योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १२

 

दिव्य कर्म

 

 जब कर्ममार्ग के साधक की खोज अपने स्वाभाविक रूप में पूरी हो जाती है या पूरी होने लगती है तब भी उसके सामने एक प्रश्न शेष रह जाता है । वह यह कि मुक्ति के बाद आत्मा के लिये कोई कर्म शेष रहता है या नहीं और यदि रहता है तो कौन-सा तथा किस प्रयोजन के लिये ? समता उसकी प्रकृति में प्रतिष्ठित हो चुकी है और उसकी सम्पूर्ण प्रकृति पर शासन करती है; अहं-बुद्धि तथा विस्तृत अहंभाव से और अहंकार की समस्त भावनाओं एवं प्रेरणाओं तथा इसकी स्वेच्छा और कामनाओं से उसे आमूल मुक्ति प्राप्त हो गयी है । उसके मन और हृदय में ही नहीं, बल्कि उसकी सत्ता के सभी जटिल भागों में पूर्ण आत्म-निवेदन सम्पन्न हो चुका है । पूर्ण पवित्रता या त्रिगुणातीत अवस्था समस्वर ढंग से प्रतिष्ठित हो गयी है । अन्तरात्मा ने अपने कर्मों के स्वामी के दर्शन कर लिये हैं और वह उसीके सान्निध्य में निवास करती है या उसीकी सत्ता में सचेतन रूप से निहित रहती है या उससे एकमय होकर रहती है अथवा उसे हृदय में या ऊपर अनुभव करती तथा उसके आदेशों का पालन करती है । उसने अपनी सच्ची सत्ता को जान लिया है और अज्ञान का आवरण उतार फेंका है । तब मनुष्य के अन्दर के कर्मी के लिये क्या कर्म शेष रहता है और किस हेतु से, किस उद्देश्य के लिये तथा किस भावना से वह किया जायेगा ?

 

 

     इसका एक उत्तर तो वह है जिससे हम भारत में खूब परिचित हैं; कर्म बिल्कुल रहता ही नहीं, क्योंकि शेष रह जाती है निश्चलता । जब आत्मा 'परम' की शाश्वत उपस्थिति में निवास कर सकती है अथवा जब वह परब्रह्म के साथ एक हो जाती है, तब हमारे जागतिक जीवन का लक्ष्य, --यदि यह कहा जा सकता हो कि इसका कोई लक्ष्य है, --तुरन्त परिसमाप्त हो जाता है । आत्म-विभाजन तथा अज्ञान के अभिशाप से मुक्त मनुष्य इस दूसरे प्रकार के क्लेश अर्थात् कर्मों के अभिशाप से भी मुक्त हो जाता है । तब तो कर्म करनामात्र परम स्थिति की मर्यादा से उतरना और अज्ञान में लौटना होगा । जीवन-विषयक इस मनोवृत्ति के पक्ष में जो विचार प्रस्तुत किया जाता है वह प्राणिक प्रकृति की एक भ्रान्ति पर आधारित है । क्योंकि, प्राणिक प्रकृति को अपने कर्म की प्रेरणा तीन निम्न आशयों--आवश्यकता, राजसिक प्रवृत्ति और आवेग या कामना--में से किसी एक से या तीनों से प्राप्त होती है । प्रवृत्ति या आवेग के शान्त हो जाने पर और कामना के लुप्त हो जाने पर

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कर्मों के लिये स्थान ही कहां रह जाता है ? कोई यान्त्रिक आवश्यकता तो रह सकती है, पर और किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं रह सकती, और वह भी शरीर छूटने के साथ सदा के लिये समाप्त हो जायगी । परन्तु यह सब होते हुए भी, जबतक जीवन है तबतक कर्म अनिवार्य है । केवल विचार करना भी या, विचार के अभाव में, केवल जीना भी अपने-आपमें एक कर्म है और अनेक कार्यों का कारण है । संसार में विद्यमान सत्तामात्र--मिट्टी के ढेले की जड़ता भी और निर्वाण के किनारे पर पहुंचे हुए निश्चल बुद्ध की शान्ति भी--एक कर्म है, शक्ति है, सामर्थ्य है और वह अपनी उपस्थितिमात्र से समष्टि पर सक्रिय प्रभाव डालती है । वास्तव में प्रश्न तो है केवल कर्म के प्रकार का तथा उन करणों का जो काम में लाये जाते हैं या जो अपने-आप ही कार्य करते हैं, और इसके साथ ही कर्म करनेवाले के भाव एवं ज्ञान का भी प्रश्न है । सच तो यह है कि कोई भी मनुष्य कर्म नहीं करता, बल्कि प्रकृति अपनी अन्तःस्थ शक्ति की अभिव्यक्ति के लिये उसके द्वारा कार्य करती है और वह शक्ति उद्भूत होती है अनन्त से । इस बात को जानना और कामना से तथा अहंमूलक प्रेरणा के भ्रम से मुक्त होकर प्रकृति के स्वामी की उपस्थिति में तथा उसकी सत्ता में निवास करना ही एकमात्र आवश्यक वस्तु है । यहीं सच्चा मोक्ष है न कि शरीर के द्वारा कर्म का त्याग; क्योंकि कर्मों का बंधन तो तुरन्त ही समाप्त हो जाता है । कोई मनुष्य सदा के लिये स्थिर और निश्चेष्ट बैठा रह सकता है और फिर भी वह अज्ञान से उतना ही बंधा हो सकता है जितना एक पशु या कृमि । किन्तु यदि वह इस महत्तर चेतना को अपने अन्दर क्रियाशील बना सके तो सब लोकों का सब कर्म उसके हाथों से सम्पन्न हो सकता है और फिर भी वह निश्चल, पूर्णतया स्थिर एवं शान्त और समस्त बन्धन सें मुक्त रह सकता है । जगत् में कर्म हमें प्रथम तो अपने विकास और परिपूर्णता के साधन के रूप में प्रदान किया गया है; पर चाहे हम चरम सम्भवनीय दिव्य आत्म-पूर्णता तक पहुंच जायें, तो भी जगत् में दिव्य प्रयोजन तथा उस बृहत्तर विश्वात्मा की, जिसका प्रत्येक जीव एक अंश है, --ऐसा अंश जो विश्वात्मा के साथ हीं परात्परता से अवतीर्ण दुआ है, --चरितार्थता के साधन के रूप में कर्म विद्यमान रहेगा ही ।

