योग-समन्वय

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ७

 

बुद्धि और संकल्प की शुद्धि

 

बुद्धि को शुद्ध करने के लिये हमें पहले उसकी विशेष जटिल रचना को समझना होगा । और इसके लिये सर्वप्रथम हमें मन और बुद्धि (अर्थात् विवेकशील प्रज्ञा एवं आलोकित संकल्प) के पारस्परिक भेद को स्पष्ट रूप में हृदयंगम कर लेना होगा जिसकी साधारण भाषा में उपेक्षा ही की जाती है । मन का मतलब है इन्द्रियाधिष्ठित मन । मनुष्य का प्राथमिक मन बुद्धि और संकल्प से युक्त करण बिल्कुल ही नहीं होता; वह पाशव, भौतिक या इन्द्रियाश्रित मन होता है; वह अपने सम्पूर्ण अनुभव का गठन अपने ऊपर पड़नेवाले बाह्य जगत् के प्रभावों तथा अपनी उस देहबद्ध चेतना के द्वारा करता है जो इस प्रकार के अनुभव की बाह्य उत्तेजना को प्रत्युत्तर देती है । बुद्धि तो केवल एक गौण शक्ति के रूप में प्रकट होती है जिसने विकास में प्रथम स्थान ले लिया है, पर फिर भी वह जिस निम्न करण का प्रयोग करती है उसपर आश्रित रहती है; वह अपनी क्रियाओं के लिये ऐन्द्रिय मनपर निर्भर करती है और अपने उच्चतर धरातल पर तो वह वही कुछ करती है जो कि वह शरीर या इन्द्रिय-रूपी आधार पर से ज्ञान और कर्म को कठिनाई और परिश्रम के साथ एवं विशेष विघ्र-बाधाओं के बाद विस्तारित करके कर सकती है । सामान्य प्रकार का मानव-मन अर्द्ध-आलोकित स्थूल या इन्द्रियाश्रित मन ही है ।

 

  वास्तव में मन बाह्य चित्त से विकसित दुआ है; यह बाह्य स्पर्शों के द्वारा उत्तेजित एवं उद्बुद्ध चेतना के स्थूल उपादान का प्रथम संघटन है । भौतिक रूप में हम जड़-तत्त्व के अन्दर प्रसुप्त एक आत्मा हैं जो बाह्य चेतना के स्थूल तत्त्व से व्याप्त एक प्राणयुक्त शरीर की आंशिक चेतनातक विकसित हो चुकी है; यह चेतना इस बाह्य जगत् के, जिसमें हम अपनी चेतन सत्ता का विकास कर रहे हैं, बाह्य आघातों के प्रति कम या अधिक सचेत और सजग है । पशु में बहिर्मुख चेतना का यह तत्त्व अनुभव और कार्य करनेवाले मन की एक सुव्यवस्थित मानसिक इन्द्रिय या करण के रूप में अपने-आपको संघटित कर लेता है । वास्तव में इन्द्रिय देहस्थित चेतना का अपने चारों ओरकी वस्तुओं के साथ मानसिक संस्पर्श है । यह संस्पर्श मूल रूप में सदा ही एक मानसिक व्यापार होता है; पर वास्तव में यह मुख्य रूप से पदार्थों और उनके गुणों के साथ सम्बन्ध स्थापित करनेवाली कुछ-एक स्थूल इन्द्रियों के विकास पर निर्भर करता है; अपने ऊपर पड़नेवाले उन पदार्थों और गुणों के संस्कारों को यह अपने अभ्यासवश उनका मानसिक मूल्य प्रदान कर सकता है । जिन्हें हम स्थूल इन्द्रियां कहते हैं उनमें दो तत्त्व होते हैं, प्रथम, हमारी इन्द्रियों पर किसी पदार्थ का जो स्थूल-प्राणमय संस्कार पड़ता है वह और दूसरा,

६७३


मनोमय प्राण के द्वारा हम उस संस्कार को जो मूल्य प्रदान करते हैं वह; ये दोनों तत्त्व मिलकर हमारे दर्शन, श्रवण, घ्राण, स्वाद, स्पर्श तथा उन सब प्रकार के सम्वेदनों का गठन करते हैं जिनके लिये कि ये दर्शन आदि और मुख्यतः स्पर्श, आरम्भ-बिन्दु या प्रथम सञचारक साधन का काम करते हैं । परन्तु मन इन्द्रियों पर पड़नेवाले संस्कारों को स्थूल इन्द्रिय पर निर्भर न करनेवाले एक सीधे संक्रमण के द्वारा ग्रहण करके उनसे परिणाम निकाल सकता है । निम्न सृष्टि किंवा पशु-जगत् में यह तथ्य अधिक स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर होता है । यद्यपि मनुष्य में इस प्रत्यक्ष बोध के लिये सचमुच ही एक अधिक महान् सामर्थ्य है, मन में रहनेवाली छठी इन्द्रिय शक्ति है, फिर भी उसने केवल स्थूल इन्द्रियों पर तथा उनकी पूरक के रूप में बुद्धि की क्रिया पर ही निर्भर रहकर इस शक्ति को स्थगित अवस्था में रख छोड़ा है ।

 

