Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
दूसरा भाग
पूर्ण ज्ञान का योग
अध्याय १
ज्ञान का लक्ष्य
समस्त अध्यात्म-जिज्ञासा 'ज्ञान' के एक ऐसे लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है जिसकी तरफ साधारागत: मनुष्य अपने मन की आंख नहीं फेरते, यह एक ऐसे सनातन, असीम एवं निरपेक्ष पुरुष या वस्तु की ओर अग्रसर होती है जो हमारी इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य पार्थिव वस्तुओं या शक्तियों से भिन्न है, भले वह इनके अन्दर या इनके पीछे विद्यमान हो अथवा इनका उद्गम या स्रष्टा ही क्यों न हो । इसका लक्ष्य ज्ञान की एक ऐसी भूमिका है जिसके द्वारा हम इन सनातन, असीम एवं निरपेक्ष का स्पर्श कर सकें, इनमें प्रवेश कर सकें या तादात्म्य द्वारा इन्हें जान सकें; इसका लक्ष्य एक ऐसी चेतना है जो विचारों, रूपों और पदार्थों-विषयक हमारी साधारण चेतना से भिन्न है, एक ऐसा ज्ञान जो वह चीज नहीं है जिसे हम ज्ञान कहते हैं, बल्कि एक स्वयंस्थित, नित्य एवं अनन्त वस्तु है । और, यद्यपि मनुष्य के मनोमय प्राणी होने के कारण, यह ज्ञान के हमारे साधारण करणों से अपनी खोज आरम्भ कर सकती है अथवा यहांतक कि इसे आवश्यक रूप से ऐसा करना ही होता है फिर भी, इसे उतने ही आवश्यक रूप में उन करणों के परे जाकर अतीन्द्रिय तथा अतिमानसिक साधनों और शक्तियों का प्रयोग करना होगा, क्योंकि यह किसी ऐसी चीज की खोज कर रहीं है जो स्वयं अतीन्द्रिय एवं अतिमानसिक है तथा मन और इन्द्रियों की पकड़ से परे है, यद्यपि मन और इन्द्रिय के द्वारा उसकी प्रथम झलक अवश्य प्राप्त हो सकती है या उसकी प्रतिबिम्बित आकृति दिखायी दे सकती है ।
ज्ञान-योग की सभी परम्परागत प्रणालियां, उनके अन्य भेद चाहे जो हों, इस विश्वास या बोध के आधार पर आगे बढ्ती हैं कि सनातन एवं निरपेक्ष सत्ता विश्वरहित सत्ता की शुद्ध परात्पर अवस्था ही हो सकती है या कम-से-कम इसी अवस्था में निवास कर सकती है या फिर, वह असत्ता ही हो सकती है । समस्त वैश्व सत्ता या वह सब कुछ जिसे हम सत्ता कहते हैं अज्ञान की ही एक अवस्था है । यहांतक कि उच्चतम वैयक्तिक पूर्णता एवं आनन्दपूर्ण जागतिक स्थिति भी परम अज्ञान की अवस्था से कोई अच्छी चीज नहीं है । पूर्ण सत्य के अन्वेषक को वैयक्तिक और जागतिक-सभी वस्तुओं एवं अवस्थाओं का कठोरतापूर्वक त्याग कर देना होगा । परम निश्चल आत्मा या चरम शून्य ही एकमात्र सत्य है, आध्यात्मिक ज्ञान का एकमात्र विषय है । ज्ञान की जो भूमिका किंवा इस लौकिक चेतना से भिन्न जो चेतना हमें प्राप्त करनी होगी वह निर्वाण है, अर्थात् अहं का लय है, समस्त मानसिक, प्राणिक और शारीरिक क्रियाओं का, बल्कि सभी
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क्रियाओं का निरोध है, चाहे वे कोई भी क्यों न हों, वह परम प्रकाशयुक्त निश्चलता है, आत्म-लीन और अनिर्वचनीय निर्व्यक्तिक प्रशान्तता का विशुद्ध आनन्द है । इसकी प्राप्ति के साधन हैं ऐसा ध्यान और एकाग्रता जो अन्य सभी वस्तुओं को बहिष्कृत कर दें और मन की अपने विषय में पूर्ण तल्लीनता । कर्म करने की स्वीकृति खोज की प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही दी जा सकती है जिससे वह जिज्ञासु के चित्त को शुद्ध करके उसे सदाचार और स्वभाव की दृष्टि से ज्ञान का उपयुक्त आधार बना दे । इस कर्म को भी या तो हिन्दू-शास्त्र के द्वारा कठोरतापूर्वक विहित पूजासम्बन्धी क्रिया-कलाप तथा जीवन-सम्बन्धी नियत कर्तव्यों के अनुष्ठान तक ही सीमित रखना होगा या फिर इसे बौद्ध साधना के अनुसार, अष्टांग मार्ग के द्वारा भूतदया के उन कार्यों के परमोच्च अनुष्ठान की ओर प्रेरित करना होगा जो परहित के लिये 'स्व' के क्रियात्मक उच्छेद की ओर ले जाते हैं । पर अन्त में, किसी भी तात्त्विक एवं विशुद्ध ज्ञानयोग में पूर्ण निश्चलता की प्राप्ति के लिये समस्त कर्मों को त्याग देना होगा । कर्म मोक्ष के लिये तैयार तो कर सकता है, पर उसकी प्राप्ति नहीं करा सकता । कर्म के प्रति किसी भी प्रकार की अनवरत आसक्ति सर्वोच्च उन्नति के साथ असंगत है और आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में एक अलंध्य बाधा खड़ी कर सकती है । निश्चलता की परमोच्च अवस्था कर्म से सर्वथा विपरीत है, अतएव, यह उन लोगों को नहीं प्राप्त हो सकती जो आग्रहपूर्वक कर्मों में लगे रहते हैं, यहां तक कि भक्ति, पूजा एवं प्रेम भी ऐसी साधनाएं हैं जो अपरिपक्व आत्मा के ही योग्य हैं । अधिक-से-अधिक ये अज्ञान की ही सर्वोत्तम विधियां हैं । कारण, ये-- भक्ति, प्रेम आदि-हमसे भिन्न किसी अन्य, उच्चतर एवं महत्तर वस्तु को अर्पित किये जाते हैं; किन्तु परम ज्ञान में ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता, क्योंकि वहां या तो केवल एक ही सत्ता होती है या फिर कोई भी सत्ता नहीं होती और इसलिये या तो वहां पूजा करने और प्रेम एवं भक्ति की भेंट बढ़ानेवाला कोई नहीं होता या फिर इसे ग्रहण करनेवाला ही कोई नहीं होता । निश्चय ही, वहां चिन्तन-क्रिया भी तदात्मता या शून्यता की अनन्य चेतना में विलुप्त हो जाती है और अपनी निश्चलता के द्वारा सम्पूर्ण प्रकृति को भी निश्चल बना देती है । तब या तो केवल निरपेक्ष एकमेव रह जाता है या फिर सनातन शून्य ।
यह शुद्ध ज्ञानयोग बुद्धि के द्वारा साधित होता है, यद्यपि इसकी परिणति बुद्धि और उसकी क्रियाओं के अतिक्रमण में ही होती है । हमारे अन्दर का विचारक हमारी गोचर सत्ता के अन्य सभी भागों से अपने-आपको पृथक् कर लेता है, हृदय का बहिष्कार कर देता है, प्राण और इन्द्रियों से पीछे हट जाता है, शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, ताकि वह उस वस्तु में अपनी ऐकान्तिक परिपूर्णता प्राप्त कर सके जो उससे तथा उसके कार्य-व्यापार से भी परे है । इस मनोवृत्ति के मूल में एक सत्य निहित है, इसी प्रकार एक ऐसा अनुभव भी है जो इसे उचित
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सिद्ध करता प्रतीत होता है । सत्ता का एक 'परम सार' है जो अपनी प्रकृति से ही निश्चल है, मूल सत्ता के अन्दर एक परम नीरवता है जो अपने विकास और परिवर्तनों से परे है, जो निर्विकार है और अतएव उन सब क्रिया-प्रवृत्तियों से उच्चतर है जिनका वह, अधिक-से-अधिक, एक 'साक्षी' है । और, हमारे आभ्यन्तरिक व्यापारों की क्रमपरम्परा में विचार एक प्रकार से इस आत्मा के