 

     एक विशेष अर्थ में, जब मनुष्य का योग एक निष्चित शिखर तक पहुंच जाता है, तब उसके लिये कोई कर्म शेष नहीं रह जाता । कारण, तब उसे निज के लिये कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती, न उसके अन्दर यह भाव होता है कि कर्म स्वयं मैं ही करता हूं । परन्तु उसे कर्म से भागने या आनन्दपूर्ण निष्क्रियता की शरण लेने की भी आवश्यकता नहीं होती । अब तो वह उसी प्रकार कर्म करता है जिस प्रकार भगवान् कर्म करते हैं, --बिना किसी अलंध्य आवश्यकता और बिना किसी दुर्धर्ष अज्ञान के । वह कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करता; वह व्यक्तिगत रूप से कोई कार्य आरम्भ नहीं करता । भागवत शक्ति ही उसके अन्दर उसकी प्रकृति द्वारा कर्म

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करती है । उसका कर्म परा शक्ति के सहज प्रवाह के द्वारा विकसित होता है । उसके करण अब उसी शक्ति के अधिकार में होते हैं, वह उसीका एक अंग होता है, उसका संकल्प उसीके संकल्प से एकमय होता है, उसकी शक्ति उसीकी शक्ति होती है । उसके अन्दर की आत्मा इस कर्म को धारण करती है, इसे आश्रय देती और इसकी देख-रेख करती है । वह ज्ञान में इसके ऊपर अधिष्ठातृत्व करती है, पर आसक्ति या आवश्यकता के कारण इससे चिपट नहीं जाती, न इसके साथ बंध ही जाती है; न इसके फल की कामना से आबद्ध होती है और न किसी प्रवृत्ति या आवेग की दासी बनती है ।

 

     यह समझना कि कामना के बिना कर्म असम्भव है या कम-से-कम निरर्थक है एक आम मूल है । हमें बताया जाता है कि यदि कामना का अन्त हो जाये तो कर्म का भी अन्त हो जायेगा । परन्तु यह सिद्धान्त, अन्य अतिअज्ञानकल्पित सिद्धान्तों की भांति, विभेदक और परिच्छेदक मन के लिये जितना आकर्षक है उतना यह सच्चा नहीं है । संसार में होनेवाले काम का बहुत बड़ा भाग कामना के किसी भी तरह के हस्तक्षेप के बिना सम्पन्न होता है; यह प्रकृति की शान्त आवश्यकता तथा स्वाभाविक नियम के कारण चलता रहता है । मनुष्य भी सहज आवेग, अन्तर्ज्ञान तथा प्रेरणा के वश निरन्तर नाना प्रकार के कार्य करता है अथवा वह मानसिक आयोजना या सचेतन प्राणिक इच्छा या भावमय कामना की प्रेरणा के बिना शक्तियों की स्वाभाविक आवश्यकता और नियम के अनुसार ही काम करता है । कितनी ही बार उसका कार्य उसके संकल्प या उसकी कामना के विपरीत होता है; यह किसी आवश्यकता या दबाव के अधीन, किसी आवेग के वश, उसके अन्दर की जो शक्ति आत्माभिव्यक्ति के लिये प्रेरणा देती है उसकी आज्ञा के अनुकूल अथवा सचेतन रूप से एक उच्चतर नियम के अनुसार उसके अन्दर से निःसृत होता है । कामना एक और प्रलोभन है जिसे प्रकृति ने अपने अवान्तर उद्देश्यों के लिये अपेक्षित एक विशेष प्रकार का राजसिक कर्म सम्पन्न करने के लिये चेतन प्राणियों के जीवन में महान् स्थान दिया है । परन्तु यह उसका एकमात्र इंजन नहीं है, यहां तक कि यह प्रधान इंजन भी नहीं है । जबतक कामना रहती है तब तक इसका एक बड़ा लाभ भी होता है : यह हमें जड़ता से उठने में सहायता पहुंचाती है और अनेक तामसिक शक्तियों का विरोध करती है, अन्यथा वे शक्तियां कर्म को रोक ही देतीं । परन्तु जो जिज्ञासु कर्ममार्ग पर बहुत आगे बढ़ गया है वह इस मध्यवर्ती अवस्था को पार कर चुका है जिसमें कामना सहायक इंजन होती है । इसका वेग अब उसके काम के लिये अनिवार्य नहीं रहता, बल्कि यह अत्यन्त भयानक रूप में बाधक होता है और स्खलन, अयोग्यता तथा विफलता को जन्म देता है । दूसरे लोग वैयक्तिक रुचि या वैयक्तिक हेतु के अनुसार कार्य करने को बाध्य होते हैं, परन्तु उसे निर्वैयक्तिक या वैश्व मन के द्वारा अथवा अनन्त पुरुष के

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अंग या यन्त्र के रूप में कार्य करना सीखना होगा । शान्त उदासीनता, प्रसन्न तटस्थता या दिव्य शक्ति को आनन्दपूर्ण प्रत्युत्तर--भले ही उस शक्ति का आदेश कुछ भी क्यों न हो--यह एक आवश्यक अवस्था है जिसमें वह कोई प्रभावपूर्ण कर्म कर सकता है या किसी सार्थक कार्य का बीड़ा उठा सकता है । उसे कामना एवं आसक्ति के द्वारा परिचालित नहीं होना चाहिये, बल्कि उस संकल्प के द्वारा परिचालित होना चाहिये जो दिव्य शान्ति में गतिमान् होता है, उस ज्ञान के द्वारा जो परात्पर प्रकाश से आता है, उस प्रसन्न सम्वेग को के द्वारा जो परम आनन्द से प्राप्त बल होता है ।

 

* 

 

