Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
पहला भाग
दिव्य कर्मों का योग
अध्याय १
चार साधन
योग-सिद्धि, अर्थात् वह पूर्णता जो योगाभ्यास से प्राप्त होती है, चार महान् साधनों की सम्मिलित क्रिया द्वारा सर्वोत्तम रूप से सम्पादित की जा सकती है । पहला साधन है शास्त्र, अर्थात् उन सत्यों, सिद्धांतों, शक्तियों और विधियों का ज्ञान जिन पर सिद्धि निर्भर करती है । दूसरा है उत्साह, अर्थात् शास्त्रोक्त ज्ञान द्वारा निर्धारित पद्धतियों के आधार पर धीर और स्थिर क्रिया, —हमारे वैयक्तिक प्रयत्न का बल । तीसरा, गुरु, —गुरु का साक्षात् निर्देश, दृष्टान्त और प्रभाव जो हमारे ज्ञान और प्रयत्न को आध्यात्मिक अनुभूति के क्षेत्र में ऊपर उठा ले जाते हैं । अन्तिम है काल, अर्थात् समय का माध्यम; कारण, सभी घटनाओं में क्रिया का एक चक्र और ईश्वरीय गति का एक विशेष समय होता है ।
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पूर्णयोग का परम शास्त्र वह सनातन वेद है जो प्रत्येक विचारशील मनुष्य के हृदय में गुप्त रूप से निहित है । नित्य ज्ञान और नित्य पूर्णता का कमल एक अविकसित और मुकुलित कली के रूप में हमारे अन्दर ही विद्यमान है । एक बार जब मनुष्य का मन सनातन की ओर मुड़ने लगता है, एक बार जब उसका हृदय सांत रूपों के मोह की संकीर्णता से ऊपर उठकर, चाहे किसी भी मात्रा में हो, अनन्त में अनुरक्त हो जाता है, तब वह कली शीघ्र या शनैः -शनैः, एक-एक पंखड़ी करके, एक-एक उपलब्धि के द्वारा खुलने लगती है । उस समय से उसका सारा जीवन, सारे विचार, उसके शक्ति-सामर्थ्य के सभी व्यापार और समस्त निष्क्रिय या सक्रिय अनुभव ऐसे बहुविध आघात बन जाते हैं जो आत्मा के आवरणों को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं और उसके अनिवार्य विकास के रास्ते में आनेवाली बाधाओं को दूर कर देते हैं । जो भगवान् को चुनता है वह भगवान् द्वारा चुना जा चुका है । उसने वह दिव्य संस्पर्श प्राप्त कर लिया है जिसके बिना आत्मा का जागरण और उन्मीलन होता ही नहीं । बस, एक बार संस्पर्श प्राप्त हो जाना चाहिये, फिर सिद्धि तो निश्चित है, चाहे हम उसे अति शीघ्र, एक ही मानव-जीवन की अवधि में अधिगत कर लें या अभिव्यक्त जगत् में जन्म-जन्मान्तरों की परंपरा में से गुजरते हुए धैर्यपूर्वक उस ओर अग्रसर हों ।
मन को ऐसी कोई भी शिक्षा नहीं दी जा सकती जिसका बीज मनुष्य की विकसनशील अन्तरात्मा में पहले से ही निहित न हो । अतएव, मनुष्य का बाह्य
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व्यक्तित्व जिस पूर्णता को पहुंच सकता है वह भी सारी-की-सारी उसकी अपनी अन्तरस्थ आत्मा की सनातन पूर्णता को उपलब्ध करना मात्र है । हम भगवान् का ज्ञान प्राप्त करते हैं और भगवान् ही बन जाते हैं, क्योंकि हम अपनी प्रच्छन्न प्रकृति में पहले से वही हैं । शिक्षणमात्र का अर्थ है आविर्भूत करना, संभूतिमात्र का अभिप्राय है प्रकट होना । आत्म-उपलब्धि ही रहस्य है; आत्म-ज्ञान और वर्द्धमान चेतना उसके साधन तथा प्रक्रिया हैं ।
ज्ञान को आविर्भूत करने का साधारण साधन है ' श्रुत' शब्द, अर्थात् श्रवण किया हुआ 'शब्द' । शब्द हमें अन्दर से प्राप्त हो सकता है; वह हमें बाहर से भी प्राप्त हो सकता है । परन्तु दोनों अवस्थाओं में वह निगूढ़ ज्ञान की क्रिया शुरू करा देने का साधनमात्र होता है । अन्दर का शब्द हमारी उस अन्तरतम अन्तरात्मा की वाणी हो सकता है जो भगवान् की ओर सदा खुली रहती है, अथवा यह उन प्रच्छन्न और विश्वव्यापी परम गुरु का शब्द हो सकता है जो सब के हृदयों में विराजमान हैं । कुछ एक महापुरुषों के लिये यही पर्याप्त होता है, उन्हें अन्य किसी शब्द की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि बाकी सारा योग तो उस परम गुरु के सतत संस्पर्श और पथ-प्रदर्शन की छाया में आवरणों का खुलनामात्र होता है । ज्ञान का कमल आप-से-आप, भीतर से ही, खिलता है, वह हृदय-कमल के अधिवासी से निःसृत जाज्वल्यमान तेज की शक्ति से विकसित होता है । निःसन्देह ऐसे महापुरुष विरले ही होते हैं जिनके लिये यह आन्तरिक आत्म-ज्ञान ही पर्याप्त होता है और जिन्हें किसी लिखित ग्रंथ या जीवित गुरु के प्रबल प्रभाव के अनुसार चलने की आवश्यकता नहीं होती |
किन्तु साधारणतया, भगवान् के प्रतिनिधि-स्वरूप, बाहर से प्राप्त ईश्वरीय शब्द की जरूरत पड़ती ही है, क्योंकि यह आत्म-प्रस्कुटन के कार्य में सहायक होता है । यह या तो किसी प्राचीन गुरु का शब्द हो सकता है या किसी जीवित गुरु का अधिक प्रभावपूर्ण शब्द । प्रतिनिधिभूत गुरु के उपदेश को कुछ साधक अपनी अन्तःशक्ति के जगाने और प्रकट करने के लिये केवल एक निमित्त के रूप में ही ग्रहण करते हैं, मानों सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् भगवान् प्रकृति के संचालक सामान्य नियम की मर्यादा का मान कर रहे हों । उपनिषदों में देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण के बारे में एक कथा आती है कि घोर ऋषिके एक शब्द से उनके अन्दर ज्ञान जागृत हो उठा । इसी प्रकार रामकृष्ण ने अपने निजी आन्तरिक प्रयत्न से केंद्रीय प्रकाश प्राप्त कर योग के विभिन्न मार्गों में अनेक गुरु धारण किये, पर अपनी उपलब्धि के ढंग और वेग से हर बार यह दिखा दिया कि उनका यह गुरु धारण करना उस सामान्य नियम का सम्मान ही था जिसके अनुसार वास्तविक ज्ञान मनुष्य को शिष्य-भाव में मनुष्य से ही प्राप्त करना चाहिये ।
परन्तु सामान्यतया साधक के जीवन में भगवत्प्रतिनिधिरूप शास्त्र या जीवित गुरु
