योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ६

 

भगवान् का आनन्द

 

हम देख चुके हैं कि भक्तिमार्ग का स्वरूप क्या है और उच्चतम, विशालतम तथा पूर्णतम ज्ञान के लिये इसका क्या औचित्य है । अब हम यह समझ सकते हैं कि पूर्णयोग में इसका रूप और स्थान क्या होगा । योग, सारतः, आत्मा का भगवान् की अमर सत्ता, चेतना और आनन्द के साथ मिलन है । यह मिलन मानव प्रकृति के द्वारा साधित होता है और इसके फलस्वरूप हमारी प्रकृति सत्ता की दिव्य प्रकृति में विकसित हो जाती है; वह दिव्य प्रकृति चाहे जो भी हो, पर जहांतक हम उसे विचार में ला सकते हैं तथा आध्यात्मिक कर्म में चरितार्थ कर सकते हैं वहांतक हम वही बन जाते हैं । भगवान् का जो भी स्वरूप हम देखते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये एकचित्त होकर प्रयत्न करते हैं, वही हम बन सकते हैं या उसके साथ एक प्रकार के एकत्व मे अभिवर्द्धित या कम-से-कम उसके साथ एकतान, एकस्वर हो सकते हैं । यही बात एक प्राचीन उपनिषद् ने अपनी अत्युच्च भाषा में मार्मिक ढंग से यूं कही है, ''जो कोई उसे सत् के रूप में देखता है वह वही सत् बन जाता है और जो कोई उसे असत् के रूप में देखता हैं वह वही असत् बन जाता है''; भगवान् के और भी जो-जो स्वरूप हम देखते हैं उन सबके सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है, --हम कह सकते हैं कि यह देवाधिदेव--विषयक एक ऐसा सत्य है जो एक साथ पारमार्थिक भी है और व्यावहारिक भी । वह देवाधिदेव एक ऐसा तत्त्व है जो हमसे परे होता हुआ भी वास्तव में पहले से ही हमारे अन्दर है, पर जो हम अपनी मानवीय- सत्ता में अभीतक नहीं हैं या केवल आरम्भिक रूप में ही हैं; तथापि उसका जो कुछ भी अंश हम देखते हैं, उसे हम अपनी सचेतन प्रकृति तथा सत्ता में निर्मित या प्रकाशित कर सकते हैं और इसके साथ ही हम उसमें विकसित भी हो सकते हैं । इस प्रकार देवाधिदेव को अपने अन्दर व्यक्तिशः निर्मित या प्रकाशित करना तथा उसकी विश्वमयता और परात्परता में विकसित होना ही हमारा आध्यात्मिक भविष्य है । अथवा यदि यह हमारी प्रकृति की दुर्बलता के लिये अतीव ऊंचा प्रतीत हो, तो कम-से-कम, इसके पास पहुंचना, इसका चिन्तन करना, इसके साथ स्थिर अन्तर्मिलन लाभ करना हमारी निकट तथा सम्भावित पूर्णता है ।

 

     जिस समन्वयात्मक या सर्वांगीण योग पर हम विचार कर रहे हैं उसका लक्ष्य है--अपनी मानव प्रकृति के अंग-प्रत्यंग द्वारा भगवान् की सत्ता, चेतना और आनन्द से मिलन, भले ही यह मिलन हम एक-एक अंग द्वारा पृथक्-पृथक् प्राप्त करें या सबके द्वारा एक साथ, परन्तु अन्ततोगत्वा हमें सबको समन्वित और एकीभूत करना होगा जिससे सम्पूर्ण प्रकृति सत्ता की दिव्य प्रकृति मे रूपान्तरित हो

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जाये । सर्वांगीण द्रष्टा इससे कम किसी चीज से सन्तुष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जो वह देखता है वह अवश्य ही वही चीज है जिसे वह आत्मिक रूप में अधिगत करने और यथासम्भव वही बन जाने का प्रयत्न करता है । अपने अन्दर के ज्ञाता से ही नहीं, अपनी संकल्प-शक्ति से ही नहीं, अपने हृदय से ही नहीं, बल्कि इन सभीके द्वारा समान रूप में और साथ ही अपने अन्दर की सम्पूर्ण मानसिक तथा प्राणिक सत्ता से वह देवाधिदेव की अभीप्सा करता है और इनकी प्रकृति को इसके दिव्य प्रतिरूपों में परिवर्तित करने का उद्योग करता है । ईश्वर अपनी सत्ता के अनेक भावों में हमसे मिलते हैं और उन सबमें वे हमें तब भी अपनी ओर आकृष्ट करते हैं जब वे हमसे आंख बचाकर भागते प्रतीत होते हैं, --दिव्य सम्भावना को देखना और इसकी विघ्न-बाधाओं के क्षेत्र पर विजय पाना ही मानव-जीवन का सम्पूर्ण मर्म तथा माहात्म्य है, --अतएव इनमेंसे प्रत्येक भाव की पराकाष्ठा में या इन सबके मिलन में, यदि हम इनके एकत्व की कुंजी ढूंढ सकें तो, हम उन्हें खोजने, पाने और अधिकृत करने की अभीप्सा करेंगे । क्योंकि वे निर्वैयक्तिकता में लौट जाते हैं, हम उनकी निर्वैयक्तिक सत्ता और आनन्द का अनुसरण करते हैं, पर, क्योंकि वे हमारी वैयक्तिकता में तथा मानव के साथ भगवान् के वैयक्तिक सम्बन्धों द्वारा भी हमसे मिलते हैं उससे भी हम अपनेकी वञ्चित नहीं करेंगें; प्रेम तथा आनन्द की क्रीड़ा और इसका अनिर्वचनीय मिलन--दोनों को हम ग्रहण करेंगे ।

 

     ज्ञान द्वारा हम भगवान् से उनकी सचेतन सत्ता में एकता प्राप्त करना चाहते हैं; कर्मों के द्वारा भी हम भगवान् से उनकी सचेतन सत्ता में एकता प्राप्त करना चाहते हैं; स्थितिशील रूप में नहीं, बल्कि गतिशील रूप में, भागवत संकल्पशक्ति के साथ सचेतन एकत्व के द्वारा; परन्तु प्रेम के द्वारा तो हम उनकी सत्ता के सम्पूर्ण आनन्द में उनके साथ एकत्व लाभ करना चाहते हैं । इसी कारण प्रेम-मार्ग अपनी कुछ प्रारम्भिक गतियों में, वह चाहे कैसा भी संकुचित क्यों न प्रतीत हो, अन्त में योग के अन्य किसी भी हेतु की अपेक्षा अधिक आवश्यक रूप में सर्व-आलिंगी है । ज्ञान का मार्ग अनायास निर्वैयक्तिक और निरपेक्ष की ओर झुक जाता है, यह सहज ही एकांगी बन सकता है । यह ठीक है कि इसके लिये ऐसा करना आवश्यक नहीं; क्योंकि भगवान् की सचेतन सत्ता जैसे परात्पर और निरपेक्ष है वैसे ही विश्वगत तथा व्यक्तिगत भी, अतएव यहां भी हमारी प्रवृत्ति एकता की सर्वांगपूर्ण उपलब्धि की ओर हो सकती है और होनी भी चाहिये, इससे हम मनुष्यगत ईश्वर तथा विश्वगत ईश्वर से ऐसी आध्यात्मिक एकता प्राप्त कर सकते हैं जो किसी भी परात्पर मिलन से कम पूर्ण नहीं होगी । परन्तु यह सर्वथा अनिवार्य नहीं । हम तर्क कर सकते हैं कि ज्ञान उच्चतर भी होता है और निम्नतर भी, उच्चतर आत्मबोध भी होता है तथा निम्नतर आत्मबोध भी, और यहां हमें ज्ञान-राशि का वर्जन कर ज्ञान--शिखर का ही अनुसरण करना है, सर्वांगीण मार्ग की अपेक्षा एकांगी मार्ग का वरण

