Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २
भक्ति के हेतु
धर्ममात्र का प्रारम्भिक रूप यह होता है कि हम अपनी सीमित एवं मर्त्य आत्माओं से अधिक महान् एवं उच्च किसी शक्ति या सत्ता की र्पारेकल्पना करते हैं, उस शक्ति के प्रति पूजा-भाव रखते तथा उसे पूजते हैं और उसके संकल्प, उसके नियमों या उसकी मांगों के प्रति अपनी सेवा अर्पित करते हैं । परन्तु धर्म, अपने प्रारम्भिक रूपों में, इस प्रकार परिकल्पित, पूजित एवं सेवित शक्ति और उसके भक्त के बीच बड़ी भारी खाई खोद डालता है । योग अपनी पराकाष्ठा को पहुंचकर इस खाई को पाट देता है; क्योंकि योग का अभिप्राय ही है मिलन । हम ज्ञान से उसके साथ ऐक्य लाभ करते हैं; ज्यों ही उसके विषय में हमारे आरम्भिक धुंधले विचार स्पष्ट, विस्तृत और गहरे होते हैं त्यों ही हम समझने लगते हैं कि यह हमारी निज की उच्चतम आत्मा है, हमारी सत्ता की उत्पत्ति एवं स्थिति का मूल हेतु है तथा इसका गन्तव्य धाम है । हम कर्म से उसके साथ मिलन लाभ करते हैं; उसकी आज्ञा का पालन करने से ही हमारा संकल्प उसके संकल्प से एकाकार होने लगता है, जितना हमारा संकल्प अपने उद्गम और ध्येयभूत इस शक्ति के साथ तद्रूप होता है उतना ही यह पूर्ण एवं दिव्य बन सकता है । हम भक्ति से भी इसके साथ मिलन लाभ करते हैं; क्योंकि दूरस्थ की पूजा करने का भाव एवं अनुष्ठान विकसित होते-होते पहले समीपस्थ की उपासना की आवश्यकता का जन्म होता है तथा इससे फिर प्रेम की घनिष्ठता का, और प्रेम की पराकाष्ठा है प्रियतम से मिलन । पूजा के इस विकसित रूप से ही भक्तियोग का श्रीगणेश होता है और प्रियतम के साथ इस प्रकार का मिलन होने पर ही यह अपने सर्वोच्च शिखर एवं परिणति को पहुंचता है ।
हमारी सब वृत्तियों और हमारी सत्ता की सभी गतियों का मूल आधार हैं हमारी निम्नतर मानव प्रकृति के साधारण प्रेरक भाव । ये प्रेरक भाव पहले मिश्रित और अहंकारमय होते हैं, परन्तु बाद में ये शुद्ध और उन्नत हो जाते हैं, इनके कारण हमारे कर्मो के चाहे कैसे भी परिणाम क्यों न पैदा हों फिर भी ये हमारी उच्चतर प्रकृति के लिये अत्यन्त एवं विशेष आवश्यक वस्तु बन जाते हैं; अन्त में ये उदात्त होकर हमारी सत्ता के एक प्रकार के सुव्यक्त आदेश का रूप ले लेते हैं जिसका पालन करके ही हम अपने अन्दर किसी स्वयम्भू परम तत्त्व को प्राप्त करते हैं । वह तत्त्व हमें निरन्तर ही अपनी ओर खींच रहा होता है, पहले तो हमारी अहंकारमय प्रकुरति के प्रलोभनों द्वारा, फिर किसी अधिक उच्चतर, बृहत्तर एवं विशालतर वस्तु के द्वारा । अन्ततोगत्वा हम उसका प्रत्यक्ष आकर्षण अनुभव करने योग्य हो जाते हैं
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जो सबसे अधिक प्रबल और अत्यन्त स्पष्ट होता है । साधारण धार्मिक पूजा का शुद्ध भक्तियोग में रूपान्तर होने में हम देखते हैं कि प्रचलित धर्म की सहेतुक और स्वार्थयुक्त पूजा इस प्रकार विकसित होकर अहैतुक एवं स्वयंसत् प्रेम के तत्त्व में परिणत हो जति है । वास्तव में ऐसा प्रेम ही सच्ची भक्ति की कसौटी है और इससे पता चलता है कि क्या हम सचमुच भक्ति के राजपथ पर हैं या अभी उस ओर ले जानेवाली किसी एक पगडंडी पर ही चल रहे हैं । हमें पहले अपनी दुर्बलता के सहारों, अहंकार के प्रेरकों और अपनी निम्नतर प्रकृति के प्रलोभनों का त्याग करना होगा; तब कहीं हम दिव्य मिलन के अधिकारी बन सकेंगे ।