निकटतम है, कम-से-कम इसके उस सर्व-सचेतन ज्ञाता-रूप के निकटतम है जो सब क्रियाओं पर अपनी दृष्टि डालता है, पर उन सबसे पीछे हटकर स्थित हो सकता है । हमारा हृदय और संकल्प तथा हमारी अन्य शक्तियां मूलतः क्रियाशील हैं, वे स्वभाववश ही कार्य करने में प्रवृत्त होती हैं तथा उसके द्वारा अपनी पूर्ण चरितार्थता प्राप्त करती हैं, --यद्यपि वे भी अपने कार्यों में पूर्ण तृप्ति लाभ करके या फिर इससे उल्टी प्रक्रिया के द्वारा निश्चलता को प्राप्त करने में अधिक समर्थ हैं । विचार इस नीरव साक्षी आत्मा को जो हमारी सभी क्रियाओं से उच्चतर है, एक आलोकित बौद्धिक अनुभव के द्वारा जानकर अधिक आसानी से सन्तुष्ट हो जाता है और, एक बार उस अचल आत्मा के दर्शन कर लेने पर, सत्यान्वेषण के अपने ध्येय को पूरा हुआ समझकर, शान्त हो जाने तथा स्वयं भी अचल बन जाने के लिये उद्यत रहता है । कारण, अपनी अत्यन्त विशिष्ट गतिविधि में, यह स्वयं कर्म में उत्सुकतापूर्वक भाग लेनेवाले तथा रागपूर्वक श्रम करनेवाले की अपेक्षा कहीं अधिक वस्तुओं का एक निष्पक्ष साक्षी, निर्णायक एवं निरीक्षक बनने की प्रवृत्ति रखता है, और आध्यात्मिक या दार्शनिक स्थिरता एवं निर्लिप्त पृथक्ता, अत्यन्त सहज रूप से, प्राप्त कर सकता है । और, क्योंकि मनुष्य मनोमय प्राणी है, उसके अज्ञान को आलोकित करने के लिये विचार उसका सच्चे रूप में सर्वोत्तम एवं उच्चतम साधन न सही, पर कम-से-कम एक अत्यन्त स्थिर, सामान्य और प्रभावपूर्ण साधन अवश्य है । ज्ञान-संग्रह और विचार-विमर्श, ध्यान, स्थिर चिन्तन, मन की अपने विषय पर तन्मयतापूर्ण एकाग्रता-रूपी अपने व्यापारों से, अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन से सम्पन्न विचार हमारे अन्वेषणीय तत्त्व की उपलब्धि के एक अनिवार्य साधन के रूप में हमारी सत्ता में उच्च पद पर आसीन है, और यदि यह हमारी यात्रा का अग्रणी तथा मन्दिर का एकमात्र उपलभ्य मार्गदर्शक या कम-से-कम उसका सीधा एवं अन्तरतम द्वार होने का दावा करे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं ।
वास्तव में विचार केवल एक गुप्तचर और अग्रणी है; वह मार्ग दिखा सकता है, पर आदेश नहीं दे सकता और न अपने-आपको क्रियान्वित ही कर सकता है । हमारी यात्रा का नायक, हमारे अभियान का अग्रणी, हमारे यज्ञ का प्रथम और प्राचीनतम पुरोहित संकल्प है । यह संकल्प न तो हृदय की वह इच्छा है और न मन की वह मांग या अभिरुचि है जिसे हम बहुधा ही यह नाम दिया करते हैं । यह
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तो हमारी सत्ता की और सत्तामात्र की वह अन्तरतम, प्रबल तथा प्रायः ही आवृत चेतन-शक्ति है, तपस्, शक्ति, श्रद्धा है जो प्रभुत्वशाली रूप में हमारी दिशा का निर्धारण करती है और बुद्धि तथा हृदय जिसके न्यूनाधिक अन्ध एवं स्वयंचालित सेवक और यन्त्र हैं । परम आत्मा, जो निश्चल एवं शान्त है तथा वस्तुओं एवं घटनाओं से शून्य है, सत्ता का आश्रय तथा पृष्ठाधार है, एक परम तत्त्व की नीरव प्रणालिका का या उसका मूल द्रव्य है : वह स्वयं एकमात्र पूर्ण-वास्तविक सत्ता नहीं है, स्वयं परम तत्त्व नहीं है । सनातन एवं परम तत्त्व तो परमेश्वर एवं सर्व-मूल