  अतएव, मन का सर्वप्रथम कार्य तो इन्द्रियानुभव को व्यवस्थित करना है; इसके साथ ही वह देहस्थित चेतना के संकल्प की स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं को भी व्यवस्थित करता है और शरीर को एक साधन के रूप में प्रयुक्त करता है, अथवा, जैसा कि साधारणतया कहा जाता है, वह कमेंन्द्रियों को अपने करण के रूप में प्रयुक्त करता है । इस स्वाभाविक कार्य में भी दो तत्त्व होते हैं, स्थूल-प्राणमय आवेग और उसके पीछे सहज-प्रेरणात्मक संकल्प-वेग का प्रभाव जो मनोमय--प्राणिक शक्ति से पूर्ण होता है । यह सब प्राथमिक बोधों और कार्यो-रूपी उस सम्बन्ध-सूत्र का गठन करता है जो समस्त विकसनशील प्राणियों के जीवन को जोड़नेवाला एक सामान्य सूत्र है । पर इसके अतिरिक्त मनसू या इन्द्रियाश्रित मन में एक परिणामभूत प्राथमिक विचार तत्त्व भी होता है जो प्राणि-जीवन की क्रियाओं के साथ-साथ ही उत्पन्न होता है । जिस प्रकार प्राणयुक्त शरीर में चेतना अर्थात् चित्त की एक प्रकार की व्यापक एवं प्रभुत्वशाली क्रिया होती है जो इस ऐन्द्रिय मन का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार ऐन्द्रिय मन में भी एक प्रकार की व्यापक एवं प्रभुत्वशाली शक्ति होती है जो इन्द्रियलब्ध अनुभवों को मानसिक ढंग से प्रयोग में लाती है, उन्हें बोधों तथा प्राथमिक विचारों में परिणत कर देती है, एक अनुभव को अन्य अनुभवों से सम्बद्ध करती है और किसी-न-किसी ढंग से इन्द्रियानुभव के आधार पर ही विचार, अनुभव और संकल्प करती है ।

 

  यह सम्वेदनात्मक विचार-शक्ति जो इन्द्रिय, स्मृति और संस्कार पर तथा प्राथमिक विचारों एवं उनसे निकाले हुए अनुमानों या गौण विचारों पर आधारित है, समस्त प्राणियों के विकसित जीवन और मन में सामान्य रूप से पायी जाती है । निःसन्देह मनुष्य ने इसे अत्यधिक विकसित करके एक ऐसा अमित क्षेत्र एवं जटिलता प्रदान कर दी है जो पशु के लिये अप्राप्य है, तथापि यदि वह यहीं रुक जाये तो वह केवल एक महाशक्तिशाली पशु ही रहेगा । वह पशु के क्षेत्र और

६७४


उसकी उच्चता के परे इस कारण पहुंच जाता है कि वह अपनी विचार-क्रिया को इन्द्रियाश्रित मन से थोड़े बहुत अंश में मुक्त एवं पृथक् करने, इससे पीछे हटकर इसकी दी हुई सामग्री का निरीक्षण करने और इसपर ऊपर से एक पृथक्कृत एवं अंशत: स्वतन्त्र बुद्धि के द्वारा कार्य करने में समर्थ हो गया है । पशु की बुद्धि और संकल्पशक्ति ऐन्द्रिय मन में उलझी हुई हैं और अतएव वे पूर्ण रूप से इसके द्वारा परिचालित होती हैं तथा इसके सम्वेदनों, इन्द्रियानुभवों और आवेगों की धारा में बहा ले जायी जाती हैं; यह (ऐन्द्रिय मन) अन्धप्रेरणा से चालित होता है । मनुष्य एक ऐसी तर्क-बुद्धि एवं संकल्पशक्ति का अर्थात् अपना और सबका निरीक्षण करनेवाले एवं चिन्तन तथा बुद्धिपूर्वक संकल्प करनेवाले मन का प्रयोग कर सकता है जो पहले की तरह ऐन्द्रिय मन में नहीं फंसा होता, बल्कि इसके ऊपर तथा पीछे स्थित होकर अपने निज अधिकार से और एक प्रकार की पृथक्ता तथा स्वतन्त्रता के साथ कार्य करता है । वह चिन्तनशील है, उसे बुद्धिप्रधान संकल्प की एक प्रकार की सापेक्ष स्वतनत्त्रता प्राप्त है । उसने अपने अन्दर बुद्धि को मुक्त करके एक पृथक् शक्ति बना लिया है ।

 

   पर यह बुद्धि है क्या ? यौगिक ज्ञान के दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि यह अन्तरात्मा का, प्रकृति में स्थित आन्तरिक चेतन सत्ता अर्थात् पुरुष का वह करण है जिसके द्वारा वह अपने-आप तथा अपनी परिस्थितियों पर किसी प्रकार का चेतन एवं व्यवस्थित प्रभुत्व प्राप्त करती है । चित्त और मन की समस्त क्रिया के पीछे यह अन्तरात्मा किंवा 'पुरुष' उपस्थित होता है; पर जीवन के निम्न रूपों में यह अधिकतर अवचेतन, अर्द्ध-जागृत या प्रसुप्त ही रहता है, प्रकृति के यान्त्रिक कार्य में डूबा रहता है; तथापि जैसे-जैसे यह जीवन की क्रमशृंखला में ऊंचे उठता है, यह उत्तरोत्तर जागृत होकर अधिकाधिक आगे आता जाता है । बुद्धि की सक्रियता के द्वारा यह पूर्ण जागरण की क्रिया आरम्भ कर देता है । मन की निम्न क्रियाओं में 'पुरुष' प्रकृति को अपने अधिकार में रखने की अपेक्षा कहीं अधिक उसके अधीन रहता है; क्योंकि वहां यह पूर्ण रूप से उस यान्त्रिक क्रिया का दास बना रहता है जो इसे एक देहधारी के चेतन अनुभव की अवस्था में लायी है । पर बुद्धि में हम एक ऐसी वस्तुतक पहुंच जाते हैं जो अभी होती तो प्रकृति का करण है, पर फिर भी जिसके द्वारा प्रकृति पुरुष को इस कार्य के लिये सहायता देती एवं सन्नद्ध करती प्रतीत होती है कि यह उसे समझ ले तथा अधिकार में लाकर उसका स्वामी बन जाये ।

 

  पर बुद्धि के द्वारा प्राप्त यह समझ, अधिकार या स्वामित्व पूर्ण नहीं होता, इसका कारण या तो यह है कि हमारी बुद्धि-शक्ति अभीतक स्वयं अपूर्ण है, अभीतक केवल अर्द्ध-विकसित एवं अर्द्ध-गठित है, या यह है कि वह अपने स्वभाव की दृष्टि से केवल एक मध्यवर्ती करण है, और पूर्ण ज्ञान तथा प्रभुत्व प्राप्त कर सकने से पहले हमें बुद्धि से महान् किसी तत्त्व तक ऊंचे उठना होगा । तथापि यह एक

६७५


ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि हमारे अन्दर एक ऐसी शक्ति है जो पाशव जीवन से कहीं महान् है, एक ऐसा सत्य है जो ऐन्द्रिय मन के द्वारा अनुभूत प्राथमिक सत्यों या बाह्य रूपों से अधिक महान् है, और तब हम उस सत्य को प्राप्त करने का यत्न कर सकते हैं तथा कार्य और नियन्त्रण की एक अधिक महत् और सफल शक्ति की ओर, अपनी प्रकृति और अपने चारों ओरकी वस्तुओं की प्रकृति के ऊपर एक अधिक प्रभावपूर्ण शासन, एक उच्चतर ज्ञान, उच्चतर शक्ति एवं उच्चतर और विशालतर उपभोग की ओर तथा सत्ता के एक अधिक उन्नत स्तर की ओर बढ़ने का प्रयास कर सकते हैं । तो इस प्रवृत्ति का अन्तिम लक्ष्य क्या है ? स्पष्टतः ही, लक्ष्य यह है कि पुरुष अपने तथा वस्तुओं के उच्चतम और पूर्णतम सत्य को, अन्तरात्मा या आत्मा तथा प्रकृति के महत्तम सत्य को प्राप्त कर ले, सत्ता की एक ऐसी सक्रिय और निष्क्रिय अवस्था को प्राप्त कर ले जो इस सत्य का परिणाम हो या इससे अभिन्न हो, साथ ही इस महत्तम ज्ञान की शक्ति को तथा जिस महत्तम सत्ता एवं चेतना की ओर वह खुले उसके उपभोग को भी प्राप्त कर ले । प्रकृति में चेतन सत्ता के विकास का अन्तिम परिणाम यही होना चाहिये ।

 

  अतएव, अपनी अन्तरात्मा और आत्मा के सम्पूर्ण सत्य तथा अपनी मुक्त और समग्र सत्ता के ज्ञान, महिमा और आनन्द को प्राप्त करना ही बुद्धि की शुद्धि, मुक्ति और सिद्धि का लक्ष्य होना चाहिये । परन्तु आम धारणा यह है कि इसका अर्थ पुरुष का प्रकृति के ऊपर पूर्ण प्रभुत्व नहीं वरन् उसका परित्याग है । प्रकृति के कार्य को त्यागकर ही हम आत्मा को प्राप्त कर सकते हैं । जैसे बुद्धि, यह जानकर कि ऐन्द्रिय मन हमें केवल ऐसे बाह्य रूपों का ही ज्ञान कराता है जिनमें आत्मा प्रकृति के अधीन है, उनके पीछे अवस्थित अधिक वास्तविक सत्यों को ढूंढ़ निकालती है, वैसे ही अन्तरात्मा को भी यह ज्ञान प्राप्त करना होगा कि बुद्धि भी प्रकृति के ऊपर प्रयोग में लायी जाने पर हमें केवल बाह्य रूपों का बोध प्रदान कर सकती है और इस प्रकार हमारी दासता को बढ़ा ही सकती है; यह ज्ञान प्राप्त करके अन्तरात्मा को बाह्य रूपों के पीछे आत्मा के विशुद्ध सत्य को ढूंढ़ निकालना होगा । आत्मा एक ऐसा तत्त्व है जो प्रकृति से बिल्कुल भिन्न है और बुद्धि को प्राकृतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति तथा उनमें संलग्नता से अपने को मुक्त करके शुद्ध करना होगा; केवल इस प्रकार ही वह शुद्ध पुरुष और आत्मा को अनुभव कर सकती है तथा प्राकृत पदार्थों से पृथक् कर सकती है : शुद्ध पुरुष एवं आत्मा का ज्ञान ही एकमात्र वास्तविक ज्ञान है, शुद्ध पुरुष और आत्मा का आनन्द ही एकमात्र आध्यात्मिक उपभोग है, शुद्ध पुरुष एवं आत्मा की चेतना और सत्ता ही एकमात्र वास्तविक चेतना और सत्ता हैं । इस विचार के अनुसार, कर्म और संकल्प बन्द ही हों जायेंगे, क्योंकि कर्ममात्र प्रकृति का कर्म है; शुद्ध पुरुष एवं आत्मा बनने के सङ्कल्प का अर्थ है कर्म करने के समस्त संकल्प का अन्त ।