    योग की एक ऊंची अवस्था में जिज्ञासु, किसी वैयक्तिक अभिरुचि के अर्थ में, इस ओर से उदासीन होता है कि वह क्या काम करेगा और क्या नहीं । यहांतक कि यह बात भी कि वह काम करेगा भी या नहीं उसकी निजी पसन्द या प्रसन्नता के द्वारा निश्चित नहीं होती । वह सदैव वही कुछ करने को प्रेरित होता है जो सत्य के साथ समस्वर होता है अथवा जिसकी मांग भगवान् उसकी प्रकृति के द्वारा करता है । इससे कभी-कभी एक मिथ्या परिणाम निकाला जाता है कि आध्यात्मिक पुरुष उस स्थिति को, जिसमें दैव या ईश्वर या अतीत कर्म ने उसे रखा है, शिरोधार्य करके उस कुटुंब, वंश, जाति, राष्ट्र और व्यवसाय के, जो जन्म और परिस्थिति से उसके अपने हैं, क्षेत्र एवं ढांचे के भीतर कर्म करने में सन्तुष्ट रहकर उनका अतिक्रमण करने या किसी महान् लौकिक उद्देश्य का अनुसरण करने की चेष्टा नहीं करेगा और शायद उसे ऐसा करना भी नहीं चाहिये । क्योंकि वास्तव में उसके लिये कर्तव्य कर्म कोई नहीं होता और क्योंकि, जब तक वह इस शरीर में है, उसे कर्मों का, वे चाहे कोई भी क्यों न हों, उपयोग केवल मुक्ति प्राप्त करने के लिये ही करना पड़ता है अथवा, मुक्ति प्राप्त कर लेने के बाद, परम संकल्प का अनुसरण और उसके आदेशों का पालन करने के लिये ही उसे कर्म करने होते हैं, अतएव जो क्षेत्र उसे वास्तव में दिया गया होता है वह इस प्रयोजन के लिये पर्याप्त होता है । एक बार स्वातंत्र्य लाभ हों जाने पर, उसे केवल अदृष्ट तथा परिस्थितियों के द्वारा नियत क्षेत्र में कर्म करते रहना होता है जबतक कि वह महान् मुहूर्त्त नहीं आ जाता जिसमें वह अन्ततः अनन्त में लय प्राप्त कर सके । किसी विशेष लक्ष्य पर आग्रह करना अथवा किसी महान् लौकिक उद्देश्य के लिये कर्म करना कर्मों की माया में फंसना है । यह इस भ्रम को प्रश्रय देना है कि पार्थिव जीवन का एक बुद्धिगम्य आशय भी हैं और इसके अन्दर कुछ प्राप्तव्य वस्तुएं भी हैं । माया का वह महान् सिद्धान्त, जो परमार्थत: भगवान् की उपस्थिति को अंगीकार करने पर भी व्यवहारतः इस जगत् में उसकी सत्ता का निषेध करता है, एक बार फिर हमारे

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सामने आता है । परन्तु भगवान् यहां जगत् में उपस्थित हैं, --स्थितिशील रूप में ही नहीं, वरन् गतिशील रूप में भी, आध्यात्मिक सत्ता और उपस्थिति के रूप में ही नहीं, बल्कि शक्ति, बल और ऊर्जा के रूप में भी अतएव संसार में दिव्य कर्म करना सम्भव है ।

 

     ऐसा कोई संकीर्ण सिद्धान्त नहीं, बंधे--बंधाये कर्म का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जो कर्मयोगी पर उसके नियम या क्षेत्र के रूप में थोपा जा सके । इतनी बात सत्य है कि प्रत्येक प्रकार का काम, चाहे वह मनुष्य की समझ में छोटा हो या बड़ा, क्षेत्र की दृष्टि से क्षुद्र हो या विशाल, मोक्ष की ओर प्रगति या आत्म-साधना के लिये समान रूप से उपयोग में लाया जा सकता है । यह भी सच है कि मुक्ति के बाद मनुष्य जीवन के चाहे किसी भी क्षेत्र में रहे और चाहे किसी भी प्रकार का काम करे उसीमें वह भगवान् के अन्दर अपने अस्तित्व को चरितार्थ कर सकता है । वह आत्मा से जिस प्रकार भी प्रेरित हो उसके अनुसार वह अपने लिये जन्म और परिस्थिति द्वारा नियत क्षेत्र में रह सकता है अथवा उस चौखट को तोड़ कर एक ऐसे बन्धनमुक्त कर्म की ओर बढ़ सकता है जो उसकी महिमान्वित चेतना तथा उच्चतर ज्ञान का उपयुक्त शरीर हो । मनुष्यों के चर्मचक्षुओं को ऐसा दीख सकता है कि उसकी आभ्यन्तरिक मुक्ति के कारण उसके बाह्य कर्मों में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं आया है । अथवा, इसके विपरीत, अन्तःस्थ स्वतन्त्त्रता एवं अनन्तता अपने-आपको एक ऐसी विशाल और नवीन बाह्य शक्तिशाली क्रिया में परिणत कर सकती है कि सभी की दृष्टि इस असाधारण शक्ति की ओर आप-से-आप आकृष्ट हो । यदि उसके अन्तर्यामी परमदेव का ऐसा ही संकल्प हो तो मुक्त आत्मा उन्हीं पुरानी मानवी परिस्थितियों में सूक्ष्म और सीमित कर्म से सन्तुष्ट रह सकती है; तब वे परिस्थितियां अपना बाह्य रूप किसी प्रकार भी बदलना नहीं चाहेंगी । परन्तु उसे एक ऐसा कर्म करने के लिये भी आह्वान प्राप्त हो सकता है जो उसके अपने बहिर्जीवन के रूपों तथा क्षेत्र को ही नहीं बदल डालेगा, अपितु उसके चारों ओर की किसी भी चीज को परिवर्तित या प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ेगा और नये जगत् एवं नयी व्यवस्था को जन्म देगा ।

 

     एक प्रचलित विचार हमें यह विश्वास बंधाएगा कि संसार के नश्वर जीवन में व्यष्टि-आत्मा के लिये शारीरिक पुनर्जन्म से छुटकारा प्राप्त करना ही मुक्ति का एकमात्र प्रयोजन है । यदि ऐसा छुटकारा एक बार निश्चित रूप से प्राप्त हो जाय तो आत्मा के लिये इहलोक या परलोक के जीवन में कोई और कर्म शेष नहीं रहता अथवा केवल वही कर्म शेष रहता है जिसकी जरूरत शरीर की सत्ता बनाये रखने