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के शब्द के प्रभाव का बहुत ही बड़ा स्थान होता है । यदि साधक किसी ऐसे मान्य प्राचीन शास्त्र के अनुसार साधना कर रहा हो जिसमें कुछ प्राचीन योगियों का अनुभव दिया हो, तो वह केवल वैयक्तिक प्रयत्न से या किसी गुरु की सहायता से ही अपनी साधना चला सकता है । तब, वह उस शास्त्र में प्रतिपादित सत्यों के मनन-निदिध्यासन से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है और अपनी व्यक्तिगत अनुभूति में उन सत्यों का साक्षात्कार करके उस ज्ञान को जीवित और जागृत करता है । किसी शास्त्र या परंपरा के द्वारा उसे योग की कुछ निश्चित विधियों का ज्ञान होता है, और जब वह देखता है कि उसके गुरु भी अपनी शिक्षाओं में उन्हीं विधियों को संपुष्ट और स्पष्ट करते हैं तो वह भी उन्हीं का अनुसरण करके उनके फलस्वरूप योग-मार्ग में आगे बढ़ता है । अवश्य ही यह अधिक संकीर्ण पद्धति है, पर अपनी सीमाओं के भीतर सुरक्षित और फलप्रद है, क्योंकि यह चिर-परिचित लक्ष्य पर पहुंचने के लिये एक सुविदित पथ का अवलंबन करती है ।
परन्तु पूर्णयोग के साधक को यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि कोई भी लिखित शास्त्र नित्य ज्ञान के केवल कुछ एक अंशों को ही प्रकट कर सकता है, चाहे उसकी प्रामाणिकता कितनी भी महान् क्यों न हो अथवा उसकी भावना कितनी भी विशाल क्यों न हो । साधक शास्त्र का उपयोग करेगा, किन्तु महान्-से-महान् शास्त्र से भी वह अपने-आपको बांधेगा नहीं । यदि धर्मशास्त्र गभीर, विशाल एवं उदार हो तो वह साधक के लिये अत्यंत हितकर तथा महत्त्वपूर्ण हो सकता है । वह उसके लिये सर्वोपरि सत्यों तथा उच्चतम अनुभूतियों की प्राप्ति का साधन बन सकता है । उसका योग दीर्घकाल तक एक ही शास्त्र या क्रमश: अनेक शास्त्रों के अनुसार चल सकता है, उदाहरणार्थ, यदि वह महान् हिन्दू परम्परा का अनुसरण करता है, तो वह गीता, उपनिषदों और वेद के अनुसार योग का अभ्यास कर सकता है । अथवा उसके विकास का अधिकतर भाग इस प्रकार का हो सकता है कि वह अनेक शास्त्रों के सत्यों के विविध अनुभवों की ऐश्वर्यराशि को अपने विकास के स्वरूप में समाविष्ट कर सकता है और अतीत में जो कुछ भी श्रेष्ठ था उस सब से भविष्य को समृद्ध बना सकता है । परन्तु अन्त में उसे अपनी आत्मा की ही शरण लेनी होगी । अथवा इससे भी अच्छा यह होगा (यदि वह ऐसा कर सके तो) कि वह लिखित सत्य का अतिक्रमण करके१ और जो कुछ वह श्रवण कर चुका है एवं जो कुछ उसे अभी श्रवण करना है उस सबका२ अतिक्रमण करके सदा-सर्वदा और प्रारम्भ से ही अपनी आत्मा में निवास करे । कारण, वह एक पुस्तक या अनेक पुस्तकों का साधक नहीं है, वह अनन्त का साधक है ।
एक और प्रकार का भी शास्त्र होता है । यह धर्मशास्त्र नहीं होता; इसमें जिस
१ शब्दब्रह्मातिवर्तते । गीता— ६, ४४ ।
२ श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च । गीता—२, ५२ ।
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योगपथ-पर साधक चलना पसन्द करता है उसकी विद्या एवं विधियों और फलोत्पादक सिद्धान्तों तथा क्रिया-प्रणाली का वर्णन होता है । प्रत्येक पथ का अपना-अपना शास्त्र होता है, चाहे वह लिखित हो या परंपरा-प्राप्त अर्थात् गुरुओं की दीर्घ परंपरा द्वारा गुरुमुख से प्राप्त होता चला आ रहा हो । भारतवर्ष में साधारणत: लिखित या परम्परा-प्राप्त शिक्षा को महान् प्रामाणिकता एवं अतिशय सम्मान तक प्रदान किया जाता है । ऐसा माना जाता है कि योग-विशेष की सभी विधियां नियत और स्थिर होती हैं । इसलिये जिस गुरु ने परम्परा द्वारा शास्त्र को प्राप्त किया है और अभ्यासद्वारा उसे अनुभव-सिद्ध कर लिया है वह अतिप्राचीन पदचिह्नों के सहारे शिष्य को मार्ग दिखाता है । किसी नयी अभ्यास-क्रिया, नयी यौगिक शिक्षा और नवीन सूत्र के अंगीकार के विरुद्ध बलपूर्वक उठायी गयी आपत्ति भी प्रायः हमारे सुनने में आती है कि ' 'यह शास्त्र के अनुसार नहीं है । '' परन्तु असल में बात ऐसी नहीं है, न योगियों की क्रियात्मक साधना में ही वस्तुत: कोई ऐसी लोह-दुर्ग की-सी अभेद्य कठोरता होती है कि उसमें नवीन सत्य, नूतन ईश्वरीय ज्ञान एवं विस्तीर्ण अनुभव का प्रवेश ही न हो सके । लिखित या परम्परागत शिक्षा अनेक शताब्दियों के ज्ञान और अनुभवों को एक शास्त्रीय एवं क्रमबद्ध रीति से प्रकट कर देती है जिससे कि वे योग का आरम्भ करने वाले व्यक्ति के लिये सुलभ हो जाते हैं । अतएव, इसकी महत्ता और उपयोगिता अतीव महान् है । परन्तु विविधता और विकास के लिये अत्यधिक स्वाधीनता सदा ही प्रयोग में लायी जा सकती है । राजयोग जैसी अत्युच्च कोटि की वैज्ञानिक पद्धति का अभ्यास भी पतंजलि की क्रमबद्ध प्रणाली से भिन्न अन्य परिपाटियों द्वारा किया जा सकता है । त्रिमार्ग के१ तीनों मार्ग अनेक उपमार्गों में विभक्त हो जाते हैं जो अपने लक्ष्य पर पहुंचकर फिर मिल जाते हैं । जिस सामान्य ज्ञान पर योग आश्रित है वह तो नियत है, किन्तु क्रम, पूर्वापरभाव, उपायों और रूपों में विभेद तो हमें स्वीकार करना ही होगा । यद्यपि सामान्य सत्य स्थिर और शाश्वत रहते हैं तथापि वैयक्तिक प्रकृति की आवश्यकताओं और विशेष प्रवृत्तियों को तो तृप्त करना ही होता है ।
विशेषकर, पूर्ण और समन्वयात्मक योग को किसी लिखित या परम्परागत शास्त्र से आबद्ध होने की आवश्यकता नहीं । जहां यह योग प्राचीन ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करता है वहां यह उसे वर्तमान और भविष्य के लिये नवीन रूप में व्यवस्थित करने का यत्न भी करता है । इसके स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिये यह अनिवार्य है कि इसे अनुभव उपलब्ध करने की और नयी परिभाषाओं तथा नये रूपों में ज्ञान का फिर से प्रतिपादन करने की पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो । क्योंकि यह सम्पूर्ण जीवन को अपने अन्दर समाविष्ट करने का यत्न करता है, इसकी स्थिति
१ ज्ञान, भक्ति और कर्म का त्रिविध मार्ग ।
