योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ३

 

भगवन्मुख भाव

 

योग का मूलसूत्र यह है कि मानव-चेतना की सभी या कुछ एक शक्तियां भगवान् की ओर फेर दी जायें ताकि सत्ता की इस चेष्टा के द्वारा संस्पर्श, सम्बन्ध एवं मिलन स्थापित हो जाये । भक्तियोग में जिस शक्ति को साधन बनाया जाता है वह है भावमय प्रकृति । इसका मुख्य सिद्धांत यह है कि मनुष्य और भगवान् में कोई एक मानवीय सम्बन्ध अपनाकर हृद्गत भावों को उन्हींकी ओर अधिकाधिक तीव्र वेग से प्रवाहित किया जाये जिससे कि अन्त में मानव आत्मा दिव्य प्रेम के मद में उन्हीमें आसक्त होकर उन्हींके साथ एक हो जाये । भक्त अपने योगद्वारा जो चीज खोजता है वह अन्तत: एकत्व की विशुद्ध शान्ति या एकत्व की शक्ति एवं निष्काम संकल्प-बल नहीं है, वह तो है मिलन की मस्ती । जो कोई भी भाव हृदय को इस उल्लास के लिये तैयार कर सकता है योग उसे अपनाता है; और जैसे-जैसे प्रेम का दृढ़ मिलन अधिक प्रगाढ़ एवं पूर्ण होता जायेगा वैसे-वैसे, जो भी चीज इस हर्षातिरेक को कम करती है वह उत्तरोत्तर झड़ती जायेगी ।

 

  जिन भावों को लेकर धर्म ईश्वर की पूजा, सेवा और प्रीति-भक्ति की ओर बढ़ता है उन सबको योग स्वीकार करता है, अपने अंतिम परिणामों के रूप में नहीं, किन्तु भावुक प्रकृति की प्रारम्भिक चेष्टाओं के रूप में । परन्तु एक भाव ऐसा भी है जिसका योग से बहुत ही कम सम्बन्ध है, कम-से-कम उस योग का जिसका अभ्यास भारत में किया जाता है । कुछ धर्मों में, शायद अधिकतर धर्मों में, ईश्वर-भय का विचार बहुत ही बड़ा स्थान रखता है, कभी-कभी तो सबसे बड़ा; ईश्वर-भीरु मनुष्य इन धर्मो का आदर्श धार्मिक व्यक्ति होता है । निःसंदेह भय का विचार, किसी सीमातक, एक विशेष प्रकार की भक्ति के साथ पूर्णतः संगत है; अपने उच्चतम रूप में यह दिव्य शक्ति, दिव्य न्याय, दिव्य विधान, दिव्य ऋत की पूजा में तथा सर्वशक्तिमान् स्रष्टा और न्यायकारी के प्रति नैतिक आज्ञापालन एवं सम्भ्रांत आदर के भाव में उन्नीत हो जाता है । अत: इसका हेतु नैतिक-धार्मिक होता है और इसका ठीक-ठीक सम्बन्ध भक्त से नहीं, बल्कि कर्मी मनुष्य से है जो अपने कर्मों के दिव्य विधाता और न्यायकर्त्ता के प्रति भक्ति से परिचालित होता है । भय का भाव ईश्वर को राजा मानता है और उसके सिंहासन की महिमा के अतिनिकट पहुंच ही नहीं पाता जबतक कि यह सदाचार के द्वारा उसके योग्य न हो या कोई मध्यस्थ (mediator ) पाप के प्रति दैवी कोप को कु करके इसे वहांतक न ले जाये । जब यह अधिक-से-अधिक समीप पहुंच जाता है तब भी यह अपने-आप तथा अपने उच्च पूजार्ह के बीच भयग्रस्त दूरी कायम रखता है । पुत्र को अपनी माता में

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या प्रेमी को अपने प्रियतम में जैसा पूर्ण निर्भय विश्वास होता है वैसे विश्वास के साथ या पूर्ण प्रेम से उत्पन्न होनेवाले एकत्व की घनिष्ठ भावना के साथ यह भगवान् का आलिंगन नहीं कर सकता ।

 