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के लिये होती है या जो गत जन्मों के अभुक्त कर्मफलों के कारण आवश्यक होता है । यह थोड़ा-सा कर्म भी, योग की अग्नि से शीघ्र ही निःशेष या दग्ध होकर, मुक्त आत्मा के शरीर से प्रयाण करने पर समाप्त हो जायगा । पुनर्जन्म से छुटकारे का लक्ष्य भारतीय मन के अन्दर चिरकाल से इस रूप में घर किये हुए है कि यही आत्मा का परम पुरुषार्थ है । इसने पारलौकिक स्वर्ग के उस सुख-भोग का स्थान ले लिया है जिसे अनेक धर्मों ने अपने दैवी प्रलोभन के रूप में भक्तों के मन में प्रतिष्ठित किया था । जब वैदिक सूक्तों के स्थूल बाह्य अर्थ का मत अत्यन्त प्रबल था तब भारतीय धर्म ने भी इस अधिक पुरातन और निम्नतर पुकार का ही समर्थन किया । परवर्ती भारत में द्वैतवादियों ने भी इसे अपने परमोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य का अंग बनाये रखा । इसमें सन्देह नहीं कि मन और शरीर की सीमाओं से परे आत्मा की शाश्वत शान्ति, स्थिरता और नीरवता में मुक्ति प्राप्त करना मानसिक हर्षों या चिरस्थायी शारीरिक सुखों के स्वर्ग के प्रस्ताव की अपेक्षा अत्यधिक आकर्षक है, पर यह भी अन्ततः एक प्रलोभन ही है । ऐसी मुक्ति का यह आग्रह कि मन को जगत् से विरक्त और प्राण-सत्ता को जन्म लेने के साहसिक कर्म से पराङमुख हो जाना चाहिये एक प्रकार की दुर्बलता को ही ध्वनित करता है और इसलिये ऐसी मुक्ति हमारा परम लक्ष्य नहीं हो सकती । वैयक्तिक मोक्ष की कामना अहंकार की ही उपज है, भले ही इस कामना का स्वरूप कैसा भी ऊंचा क्यों न हो । इसका मूल आधार है हमारे निजी व्यक्तित्व का तथा इसकी कामना और भलाई का विचार, दुःख से छूटने की लालसा या जन्मग्रहण के कष्ट के अवसान के लिये इसकी चीख-पुकार । इन चीजों को ही यह हमारे जीवन का परम लक्ष्य निश्चित करती है । अहंकार के इस आधार के पूर्ण निराकरण के लिये वैयक्तिक मोक्ष की कामना से ऊपर उठना आवश्यक है । यदि हम भगवान् को खोजते हैं तो यह खोज भगवान् के लिये ही होनी चाहिये और किसी चीज के लिये नहीं, क्योंकि यही हमारी सत्ता की परम पुकार है और यही हमारी आत्मा का गभीरतम सत्य है । मोक्ष की प्राप्ति एवं आत्मा के स्वातंत्र्य के लिये तथा अपनी सच्ची एवं सर्वोच्च आत्मा की उपलब्धि और भगवान् के साथ मिलन के लिये प्रयत्न करने का समर्थन केवल इस कारण किया जाता है कि यह हमारी प्रकृति का उच्चतम विधान है एवं हमारे अन्दर के निम्नतर तत्त्व का परमोच्च तत्त्व की ओर आकर्षण है और यहीं हमारे अन्दर भगवान् की इच्छा हैं । यह कारण इसे पर्याप्त रूप से सार्थक सिद्ध करता है और यह इसका सच्चे-से-सच्चा कारण है । अन्य सब कारण तो प्रपंचमात्र हैं, गौण या आनुषंगिक सत्य अथवा उपयोगी प्रलोभन हैं और ज्यों ही उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाय और परमदेव तथा भूतमात्र के साथ एकत्व की स्थिति हमारी सामान्य चेतना और इस स्थिति का आनन्द हमारा आध्यात्मिक वातावरण बन जाये, त्यों ही आत्मा को उन सबका त्याग कर देना होगा ।

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      प्रायः हम देखते हैं कि एक और आकर्षण, जो हमारी प्रकृति की एक उच्चतर प्रवृत्ति से सम्बन्ध रखता है और मुक्त आत्मा को जो कर्म करना चाहिये उसके मूल स्वरूप का दिग्दर्शन कराता है, वैयक्तिक मोक्ष की कामना को अभिभूत कर देता है । अमिताभ बुद्ध का महान् आख्यान इसी आकर्षण की ओर इंगित करता है । जब उनकी आत्मा निर्वाण की डयोढ़ी पर पहुंची तो वे वापिस मुड़े और प्रतिज्ञा की कि जबतक एक भी जीव दुःख और अज्ञान मे रहेगा तबतक वे इसे कभी नहीं लाघेंगे । भागवत पुराण के उस उत्कृष्ट पद्य के मूल मे भी यही अर्थ अन्तर्निहित है,  ''मुझे न तो आठों सिद्धियों से युक्त परम पद की कामना है और न पुनर्जन्म से छुटकारे की । मैं चाहता हू कि सभी सन्तप्त प्राणियों का दुःख अपने ऊपर ले लूं और उनके, अन्दर प्रविष्ट हो जाऊं जिससे वे कष्ट से मुक्त हो जायें ।''  यही स्वामी विवेकानन्द के एक पत्र के एक अद्भुत सन्दर्भ का प्रेरक है । उस महान् वेदान्ती ने लिखा था, ''मुझे अपनी मुक्ति की कोई इच्छा नहीं रही है । मै चाहता हू कि मैं फिर-फिर पैदा होऊं और हजारों कष्ट भोगूं जिससे मैं उस एकमात्र ईश्वर की पूजा कर सकूं जो वस्तुत: सत् है; उस एकमात्र ईश्वर की जिसे मैं मानता हूं, जो सब आत्माओं का कुल योग है, --और इससे भी बढ़कर अपने उस ईश्वर की जो सब जातियों और उपजातियों के दुष्ट जनों मे है, अपने उस ईश्वर की जो सब दीन--दुःखियों मे है, उस दरिद्रनारायण की जो मेरा विशेष पूजापात्र है । जो उच्च और नीच, सन्त और पापी, देवता और कृमि है, उसकी पूजा करो, दृश्य, ज्ञेय, वास्तविक और सर्वव्यापक की पूजा करो; और सब मूर्त्तियां तो फेंको । जिसमें न अतीत जीवन है न भावी जन्म, न मृत्यु न आवागमन, जिसमें हम सदा एक रहे हैं और सदा ही एक रहेंगे, उसकी पूजा करो; और सब मूर्त्तियां तो फेंको ।''