उस यात्री की-सी नहीं है जो अपनी मंजिल की तरफ जाने वाले राजपथ पर चलता चला जाता है, बल्कि, कम-से-कम इस अंश में, इसकी स्थिति एक ऐसे मार्गान्वेषक की-सी है जो किसी अपरिचित वन में नये मार्ग बनाता है । कारण, योग चिरकाल तक जीवन से विमुख रहा है और प्राचीन पद्धतियां, उदाहरणार्थ, हमारे वैदिक पूर्वजों की पद्धतियां, जिन्होंने इसका आलिंगन करने का यत्न किया था, हमारे लिये अत्यन्त दुर्गम हैं । वे ऐसे शब्दों में वर्णित हैं जो आज हमारे लिये सुबोध नहीं हैं, ऐसे रूपों में विन्यस्त हैं जो आज व्यवहार्य नहीं । तब से मनुष्यजाति नित्य 'काल' की धारा पर आगे बढ़ चुकी है और इसीलिये अब उसी समस्या पर नये दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है ।
इस योग के द्वारा हम अनन्त की केवल खोज ही नहीं करते, बल्कि उसका आवाहन भी करते हैं जिससे वह अपने-आपको मानवजीवन में प्रस्कुटित करे । अतएव, हमारे योग-शास्त्र को ग्रहणशील मानव आत्मा की अनन्त स्वतन्त्रता के लिये सब प्रकार की सुविधा प्रदान करनी होगी । मनुष्य के पूर्ण आध्यात्मिक जीवन के लिये ठीक अवस्था यह होगी कि विराट् तथा परात्पर पुरुष को अपने में ग्रहण करने के ढंग और प्रकार में उसे हेर-फेर की पूरी स्वतन्त्रता हो । विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि सब धर्मों की एकता चरितार्थ करने के लिये यह आवश्यक है कि इसके रूपों की विविधता अधिकाधिक समृद्ध हो तथा उस मूलभूत एकता की पूर्ण अवस्था तब प्राप्त होगी जब प्रत्येक मनुष्य का अपना धर्म होगा और जब वह सम्प्रदाय या रूढ़ि-परम्परा से बंधा न रहकर परम पुरुष के साथ अपने संबन्धों में अपनी स्वतन्त्र और सामंजस्य-साधक प्रकृति का ही अनुसरण करेगा । इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि पूर्णयोग की पूर्णता तब प्राप्त होगी जब प्रत्येक मनुष्य अपने निजी योग-मार्ग का अवलंबन कर सकेगा तथा प्रकृति से परे की किसी वस्तु की ओर उन्मुख होती हुई अपनी निजी प्रकृति के विकास का ही अनुसरण करेगा । कारण, स्वतन्त्रता ही अन्तिम विधान और चरम परिणति है ।
इस बीच कुछ ऐसी सामान्य पद्धतियां निश्चित करने की जरूरत है जो साधक की चिंतना और साधना का मार्ग-निर्देश करने में सहायक हों । परन्तु इन्हें यथासम्भव व्यापक सत्यों एवं सामान्य सिद्धान्त-वाक्यों का और प्रयास एवं विकास की अत्यन्त शक्तिशाली विस्तृत दिशाओं का ही रूप धारण करना चाहिये, इन्हें कोई ऐसी बंधी-बंधायी विधियां नहीं होना चाहिये जिनका नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं की भांति पालन करना पड़े । शास्त्रमात्र भूतकाल के अनुभव का फल होता है और साथ ही भावी अनुभव में सहायक होता है । यह एक साधन और आंशिक मार्गदर्शक होता है । यह चिह्नित खंभे गाड़ देता है और मुख्य सड़कों एवं पहले खोजी जा चुकी दिशाओं के नाम बता देता है, जिससे पथिक को पता चल सके कि वह किधर और किन मार्गों से बढ़ रहा है ।
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शेष सब कुछ व्यक्तिगत प्रयत्न और अनुभव पर और पथ-प्रदर्शक की शक्ति पर निर्भर करता है ।
अनुभव का विकास कितने वेग एवं विस्तार के साथ होता है और उसके परिणाम कितने तीव्र एवं प्रभावशाली होते हैं—यह मार्ग के प्रारम्भ में और बाद में भी दीर्घकाल तक मुख्यत: साधक की अभीप्सा और उसके वैयक्तिक प्रयत्न पर ही निर्भर करता है । योग की मौलिक प्रक्रिया यह है कि मानव आत्मा वस्तुओं के बाह्य रूपों और आकर्षणों में ग्रस्त अहंभावमय चेतना से मुंह मोड़कर उस उच्चतर चेतना को अधिकृत कर ले जिसमें परात्पर और विराट् ईश्वर अपने- आपको व्यक्तिरूपी सांचे के अन्दर उंडेल सकें और उसे रूपान्तरित कर सकें । अतएव, सिद्धि का सर्वप्रथम निर्धारक तत्त्व यही है कि आत्मा उच्चतर चेतना की ओर कितनी तीव्रता से अभिमुख होती है अथवा अपने को अन्तर्मुख करनेवाली शक्ति उसमें कितनी है । इस तीव्रता के नाप हैं—हृदय की अभीप्सा की शक्ति, संकल्प का बल, मन की एकाग्रता, प्रयुक्त शक्ति का अनवरत उद्योग और दृढ़ निश्चय । आदर्श साधक को बाइबल की उक्ति के अनुसार यह कहने में समर्थ होना चाहिये ''मेरे भगवत्प्राप्ति के उत्साह ने मुझे पूर्णतः ग्रस लिया है । '' भगवान् के लिये ऐसा उत्साह, अपनी दिव्य परिणति के लिये सम्पूर्ण प्रकृति की व्यग्रता एवं व्याकुलता और भगवान् की प्राप्ति के लिये हृदय की उत्सुकता ही उसके अहं को ग्रस लेती है और इसके क्षुद्र तथा संकीर्ण सांचे की सीमाओं को तोड़ डालती है । फलत:, अहं अपनी अभीष्ट वस्तु को, जो विश्वव्यापी होने से विशालतम तथा उच्चतम व्यष्टिगत आत्मा और प्रकृति को भी अतिक्रान्त किये है और परात्पर होने के कारण उससे अत्यन्त उत्कृष्ट है, पूर्ण तथा विशाल रूप में ग्रहण कर पाता है ।
परन्तु जो शक्ति पूर्णता के लिये कार्य करती है उसका यह केवल एक पार्श्व है । पूर्णयोग की प्रक्रिया में तीन अवस्थाएं आती हैं, निश्चय ही वे तीव्र रूप में भिन्न या पृथक्-पृथक् तो नहीं हैं, पर किसी अंश में क्रमिक अवश्य हैं । सबसे पहले हमें अपने अहंभाव से ऊपर उठने और भगवान् के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का यत्न करना होगा जिससे कि हम, कम-से-कम, योग में दीक्षित होकर उसके अधिकारी बन सकें । उसके बाद यह आवश्यक है कि जो परब्रह्म हमसे अतीत है और जिसके साथ हमने अन्तर्मिलन प्राप्त कर लिया है उसे हम अपने अन्दर ग्रहण करें, ताकि वह हमारी सम्पूर्ण चेतन सत्ता का रूपान्तर कर सके । अन्त में, हमें अपनी रूपान्तरित मानवता का संसार में भगवान् के केंद्र के रूप में उपयोग करना होगा । जब तक भगवान् के साथ सम्बन्ध यथेष्ट मात्रा में स्थापित नहीं हो जाता, जब तक कुछ-न-कुछ सतत तादात्म्य, प्राप्त नहीं हो जाता तब तक
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साधारणतया व्यक्तिगत प्रयलरूपी अंग अवश्य ही प्रधान रहता है । परन्तु जैसे-जैसे यह सम्बन्ध स्थापित होता जाता है वैसे-वैसे साधक निश्चित रूप में इस बात से सचेतन होता जाता है कि उसकी शक्ति से भिन्न कोई शक्ति, जो उसके अहंभावपूर्ण प्रयत्न और सामर्थ्य से अतीत है, उसके अन्दर काम कर रही है और वह उत्तरोत्तर उस परम शक्ति के प्रति अपने-आपको उत्सर्ग करना सीखता जाता है और अपने योग का कार्यभार उसे सौंप देता है । अन्त में उसका अपना संकल्प और सामर्थ्य उच्चतर शक्ति के साथ एक हो जाते हैं; वह उन्हें भागवत संकल्प और उसकी परात्पर तथा विश्वव्यापिनी शक्ति में निमज्जित कर देता है । तब से वह देखने लगता है कि यह शक्ति उसकी मानसिक, प्राणिक एवं शारीरिक सत्ता के आवश्यक रूपान्तर का सूत्रसंचालन ऐसे न्यायपूर्ण ज्ञान और दूरदर्शी क्षमता के साथ कर रही है जो उत्कंठित और स्वार्थरत अहं के सामर्थ्य से बाहर की वस्तु हैं । जब यह तादात्म्य और आत्म-निमज्जन पूर्ण हो जाते हैं तब संसार में भगवान् का केंद्र तैयार हो जाता है । विशुद्ध, मुक्त, सुनम्य और ज्ञानदीप्त होकर वह केंद्र मानवता या अतिमानवता के विस्तीर्णतर योग में, अर्थात् इस भूलोक की आध्यात्मिक प्रगति या इसके रूपान्तर के योग में, सर्वोच्च शक्ति की साक्षात् क्रिया के लिये साधन के तौर पर उपयोग में आने लग सकता है ।
निःसन्देह हमारे अन्दर सदा उच्चतर शक्ति ही काम करती है । हम में जो यह भाव होता है कि स्वयं हम ही यत्न तथा अभीप्सा करते हैं उसका कारण यह है कि हमारा अहंकारमय मन अपने-आपको दिव्य शक्ति की क्रियाओं के साथ अशुद्ध और अपूर्ण ढंग से एकाकार करने की चेष्टा करता है । यह अतिप्राकृतिक स्तर के अनुभव पर भी मन की वही साधारण परिभाषाएं लागू करने का आग्रह करता है जिनका प्रयोग यह अपने सामान्य सांसारिक अनुभवों के लिये करता है । संसार में हम अहंकार की भावना के साथ कर्म करते हैं । हमारे अन्दर जो वैश्व शक्तियां काम करती हैं उन्हें हम दावे के साथ अपनी कहते हैं । मन, प्राण और शरीर के इस ढांचे में परात्पर की चयनशील एवं निर्माणकारी विकासात्मक क्रिया को हम अपने निजी संकल्प, ज्ञान, बल और पुण्य का परिणाम घोषित करते हैं । प्रकाश की प्राप्ति होने पर हमें यह ज्ञान होता है कि अहंकार तो यन्त्रमात्र है । हम यह देखने और समझने लगते हैं कि ये चीजें केवल इस अर्थ में हमारी हैं कि ये हमारी उस सर्वोच्च अखंड आत्मा से सम्बन्ध रखती हैं जो यन्त्रात्मक अहंकार के साथ नहीं वरन् परात्पर के साथ एकीभूत है । भागवत शक्ति की क्रिया पर हम केवल अपनी सीमाएं और विकृतियां ही थोपा करते हैं; उसमें जो सच्ची शक्ति है वह तो भगवान् की ही है । जब मनुष्य का अहंकार यह अनुभव कर लेता है कि उसका संकल्प एक उपकरण है, उसका ज्ञान अविद्या एवं मूढ़ता है, उसका बल मानों बच्चे का अन्धेरे में टटोलना है एवं उसका पुण्य पाखंडपूर्ण अपवित्रता है, और जब वह अपने-आपको अपने से अतीत सत्ता के हाथों में सौंपना सीख जाता है तभी वह
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मुक्ति लाभ करता है । हम अपनी वैयक्तिक सत्ता के बाह्य स्वातंत्र्य तथा स्व- ख्यापन में अतीव गहरे आसक्त हैं, पर इनके पीछे उन सहस्रों सुझावों, प्रेरणाओं तथा शक्तियों के प्रति, जिन्हें हमने अपने क्षुद्र व्यक्तित्व से बाहर की वस्तु बना रखा है, हमारी अत्यन्त दयनीय दासता छिपी रहती है । हमारा अहंकार स्वतन्त्रता की डींग मारता हुआ भी प्रतिक्षण विश्व-प्रकृति के अन्दर अनगिनत सत्ताओं, शक्तियों, सामर्थ्यों और प्रभावों का दास, खिलौना तथा कठपुतली बना रहता है । अहं का भगवान् के प्रति आत्म-उत्सर्ग ही उसकी आत्म-परिपूर्णता है; अपने से अतीत तत्त्व के प्रति उसका समर्पण ही बन्धनों और सीमाओं से उसकी मुक्ति है, यही उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता है ।
परन्तु फिर भी, क्रियात्मक विकास में, इन तीनों अवस्थाओं में से प्रत्येक की अपनी-अपनी आवश्यकता और उपयोगिता है और प्रत्येक को अपना समय और अपना स्थान प्राप्त होना चाहिये । अतएव, केवल अन्तिम तथा सर्वोच्च अवस्था के द्वारा आरम्भ करने से ही काम नहीं चलेगा और न ही ऐसा करना सुरक्षित वा फलप्रद हो सकता है । यह भी ठीक मार्ग नहीं होगा कि हम समय से पूर्व ही एक अवस्था से दूसरी पर छलांग मार कर पहुंच जायें । चाहे हम प्रारम्भ से ही मन और हृदय में परम पुरुष पर आस्था रखें तो भी प्रकृति में ऐसे तत्त्व विद्यमान हैं जो आस्था के विषय के उपलब्ध होने में चिरकाल तक बाधा डालेंगे । परन्तु बिना उपलब्धि के हमारा मानसिक विश्वास क्रियाशील वस्तु नहीं बन सकता; वह केवल ज्ञान की प्रतिमूर्त्ति ही रहता है, जीवन्त सत्य नहीं बनता, वह केवल भावना ही रहता है, शक्ति नहीं बनता । उपलब्धि होना चाहे आरम्भ हो भी जाय तो भी तुरत-फुरत यह कल्पना कर लेना या यह मान बैठना भयावह हो सकता है कि हम पूरी तरह से परम पुरुष के हाथों में हैं और उसके यन्त्र बन कर काम कर रहे हैं । ऐसी कल्पना संकटपूर्ण असत्य को जन्म दे सकती है । यह असहाय जड़ता पैदा कर सकती है या भगवान् के नाम पर अहंकार की चेष्टाओं को बहुत अधिक बढ़ा कर योग के सम्पूर्ण अभ्यासक्रम को दुःखद रूप में विकृत और विनष्ट कर सकती है । आन्तरिक प्रयत्न और संघर्ष का एक कम या अधिक लंबा समय आया ही करता है जिसमें वैयक्तिक संकल्प को निम्न प्रकृति के अन्धकार तथा विकारजाल का निराकरण करके दृढ़ निश्चयपूर्वक या उत्साह के साथ दिव्य प्रकाश का पक्ष लेना होता है । हमें अपने मन की शक्तियों, हृदय के भावावेगों एवं प्राण की कामनाओं को और यहां तक कि शरीर को भी बाध्य करना होता है कि वे यथार्थ वृत्ति धारण करें, अथवा उन्हें सिखाना होता है कि वे शुद्ध प्रभावों को स्वीकार करें तथा उत्तर दें । जब यह सब कुछ ठीक-ठीक पूरा हो जाता है तभी निम्न का उच्चतर के प्रति समर्पण सम्पन्न किया जा सकता है, क्योंकि तब हमारा यज्ञ स्वीकार करने योग्य हो जाता है ।
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साधक को पहले अपने वैयक्तिक संकल्प के द्वारा अहंकारमयी शक्तियों पर अधिकार करके उन्हें प्रकाश तथा सत्य की ओर मोड़ देना होता है । जब एक बार वे उधर मुड़ जाती हैं तब भी उसे उन्हें सधाना होता है कि वे सदा उस प्रकाश तथा सत्य को ही स्वीकार करें, सदा उसीका वरण और उसीका अनुसरण करें । आगे बढ़ने पर वह वैयक्तिक संकल्प, वैयक्तिक प्रयत्न एवं वैयक्तिक सामर्थ्यों का प्रयोग करता हुआ भी यह सीख जाता है कि किस प्रकार वह उन्हें सचेतन रूप से उच्चतर प्रभाव के अधीन रखकर उच्चतर शक्ति के प्रतिनिधियों के तौर पर व्यवहार में ला सकता है । जब वह और अधिक प्रगति कर लेता है तो उसका संकल्प, प्रयत्न एवं बल पहले की तरह वैयक्तिक तथा पृथक् नहीं रहते, वरन् व्यक्ति में काम कर रहे उच्चतर बल तथा प्रभाव की क्रियाएं बन जाते हैं । परन्तु अब भी दिव्य उद्गम तथा उसमें से निकलनेवाली मानवधारा के बीच एक प्रकार की खाई या दूरी बची रहती है । अनिवार्यत: ही, उसका परिणाम यह होता है कि उच्चतर बल एवं प्रभाव हमारे अन्दर अस्पष्ट रूप में पहुंचता है और हम तक उसके पहुंचने की प्रक्रिया सदा ठीक ही नहीं होती, यहा तक कि कभी-कभी तो वह बहुत विकृत करनेवाली भी होती है । विकास के अन्तिम छोर पर, अहंकार, अपवित्रता और अज्ञान का उत्तरोत्तर लोप होते-होते, यह अन्तिम विछोह भी दूर हो जाता है । तब, मनुष्य में जो कुछ भी है वह सब दिव्य क्रिया बन जाता है ।
जिस प्रकार पूर्णयोग का परम शास्त्र वह सनातन वेद है जो प्रत्येक मनुष्य के हृदय में निहित है, उसी प्रकार परम पथ-प्रदर्शक और गुरु वह अन्तःस्थित मार्ग- दर्शक और जगद्गुरु है जो हमारे भीतर प्रच्छन्न रूप में विद्यमान है । वही हमारे अंधकार को अपने ज्ञान की जाज्वल्यमान ज्योति से विध्वस्त करता है और उसकी ज्योति हमारे भीतर उसके आत्म-प्राकटय की वर्धमान महिमा बन जाती है । वह हम में स्वातंत्र्य, आनन्द, प्रेम, शक्ति और अमर सत्ता की अपनी ही प्रकृति को उत्तरोत्तर आविर्भूत करता है । वह हमारे लिये अपने दिव्य दृष्टान्त को हमारे आदर्श के रूप में उपस्थित करता है और निम्नतर सत्ता को उस वस्तु की प्रतिच्छवि में परिणत कर देता है जिस पर यह अपनी निर्निमेष दृष्टि लगाये रहती है । वह अपने ही प्रभाव और अपनी ही उपस्थिति को हमारे अन्दर उंडेलकर हमारी वैयक्तिक सत्ता को विराट् तथा परात्पर सत्ता के साथ तादात्म्य प्राप्त करने के योग्य बना देता है ।
उसकी पद्धति और उसकी प्रणाली क्या है? उसकी कोई भी पद्धति नहीं है और प्रत्येक पद्धति उसीकी है । जिन ऊंची-से-ऊंची प्रक्रियाओं तथा गतियों के प्रयोग में प्रकृति समर्थ है उनका स्वाभाविक संगठन ही उसकी प्रणाली है । वे
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गतियां तथा प्रक्रियाएं अपने को तुच्छ-से-तुच्छ ब्योरे की बातों में तथा अत्यन्त नगण्य दीखनेवाले कार्यों में भी उतनी ही सावधानता तथा पूर्णता के साथ व्यवहृत करती हैं जितनी कि बड़ी-सें-बड़ी बातों और कार्यों में । इस प्रकार वे अन्त में सभी चीजों को प्रकाश में उठा ले जाती हैं तथा सभी को रूपान्तरित कर देती हैं । कारण, उस जगद्गुरु के योग में कोई भी चीज इतनी तुच्छ नहीं कि उसका उपयोग ही न हो सके और कोई भी चीज इतनी बड़ी नहीं कि उसके लिये यत्न ही न किया जा सके । जिस प्रकार परम गुरु के सेवक और शिष्य को अहंकार या अभिमान से कुछ सरोकार नहीं, क्योंकि उसके लिये सब कुछ ऊपर से ही संपन्न किया जाता है, उसी प्रकार उसे अपनी निजी त्रुटियों या अपनी प्रकृति के स्खलनों के कारण निराश होने का भी कोई अधिकार नहीं । क्योंकि, जो शक्ति उसके अन्दर काम करती है वह निर्वैयक्तिक—या अतिवैयक्तिक (superpersonal) —और अनन्त है ।
इस अन्तःस्थित पथ-प्रदर्शक, योग के महेश्वर, समस्त यज्ञ और पुरुषार्थ के भर्त्ता, प्रकाशदाता, भोक्ता और लक्ष्य को पूरी तरह से पहिचानना और अंगीकार करना सर्वांगीण पूर्णता के पथ में अत्यन्त महत्त्व रखता है । यह कोई महत्त्व की बात नहीं कि हम उसे पहले-पहल इस रूप में देखें कि वह सब चीजों का उद्गम-भूत निर्वैयक्तिक ज्ञान, प्रेम और बल है, या इस रूप में कि वह सापेक्ष वस्तु में प्रकट होनेवाला तथा उसे आकृष्ट करनेवाला निरपेक्ष तत्त्व है, या हमारी सर्वोच्च आत्मा और सब की सर्वोच्च आत्मा है, या हमारे तथा संसार के भीतर अवस्थित भागवत व्यक्ति है जो अपने स्त्री-पुरुषात्मक अनेक नाम-रूपों में से किसी एक में प्रकटीभूत है, या फिर वह एक ऐसा आदर्श है जिसकी मन कल्पना करता है । पर अन्त में हम देखते हैं कि वह सब कुछ है और इन सब चीजों के योगफल से भी अधिक है । उसके विषय में की जानेवाली परिकल्पना के क्षेत्र में हमारा मन जिस द्वार से प्रवेश करता है वह स्वभावत: ही हमारे अतीत विकास और वर्तमान प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है ।
यह अन्तःस्थ पथ-प्रदर्शक प्रारम्भ में प्रायः हमारे व्यक्तिगत प्रयत्न की तीव्रता के कारण और अहंभाव के अपने-आप में तथा अपने उद्देश्यों में ही संलग्र रहने के कारण छुपा रहता है । ज्यों ही हम चेतना में स्वच्छता प्राप्त करते हैं और अहंमय प्रयत्न अपना स्थान एक अधिक प्रशान्त आत्म-ज्ञान को दे देता है, त्यों ही हम अपने भीतर बढ़ते हुए प्रकाश के स्रोत को पहचान लेते हैं । तब हम इस स्रोत के प्रभाव को अपने पहले के जीवन में भी पहचान लेते हैं, क्योंकि हम यह अनुभव करते हैं कि हमारी सब अन्धकारमयी और संघर्षकारी चेष्टाएं एक ऐसे लक्ष्य की ओर स्थिर रूप से ले जायी गयी हैं जिसे हम केवल अब ही देखने लगते हैं, और यह भी कि योगमार्ग में हमारे प्रवेश करने से पहले भी हमारे जीवन का विकास अपनी निर्णायक दिशा की ओर योजनापूर्वक ले जाया गया है । अब हम अपने
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संघर्षों एवं प्रयत्नों और सफलताओं एवं विफलताओं का अभिप्राय समझने लगते हैं । अन्त में हम अपनी अग्रि-परीक्षाओं और कष्टों का मर्म भी हृदयंगम करने में समर्थ हो जाते हैं तथा उस सहायता का भी मूल्य समझ पाते हैं जो हमें आघात- प्रतिघात पहुंचानेवाली वस्तुओं से प्राप्त हुई, यहां तक कि हम अपने पतनों एवं स्खलनों की भी उपयोगिता समझने में समर्थ हो जाते हैं । आगे चलकर हम इस दिव्य पथ-प्रदर्शक को अपने गत जीवन पर दृष्टि डाल कर नहीं, बल्कि तत्क्षण ही अनुभव करने लगते हैं— हम अनुभव करते हैं कि एक परात्पर द्रष्टा हमारे विचार को, एक सर्वव्यापिनी शक्ति हमारे संकल्प एवं कर्मों को और एक सर्व-आकर्षी एवं सर्व-आत्मसात्कारी आनन्द और प्रेम हमारे भावमय जीवन को नये सिरे से गढ़ रहे हैं । हम प्रकाश के इस स्रोत को उस अधिक वैयक्तिक रूप में भी अनुभव करने लगते हैं जिसका स्पर्श हमें प्रारम्भ से ही प्राप्त हुआ था अथवा जो हमें अन्त में अधिकृत कर लेता है । हम एक परम स्वामी, सखा, प्रेमी एवं गुरु की शाश्वत उपस्थिति अनुभव करते हैं । जब हमारी सत्ता विकसित होते-होते महत्तर एवं विशालतर सत्ता के साथ सादृश्य एवं एकत्व लाभ कर लेती है तब हम अपनी सत्ता के सारतत्त्व में भी इसीको अनुभव करते हैं । हम देखते हैं कि यह अद्भुत विकास हमारे अपने प्रयत्नों का फल नहीं है, बल्कि एक सनातन पूर्णता हमें अपनी प्रतिच्छवि में परिणत कर रही है । वह एकमेव जो योगदर्शनों में वर्णित ईश्वर है, जो सचेतन सत्ता में विराजमान पथ-प्रदर्शक है (चैत्य गुरु या अन्तर्यामी है), जो विचारक का निरपेक्ष ब्रह्म है, जो अज्ञेयवादी का अज्ञेय तत्त्व और जड़वादी की वैश्व शक्ति है, जो परम आत्मा और परा-शक्ति है, — वह एकमेव जिसे नाना धर्म भिन्न- भिन्न नाम और रूप देते हैं, वही हमारे योग का स्वामी है ।
इस एकमेव को अपनी अन्तरात्मा और अपनी सम्पूर्ण बाह्य प्रकृति में देखना एवं जानना और यही बन जाना तथा इसी को चरितार्थ करना सदा ही हमारी देहधारी सत्ता का गुप्त लक्ष्य रहा है और यही अब उसका सचेतन उद्देश्य भी बन जाता है । अपनी सत्ता के अंग-प्रत्यंग में और साथ ही इसके उन भागों में भी, जिन्हें विभाजक मन हमारी सत्ता से बाह्य समझता है, इस एकमेव से सचेतन होना हमारी वैयक्तिक चेतना की पराकाष्ठा है । इससे अधिकृत होना और अपने अन्दर तथा सभी चीजों में इसे अधिकृत करना सम्पूर्ण साम्राज्य और प्रभुत्व का लक्षण है । निष्क्रियता एवं सक्रियता, शान्ति एवं शक्ति और एकता एवं विभिन्नता के समस्त अनुभवों में इसका रस लेना ही वह सुख है जिसे जीवात्मा अर्थात् जगत् में अभिव्यक्त वैयक्तिक आत्मा अन्धकार में खोज रही है । पूर्णयोग के लक्ष्य की सम्पूर्ण परिभाषा यही है । प्रकृति ने जो सत्य अपने भीतर छिपा रखा है और जिसे प्रकाशित करने के लिये वह प्रसव-वेदना भोग रही है उसे वैयक्तिक अनुभव के रूप में प्रकट करना इस योग का उद्देश्य है । इसका अभिप्राय है मानव आत्मा का
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दिव्य आत्मा में और प्राकृत जीवन का दिव्य जीवन में रूपान्तर करना ।
इस पूर्ण कृतार्थता का अत्यन्त सुनिश्चित पथ यह है कि हम गुह्य रहस्य के उस स्वामी को ढूंढ़ लें जो हमारे अन्तर में निवास करता है तथा अपने-आपको निरन्तर उस दिव्य शक्ति की ओर उद्घाटित करें जो साथ ही दिव्य प्रज्ञा और प्रेम भी है, और फिर रूपान्तर करने का कार्य उसके हाथों में सौंप दें । परन्तु अहंमय चेतना के लिये शुरू में ऐसा करना ही कठिन होता है, और यदि वह ऐसा कर भी सके तो पूर्ण रूप से तथा प्रकृति के अंग-अंग में करना तो और भी कठिन होता है । शुरू- शुरू में यह इसलिये कठिन होता है कि हमारे विचार, संवेदन एवं भाव-भावनाओं की अहंमूलक आदतें उन द्वारों को बन्द कर देती हैं जिनसे हमें अपेक्षित अनुभव प्राप्त हो सकता है । बाद में यह इस कारण कठिन होता है कि इस पथ के लिये अपेक्षित श्रद्धा, समर्पण और साहस अहंभावाच्छन्न आत्मा के लिये आसान नहीं होते । दिव्य क्रिया कोई वैसी क्रिया नहीं होती जिसे अहंभावमय मन चाहता या मंजूर करता है । वह तो सत्य पर पहुंचने के लिये भ्रान्ति को, आनन्द पर पहुंचने के लिये दुःख को और पूर्णता पर पहुंचने के लिये अपूर्णता को काम में लाती है । अहंकार यह नहीं देख पाता कि वह किधर ले जाया जा रहा है; वह मार्गदर्शन के विरुद्ध विद्रोह करता है, विश्वास खो देता है, साहस छोड़ बैठता है । यदि केवल यही दुर्बलताएं होतीं तो कोई बड़ी बात नहीं थी; क्योंकि हमारा अन्तःस्थ दिव्य मार्गदर्शक हमारे विद्रोह से रुष्ट नहीं होता, न तो वह हमारी श्रद्धा की कमी से निरुत्साहित होता है और न हमारी दुर्बलता के कारण उदासीन ही हो जाता है । उसमें माता का समस्त वात्सल्य और गुरु का अखंड धैर्य है । परशु उसके नेतृत्व से अपनी अनुमति हटा लेने के कारण, हम सचेतन रूप में उसका लाभ अनुभव नहीं कर पाते, यद्यपि वह लाभ किसी अंश में फिर भी प्राप्त होता है और उसका अन्तिम परिणाम तो किसी भी अवस्था में नष्ट नहीं होता । और, हम अपनी अनुमति इसलिये हटा लेते हैं कि जिस निम्नतर सत्ता में से वह अपनी आत्म- अभिव्यक्ति तैयार कर रहा है उसमें और उच्चतर आत्मा में हम विवेक नहीं कर पाते । जैसे हम संसार में ईश्वर को नहीं देख पाते वैसे ही हम अपने अन्दर भी ईश्वर को देखने में असमर्थ होते है; कारण, उसकी कार्यशैलिया ही ऐसी हैं । हम उसे इसलिये भी नहीं देख पाते कि वह हमारे अन्दर हमारी प्रकृति के द्वारा ही काम करता है न कि एक के बाद एक मनमाने चमत्कारों से । मनुष्य चमत्कारों की मांग करता है जिससे वह विश्वास कर सके; वह चकाचौंध होना चाहता है, ताकि वह देख सके । परन्तु हमसि यह अधीरता और अज्ञान महान् भय और संकट का रूप
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धारण कर सकते हैं यदि, दिव्य मार्गदर्शन के प्रति विद्रोह के भाव में, हम किसी अन्य विकारजनक शक्ति को, जो हमारे आवेगों और कामनाओं के लिये अधिक सन्तोषकारक होती है, अपने अन्दर बुला लें, उससे अपना पथ-प्रदर्शन करने को कहें और उसे ही भगवान् मान बैठें ।
परन्तु जहां मनुष्य के लिये यह कठिन है कि वह अपने अन्दर की किसी अगोचर वस्तु में विश्वास करे, वहां उसके लिये यह आसान भी है कि वह किसी ऐसी वस्तु में विश्वास करे जिसे वह अपने से बाहर चित्रित कर सकता है । अनेकों मानव प्राणियों की आध्यात्मिक उन्नति बाह्य आश्रय की, अर्थात् उनसे बाहर विद्यमान किसी श्रद्धास्पद वस्तु की अपेक्षा करती है । उन्हें अपनी उन्नति के लिये ईश्वर की बाह्य मूर्ति या मानव-रूप प्रतिनिधि—अवतार, पैगंबर या गुरु—की आवश्यकता होती है । अथवा उन्हें इन दोनों की ही आवश्यकता होती है और दोनों को ही वे अंगीकार करते हैं । मानव आत्माकी आवश्यकता के अनुसार भगवान् अपने-आपको देवता, मानवरूपी भगवान् या सीधी-सादी मानवता के रूप में अभिव्यक्त करते हैं और अपनी प्रेरणा का संचार करने के लिये, साधन के तौर पर, उस घने पर्दे को प्रयोग में लाते है जो देवाधिदेव को अति सफलतापूर्वक छिपाये रहता है ।
आत्मा की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही हिन्दू अध्यात्म-साधना ने इष्ट देवता, अवतार और गुरु की परिकल्पना की है । इष्ट देवता से हमारा अभिप्राय किसी निम्न कोटि की शक्ति से नहीं, वरन् परात्पर तथा विराट् देवाधिदेव के एक विशेष नाम -रूप से है । प्रायः सभी धर्म या तो भगवान् के किसी ऐसे नाम-रूप पर आधारित होते हैं या वे इसका उपयोग करते हैं । मानव आत्मा के लिये इसकी आवश्यकता स्पष्ट ही है । ईश्वर सर्व है और सर्व से भी अधिक है । परन्तु जो सर्व से भी अधिक है उसे भला मनुष्य कैसे अपनी कल्पना में लावे? यहां तक कि सर्व भी पहले-पहल उसके लिये अति दुर्बोध होता है; क्योंकि वह स्वयं अपनी सक्रिय चेतना में एक सीमित एवं छंटी-छंटायी रचना है और अपने को केवल उसी चीज की ओर खोल सकता है जो उसकी ससीम प्रकृति के साथ मेल खाती है । सर्व में ऐसी चीजें भी हैं जिन्हें पूरी तरह हृदयंगम करना उसके लिये अत्यन्त कठिन है या जो उसके सूक्ष्मग्राही भावावेगों एवं भयाकुल संवेदनों को अतीव भीषण प्रतीत होती हैं । अथवा, सीधी-सी बात यह है कि जो कोई भी चीज उसके अज्ञानपूर्ण या आंशिक विचारों के घेरे से अत्यधिक बाहर होती है उसे वह भगवान् के रूप में कल्पित नहीं कर सकता, न ही वह उसके पास पहुंच सकता या उसे अंगीकार ही कर सकता है । उसके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह ईश्वर को अपनी ही आकृति के रूप में या किसी ऐसे रूप में कल्पित करे जो उससे परे होता हुआ भी उसकी सर्वोच्च प्रवृत्तियों के साथ समस्वर और उसके भावों या उसकी बुद्धि के
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लिये गोचर हो । नहीं तो, भगवान् से सम्पर्क और अन्तर्मिलन प्राप्त करना उसके लिये कठिन हो जायगा ।
इस पर भी, उसकी प्रकृति मानव मध्यस्थ की मांग करती है । वह भगवान् को किसी ऐसी चीज में अनुभव करना चाहती है जो उसकी निजी मानवता के पूर्णत: निकट हो और साथ ही मानवी अनुभव एवं दृष्टान्त में प्रत्यक्षगम्य भी । यह मांग मानव आकार में व्यक्त हुए भगवान् या अवतार से, अर्थात् कृष्ण, ईसा या बुद्ध से पूरी होती है । अथवा, यदि इसे कल्पना में लाना उसके लिये अति कठिन होता है तो भगवान् एक कम अद्भुत मध्यस्थ के द्वारा, ईश्वरीय दूत या गुरु के द्वारा भी अपना रूप दिखाते हैं । कारण, बहुत से लोग भागवत मनुष्य को अपनी कल्पना में नहीं ला सकते अथवा उसे स्वीकार ही नहीं करना चाहते; पर वे भी किसी परमोच्च मनुष्य के प्रति अपने-आपको खोलने को उद्यत होते हैं और उसे वे अवतार के नाम से नहीं, बल्कि जगद्गुरु या भगवत्त्रतिनिधि के नाम से पुकारते हैं ।
परन्तु यह भी पर्याप्त नहीं है; सजीव प्रभाव, जीवन्त दृष्टान्त और प्रत्यक्ष उपदेश की भी आवश्यकता होती है । क्योंकि, ऐसे लोग बहुत ही कम होते हैं जो भूतकाल के गुरु और उसकी शिक्षा को, भूतकाल के अवतार और उसके दृष्टान्त तथा प्रभाव को, अपने जीवन में सजीव शक्ति बना सकते हैं । इस आवश्यकता को भी हिन्दू- मर्यादा ने गुरु-शिष्य-सम्बन्ध के द्वारा पूरा किया है । गुरु कभी-कभी अवतार या जगद्गुरु भी हो सकता है; किन्तु वैसे इतना ही पर्याप्त है कि वह अपने शिष्य के समक्ष दिव्य प्रज्ञाका प्रतिनिधि हो, उसे दिव्य आदर्श से यत्किंचित् अवगत कराये अथवा सनातन के साथ मानव आत्मा के अनुभूत सम्बन्ध का उसे कुछ अनुभव कराये ।
पूर्णयोग का साधक इन सब साधनों का अपनी प्रकृति के अनुसार उपयोग करेगा । परन्तु यह आवश्यक है कि वह इनकी न्यूनताओं का परित्याग कर दे और अपने अन्दर से अहंभावपूर्ण मन की उस एकांगी प्रवृत्ति को निकाल फेंके जो आग्रहपूर्वक कहती है, "मेरा ईश्वर, मेरा अवतार, मेरा पैगम्बर, मेरा गुरु" और इसके बल पर साम्प्रदायिक या धर्मान्ध भाव से अन्य सब अनुभवों (तथा उपलब्धियों) का विरोध करती है । समस्त साम्प्रदायिकता एवं समस्त धर्मान्धता से उसे अलग रहना होगा, क्योंकि यह दिव्य उपलब्धि की अखंडता से असंगत है ।
इसके विपरीत, पूर्णयोग का साधक तब तक सन्तुष्ट नहीं होगा जब तक वह इष्ट देवता के अन्य सभी नामों और रूपों को अपनी परिकल्पना में समाविष्ट नहीं कर लेता, अन्य सभी देवताओं में अपने इष्ट देवता के दर्शन नहीं कर लेता, सभी अवतारों को अवतार ग्रहण करनेवाले भगवान् की एकता में एकीभूत नहीं कर लेता और सभी शिक्षाओं में निहित सत्य को नित्य ज्ञान की समस्वरता में समन्वित नहीं कर देता |
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परन्तु उसे इन बाह्य साधनों का उद्देश्य भूल नहीं जाना चाहिये । इनका उद्देश्य है — उसकी आत्मा को उसके अन्तरस्थ भगवान् की ओर उद्बुद्ध कर देना । यदि यह कार्य सिद्ध नहीं हुआ है तो समझो कुछ भी अन्तिम तौर पर सिद्ध नहीं हुआ है । यदि बुद्ध, ईसा या कृष्ण हमारे अन्दर व्यक्त तथा मूर्त्तिमन्त नहीं हुए हैं तो केवल बाहर से ही कृष्ण, ईसा या बुद्ध की पूजा करना पर्याप्त नहीं होगा । इसी प्रकार अन्य सब साधनों का भी इसके सिवा और कोई उद्देश्य नहीं है । प्रत्येक साधन मनुष्य की अपरिवर्तित अवस्था तथा उसके अन्दर होनेवाली भगवान् की अभिव्यक्ति के बीच सेतु भर होता है ।