६७६


परन्तु आत्मा की सत्ता, चेतना और शक्ति की तथा उसके आनन्द की उपलब्धि पूर्णता प्राप्त करने की शर्त्त है, -क्योंकि अन्तरात्मा अपनी सत्ता के सत्य को जानकर, प्राप्त तथा चरितार्थ करके ही मुक्त और सिद्ध बन सकती है, पर इसके साथ-ही-साथ हम यह भी मानते हैं कि प्रकृति आत्मा की एक सनातन क्रिया एवं अभिव्यक्ति है; प्रकृति शैतान का फन्दा नहीं है, भ्रामक आकृतियों का कोई ऐसा समूह नहीं है जिसे कामना, इन्द्रिय, प्राण और मानसिक सङ्कल्प एवं बुद्धि ने उत्पन्न किया हों, बल्कि ये बाह्य आकार आत्मा के संकेत और इंगित हैं और इन सबके पीछे आत्मा का एक सत्य विद्यमान है जो इनसे परे है तथा इनका प्रयोग करता है । हम यह मानते हैं कि प्रकृति में एक आध्यात्मिक विज्ञान एवं सङ्कल्पशक्ति अन्तर्निहित है जिसके द्वारा सर्वव्यापी गुप्त आत्मा अपने सत्य को जानती है, सङ्कल्प करती है, प्रकृति में अपनी सत्ता को प्रकट करके उसका नियमन करती है; उस विज्ञान को प्राप्त करना, उसके साथ अन्तर्मिलन लाभ करना या उसके कार्य में भाग लेना हमारी पूर्णता का अंग होना चाहिये । अतः बुद्धि की शुद्धि का लक्ष्य यह होगा कि हम अपने आत्म-स्वरूप के सत्य को प्राप्त करें, पर साथ ही प्रकृति में व्यक्त हुई अपनी सत्ता के उच्चतम सत्य को भी प्राप्त करें । इस उद्देश्य के लिये हमें सबसे पहले बुद्धि को उन सब चीजों से मुक्त करके शुद्ध करना होगा जो इसे ऐन्द्रिय मन के अधीन कर देती हैं और एक बार इस शुद्धि के सम्पन्न हो जानेपर, इसे इसकी अपनी मर्यादाओं से मुक्त करके इसकी निम्न मानसिक बुद्धि और संकल्प को आध्यात्मिक सङ्कल्प और ज्ञान की महत्तर क्रिया में रूपान्तरित करना होगा ।

 

  ऐन्द्रिय मन की सीमाओं को पार करने के लिये बुद्धि की क्रिया एक ऐसा प्रयत्न है जो मानव-विकास में अबतक आधा तो सफल हो चुका है; यह मनुष्य में विश्वप्रकृति की सामान्य क्रिया का एक भाग है । उसके अन्दर विचार-मानस, बुद्धि और सङ्कल्प शुरू-शुरू में जो क्रिया करते हैं वह परवश होती है । वह इन्द्रियों की साक्षी को, प्राण-वासनाओं, अन्ध-प्रेरणाओं, कामनाओं तथा भावावेशों की आज्ञाओं को तथा क्रियाशोल ऐन्द्रिय मन के आवेगों को शिरोधार्य करती है और उन्हें केवल एक अधिक व्यवस्थित दिशा एवं प्रभावशाली सफलता प्रदान करने का यत्न करती है । परन्तु जिस मनुष्य की बुद्धि एवं सङ्कल्प-शक्ति निम्न मन से परिचालित एवं शासित होती हैं वह मानव-प्रकृति की निम्न कोटि का प्रतिनिधि है, और हमारी चेतन सत्ता का जो भाग इस शासन की अधीनता को स्वीकार करता है वह हमारी मनुष्यता का सबसे निचला भाग है । बुद्धि का उच्चतर कार्य तो निम्न मन को अतिक्रान्त और नियन्त्रित करना है, निःसन्देह इसका अर्थ मन से छुटकारा पाना नहीं, बल्कि उन सब क्रियाओं को, जिनका यह प्राथमिक संकेत है, सङ्कल्प और बुद्धि के उत्कृष्टतर स्तर में उठा ले जाना है । ऐन्द्रिय मन के ऊपर पड़नेवाले संस्कार एक ऐसी विचार-शक्ति के द्वारा प्रयोग में लाये जाते हैं जो उनसे परे है और उनसे

६७७


प्राप्त न होनेवाले सत्योंतक अर्थात् मन के प्रत्ययात्मक सत्यों एवं दर्शन और विज्ञान के सत्योंतक पहुंच सकती है । चिन्तन और अनुसन्धान करनेवाला दार्शनिक मन ऐन्द्रिय संस्कारोंवाले प्राथमिक मन को वश में लाकर संशोधित और नियन्त्रित करता है । बुद्धिमूलक संकल्पशक्ति आवेगात्मक और प्रतिक्रियाशील सम्वेदन-प्रधान मन तथा प्राणिक वासनाओं को एवं आवेशात्मक कामनावाले मन को ऊपर उठा ले जाती है तथा एक महत्तर नैतिक मन उन्हें वश में करके संशोधित और नियन्त्रित करता है । यह मन यथार्थ आवेग, कामना और आवेश तथा यथार्थ कार्य के नियम को खोजकर उनपर लागू करता है । बुद्धि ग्रहण और स्थूल उपभोग करनेवाले सम्वेदनात्मक मन, आवेशप्रधान मन तथा प्राणिक मन को ऊपर उठा ले जाती है और एक अधिक गहरा एवं सुखमय सौन्दर्यरसिक मन उन्हें वशीभूत करके संशोधित और शासित करता है । यह मन सच्चे आनन्द और सौन्दर्य के नियम को ढूंढ़कर उनपर लागु करता है । विचार और सङ्कल्प करनेवाले बुद्धिप्रधान मानव की एक सामान्य 'शक्ति' शासक बुद्धि, कल्पना, निर्णयशक्ति, स्मृति, संकल्प-बल, विवेकशील तर्क-शक्ति और आदर्श वेदन से युक्त मनोमय 'पुरुष' में इन सब नव-निर्मित करणों का प्रयोग करती है । यह मनोमय पुरुष उन्हें ज्ञान, आत्म-विकास, अनुभव, अन्वेषण, सृजन तथा क्रियान्वयन के लिये प्रयोग में लाता है, अभीप्सा और प्रयत्न करता है, आन्तरिक अनुभूति प्राप्त करता है, प्रकृति में रहनेवाली आत्मा के जीवन को एक उच्चतर वस्तु बनाने का यत्न करता है । तब आरम्भिक कामनामय पुरुष सत्ता पर शासन नहीं करता । वह (कामनामय पुरुष) वहां उपस्थित होने पर भी एक उच्चतर शक्ति के द्वारा दमित और नियन्त्रित होता है, वह एक ऐसा तत्त्व होता है जो सत्य, सङ्कल्प, शुभ और सौन्दर्य के देवों को अपने अन्दर प्रकट कर चुका होता है और जीवन को उनके अधीन रखने का यत्न करता है  । असंस्कृत कामना-पुरुष एवं मन अपने-आपको एक आदर्श 'पुरुष' एवं मन में रूपान्तरित करने का यत्न कर रहा है, और जिस हदतक इस महत्तर चेतन पुरुष का कुछ प्रभाव एवं सामंजस्य उपलब्ध और प्रतिष्ठित हो पाया हैं उस हदतक हमारी मानवता विकसित हो चुकी है ।

 

   पर बुद्धि की यह क्रिया अभीतक अत्यन्त अपूर्ण है । हम देखते हैं, कि जिस मात्रा में हम दो विशेष प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करते हैं उसी मात्रा में यह क्रिया एक अधिक महान् समग्रता की ओर अग्रसर होती हैं; उन सिद्धियों में से पहली है --निम्नतर सुझावों के नियन्त्रण से अधिकाधिक मुक्ति; दूसरी, ज्योति, शक्ति और आनन्द से युक्त एक ऐसी स्वयंभू सत्ता की अधिकाधिक उपलब्धि जो हमारी सामान्य मानवता के परे है तथा इसका रूपान्तर करती है । नैतिक मन जितना ही कामना, ऐन्द्रिय सुझाव, आवेग तथा अभ्यस्त एवं अन्यचालित क्रिया से अपने-आपको मुक्त करता है तथा जितना ही वह सत्य धर्म, प्रेम, शक्ति और पवित्रता से

६७८


युक्त उस आत्मा को खोजता है जिसमें वह चरितार्थ होकर रह सके तथा जिसे वह अपने सब कार्यों का आधार बना सके, उतना ही वह पूर्णता प्राप्त करता जाता है । सौन्दर्यग्राही मन जितना ही अपने सब स्थूलतर सुखों से तथा सौन्दर्यलक्षी बुद्धि के बाह्य प्रचलित नियमों से अपने को मुक्त करता है तथा जितना ही वह शुद्ध और असीम सौन्दर्य एवं आनन्द से युक्त उस स्वयंभू पुरुष एवं आत्मा को खोज लेता है जो सौन्दर्यबोध की सामग्री को अपना प्रकाश और आनन्द प्रदान करता है उतना ही वह पूर्ण बनता जाता है । ज्ञानात्मक मन अपनी पूर्णता तब प्राप्त करता है जब वह अपने व्यक्तिगत संस्कार, सिद्धान्त और मत-अभिमत से परे हटकर आत्मज्ञान और सहजबोध की उस ज्योति को ढूंढ़ लेता है जो इन्द्रियों और बुद्धि की सभी क्रियाओं को तथा समस्त आत्मानुभव और विश्वानुभव को आलोकित करती है । संकल्पशक्ति अपनी पूर्णता तब प्राप्त करती है जब वह अपने आवेगों त था कार्य-साधन के अभ्यस्त ढर्रों से दूर और पीछे हटकर भीतर प्रवेश करती है और आत्मा की उस आन्तरिक शक्ति को खोज लेती है जो अन्तर्ज्ञानात्मक एवं प्रकाशमय क्रिया तथा मौलिक एवं सामंजस्यपूर्ण सृजन का उद्गम है । पूर्णता-प्राप्ति की क्रिया का अर्थ है--निम्न प्रकृति के समस्त प्रभुत्व से हटकर बुद्धि में आत्मा और 'पुरुष' की सत्ता और शक्ति एवं उसके ज्ञान और आनन्द को शुद्ध एवं शक्तिशाली रूप में प्रतिबिम्बित करना ।

 

   आत्मसिद्धियोग का अभिप्राय इस द्विविध क्रिया को यथासम्भव अधिक-से-अधेक पूर्ण बनाना है । बुद्धि में कामना का मिश्रणमात्र एक प्रकार की अपवित्रता है । कामना से रंगी हुई बुद्धि अपवित्र बुद्धि है और वह सत्य को विकृत कर देती है; कामना से रंगी हुई संकल्पशक्ति अशुद्ध संकल्पशक्ति है और वह अन्तरात्मा के कार्य पर विकृति, पीड़ा और अपूर्णता की छाप लगा देती है । कामनामय पुरुष के भावावेगों का मिश्रण मात्र एक अपवित्रता है और वह भी ज्ञान तथा कर्म को पूर्वोक्त ढंग से विकृत कर देता है । सम्वेदनों और आवेगों के प्रति बुद्धि की अधीनता मात्र एक अपवित्रता है । विचार और संकल्पशक्ति को कामना, उद्वेगजनक भावावेश तथा विक्षेपकारी या प्रभुत्वशाली आवेग के प्रति अनासक्त होकर पीछे की ओर स्थित होना होगा तथा अपने निज अधिकार के बल पर कार्य करना होगा, ऐसा उन्हें तबतक करते रहना होगा जबतक वे उस महत्तर मार्गदर्शिका अर्थात् संकल्पशक्ति, तपस् या दिव्य शक्ति को न खोज लें जो कामना, मानसिक संकल्प और आवेग का स्थान ले लेगी, तथा जबतक कि वे आत्मा के उस आनन्द या शुद्ध हर्ष को एवं आलोकित आध्यात्मिक ज्ञान को न खोज लें जो इस शक्ति के कार्य में अपने-आपको प्रकट करेंगें । यह पूर्ण अनासक्ति, जो पूर्ण आत्म-शासन, शम, समता और शान्ति के बिना प्राप्त नहीं हो सकती, बुद्धि की शुद्धि की ओर सबसे अधिक सुनिश्चित पग है । शान्त, सम और अनासक्त मन ही शान्ति को

६७९


अपने अन्दर प्रतिबिम्बित कर सकता है अथवा मुक्त आत्मा के कर्म का आधार बन सकता है ।

 

   स्वयं बुद्धि एक मिश्रित एवं अशुद्ध क्रिया के बोझ से दबी हुई है । जब हम उसके अपने वास्तविक रूपों में उसका विश्लेषण करते हैं तो हमें पता चलता है कि उसकी क्रिया की तीन अवस्थाएं या तीन उत्तरोत्तर ऊंचे स्तर हैं । सर्वप्रथम, उसका सबसे निचला आधार एक अभ्यस्त एवं रूढ़ क्रिया है जो उच्चतर बुद्धि और ऐन्द्रिय मन के बीच की कड़ी है, एक प्रकार की प्रचलित बोधशक्ति (समझ) है, यह बोधशक्ति अपने-आपमें इन्द्रियों की साक्षी पर तथा कर्म के उस नियम पर आश्रित रहती है जिसे तर्कबुद्धि जीवन के विषय में ऐन्द्रिय मन की अनुभूति तथा वृत्ति के आधार पर निर्धारित करती है । यह अपने-आप शुद्ध विचार और संकल्प नहीं कर सकती, पर यह उच्चतर बुद्धि की क्रियाओं को लेकर उन्हें सम्मति के सिक्के, विचार के रूढ़ मानदण्ड या कार्य के नियम में परिणत कर देती है । जब हम चिन्तनात्मक मन का एक प्रकार का व्यावहारिक विश्लेषण करते हैं तथा उसमें से इस बोधशक्ति को बाद दे देते हैं और उच्चतर बुद्धि को उसके पीछे मुक्त, साक्षी एवं शान्त रूप में धारण किये रहते हैं तो हमें पता चलता है कि यह सामान्य एवं रूढ़ बोधशक्ति व्यर्थ का चक्कर काटने लगती है, अपनी सब गढ़ी हुई सम्मतियों को तथा वस्तुओं के बाह्य स्पर्शों के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को दुहराती रहती है, पर कोई प्रबल सामञ्जस्य साधित नहीं कर सकती, न किसी कार्य का बीड़ा ही उठा सकती है । जैसे-जैसे यह अधिकाधिक यह अनुभव करती है कि उच्चतर बुद्धि इसे अनुमति नहीं देती, वैसे-वैसे यह असफल होने लगती है, उसका आत्म-विश्वास और अपने रूपों एवं अभ्यासों में विश्वास डिगने लगता है, यह बुद्धि की क्रिया में, भी अविश्वास करने लगती है तथा दुर्बल पड़कर निस्तब्ध होती जाती है । दौड़ते रहने, चक्कर काटने और पुनरावृत्ति करनेवाले इस रूढ़ चिन्तनात्मक मन को शान्त करना विचारशक्ति को नीरव करने की उस क्रिया का जो योग की सर्वाधिक प्रभावशाली साधनाओं में से एक है, सबसे मुख्य भाग है ।

 

  पर स्वयं उच्चतर बुद्धि की पहली अवस्था क्रियाशील व्यवहारलक्षी बौद्धिकता की होती है जिसमें सृजन, कर्म और संकल्प ही वास्तविक प्रेरक होते हैं और विचार एवं ज्ञान तो मुख्यत: क्रियान्विति के लिये प्रयुक्त होनेवाली आधारभूत धारणाओं तथा सुझावों की रचना के लिये काम में लाये जाते हैं । इस व्यवहारलक्षी बुद्धि के लिये सत्य बुद्धि की एक ऐसी रचनामात्र है जो बाह्य तथा आन्तरिक जीवन के कार्य के लिये एक प्रभावशाली साधन है । जब हम इसे उस और भी उच्च स्तर की बुद्धि से, जो वैयक्तिक रूप से एक प्रभावशाली सत्य का सृजन करने की अपेक्षा परम सत्य को निर्व्यक्तिक रूप से प्रतिबिम्बित करने का यत्न करती है, पृथक् कर लेते हैं तो हमें पता चलता है कि यह व्यवहारलक्षी बुद्धि क्रियाशील 

६८०


ज्ञान के द्वारा अनुभव को उत्पन्न, विकसित और विस्तृत कर सकती है, परन्तु इसे अपने आधार और पाये के रूप में सर्वसामान्य, रूढ़ बोध-शक्ति पर आश्रित रहना पड़ता है और अपना सारा बल जीवन तथा अभिव्यक्ति पर ही देना होता है । अतएव यह अपने-आपमें जीवन और कर्म की प्रेरणा देनेवाले संकल्प से युक्त मन है, ज्ञानात्मक मन की अपेक्षा कहीं अधिक संकल्पात्मक मन है : यह किसी सुनिश्चित, स्थिर और शाश्वत सत्य में नहीं, बल्कि सत्य के उन विकासोन्मुख एवं परिवर्तनशील पक्षों में निवास करती है जो हमारे जीवन और प्राकटय के बदलते हुए रूपों के लिये उपयोगी होते हैं अथवा, अधिक-से-अधिक, जीवन के अभिवर्धन और विकास में सहायक होते हैं । अपने-आपमें यह व्यवहारलक्षी मन हमें न तो कोई दृढ़ आधार प्रदान कर सकता है और न ही कोई स्थिर लक्ष्य; यह नित्यता के किसी सत्य में नहीं, वर्तमान काल के सत्य में निवास करता है । परन्तु जब यह रूढ़ बोध-शक्ति की अधीनता से मुक्त होकर शुद्ध हो जाता है तो यह महान् स्रष्टा होता है और उच्चतम मानसिक तर्कशक्ति के साथ मिलकर तो यह जीवन में सत्य को कार्यान्वित करने के लिये एक शक्तिशाली वाहन एवं साहसी सेवक बन जाता है । इसके कार्य का मूल्य उच्चतम सत्यान्वेषिणी बुद्धि के मूल्य एवं शक्ति-सामर्थ्य पर निर्भर करेगा । पर अकेला अपने-आप यह काल का खिलौना और प्राण (जीवन) का क्रीतदास है । निश्चल-नीरवता की साधना करनेवाले को इसे अपने से दूर फेंक देना होगा; समग्र भगवान् को पाने के अभिलाषी साधक को इसे अतिक्रम कर जाना होगा, जीवन में व्यग्र इस चिन्तनात्मक मन के स्थान पर एक महत्तर कार्यसाधक आध्यात्मिक संकल्प अर्थात् आत्मा के सत्य-संकल्प को प्रतिष्ठित करके उसके द्वारा इसे रूपान्तरित करना होगा ।