 

     अन्तिम दो वाक्य मे सचमुच ही विषय का सम्पूर्ण सार आ जाता है । सच्चा मोक्ष प्राप्त करना या पुनर्जन्म के बन्धन से सच्चा छुटकारा पाना यह नहीं है कि पार्थिव जीवन का त्याग कर दिया जाये या व्यक्ति एक आध्यात्मिक स्व--विलोप के द्वारा जीवन से भाग जाये, जैसे कि सच्चा संन्यास यह नहीं है कि परिवार या समाज का केवल स्थूल रूप से त्याग कर दिया जाये । सच्चा मोक्ष उस भगवान् के साथ आन्तर तादात्म्य है जिसमें अतीत जीवन और भावी जन्म का कोई बंधन नहीं है, बल्कि इनके स्थान पर अज आत्मा की शाश्वत सत्ता है । गीता कहती है कि जो अन्दर से स्वतन्त्र है वह सभी कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता; प्रकृति ही उसके अन्दर अपने स्वामी की अधीनता मे कार्य करती है । इसी प्रकार, चाहे वह सैंकड़ों बार शरीर धारण करे तो भी वह जन्म के हर प्रकार के बन्धन से या सत्ता के यन्त्रवत् घूमनेवाले चक्र से मुक्त रहता है, क्योकि वह अज एवं अविनाशी आत्मा मे निवास करता है, शरीर के जीवन मे नहीं । अतएव, आवागमन से छुटकारे मे आसक्ति एक ऐसी प्रतिमा है जिसे और कोई भले ही सुरक्षित रखे, पर

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 जिसे पूर्णयोग के साधक को तोड़ कर अपने से दू फेंक देना होगा । कारण, उसका योग समस्त जगत् से परे विद्यमान परात्पर की व्यष्टि-आत्मा द्वारा उपलब्धि तक ही सीमित नहीं है यह विराट्, अर्थात् ''सकल आत्माओं के कुल योग'' की उपलब्धि को भी समाविष्ट करता है, अतएव यह वैयक्तिक मोक्ष तथा पलायन की गति के भीतर ही आबद्ध नहीं किया जा सकता । वैश्व सीमाओं के अतिक्रमण की अवस्था में भी वह भगवान् में सर्व के साथ एक होता है; संसार में दिव्य कर्म उसके लिये तब भी शेष रहता है ।

 

 *

 

     वह कर्म किसी मनोनिर्मित नियम या मानवीय प्रतीमान से निश्चित नहीं किया जा सकता; क्योंकि उसकी चेतना मानवीय नियमों और मर्यादाओं को पार कर दिव्य स्वातंत्र्य में पहुंच जाती है, बाह्य और क्षण-भंगुर के राज्य से निकलकर आन्तर और नित्य के आत्म-शासन में तथा सांत के बन्धनकारी रूपों से परे हट कर अनन्त के स्वतन्त्र आत्म-निर्धारण में प्रविष्ट हो जाती है । ''वह चाहे जैसे भी रहता और काम करता हो'',  गीता कहती है, ''वह मुझ में ही रहता और काम करता है । ''  मनुष्यों की बुद्धि जिन नियमों को प्रस्थापित करती है वे मुक्त आत्मा पर लागू नहीं हो सकते । उनके मानसिक संस्कार और पूर्वनिर्णय जिन बाह्य कसौटियों और परीक्षाओं को निश्चित करते हैं उनके द्वारा ऐसे व्यक्ति के विषय में निर्णय नहीं किया जा सकता । वह इन भ्रान्तिपूर्ण न्यायालयों के संकीर्ण अधिकार- क्षेत्र से बाहर होता है । इसका कुछ महत्त्व नहीं कि वह संन्यासी का वेष धारण करता है अथवा गृहस्थी का भरापूरा जीवन बिताता है; वह उन कार्यों में, जिन्हें लोग पवित्र कहते हैं, अथवा संसार के बहुमुख कार्य-व्यवहार में अपने दिन बिताता है; वह अपना जीवन बुद्ध, ईसा या शंकर के समान प्रत्यक्ष रूप से मनुष्यों को प्रकाश की ओर ले जाने में लगाता है अथवा जनक की भांति राज्यों का संचालन करता है अथवा श्रीकृष्ण की भांति एक राजनीतिज्ञ या सेनानायक के रूप में लोगों के सामने उपस्थित होता है; वह क्या खाता-पीता है; उसकी आदतें या प्रवृत्तियां क्या हैं; वह सफल होता है या असफल; उसका कार्य निर्माण का है या विनाश का;  क्या वह पुरातन व्यवस्था का समर्थन या उसकी पुनः प्रतिष्ठा करता है अथवा उसके स्थान पर नयी व्यवस्था की स्थापना करने की चेष्टा करता है; क्या उसके संगी-साथी वे लोग हैं जिनका मान करने में मनुष्य हर्ष अनुभव करते हैं अथवा वे लोग जिन्हें उनकी उत्कृष्ट पवित्रता की भावना बहिष्कृत और तिरस्कृत करती है; क्या उसके समकालीन लोग उसके जीवन और कार्य-कलाप का अनुमोदन करते हैं अथवा उसे

 

           १ सर्वथा वर्तमानोऽपि म योगी मयि वर्तते । गीता ६- ३१

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मनुष्यों को कुमार्ग पर चलानेवाला और धार्मिक, नैतिक या सामाजिक पाखंडों को उत्तेजित करनेवाला कहकर उसकी निन्दा करते हैं--इस सबका भी कुछ महत्त्व नहीं । वह मनुष्यों के निर्णयों या अज्ञानियों के निश्चित किये हुए नियमों के अनुसार नहीं चलता, वह अन्तर की वाणी का अनुसरण करता है और अदृश्य शक्ति से चालित होता है । उसका वास्तविक जीवन भतिर होता है जिसका वर्णन यूं किया जा सकता है कि वह ईश्वर में और भगवान् तथा अनन्त में रहता-सहता, चलता- फिरता और काम-काज करता है ।

 

     पर, यद्यपि उसका कर्म किसी बाह्य नियम से अनुशासित नहीं होता, तो भी वह एक नियम का अनुसरण करता है जो बाह्य नहीं होता; वह किसी वैयक्तिक कामना या लक्ष्य से प्रेरित नहीं होता, बल्कि वह संसार में एक सचेतन तथा आत्मशासित और परिणामत: सुशासित दिव्य क्रिया का भाग होता है । गीता स्पष्ट कहती है कि मुक्त मनुष्य का कर्म कामना से परिचालित नहीं होना चाहिये, बल्कि उसका लक्ष्य होना चाहिये लोकसंग्रह, संसार को एकत्र रखना और इसका शासन, मार्गदर्शन तथा प्रचालन करना तथा इसे इसके नियत पथ पर स्थिर रखना । इस उपदेश का यह अर्थ किया गया है कि क्योंकि संसार एक ऐसा भ्रम है जिसमें अधिकतर मनुष्यों को रखना ही होता है--कारण, वे मोक्ष के अयोग्य होते हैं, --उसे बाहर से इस प्रकार कार्य करना चाहिये कि वह सामाजिक नियम द्वारा उनके लिये निर्दिष्ट किये हुए आचारिक कर्मों में उनकी आसक्ति को दृढ़ बनाये रखे । यदि ऐसा ही हो तो यह एक हीन और तुच्छ नियम होगा और प्रत्येक भद्रहृदय व्यक्ति इसका त्याग कर अमिताभ बुद्ध के दिव्य व्रत, भागवत की उदात्त प्रार्थना और विवेकानन्द की उत्कट अभीप्सा का ही अनुसरण करना चाहेगा । विशेषकर, यदि हम इस विचार को स्वीकार करें कि संसार प्रकृति की एक ऐसी गति है जो दैवी ढंग से परिचालित हो रही है, जो मनुष्य के अन्दर ईश्वर की ओर उच्छलित हो रहीं है और इसी कार्य में, गीता के ईश्वर कहते हैं कि वे निरन्तर लगे हुए हैं, चाहे स्वयं उनके लिये ऐसी कोई अप्राप्त वस्तु नहीं है जो उन्हें अभी प्राप्त करनी हों, --तो इस महान् उपदेश का गंभीर और सत्य आशय हमारे सामने प्रकट हो जायेगा । उस दिव्य कर्म में भाग लेना और संसार में ईश्वर के लिये जीना कर्मयोगी के कर्म का नियम होगा-संसार में ईश्वर के लिये जीना और अतएव इस प्रकार कर्म करना कि भगवान् अपने- आपको अधिकाधिक प्रकट कर सकें और संसार अपनी अज्ञात यात्रा के चाहे जिस भी मार्ग से आगे बढ़ता हुआ दिव्य आदर्श के अधिक निकट पहुंच सके ।

 

     यह कार्य वह कैसे करेगा, किस विशेष ढंग से करेगा, यह किसी सामान्य नियम के द्वारा निश्चित नहीं किया जा सकता । यह तो अन्दर से ही विकसित या निर्धारित होगा । इसका निश्चय ईश्वर और हमारी आत्मा, परम आत्मा और व्यक्तिगत आत्मा के--जो कर्म का यन्त्र होती है-बीच की बात है । मुक्ति से पहले भी,

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अन्तरात्मा, ज्यों ही हम इससे सचेतन होते हैं, हमारी अनुमति या हमारे अध्यात्मतः निर्धारित चुनाव का उद्गम बन जाती है । करणीय कर्म का ज्ञान पूर्णरूपेण अन्दर से ही प्राप्त होना चाहिये । ऐसा कोई विशिष्ट कर्म नहीं है, न ही कर्मों का ऐसा कोई विधि-विधान या बाह्य: स्थिर या नियत ढंग हैं जिसे मुक्त जीव का कर्म या उसके कर्म का विधि-विधान या ढंग कहा जा सके । करणीय कर्म को सूचित करने के लिये गीता में जो शब्द प्रयुक्त दुआ है उसका अर्थ, निश्चय ही, यह लगाया गया है कि हमें फल का विचार किये बिना अपना कर्तव्य कर्म करना चाहिये । किन्तु यह एक ऐसा विचार है जो यूरोपीय संस्कृति की उपज है और आध्यात्मिक की अपेक्षा कहीं अधिक नैतिक है और अपने बोधनों (conceptions) में अन्तर्गभीर होने की अपेक्षा कहीं अधिक बाह्य है । कर्तव्य नाम की किसी सामान्य बाह्य वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है । हमारे सामने तो केवल अनेक कर्तव्य होते हैं जो प्रायः परस्पर-विरोधी होते हैं । ये हमारी परिस्थिति, हमारे सामाजिक सम्बन्धों और हमारी बाह्य जीवन-स्थिति से निर्धारित होते हैं । इनका एक बड़ा लाभ यह होता है कि ये अपरिपक्व नैतिक प्रकृति को सधाते हैं तथा स्वार्थपूर्ण कामना के कर्म को निरुत्साहित करनेवाले प्रतिमान की स्थापना करते हैं । यह कहा ही जा चुका है कि जब तक अभीप्सु को आन्तरिक ज्योति प्राप्त नहीं हो जाती तब तक उसे स्वलब्ध सर्वोत्तम प्रकाश के अनुसार ही चलना होगा; कर्तव्य, सिद्धान्त और ध्येय उन प्रतिमानों में से हैं जिनका वह कुछ काल के लिए निर्माण तथा अनुसरण कर सकता है । परन्तु यह सब होते हुए भी, कर्तव्य कर्म बाह्य चीजें हैं, आत्मा की वस्तु नहीं । ये इस पथ में कर्म के चरम आदर्श नहीं हो सकते । सैनिक का कर्तव्य यह है कि जब उसे आह्वान प्राप्त हो वह युद्ध करे, यहांतक कि अपने बंधु- बांधवों पर भी गोली चलावे । परन्तु ऐसा या इससे मिलता-जुलता और कोई मानदण्ड मुक्त पुरुष पर लगू नहीं किया जा सकता । दूसरी ओर, प्रेम या करुणा करना, अपनी सत्ता के उच्चतम सत्य का अनुसरण करना और भगवान् के आदेश का पालन करना कोई कर्तव्य नहीं है । ये तो प्रकृति का धर्म बनते जाते हैं जैसे--जैसे कि यह भगवान् की ओर ऊपर उठती है, ये आत्म-स्थिति से निःसृत कर्म का प्रवाह तथा आत्म-सत्ता का उच्च सत्य हैं । कर्मों के मुक्त कर्ता का कर्म आत्मा से निःसृत इस प्रकार का प्रवाह ही होना चाहिये । यह भगवान् के साथ उसके आध्यात्मिक मिलन के स्वाभाविक परिणाम के रूप में उसे प्राप्त होना चाहिये अथवा उसके अन्दर प्रकट होना चाहिये, न कि मानसिक विचार एवं संकलप और व्यावहारिक बुद्धि या सामाजिक भावना की किसी उन्नायक रचना से निर्मित होना चाहिये । साधारण जीवन में वैयक्तिक, सामाजिक या परम्परागत निर्मित नियम, प्रतिमान या आदर्श ही मार्गदर्शक होता है । परन्तु जब एक बार आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाये, तो इसके स्थान पर आन्तरिक जीवन-यापन का एक ऐसा बाह्य एवं

