योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १७

 

भागवत शक्ति की क्रिया

 

भागवत शक्ति का यह स्वरूप ही है कि वह भगवान् की एक ऐसी कालातीत शक्ति है जो काल के भीतर अपने-आपको एक वैश्व शक्ति के रूप में प्रकट करती है । यह वैश्व शक्ति विश्व का सृजन, गठन तथा धारण करती है तथा उसकी समस्त गतियों और क्रियाओं का परिचालन करती है । यह पहले-पहल हमें सत्ता के निम्नतर स्तरों पर एक मानसिक, प्राणिक और भौतिक विश्व-शक्ति के रूप में दिखायी देती है और हमारी समस्त मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक क्रियाएं इसी प्रकृतिगत विश्व-शक्ति के व्यापार दीख पड़ती हैं । हमारी साधना के लिये यह आवश्यक है कि हम इस सत्य को पूर्णतया हृदयंगम करें ताकि हम सीमाकारी अहं-दृष्टि के दबाव से मुक्त हो सकें और इन निम्नतर स्तरों पर भी, जहां साधारणत: अहं पूरी शक्ति के साथ शासन करता है, अपने-आपको विश्वमय बना सकें । यह देखना कि कार्य के आरम्भकर्त्ता हम नहीं हैं बल्कि वस्तुत: यह शक्ति ही हमारे तथा अन्य सबके अन्दर कार्य करती है, कर्त्ता मैं तथा दूसरे नहीं बल्कि एका प्रकृति ही है, -जो कि कर्मयोग का नियम है, -यहां भी यथार्थ नियम है । अहंबुद्धि सीमा, पार्थक्य और तीव्र विभेद उत्पन्न करने तथा व्यक्तिगत रूप का अधिकतम लाभ उठाने के काम में आती है और यहां उसका अस्तित्व इसलिये है कि वह निम्नतर जीवन के विकास के लिये अनिवार्य है । परन्तु जब हम इसके ऊपर उच्चतर दिव्य जीवन की ओर उठना चाहेंगे तब हमें अहं की शक्ति की गांठ को ढीला करना और अन्त में उससे छुटकारा पाना होगा-जैसे निम्नतर जीवन के लिये अहं का विकास अनिवार्य है वैसे ही उच्चतर जीवन के लिये अहं के उन्मूलन की यह विपरीत गति अनिवार्य रूप से आवश्यक है । यदि हम अपने कार्यों को यूं देखें कि ये हमारे अपने नहीं हैं बल्कि चेतन सत्ता के निम्नतर स्तरों पर अपरा प्रकृति के रूप में कार्य करती हुई भागवत शक्ति के हैं तो इससे उक्त परिवर्तन में बड़ी भारी सहायता प्राप्त होती है । यदि हम ऐसा कर सकें तो हमारी मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक चेतना का दूसरे मनुष्यों की ऐसी ही चेतना से पार्थक्य क्षीण होकर कम हो जाता है; निःसन्देह उसकी क्रियाओं की अपूर्णताएं अभी बनी रहती हैं, पर वे विस्तारित होकर वैश्व क्रिया की व्यापक भावना एवं दृष्टि में उन्नीत हो जाती हैं; विश्वप्रकृति के विशेषक और व्यक्तित्वजनक प्रभेद अपने विशिष्ट प्रयोजनों के लिये बने रहते हैं, पर वे अब पहले की तरह बन्धनकारक नहीं रहते । व्यक्ति समस्त भेदों के होते हुए भी अपने मन, प्राण और देहसत्ता को दूसरों के मन-प्राण-शरीर के साथ तथा प्रकृतिगत आत्मा की समग्र शक्ति के साथ एकीभूत अनुभव करता है ।