 

  बौद्धिक संकल्प और तर्कशक्ति की तीसरी एवं उत्कृष्टतम अवस्था उस बुद्धि की है जो किसी वैश्व सद्वस्तु को या उससे भी ऊंचे किसी स्वयंस्थित सत्य को उसीकी खातिर खोजती है और फिर उस सत्य में जीवन धारण करने का यत्न करती है । यह प्रधानतया ज्ञानात्मक मन है और संकल्पात्मक मन तो यह केवल गौण रूप से ही है । अपनी जिज्ञासावृत्ति की अति होने पर यह प्रायः ज्ञान प्राप्त करने के एकमात्र संकल्प को छोड़कर, सामान्यतः संकल्प को धारण करने में असमर्थ ही हो जाती है; कर्म के लिये यह व्यवहारलक्षी मन की सहायता पर निर्भर करती है और अतएव कर्म करने के समय मनुष्य अपने उच्चतम ज्ञान के द्वारा अधिकृत सत्य की पवित्रता से पतित होकर उसकी एक मिश्रित निम्नतर, अस्थिर और अपवित्र क्रियान्विति में ग्रस्त होता चला जाता है । ज्ञान और संकल्प में यह असामञ्जस्य विरोध रूप न होने पर भी मानव-बुद्धि के मुख्य दोषों में से एक है । पर समस्त मानव-चिन्तन की कुछ अन्य स्वाभाविक सीमाएं भी हैं । यह उच्चतम बुद्धि मनुष्य के अन्दर अपने शुद्ध रूप में कार्य नहीं करती; निम्न मन अपने दोषों

६८१


के द्वारा इसपर आक्रमण करता है, इसे निरन्तर तमसाच्छन्न, विकृत और आवृत करता रहता है और इसके अपने विशेष कार्य में बाधा पहुंचाता है या उसे पंगु कर देता है । मानव-बुद्धि को मानसिक विच्युति की इस आदत से यथासम्भव अधिक-से-अधिक मुक्त एवं शुद्ध भले ही कर दिया जाये फिर भी वह एक ऐसी शक्ति रहती है जो सत्य की खोज करती है पर उसे सम्पूर्ण या प्रत्यक्ष रूप में कभी भी नहीं प्राप्त कर पाती; वह तो आत्मा के सत्य को केवल प्रतिबिम्बित कर सकती है और उसे सीमित मानसिक मूल्य एवं सुस्पष्ट मानसिक आकार प्रदान करके अपना बनाने का यत्न कर सकती है । उसका प्रतिबिम्ब भी वह समग्र रूप में ग्रहण नहीं करती, बल्कि या तो एक अनिश्चित समग्रता को पकड़ पाती है या फिर सीमित ब्यौरों के कुल योग को । सर्वप्रथम वह किसी एक या दूसरे आंशिक प्रतिबिम्ब को अपनी पकड़ में लाती है और उसे रूढ़ मन के अभ्यास के वश में करके एक स्थिर एवं बन्धनकारक सम्मति में परिणत कर देती है; इस प्रकार वह जो दृष्टिकोण बना लेती है उसीसे समस्त नये सत्य को परखती है और अतएव उसे एक सीमित करनेवाले पूर्वनिर्णय के रंग में रंग देती है । सीमाबद्ध करनेवाली सम्मति के इस अभ्यास से उसे यथासम्भव अधिक-से-अधिक मुक्त कर भी दो, फिर भी वह एक अन्य बन्धन के वश में रहती है, वह यह कि व्यवहारलक्षी मन उससे प्रत्येक नये सत्य को तुरत-फुरत क्रियान्वित करने की मांग करता है । यह मांग उसे विशालतर सत्य की ओर बढ़ने के लिये अवकाश ही नहीं देती, बल्कि जिस सत्य को वह पहले जांच-परख तथा जान-समझ करके जीवन में उतार चुकी है उसीमें उसे उस सत्य की प्रभावशाली चरितार्थता की शक्ति के द्वारा बांधे रखती है । इन सब बन्धनों से मुक्त होकर बुद्धि सत्य को प्रतिबिम्बित करनेवाला एक शुद्ध और नमनीय दर्पण बन सकती है, तब वह एक ज्योति में दुसरी ज्योति की वृद्धि करती है तथा एक साक्षात्कार से दूसरे साक्षात्कार की ओर अग्रसर होती हैं । तब वह केवल अपनी स्वाभाविक सीमाओं से ही सीमित होती है ।

 