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आभ्यन्तर नियम या प्रणाली प्रतिष्ठित करनी चाहिये जो हमारी आत्म-साधना के लिये तथा हमें स्वतन्त्र एवं पूर्ण बनाने के लिये आवश्यक हो, एक ऐसी जीवनप्रणाली जो हमारे अवलंबित पथ के उपयुक्त या आध्यात्मिक मार्गदर्शक और शिक्षक--'गुरु'--से आदिष्ट हों अथवा हमारे अन्तःस्थ पथप्रदर्शक से निर्दिष्ट हो । परशु आत्मा की अनन्तता और स्वतन्त्रता की चरम अवस्था में सभी बाह्य प्रतिमान पदच्युत या बहिष्कृत कर दिये जाते हैं और तब केवल यही प्रतिमान रह जाता है कि जिस भगवान् के साथ हम योगयुक्त हो चुके हैं उसके आदेश का पालन हम सहज और पूर्ण रूप से करें तथा ऐसा कर्म करें जो हमारी सत्ता और प्रकृति के सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक सत्य को सहज-स्वाभाविक रूप से चरितार्थ करता हो ।

 

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      गीता के इस वचन को कि स्वभाव के द्वारा निर्धारित और परिचालित कार्य ही हमारे कर्मों का नियम होना चाहिये, हमें इस गभीरतर अर्थ में ही ग्रहण करना चाहिये । निश्चय ही, यहां 'स्वभाव' शब्द से स्थूल स्वभाव या चरित्र या अभ्यासगत आवेग अभिप्रेत नहीं है, बल्कि संस्कृत शब्द के मूल अर्थ के अनुसार हमारी ''अपनी सत्ता'', हमारी मूल प्रकृति, हमारी आत्माओं का दिव्य सत्त्व ही अभिप्रेत है । इस मूल से उद्भूत या इन स्रोतों से प्रवाहित होनेवाली प्रत्येक वस्तु गभीर, सारभूत और यथार्थ होती है । शेष सब वस्तुएं--सम्मतियां, कामनाएं, आवेग और अभ्यास--सत्ता की केवल तलीय रचनाएं या आकस्मिक विभ्रम या बाह्य अध्यारोप ही हो सकती हैं । इनमें हेर-फेर और परिवर्तन होता रहता है, पर वह स्थिर रहती है । प्रकृति हमारे अन्दर जो-जो कार्यवाहक रूप ग्रहण करती है वे हमारा अपना आप या हमारा नित्यतः स्थिर और व्यंजक आकार नहीं होते, हमारे अन्दर की आध्यात्मिक सत्ता ही--इसके अन्दर इसकी आत्मिक अभिव्यक्ति भी आ जाती है--विश्व में काल के भीतर अचल और अटल रहती है ।

 

     तथापि अपनी सत्ता के इस सत्य आन्तरिक नियम को हम सुगमता से नहीं जान सकते । जबतक हमारी बुद्धि और हृदय अहंभाव के कारण अशुद्ध रहते हैं, यह हमसे छिपा ही रहता है । तबतक हम अपने परिपार्श्व से प्राप्त सब प्रकार के स्थूल और अस्थायी विचारों, आवेगों, कामनाओं, सुझावों और अध्यारोपों का अनुसरण करते रहते हैं अथवा अपने अल्पकालिक मन-प्राण-शरीररूप व्यक्तित्व की रचनाओं को ही कार्यान्वित करते रहते हैं । यह व्यक्तित्व एक नश्वर, परीक्षणात्मक और सांस्थानिक स्व है जो हमारी सत्ता और अपरा प्रकृति के दबाव की परस्पर-क्रिया के द्वारा हमारे लिये बनाया गया है । जितना ही हम शुद्ध होते हैं उतना ही हमारे अन्दर की सच्ची सत्ता अपने को अधिक स्पष्ट रूप में प्रकट करती है, हमारी इच्छा-शक्ति

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बाहर से आनेवाले सुझावों में उतना ही कम फंसती है अथवा हमारी निजी उथली मानसिक रचनाओं में उतना ही कम आबद्ध होती है । अहंकार के छूट जाने पर, प्रकृति के शुद्ध हो जाने पर, कर्म अन्तरात्मा के आदेश से एवं आत्मा की गहराइयों या ऊंचाइयों से प्रेरित होगा, अथवा यह स्पष्टतया उस ईश्वर के द्वारा परिचालित होगा जो हमारे हृदयों के भीतर गुप्त रूप में सदा से ही आसीन है । योगी के लिये गीता का चरम और परम वचन यह है कि उसे धर्म-कर्म के सब रूढ़ सूत्रों, आचार-व्यवहार के सब बंधे-बंधाये बाह्य नियमों, स्थूल गोचर प्रकृति की सभी रचनाओं--सर्व ' धर्मों को--त्याग करके एकमात्र भगवान् की शरण लेनी चाहिये । जब वह कामना और आसक्ति से मुक्त और प्राणिमात्र के साथ एकीभूत हो जायेगा, अनन्त सत्य और पवित्रता में निवास करेगा, अपनी अन्तश्चेतना की गहनतम गहराइयों से कार्य करेगा और अपनी अमर, दिव्य एवं सर्वोच्च आत्मा से परिचालित होगा, तब अन्तरस्थ शक्ति ही ईश्वर को जगत् में चरितार्थ करने और सनातन को काल में व्यक्त करने के लिये हमारे अन्दर की उस सारभूत आत्मा और प्रकृति के द्वारा, जो ज्ञानोपार्जन, युद्ध-पराक्रम, कार्य-व्यवसाय और सेवा-परिचर्या करती हुई भी सदा दिव्य रहती है, उसके सभी कर्मों का संचालन करेगी ।

 

     भगवान् के साथ योगयुक्त हमारी आध्यात्मिक सत्ता की ज्योति एवं शक्ति से सहज, स्वतन्त्र और निर्भ्रान्त रूप में उद्भूत होनेवाला दिव्य कर्म ही इस सर्वांगीण कर्मयोग की चरम अवस्था हैं । हमें मोक्ष की खोज क्यों करनी चाहिये इसका सब से अधिक यथार्थ कारण यह नहीं है कि हम व्यक्तिगत रूप में जगत् के दुःख से मुक्त हों जायें, --यद्यपि दुःख से मुक्ति भी हमें प्राप्त होगी ही, --वरन् यह है कि हम भगवान्, पुरुषोत्तम और सनातन के साथ एक हो जायें । पूणता की खोज--परम स्थिति, पवित्रता, ज्ञान, बल, प्रेम और सामर्थ्य की खोज --हमें क्यों करनी चाहिये इसका सबसे अधिक यथार्थ कारण यह नहीं है कि व्यक्तिगत रूप में हम दिव्य प्रकृति का उपभोग करें, यह भी नहीं कि हम देवताओं के समान बन जायें, --यद्यपि ऐसा दिव्य उपभोग भी हमें अवश्य प्राप्त होगा, --वरन् यह है कि इस मुक्ति और पूर्णता को प्राप्त करना ही हमारे अन्दर भगवान् की इच्छा है, यही प्रकृति में हमारी आत्मा का सर्वोच्च सत्य है, यही विश्व में वर्द्धनशील अभिव्यक्ति का सदा-अभिमत लक्ष्य है । दिव्य प्रकृति-स्वतन्त्र, परिपूर्ण और आनन्दमय प्रकृति--व्यक्ति में अवश्य प्रकट होनी चाहिये जिससे कि यह संसार में भी अभिव्यक्त हो सके । अविद्या में भी व्यक्ति वस्तुत: विराट् के अन्दर और विराट् के प्रयोजन के लिये ही निवास करता है । अपने अहं के प्रयोजनों और कामनाओं का अनुसरण करता हुआ भी वह विश्वप्रकृति के द्वारा बाध्य होकर अपने अहंमूलक कार्य से इन लोकों के अन्दर उसी (प्रक्रति) के कार्य और प्रयोजन में ही सहयोग देता है । परन्तु यह सहयोग वह बिना सचेतन संकल्प के एवं अपूर्ण ढंग से और

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उसकी अर्ध-विकसित एवं अर्द्ध-चेतन तथा अपूर्ण एवं स्थूल क्रिया को ही देता है । अहं से मुक्त होकर भगवान् से एकत्व प्राप्त करना उसके व्यक्तिभाव की मुक्ति है और यही उसकी परिपूर्णता भी है । इस प्रकार मुक्त, शुद्ध और पूर्णता-प्राप्त व्यक्ति--दिव्य आत्मा--जैसा प्रारम्भ से ही अभिमत था, सचेतन तथा समग्र रूप में, विराट् और परात्पर भगवान् में और उसके लिये तथा उसके विश्वगत संकल्प के लिये जीवन यापन करने लगता है ।

 

     ज्ञानमार्ग में हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच सकते हैं जहां हम व्यक्तित्व तथा विश्व का अतिक्रमण करके, समस्त विचार, संकल्प एवं कर्मकलाप तथा प्रकृति की समस्त गतिविधि को पार करके और अनन्तता में लीन तथा उन्नीत होकर परात्परता में निमग्र हों सकते हैं । यह अवस्था ईश्वर-ज्ञानी के लिये अपरिहार्य तो नहीं है, पर यह अन्तरात्मा का एक स्व-निर्णीत लक्ष्य हो सकती है । यह हमारे अन्दर की आत्मा द्वारा अनुसृत एक भूमिका-विशेष हो सकती है । भक्तिमार्ग में हम भक्ति और प्रीति की प्रगाढ़ता के द्वारा उस परमोच्च सर्व-प्रियतम से मिलन लाभ कर नित्य निरन्तर उसके सान्निध्य के हर्षावेश में रह सकते हैं, --उसीमें निमग्र, एक ही आनन्दमय लोक में उसके घनिष्ठ सहचर बनकर । यही तब हमारी सत्ता का संवेग तथा इसका आध्यात्मिक चुनाव हो सकता है । परन्तु कर्मों के मार्ग में हमारे सामने एक और ही प्रकार का भविष्य खुलता है । इस पथ पर यात्रा करते हुए हम सनातन देव के साथ प्रकृति का साधर्म्य और सादृश्य लाभ कर मुक्ति और सिद्धि में प्रवेश कर सकते हैं । हम अपनी इच्छाशक्ति और सक्रिय व्यक्तित्व में भी उसके साथ उतने ही तदाकार हो जाते हैं जितने कि अपनी आध्यात्मिक स्थिति में । कर्म करने का दिव्य ढंग इस मिलन का स्वाभाविक परिणाम होता है और आध्यात्मिक स्वतंत्र्य में दिव्य जीवन का यापन इसकी अभिव्यक्ति का मूर्त्तिमन्त रूप । पूर्णयोग में ये तीनों मार्ग अपने निषेधों का त्याग कर देते हैं और परस्पर घुल-मिलकर एक हो जाते हैं अथवा स्वभावत: ही एक दूसरे में से उद्भूत होते हैं । हमारी आत्मा पर जो मन का पर्दा पड़ा हुआ था उससे मुक्त होकर हम परात्परता में निवास करने लगते हैं, हृदय की उपासना के द्वारा हम परम प्रेम और आनन्द के एकत्व में प्रवेश करते हैं और परा शक्ति में हमारी सत्ता की सब शक्तियों के उन्नति हो जाने तथा एक ही परम संकल्प और शक्ति में हमारे संकल्पों और कर्मों के समर्पित हों जाने पर हम दिव्य प्रकृति की क्रियाशील पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं ।

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