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  परन्तु यह एक बीच की भूमिका है, समग्र पूर्णता नहीं । चाहे हमारी सत्ता अपेक्षाकृत विशाल और मुक्त हो गयी है पर वह अभी भी निम्नतर प्रकृति के अधीन है । सात्त्विक, राजसिक और तामसिक अहं कम हो गया है पर नष्ट नहीं हुआ है; अथवा यदि वह लुप्त होता प्रतीत होता है, तो वह हमारे क्रियाशील अङ्गों में गुणों की सार्वभौम क्रिया में केवल दबभर गया है, उनके अन्दर अवगुण्ठित रूप में स्थित है और प्रच्छन्न या अवचेतन ढंग से अभी भी कार्य कर रहा है तथा किसी भी समय बलपूर्वक सामने आ सकता है । अतएव साधक को सर्वप्रथम इन सब क्रियाओं के पीछे अवस्थित एकमेव सर्वगत पुरुष या आत्मा का विचार बनाये रखना होगा तथा उसका साक्षात्कार प्राप्त करना होगा । उसे प्रकति के पीछे एकमेव, परमोच्च और विश्वव्यापी पुरुष के प्रति सचेतन होना होगा । उसे केवल यही नहीं देखना और अनुभव करना होगा कि सब कुछ एका शक्ति या प्रकृति का आत्म-रूपायन है, बल्कि उसकी सब क्रियाएं भी सर्वगत भगवान् की, सबमें अवस्थित एकमेव देवाधिदेव की क्रियाएं हैं, चाहे वे अहंभाव और गुणों में से गुज़रकर प्रकट होने के कारण कितनी ही आवृत, परिवर्तित और मानों विकृत क्यों न हो गयी हों-क्योंकि निम्नतर रूपों में परिवर्तित होने से ही विकृति उत्पन्न होती है । यह अनुभव अहं के प्रकट या प्रच्छन्न आग्रह को और भी कम कर देगा और यदि इसे पूर्णरूपेण उपलब्ध किया जाये तो उसके परिणामस्वरूप अहं के लिये अपनी सत्ता को इतने बलपूर्वक स्थापित करना कि आगे की उन्नति में विघ्न-बाधा उपस्थित हो जाये, कठिन या असम्भव हो जायेगा । अहं-बुद्धि जहांतक अपना हस्तक्षेप करेगी भी वहांतक वह एक विजातीय आक्रमणकारी तत्त्व का रूप धारण कर लेगी और चेतना तथा उसकी क्रिया के बाहरी आचलों के साथ लटक रहे पुराने अज्ञान की कुहेलिका का सिरामात्र रह जायेगी । और, दूसरे, वैश्व शक्ति को उसकी उच्चतर क्रिया तथा अतिमानसिक एवं आध्यात्मिक कार्यावलि के शक्तिशाली पवित्र रूप में उपलब्ध करना होगा, उसका साक्षात्कार एवं अनुभव करके उसे अपने अन्दर धारण करना होगा । शक्ति का यह महत्तर साक्षात्कार हमें ऐसी सामर्थ्य प्रदान करेगा कि हम गुणों के नियन्त्रण से मुक्त हो सकेंगे, तथा उन्हें उनके दिव्य प्रतिरूपों में बदलकर एक ऐसी चेतना में निवास कर सकेंगे जिसमें पुरुष और प्रकृति एक हैं और पृथक् अथवा एक-दूसरे में या एक-दूसरे के पीछे छुपे हुए नहीं हैं । वहां शक्ति अपनी प्रत्येक गति में हमारे सामने प्रत्यक्ष होगी और सहज, स्वाभाविक तथा अदम्य रूप में यूं अनुभूत होगी कि वह भगवान् की सक्रिय उपस्थिति के सिवा किंवा परमोच्च पुरुष और आत्मा के शक्त्यात्मक स्वरूप के सिवा और कुछ नहीं है ।

 

  इस उच्चतर भूमिका में भागवत शक्ति अनन्त सत्ता, चेतना, संकल्प एवं आनन्द की उपस्थिति या गुप्त शक्ति के रूप में प्रकट होती है और जब उसका इस प्रकार

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साक्षात्कार एवं अनुभव प्राप्त होता है तो व्यक्ति किसी भी प्रकार से, अपनी आराधना या अभीप्सा-रूपी संकल्प के द्वारा या महत्तर सत्ता के प्रति क्षद्र्तर सत्ता के किसी प्रकार के आकर्षण के द्वारा उसकी ओर मुड़ता है ताकि वह उसे जानकर उससे पूर्ण और अधिकृत हो सके तथा सम्पूर्ण प्रकृति के ज्ञानात्मक और क्रियाशील रूप में उसके साथ एक हो सके । परन्तु शुरू-शुरू में जब कि हम अभी मन में रहते हैं तो विभाजन की एक खाई या फिर एक दोहरी क्रिया बनी ही रहती है । हम में और विश्व में जो मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक शक्ति है वह परमोच्च शक्ति से उत्पन्न अनुभूत होती है, पर साथ ही वह एक निम्न, पृथग्भूत और, किसी अर्थ में, एक अन्य ही क्रिया जान पड़ती है । वास्तविक आध्यात्मिक शक्ति अपने सन्देशों को या हमारे ऊपर अवस्थित अपनी उपस्थिति की ज्योति और शक्ति को नीचे के स्तरों पर भेज सकती है अथवा कभी-कभी अवतरित हो सकती है और कुछ समय के लिये उन्हें अधिकृत भी कर सकती है किंतु तब वह निम्न-क्रियाओं के साथ मिल जाती है और उन्हें कुछ-कुछ रूपान्तरित करके आध्यात्मिक बना देती है, पर ऐसा करते हुए अपने-आप क्षीण और परिवर्तित हो जाती है । प्रकृति की एक उच्चतर क्रिया बीच-बीच में होती रहती है या फिर उच्च और निम्न दोनों प्रकार की क्रिया चलती रहती है । अथवा हम यह देखते हैं कि शक्ति हमारी सत्ता को कुछ समय के लिये उच्चतर आध्यात्मिक स्तरतक उठा ले जाती है और उसके बाद उसे पुनः निम्नतर स्तरों में उतार लाती है । बारी-बारी से आनेवाली इन अवस्थाओं को सामान्य सत्ता से आध्यात्मिक सत्ता में रूपान्तर की प्रक्रिया के स्वाभाविक उतार-चढ़ाव समझना चाहिये । पूर्णयोग के लिये यह रूपान्तर या सिद्धि तबतक पूर्ण नहीं हो सकती जबतक मानसिक और आध्यात्मिक क्रिया के बीच कड़ी स्थापित न हो जाये और हमारी सत्ता के समस्त कार्य-कलाप पर उच्चतर ज्ञान का प्रयोग न किया जाये । वह कड़ी है अतिमानसिक या विज्ञानमय शक्ति जिसमें परमोच्च सत्ता, चेतना और आनन्द की अनन्त, अपरिमेय शक्ति एक व्यवस्थाकारी, दिव्य संकल्प और प्रज्ञा के रूप में या सत्ता की एक ज्योति एवं शक्ति के रूप में अपने-आपको गठित करती है । यह संकल्प एवं प्रज्ञा या ज्योति एवं शक्ति हमारे समस्त चिन्तन, संकल्प, वेदन और कर्म को रूप देती है तथा चिन्तन आदि से सम्बन्ध रखनेवाली वैयक्तिक चेष्टाओं का स्थान ले लेती है ।

 

   यह अतिमानसिक शक्ति स्वयं मन के अन्दर अपने-आपको आध्यात्मीकृत अन्तर्ज्ञानात्मक ज्योति और शक्ति के रूप में गठित कर सकती है, और इसकी यह क्रिया एक महान् आध्यात्मिक क्रिया होने पर भी मन के द्वारा सीमित होती है । अथवा यह मन को पूर्णतया रूपान्तरित करके समस्त सत्ता को अतिमानसिक स्तरतक उठा सकती है । जो भी हो, योग के इस भाग के लिये पहली आवश्यक शर्त है--कर्तृत्व के अहंकार का त्याग करना, अहं-बुद्धि का तथा इस भावना का

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 त्याग करना कि कर्म करने, कर्म का आरम्भ तथा उसके फल का नियमन करने की शक्ति मेरे अपने ही अन्दर विद्यमान है, और अपनी अहं-बुद्धि को इस बोध और साक्षात्कार में निमज्जित कर देना कि एक विराट् शक्ति है जो हमारे तथा दूसरों के कार्यों का एवं जगत् के सब व्यक्तियों और शक्तियों के कार्यों का आरम्भ करती है, उन्हें रूप देती तथा अपने उद्देश्यों के लिये प्रयुक्त करती है । यह साक्षात्कार हमारी सत्ता के सभी अंगों में पूर्ण और समग्र तभी बन सकता है यदि हम विराट् शक्ति का यह बोध और साक्षात्कार उसके सभी आकारों में, अपनी और विश्व की सत्ता के सभी स्तरों पर भगवान् की अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय शक्ति के रूप में प्राप्त कर सके । परन्तु इन सब को, सभी स्तरों की सभी शक्तियों को अनन्त सत्ता, चेतना और आनन्द से युक्त एक ही आध्यात्मिक शक्ति की आत्म-अभिव्यक्तियों के रूप में देखना और जानना होगा । यह कोई अपरिवर्तनीय नियम नहीं है कि इस शक्ति को पहले-पहल अपना प्रकाश निम्नतर स्तरों पर शक्ति के निम्न रूपों में करना चाहिये और अपनी उच्चतर आध्यात्मिक प्रकृति को बाद में ही प्रकट करना चाहिये । पर यदि यह पहले-पहल इस प्रकार ही अर्थात् अपने मानसिक, प्राणिक या भौतिक विश्व-रूप में ही प्रकट हो तो हमें सावधान रहना होगा कि हम उसीमें सन्तुष्ट न हो रहें । इसके स्थान पर यह एकदम अपनी उच्चतर वास्तविक सत्ता के रूप में, आध्यात्मिक वैभव की शक्ति के रूप में भी प्रकट हो सकतीं है । तब कठिनाई यह होगी कि इस शक्ति को सहन और धारण कैसे किया जाये जबतक कि यह हमारी सत्ता के निम्नतर स्तरों को अपने शक्तिशाली हाथों में लेकर उनकी सामर्थ्यों का रूपान्तर नहीं कर देती । कठिनाई उसी अनुपात में कम होगी जिसमें कि हम विशाल शान्ति और समता प्राप्त करने की और या तो एक ही सर्वगत, शान्त एवं अक्षर आत्मा का साक्षात्कार तथा अनुभव करने एवं उसमें निवास करने या फिर योग के दिव्य स्वामी के प्रति अपने-आपको सच्चे और पूर्ण रूप से समर्पित करने की सामर्थ्य पा चुके होंगे ।

 

   यहां भगवान् की उन तीन शक्तियों को सदा ध्यान में रखना आवश्यक है जो सभी प्राणियों मे विद्यमान हैं और जिन्हें विचार में लाना ही पड़ता है । अपनी साधारण चेतना में हम इन तीन को अपनी सत्ता अर्थात् अहं-रूप जीव, ईश्वर--उस ईश्वर के विषय में हमारी धारणा कोई भी क्यों न हो--और प्रकृति के रूप में देखते हैं । आध्यात्मिक अनुभव में हम ईश्वर को परम पुरुष या आत्मा के रूप में अथवा एक ऐसे अनन्त सत् के रूप में देखते हैं जिससे हम उत्पन्न होते हैं तथा जिसमें हम रहते-सहते और चलते-फिरते हैं । प्रकृति को हम उसकी शक्ति के रूप में या शक्तिस्वरूप ईश्वर एवं शक्तिगत परम आत्मा के रूप में देखते हैं जो हमारे तथा जगत् के अन्दर कार्य कर रहा है । तब जीव स्वयं यही पुरुष, आत्मा किंवा भगवान् होता है, सोऽहम् क्योंकि वह अपनी सत्ता और चेतना के सारतत्त्व मे

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उसके साथ-साथ एक होता है, किन्तु एक व्यक्ति के रूप में वह भगवान् का एक अंश, परम आत्मा की एक अंशात्मामात्र होता है, और अपनी प्रकृतिगत सत्ता में वह शक्ति का एक रूप, गतिमय और कार्यरत ईश्वर की एक शक्ति होता है, परा प्रकृतिर्जीवभूता । पहले-पहल, जब हम ईश्वर या शक्ति के प्रति सचेतन होते हैं तब, उनके साथ स्थापित होनेवाले हमारे सम्बन्ध में जो कठिनाइयां आती हैं वे उस अहं-चेतना से उत्पन्न होती हैं जिसे हम आध्यात्मिक सम्बन्ध के अन्दर ले आते हैं । हमारे अन्दर का अहं भगवान् के प्रति आध्यात्मिक मांग से भिन्न अन्य मांगें करता है, और ये मांगें एक अर्थ में ठीक होती हैं, पर जबतक तथा जिस हदतक वे अहंकारमय रूप धारण करती हैं तबतक तथा उस हदतक वे अत्यधिक स्थूलता और बड़े भारी विकारों की ओर खुली रहती हैं, असत्य, अवांछनीय प्रतिक्रिया और उसके परिणामभूत अशुभ के तत्त्व के भार से दबी रहती हैं, और ईश्वर या शक्ति के साथ हमारा सम्बन्ध सर्वथा उपयुक्त, सुखद और पूर्ण तभी बन सकता है जब ये मांगें आध्यात्मिक मांग का अंग बन जायें तथा अपना अहंकारमय रूप त्याग दें । वास्तव में हमारी सत्ता की भगवान् के प्रति मांग पूर्ण रूप से कृतार्थ तभी होती है जब वह मांग का रूप बिल्कुल त्याग देती है और इसके स्थान पर व्यक्ति के द्वारा होनेवाली भगवान् की पूर्ण चरितार्थता का रूप धारण कर लेती है, जब हम केवल इसीसे तृप्त होते हैं, जब हम सत्तागत एकत्व के आनन्द से सन्तुष्ट रहते हैं, अपने-आपको अपनी सत्ता के परम आत्मा और प्रभु के ऊपर छोड़ देने में सन्तोष मानते हैं ताकि उसकी पूर्ण प्रज्ञा और ज्ञान की जो इच्छा हो उसे वह हमारी अधिकाधिक पूर्णताप्राप्त प्रकृति के द्वारा क्रियान्वित करे । भगवान् के प्रति जीव के आत्म-समर्पण का यहीं आशय है । एकत्व का आनन्द प्राप्त करने की, भागवत चेतना, प्रज्ञा, ज्ञान, ज्योति, शक्ति तथा पूर्णता में भाग लेने की, अपने अन्दर दिव्य चरितार्थता से मिलनेवाली तृप्ति प्राप्त करने की इच्छा को आत्मसमर्पण बहिष्कृत नहीं करता, परन्तु वह इच्छा एवं अभीप्सा हमारी होती है क्योंकि वह हमारे अन्दर उसकी इच्छा होती है । आरम्भ में, जब हम में अपने व्यक्तित्व पर आग्रह करने की भावना अभीतक विद्यमान होती है तो हमारी इच्छा उसकी इच्छा को केवल प्रतिबिम्बित करती है पर इन दोनों में भेद करना उत्तरोत्तर अशक्य होता जाता है और हमारी इच्छा-शक्ति कम वैयक्तिक बनती जाती है और अन्त में इसकी पृथक्ता की समस्त छाया लुप्त हो जाती है, क्योंकि तब हमारे अन्दर की इच्छा--शक्ति दिव्य तपस् के साथ, अर्थात् दिव्य शक्ति की क्रिया के साथ एकमय हो चुकती है ।

 

   ठीक इसी प्रकार जब हम पहले-पहल अपने ऊपर या चारों ओर या भीतर अनन्त शक्ति के प्रति सचेतन होते हैं, हमारे अन्दर की अहं-बुद्धि की प्रवृत्ति उसपर अपना अधिकार स्थापित करने तथा इस बढ़ी हुई शक्ति को अपने अहंकारपूर्ण

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उद्देश्य के लिये प्रयुक्त करने की ओर होती है । यह एक अत्यन्त भयावह वस्तु है, क्योंकि यह अपने साथ एक महान् कभी-कभी तो एक दानवीय शक्ति की अनुभूति लाती है एवं उसकी किसी वृद्धिगत वास्तविक सत्ता का अनुभव भी कराती है, और राजसिक अहं, उस नयी अपरिमित शक्ति के इस अनुभव के आनन्द में मग्न होकर, उसके शुद्ध और रूपान्तरित होने की प्रतीक्षा करने के स्थान पर अपने-आपको एक दारुण एवं अपवित्र कर्म में झोंक सकता है और यहांतक कि हमें कुछ समय के लिये या आंशिक रूप से ऐसे स्वार्थपरायण एवं अहंकारी असुर में परिणत कर सकता है जो भगवत्प्रदत्त शक्ति को भगवान् के उद्देश्य के लिये नहीं बल्कि अपने स्वार्थपूर्ण प्रयोजन के लिये प्रयुक्त करता है : पर यदि इस पथ पर आग्रहपूर्वक अड़े रहा जाये तो इसमें अन्ततः आध्यात्मिक विनष्टि एवं भौतिक सर्वनाश निहित है । इससे बचने के एक उपाय के रूप में अपने-आपको भगवान् का एक यन्त्र समझना भी पूर्णतया प्रभावकारी नहीं होता; क्योंकि जब एक प्रबल अहंभाव इस विषय में हस्तक्षेप करता है तो वह आध्यात्मिक सम्बन्ध को मिथ्या रूप दे देता है और अपने-आपको भगवान् का यन्त्र बनाने की आड़ लेकर वस्तुत: इसके स्थान पर भगवान् को अपना यन्त्र बनाने पर तुला होता है । एकमात्र उपाय यह है कि हर प्रकार की अहंकारमय मांग को शान्त किया जाये, वैयक्तिक प्रयत्न एवं पृथक् व्यक्तिगत आयास को जिससे कि सात्विक अहंकार भी बच नहीं सकता, निरन्तर दृढ़तापूर्वक कम किया जाये । इसी प्रकार हमारे लिये अधिक अच्छा यह होगा कि शक्ति पर अधिकार स्थापित करके उसे अहं के उद्देश्य के लिये प्रयोग में लाने के स्थान पर हम उसे अपने ऊपर अधिकार स्थापित करने तथा भागवत उद्देश्य के लिये हमारा प्रयोग करने दें । ऐसा समर्पण तुरन्त ही पूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता--जिस शक्ति से हम सचेतन हुए हों वह यदि विश्वशक्ति का निम्नतर रूपमात्र हो तो ऐसा समर्पण सुरक्षित रूप से भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि तब, जैसा हम पहले कह चुके हैं, किसी अन्य नियन्त्रण का होना भी आवश्यक है, वह चाहे मनोमय पुरुष का हो या ऊपर की किसी शक्ति का, --किन्तु फिर भी यह एक ऐसा लक्ष्य है जो हमें अपने सामने रखना होगा और जिसे पूर्ण रूप से क्रियान्वित तभी किया जा सकता है जब हम भागवत शक्ति की उच्चतम आध्यात्मिक उपस्थिति एवं रूप के प्रति दृढ़-स्थिर रूप से सचेतन हो जायें । व्यक्तिगत सत्ता के सम्पूर्ण कार्यकलाप का दिव्य शक्ति के प्रति यह समर्पण भी वस्तुत: भगवान् के प्रति सच्चे आत्म-समर्पण का एक रूप है ।

 

   हम देख ही चुके हैं कि मनोमय पुरुष के लिये अपने-आपको पवित्र करने का अत्यन्त कार्यक्षम उपाय यह है कि वह पीछे की ओर हटकर निष्क्रिय साक्षी के रूप में स्थित हो जाये और अपने स्वरूप का तथा निम्नतर सामान्य सत्ता में प्रकृति की क्रियाओं का निरीक्षण करके ज्ञान प्राप्त करे; परन्तु पूर्णता लाभ करने के लिये इसके

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साथ विशुद्ध प्रकृति को उच्चतर आध्यात्मिक सत्ता में उठा ले जाने का संकल्प भी जोड़ देना होगा । जब ऐसा हो जाता है तब पुरुष केवल साक्षी न रहकर अपनी प्रकृति का स्वामी, ईश्वर भी बन जाता है । सम्भवतः आरम्भ में यह बात स्पष्ट नहीं लगेगी कि सक्रिय आत्म-प्रभुत्व के इस आदर्श को आत्मसमर्पण के तथा स्वेच्छापूर्वक भागवत शक्ति का यन्त्र बनने के आपात-विरोधी आदर्श के साथ कैसे समन्वित किया जा सकता है । पर सच पूछो तो आध्यात्मिक भूमिका में कोई भी कठिनाई नहीं होती, जीव जिस अनुपात में अपने ही परम आत्मा भगवान् के साथ एकत्व प्राप्त करता है उसी अनुपात में वह अपनी प्रकृति का स्वामी बन सकता है, इसके बिना वह वास्तव में स्वामी बन ही नहीं सकता । और उस एकत्व में तथा विश्व के साथ अपनी एकता में वह विराट् आत्मा के भीतर उस संकल्प-शक्ति के साथ भी एक होता है जो प्रकृति की सब क्रियाओं का संचालन करती है । पर अधिक प्रत्यक्ष रूप से, कम विश्वातीत रूप से, अपने व्यक्तिगत कर्म में भी वह भगवान् का एक अंश है, और जिसके प्रति उसने आत्मसमर्पण किया है, अपनी प्रकृति पर उसके प्रभुत्व में वह भी भाग लेता है । यन्त्र के रूप में भी वह एक जड़ (यान्त्रिक) नहीं बल्कि सचेतन यन्त्र है । अपने पुरुष-पक्ष में वह भगवान् के साथ एक है और ईश्वर के दिव्य प्रभुत्व में भाग लेता है । अपने प्रकृति-पक्ष में, वह अपनी विश्वमयता में भगवान् की शक्ति के साथ एकमय है, जब कि अपनी व्यक्तिगत प्राकृत सत्ता में वह विराट् भागवत शक्ति का एक यन्त्र है, क्योंकि व्यक्तिभावापन्न शक्ति यहां वैश्व शक्ति के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिये ही विद्यमान है । जैसा कि हम देख आये हैं, जीव भगवान् के द्विविध रूप, प्रक्रति और पुरुष, की लीला के लिये एक मिलन-स्थल है, और उच्चतर अध्यात्म-चेतना में वह इन दोनों रूपों के साथ युगपत् एकीभूत हो जाता है और वहां वह इनकी परस्पर-क्रिया के द्वारा उत्पन्न सभी दिव्य सम्बन्धों को अपनाकर समन्वित कर देता है । समन्वय के सत्य के कारण ही सत्ता की यह द्विविध स्थिति सम्भव होती है ।

 

  किन्तु मनोमय पुरुष की निष्क्रिय अवस्था में से गुजरे बिना एक ऐसे योग के द्वारा भी जो अधिक स्थिर और प्रबल रूप से क्रियाशील होता हैं, उक्त परिणाम प्राप्त किया जा सकता है । अथवा, इन दोनों विधियों को संयुक्त करना, बारी-बारी से अपनाना और अन्त में एक कर देना भी सम्भव हैं । और इस मार्ग में आध्यात्मिक कर्म की समस्या एक अधिक सरल रूप धारण कर लेती है । इस क्रियाशील साधना में तीन अवस्थाएं होती हैं । पहली में जीव परम शक्ति से सचेतन होता है, बल-सामर्थ्य अपने अन्दर ग्रहण करता है और उसके निर्देशानुसार इसका प्रयोग करता हैं, उसके अन्दर कुछ-कुछ यह भावना रहती है कि, गौण रूप से मैं भी कर्ता हूं कर्म में मेरा भी थोड़ा-सा दायित्व है, --यह भी सम्भव है कि आरम्भ में उसके अन्दर परिणाम के दायित्व की भावना भी हो; पर वह पीछे लुप्त

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हो जाती है, क्योंकि परिणाम एक उच्चतर शक्ति के द्वारा निर्धारित होता दिखायी देता है, और केवल कर्म ही कुछ अंश में अपना अनुभूत होता है । साधक को तब अनुभव होता है कि स्वयं वह ही विचार, संकल्प और कर्म कर रहा है, पर इन सबके पीछे वह उस भागवत शक्ति या प्रकृति को भी अनुभव करता है जो उसके समस्त विचार, संकल्प, भाव और कर्म का गठन और परिचालन करती है : व्यक्तिगत शक्ति एक प्रकार से उसकी सम्पदा है, किन्तु फिर भी वह विराट् दिव्य शक्ति का एक रूप और तन्त्रमात्र है । शक्ति के ईश्वर अपनी शक्ति की क्रिया के कारण कुछ समय के लिये उससे छुपे रह सकते हैं, अथवा वह ईश्वर का साक्षात्कार भी कर सकता है, जो कि उसके सामने कभी-कभी प्रकट होते हैं या निरन्तर प्रकट रहते हैं । ईश्वर-साक्षात्कार की अवस्था में उसकी चेतना में तीन तत्त्व उपस्थित रहते हैं, ईश्वर के सेवक के रूप में वह स्वयं, उसके पीछे अवस्थित महाशक्ति जो बल-सामर्थ्य प्रदान करती है, कार्य का गठन करती है तथा परिणामों की रचना करती है, उसके ऊपर अवस्थित ईश्वर जो अपने संकल्प से समस्त कार्य का निर्धारण करता है ।

 

  दूसरी अवस्था में व्यक्ति-रूप कर्त्ता लुप्त हो जाता है, पर किसी निवृत्तिमार्गीय निष्क्रियता का होना आवश्यक नहीं है; वहां पूर्ण राजसिक कर्म उपस्थित हो सकता है, पर, हां, सब कर्म किया जाता है शक्ति के द्वारा ही । उसकी ज्ञान-शक्ति ही हमारे मन में विचार का रूप धारण करती है; साधक को ऐसा भान बिल्कुल नहीं होता कि वह स्वयं विचार करता है, वरन् यह कि शक्ति ही उसके अन्दर विचार करती है । इसी प्रकार उसके संकल्प, भाव और कर्म भी शक्ति की एक ऐसी रचना, क्रिया एवं प्रवृत्ति के सिवा और कुछ नहीं जो इसकी साक्षात् उपस्थिति में और समस्त देह-संस्थान पर इसके पूर्ण अधिकार में सम्पन्न होती है । साधक स्वयं विचार, संकल्प, कर्म और वेदन नहीं करता, बल्कि विचार, संकल्प, वेदन और कर्म उसके आधार में घटित होते हैं । कर्म-रूपी पक्ष में व्यक्ति विराट् प्रकृति के साथ एकत्व में विलीन हो गया है, भागवत शक्ति का एक व्यक्तिभावापन्न रूप एवं व्यापार बन गया है । अपनी वैयक्तिक सत्ता के प्रति वह अब भी सचेतन होता है, पर इस रूप में कि वह एक पुरुष है जो सम्पूर्ण कार्य का धारण तथा निरीक्षण करता है, अपने आत्मज्ञान में उसके प्रति सचेतन है तथा अपने योगदान के द्वारा भागवत शक्ति को अपने अन्दर ईश्वर के कार्यों और संकल्प को पूर्ण करने के योग्य बनाता है । तब शक्ति का स्वामी कभी तो शक्ति की क्रिया के कारण छुपा रहता है, और कभी उसपर शासन करता तथा उसकी क्रियाओं को बलपूर्वक संचालित करता प्रतीत होता है । यहां भी चेतना के सामने तीन तत्त्व उपस्थित रहते हैं, एक तो, शक्ति जो एक करणात्मक मानव-आकार में ईश्वर के लिये समस्त ज्ञान, विचार, संकल्प, वेदन और कर्म का संचालन करती है, दूसरा, ईश्वर, अर्थात्

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सत्तामात्र का स्वामी जो उसके समस्त कर्म का नियमित तथा बलपूर्वक परिचालन करता है, और तीसरा, उसके व्यक्तिगत कर्म में अवस्थित अन्तरात्मा या पुरुष के रूप में हमारी अपनी सत्ता जो ईश्वर के साथ के उन सब सम्बन्धों का उपभोग करती है जिनकी उत्पत्ति प्रकृति के व्यापारों के द्वारा होती है । इस साक्षात्कार का एक और रूप भी है जिसमें जीव शक्ति में लय प्राप्त कर उसके साथ एक हो जाता है और तब केवल ईश्वर के साथ शक्ति की, महादेव और काली, कृष्ण और राधा किंवा देव और देवी की लीला ही शेष रह जाती है । जीव अपने-आपको प्रकृति की एक अभिव्यक्ति, भगवान् की निज सत्ता की एक शक्ति के रूप में जो अनुभव करता है, परा प्रकृतिर्जीवभूता, उसका जो तीव्र-से-तीव्र रूप हो सकता है, वह यही है ।

 

  तीसरी अवस्था हमारे समस्त अस्तित्व और कर्म में भगवान् किंवा ईश्वर की अधिकाधिक अभिव्यक्ति से प्राप्त होती है । यह तब आती है जब हमें निरन्तर और अविच्छिन्न रूप में उनका साक्षात्कार होता है । वे हमारे अन्दर हमारी सत्ता के स्वामी के रूप में और हमारे ऊपर उसकी समस्त क्रियाओं के नियामक के रूप में अनुभूत होते हैं और ये क्रियाएं हमारे लिये जीव की सत्ता में उनकी अभिव्यक्ति के सिवा और कुछ नहीं रह जातीं । हमारी समस्त चेतना उन्हींकी चेतना हो जाती है, हमारा समस्त ज्ञान उन्हींका ज्ञान, हमारा समस्त विचार उन्हींका विचार, हमारा समस्त संकल्प उन्हींका संकल्प, हमारा समस्त वेदन उन्हींका आनन्द और उनके सत्तागत आनन्द का रूप तथा हमारा समस्त कर्म उन्हीका कर्म बन जाता है । शक्ति और ईश्वर के बीच का भेद लुप्त होने लगता है; हमारे अन्दर भगवान् की एक सचेतन क्रियामात्र शेष रह जाती है; उस क्रिया के पीछे और चारों ओर भगवान् की महान् आत्म-सत्ता होती है जो उसे धारण कर रही होती है । समस्त सृष्टि एवं प्रकृति केवल भगवान् की एक सचेतन क्रिया के रूप में ही दिखायी देती है । पर यहां वह पूर्णत: सचेतन बन चुकी है, अहं की माया दूर हो गयी है, और जीव यहां उनकी सत्ता के एक सनातन अंश के रूप में ही विद्यमान है जिसे एक दिव्य वैयक्तिक रूपायण और जीवन का आधार बनने के लिये प्रकट किया गया है; यह रूपायण और जीवन अब भगवान् की पूर्ण उपस्थिति और शक्ति में चरितार्थ हो गये हैं; परम आत्मा का पूर्ण आनन्द हमारी सत्ता में प्रकट हो चुका है । सक्रिय एकता के पूर्णत्व और आनन्द का सर्वोच्च साक्षात्कार यही है; क्योंकि इसके परे तो अवतार की अर्थात् लीला में कार्य करने के लिये मानवीय नाम-रूप धारण करनेवाले साक्षात् ईश्वर की चेतना ही हो सकती है ।

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