  ये सीमाएं मुख्यत: दो प्रकार की हैं । प्रथम, उसके साक्षात्कार केवल मानसिक होते हैं; साक्षात् सत्यतक पहुंचने के लिये हमें मनोमय बुद्धि के परे जाना होगा । दूसरे, मन अपने स्वभाव से ही उसे उसकी पकड़ में आये सत्यों का प्रभावशाली एकीकरण नहीं करने देता । वह केवल उन्हें पास-पास रखकर उनके विरोधों को देख सकती है अथवा उनमें एक प्रकार का अपूर्ण, कार्यक्षम एवं व्यावहारिक मेल ही स्थापित कर सकती है । पर अन्त में उसे पता चलता है कि सत्य के पहलू अनन्त हैं और इस (सत्य) के बौद्धिक रूपों में से कोई भी पूर्णत: यथार्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा अनन्त है और आत्मा में सब कुछ ही सत्य है, पर मन में ऐसा कोई भी तत्त्व नहीं जो आत्मा के सम्पूर्ण सत्य को प्राप्त करा सके । ऐसी दशा में या तो बुद्धि अनेक प्रतिबिम्बों को ग्रहण करनेवाला एक शुद्ध दर्पण बन जाती है, अर्थात्

६८२


उसपर जिस भी सत्य की किरणें पड़ती हैं उसे वह प्रतिबिम्बित करती है, पर वह उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं होती और जब उसे कार्य में लगाया जाता है तो या तो वह निर्णय करने में असमर्थ रहती है या गड़बड़ा जाती है, अथवा (यदि वह सब सत्यों के लिये दर्पण का काम नहीं करती तो) उसे एक चुनाव करना पड़ता है और इस प्रकार व्यवहार करना पड़ता है मानों वह आंशिक सत्य ही सम्पूर्ण सत्य हो, यद्यपि वह जानती होती है कि बात ऐसी नहीं है । वह अज्ञान की असहाय परिधि के भीतर कार्य करती है, यद्यपि वह अपने कार्य की अपेक्षा कहीं अधिक महान् सत्य से युक्त हो सकती है । इसके विपरीत, वह जीवन और विचार से मुंह मोड़कर अपने-आपको अतिक्रम करने तथा अपने से परे के सत्य में प्रवेश करने का यत्न भी कर सकती है । यह कार्य वह सद्वस्तु के किसी पक्ष या तत्त्व अथवा किसी प्रतीक या संकेत को पकड़ में लाकर तथा उसके एक निरपेक्ष, सर्वग्रासी एवं सर्ववर्जक रूप का साक्षात्कार प्राप्त करके कर सकती है या फिर समस्त विचार एवं जीवन जिस निर्विशेष 'सत्' या 'असत्' में लीन हो जाते हैं उसके विषय में किसी विचार को अधिगत तथा प्रत्यक्ष करके भी वह यह कार्य कर सकती है । तब बुद्धि प्रकाशमय निद्रा में लीन हो जाती है और आत्मा आध्यात्मिक सत्ता के किसी अनिर्वचनीय शिखर पर पहुंच जाती है ।

 

   अतएव बुद्धि की शुद्धि का कार्य करते हुए हमें या तो इन उपरिवर्णित सम्भावनाओं में से किसी एक को चुन लेना होगा या फिर अन्तरात्मा को मनोमय भूमिका से आध्यात्मिक विज्ञान में उठा ले जाने का अत्यन्त विरल साहस-कार्य करने के लिये यत्न करना होगा और इस प्रकार यह देखना होगा कि इस दिव्य ज्योति एवं शक्ति के निज अन्तस्तल में हमें क्या सत्य प्राप्त हो सकता है । यह विज्ञानमय कोश दिव्य ज्ञान-संकल्प के सूर्य को अपने अन्दर धारण किये है जो परमोच्च चिन्मय पुरुष के द्युलोक में प्रोज्ज्वल रूप से चमक रहा हैं, हमारी मनोमय बुद्धि और संकल्प-शक्ति तो उसकी विकीर्ण और विचलित रश्मियों और प्रतिच्छायाओं का एक केन्द्रमात्र हैं । उसमें दिव्य एकत्व है, किन्तु फिर भी या वास्तव में इसी कारण वह अनेकता एवं विभिन्नता को नियन्त्रित कर सकता है : जो भी चुनाव, आत्म-परिसीमन एवं सम्मिश्रण वह करता है वह उसपर अज्ञान के द्वारा नहीं लादा जाता, बल्कि एक स्वराट् दिव्य ज्ञान की शक्ति के द्वारा स्वयं विकसित होता है । जब विज्ञान उपलब्ध हो जाता है तो उसे मानवसत्ता को दिव्य बनाने के लिये सम्पूर्ण प्रकृति पर प्रयुक्त किया जा सकता है । पर विज्ञान में एकदम ही आरोहण कर जाना सम्भव नहीं; यदि ऐसा करना सम्भव हो तो इसका अर्थ होगा सूर्य के द्वारों में से, सूर्यस्य द्वारा, एकाएक और जोर-जबर्दस्ती से तीर की तरह छूटते हुए या उन्हें तोड़ते हुए ऊपर चले जाना या उनमें से चुपके से निकलकर ऊपर भाग जाना, जिसके बाद निकट भविष्य में वहां से लौटने की कोई सम्भावना

६८३


नहीं रहती । हमें अन्तर्ज्ञानात्मक या ज्ञानदीप्त मन को एक शृंखला या सेतु बनाना होगा, यह मन प्रत्यक्ष विज्ञान-ज्योति नहीं है, पर इसमें विज्ञान का प्रथम गौण रूप निर्मित हो सकता है । यह ज्ञानदीप्त मन आरम्भ में एक मिश्रित-सी शक्ति होगा जिसको हमें मन पर निर्भर रहने की उसकी समस्त प्रवृत्ति से तथा मानसिक रूप-रचनाओं से मुक्त कर शुद्ध करना होगा ताकि संकल्प और विचार की समस्त क्रिया एक आलोकित विवेकशक्ति, अन्तर्ज्ञान, अन्तःप्रेरणा और दिव्य साक्षात्कार के द्वारा तत्त्वदृष्टि तथा सत्यदर्शी संकल्प में रूपान्तरित हो जाये । यह बुद्धि की अंतिम शुद्धि होगी और इसके साथ ही विज्ञानमय सिद्धि के लिये तैयारी भी ।

६८४










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates