योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १६

 

भागवती शक्ति

 

योग के इस भाग में हमें जिस अगली बात को ध्यानपूर्वक समझने की आवश्यकता है वह यह है कि आत्म-सिद्धियोग में मनुष्य की प्रगति के साथ-साथ पुरुष और प्रकृति का जो सम्बन्ध प्रकट होता है वह क्या है । जिस शक्ति को हम प्रकृति कहते हैं वह, हमारी सत्ता के आध्यात्मिक सत्य में, सत्ता, चेतना और संकल्प की शक्ति है अतएव आत्मा, अन्तरात्मा या पुरुष के आत्म-प्राकटय एवं आत्म-सर्जन की शक्ति है । परन्तु हमारे अज्ञानगत साधारण मन को तथा उसके वस्तुओं-विषयक अनुभव को प्रकृति की शक्ति इससे भिन्न रूप में दिखायी देती है । जब हम अपने से बाहर इसकी विश्वगत क्रिया पर दृष्टिपात करते हैं, तो पहले-पहल हम इसे विश्व में विद्यमान एक ऐसी यान्त्रिक शक्ति के रूप में देखते हैं जो जड़तत्त्व पर या स्वरचित जड़ात्मक रूपों के अन्दर क्रिया करती है । जड़तत्त्व में यह प्राण की शक्तियों और प्रक्रियाओं को और प्राणमय भौतिक तत्त्व में मन की शक्तियों एवं प्रक्रियाओं को विकसित करती है । अपनी सभी क्रियाओं में यह निश्चित नियमों के द्वारा कार्य करती है और प्रत्येक प्रकार की सृष्ट वस्तु में शक्ति के विभिन्न गुणों तथा प्रक्रिया के विभिन्न नियमों को प्रकट करती है जो किसी जाति या उपजाति को उसका अपना विशेष स्वरूप प्रदान करते हैं और फिर प्रत्येक व्यष्टि-सत्ता में यह उसकी जाति के नियम को तोड़े बिना कुछ-एक छोटी-छोटी, पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशेषताओं एवं विभिन्नताओं का विकास करती है । प्रकृति के इस बाह्य यान्त्रिक रूप ने ही आधुनिक वैज्ञानिक मन का सारे-का-सारा ध्यान आकृष्ट कर रखा है और विश्वप्रकृति-विषयक उसके सम्पूर्ण दृष्टिकोण का निर्माण भी इसीने किया है, यहांतक कि भौतिक विज्ञान अभीतक प्राण के सभी दृग्विषयों की व्याख्या जड़तत्त्व के नियमों द्वारा तथा मन के सभी दृग्विषयों की व्याख्या सप्राण भौतिक तत्त्व के नियम के द्वारा करने की आशा रखता है और इसके लिये प्रयास भी करता है, द्यपि इसमें उसे बहुत ही कम मात्रा में सफलता प्राप्त होती है । इस दृष्टिकोण में अन्तरात्मा या आत्मा का कोई स्थान नहीं और प्रकृति को आत्मा की शक्ति नहीं माना जा सकता । क्योंकि इसके अनुसार हमारी सम्पूर्ण सत्ता यान्त्रिक एवं भौतिक है तथा एक अल्पजीवी चेतना के जीवविज्ञानीय बाह्य व्यापारों की सीमा में आबद्ध है और क्योंकि मनुष्य जड़प्राकृतिक शक्ति का रचा हुआ प्राणी है तथा उसीका एक यन्त्र है, योगमूलक आध्यात्मिक आत्म-विकास एक भ्रम एवं मायामात्र या फिर मन की एक असामान्य अवस्था या आत्मसम्मोहनमात्र हो सकता है । कुछ भी हो, उसका जो यह दावा है कि हमारी सत्ता के सनातन सत्य की खोज करना

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और मानसिक, प्राणिक तथा शारीरिक प्रकृति के सीमित सत्य से ऊपर उठकर हमारी आध्यात्मिक प्रकृति के पूर्ण सत्य को प्राप्त करना ही उसका स्वरूप है, वह सत्य नहीं हो सकता ।

 

  परन्तु जब हम अपने व्यक्तित्व को एक ओर छोड़कर केवल बाह्य यान्त्रिक प्रकृति पर ही नहीं, बल्कि मनुष्य अर्थात् मनोमय प्राणी के आन्तर आत्मपरक अनुभव पर भी दृष्टिपात करते हैं तो हमारी प्रकृति हमें एक सर्वथा भिन्न रूप में दिखायी देती है । बौद्धिक रूप से हम अपनी आभ्यन्तरिक सत्ता के विषय में भी एक कोरे यान्त्रिक दृष्टिकोण को ठीक मान सकते हैं, पर अपने कार्य-व्यवहार में हम उसके अनुसार नहीं चल सकते, न उसे अपने आत्मानुभव के प्रति सर्वथा वास्तविक ही बना सकते हैं । कारण, हम एक ऐसी 'मैं' से सचेतन हैं जो हमारी प्रकृति के साथ एकाकार नहीं प्रतीत होती, बल्कि इससे पीछे हटकर स्थित होने तथा इसका अनासक्त निरीक्षण, समालोचन एवं सर्जनशील उपयोग करने में समर्थ दिखायी देती है, साथ ही हम एक ऐसी इच्छाशक्ति से भी सचेतन हैं जिसे हम स्वभाववश एक स्वतन्त्र इच्छा समझते हैं; और चाहे यह एक भ्रम ही हो फिर भी व्यवहार में हम इस प्रकार कार्य करने को विवश होते हैं मानों हम ऐसे उत्तरदायी मनोमय प्राणी हों जो अपने कार्यों का स्वतन्त्रतापूर्वक चुनाव कर सकते हैं और अपनी प्रकृति का उपयोग या दुरुपयोग करने में तथा इसे उच्चतर या निम्नतर उद्देश्यों की ओर मोड़ने में समर्थ हैं । यहांतक दीख पड़ता है कि हम अपने चारों ओर की प्रकृति तथा अपनी वर्तमान प्रकृति दोनों के साथ संघर्ष कर रहे हैं और एक ऐसे जगत् पर, जो अपने-आपको हमपर थोप करके हमारा स्वामी बन जाता है, प्रभुत्व पाने के लिये और साथ ही आज हम जो कुछ हैं उससे अधिक कुछ बनने के लिये प्रयास कर रहे हैं । परन्तु कठिनाई यह हैं कि अपनी सत्ता पर हमारा प्रभुत्व यदि है भी सही तो इसके केवल एक छोटे-से भाग पर ही है, हमारी शेष सारी सत्ता अवचेतन या प्रच्छन्न है तथा हमारे नियन्त्रण के परे है, हमारी इच्छाशक्ति हमारे कुछ थोड़े-से चुने हुए कार्यों में ही अपनी क्रिया करती है, हमारे अधिकतर कार्य तो यान्त्रिक प्रणाली और अभ्यास की एक प्रक्रिया-रूप ही होते हैं और जरा-सी भी उन्नति या आत्म-सुधार करने के लिये हमें अपने साथ तथा चारों ओर की परिस्थितियों के साथ निरन्तर संघर्ष करना पड़ेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे अन्दर एक द्वैतात्मक सत्ता है, पुरुष और प्रकृति; इन दोनों में कुछ सामञ्जस्य दिखायी देता है, पर उतना ही वैषम्य भी देखने में आता है, प्रकृति पुरुष पर अपना यान्त्रिक नियन्त्रण थोपती है, उधर पुरुष प्रकृति को परिवर्तित और वशीभूत करने का यत्न करता है । अब प्रश्न यह है कि इस द्वैत का मूल स्वरूप एवं अन्तिम परिणाम क्या है ।

  सांख्य दर्शन का समाधान यह है कि हमारी वर्तमान सत्ता पर दो तत्त्वों का

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शासन है । प्रकृति पुरुष के सम्पर्क के बिना जड़ एवं निष्क्रिय रहती है, उसके साथ संयोग होने पर ही कार्य करती है और तब भी अपने करणों एवं गुणों की बंधी-बंधायी यान्त्रिक प्रक्रिया के द्वारा ही कार्य करती है; पुरुष प्रकृति से पृथक्ता की अवस्था में निष्क्रिय और मुक्त है, किन्तु उसके साथ सम्पर्क होने तथा उसके कार्यों को अनुमति देने के कारण इस यान्त्रिक प्रक्रिया के अधीन हो जाता है, उसके अहं-बुद्धि-रूपी घेरे में निवास करता है और अपनी अनुमति को वापिस लेकर तथा अपने निजी मूल तत्त्व की ओर लौटकर ही स्वतन्त्र हो सकता है । एक और समाधान, जो हमारे अनुभव के एक विशेष अङग से मेल खाता है, यह है कि हमारे अन्दर दो प्रकार की सत्ताएं हैं, एक तो है पाशव एवं स्थूल-भौतिक, या अधिक व्यापक शब्दों में कहें तो, निम्नतर एवं प्रकृतिबद्ध, दूसरी है अन्तरात्मा या आध्यात्मिक सत्ता जो मन के कारण जड़-भौतिक सत्ता या जगत्-प्रकृति के जाल में फंसी हुई है, और उसे मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है यदि वह उस जाल से छूट जाये, अर्थात् यदि अन्तरात्मा अपने निज स्तरों में किंवा 'पुरुष' या आत्मा अपनी शुद्ध सत्ता में लौट जाये । अतएव, अन्तरात्मा की पूर्णता प्रकृति के परे ही प्राप्त होगी, प्रकृति में कदापि नहीं ।

 

  परन्तु अपनी वर्तमान मानसिक चेतना से अधिक उच्च चेतना में पहुंचने पर हम देखते हैं कि यह द्वैत केवल एक बाह्य प्रतीयमान तथ्य है । सत्ता-विषयक उच्चतम एवं वास्तविक सत्य तो एकमेव आत्मा, परम पुरुष किंवा पुरुषोत्तम ही है, और जिसे हम विश्व के रूप में अनुभव करते हैं उस सबमें इस परम आत्मा की सत्ता की शक्ति ही अपने-आपको व्यक्त करती है । यह विश्व-प्रकृति कोई निर्जीव, जड़ या अचेतन यन्त्र नहीं है, बल्कि अपनी सब क्रियाओं में विश्वात्मा के द्वारा अनुप्राणित होती है । इसकी प्रक्रिया की यान्त्रिकता एक बाह्य प्रतीतिमात्र है, वास्तविक सत्य तो एक परम आत्मा ही है जो विश्वप्रकृति के अन्दर विद्यमान सभी वस्तुओं में सत्ता की अपनी शक्ति के द्वारा अपनी ही सत्ता की सृष्टि या अभिव्यक्ति कर रहा है । हमारे अन्दर विद्यमान पुरुष और प्रकृति भी एकमेव सत्ता का द्विविध रूपमात्र हैं । विश्व-शक्ति हमारे अन्दर कार्य करती है, पर अन्तरात्मा अहं-बुद्धि के द्वारा अपनी सत्ता को सीमित कर लेती है, प्रकृति की क्रियाओं के आंशिक एवं विभक्त अनुभव में निवास करती है, अपनी आत्म-अभिव्यक्ति के लिये उसकी शक्ति की केवल एक थोड़ी-सी मात्रा एवं एक निश्चित क्रिया का ही उपयोग करती है । इस शक्ति का प्रयोग करने की अपेक्षा कहीं अधिक वह इसके द्वारा शासित एवं प्रयुक्त होती दिखायी देती है, क्योंकि वह अहं-बुद्धि के साथ, जो प्रकृति के करणों का ही एक अङ्ग है, अपने को तदाकार कर लेती है और अहम्मय अनुभव में निवास करती है । वास्तव में अहं, प्रकृति-रूपी यन्त्र का ही एक अङ्ग है और अतएव उसीके द्वारा चालित होता है और अहं की इच्छा स्वतन्त्र इच्छा नहीं है और न यह ऐसी हो ही

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सकती है । मुक्ति, प्रभुता और पूर्णता प्राप्त करने के लिये हमें पीछे की ओर हटकर अपने अन्तःस्थित वास्तविक पुरुष एवं अन्तरात्मा को प्राप्त करना होगा और उसके द्वारा अपनी निज की तथा विश्व की प्रकृति के साथ अपने सच्चे सम्बन्धों को भी आयत्त एवं स्थापित करना होगा ।

 

   हमारी क्रियाशील सत्ता की दृष्टि से इस तथ्य का रूप यह हुआ कि हमें अपने अहम्मय, वैयक्तिक, पृथक् एवं व्यष्टिगत संकल्प एवं शक्ति के स्थान पर विराट् और दिव्य संकल्प एवं शक्ति को प्रतिष्ठित करना होगा । यह दिव्य संकल्पशक्ति विराट् विश्व-कर्म के साथ सामञ्जस्य को दृष्टि में रखते हुए हमारे कर्म का निर्धारण करती है और पुरुषोत्तम के मूल एवं अपरोक्ष संकल्प और सर्वपरिचालक शक्ति के रूप में अपने-आपको प्रकट करती है । हम अपने अन्दर के सीमित, अज्ञ और अपूर्ण व्यक्तिगत संकल्प एवं शक्ति की निम्न क्रिया के स्थान पर भागवत शक्ति की क्रिया को प्रतिष्ठित करते हैं । वैश्व शक्ति की ओर अपने-आपको खोलना हमारे लिये सदा ही सम्भव है, क्योंकि वह हमारे चारों ओर विद्यमान है और हमारे अन्दर सदैव प्रवाहित हो रही है, वही हमारे समस्त आन्तर एवं बाह्य कर्म को धारण करती है तथा उसके लिये हमें आवश्यक सामर्थ्य देती है और सच पूछो तो किसी पृथक्त: वैयक्तिक अर्थ में हमारे पास अपनी निजी शक्ति कोई नहीं है, बल्कि हमारी शक्ति एकमेव शक्ति का एक व्यक्तिगत रूपमात्र है । दूसरी ओर, यह वैश्व शक्ति हमारे अन्दर विद्यमान है, घनीभूत रूप में उपस्थित है, क्योंकि उसकी सम्पूर्ण शक्ति विश्व की भांति प्रत्येक व्यक्ति में भी विद्यमान है, और ऐसे साधन एवं प्रक्रियाएं भीं हैं जिनके द्वारा हम उसकी महत्तर एवं अनन्तत: -कार्यक्षम शक्ति को जागरित कर सकते तथा उसकी विशालतर क्रियाओं की ओर उसे उन्मुक्त कर सकते हैं ।

 

  वैश्व शक्ति की सत्ता और उपस्थिति को हम उसके बल-सामर्थ्य के नाना रूपों में जान सकते हैं । इस समय हम शक्ति के केवल उसी रूप से सचेतन हैं जो हमारे अनेक-विध कार्यों को धारण करनेवाले हमारे स्थूल मन, स्नायविक सत्ता और भौतिक शरीर में गठित दुआ है । पर यदि हम योग के द्वारा अपनी सत्ता के गुप्त, गहन एवं अन्तःप्रच्छन्न भागों को यत्किञ्चित् मुक्त कर शक्ति के इस प्राथमिक रूप से एक बार परे पहुंच सके, तो हम एक महत्तर प्राणिक शक्ति को जान जायेंगे जो शरीर को धारण करती है तथा उसमें ओतप्रोत है और जो शरीर तथा प्राण की समस्त क्रियाओं के लिये आवश्यक सामर्थ्य प्रदान करती है, क्योंकि शारीरिक बल-सामर्थ्य इस शक्ति का ही एक परिवर्तित रूप है । साथ ही, यह प्राणशक्ति नीचे से हमारी समस्त मानसिक क्रियाओं को भी आवश्यक सामर्थ्य प्रदान करके धारण करती है । यह शक्ति हम अपने अन्दर भी अनुभव करते हैं, पर इसे हम अपने चारों ओर और ऊपर भी इस रूप में अनुभव कर सकते हैं कि यह हमारे अन्दर

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स्थित इसी शक्ति के साथ एकीभूत है, और इस प्रकार अनुभव करके हम अपने सामान्य करणों की क्षमता बढ़ाने के लिये अपने अन्दर एवं निम्न स्तरों में इसका आहरण कर सकते हैं या फिर अपने अन्दर प्रवाहित होने के लिये इसका आवाहन करके इसे प्राप्त कर सकते हैं । यह शक्ति का एक असीम सागर है और इसका जितना भी अंश हम अपनी सत्ता के अन्दर धारण कर सकते हैं उतने का उतना यह हमारे अन्दर उँएल देगी । इस प्राणिक शक्ति को हम प्राण, शरीर या मन के किन्हीं भी कार्यों के लिये उससे कहीं महान् और प्रभावशाली क्षमता के साथ प्रयोग में ला सकते हैं जो शारीरिक सूत्र के द्वारा बद्ध एवं सीमित हमारे वर्तमान क्रियाकलाप में हमें हस्तगत है । इस प्राण शक्ति का उपयोग हमें उस हदतक इस सीमाबन्धन से मुक्त कर देता है जिस हदतक हम इसे देहबद्ध शक्ति के स्थान पर प्रयोग में लाने में समर्थ होते हैं । प्राण का संचालन करने के लिये इसका इस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है कि वह शरीर की किसी अवस्था या क्रिया की अधिक शक्तिशाली रूप से व्यवस्था कर सके या उसमें सुधार कर सके, रोग को हटा सके या थकान से मुक्त कर सके, साथ ही अपरिमित मात्रा में मानसिक श्रम करने एवं संकल्प या ज्ञान की लीला को उन्मुक्त करने के लिये भी इस प्राणशक्ति का उपयोग किया जा सकता है । प्राणायाम के अभ्यास प्राणिक शक्ति को मुक्त तथा नियन्त्रित करने के लिये सुपरिचित यान्त्रिक साधन हैं । वे आन्तरात्मिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों को भी, जो साधारणत: अपनी क्रिया का सुअवसर प्राप्त करने के लिये प्राणशक्ति पर निर्भर करती हैं, समुन्नत तथा मुक्त कर देते हैं । परन्तु यह कार्य मानसिक संकल्प एवं अभ्यास के द्वारा या फिर भागवत शक्ति के उच्चतर आध्यात्मिक प्रभाव की ओर अपने-आपको अधिकाधिक खोल करके भी साधित किया जा सकता है । इस प्राणशक्ति को केवल अपने प्रति ही नहीं, बल्कि दूसरे लोगों के प्रति भी किंवा पदार्थों या घटनाओं के प्रति भी, अपनी संकल्पशक्ति द्वारा निर्दिष्ट किन्हीं भी उद्देश्यों की सिद्धि के लिये, प्रभावकारी रूप से प्रेरित किया जा सकता है । इसका प्रभाव अपरिमित है, अपने-आपमें तो वह असीम ही है, किन्तु उसपर आध्यात्मिक या किसी अन्य प्रकार का जो संकल्प प्रयुक्त किया जाता है उसकी शक्ति, पवित्रता और सार्वभौमता में विद्यमान त्रुटि के द्वारा ही वह सीमित होता है; पर कितना ही महान् एवं शक्तिशाली होने पर भी वह शक्ति की एक निम्नतर रूप-रचना है, मन और शरीर के बीच की एक कड़ी है, एक करणात्मक शक्ति है । उसमें एक चेतना, किंवा आत्मा की एक उपस्थिति होती है जिसके प्रति हम सचेतन होते हैं, पर वह कर्म-सम्बन्धी प्रेरणा के भीतर आवृत होती है, उसमें ग्रस्त तथा पूर्णतः निमग्न रहती है । विराट् प्राण-शक्ति की इस क्रिया के ऊपर हम अपने कार्यों का समस्त भार नहीं छोड़ सकते; या तो हमें इसकी सहायताओ का उपयोग अपनी आलोकित व्यक्तिगत इच्छाशक्ति के द्वारा करना

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होगा या फिर मार्गदर्शन के लिये इससे ऊंची किसी सत्ता का आवाहन करना होगा; क्योंकि अकेली अपने-आप यह एक महत्तर बल-सामर्थ्य के साथ तो कार्य अवश्य करेगी, किन्तु फिर भी करेगी हमारी अपूर्ण प्रकृति के अनुसार और मुख्यतया हमारी अन्त:स्थ प्राणशक्ति की प्रेरणा और आदेश-निर्देश के द्वारा, उच्चतम अध्यात्म-सत्ता के विधान के अनुसार नहीं ।

 

  जिस साधारण शक्ति के द्वारा हम प्राण-शक्ति का नियमन करते हैं वह देहाधिष्ठित मन की शक्ति है । परन्तु जब हम स्थूल मन से सर्वथा ऊपर पहुंच जाते हैं, तो हम प्राणशक्ति के ऊपर एक शुद्ध मानसिक शक्ति के प्रति भी सचेतन हो सकते हैं जो कि भागवत शक्ति का एक अपेक्षाकृत उच्च रूपायण है । वहां हम उस विराट्  मानसिक चेतना का अनुभव प्राप्त कर लेते हैं जो हमारे अन्दर, चारों ओर और ऊपर अर्थात् हमारी साधारण मानसिक अवस्था के स्तर के ऊपर, अवस्थित इस मानसिक शक्ति के साथ घनिष्ठतया सम्बद्ध है और जो हमारे संकल्प एवं ज्ञान को तथा हमारे आवेगों और भावावेशों में अवस्थित चैत्य तत्त्व को उनका समस्त सार और उनके सभी रूप प्रदान करती है । इस मानसिक शक्ति का प्रभाव प्राणशक्ति पर डाला जा सकता है और यह हमारे विचारों का, हमारे ज्ञान तथा अधिक प्रकाशयुक्त संकल्प का प्रभाव, रंग, रूप, स्वभाव और लक्ष्य इसपर बलात् आरोपित कर सकती है और इस प्रकार हमारे जीवन तथा प्राणमय पुरुष को हमारी सत्ता की उच्चतर शक्तियों तथा हमारे आदर्शों एवं आध्यात्मिक अभीप्साओं के साथ अधिक सफलतापूर्वक समस्वरित कर सकती है । हमारी साधारण अवस्था में ये दोनो अर्थात् मानसिक और प्राणिक सत्ता तथा शक्तियां एक-दूसरी के साथ अत्यधिक मिली हुई हैं तथा एक-दूसरी के अन्दर ओतप्रोत होकर एक हो जाती हैं, और हम इनमें स्पष्टतया भेद नहीं कर पाते, न एक का दूसरी पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करके निम्नतर तत्त्व को अधिक उच्च एवं बोधपूर्ण तत्त्व के द्वारा सफलतापूर्वक नियन्त्रित ही कर सकते हैं । पर जब हम स्थूल मन के ऊपर की भूमिका में स्थित हो जाते हैं, तब हम शक्ति के दो रूपों एवं अपनी सत्ता के दो स्तरों को स्पष्टतया पृथक् कर सकते हैं और उनकी क्रियाओं को भी एक-दूसरी से पृथक् करके एक स्पष्टतर एवं अधिक प्रभावशाली आत्मज्ञान तथा एक आलोकित एवं शुद्धतर संकल्पशक्ति के साथ कार्य कर सकते हैं । तथापि जबतक हम मन को अपनी प्रधान मार्गदर्शक एवं नियन्त्रक शक्ति बनाकर उसके द्वारा कार्य करते हैं तबतक निम्न शक्तियों पर हमारा नियन्त्रण पूर्ण, सहज-स्वाभाविक और प्रभुत्वशाली नहीं होता । (स्थूल मन के ऊपर उठकर) हम देखते हैं कि मानसिक शक्ति स्वयं एक गौण शक्ति है, चिन्मय आत्मा की एक अपेक्षाकृत निम्न एवं परिसीमक शक्ति है जो पृथक्कृत और संस्था प्रेक्षणों के द्वारा तथा उन त्रुटियुक्त और अपूर्ण अर्द्ध-प्रकाशों के द्वारा ही कार्य करती है जिन्हें हम पूर्ण और प्रर्याप्त प्रकाश समझते हैं,

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साथ ही उसके कार्य में विचार एवं ज्ञान और कार्यक्षम संकल्पशक्ति के बीच विरोध भी पाया जाता है । तब हमें शीघ्र ही परम आत्मा और उसकी परा शक्ति की एक कहीं उच्चतर भूमिका (शक्ति) का ज्ञान हो जाता है । वह भूमिका (या शक्ति) प्रच्छन्न है या ऊपर अवस्थित है, मन के लिये अतिचेतन है या आंशिक रूप से उसके द्वारा कार्य करती है; ये सब (मन, प्राण आदि) उसकी निम्नतर एवं गौण शक्तियां हैं ।

 

  हमारी सत्ता के शेष स्तरों की भांति मानसिक स्तर पर भी पुरुष और प्रकृति एक-दूसरे के साथ प्रगाढ़ रूप से संयुक्त हैं तथा परस्पर अत्यधिक उलझे हुऐ हैं और हम अपनी अन्तरात्मा और प्रकृति में स्पष्ट रूप में भेद नहीं कर सकते । परन्तु मन के अधिक शुद्ध तत्त्व में हम इस द्विविध स्वर को अधिक सुगमता से पहचान सकते हैं । हम देख ही चुके हैं कि मनोमय पुरुष अपने सहजात मनस्तत्त्व में अपने-आपको अपनी प्रकृति की क्रियाओं से स्वभावत: ही पृथक् कर सकता है और ऐसा कर लेने पर हमारी सत्ता चेतना और शक्ति-रूपी दो भागों में विभाजित हो जाती है । उनमें से चेतना तो निरीक्षण करती और अपनी संकल्पशक्ति को सुरक्षित रख सकती है तथा शक्ति चेतना के एक ऐसे सारतत्त्व से पूर्ण होती है जो ज्ञान, संकल्प और वेदन के रूप ग्रहण करता है । प्रकृति की क्रियाओं से इस प्रकार का पार्थक्य अपनी पराकाष्ठा को पहुंचने पर अन्तरात्मा को एक विशेष स्वतन्त्रता प्रदान करता है जिससे वह अपनी मानसिक प्रकृति के द्वारा विवश किये जाने की अवस्था से मुक्त हो जाती है । कारण, साधारणत: हम अपनी तथा विश्व की क्रियाशील शक्ति की धारा के द्वारा प्रेरित होते हैं तथा उसीमें बहा ले जाये जाते हैं । कुछ अंश में तो हम उसकी लहरों में डूबते-उतराते रहते हैं और कुछ अंश में अपने अस्तित्व को धारण करने में समर्थ होते हैं तथा एकाग्र विचार के द्वारा एवं मानसिक-संकल्प-रूपी मांसपेशी के प्रयत्न के द्वारा अपना मार्गदर्शन या कम-से-कम संचालन करते प्रतीत होते हैं । परन्तु अब हमारी सत्ता में एक ऐसा भाग प्रकट हों जाता है जो आत्मा के शुद्ध सारतत्त्व के निकटतम होता है तथा उक्त शक्ति-प्रवाह से मुक्त होता है । वह अपनी तात्कालिक गति और पथधारा का शांतिपूर्वक निरीक्षण कर सकता है और कुछ हदतक उसका निर्णय भी कर सकता है तथा और भी बड़ी हदतक अपनी अन्तिम दिशा भी निर्धारित कर सकता है । अन्ततोगत्वा पुरुष प्रकृति पर उससे आधा तटस्थ होकर, उसके पीछे या ऊपर स्थित होकर शासक पुरुष या उपस्थिति-अध्यक्ष के रूप में, आत्मा के अन्दर स्वभावत: विद्यमान अनुमति एवं नियमन की शक्ति के द्वारा क्रिया कर सकता है ।

 

  इस सापेक्ष स्वतन्त्रता का हम क्या प्रयोग करेंगे यह बात हमारी अभीप्सा पर तथा अपने उचतम आत्मा, ईश्वर एवं प्रकृति के साथ हम जो सम्बन्ध स्थापित केरना चाहते हैं उसके विषय में हमरि विचार पर निर्भर करती है । स्वयं मनोमय स्तर पर भी पुरुष इसका प्रयोग अनवरत आत्म-निरीक्षण, आत्म-विकास तथा

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आत्म-संशोधन के लिये कर सकता है, प्रकृति के नये रूपायणों को अनुमति देने या त्यागने के लिये अथवा उन्हें परिवर्तित या प्रकाशित करने के लिये और शान्त एवं निष्काम कर्म की, अपनी शक्ति के एक उच्च एवं विशुद्ध सात्त्विक छन्द और सन्तुलन की तथा सत्त्व गुण के चरम उत्कर्ष एवं सिद्धि को प्राप्त किये हुए व्यक्तित्व की स्थापना करने के लिये भी वह इसे प्रयोग में ला सकता है । इसका अर्थ इतना ही हो सकता है कि हमारी वर्तमान बुद्धि और नैतिक एवं चैत्य सत्ता उच्च कोटि की मानसभावापत्र पूर्णता प्राप्त कर सकती है या फिर हमारे अन्दर अवस्थित महत्तर आत्मा को जानता हुआ, पुरुष अपनी आत्म सचेतन सत्ता को तथा अपनी प्रकृति के कार्य को निर्व्यक्तिक, विश्वमय और आध्यात्मिक बना सकता है और अपनी सत्ता की अध्यात्मभावित मानसिक शक्ति की विशाल शान्ति या विराट् पूर्णता प्राप्त कर सकता है । वह यह भी कर सकता है कि प्रकृति से पूर्णतया पीछे हटकर अपने अन्दर स्थित हो जाये और अनुमति देने से इन्कार करके मन की सारी-की-सारी सामान्य क्रिया को स्वयमेव समाप्त होने और दौड़--धूप करके रुक जाने दे और मन को अपनी अभ्यस्त क्रिया का बचा हुआ वेग खत्म करके शान्त पड़ जाने दे । अथवा मनोमय शक्ति की क्रिया से इन्कार करके तथा उसे शान्त रहने की अनवरत आशा देकर भी वह उसपर इस शान्ति या निश्चल-नीरवता को बलपूर्वक थोप सकता है । अन्तरात्मा इस शम एवं मानसिक निश्चल-नीरवता को सुदृढ़ करके आत्मा की किसी अनिर्वचनीय परम शान्ति में एवं प्रकृति की क्रियाओं के विशाल विलोप की अवस्था में पहुंच सकती है । परन्तु मन की इस निश्चल-नीरवता को तथा निम्न प्रकृति के अभ्यासों का निरोध करने की सामर्थ्य को प्रकृति के एक उच्चतर रूपायण की, अपने अस्तित्व की अवस्था और शक्ति के एक उच्चतर स्तर की, उपलब्धि का प्रथम सोपान भी बनाया जा सकता है और इस प्रकार आरोहण एवं रूपान्तर के द्वारा आत्मा की अतिमानसिक शक्ति प्राप्त की जा सकती है । यह कार्य सामान्य मन की शान्ति की चरम अवस्था का आश्रय लिये बिना समस्त मानसिक शक्तियों और क्रियाओं का उनकी महत्तर स्वानुरूप अतिमानसिक शक्तियों और क्रियाओं में सुस्थिर और क्रमिक रूपान्तर करके भी किया जा सकता है, द्यपि इसमें अपेक्षाकृत अधिक कठिनाई होती है । कारण, मन की प्रत्येक वस्तु अतिमानस की किसी वस्तु से ही उत्पन्न होती है तथा मन के अन्दर उसका एक सीमित, निम्नतर, अन्धान्वेषी, आंशिक या विकृत रूप होती है । परन्तु इन क्रियाओं में से कोई भी हमारे अन्तःस्थ मनोमय पुरुष की अकेली व्यक्तिगत शक्ति के द्वारा, बिना और किसी की सहायता के, सफलता-पूर्वक सम्पन्न नहीं की जा सकती, बल्कि उसे पूरा करने के लिये भागवत सत्ता, ईश्वर एवं पुरुषोत्तम के साहाय्य, हस्तक्षेप और मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती ही है । क्योंकि अतिमानस भगवान् का मन है और अतिमानसिक स्तर पर ही व्यक्ति

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परमोच्च एवं विश्वगत पुरुष के साथ तथा अपना समुचित, समग्र, प्रकाशमय और सर्वांगपूर्ण सम्बन्ध प्राप्त करता है ।

 

   जैसे-जैसे मन की पवित्रता तथा शान्त रहने की शक्ति बढ़ती जाती हैं या जैसे-जैसे वह अपनी सीमित क्रिया में मग्न रहने की अवस्था से मुक्त होता जाता है वैसे-वैसे उस परम आत्मा अर्थात् परात्पर और विराट् अध्यात्मसत्ता की चिन्मय उपस्थिति का अनुभव होता जाता है और वह उसे प्रतिबिम्बित करने एवं अपने भीतर लाने में या उसके अन्दर प्रवेश करने में समर्थ होता जाता है, साथ ही वह आत्मा की उन भूमिकाओं और शक्तियों से भी सचेतन होता जाता है जो उसके उच्चतम स्तरों से भी ऊंची हैं । उसे सच्चिन्मय अनन्त का, असीम चेतना की समस्त शक्ति और बल-सामर्थ्य के अनन्त सागर का एवं सत्ता के स्वयं प्रेरित आनन्द के अनन्त सागर का साक्षात्कार हो जाता है । वह इन चीजों में से किसी एक या दूसरी से सचेतन हो सकता है, क्योंकि जो चीजें उच्चतर अनुभव में एकमेव की अविभाज्य शक्तियां हैं उन्हें मन पृथक् करके ऐकांतिक रूप से विभित्र मूल तत्त्वों की भांति अनुभव कर सकता है, अथवा वह उन्हें एक ऐसे त्रिक के रूप में या एक-दूसरे के अन्दर तीनों के एक ऐसे विलय के रूप में अनुभव कर सकता है जो उनके एकत्व को प्रकाशित या प्राप्त करता है । उसे इस एकमेव अनन्त का साक्षात्कार पुरुष के रूप में या प्रकृति के रूप में प्राप्त हो सकता है । पुरुष-पक्ष में यह अपने-आपको परम आत्मा या अध्यात्मसत्ता के, परम सत् या एकमेवाद्वितीय सत्स्वरूप पुरुष किंवा पुरुषोत्तम भगवान् के रूप में प्रकट करता है, और व्यक्ति का जीवात्मा उसकी कालातीत सत्ता में या उसकी विश्वमयता में उसके साथ पूर्ण एकता प्राप्त कर सकता है, अथवा सामीप्य या अन्तर्वास का या पृथक्ता की किसी खाई से रहित भेद का रसास्वादन कर सकता है; साथ ही सक्रिय अनुभवशील प्रकृति में सत्तासम्बन्धी एकत्व तथा सम्बन्धगत आनन्ददायक भेद--दोनों का एक साथ और अविच्छेद्य रूप से उपभोग भी कर सकता है । प्रकृति-पक्ष में आत्मा की शक्ति और आनन्द इस अनन्त को विश्व के सब भूतों, व्यक्तित्वों, विचारों, रूपों और शक्तियों में प्रकट करने के लिये सामने की ओर आ जाते हैं और तब हमें उस भगवती महाशक्ति, द्या शक्ति किंवा परा प्रकृति का साक्षात्कार होता है जो अपने अन्दर अनन्त सत्ता को धारण किये है तथा जगत् के आश्चर्यों की सृष्टि कर रही है । मन शक्ति के इस असीम महासागर से सचेतन हो जाता है अथवा वह जान जाता है कि उसके बहुत ऊपर शक्ति की उपस्थिति विद्यमान है और हम जो कुछ भी हैं उस सबका तथा हम जो भी विचार, संकल्प, कर्म, वेदन एवं अनुभव करते हैं उन सबका गठन करने के लिये वह हमारे अन्दर अपना कुछ अंश उंडेल रही है, अथवा वह जान लेता है कि वह शक्ति हमारे चारों ओर विद्यमान है और हमारा व्यक्तित्व आत्मा की शक्ति के महासागर की एक तरंग है, या फिर वह

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अनुभव कर लेता है कि हमारे अन्दर उसकी उपस्थिति विद्यमान है और उसकी एक क्रिया भी हो रही है जो हमारी प्रकृतिगत सत्ता के वर्तमान रूप पर आधारित है, पर जो इस ऊर्ध्वस्थित उद्गम से उद्भूत होती है और हमें उच्चतर आध्यात्मिक भूमिका की ओर ऊपर उठा ले जा रही है । मन भी उसकी अनन्तता की ओर उठ सकता तथा उसे स्पर्श कर सकता है अथवा समाधि की मग्नावस्था में अपने-आपको उसके अन्दर निमज्जित कर सकता है या फिर उसकी विश्वमयता में अपने-आपको खो दे सकता है, और तब हमारी व्यष्टिसत्ता लुप्त हो जाती है, हमारा कर्म करने का केन्द्र तब पहले की तरह हमारे अन्दर नहीं, बल्कि वह या तो हमारी देहगत सत्ता के बाहर कहीं होता है या फिर कहीं भी नहीं होता; हमारी मानसिक चेष्टाएं तबसे हमारी अपनी नहीं रहतीं, बल्कि वे मन, प्राण और शरीर के इस ढांचे के अन्दर विराट् सत्ता से आती हैं, अपने-आपको चरितार्थ करके हमारे ऊपर अपनी कोई भी छाप छोड़े बिना चली जाती हैं, और हमारे तन-मन-प्राण का यह ढांचा भी उसकी विश्वमय बृहत्-सत्ता में एक तुच्छ घटनामात्र रह जाता है । परन्तु पूर्णयोग में हम जो सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं वह केवल यही नहीं है कि हम परा प्रकृति के साथ उसकी उच्चतम आध्यात्मिक शक्ति में तथा उसकी वैश्व क्रिया में एक हो जायें, बल्कि अपनी व्यक्तिगत सत्ता और प्रकृति में इस शक्ति की पूर्णता को उपलब्ध और अधिकृत करना भी उसके अन्तर्गत है । कारण, परम आत्मा पुरुष-रूप में या प्रकृति-रूप में, अर्थात् चिन्मय सत्ता या उसकी शक्ति के रूप में एक ही है, और जैसे जीव पुरुष एवं आत्मारूपी सारतत्त्व में परम पुरुष के साथ एक है, वैसे ही प्रकृति-पक्ष में, पुरुष एवं आत्मा की शक्ति के रूप में, वह महाशक्ति के साथ एक है, परा प्रकृतिर्जीवभूता । यह दौहरा एकत्व प्राप्त करना ही सर्वांगीण आत्मसिद्धि की शर्त है । जीव तब परम पुरुष और प्रकृति के एकत्व की लीला के लिये एक मिलनस्थल होता है ।

 

  यह सिद्धि प्राप्त करने के लिये हमें भगवती शक्ति से सचेतन होना होगा, उसे अपनी ओर खींच लाना तथा अपने अन्दर उसका आवाहन करना होगा ताकि वह हमारे सारे आधार को अपनी सत्ता से परिपूरित कर दे तथा हमारे सारे कार्यों का भार अपने हाथ में ले ले । तब कोई ऐसा पृथक् निजी संकल्प या व्यक्तिगत शक्ति नहीं रहेगी जो हमारे कार्यों का सञ्चालन करने का यत्न करती हो, न हमारे अन्दर कोई भावना रहेगी कि तुच्छ व्यक्तिगत सत्ता ही कार्य करती है, और न ही तब तीन गुणोंवाली निम्नतर शक्ति अर्थात्, मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक प्रकृति हमारे कार्यों का सझालन करेगी । भागवत शक्ति हमें अपने दिव्य प्रवाह से भर देगी और हमारी सब आन्तरिक क्रियाओं हमारे बाह्य जीवन तथा योग के ऊपर अध्यक्ष के रूप में विराजमान रहेगा ओर उनका बागडो हाथ में ले लेगी । वह मानसिक शक्ति को, अपना ही एक निम्नतर रचना को हाथ में लेकर उसे उसकी

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बुद्धि, संकल्पशक्ति और चैत्य क्रिया की उच्चतम, शुद्धतम एवं पूर्णतम शक्तियोंतक ऊपर उठा ले जायेगी । यह मन, प्राण और देह की उन यान्त्रिक शक्तियों को, जो आज हमपर शासन करती हैं, अपनी जीवन्त और सचेतन शक्ति एवं उपस्थिति की आनन्दपूर्ण अभिव्यक्तियों में रूपान्तरित कर देगी । मन जिन भी नानाविध आध्यात्मिक अनुभवों को प्राप्त कर सकता है उन सबको वह हमारे अन्दर प्रकट करके एक-दूसरे के साथ सम्बद्ध कर देगी । इस प्रक्रिया के सर्वोच्च फल के रूप में वह मानसिक स्तरों में अतिमानसिक ज्योति उतार लायेगी, मन के उपादान को अतिमानस के उपादान में बदल डालेगी, समस्त निम्नतर शक्तियों को अपनी अतिमानसिक प्रकृति की शक्तियों में रूपान्तरित कर देगी, और हमें ऊंचे उठाकर हमारी विज्ञानमय सत्ता में ले जायेगी । वहां यह महाशक्ति अपने-आपको पुरुषोत्तम की शक्ति के रूप में हमारे सामने प्रकट करेगी और वस्तुत: ईश्वर ही अपनी अतिमानसिक और आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अपने-आपको प्रकट करेंगे और हमारी सत्ता तथा हमारे कर्म, जीवन एवं योग के स्वामी बन जायेंगे ।

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