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करना है । अथवा हम अपने साथियों से तथा जगद्व्यापार से समस्त सम्बन्ध के परित्याग का समर्थन करने के लिये माया के सिद्धान्त का आविष्कार कर सकते हैं । कर्ममार्ग हमें परात्पर की ओर ले जाता है जिसकी सत्ता की शक्ति विश्वगत संकल्प के रूप में प्रकट होती है । यह संकल्प हममें तथा सबमें एक ही है, इसके साथ तादात्म्य द्वारा हम, उस तादात्म्य की आवश्यक अवस्थाओं के कारण, परात्पर को सबकी एक आत्मा, विश्वात्मा तथा जगदीश्वर अनुभव करते हुए उनसे मिलन लाभ करते हैं । ऐसा प्रतीत होगा कि यह हमारी एकत्व-उपलब्धि में कुछ व्यापकता ले आता है, परन्तु ऐसा होना सर्वथा अनिवार्य नहीं । कारण, यह हेतु भी, पूर्ण निर्वैयक्तिकता की ओर झुक सकता है और चाहे इसके फलस्वरूप हम विश्वगत ईश्वर के कार्यों में निरन्तर भाग लेने लगते हैं तो भी यह सिद्धांत रूप में सर्वथा निःसंग और निष्क्रिय हो सकता है । पूर्ण मिलनरूपी हेतु सर्वथा अपरिहार्य तभी बनता है जब योगमार्ग में आनन्द का प्रवेश होता है ।

 

      इस आनन्द का, जो इतने पूर्ण रूप में अपरिहार्य है, अभिप्राय है--भगवान् में आनन्द, उन्हींके लिये, और किसी चीज के लिये नहीं--इससे परे के किसी भी निमित्त या लाभ के लिये नहीं । यह ईश्वर को न तो किसी ऐसी चीज के लिये खोजता है जो वे हमें दे सकते हैं और न उनके किसी विशेष गुण के लिये, वरन् केवल और एकमात्र इसलिये कि वे हमारी आत्मा, हमारी सम्पूर्ण सत्ता तथा हमारे सर्वस्व हैं । यह परात्परता के आनन्द का आलिंगन करता है, परात्परता के लिये नहीं, वरन् इसलिये कि वे परात्पर हैं; विश्वमयता के आनन्द का, विश्वमयता के लिये नहीं, वरन् इसलिये कि वे विश्वमय हैं; व्यक्ति के आनन्द का, व्यक्तिगत सन्तुष्टि के लिये नहीं, वरन्  इसलिये कि वे व्यक्ति हैं । यह सब भेदों और रूपों के पीछे जाता है और उनकी सत्ता की कम या अधिक मात्रा का हिसाब नहीं लगाता, बल्कि जहां कहीं भी वे हैं वहां, और इसलिये सब कहीं, उनका आलिंगन करता है । जैसे प्रतीयमान कम में वैसे ही प्रतीयमान अधिक में, जैसे प्रतीयमान सीमा में वैसे ही असीम के प्राकाश्य में यह उनका पूर्ण रूप से आलिंगन करता है, इसे इस बात का सहज ज्ञान और अनुभव होता है कि वे सभी जगह एक और पूर्ण हैं । उनकी निरपेक्ष सत्तामात्र के लिये उन्हें खोजना वास्तव में अपने ही वैयक्तिक लाभ, पूर्ण शान्ति की प्राप्ति को लक्ष्य बनाना है । निःसन्देह, उन्हें पूर्ण रूप से अधिकृत करना ही उनकी सत्ता से प्राप्त होनेवाले इस आनन्द का लक्ष्य है, किन्तु यह प्राप्त तभी होता है जब हम उन्हें पूर्ण रूप से अधिकृत कर लेते हैं और उनके द्वारा पूर्णत: अधिकृत हों जाते हैं, जब हमें किसी विशेष स्थिति या अवस्था में बंधने की आवश्यकता नहीं रहती । किसी आनन्दमय स्वर्गलोक में उनकी खोज करना उन्हींके लिये नहीं, बल्कि उस स्वर्गलोक के आनन्द के लिये उनकी खोज करना है । जब हम उनकी सत्ता का सारा सच्चा आनन्द प्राप्त कर लेते हैं तब स्वर्गलोक हमारे