पुरुष है । सब कार्य-व्यापारों के ऊपर अवस्थित रहता हुआ तथा उनमें से किसी से भी बद्ध न होता हुआ वह उन सबका उद्गम, अनुमन्ता, उपादान, निमित्त कारण तथा स्वामी है । सभी कार्य-व्यापार इस परम आत्मा से ही उद्भूत होते हैं तथा इसीके द्वारा निर्धारित भी होते हैं; सभी इसकी क्रियाएं हैं, इसकी अपनी ही चिन्मय शक्ति की प्रक्रियाएं हैं, आत्मा से विजातीय किसी वस्तु की या इस आत्मा से भिन्न किसी अन्य शक्ति की नहीं । इन क्रियाओं में आत्मा का, जो अपनी सत्ता को अनन्त प्रकार से व्यक्त करने के लिये प्रेरित होती है, चेतन संकल्प या शक्ति प्रकट होती है; वह संकल्प या शक्ति अज्ञ नहीं है, बल्कि अपने स्वरूप के तथा उस सबके ज्ञान के साथ, जिसे प्रकट करने के लिये वह प्रयोग में लायी जाती है, एकीभूत है । हमारे अन्दर का गुह्य आध्यात्मिक संकल्प एवं आन्तरात्मिक श्रद्धा, हमारी प्रकृति का प्रमुख गुप्त बल, इस शक्ति का ही एक वैयक्तिक यन्त्र है जो 'परम' के साथ अधिक निकट सम्पर्क रखता है; यदि एक बार हम उसे उपलब्ध और अधिकृत कर सकें तो हमें पता चलेगा कि वह हमारा एक अधिक सुनिश्चित मार्गदर्शक और प्रकाशप्रदाता है, क्योंकि वह हमारी विचार-शक्तियों की ऊपरी क्रियाओं की अपेक्षा अधिक गंभीर है तथा 'एकं सत्' एवं 'निरपेक्ष' के अधिक घनिष्ठतया निकट है । अपनेमें तथा विश्व में उस संकल्प को जानना और उसके दिव्य चरम परिणामों तक, ये चाहे जो भी हों, उसका अनुसरण करना ही, निःसन्देह, कर्मों की भांति ज्ञान के लिये भी तथा जीवन के साधक और योग के साधक के लिये भी उच्चतम मार्ग तथा सत्यतम शिखर है ।
विचार प्रकृति का सबसे उच्च या सबसे सबल भाग नहीं है, न ही यह सत्य का एकमात्र या गभीरतम निर्देशक है । अतएव, इसे अपनी ही ऐकान्तिक तृप्ति का अनुसरण नहीं करना चाहिये, न उस तृप्ति को परम ज्ञान की उपलब्धि का चिह्न ही समझ लेना चाहिये । यह यहां कुछ हद तक हृदय, प्राण तथा अन्य अंगों के मार्गदर्शक के रूप में ही अस्तित्व रखता है, पर यह उनका स्थान नहीं ले सकता; इसे केवल यह नहीं देखना होगा कि इसकी अपनी चरम तृप्ति क्या है, वरन् यह भी कि क्या कोई ऐसी चरम तृप्ति नहीं है जो इन अन्य अंगों के लिये भी अभिप्रेत हो । अमूर्त विचार का एकांगी मार्ग तभी उचित सिद्ध होगा यदि विश्व में परम
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संकल्प का उद्देश्य केवल अज्ञान की क्रिया में एक ऐसा अवरोहण करना ही हो जिसे मन एक अन्धताजनक यन्त्र एवं जेलर के रूप में मिथ्या विचार और सम्वेदन के द्वारा साधित करता है, साथ ही यदि उसका उद्देश्य ज्ञान की निश्चलता में एक ऐसा आरोहण करना भी हों जिसे मन उसी प्रकार यथार्थ विचार के द्वारा, पर उसे एक आलोकप्रद यन्त्र एवं उद्धारक बनाकर, सम्पन्न करता है । परन्तु सम्भावनाएं ये हैं कि जगत् में एक ऐसा उद्देश्य भी है जो इससे कम निरर्थक एवं कम निरुद्देश्य है, निरपेक्ष की प्राप्ति के लिये एक ऐसा आवेग भी है जो इससे कम नीरस एवं कम अमूर्त है, जगत् का एक ऐसा सत्य भी है जो अधिक विशाल एवं जटिल है, अनन्त की एक ऐसी ऊंचाई भी है जो अधिक समृद्ध रूप से अनन्त है । निःसन्देह अमूर्त तर्क, पुराने दर्शनों की भांति, सदैव एक अनन्त शून्य 'नास्ति' या एक उतनी ही रिक्त 'अनन्त' अस्ति' पर पहुंचता है; क्योंकि अमूर्त होता हुआ यह एक पूर्ण अमूर्तता की ओर अग्रसर होता है और यही दो ऐसे एकमात्र अमूर्त प्रत्यय हैं जो पूर्णतया निरपेक्ष हैं । परन्तु एक मूर्त, सदा गहरी होती जानेवाली प्रज्ञा जो संकीर्ण और अक्षम मानव-मन के धृष्ट अमूर्त तर्क की नहीं, बल्कि नि:सीम अनुभव के अधिकाधिक ऐश्वर्य की सेवा करे, दिव्य अतिमानवीय ज्ञान की कुंजी हों सकती है । हृदय, संकल्प-शक्ति, प्राण, यहां तक कि शरीर भी, विचार के समान ही, दिव्य चिन्मय-सत्ता के रूप हैं तथा अत्यन्त अर्थपूर्ण संकेत हैं । इनमें भी ऐसी शक्तियां हैं जिनके द्वारा अन्तरात्मा अपनी पूर्ण आत्मचेतनता की ओर लौट सकती है अथवा इनके पास भी ऐसे साधन हैं जिनके द्वारा वह इसका रसास्वादन कर सकती है । सुतरां, परम संकल्प का उद्देश्य एक ऐसी परिणति को साधित करना हो सकता है जिसमें सम्पूर्ण सत्ता का अपनी दिव्य तृप्ति को उपलब्ध करना अभिमत हो तथा जिसमें ऊंचाइयां गहराइयों को आलोकित करें और जड़ निश्चेतन भी परम अतिचेतना के स्पर्श से अपने-आपको भगवान् के रूप में अनुभव करे ।
परम्परागत ज्ञानमार्ग विवर्जन की प्रक्रिया के द्वारा आगे बढ्ता है और निश्चल आत्मा या परम शून्य या अव्यक्त निरपेक्ष में निमज्जित होने के लिये शरीर, प्राण, इन्द्रियों, हृदय तथा विचारतक का क्रमश: परित्याग कर देता है । पूर्णज्ञान का मार्ग यह मानता है कि सर्वांगीण आत्म-परिपूर्णता उपलब्ध करना ही हमारे लिये नियत उद्देश्य है और एकमात्र वर्जनीय वस्तु हमारी अपनी अचेतनता, हमारा अज्ञान और उसके परिणाम हैं । जो सत्ता अहं का रूप धारण किये है उसके मिथ्यात्व का त्याग कर दो; तब हमारी सच्ची सत्ता हमारे अन्दर प्रकट हों सकती है । जो प्राण निरी प्राणिक लालसा का तथा हमारे दैहिक जीवन के यान्त्रिक चक्र का रूप धारण किये हूए है उसके मिथ्यात्व को त्याग दो; और तब परमेश्वर की शक्ति में और अनन्त के हर्ष में अवस्थित हमारा सच्चा प्राण प्रकट हो उठेगा । स्थूल दृश्य- प्रपंच और द्वंद्वात्मक सम्वेदनों के वशीभूत इन्द्रियों के मिथ्यात्व का त्याग कर दो; हमारे अन्दर
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एक महत्तर इन्द्रिय है जो इनके द्वारा पदार्थों में विद्यमान भगवान् की ओर खुल सकती है तथा दिव्य रूप में उसे प्रत्युत्तर दे सकती है । अपनी कलुषित वासनाओं और कामनाओं तथा द्वंद्वात्मक भावों से युक्त हृदय के मिथ्यात्व को त्याग दो; हमारे अन्दर एक गभीरतर हृदय खुल सकता है जो प्राणिमात्र के लिये दिव्य प्रेम से तथा अनन्त के प्रत्युत्तरों के लिये असीम अभिलाषा और उत्कंठा से युक्त है । उस विचार के मिथ्यात्व का परित्याग कर दो जो अपनी अपूर्ण मानसिक रचना, अपनी अहंकारपूर्ण स्थापनाओं और निषेधों तथा अपनी सीमित और ऐकान्तिक एकाग्रताओं से युक्त है; ज्ञान की एक महत्तर शक्ति इसके पीछे अवस्थित है जो ईश्वर, आत्मा, प्रकृति और जगत् के वास्तविक सत्य की ओर खुल सकती है । लक्ष्य हैं सर्वांगीण आत्म-चरितार्थता, -अर्थात् हृदय के अनुभवों के लिये, इसकी प्रेम, हर्ष, भक्ति और पूजासम्बन्धी सहज-प्रवृत्ति