मनुष्य को एक ऐसी शक्ति या शायद ऐसी अनेक शक्तियां अनुभवगोचर होती हैं जो उससे अधिक महान् एवं उच्च होती हैं और उसके प्रकृतिगत जीवन को अभिभूत, प्रभावित एवं नियंत्रित करती हैं । स्वभावतः ही वह उसके या उनके प्रति वही आदिम असंस्कृत भाव प्रदर्शित करता है जो इस जीवन की कठिनाइयों, कामनाओं और कष्टों में प्राकृतिक प्राणी के सहज भाव होते हैं, अर्थात् भय और स्वार्थ । धार्मिक वृत्ति के विकास में 'इन प्रेरक भावों का महत्त्व निर्विवाद है, वास्तव में मनुष्य का आज जैसा भी स्वरूप है उसे दृष्टि में रखते हुए यह शायद इससे कम हो भी नहीं सकता था; यहांतक कि आज जब धर्म अपने मार्ग पर काफी आगे बढ़ चुका हैं तब भी हम देखते हैं कि ये भाव अभीतक जीवित एवं क्रियाशील हैं तथा काफी बड़ा भाग ले रहे हैं, स्वयं धर्म भी मनुष्य पर अपने अधिकारों की पुष्टि के लिये इन्हें न्याय्य एवं उचित प्रमाणित कर रहा है । कहा जाता है कि ईश्वर का भय, --या ऐतिहासिक तथ्य की दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि देवताओं का भय, --धर्म का प्रारम्भिक रूप है, यह एक अर्द्धसत्य है जिसपर वैज्ञानिक गवेषणा ने अनुचित बल दें दिया है, इसने धर्म के विकास का मूल खोजने की चेष्टा सहानुभूतिपूर्ण भाव से नहीं, वरन् साधारणत: आलोचनात्मक और प्रायः द्वेषपूर्ण वृत्ति से की है; परन्तु केवल ईश्वर का भय ही धर्म का मूल नहीं है, मनुष्य अत्यन्त असभ्य अवस्था में भी केवल भयवश ही कार्य नहीं करता है, बल्कि युगल प्रेरक भावों से, भय और कामना से, अप्रिय एवं अहितकर वस्तुओं के भय और प्रिय एवं हितकर वस्तुओं की कामना से । इस प्रकार वह भय एवं स्वार्थ दोनों से कार्य करता है । जबतक मनुष्य यह नहीं सीख लेता कि उसे मुख्यतया अपनी आत्मा में ही जीवन यापन करना है और बाह्य वस्तुओं की क्रिया--प्रतिक्रिया में केवल गौण रूप से, तबतक उसके लिये जीवन प्रथमत: एवं अनन्यतया कर्मो और परिणामों की शुंखलामात्र होता है, वह कर्म द्वारा काम्य, अर्ज्य एवं प्राप्य (उपादेय) वस्तुओं का तथा भयप्रद एवं त्याज्य (हेय) वस्तुओं का समूह भर होता हैं । वे हेय वस्तुएं उसके कर्म के परिणामस्वरूप, अनचाहे भी, उसपर आ पड़ू सकती हैं । उसके निजी कर्म से ही नहीं, बल्कि उसके चारों ओर रहनेवाले
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दूसरों के तथा प्रकृति के कर्म से भी ये हेय-उपादेय वस्तुएं उसके पास आ सकती हैं । अतएव, ज्यों ही उसे इस सबके मूल में एक ऐसी शक्ति अनुभूत होने लगती है जो कर्म एवं परिणाम को प्रभावित या निर्धारित कर सकती है त्यों ही वह इसके विषय में ऐसी कल्पना करता है कि यह सुख-दुःख को देनेवाली है, उसका उपकार या अपकार करने में, निग्रह-अनुग्रह करने में समर्थ है और कुछ अवस्थाओं में ऐसा करने को इच्छक होती है ।
अपनी सत्ता के अत्यन्त असंस्कृत अङ्गों में वह इसे, अपनी ही तरह, प्राकृतिक अहंकारमय आवेगों से युक्त वस्तु समझता है जो सन्तुष्ट होने पर हितकारी होती है और रुष्ट होने पर अहितकारी; तब पूजा होती है भेंटों से रिझाने और प्रार्थना द्वारा अनुनय-विनय करने का साधन । वह ईश्वर की प्रार्थना और प्रशंसा के द्वारा उसे अपने पक्ष में कर लेता है । अपने मन का अधिक विकास होने पर वह जीवन के कर्म को दिव्य न्याय के तत्त्व-विशेष पर अवलंबित मानता है । इस न्याय की व्याख्या वह सदा अपने विचारों एवं चरित्र के अनुसार ही करता है और अतएव इसे अपने मानवीय न्याय की एक प्रकार की परिवर्द्धित प्रतिलिपि समझता है; वह अपने मन में नैतिक शुभ-अशुभ की धारणा बना लेता है और दुःख एवं विपत्ति तथा सभी अप्रिय वस्तुओं को अपने पापों का दंड समझता है और सुख, संपत्ति तथा सभी प्रिय वस्तुओं को अपने पुण्य का फल । ईश्वर उसे राजा, विचाराधीश, व्यवस्थापक तथा न्यायकर्त्ता प्रतीत होता है । परंतु अभीतक उसे एक प्रकार का महामानव समझने के कारण वह अनुमान करता है कि जैसे उसका अपना न्याय प्रार्थना-आराधना के द्वारा पथभ्रष्ट किया जा सकता है वैसे ही दिव्य न्याय भी उन्हीं साधनों से पथभ्रष्ट किया जा सकता है । न्याय उसके लिये पुरस्कार और दंड का ही नाम है, दंड का निर्णय प्रार्थी पर दया करके बदला जा सकता है, जब कि विशेष प्रसादों और वरदानों के द्वारा पुरस्कारों में वृद्धि की जा सकती है । प्रसन्न होने पर शक्ति अपने अनुयायियों एवं भक्तों को ऐसे वर-प्रसाद सदा ही प्रदान कर सकती है । अपि च, ईश्वर भी हमारी तरह क्रोध कर सकता एवं बदला ले सकता है, क्रोध और बदले के भाव भेंटों, अनुनय-विनय एवं पश्चात्ताप के द्वारा पलटे जा सकते हैं; वह पक्षपात भी कर सकता है और चढ़ावों से, प्रार्थना तथा प्रशंसा से उसे अपने पक्ष में किया जा सकता है । इसलिये केवल नैतिक नियम के पालन पर निर्भर रहने के बजाय, प्रार्थना एवं अनुरंजन-आराधनरूप पूजा भी अभीतक चलती रहती है ।
इन प्रेरकों के साथ-साथ एक और वैयक्तिक भाव भी विकसित होता है, हमारी प्रकृति के परे एक ऐसी सत्ता भी है जो विशाल, शक्तिशाली एवं अपरिमेय है, क्योंकि उसके कर्म के उद्गम एवं क्षेत्र एक प्रकार से अचिन्त्य हैं । उसके प्रति मनुष्य पहले-पहल स्वभावत: ही संभ्रम (आदरप्रेरित भय) का अनुभव करता है । और फिर, जो सत्ता अपनी प्रकृति में या अपनी पूर्णता में हमसे उच्च है उसके प्रति
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मनुष्य आदर और सम्मान का भाव अनुभव करता है । मानवी प्रकृति के गुणों से युक्त ईश्वर की परिकल्पना को अधिकांशत: सुरक्षित रखते हुए भी, इसके साथ-ही-साथ, इससे मिला-जुला या इसमें ऊपर से जोड़ा हुआ एक और विचार भी विकसित हो जाता है । वह यह कि एक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् परिपूर्ण एवं अगम सत्ता भी है जो हमारी प्रकृति से नितांत भिन्न है । प्रचलित धर्म का नव-दशमांश इन सब प्रेरकों का अस्त-व्यस्त मिश्रणमात्र होता है जो नाना रूपों में विकसित, प्रायः संशोधित, परिष्कृत या अलंकृत किये हुए होते हैं; महान् आध्यात्मिक पुरुष मानवजाति की अधिक असंस्कृत धार्मिक धारणाओं में भगवान्-विषयक जो उत्कृष्टतर, सुन्दरतर एवं गभीरतर विचार उंडेल सके हैं वे इस नव-दशमांश में रिस-रिसकर व्याप्त हो गयें हैं, --वही हैं धर्म का शेष दशमांश । इसके परिणामस्वरूप प्रायः एक काफी भद्दी-सी चीज तैयार होती है जो संदेह और अविश्वास के बाणों का सहज लक्ष्य बनती है, --संदेह और अविश्वास मानव मन की ऐसी शक्तियां हैं जो श्रद्धा और धर्म के लिये भी उपयोगी हैं, क्योंकि वे धर्म को अपने विचारों के अपक्व एवं मिथ्या अंशों की उत्तरोत्तर शुद्धि करने के लिये बाध्य करती हैं । परन्तु हमें देखना यह है कि पूजा की धार्मिक वृत्ति को शुद्ध एवं उन्नत करने के लिये इनमें से किसी भी प्राचीन भाव के जीवित रहने की कहांतक आवश्यकता है और पूजा से ही प्रारम्भ होनेवाले भक्तियोग में इनका प्रवेश कहांतक वांछनीय है । यह इस बात पर निर्भर है कि कहांतक ये दिव्य पुरुष के किसी सत्य से संगत हैं या मानव आत्मा के साथ इसके सम्बन्धों के अनुरूप हैं; क्योंकि भक्ति से हम भगवान् के साथ मिलन तथा उसके साथ सच्चा सम्बन्ध प्राप्त करना चाहते हैं, अर्थात् उसके सत्य के साथ सम्बन्ध प्राप्त करना चाहते हैं न कि अपनी निम्न प्रकृति की और इसके अहंभावमय आवेगों एवं अज्ञानमूलक विचारों की किसी मृगतुष्णा के साथ ।
संशयात्मा नास्तिक जिस आधार को लेकर धर्म पर आक्रमण करता है वह यह है कि विश्व में वस्तुत: ऐसी कोई चेतन शक्ति या सत्ता है ही नहीं जो हमसे बड़ी और ऊंची हो अथवा हमारी सत्ता को किसी प्रकार प्रभावित या नियन्त्रित करती हो । इस आधार को योग स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि इससे तो समस्त आध्यात्मिक अनुभव खण्डित हो जायेगा और स्वयं योग असंभव हो जायेगा । दर्शन या सार्वजनिक धर्म की भांति योग कोई सिद्धांत या मतवाद की वस्तु नहीं है, बल्कि अनुभव का विषय है । इसका अनुभव यह है कि एक विश्वगत एवं विश्वातीत चिन्मय पुरुष का भी अस्तित्व है, उसके साथ यह हमारा मिलन कराता है । अदृश्य सत्ता से मिलन का यह सचेतन अनुभव सदैव पुनः-पुन: ताजा किया जा सकता है तथा परखा जा सकता है । यह उतना ही यथार्थ होता है जितना कि हमारा स्थूल संसार का तथा दृश्य प्राणियों का सचेतन अनुभव जिनके अदृश्य मनों
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के साथ हम नित्य-प्रति व्यवहार करते हैं । योग सचेतन मिलन के द्वारा ही आगे बढ़ता है, सचेतन पुरुष ही इसका कारण है । अचेतन के साथ सचेतन मिलन होना संभव नहीं । यह ठीक है कि यह मानव चेतना के परे जाता है और समाधि में अतिचेतन हो जाता है, परन्तु यह हमारी चेतन सत्ता का विलोप नहीं है, यह केवल उसका आत्म-अतिक्रमण है, उसका अपने वर्तमान स्तर और सामान्य सीमाओं के परे चले जाना है ।
हां, तो यहांतक समस्त यौगिक अनुभव एकमत हैं । पर धर्म और भक्तियोग इससे भी आगे जाते हैं, इनके मत से व्यक्तित्व तथा मनुष्य के साथ मानवीय सम्बन्ध इस चिन्मय पुरुष की विशेषताएं हैं । धर्म और भक्तियोग दोनों में मनुष्य भगवान् के पास वैसे ही जाता है, जैसे वह अपने किसी मित्र के पास जाता है, --अपनी मानवता के द्वारा तथा मानवीय भावों के साथ, परन्तु अधिक तीव्र एवं उदात्त भावों के साथ; इतना ही नहीं, बल्कि भगवान् भी इन भावों के अनुरूप ढंग से इनका उत्तर देते हैं । उत्तर की इस संभाव्यता पर ही सब कुछ अवलंबित है; कारण, यदि भगवान् निवैंयक्तिक, निराकार एवं नि:सम्बन्ध हैं तो ऐसा कोई भी उत्तर सम्भव नहीं हों सकता और उसकी ओर समस्त मानवीय पहुंच निरर्थक हो जाती है । तब तो जहांतक हम मानव-प्राणी हैं या किसी भी प्रकार के प्राणी हैं वहांतक हमें अपने-आपको मानवीयतारहित, व्यक्तित्वविहीन एवं विलुप्त कर देना होगा; दूसरी किसी भी शर्त्त पर तथा अन्य किसी भी साधन से हम उसके पास नहीं पहुंच सकते । जिस निवैंयक्तिक सत्ता का हमसे या संसार की किसी भी वस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं और जिसका कोई मनोगोचर रूप नहीं उसमे प्रेम या भय तथा उसकी प्रार्थना, प्रशंसा एवं पूजा स्पष्ट ही युक्तिविरुद्ध कार्य हैं । ऐसी दशा में धर्म ओर भक्ति असंगत ठहरती हैं । अद्वैतवादी को अपने नग्र एवं वन्ध्य दर्शन का धार्मिक आधार प्राप्त करने के लिये ईश्वर तथा देवताओं की व्यावहारिक सत्ता स्वीकार करके माया की भाषा से अपने मन को विमोहित करना पड़ता है । बौद्धमत लोकप्रिय धर्म तभी बना जब कि बुद्ध पूजास्पद परम देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो गये ।
यदि परम पुरुष हमारे साथ सम्बन्ध रख तो सकता हो, पर केवल निर्वैयक्तिक सम्बन्ध ही, तो धर्म मनुष्य के लिये महत्त्वशून्य हो जाता है और र्भाक्तमार्ग भी फलदायक या यहांतक कि सम्भव ही नहीं रहता । हम उसके प्रति अपने मानवीय भावों का प्रयोग अवश्य कर सकते हैं, पर अनिश्चित एवं अयथार्थ ढंग से तथा मानवोचित उत्तर की आशा के बिना; केवल एक ही तरीके से वह हमें उत्तर दे सकता है, वह हमारे भाव नि:स्तब्ध कर सकता हैं, हमें अपनी निर्वैयक्तिक शान्ति एवं निर्विकार समता से आच्छादित कर सकता है । जब हम ईश्वर की शद्ध निर्वैयक्तिकता का शरण लेते हैं तब वास्तव में ऐसा ही होता है । हम एक दैवी विधान के रूप में उसकी आज्ञा का पालन कर सकते हैं, उसकी शान्त सत्ता के
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प्रति अभीप्सा में अपनी आत्माओं को उसकी ओर ऊंचा उठा सकते हैं, अपनी भावुक प्रकृति को अपनेसे झाड़-फेंककर उस निर्वैयक्तिकता में विकसित हो सकते हैं; हमारा अन्तरस्थ मानवजीव तृप्त तो नहीं होता पर वह शान्त, संतुलित और स्तिमित हो जात है । परन्तु भक्तियोग इस विषय में धर्म से एकमत है और वह इस निर्वैयक्तिक अभीप्सा की अपेक्षा अधिक घनिष्ठ एवं स्नेहसिक्त पूजा का आग्रह करता है । इसका लक्ष्य है हमारी मानवता की तथा हमारी सत्ता के निनिर्वैयक्तिक भाग की एक साथ दिव्य परिपूर्त्ति, इसका लक्ष्य है मनुष्य की भावमय प्रकृति की दिव्य परितृप्ति । परम देव से इसकी मांग यह है कि वह हमारे प्रेम को स्वीकार कर उसका अनुरूप उत्तर दे; जैसे हम उसमें आनन्द लेते तथा उसे खोजते हैं वैसे ही, इसका विश्वास है कि, वह भी हममें आनन्द लेता और हमें खोजता है ! इस मांग को बुद्धिविरुद्ध कहकर इसकी निन्दा नहीं की जा सकती, क्योंकि यदि परात्पर और विश्वमय पुरुष हममें किसी प्रकार का रस न लेता तो यह समझना कठिन है कि हमारा अस्तित्व सम्भव ही कैसे होता या टिक भी कैसे सकता; यदि वह हमें अपनी ओर बिल्कुल खींचता ही नहीं, --यदि भगवान् हमें खोजता ही नहीं, --तो प्रकृति में कोई भी ऐसा कारण नहीं दीख पड़ता कि क्यों हम उसे खोजने के लिये अपनी सामान्य सत्ता के चक्र से मुंह फेरकर उसकी ओर मुड़ें ।
अतएव, भक्तियोग की कुछ भी सम्भावना हो सके इसके लिये हमें पहले यह मानना होगा कि परात्पर सत् निर्विशेष भाव नहीं है, या सत्ता की अवस्थामात्र नहीं है, बल्कि चिन्मय पुरुष है; दूसरे, कि इस संसार में हमारी उससे भेंट होती है और इसके अन्दर वह किसी-न-किसी प्रकार अन्तर्यामी भी है तथा इसका उद्गम भी, --नहीं तो हमें उससे मिलने के लिये सांसारिक जीवन से बाहर जाना होगा; तीसरे, कि वह हमसे वैयक्तिक सम्बन्ध रख सकता है और इसलिये व्यक्तिभाव धारण करने में कतई असमर्थ नहीं; अन्त में, कि हम अपने मानवीय भावों को लेकर उसके पास पहुंचते हैं और हमें तदनुरूप उत्तर प्राप्त होता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि भगवान् की प्रकृति है तो ठीक-ठीक हमारी मानवीय प्रकृति जैसी ही परन्तु अधिक बड़े पैमाने पर, या कि यह कुछ-एक विकारों से रहित मानवी प्रकृति ही है और ईश्वर है एक महान् या आदर्श मानव । ऐसी बात नहीं है और न ही हो सकती है कि ईश्वर अपने गुणों से सीमित एक अहं हो जैसे कि हम अपनी सामान्य चेतना में हैं । परन्तु इसके विपरीत, अवश्य ही हमारी मानवीय चेतना का मूल है भगवान् और यह उसीसे निकली हुई होनी चाहिये; हमारे अन्दर यह जो-जो रूप धारण करती है वे भगवान् से भिन्न भले ही हों और होंगे ही, क्योंकि हम अहंभाव से सीमित हैं, विश्वमय नहीं हैं, अपनी प्रकृति से ऊपर उठे हुए नहीं हैं, अपने गुणों और उनके व्यापारों से महान् नहीं हैं जैसा कि वह है, तो भी हमारे मानवीय भावों और आवेगों का मूल होना चाहिये उसीके अन्दर का एक सत्य
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जिसके ये सीमित, अतएव प्रायः विकृत या यहांतक कि भ्रष्ट रूप हैं । अपनी भावमय सत्ता द्वारा उसके पास जाने से हम इस सत्य के पास पहुंचते हैं, यह सत्य हमारे भावों से मिलने तथा इन्हें अपनी ओर उठाने के लिये हमारे पास नीचे आता है; इसके द्वारा हमारी भावमय सत्ता उससे एकमय हो जाती है ।
दूसरे, यह परात्पर पुरुष विश्वमय पुरुष भी है और संसार के साथ हमारे सभी सम्बन्ध ऐसे साधन हैं जिनसे हम उसके साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये तैयार होते हैं । वैश्व सत्ता की हम पर होनेवाली क्रिया के सम्मुख हम जिन भावों को लेकर उपस्थित होते हैं वे सब वास्तव में भगवान् को ही लक्ष्य करते हैं चाहे प्रारम्भ में वे अज्ञानपूर्वक ही ऐसा करते हैं, परन्तु उन्हें उत्तरोत्तर बढ़ते हुए ज्ञान के साथ भगवान् की ओर प्रेरित करने से ही हम उसके साथ अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध प्राप्त कर सकते हैं, और जैसे-जैसे हम एकता के अधिक समीप पहुंचेंगे उन भावों के मिथ्या एवं अज्ञानयुक्त अंश सब-के-सब झड़ जायेंगे । उन्नति की जिस अवस्था में हम हैं उसे दृष्टि में रखकर वह हमारे सभी भावों का उत्तर देता है; यदि हमारी अपूर्ण शरणागति को किसी प्रकार का उत्तर वा प्रोत्साहन न मिलता तो अधिक पूर्ण सम्बन्ध कभी भी स्थापित न हो सकते । जिस भी भाव में मनुष्य उसकी शरण लेते हैं उसी भाव में वह उन्हें स्वीकार करता है और दिव्य प्रेम द्वारा उनकी भक्ति का उत्तर भी देता है, तथैव भजते । सत्ता के जिस भी रूप की, जिन भी गुणों की वे उसमें प्रतिष्ठा करते हैं, उसी रूप तथा उन्हीं गुणों द्वारा वह उनके विकास में सहायता पहुंचाता है, उनकी प्रगति को प्रोत्साहित या परिचालित करता है और उनके सरल या कुटिल पथ से उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करता है । उसका जो रूप वे देखते हैं वह सत्य होता है, पर वह ऐसा सत्य होता है जो उनकी सत्ता एवं चेतना की भूमिका के अनुसार, खण्ड एवं विकृत रूप में उनके समक्ष प्रस्तुत होता है, न कि उसकी अपनी उच्चतर वास्तविकता के स्तर के अनुसार, न ही अपने उस स्वरूप में जो वह तब धारण करता है जब हम पूर्ण देवत्व से सचेतन हो जाते हैं । यह बात धर्म के अत्यन्त स्थूल एवं आदिम तत्त्वों का औचित्य सिद्ध करती है और साथ ही उनकी अस्थायिता एवं नश्वरता की घोषणा करती है । वे उचित इसलिये हैं कि उनके मुल में भगवान् का एक रहस्य निहित है और विकासोन्मुख मानव-चेतना की उस अवस्था में भगवान् के उस सत्य की ओर केवल इसी ढंग से पहुंचा जा सकता था और उसे आगे बढ़ाया जा सकता था; वे निन्दित इसालथे हैं कि सदा इन्हीं अपरिपक्व विचारों में तथा भगवान् के साथ ऐसे अपरिष्कृत सम्बन्धों में अड़े रहने के कारण हम उस निकटतर मिलन को खो बैठते हैं जिसकी ओर ये असंस्कूत आरम्भ प्राथमिक पग हैं, भले ही ये कैसे भी स्थलनशील क्यों न हों ।
हम कह चुहे हैं कि सारा ही जीवन प्रकृति का योग है; यहां इस स्थूल जगत् में जीवन उसका एक ऐसा प्रयास है जिससे वह अपनी प्रथम निश्चेतना से
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निकलकर अपने मूल स्रोत चेतन भगवान् से पुनर्मिलन प्राप्त करना चाहती है । मनुष्य का मन प्रकृति का संसिद्ध यन्त्र है; धर्म के अन्तर्गत वह इस बात से अभिज्ञ हो जाता है कि मनुष्य के अन्दर प्रकृति का लक्ष्य क्या है और वह प्रकृति की अभीप्सा का उत्तर देता है । यहांतक कि प्रचलित धर्म भी एक प्रकार का अज्ञानयुक्त भक्तियोग है । परन्तु जिसे हम विशेष रूप से योग का नाम देते हैं वह चीज यह तबतक नहीं बनता जबतक कि इसका प्रेरक भाव कुछ-न-कुछ पारदर्शी नहीं हो जाता, जबतक यह यह नहीं देखता कि इसका लक्ष्य है मिलन और मिलन का मूलतत्त्व है प्रेम, अतः जबतक यह प्रेम को उपलब्ध करने और अपने पृथक्कारी स्वरूप को प्रेम में खो देने का यत्न नहीं करता । जब यह कार्य सिद्ध हो जाये तब समझना चाहिये कि हमने योग के मार्ग पर निर्णायक कदम रख दिया है और हमारी सफलता निश्चित है । इस प्रकार यह आवश्यक है कि पहले हम भक्ति के मूल भावों को अनन्यतः तथा प्रबलतया भगवान् की ओर मोड़ दें, फिर उन्हें रूपान्तरित करें, ताकि वे अपने अधिक पार्थिव तत्त्वों से मुक्त हो जायें और अन्त में हम उन्हें शुद्ध एवं पूर्ण प्रेम के आधार पर प्रतिष्ठित करें । जो भाव प्रेम के पूर्ण मिलन के संग नहीं रह सकते उन सबको अन्तत: झड़ जाना होगा, टिकने योग्य भाव वही हो सकते हैं जो दिव्य प्रेम की अभिव्यक्तियों का रूप धारण कर सकते और दिव्य प्रेम का आस्वादन करने के साधन बन सकते हैं । प्रेम ही हमारे अन्दर एक ऐसा भाव है जो सर्वथा निःस्वार्थ, अहैतुक एवं स्वयंसत् हो सकता है; प्रेम का प्रेम के अतिरिक्त और कोई हेतु होना आवश्यक नहीं । क्योंकि हमारे सभी भावों का मूल होता है या तो आनन्द की खोज और प्राप्ति, या खोज की विफलता, या जो आनन्द हमने प्राप्त किया है या जिसे हमने अधिगत समझ लिया था उसका वियोग; परन्तु प्रेम वह है जिससे हम भागवत पुरुष का स्वयंभू आनन्द सीधा ही उपलब्ध कर सकें । भागवत प्रेम वास्तव में आनन्द की उस उपलब्धि का ही नाम है और मानों वह मूर्त्तिमान् आनन्द ही है ।
इस योग में हमारे प्रवेश और इस पथ पर हमारी यात्रा के नियामक सत्य यही हैं । कुछ अवान्तर प्रश्न भी पैदा होते हैं और मनुष्य की बुद्धि को व्याकुल करते हैं, यद्यपि उनसे निपटना अभी बाकी है पर वे अनिवार्य नहीं । भक्तियोग हृदय का विषय है, बुद्धि का नहीं । इस मार्ग में जो ज्ञान प्राप्त होता है उसके लिये भी हम अपनी यात्रा हृदय सै प्रारम्भ करते हैं, न कि बुद्धि से । अतएव, हृदय की भक्ति के प्रेरक भावों का सत्य और उनकी चरम उपलब्धि और एक ढंग से प्रेम के परम एवं अद्वितीय स्वयंसिद्ध भाव में उनका अन्तर्धान--बस इसीसे हमें प्रारम्भ में तथा अनिवार्यत: मतलब है । ऐसे विकट प्रश्न भी हैं कि क्या भगवान् का कोई मूल अतिभौतिक रूप या रूप-शक्ति है जिससे सभी रूप (रूपवान् पदार्थ) उत्पन्न होते हैं या कि वह सदा रूपरहित ही है; अभी बस इतना ही कहना आवश्यक है कि
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भगवान् कम-से-कम वे नाना रूप अवश्य स्वीकार करता है जो कि भक्त उसे प्रदान करता है और उन्हींके द्वारा वह उससे प्रेमपूर्वक मिलता है, जब कि हमारी आत्माओं का उसकी आत्मा से समागम भक्ति की सफलता के लिये अपरिहार्य है । इसी प्रकार, कुछ एक धर्म और धार्मिक दर्शन भक्ति को मानव-आत्मा तथा भगवान् के बीच नित्य भेद के विचार से जकड़ा देना चाहते हैं जिसके बिना, उनका कहना है कि, प्रेम और भक्ति का अस्तित्व सम्भव ही नहीं; परन्तु जिस दर्शन की मान्यता है कि केवल एकमेव भगवान् ही सत् है वह प्रेम और भक्ति का विनियोग अज्ञानगत व्यवहार में ही करता है । ये (प्रेम और भक्ति) अज्ञान के टिकनेतक शायद आवश्यक हैं या कम-से-कम प्रारम्भिक चेष्टा के रूप में उपयोगी हैं पर जब भेदमात्र मिट जाता है, अतएव जब इसे पार करना या त्यागना होता है तब ये सम्भव ही नहीं रहते । तथापि, हम एकमेव सत्ता का सत्य इस अर्थ में स्वीकार कर सकते हैं कि प्रकृतिगत 'सर्व' भगवान् ही है चाहे ईश्वर प्रकृतिगत सर्व से अधिक कुछ हो । तब प्रेम बन जाता है एक ऐसी गति जिससे प्रकृतिगत और मनुष्यगत भगवान् विराट् तथा परात्पर भगवान् के आनन्द को अधिकृत करता तथा इसका उपभोग करता है । जो हो, अवश्यमेव प्रेम की परितृप्ति स्वभावत: ही दो प्रकार की होती है, एक तो वह जिससे प्रेमी तथा प्रियतम भेद में अपने मिलन का आनन्द लेते हैं तथा उस सबका भी उपभोग करते हैं जो बहुविध मिलन के हर्ष में वृद्धि करता है, और दूसरी वह जिसमें वे अपनेको एक-दूसरे में उंडेलकर एक आत्मा बन जाते हैं । प्रारम्भ करने के लिये यही सत्य सर्वथा पर्याप्त है, क्योंकि यही है प्रेम का सच्चा स्वरूप । प्रेम ही इस योग का मूल प्रेरक है, अतः जैसा प्रेम का समग्र स्वरूप होगा वैसी ही होगी योग की गति, इसकी परिणति और परिपूर्ति ।
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