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भीतर आ जाता है, और जहां .कहीं वे हैं और हम हैं वहीं उनके राज्य का हर्ष हमें प्राप्त रहता है । इसी प्रकार केवल अपने अन्दर और अपने लिये उन्हें खोजना अपने-आपको और उनके अन्दर अपने हर्ष को भी सीमित करना है । सर्वांगीण आनन्द केवल हमारी वैयक्तिक सत्ता में ही नहीं, बल्कि सब मनुष्यों में तथा सर्वभूत में समान रूप से उनका आलिंगन करता है । क्योंकि उनके अन्दर हम सबके साथ एकमय हैं, यह उन्हें केवल हमारे लिये नहीं, अपितु हमारे सभी साथियों के लिये खोजता है । भगवान् में पूर्ण और अशेष आनन्द, --पूर्ण तो विशुद्ध और स्वयंसत् होने के कारण और अशेष सर्वस्पर्शी तथा तन्मयकारी होने के कारण, --पूर्णयोग के जिज्ञासु के लिये भक्तिमार्ग का मर्म है ।

 

     एक बार जब यह हमारे अन्दर क्रियाशील हो जाता है तो मानों योग के अन्य सभी मार्ग इसके नियम में परिवर्तित हो जाते हैं और इसके द्वारा अपना पूर्णतम महत्त्व प्राप्त कर लेते हैं । ईश्वर के प्रति हमारी सत्ता की यह सर्वांगीण भक्ति ज्ञान से पराङ्मुख नहीं होती; इस मार्ग का भक्त ईश्वरप्रेमी होने के साथ--साथ ईश्वरज्ञानी भी होता है, क्योंकि उनकी सत्ता के ज्ञान से ही उनकी सत्ता का सम्पूर्ण आनन्द प्राप्त होता है । परन्तु ज्ञान आनन्द में ही परिसमाप्त होता है, परात्पर का ज्ञान परात्पर के आनन्द में, विश्वमय का ज्ञान विश्वमय ईश्वर के आनन्द में, वैयक्तिक अभिव्यक्ति का ज्ञान व्यक्ति के भीतर ईश्वर के आनन्द में, निर्वैयक्तिक का ज्ञान उनकी निर्वैयक्तिक सत्ता के शुद्ध आनन्द में, वैयक्तिक का ज्ञान उनके व्यक्तित्व के पूर्ण आनन्द में, उनके गुणों तथा इनकी क्रीड़ा का ज्ञान अभिव्यक्ति के आनन्द में, निर्गुण का ज्ञान उनकी निराकार सत्ता और अनभिव्यक्ति के आनन्द में परिसमाप्त होता है ।

 

    इसी प्रकार यह ईश्वरप्रेमी दिव्य कर्मी भी होगा, कर्मों के लिये या कर्मगत स्वार्थलक्षी सुख के लिये नहीं, वरन् इस कारण कि इस प्रकार ईश्वर अपनी सत्ता की शक्ति का प्रयोग करते हैं और उनकी शक्तियों तथा उनके प्रतीकों में हम उन्हें अधिगत करते हैं, इस कारण कि कर्मों में दिव्य संकल्प ईश्वर का अपनी शक्ति के आनन्द में प्रस्रवण है, दिव्य सत्ता का दिव्य बल के आनन्द में प्रवहण है । वह प्रियतम के कार्यों और व्यापारों में पूर्ण हर्ष अनुभव करेगा, क्योंकि उनमें भी वह प्रियतम को पाता है; वह स्वयं सभी कार्य करेगा, क्योंकि उन कार्यों के द्वारा भी उसकी सत्ता का स्वामी उसके अन्दर अपना दिव्य हर्ष प्रकट करता है : जब वह काम करता है तो उसे अनुभव होता है कि वह कार्य और शक्ति में उनके साथ अपनी एकता प्रकट कर रहा हैं जिन्हें वह प्रेम करता और पूजता है । वह उस संकल्प की मस्ती अनुभव करता है जिसका वह अनुसरण करता है तथा जिसके साथ उसकी सत्ता का समस्त बल आनन्दपूर्वक एकीभूत है । फिर इसी प्रकार, यह ईश्वरप्रेमी पूर्णता की खोज करेगा, क्योंकि पूर्णता भगवान् की प्रकृति हैं और जितना

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ही अधिक वह पूर्णता मे बढ्ता है, उतना ही अधिक वह अनुभव करता है कि प्रियतम उसकी प्राकृतिक सत्ता में प्रकट हो रहे हैं । अथवा वह फूल के खिलने के समान अनायास ही पूर्णता में विकसित होगा, क्योंकि भगवान् उसके अन्दर हैं और है भगवान् का हर्ष । जैसे ही वह हर्ष उसके अन्दर फैलता है, आत्मा, मन और प्राण भी स्वभावत: अपने देवत्व में अभिवर्द्धित हो जाते हैं । साथ ही, क्योंकि वह अनुभव करता है कि भगवान् सबमें हैं और प्रत्येक परिसीमक प्रतीति के अन्दर भी वे सर्वथा पूर्ण हैं, उसे अपनी अपूर्णता का शोक नहीं होगा ।

 

     जीवन के द्वारा भगवान् की खोज और अपनी सत्ता तथा वैश्व सत्ता के समस्त व्यापारों में उनसे समागम भी उसकी पूजा के क्षेत्र से बाहर नहीं होंगे । सम्पूर्ण प्रकृति और सम्पूर्ण जीवन उसके लिये उनका आत्म-प्रकाश होंगे और होंगे समागम के लिये सुन्दर संकेत-स्थान । बौद्धिक, सौन्दर्य-मूलक और शक्त्यात्मक चेष्टाएं विज्ञान, दर्शन और जीवन, चिन्तन, कला और कर्म उसके निकट अधिक दिव्य अनुमोदन तथा अधिक महान् अर्थ प्राप्त कर लेंगे । इनका अनुसरण वह इसलिये करेगा कि इनके द्वारा उसे भगवान् के स्पष्ट दर्शन होते हैं और इनके अन्दर भगवान् का आनन्द विद्यमान है । निःसन्देह, वह इनके बाह्य रूपों में आसक्त नहीं होगा, क्योंकि आसक्ति आनन्द में बाधक है । और, क्योंकि उस शुद्ध, शक्तिशाली एवं पूर्ण आनन्द पर उसका स्वत्व हो गया है जो हर चीज प्राप्त कर लेता है, पर स्वयं किसी चीज पर निर्भर नहीं, क्योंकि इनमें वह प्रियतम के ढंग, कार्य और लक्षण, उसकी सम्भूतियां, प्रतीक और प्रतिमाएं देखता है, उसे इनसे ऐसा हर्षातिशय लाभ होता है जो इन्होंके लिये इनकी खोज करनेवाले साधारण मन को प्राप्त नहीं हो सकता, यहांतक कि जो इसकी कल्पना में भी नहीं आ सकता । यह सब और इससे भी अधिक कुछ सर्वांगीण मार्ग तथा इसकी सिद्धि का अंग बन जाता है ।

 

    आनन्द की सामान्य शक्ति है प्रेम, और प्रेम का आनन्द जिस विशेष रूप को ग्रहण करता है वह है सौन्दर्य का साक्षात्कार । ईश्वरप्रेमी विश्वप्रेमी होता है और वह आनन्दमय तथा सर्व-सुन्दर का आलिंगन करता है । जब विश्वप्रेम उसके हृदय को अपने वश में कर लेता है तो यह इस बात का अचूक चिह्न होता है कि भगवान् ने उसपर अपना अधिकार कर लिया है; और जब उसे सर्वत्र सर्व-सुन्दर के दर्शन होते हैं और वह सदा-सर्वदा उनके आलिंगन का आनन्द अनुभव कर सकता है तो यह इस बात का अचूक चिह्न होता है कि उसने भगवान् को अपने अधिकार में कर लिया है । मिलन प्रेम की पराकाष्ठा है, किन्तु यह पारस्परिक अधिकार ही इसे एक साथ इसकी तीव्रता के उच्चतम शिखर पर तथा बृहत्तम विशालता में पहुंचा देता है । यह दिव्यानन्द में एकत्व की आधारशिला है ।

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