के लिये एक चरम लक्ष्य एवं परिणति; इन्द्रियों के लिये, वस्तुओं के रूपों में इनकी दिव्य सौन्दर्य, शिव और आनन्द की खोज के लिये एक चरम लक्ष्य एवं परिणति; प्राण के लिये, इसकी कर्म करने तथा दिव्य शक्ति, प्रभुत्व और पूर्णता प्राप्त करने की प्रवृत्ति के लिये एक चरम लक्ष्य एवं परिणति; विचार के लिये, इसकी सत्य, प्रकाश, दिव्य प्रज्ञा और ज्ञान की भूख के लिये इसकी सीमाओं से परे एक चरम लक्ष्य एवं परिणति । हमारी प्रकृति के इन अंगों का लक्ष्य कोई ऐसी चीज नहीं है जो इनसे सर्वथा भिन्न हो तथा जिससे इन सबको बहिष्कृत कर दिया जाता हो, बल्कि एक ऐसी परम सद्वस्तु है जिसमें ये अपने-आपको अतिक्रम कर जाते हैं और साथ ही अपने चरम एवं अनन्त रूपों को तथा मानातीत सामंजस्यों को भी प्राप्त कर लेते हैं ।
परम्परागत ज्ञान मार्ग के पीछे एक प्रभुत्वपूर्ण आध्यात्मिक अनुभव अवस्थित है जो इसकी परित्याग और प्रत्याहाररूपी विचार-प्रक्रिया को उचित सिद्ध करता है । यह अनुभव गभीर, तीव्र और निश्चयोत्पादक है और जिन लोगों ने मन के सक्रिय घेरे को कुछ हद तक पार करके क्षितिजरहित आन्तरिक आकाश में प्रवेश कर लिया है उन सबको यह समान रूप से प्राप्त होता है, यह मुक्ति का एक महान् अनुभव है, यह हमारे अन्दर विद्यमान किसी ऐसी वस्तु के बारे में हमारी चेतनता है जो जगत् तथा इसके समस्त रूपों, आकर्षणों, लक्ष्यों, प्रसंगों और घटनाओं के पीछे तथा बाहर अवस्थित है, शान्त, निर्लिप्त, उदासीन, असीम, निश्चल तथा मुक्त है, यह हमारे ऊपर अवस्थित किसी ऐसी, अवर्णनीय एवं अगम वस्तु की ओर हमारी ऊर्ध्वदृष्टि है जिसमें हम अपने व्यक्तित्व के विलोप के द्वारा प्रवेश कर सकते हैं, यह सर्वव्यापक सनातन साक्षी पुरुष की उपस्थिति है, उस्र अनन्त या कालातीत सत्ता का बोध है जो हमारी सम्पूर्ण सत्ता के महामहिम निषेध के स्तर से हमें उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देखती है और जो अकेली ही एकमात्र सद्वस्तु है । यह अनुभव अपनी सत्ता के परे स्थिरतापूर्वक दृष्टिपात करनेवाले आध्यात्मीकृत मन की उच्चतम
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ऊर्ध्वगति है । जो इस मुक्ति में से नहीं गुजरा वह मन और इसके पाशों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सकता, परन्तु कोई भी सदा के लिये इस अनुभव पर रुके रहने के लिये बाध्य नहीं । यद्यपि यह महान् है, फिर भी यह मन का अपनेसे तथा अपनी कल्पना में आ सकनेवाली सभी चीजों से परे की किसी वस्तु का एक अत्यन्त प्रबल अनुभवमात्र हैं । यह परमोच्च निषेधात्मक अनुभव है, परन्तु इसके परे एक अनन्त चेतना का समस्त विपुल प्रकाश है, एक असीम ज्ञान, एक भावात्मक चरम-परम उपस्थिति है ।
आध्यात्मिक ज्ञान का विषय है परब्रह्म, भगवान् अनन्त एवं निरपेक्ष सत्ता । यह परब्रह्म हमारी वैयक्तिक सत्ता तथा इस विश्व के साथ सम्बन्ध रखता है और यह जीव तथा जगत् दोनों से परे भी है । विश्व और व्यक्ति वही चीज नहीं हैं जो कि वे हमें प्रतीत होते हैं, क्योंकि हमारा मन और इन्द्रियां हमें इनका जो विवरण देती हैं वह एक मिथ्या विवरण होता है, एक अपूर्ण रचना तथा एक क्षीण एवं भ्रान्तिपूर्ण प्रतिमूर्त्ति होता है, जबतक कि वे उच्चतर अतिमानसिक एवं अतीन्द्रिय ज्ञान की शक्ति से प्रकाशित नहीं हो जातीं । किन्तु फिर भी विश्व और व्यक्ति हमें जो कुछ प्रतीत होते हैं वह उनके वास्तविक स्वरूप की ही एक प्रतिमूर्त्ति है, --एक ऐसी प्रतिमूर्त्ति जो अपने से परे, अपने पीछे अवस्थित वास्तविक सत्य की ओर संकेत करती है । हमारा मन और हमारी इन्द्रियां हमारे सम्मुख वस्तुओं के जो मूल्य प्रस्तुत करती हैं उनके संशोधन के द्वारा ही सत्य ज्ञान उदित होता है, और सर्वप्रथम तो यह उस उच्चतर बुद्धि की क्रिया के द्वारा प्राप्त होता है जो अज्ञानयुक्त इन्द्रिय- मानस तथा सीमित स्थूल बुद्धि के निर्णयों को यथासम्भव आलोकित तथा संशोधित करती है; समस्त मानवीय ज्ञान-विज्ञान की पद्धति यही है । परन्तु इसके परे एक ऐसा ज्ञान एवं सत्य-चेतना है जो हमारी बुद्धि को अतिक्रम कर जाती है और हमें उस सत्य प्रकाश के भीतर ले आती है जिसकी यह एक विचलित रश्मि है । वहां शुद्ध तर्कबुद्धि की अमूर्त परिभाषाएं और मन की रचनाएं विलुप्त हो जाती हैं अथवा अन्तरात्मा की प्रत्यक्ष दृष्टि में एवं आध्यात्मिक अनुभव के अति महत् सत्य में परिणत हो जाती हैं । यह ज्ञान निरपेक्ष सनातन की ओर मुड़ कर जीव और जगत् को दृष्टि से ओझल कर सकता है; परन्तु यह उस सनातन से इह-सत्ता पर दृष्टिपात भी कर सकता है । जब हम ऐसा करते हैं तो हमें पता चलता है कि मन और ईन्द्रियों का अज्ञान तथा मानवजीवन के सब वृथा प्रतीत होनेवाले व्यापार चेतन सत्ता के निरर्थक विक्षेप नहीं थे, न ही कोई क्षुद्र भ्रान्ति थे । यहां वे इस रूप में आयोजित किये गये थे कि वे अनन्त से उद्भूत होनेवाले आत्मा की स्व-अभिव्यक्ति के लिये एक स्थूल क्षेत्र का काम करें, इस विश्व की परिभाषाओं में उसके आत्म-विकास एवं आत्मोपलब्धि के लिये भौतिक आधार बन सकें । यह सच है कि अपने-आपमें उनका तथा यहां की सभी चीजों का कुछ भी अर्थ नहीं,
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और उनके लिये पृथक् अर्थों की परिकल्पना करना माया में निवास करना है; परन्तु परम सत् में उनका एक परम अर्थ है, निरपेक्ष ब्रह्म में उनकी एक निरपेक्ष शक्ति है और वही उनके लिये उनके वर्तमान सापेक्ष मूल्य नियत करती है तथा उस सत्य के साथ उनका सम्बन्ध निर्दिष्ट करती है । यह एक ऐसा अनुभव है जो सब अनुभवों को एक कर देता है और जो गंभीर-से-गंभीर सर्वांगीण तथा अत्यन्त अन्तरंग आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञान का आधार है ।
व्यक्ति के साथ सम्बन्ध की दृष्टि से परम सत् हमारी अपनी ही सच्ची और सर्वोच्च आत्मा है, यह वह सत्ता है जो कि अन्ततः हम अपने सार-रूप में हैं तथा अपनी अभिव्यक्त प्रकृति में जिसके हम अंग हैं । हमारे अन्दर अवस्थित सच्चे परम आत्मा को प्राप्त करने में प्रवृत्त आध्यात्मिक ज्ञान को परम्परागत ज्ञानमार्ग की भांति समस्त भ्रामक प्रतीतियों का परित्याग करना होगा । इसे यह जान लेना होगा कि शरीर हमारी आत्मा नहीं है, हमारी सत्ता का आधार नहीं है; यह अनन्त का एक इन्द्रियग्राह्य रूप है । यह अनुभव कि जड़-प्रकृति जगत् का एकमात्र आधार है और भौतिक मस्तिष्क, स्नायु