, द्यपि इन चारों में से कोई एक अन्यों का नेतृत्व भी कर सकती है । मनुष्य इन धर्मों में से किसी एक की एकांगी प्रकृति के रूप में गढ़ा दुआ नहीं है, बल्कि आरम्भ में उसके अन्दर ये सभी शक्तियां अनगढ़ एवं अव्यवस्थित रूप में कार्य कर रही होती हैं, पर उत्तरोत्तर जन्मों में वह किसी एक या दूसरी शक्ति को ही रूप प्रदान करता है, एक ही जीवन में किसी एक से दूसरी की ओर प्रगति करके अपनी आभ्यन्तरिक सत्ता के समग्र विकास की ओर बढ़ता जाता है । स्वयं हमारा जीवन सत्य और ज्ञान की खोज-रूप है और इसके साथ ही यह हमारी संकल्पशक्ति का हमारे अपने साथ तथा चारों ओर की शक्तियों के साथ संघर्ष एवं युद्ध है, सतत उत्पादन एवं अनुकूलन है तथा जीवन की सामग्री पर कौशल का प्रयोग है और है एक यश एवं सेवा ।

 

   जब अन्तरात्मा प्रकृति में अपनी शक्ति को कार्यान्वित कर रही होती है तो ये चारों धर्म उसके साधारण रूप होते हैं, परन्तु जब हम अपनी अन्तरात्मा के अधिक निकट पहुंचते हैं तब हमें एक ऐसी सत्ता की झांकी एवं अनुभूति भी प्राप्त होती है जो इन सब रूपों में तिरोहित थी तथा जो अपने-आपको इनमें से मुक्त करके एवं पीछे की ओर स्थित होकर इन्हें प्रेरित कर सकती है, मानो वह एक सार्वभौम

 ७६४


उपस्थिति या शक्ति हो जो इस सजीव और चिन्तनशील मशीन की एक विशेष क्रिया पर प्रभाव डालने के लिये व्यक्त की जाती है । यह स्वयं आत्मा की ही शक्ति है जो अपनी प्रकृति की शक्तियों पर अधिष्ठातृत्व करती हुई उन्हें अपने-आपसे परिप्लुत करती है । भेद इतना ही है कि पहले प्रकार की शक्ति (प्रकृतिगत शक्ति) पर वैयक्तिकता की छाप है, उसका कार्य और क्षेत्र सीमित एवं निर्धारित हैं, वह करणों पर निर्भर करती है, पर यहां (आत्मा की शक्ति में) एक ऐसी सद्वस्तु प्रकट हो जाती है जो वैयक्तिक रूप में भी निर्व्यक्तिक है, करणों का प्रयोग करती हुई भी स्वतन्त्र और स्वतः -पर्याप्त होती है, अपने-आप तथा पदार्थों दोनों का निर्धारण करती हुई भी स्वयं अनिर्धार्य है; वह एक ऐसी सद्वस्तु है जो जगत् पर कहीं अधिक महान् शक्ति के साथ क्रिया करती है और किसी विशेष शक्ति का प्रयोग मनुष्य एवं परिस्थिति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने तथा उनपर अपना प्रभाव उत्पन्न करने के एक साधन के रूप में ही करती है । आत्मसिद्धि-योग इस आत्मशक्ति को प्रकट कर देता है और इसे इसका विस्तृततम क्षेत्र प्रदान करता है, चारों प्रकार की शक्तियों को हाथ में लेकर समग्र और समस्वर आध्यात्मिक क्रियाशक्ति के मुक्त क्षेत्र में झोंक देता है । आत्मा की दिव्य ज्ञान-शक्ति उस उच्च-से-उच्च शिखरतक पहुंच जाती है जिसके लिये व्यक्ति की प्रकृति आश्रयदायी आधार का काम कर सकती हो । एक ज्योतिर्मय मुक्त मन विकसित हो जाता है जो प्रत्येक प्रकार की दृष्टि, श्रुति, स्मृति, विचार, विवेक तथा चिन्तनात्मक समन्वय की ओर खुला होता है; एक मनोमय आलोकित प्राण प्राप्ति, ग्रहण और धारण के आनन्द के साथ तथा आध्यात्मिक उत्साह, संवेग या हर्षेद्रिक के साथ समस्त ज्ञान को अधिगत करता है; एक ज्योतिर्मय शक्ति, जो आत्मिक बल और प्रकाश से तथा क्रियासम्बन्धी पवित्रता से पूर्ण होती है, अपने साम्राज्य को, 'ब्रह्मतेजस्' एवं 'ब्रह्मवर्चस' को, प्रकट करती हैं; एक अगाध निष्ठा एवं अपरिमेय शान्ति समस्त ज्योति, गति और कर्म को मानों किसी युगों की चट्टान के, सम, अविचल और अच्युत चट्टान के आधार पर स्थापित करती है ।

 

  आत्मा की दिव्य संकल्पशक्ति एवं बल-सामर्थ्य भी इसी प्रकार की विशालता और उच्चतातक उठ जाते हैं । मुक्त आत्मा की पूर्ण शान्तनिर्भयता, एक असीम क्रियाशील साहस जिसे कोई भी संकट, सम्भावना की कोई भी सीमा एवं प्रतिरोधी शक्ति की कोई भी बाधा आत्मा के द्वारा आरोपित कर्म या अभीप्सा का अनुसरण करने से नहीं रोक सकती, आत्मा तथा संकल्पशक्ति की उच्च महानता जिसे किसी भी प्रकार की क्षुद्रता या नीचता स्पर्श नहीं कर सकती तथा जो, हर प्रकार की अस्थायी पराजय या बाधा में से, एक विशेष महान् पदक्षेप के साथ आध्यात्मिक विजय की ओर या ईश्वर-प्रदत्त कर्म की सफलता की ओर अग्रसर होती है, एक ऐसी आत्मा जो न तो कभी विषाद में ग्रस्त होती है और न कभी सत्ता में कार्य 

७६५


करनेवाली शक्ति के प्रति श्रद्धा-विश्वास से विचलित ही होती है, -ये सब इस क्षात्रवृत्ति की पूर्णता के चिह्न हैं । इस पूर्णता में एक और विशाल दिव्यता भी आ जुड़ती है, वह है आत्मा की पारस्परिक आदान-प्रदान की शक्ति, करणीय कर्म में अपनी सत्ता एवं शक्ति का तथा अपनी समस्त प्रतिभा एवं सम्पदा का मुक्तहस्त व्यय जो उत्पादन, सृजन, कार्य-साधन, उपार्जन, लाभ और उपयोगी प्रतिफल के लिये जी खोलकर किया जाता है, एक ऐसा कौशल जो नियम का पालन करता है, दूसरों के साथ अपने सम्बन्ध को अनुकूल बना लेता है तथा आदर्शमान को बनाये रखता है, समस्त भूतों से अपने अन्दर ग्राह्य वस्तु का महान् आहरण करना और सभीको अपनी सत्ता एवं शक्ति का मुक्त प्रदान करना, एक दिव्य विनिमय, जीवन के पारस्परिक आनन्द का विशाल उपभोग । अन्त में इस पूर्णता में एक और दिव्यता भी आ मिलती है, वह है आत्मा की सेवा-शक्ति, एक सार्वजनीन प्रेम जो प्रतिफल की मांग किये बिना अपने को लुटा देता है, एक आलिंगन जो मनुष्य में स्थित भगवान् के शरीर को अपने प्रेम-पाश में समेट लेता है और उसकी सेवा एवं सहायता के लिये कार्य करता है, एक ऐसा आत्मोत्सर्ग जो परम प्रभु के जुए को सहने के लिये और अपने जीवन को उसकी निष्काम-सेवा तथा, उसके निर्देशानुसार, उसके सब प्राणियों की मांग और आवश्यकता की निष्काम पूर्ति का साधन बनाने के लिये तैयार रहता है, अपनी सत्ता के प्रभु के प्रति तथा इस जगत् में उसके कर्म के प्रति अपनी सम्पूर्ण सत्ता का आत्म-समर्पण । ये सब चीजें संयुक्त हो जाती हैं, एक-दूसरे की सहायता करती हैं तथा एक-दूसरे में पैठकर एक हो जाती हैं । इनकी पूर्ण एवं चरम परिणति उन सर्वाधिक महान् आत्माओं में साधित होती है जो पूर्णता प्राप्त करने में अत्यन्त सक्षम होती हैं; पर इस चतुर्विध आत्मशक्ति की एक प्रकार की विशाल अभिव्यक्ति को उपलब्ध करने के लिये पूर्णयोग के सभी साधकों को यत्न करना चाहिये और वे सभी इसे प्राप्त भी कर सकते हैं ।

 

  ये सब तो चिह्नमात्र हैं, पर इनके पीछे वह अन्तरात्मा विद्यमान है जो प्रकृति की पूर्णता में अपने-आपको इस प्रकार प्रकट करती है । यह अन्तरात्मा मुक्त मनुष्य के स्वतन्त्र आत्मा का ही प्रकट्य है । अनन्त होने के कारण उस आत्मा का अपना कोई विशेष स्वरूप नहीं है, पर वह सब प्रकार के रूपों एवं व्यक्तित्वों की लीला का धारण-भरण करता है, एक प्रकार के अनन्त, एक किन्तु फिर भी बहुगुणित व्यक्तित्व को आश्रय देता है, निर्गुणो गुणी, अपनी अभिव्यक्ति में अनन्त गुणों एवं व्यक्तित्वों को धारण करने में समर्थ है, अनन्तगुण है । जिस शक्ति का वह प्रयोग करता है वह एक परमोच्च एवं विश्वव्यापी, तथा दिव्य एवं असीम शक्ति है जो व्यक्ति के अन्दर अपने-आपको उँएलती है और दिव्य उद्देश्य के लिये स्वतन्त्रतापूर्वक उसके कार्य का निर्धारण करती है ।

७६६










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates