योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ४

 

भक्ति का मार्ग

 

भक्ति अपने-आपमें इतनी विशाल है जितनी भगवान् के लिये आत्मा की हार्दिक उत्कण्ठा और इतनी सीधी तथा सरल जितने सीधे अपने लक्ष्य की ओर जानेवाले प्रेम और कामना । इसलिये यह किसी शास्त्रीय पद्धति में नहीं बांध जा सकती, न ही राजयोग की भांति मनोवैज्ञानिक शास्त्र पर या हठयोग की तरह मनोभौतिक विज्ञान पर आधारित की जा सकती है और न ज्ञानयोग की सामान्य विधि के समान किसी नियत बौद्धिक प्रक्रिया द्वारा चलायी जा सकती है । यह विविध साधनों या आलम्बनों का उपयोग कर सकती है । व्यवस्था, प्रक्रिया तथा प्रणाली में रुचि रखनेवाला मनुष्य इन सहायक साधनों का आश्रय लेकर इन्हें पद्धति का रूप देने का यत्न कर सकता है : किन्तु इसके भेदों का उल्लेख करने के लिये हमें मनुष्य के प्रायः सभी अनगिनत धर्मों के अन्तरीय ईश्वर-प्राप्ति के पहलू का विवेचन करना होगा । पर वास्तव में, अधिक प्रगाढ़ भक्तियोग अपने को केवल इन चार गतियों में परिणत करता है, ईश्वर की ओर उन्मुख आत्मा की चाह और इसके भावावेश का उसकी ओर अति प्रबल प्रवाह, प्रेम की पीर और प्रेम का दिव्य प्रतिफल, प्रेम के आनन्द की उपलब्धि तथा उस आनन्द की लीला, और दिव्य प्रेम का शाश्वत उपभोग जो स्वर्गीय आनन्द का मर्म है । ये ऐसी चीजें हैं जो एक साथ ही इतनी सरल और इतनी गहरी हैं कि इन्हें पद्धति का रूप देना या इनका विश्लेषण करना सम्भव नहीं । अधिक-से-अधिक कोई यही कह सकता हैं कि लीजिये ये हैं सिद्धि के चार क्रमिक तत्त्व, या सोपान,--यदि हम इन्हें ऐसा कह सकते हों,--और व्यापक रूप में, ये हैं कुछ साधन जिन्हें भक्तियोग प्रयोग में लाता है और फिर ये हैं भक्ति की साधना के कुछ पक्ष और अनुभव । पहले हमारे लिये केवल मोटे तौरपर उस सामान्य रूप-रेखा को जानना आवश्यक है जिसका ये अनुकरण करते हैं । उसके बाद ही हम इस विषय पर विचार कर सकते हैं कि कैसे भक्ति का मार्ग समन्वयात्मक और सर्वांगीण योग में प्रवेश करता है, वहां इसका क्या स्थान है और इसके सिद्धान्त का दिव्य जीवन-प्रणाली के अन्य सिद्धान्तों पर क्या प्रभाव पड़ता है ।

 

   योगमात्र का अभिप्राय यह है कि मानव मन और मानव आत्मा जिन्होंने अभीतक दिव्यता को चरितार्थ नहीं किया है, पर जो अपने अन्दर दैवी संवेग तथा अकर्षण अनुभव करते हैं, उस सत्ता की ओर झुकते हैं जिसके द्वारा ये अपना महत्तर अस्तित्व उपलब्ध करते हैं । हृदभावों की दृष्टि से, यह झुकाव सबसे पहले जो रूप ग्रहण करता है वह है आराधना । साधारण धर्म में यह आराधना बाह्य

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पूजा का रूप धारण कर लेती है और वह पूजा, फिर कर्मकांडीय पूजा के अत्यन्त बाहरी रूप को जन्म देती है । यह तत्त्व साधारणतया आवश्यक भी है, क्योंकि अधिकतर मनुष्य अपने स्थूल मनों में रहते हैं, स्थूल प्रतीक के सहारे के बिना कोई भी चीज अनुभव नहीं कर पाते और स्थूल कर्म के सहारे के बिना यह भी अनुभव नहीं कर सकते कि वे कुछ जी भी रहे हैं । यहां हम तान्त्रिक साधनाक्रम से इसका सम्बन्ध देख सकते हैं । तान्त्रिक साधना भी पशु पाशविक या स्थूल सत्ता के मार्ग को अपने अभ्यासक्रम का सबसे निचला सोपान बनाती है और कहती है कि निरी या प्रबल कर्मकाष्ठी आराधना पाशविक मार्ग के इस सबसे निचले भाग की पहली सीढ़ी है । यह स्पष्ट है कि वास्तविक धर्म भी (योग तो धर्म से अधिक कुछ है) तभी शुरू होता है जब कि यह बिल्कुल बाहरी पूजा किसी सच्ची मनोनुभूत वस्तु से, किसी सच्चे नमन, संभ्रम या आध्यात्मिक अभीप्सा से सम्बन्ध रखती हो । कारण, तब यह उस वस्तु की सहायक या बाह्य अभिव्यक्ति बन जाती है; साथ ही, यह एक प्रकार से समय-समय पर या नित्य-निरन्तर उसका स्मरण कराके मन को साधारण जीवन के धंधों से उसकी ओर मोड़ने में सहायक होती है । परन्तु जबतक हम देवाधिदेवविषयक किसी धारणा की ही पूजा करते हैं तबतक हम अभी योग के आरम्भबिन्दु पर भी नहीं पहुंचे होते । योग का लक्ष्य है मिलन, अतएव सदा ही इसका आरम्भ होगा भगवान् की खोज से, किसी प्रकार के स्पर्श, समीपता या स्वत्व की स्पृहा से । जब यह स्पर्श हमें एकाएक प्राप्त होता है तब तो आराधना सदैव, प्रधान रूप से, आंतरिक पूजा बन जाती है; हम अपने-आपको भगवान् का मन्दिर बनाने लगते हैं, अपने विचारों और भावों को अभीप्सा तथा जिज्ञासा की अनवरत प्रार्थना और अपने सारे जीवन को बाह्य सेवा तथा पूजा बनाते हैं । जैसे ही यह परिवर्तन, यह नयी आत्मिक प्रवृत्ति बढ़ती है, वैसे ही योग, वर्धमान सम्पर्क और मिलन ही भक्त का धर्म बन जाता है । इसका यह अर्थ नहीं कि बाह्य पूजा निश्चितरूपेण त्याग दी जायेगी, वरन् यह उत्तरोत्तर आन्तरिक भक्ति और आराधना का केवल स्थूल प्रकाश या प्रवाह बन जायेगी, आत्मा की ऐसी तरंग बन जायेगी जो वाणी और प्रतीकात्मक कार्य में अपनेको प्रकट करती है ।

 

   यदि आराधना खूब गहरी है तो इसके पूर्व कि यह गभीरतर भक्तियोग का अंग बने, प्रेम-पुष्प की पंखुरी, अपने सूर्य के प्रति इसका अर्ध्यदान और ऊर्ध्वगमन बने, यह उपास्य देव के प्रति सत्ता के अधिकाधिक आत्म-निवेदन को अपने साथ अवश्य लायेगी । निश्चय ही, इस आत्म-निवेदन का एक तत्त्व होगा अपनेको शुद्ध करना जिससे हम भगवान् के साथ सम्पर्क के लिये, अपनी अन्त:सत्ता के मंदिर में भगवान् के प्रवेश के लिये, या हृदय की वेदी में उसके आत्म-प्रकाश के लिये योग्य बन जायें । शुद्धि की इस क्रिया का स्वरूप नैतिक हों सकता है, किन्तु यह ठीक और निर्दोष कार्य के लिये नैतिकतावादी की खोजमात्र नहीं होनी चाहिये,

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यहांतक कि जब एक बार हम योग की स्थिति में पहुंच जायेंगे तो यह आत्म-शुद्धि रूढ़ धर्म में प्रतिपादित ईश्वरीय विधान का पालनमात्र नहीं रहेगी, वरन् तब इसका मतलब यह होगा कि जो भी चीजें भगवान् के शुद्ध स्वरूप-विषयक या हमारे अन्तःस्थ भगवान्विषयक विचार की विरोधी हैं उन सबका परित्याग (Katharsis) । पहली अवस्था में यह जो रूप धारण करती है वह यह है कि हम अनुभव करने के ढंग में और बाह्य कर्म में भगवान् का अनुकरण करते हैं, दूसरी अवस्था में यह कि हम अपनी प्रकृति में उसके सदृश होते जाते हैं । भगवान् की सदृशता प्राप्त करने का बाह्य नैतिक जीवन से वही सम्बन्ध है जो आन्तरिक आराधना का कर्मकाण्डी पूजा से । इसकी पराकाष्ठा है-- भगवत-सादृश्य-लाभ के द्वारा एक प्रकार की मुक्ति, निम्नतर प्रकृति से मुक्ति और दिव्य प्रकृति में रूपांतर ।

 

   आत्मनिवेदन पूर्ण होकर भगवान् के प्रति हमारी सारी सत्ता के--हमारे सभी विचारों और कर्मों के भी--अर्पण का रूप धारण कर लेता है; यहां यह योग कर्मयोग तथा ज्ञानयोग के सारभूत तत्त्वों को अपने अन्तर्गत कर लेता है, पर अपनी ही रीति से, अपनी ही अनूठी भावना के साथ । यह है जीवन और कर्मों का भगवान् के प्रति यज्ञ, परन्तु अपने संकल्प को भागवत संकल्प के साथ एकस्वर करने की अपेक्षा कहीं अधिक यह प्रेम का यज्ञ है । भक्त अपना जीवन तथा जो कुछ वह है, जो कुछ उसके पास है और जो कुछ वह करता है वह सब भगवान् को अर्पित कर देता है । यह समर्पण तपस्या का रूप धारण कर सकता है, जैसा कि तब होता है जब वह साधारण लोकजीवन का त्याग कर केवल स्तुति, प्रार्थना और उपासना में या तन्मय ध्यान में अपने दिन व्यतीत करता है, अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति छोड़कर साधु या भिक्षु बन जाता है जिसका एकमात्र धन होता है भगवान्, जीवन के सभी काम छोड़ देता है, सिवाय उनके जो भगवान् के साथ समागम और अन्य भक्तों के साथ समागम में सहायक या उससे सम्बद्ध होते हैं, अथवा अधिक-से-अधिक वह अपने तापस जीवन के सुरक्षित दुर्ग से लोक-सेवा के वे कार्य करना जारी रखता है जो विशेष रूप से प्रेम, करुणा और मंगल साधन की दैवी प्रकृति का प्रवाह प्रतीत होते हैं । परन्तु एक इससे भी विशालतर आत्म-निवेदन है जो किसी भी सर्वांगीण योग की विशेषता होती है । कारण, सर्वांगीण योग जीवन तथा जगत् के सम्पूर्ण वैभव-विलास को भगवान् की लीला मानता है, और समग्र सत्ता को उसके अधिकार में सौंप देता है; इस आत्म-निवेदन का स्वरूप यह है कि हम जो कुछ हैं और जो कुछ हमारे पास है उस सबको ऐसा समझें कि यह भगवान् का ही है, हमारा नहीं और हम सभी काम उसके प्रति अर्ध्य के रूप में करें । इससे आन्तर तथा बाह्य दोनों जीवनों का पूर्ण सक्रिय उत्सर्ग, अविकल आत्म-दान सम्पन्न हो जाता हैं ।

 

  सादृश्यमुक्ति

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   इसी प्रकार विचारों का भी भगवान् के प्रति निवेदन होता है । अपने आरम्भ में यह मन को आराधना के विषय पर स्थिर करने का प्रयत्न होता है, --क्योंकि चंचल मानव-मन स्वभावत: ही अन्य विषयों में लगा रहता है तथा जब इसे ऊपर की ओर फेरा जाता है तब भी संसार इसे लगातार अपनी ओर खींचता रहता है । परन्तु एकाग्रता के अभ्यास से अन्त में उसीका चिन्तन करने का उसका स्वभाव बन जाता है और अन्य सब केवल गौण हो जाता है तथा इसका चिन्तन वह केवल उसीके सम्बन्ध से करता है । चिन्तन के लिये प्रायः स्थूल प्रतिमा की या, अधिक अन्तरंग तथा विशिष्ट रूप में, किसी मन्त्र या भगवन्नाम की सहायता ली जाती है जिसके द्वारा भागवत सत्ता का साक्षात्कार प्राप्त होता है । पद्धति के निर्माता शास्त्रकार मन की भक्ति द्वारा भगवत्प्राप्ति के तीन सोपान मानते हैं; प्रथम, भगवान् के नाम, गुणावली तथा इनसे सम्बन्धित सभी बातों का निरन्तर श्रवण, दूसरे, इनका या भागवत सत्ता किंवा व्यक्तित्व का अनवरत मनन, तीसरे, ध्येय पर मन को स्थिर एवं एकाग्र करना या निदिध्यासन; इससे पूर्ण साक्षात्कार उपलब्ध होता है । जब इनका सहचारी अनुभव या एकाग्रता अत्यन्त सघन हो तो इन्हींसे (श्रवण, मनन, निदिध्यासन से) समाधि भी प्राप्त होती है, ऐसी समाहित अवस्था जिसमें चेतना बाह्य पदार्थों से दूर चली जाती है । परन्तु वास्तव में यह सब गौण ही है; एकमात्र मुख्य बात है मन के विचार की आराध्य में प्रगाढ़ रति । चाहे यह ज्ञानमार्ग के ध्यान के सदृश प्रतीत होती है, पर अपनी भावना में यह उससे भिन्न है । अपने असली स्वरूप में यह निस्तब्ध नहीं, वरन् तन्मय ध्यान है; यह भगवान् की सत्ता में लीन नहीं हो जाना चाहती, बल्कि भगवान् को हमारे अन्दर लाना और उसकी उपस्थिति के या उसकी प्राप्ति के गभीर हर्षावेश में हमें मग्न कर देना चाहती है; इसका आनन्द एकत्व की शान्ति नहीं, वरन् मिलन का हर्षावेश है । यहां भी सम्भव है कि यह आत्म-उत्सर्ग पृथक्कारक हो जिसका परिणाम होगा जीवन के अन्य समस्त विचार का परित्याग करके इस हर्षावेश को प्राप्त करना जो आगे चलकर उस पार के स्तरों में शाश्वत बन जाता है । अथवा यह उत्सर्ग व्यापक भी हो सकता है जिसमें सभी विचार भगवान् से परिपूर्ण होते हैं, यहांतक कि जीवन के धन्धों में भी प्रत्येक विचार उसीको स्मरण करता है । जैसे अन्य योगों में वैसे इसमें भी मनुष्य को सभी जगह और सबमें भगवान् दिखायी देने लगते हैं और वह अपनी सभी आन्तरिक क्रियाओं तथा बाह्य कार्यों में भगवान् के साक्षात्कार को प्रवाहित करने लगता है । परन्तु यहां सब कुछ भाविक मिलन की प्रधान शक्ति पर ही टिका होता है : क्योंकि प्रेम के द्वारा ही पूर्ण आत्म-निवेदन तथा पूर्ण प्राप्ति संपन्न होती है, और विचार तथा कर्म भागवत प्रेम के रूप एवं आकार बन जाते हैं और यह प्रेम आत्मा तथा इसके करणों को अधिकृत कर लेता है ।

   यह सामान्य गति है । प्रारम्भ में जो शायद भगवान्-विषयक किसी विचार की

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अस्पष्ट आराधना होती है वही इस गति के द्वारा भागवत प्रेम का रंग-रूप ले लेती है तथा पीछे, एक बार योगमार्ग में प्रवेश पाते ही, भागवत प्रेम का आन्तरिक सत्य एवं सघन अनुभव बन जाती है । परन्तु एक इससे भा अधिक अन्तरङ्ग भाग है जो शुरू से ही प्रेमस्वरूप होता है और बिना अन्य प्रक्रिया या पद्धति के इसकी उत्कण्ठा की तीव्रता से ही सिद्धि लाभ करता है । शेष सब कुछ भी प्राप्त अवश्य होता है, पर यह इसीमेंसे निकलता है जैसे बीज में से पत्ता और फूल; और चीजें प्रेम को बढ़ाने तथा पूर्ण करने के साधन नहीं, बल्कि आत्मा में पहले से ही बढ़ रहे प्रेम की रश्मिच्छटा हैं । यही है वह मार्ग जिसपर आत्मा चलती है जब कि वह, शायद साधारण मानवजीवन में व्यस्त रहती हुई भी गुप्त वृन्दावन के अदूर पर्दे के पीछे देवाधिदेव की वंशी की तान सुनकर अपनी सुधबुध खो बैठती है और उसे तबतक तृप्ति नहीं होती, तबतक कल नहीं पड़ती जबतक वह दिव्य वंशीवादक को ढूंढ़कर अपनी पकड़ और अधिकार में नहीं ले आती । पार्थिव विषयों से समस्त सौंदर्य और आनन्द के आध्यात्मिक स्रोत की ओर मुड़ते हुए हृदय और आत्मा में जो शुद्ध प्रेम की शक्ति होतीं है वह साररूप में यहीं है । आनन्द के स्रोत की इस खोज में प्रेम के सब भाव और राग, सभी वृत्तियां और अनुभूतियां निवास करती हैं । यह प्रेम अपने परम इष्ट पदार्थ पर केन्द्रित होता है तथा मानवी प्रेम को तीव्रता की जो पराकाष्ठा प्राप्त हों सकती है उससे सैंकड़ों गुना तीव्रतर होता है । इसका परिणाम होता है सारे जीवन में उथल-पुथल, अतीन्द्रिय दिव्य दर्शन के द्वारा प्रकाश की प्राप्ति, हृदय की अभिलाषा के अनन्य ध्येय के लिये अतृप्त स्पृहा, इस एकमात्र कार्य से विक्षिप्त करनेवाली सभी चीजों के प्रति तीव्र असहिष्णुता, उपलब्धि के मार्ग में आनेवाले विघ्नों की उग्र वेदना, एक ही मूर्ति में समस्त सौन्दर्य और आनन्द के पूर्ण दर्शन । इसमें होती है प्रेम की सारी अनेकविध वृत्तियां, ध्यान और तन्मयता का हर्ष, समागम, कृतार्थता तथा आलिंगन का आनन्द, विरह की व्यथा, प्रेम का कोप, उत्कण्ठा के आंसू पुनर्मिलन का प्रवृद्ध आनन्द । हृदय अत्तस्चेतना के इस परम काव्य का दृश्यपट होता है, परन्तु ऐसा हृदय जो उत्तरोत्तर प्रबल आध्यात्मिक परिवर्तन में से गुजरकर आत्मा का उज्ज्वल रूप में खिलता हुआ कमल बन जाता है । जैसे इसकी खोज की तीव्रता सामान्य मानवीय भावों के सर्वोच्च सामर्थ्य से परे की चीज है, वैसे ही इसका आनन्द और चरम हर्षातिरेक कल्पना की पहुंच से परे तथा वाणी से अवर्णनीय हैं । यह तो देवाधिदेव का आनन्द है जो मनुष्य की समझ से बाहर है ।

 

   भारतीय भक्ति ने इस दिव्य प्रेम को शक्तिशाली रूप तथा काव्यात्मक प्रतीक प्रदान किये हैं जो वास्तव में उतने प्रतीक नहीं हैं जितने कि सत्य की अन्तरीय अभिव्यक्तियां । कारण, उस सत्य को और किसी तरह व्यक्त किया ही नहीं जा सकता । भारतीय भक्ति दिव्य व्यक्ति के दर्शन करती है और मानवीय सम्बन्धों को

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प्रयोग में लाती है, केवल संकेतों के रूप में नहीं, वरन् इस कारण कि मानव आत्मा के साथ परम आनन्द और सौन्दर्य के ऐसे दिव्य सम्बन्ध सचमुच में हैं जिनके अपूर्ण पर फिर भी वास्तविक प्रतिरूप हैं मानवीय सम्बन्ध, और इस कारण भी कि वह आनन्द और सौन्दर्य नितान्त अगोचर दार्शनिक सत्ता के अमूर्त्त रूप या गुण नहीं हैं, बल्कि परम पुरुष का साक्षात् शरीर और स्वरूप हैं । वह एक सजीव आत्मा ही है जिसके लिये कि भक्त की आत्मा लालायित होती है; क्योंकि जीवन्मात्र का उद्गम सत्ता की कोई भावना या धारणा या अवस्था नहीं, बल्कि एक वास्तविक पुरुष है । इसलिये, दिव्य प्रियतम की प्राप्ति में आत्मा का समस्त जीवन तृप्त हो जाता है और जिन सम्बन्धों द्वारा वह अपनेको उपलब्ध करती तथा जिनमें अपनेको प्रकट करती है वे भी पूरी तरह चरितार्थ हो जाते हैं; इसीलिये उनमेंसे किसीके तथा सभीके द्वारा प्रियतम खोजा जा सकता है, किन्तु जिन सम्बन्धों में प्रगाढ़ता की गुंजाइश सबसे अधिक है उन्हींके द्वारा उसकी खोज सदैव अत्यन्त तीव्र और उसकी प्राप्ति गभीरतम हर्षावेश से युक्त हो सकती है । आत्मा उसे भीतर हृदय में खोजती है और इसीलिये सबसे पृथक् स्वयं आत्मा में ही सत्ता की अन्त:समाहित एकाग्रता के द्वारा खोजती है; पर साथ ही सब जगह जहां कहीं भी वह अपनी सत्ता को प्रकाशित करता है उसे देखती तथा प्रेम करती है । सत्ता के समस्त सौन्दर्य और हर्ष को वह उसके हर्ष तथा सौन्दर्य के रूप में देखती है; सर्वभूत में वह आत्मा के द्वारा उसका आलिंगन करती है; उपभोग किया हुआ प्रेम का हर्षावेश अपने-आपको सार्वभौम प्रेम में उंडेल देता है; सत्तामात्र इसके आनन्द का विच्छरण बन जाती है, यहांतक कि अपनी ठेठ प्रतीतियों में भी अपने बाह्य आकार से भिन्न किसी वस्तु में रूपान्तरित हो जाती है । स्वयं यह जगत् दिव्य आनन्द की लीला अनुभूत होता है और जिसमें संसार अपनेको खो देता है वह है शाश्वत मिलन के दिव्यानन्द का स्वर्गधाम ।

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