पूर्णयोग का गुरु यथासम्भव हमारे अन्तःस्थित परम गुरु -की पद्धति का ही अनुसरण करेगा । वह शिष्य को शिष्य की प्रकृति के द्वारा ही ले चलेगा । शिक्षण, दृष्टान्त, प्रभाव—ये गुरु के तीन साधन होते हैं । परन्तु ज्ञानी गुरु अपने-आपको अथवा अपनी सम्मतियों को (शिष्य के ) ग्रहणशील मन की निष्प्रतिरोध स्वीकृति पर लादने की कोशिश नहीं करेगा । वह केवल कोई फलजनक संस्कार ही उसके भीतर डाल देगा जो बीज की तरह, निश्चितरूपेण, अन्दर-ही-अन्दर दिव्य पोषण पाकर उपजेगा और वृद्धि को प्राप्त होगा । वह शिक्षा देने की अपेक्षा कहीं अधिक उद्बुद्ध करने का ही यत्न करेगा । वह नैसर्गिक प्रक्रिया और स्वतन्त्र विस्तार के द्वारा शक्तियों और अनुभूतियों के विकास को ही लक्ष्य बनायेगा । वह किसी विधि को एक सहायक साधन एवं उपयोगी उपाय के रूप में ही बतलायेगा, किसी अनुल्लंघनीय नियम या नियत नित्याभ्यास के रूप में नहीं । वह इस बात से सावधान रहेगा कि कहीं वह साधन को किसी प्रकार का बन्धन न बना डाले और प्रक्रिया को यान्त्रिक रूप न दे दे । उसका सम्पूर्ण कर्तव्य बस यही है कि वह दिव्य प्रकाश को उद्बुद्ध कर दे और उस दिव्य शक्ति की क्रिया प्रारम्भ करा दे जिसका वह स्वयं एक साधन एवं उपकरण और आधार या प्रणालिका-मात्र है ।
दृष्टान्त्त शिक्षण की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है । परन्तु बाह्य कर्मों तथा व्यक्तिगत चरित्र का दृष्टान्त सर्वोत्तम दृष्टान्त नहीं है । इनका अपना स्थान और अपनी उपयोगिता अवश्य है; किन्तु जो चीज दूसरों में अभीप्सा को अत्यधिक उद्दीप्त करेगी वह गरु के अन्दर विद्यमान दिव्य उपलब्धि का केंद्रीय तथ्य है जो उसके अपने जीवन तथा उसकी आन्तरिक अवस्था और उसके सारे कर्मों को नियन्त्रित करता है । यह उसके अन्दर एक सार्वभौम और सारभूत तत्त्व है । शेष सब कुछ व्यक्ति और परिस्थिति से सम्बन्ध रखता है । इस क्रियाशील उपलब्धि को गरु में प्रत्यक्ष देखकर साधक को इसे अपने अन्दर अपनी निजी प्रकृति के अनुसार
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मूर्त्तिमान् करना होगा । उसे बाहर से अनुकरण करने का यत्न करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अनुकरण यथोचित और स्वाभाविक फल पैदा करने के स्थान पर सहज ही पंगु बनानेवाला हो सकता है ।
प्रभाव दृष्टान्त की अपेक्षा अधिक महत्वशाली होता है । प्रभाव का अर्थ गुरु का अपने शिष्य पर बाह्य शासन एवं अधिकार नहीं है, बल्कि उसके संस्पर्श एवं उसकी उपस्थिति की शक्ति है, उसकी आत्मा की दूसरे की आत्मा के साथ समीपता की शक्ति है, जो दूसरे की आत्मा के अन्दर, चाहे मौन रूप में ही, गुरु के अस्तित्व और गुरु को अन्तःसंचारित कर देती है । यह है गुरु का सर्वोत्कृष्ट लक्षण । वास्तव में परमोच्च कोटि का गुरु शिक्षक बहुत कम होता है; वह तो एक उपस्थिति होता है जो अपने आसपास के सभी ग्रहणशील लोगों में दिव्य चेतना और उसकी सारभूत ज्योति, शक्ति, पवित्रता और आनन्द उंडेलता रहता है ।
इसके अतिरिक्त, पूर्णयोग के गुरु का यह भी एक चिह्न होगा कि वह मानवीय अहंकार के तरीके से तथा अभिमानवश गुरुपन का अनुचित दावा नहीं करेगा । उसका काम, यदि कोई काम उसके सुपुर्द है तो, ऊपर से सुपुर्द किया हुआ काम है, वह स्वयं एक प्रणालिका, आधार या प्रतिनिधि है । वह एक मनुष्य है जो अपने मनुष्य-भाइयों की सहायता करता है, एक बालक है जो बालकों का अग्रणी बनता है, एक प्रकाश है जो दूसरे प्रकाशों को प्रदीप्त करता है, एक प्रबुद्ध आत्मा है जो दूसरी आत्माओं को प्रबुद्ध करती है, अपने सर्वोच्च रूप में वह भगवान् की एक शक्ति या उपस्थिति है जो भगवान् की अन्य शक्तियों को अपनी ओर पुकारती है ।
जिस साधक को ये सब साधन प्राप्त हैं वह अपने लक्ष्य को अवश्यमेव अधिगत करेगा । यहां तक कि पतन भी उसके लिये उत्थान का साधन बन जायगा और मृत्यु परिपूर्णता का पथ । क्योंकि, एक बार जब वह अपने मार्ग पर चल पड़ता है तो जन्म और मरण उसकी सत्ता के विकास में आनेवाली प्रक्रियाएं तथा उसकी यात्रा के पड़ावमात्र बन जाते हैं ।
काल या समय एक और साधन है जो साधना की सफलता के लिये आवश्यक है । काल मानव-प्रयत्न के सम्मुख शत्रु या मित्र के रूप में, बाधक, माध्यम या साधन के रूप में उपस्थित होता है । परन्तु वास्तव में यह सदा ही आत्मा का एक साधन है ।
काल उन परिस्थितियों और शक्तियों का क्षेत्र है जो एकत्र होकर एक परिणामभूत प्रगति को साधित करती हैं । इस प्रगति के पथ को नापने के लिये काल एक साधन है । अहं के लिये यह एक आततायी या प्रतिबन्धक है, पर
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भगवान् के लिये एक यन्त्र । अतएव, जब हमारा प्रयत्न व्यक्तिगत होता है तब काल हमें प्रतिबन्धक प्रतीत होता है, क्योंकि यह हमारे सामने उन सब शक्तियों की बाधा उपस्थित करता है जो हमारी शक्तियों के साथ टक्कर खाती हैं । जब दिव्य क्रिया और व्यक्तिगत क्रिया हमारी चेतना में संयुक्त हो जाती हैं तब यह एक माध्यम और अनिवार्य शर्त की तरह प्रतीत होता है । जब ये दोनों क्रियाएं एक हो जाती हैं तब यह एक सेवक और यन्त्र प्रतीत होता है ।
काल के सम्बन्ध में साधक की आदर्श मनोवृत्ति यह होनी चाहिये कि वह अनन्त धैर्य रखे, यह समझते हुए कि अपनी परिपूर्णता के लिये उसके सामने अनन्त काल पड़ा है, किन्तु फिर भी वह ऐसी शक्ति विकसित करे जो मानो आत्म-उपलब्धि को अभी साधित कर लेगी । फिर यह शक्ति एक सदा वृद्धिशील प्रभुत्व के साथ और तीव्र वेग से तब तक बढ़ती जानी चाहिये जब तक कि परम दिव्य रूपान्तर की चमत्कारक घड़ी उपस्थित नहीं हो जाती ।
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