   कुछ एक प्रारम्भिक प्रचलित धर्मों में इस ईश्वर-भय का उद्गम काफी अधकचरा था । मनुष्य ने देखा कि संसार में कुछ ऐसी शक्तियां हैं जो उससे बड़ी हैं, जिनका स्वभाव एवं व्यापार दुर्बोध हैं, और जो उसकी समृद्धि में उसे ठोकर मारकर गिरा देने और किन्हीं भी नाराज करनेवाले कामों के बदले उसे दंड देने के लिये हरदम तैयार दीखती हैं । ईश्वर को तथा संसार के संचालक नियमों को न जानने के कारण ही मनुष्य के अन्दर देवताओं से भय का जन्म हुआ । इसने उच्चतर शक्तियों पर स्वेच्छाचार और मानवीय विकार का आरोप किया; इसने उन्हें ऐसे महाकार पार्थिव मनुष्यों के रूप में कल्पित किया जो मनमानी, अत्याचार, वैयक्तिक द्वेष करने में समर्थ हैं और मनुष्य की ऐसी किसी भी महत्ता से ईर्ष्या करनेवाले हैं, क्योंकि वह उसे पार्थिव प्रकृति की क्षुद्रता से ऊपर उठाकर दिव्य प्रकृति के अति निकट पहुंचा देती है । ऐसे विचारों को लेकर किसी सच्ची भक्ति का उदय नहीं हो सकता । यह और बात है कि इनसे एक ऐसी संशयास्पद भक्ति का जन्म हो जाये जिसे दुर्बल बलवान् के प्रति अनुभव कर सकता है, क्योंकि बलवान् मनुष्य अपने अधीनस्थों पर कुछ नियम थोप रखता है जिन्हें वह दंड एवं पुरस्कार के द्वारा लागू कर सकता है । अतः दुर्बल मनुष्य उन नियमों का पालन कर पूजा-प्रशंसा और भेंट-स्तुति के द्वारा उसकी रक्षा प्राप्त कर सकता है । इसी प्रकार यह भी दूसरी बात है कि जो महिमा-गरिमामयी सत्ता, जो प्रज्ञा एवं परमोच्च शक्ति इस संसार के ऊपर है तथा इसके सभी नियमों एवं घटनाओं का उद्गम है या कम-से-कम इनकी नियामिका है उसके प्रति ऐसे भयमूलक विचारों से मनुष्य के अन्दर सविनय एवं साष्टांग प्रणाम-पूजा का भाव पैदा हो ।

 

   भक्तिमार्ग के प्रारम्भों की ओर अधिक निकट पहुंच तभी संभव होती है जब दैवी शक्ति का यह तत्त्व इन असंस्कृत धारणाओं से मुक्त हो जाता है और अपने-आपको इस विचार पर एकाग्र करता है कि संसार का एक दिव्य शासक एवं स्रष्टा है और दैवी विधान का एक स्वामी है जो पृथ्वी एवं द्युलोक का शासन करता है और अपने रचे हुए प्राणियों का मार्गदर्शक, सहायक और उद्धारक है । दिव्य-सत्तासम्बन्धी इस विशालतर एवं उच्चतर विचार में पुरानी अपरिपक्वता के अनेक तत्त्व चिरकालतक बने रहे और कुछ तत्त्व तो अभी भी विद्यमान हैं । यह विचार यहूदियों ने अति प्रबलतापूर्वक प्रस्थापित किया । उन्हींके द्वारा यह संसार के एक बड़े भाग में फैल गया । वे एक ऐसे सदाचारमय ईश्वर में विश्वास कर सकते थे जो पक्षपाती, स्वेच्छाचारी, क्रोधी, ईर्ष्यालु प्रायः निर्दयी और यहांतक कि स्वच्छन्दतः रक्तपिपासु हो । आज भी कई लोगों को सृष्टिकर्ता का यह स्वरूप मान्य है कि

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उसने अपनी सृष्टि के दो ध्रुवों, स्वर्ग और नरक--नित्य नरक,--का निर्माण किया है और यहांतक कि कुछ धर्मों के अनुसार तो उसने पहले से ही कुछ ऐसी आत्माएं निश्चित कर रखी हैं जिन्हें उसने पाप एवं दंड के लिये नहीं, अपितु नित्य नरकयातना के लिये उत्पन्न किया है । परन्तु बालोचित धार्मिक विश्वास की इन अतियों को छोड़कर यदि सर्वशक्तिमान् न्यायाधीश, व्यवस्थापक एवं सम्राट के विचार को स्वतः पृथक् रूप में लिया जाये तो भी यह भगवान् के विषय में एक असंस्कृत एवं अपरिपक्व विचार है, क्योंकि, यह हीन एवं बाह्य सत्य को मुख्य सत्य मान बैठता है और अधिक अन्तरीय सद्वस्तु की प्राप्ति के उच्चतर पथ में बाधा डालने में प्रवृत्त होता है । यह पाप-भावना के महत्त्व को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करता है और इस प्रकार यह आत्मा के भय, आत्म-अविश्वास और दुर्बलता की अवधि एवं मात्रा को बढ़ा देता हैं । पुण्य के आचरण और पाप के परित्याग का सम्बन्ध यह दण्ड और पुरस्कार के विचार के साथ जोड़ देता है जो चाहे प्राप्त आगामी जीवन में ही होते हैं । हमारी नैतिक सत्ता का नियमन करना तो चाहिये उच्चतर भावना को, पर उसके स्थान पर यह पाप-पुण्य को भय तथा स्वार्थ के निम्न प्रेरकों पर अवलंबित कर देता है । स्वयं भगवान् को नहीं, बल्कि स्वर्ग-नरक को यह मानव आत्मा के धार्मिक जीवन का लक्ष्य बना डालता है । ये असंस्कृत धारणाएं मानव मन के मन्द शिक्षण में अपना प्रयोजन पूरा कर चुकी हैं, पर योगी के लिये ये किञ्चित् भी उपयोगी नहीं । योगी जानता है कि चाहे जो भी सत्य ये प्रकट करती हों वह वास्तव में संसार के बाह्यविधान के साथ विकासी मानव आत्मा के बाह्य सम्बन्धों का सत्य है न कि भगवान् के साथ मानव आत्मा के अन्तरीय सम्बन्धों का कोई अन्तरङ्ग सत्य; परन्तु योग का वास्तविक क्षेत्र तो ये अन्तरीय सम्बन्ध ही है ।

 

   तथापि इस विचार में से कुछ फलितार्थ निकलते हैं जो हमें भक्तियोग की देहरी के अधिक समीप ले जाते हैं । प्रथम भगवान् के विषय में यह विचार उद्भूत हो सकता है कि वह हमारी नैतिक सत्ता का मूलस्रोत, विधान और लक्ष्य है । इससे फिर उसके विषय में हमें यह ज्ञान हो सकता है कि वह परम आत्मा है जिसके लिये हमारी सक्रिय प्रकृति ललकती है, वह संकल्पशक्ति है जिसके साथ हमें अपने संकल्प को तद्रूप करना है, वह सनातन ऋत, पवित्रता, सत्य एवं प्रज्ञा है जिसके साथ हमारी प्रकृति को समरस होना है और जिसकी सत्ता की ओर हमारी सत्ता आकृष्ट होती है । इस प्रकार हम कर्मयोग पर जा पहुंचते हैं; इस योग में भगवान् की सगुण (वैयक्तिक) भक्ति को स्थान है, कारण, दिव्य संकल्प हमारे कर्मों का स्वामी प्रतीत होता है जिसकी वाणी हमें सुननी होगी और जिसकी दिव्य प्रेरणा का हमें अनुसरण करना होगा और जिसका काम करना ही हमारे सक्रिय जीवन और संकल्प का एकमात्र धन्धा है । दूसरे, यह विचार प्रादुर्भूत होता है कि यह दिव्य आत्म-सत्ता है, सबका जनक पिता है जो अपने सभी प्राणियों पर दयामय

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रक्षा एवं प्रेम की छत्रच्छाया प्रसारित करता है, और उससे फिर जीव तथा भगवान् में पिता-पुत्र का सम्बन्ध, प्रेम का सम्बन्ध, और फलत: अपने सजातीयों के साथ भ्रातृभाव का सम्बन्ध पैदा हो जाता ३ । भगवान्, स्वामी और पिता के ये सम्बन्ध भक्तियोग के माने हुए अंग हैं, भगवान्--जिसकी प्रकृति की शान्त शुद्ध ज्योति में हमें विकसित होना है, स्वामी-जिसके पास हम अपने कर्मों और सेवा से पहुंचते हैं, पिता-जो पुत्रवत् अपनी शरण में आनेवाली आत्मा के प्रेम का प्रत्युत्तर देता है ।

 

   ज्यों ही हम इन फलितार्थों तथा इनके गढ़तर आध्यात्मिक मर्म में भली-भांति प्रवेश करते हैं त्यों ही ईश्वर-भय-रूपी हेतु तुच्छ और थोथा ही नहीं, असंभव भी हो जाता है । यह मुख्यतः नैतिक क्षेत्र में महत्त्व रखता है जब कि आत्मा अभी सदाचार के लिये सदाचार का पालन करने को पर्याप्त विकसित नहीं होती और उसे अपने ऊपर किसी अधिकारी की आवश्यकता होती है जिसके कोप या जिसके कठोर निष्पक्ष निर्णय का उसे भय हो और फिर उस भय को वह अपनी सत्कर्मनिष्टा का आधार बना सके । जब हम आध्यात्मिकता में विकसित होने लगते हैं तब यह प्रेरक फिर और नहीं टिक सकता, इसके सिवाय कि मन में कुछ भ्रांति ढिलमिलाती रहे, पुरानी मनोवृत्ति कुछ समय अड़ी रहे । अपिच, योग में नैतिक लक्ष्य पुण्यविषयक स्थूल भावना के लक्ष्य से भिन्न है । साधारणत:, नीतिशास्त्र सत्कर्म की एक प्रकार की मशीनरी समझा जाता है, कर्म ही सब कुछ है और सारा प्रश्न एवं सारा झगड़ा यही है कि सत्कर्म करना कैसे चाहिये । परन्तु योगी के लिये कर्म का महत्त्व मुख्यतः कर्म के लिये नहीं, बल्कि आत्मा के ईश्वर की ओर विकास के साधन के रूप में है । अतएव, भारतीय अध्यात्मशास्त्र् करणीय कर्म के गुण पर उतना बल नहीं देता जितना कि कर्म के मूल स्रोत-रूप आत्मा के गुण पर, उसकी सत्यता, निर्भयता, पवित्रता, प्रीति, करुणा एवं हितेच्छा पर, अनिष्ट कामना के अभाव पर और इन गुणों के प्रवाहरूप कर्मों पर । यह पुराना पश्चिमी विचार कि 'मानव प्रकृति स्वभाव से ही बुरी है और पुण्य कर्म हमारी पतित प्रकृति के प्रतिकूल होते हुए भी अनुसरणीय है', प्राचीन काल से ही योगियों की विचारधारा में अभ्यस्त भारतीय मनोवृत्ति के विपरीत है । हमारी प्रकृति में, प्रचण्ड राजसिक और निम्नमुख तामसिक गुण के साथ-साथ, शुद्धतर सात्त्विक अंश भी है और इसे,-प्रकृति के इस उच्चतम अंग को,--प्रोत्साहित करना ही नीति-शास्त्र का कर्तव्य है । इसके द्वारा हम अपने अन्दर की दैवी प्रकृति को बढ़ाकर आसुरिक एवं पैशाचिक तत्त्वों सें छुटकारा प्राप्त करते हैं । इसलिये ईश्वर-भीरु मनुष्य का यहूदियों का-सा सदाचार नहीं, बल्कि सन्त तथा ईश्वरप्रेमी की पवित्रता, प्रेम, परोपकार, सत्य, निर्भयता, अहिंसा ही इस मत के अनुसार नैतिक विकास का आदर्श है । अधिक व्यापक रूप में कहें तो, दैवी प्रकृति में विकसित होना ही हमारी नैतिक सत्ता की परिपूर्णता है । यह सर्वोत्तम रूप में इस प्रकार किया जा सकता है कि हम

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ईश्वर को अपनी उच्चतर आत्मा, मार्गदर्शक और उन्नायक चिति-शक्ति या अपने प्रेम और सेवा का पात्र परम स्वामी अनुभव करें । उससे भय नहीं, बल्कि उससे प्रेम और उसको सत्ता की स्वतन्त्रता तथा नित्य पवित्रता के प्रति अभीप्सा ही हमारा प्रेरकभाव होना चाहिये ।

 

   अवश्य ही, स्वामी और सेवक के तथा पिता और पुत्र के सम्बन्धों में भी भय आ घुसता है, परन्तु केवल तभी जब वे मानवी स्तर पर होते हैं, जब उनमें शासन, नियन्त्रण और दण्ड की प्रधानता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है और प्रेम अपने-आपको थोड़ा-बहुत प्रभुत्व के पर्दे के पीछे आच्छादित कर लेने को बाध्य होता है । स्वामी के रूप में भी भगवान् किसी मनुष्य को दण्ड नहीं देते, धमकाते नहीं, आज्ञा-पालन के लिये दबाव नहीं डालते । यह तो मानव आत्मा का ही कर्तव्य है कि वह स्वतन्त्रतापूर्वक भगवान् की शरण में आये और अपने-आपको इसकी अभिभावक शक्ति के प्रति अर्पित करे, ताकि यह उसे अपने अधिकार में लाकर अपने ही दिव्य स्तरों की ओर उठा ले जाये और अनन्त द्वारा सान्त प्रकृति पर प्रभुत्व का तथा सर्वोच्च देव की सेवा का हर्ष प्रदान करे । इसी हर्ष के द्वारा अहंकार तथा निम्नतर प्रकृति से छुटकारा प्राप्त होता है । इस सम्बन्ध की कुंजी है प्रेम, और भारतीय योग में यह सेवा या दास्य, दिव्य सखा की सुमधुर सेवा या दिव्य प्रियतम की सरस सेवा ही है । सर्वलोकमहेश्वर गीता में अपने सेवक, अपने भक्त से केवल यहीं चाहता है कि तुम जीवन में मेरे निमित्तमात्र बनो, बस और कुछ नहीं; यह मांग वह सखा, मार्गदर्शक, उच्चतर आत्मा के रूप में करता है और कहता है कि मैं सभी लोकों का स्वामी हूं तथा सब प्राणियों का सखा, 'सर्वलोकमहेश्वरं सुहृदं सर्वभूतानामू'; असल में दोनों सम्बन्ध साथ-साथ चलते हैं और इनमेंसे कोई भी दूसरे के बिना पूर्ण नहीं हो सकता । इसी प्रकार हमारे प्रेममय पिता के रूप में ही ईश्वर हमें योगलभ्य प्रगाढ़तर आत्म-मिलन की ओर ले चलता है, हमारे उत्पादक पिता के रूप में नहीं, जो हमसे सेवा की मांग इसलिये करता है कि वह हमारी सत्ता का रचयिता है । दोनों में प्रेम ही वास्तविक कुंजी है, पूर्ण प्रेम में भयरूपी प्रेरक भाव का प्रवेश असंगत है । मानव आत्मा की भगवान् के साथ समीपता ही लक्ष्य है, भय सदा आवरण और दूरी पैदा करता है, यहांतक कि भागवत शक्ति के लिये सम्भ्रम और सम्मान का भाव भी दूरी और भेद का चिह्न है और प्रेम के मिलन की घनिष्ठता में ये सब लुप्त हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त, भय निम्नतर प्रकृति की, निम्नतर स्व की चीज है । उच्चतर आत्मा के पास जाते हुए इसे अलग कर देना होगा, तभी हम उसका सामीप्य लाभ कर सकेंगे ।

 

   दिव्य पिता का यह सम्बन्ध और जगन्माता आत्मशक्ति के रूप में भगवान् के साथ निकटतर सम्बन्ध एक अन्य प्रारम्भिक धार्मिक प्रेरक भाव से निकले हैं । गीता कहती है, एक प्रकार का भक्त वह होता है जो भगवान् की शरण में इस भाव से

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जाता है कि वह मेरा इष्टफलदाता, मंगलकारी तथा मेरी बाह्यान्तर सत्ता की आवश्यकताएं पूरी करनेवाला है । भगवान् कहते हैं, ''अपने भक्त के योगक्षेम का भार मैं वहन करता हूं योगक्षेम वहाम्यहम् ।'' मनुष्य का जीवन उसकी शारीरिक एवं प्राणिक सत्ता में नहीं, अपितु उसकी मानसिक एवं आध्यात्मिक सत्ता में भी आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं का और अतएव, कामनाओं का जीवन है । जब उसे यह ज्ञान होता है कि एक महत्तर शक्ति संसार का संचालन कर रही है तब वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये, अपनी विषम यात्रा में सहायता के लिये, अपने संघर्ष में रक्षा तथा आश्रय प्राप्त करने के लिये प्रार्थना द्वारा उसकी शरण लेता है । प्रार्थना द्वारा भगवान् की ओर साधारण धार्मिक पहुंच, अपनेको भगवान् की ओर मोड़ देने के लिये यह प्रार्थनारूपी विधि हमारी धार्मिक सत्ता का मौलिक प्रयत्न है और एक सार्वभौम सत्य पर स्थित है भले ही इसमें कितनी भी अपूर्णताएं क्यों न हों, और सचमुच अनेक अपूर्णताएं हैं ही, विशेषकर वह वृत्ति जो मानती है कि भगवान् को प्रशंसा, अनुनय-विनय और उपहारों से रिझाकर, रिश्वत देकर, उसकी चापलूसी करके उसकी अनुमति या अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है और प्रायः उस भावना का कुछ आदर नहीं करती जिसे लेकर मनुष्य भगवान् के पास जाता है ।

 

   प्रार्थना के प्रभाव को प्रायः सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है और स्वयं प्रार्थना अयुक्तियुक्त एवं निश्चितरूपेण निरर्थक तथा निष्फल चीज समझी जाती है । यह ठीक है कि वैश्व संकल्प सदैव अपने लक्ष्य को ही कार्यान्वित करता है और व्यक्ति के अहं की स्वार्थपूर्ण स्तुति एवं

प्रार्थना से पथभ्रष्ट नहीं हो सकता, यह सच है कि जो परात्पर पुरुष विश्व-विधान में अपने-आपको व्यक्त करता है वह सर्वज्ञ होने के कारण अपने बृहत्तर ज्ञान से अपना कर्तव्य-कर्म अवश्यमेव पहले से ही जान लेता है और उसे मानव विचार के द्वारा मार्गनिर्देश या प्रेरणा प्राप्त करने की जरूरत नहीं, और किसी भी जगद्व्यवस्था में व्यक्ति की कामनाएं सच्चा निर्धारक तत्त्व नहीं हैं और न हो सकती हैं । परन्तु यह व्यवस्था या वैश्व संकल्प की सिद्धि निरे यांत्रिक नियम से नहीं, बल्कि कुछ एक शक्तियों एवं बलों के द्वारा कायान्वित होती है । उन शक्तियों एवं बलों में से, कम-से-कम मानव-जीवन के लिये, मानव संकल्प, अभीप्सा और श्रद्धा कुछ कम महत्त्व की नहीं । प्रार्थना उस संकल्प, अभीप्सा और श्रद्धा का एक विशेष रूपमात्र है । प्रार्थना के ढंग अनेक बार अधकचरे होते हैं और केवल बालसदृश ही नहीं,--जो अपने-आपमें कोई दोष नहीं है,--बल्कि बालिश भी होते हैं; परन्तु फिर भी इसमें एक वास्तविक शक्ति और अर्थ है । इसका बल और मर्म है-मनुष्य के संकल्प, अभीप्सा और श्रद्धा का दैवी संकल्प के साथ सम्बन्ध जोड़ना, इस भाव से कि वह दिव्य संकल्प चिन्मय पुरुष का संकल्प है जिसके साथ हम अनेकविध सचेतन और सजीव सम्बन्ध स्थापित कर

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सकते हैं । हमारा संकल्प और अभीप्सा हमारे अपने बल-पुरुषार्थ से भी कार्य कर सकते हैं और वह बल-पुरुषार्थ, निश्चय ही, चाहे निम्नतर और चाहे उच्चतर उद्देश्यों के लिये महान् एवं प्रभावपूर्ण वस्तु हो सकता है, --ऐसे अभ्यासक्रम कितने ही हैं जो कहते हैं कि एकमात्र इसी शक्ति का प्रयोग करना चाहिये । अथवा हमारा संकल्प एवं अभीप्सा भागवत या वैश्व संकल्प के आश्रय पर या उसकी अधीनता में भी कार्य कर सकते हैं । इस पिछली विधि में हम यह समझ सकते हैं कि भागवत संकल्प हमारी अभीप्सा को प्रत्युत्तर तो देता है, पर प्रायः यंत्रवत् शक्ति के एक प्रकार के नियम के अनुसार, या कम-से-कम सर्वथा निर्वैयक्तिक रूप में, अथवा हम यह मान सकते हैं कि वह मानव आत्मा की दिव्य अभीप्सा एवं श्रद्धा को सचेतन रूप में प्रत्युत्तर देता है और सचेतन रूप में ही इसे अभीष्ट सहायता, मार्गनिर्देश, रक्षा तथा सफलता प्रदान करता है, 'योगक्षेमं वहाम्यहमू ।'

 

  प्रारम्भ में प्रार्थना निम्न स्तर पर भी हमारे लिये इस सम्बन्ध को तैयार करने में सहायता पहुंचाती है । पर इस अवस्था में, हमारे अन्दर जो बहुत-सी चीजें निरे अहंकार और आत्म-प्रवच्चना से भरी होती हैं उनके साथ भी यह ताल मिलाये रहती है; तो भी आगे चलकर हम इसके मूल में निहित आध्यात्मिक सत्य की ओर बढ़ सकते हैं । इसलिये मुख्य वस्तु है इस प्रकार का साक्षात् सम्बन्ध, मनुष्य-जीवन का ईश्वर से सम्पर्क, सचेतन आदान-प्रदान, न कि प्रार्थित वस्तु की प्राप्ति । आध्यात्मिक विषयों में और आध्यात्मिक सम्पत्ति की खोज में यह सचेतन सम्बन्ध महान् शक्ति है; यह हमारे पूर्णत: आत्म-निर्भर संघर्ष एवं प्रयास से अधिक महत्तर शक्ति है और इसके द्वारा पूर्णतर आध्यात्मिक उन्नति एवं अनुभूति प्राप्त होती है । अवश्य ही अन्त में प्रार्थना या तो उस महत्तर वस्तु में जाकर समाप्त हो जाती है जिसके लिये इसने हमें तैयार किया था (असल में जबतक हमारे अन्दर श्रद्धा, संकल्प, अभीप्सा हैं तबतक इनका प्रार्थना-नामक रूप अपने-आपमें कुछ आवश्यक नहीं) अथवा यह केवल सम्बन्ध के हर्ष के लिये ही बनी रहती है । इसके उद्देश्य, इसके काम्य पदार्थ (अर्थ) भी उत्तरोत्तर ऊंचे-से-ऊंचे होते जाते हैं; फलत: अन्त में हम सर्वोच्च अहेतुकी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं जो अन्य किसी मांग या लालसा से रहित शुद्ध एवं सरल दिव्यप्रेम-रूपा भक्ति होती है ।

 

   भगवान् के प्रति ऐसा भाव रखने से दो प्रकार के सम्बन्ध उत्पन्न होते हैं, दिव्य पिता और माता का पुत्र से सम्बन्ध और दिव्य सखा का सम्बन्ध । मानव आत्मा भगवान् को माता-पिता या सखा मानकर उसके पास सहायता के लिये, रक्षा के लिये, मार्गदर्शन के लिये, इष्टफल के लिये पहुंचती है,--अथवा यदि इसका लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना हो तो यह उसे गुरु, शिक्षक, प्रकाशदाता मानकर शरण में जाती है, क्योंकि भगवान् ज्ञान-सूर्य हैं,--अथवा वह दुःख-दर्द के समय सुख-शान्ति और मुक्ति के लिये भगवान् के पास पहूंचती है, भले ही यह स्वतः दुःख से मुक्ति

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चाहती हो या इस दुःख--धाम जगत्-जीवन से अथवा इसके सभी भीतरी और असली कारणों से । इन चीजों में हम एक विशेष प्रकार का क्रम पाते हैं । पिता का सम्बन्ध सदा ही कम निकट, तीव्र, स्निग्ध और अन्तरङग होता है, अतएव योग में इसका आश्रय कम ही लिया जाता है, क्योंकि योग चाहता है घनिष्ठ मिलन । दिव्य सखा का सम्बन्ध अधिक मधुर और अधिक अन्तरंग वस्तु है । इसमें असमानता के अन्दर भी समानता और घनिष्ठता के लिये अवकाश है, पारस्परिक आत्मदान प्रारम्भ करने की गुंजायश है, अपने अत्यन्त घनिष्ठ रूप में, जब अन्य प्रकार के लेन-देन का विचारमात्र लुप्त हो जाता है, जब यह सम्बन्ध प्रेमरूपी एकमात्र अनन्य सुपर्याप्त हेतु के सिवा अन्य हेतुओं से रहित हो जाता है तो यह जीवन-लीला के साथी के स्वतन्त्र और सुखद सम्बन्ध का रूप धारण कर लेता है । परन्तु माता-पुत्र का सम्बन्ध और भी अधिक निकट तथा अन्तरङ्ग है अतएव जहां धार्मिक उमंग अत्यन्त समृद्ध उल्लास से युक्त होती है वहां यह बहुत बड़ा भाग लेता है और मनुष्य के हृदय से अत्यन्त उत्साहपूर्वक उमड़ पड़ता है । आत्मा अपनी सभी कामनाओं और कष्टों में मातृस्वरूप आत्मा के पास जाती है और भगवती माता चाहती है कि ऐसा ही हो ताकि वह अपना प्रेममय हृदय उंडेल सके । आत्मा उसकी ओर इसलिये भी मुड़ती है कि इस प्रेम का स्वयंसिद्ध स्वभाव ही ऐसा है और इसलिये भी कि यह प्रेम हमें एक ऐसे घर का संकेत करता है जिसकी ओर हम जगत् में भटक चुकने के बाद मुड़ते हैं और एक ऐसे हृदय की ओर इंगित करता है जिसमें हम विश्राम पाते हैं ।

 

   परन्तु सबसे ऊंचा और सबसे महान् सम्बन्ध तो वह है जो साधारण धार्मिक प्रेरक भावों में से किसी से भी प्रारम्भ नहीं होता, वरन् जो योग के असली सारतत्त्व से युक्त होता है तथा स्वयं प्रेम के निज स्वभाव से ही उद्भूत होता है; वह है प्रेमी तथा प्रियतम का अनुराग; जहां कहीं आत्मा को ईश्वर से पूर्ण मिलन की अभिलाषा होती है वहां दिव्य उत्कण्ठा का यह रूप उन धर्मों में भी अपना मार्ग बना लेता है जो वैसे इसके बिना काम चलाते दीखते हैं और अपनी साधारण प्रणाली में इसे कोई स्थान नहीं देते । यहां एकमात्र प्रार्थित वस्तु है प्रेम, एकमात्र भयजनक वस्तु है प्रेम का विलोप । एकमात्र दुःख है प्रेम के वियोग का दुःख, क्योंकि और सब चीजें या तो प्रेमी के लिये अस्तित्व नहीं रखतीं अथवा वे उसके सामने प्रेम के प्रसंगों या फलों के रूप में ही उपस्थित हो सकती हैं न कि प्रेम के विषयों या अवस्थाओं के तौर पर । वास्तव में, प्रेममात्र अपने स्वरूप से ही स्वयंसत् है, क्योंकि इसका मूलस्रोत किन्हीं दो आत्माओं में सत्ता की गुप्त एकता और उनके हृदय में उस एकता की अनुभूति या एकता की आकांक्षा ही होती है; हां, वे आत्माएं फिर भी

 

गीता में जो चार प्रकार के भक्त माने गये हैं, ये उन्हीमें से तीन हैं, आर्त्त (दुःखित), अर्थार्थी (अपने लिये भोग्य पदार्थो की कामना करनेवाला), जिज्ञासु (ईश्वर-ज्ञान का अभिलाषी) ।

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अपनेको एक-दूसरे से पृथक् और विभक्त समझने में समर्थ होती हैं । अतएव, ये सब सम्बन्ध भी केवल प्रेम के ही लिये सत्ता के स्वयंसिद्ध अहैतुक आनन्दतक पहुंच सकते हैं । फिर भी वे अन्य प्रेरक भावों से ही शुरू होते हैं और कुछ अंशों में वे अन्ततक उन्हीमें अपनी क्रीड़ा का थोड़ा-बहुत सुख प्राप्त करते हैं । किन्तु यहां प्रेम ही प्रारम्भ है और प्रेम ही अन्त, और सम्पूर्ण लक्ष्य भी प्रेम ही है । यह ठीक है कि स्वत्व-स्थापन की कामना भी वहां होती है, पर स्वयं-सत् प्रेम की परिपूर्णता में यह भी पराजित हो जाती है और भक्त की अन्तिम अभिलाषा यही होती है कि उसकी भक्ति न तो समाप्त हो और न ही न्यून । यह स्वर्ग की या जन्म-मरण से छुटकारे की या किसी और पदार्थ की कामना नहीं करता, वह बस यही चाहता है कि उसका प्रेम नित्य और अविच्छिन्न हो ।

 

   प्रेम एक भाव है और इसे दो चीजों की चाह होती है--नित्यता और तीव्रता की । प्रेमी और प्रियतम के सम्बन्ध में ही नित्यता और तीव्रता की यह चाह सहज और स्वाभाविक होती है । प्रेम है परस्पर स्वत्व-स्थापन की चाह, प्रेम-सम्बन्ध में ही यह स्वत्व-स्थापन की अभिलाषा चरम सीमा को पहुंचती है । स्वत्व-स्थापन की कामना का मतलब है दुईका भाव, पर इस कामना को पार करके प्रेम रह जाता है एकत्व की चाह, इस प्रेम-सम्बन्ध में ही एकत्व का विचार, यह विचार कि दो आत्माएं एक-दुसरे में निमज्जित होकर एक हो जाती हैं, अपनी उत्कण्ठा की पराकाष्ठा और अपनी तृप्ति की पूर्णता प्राप्त करता है । साथ ही प्रेम है सौन्दर्य की लालसा, यह लालसा इस प्रेम-सम्बन्ध में ही सर्व-सुन्दर का साक्षात्कार, स्पर्श और हर्ष प्राप्त कर नित्य-तृप्ति लाभ करती है । प्रेम है आनन्द का शिशु और अन्वेषक, इस प्रेम-सम्बन्ध में ही यह हृदय की चेतना के और साथ ही सत्ता के रोम-रोम के उच्चतम सम्भव आनन्द में विभोर हो उठता है । इसके अतिरिक्त, यह ऐसा सम्बन्ध है जो जैसे मनुष्य और मनुष्य के बीच में वैसे ही यहां भी अधिक-से-अधिक की याचना करता है और महत्तर तीव्रताओंतक पहुंचकर भी कम-से-कम सन्तुष्ट होता है, क्योंकि यह अपनी सच्ची और पूरी तृप्ति तो केवल भगवान् में ही प्राप्त कर सकता है । अतएव, सबसे अधिक इस सम्बन्ध में ही मनुष्य अपने भावों को ईश्वर की ओर मोड़कर उनकी पूर्ण सार्थकता अनुभव करता है और उस समस्त सत्य को उपलब्ध कर लेता है जिसका कि मानवी प्रतीक है प्रेम; उसकी सभी तात्त्विक सहज-प्रेरणाएं दिव्य, उदात्त होकर आनन्द में तृप्त हो जाती हैं । उस आनन्द से ही हमारा जीवन उत्पन्न दुआ था और उसीमें यह एकत्व के द्वारा लौट जाता है--दिव्य सत्ता के उस आनन्द में जहां प्रेम निरतिशय, नित्य और विशुद्ध है । 

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