कोष्ठक और अणु हमारे अन्दर की सभी चीजों का एकमात्र सत्य हैं, जड़वाद का एक भारी-भरकम एवं अक्षम आधार है, पर वास्तव में यह अनुभव एक भ्रम है, एक अधूरी दृष्टि है जिसे पूरी दृष्टि समझ लिया गया है, वस्तुओं की अन्धकारमय भित्ति या छाया है जिसे भ्रात्तिवश प्रकाशमान सारतत्त्व मान लिया गया है, शून्य की प्रभावशाली आकृति है जिसे पूर्ण इकाई समझ लिया गया है । जड़वादीय विचार एक रचना को रचनाकारी शक्ति समझने की भूल करता है तथा अभिव्यक्ति के साधन को वह सत्ता समझ लेता है जो व्यक्त की जाती तथा व्यक्त करती है । जड़तत्त्व और हमारा भौतिक मस्तिष्क, स्नायुजाल तथा शरीर उस प्राणिक शक्ति की एक क्रिया का क्षेत्र और आधार हैं जो आत्मा को उसकी कृतियों के रूप के साथ सम्बद्ध करने में सहायक होती है और उन्हें उसकी सीधी क्रियाशक्ति के द्वारा धारण करती है । जड़तत्त्व की गतियां एक बाह्य संकेत हैं जिसके द्वारा आत्मा अनन्त के कुछ सत्यों के विषय में अपने बोधों को निरूपित करती है और उन्हें उपादान-तत्त्व की अवस्थाओं में प्रभावकारी बनाती है । ये चीजें एक भाषा एवं संकेतमाला हैं, एक चित्रलिपि एवं प्रतीक-पद्धति हैं, अपने-आपमें ये उन चीजों का जिन्हें ये सूचित करती हैं, गभीरतम एवं सत्यतम आशय नहीं हैं ।
इसी प्रकार प्राणतत्त्व भी, अर्थात् वह प्राणशक्ति एवं ऊर्जा भी जो मस्तिष्क, स्नायुपुंज और शरीर में क्रीड़ा करती है, हमारी आत्मा नहीं है; वह अनन्त की एक शक्ति तो है, पर समग्र शक्ति नहीं । यह अनुभव कि 'एक प्राणशक्ति है जो जड़तत्त्व को सब वस्तुओं के आधार, उद्गम एवं सच्चे कुलयोग के रूप में अपना करण बनाती है', प्राणात्मवाद का एक दोलायमान अस्थिर आधार है । पर यह अनुभव एक भ्रम है, एक अधूरी दृष्टि हैं जिसे पूरी दृष्टि समझ लिया गया है, पास
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के किनारे पर उठनेवाली एक ज्वार है जिसे गलती से समूर्ण समुद्र और उसकी जलराशि समझ लिया गया है । प्राणात्मवादी विचार एक शक्तिशाली पर बाह्य वस्तु को सारतत्त्व समझ लेता है । प्राणशक्ति तो अपनेसे परे की एक चेतना का क्रियाशील रूप है । वह चेतना अनुभूत होती तथा कार्य करती है, पर वह बुद्धि में हमारे लिये प्रामाणिक रूप तबतक नहीं प्राप्त करती जबतक हम 'मन' --रूपी उच्चतर स्तरतक, अपनी वर्तमान सर्वोच्च अवस्थातक नहीं पहुंच जाते । 'मन' यहां प्रत्यक्षत: प्राण की ही एक रचना प्रतीत होता है, पर वास्तव में यह स्वयं प्राण का तथा उसके पीछे अवस्थित वस्तु का एक दूरतर आशय है, अन्तिम नहीं, और साथ ही उसके रहस्य का एक अधिक सचेतन रूपायण है; 'मन' प्राण की नहीं, वरन् उस वस्तु की अभिव्यक्ति है जिसकी स्वयं प्राण भी एक कम प्रकाशमय अभिव्यक्ति है ।
परन्तु 'मन' भी, अर्थात् हमारी मानसिक सत्ता, हमारा चिन्तनशील एवं बोधग्राही भाग भी हमारा आत्मा नहीं है, 'तत्' नहीं है, अन्त या आदि नहीं है; यह अनन्त से फेंका गया एक अर्द्ध प्रकाश है । यह अनुभव कि मन रूपों और पदार्थों का स्रष्टा है और ये रूप तथा पदार्थ केवल मन में ही अस्तित्व रखते हैं, बाह्यशून्यवाद ( Idealism) का विरल एवं सूक्ष्म आधार है, पर यह भी एक भ्रम है, एक अधूरी दृष्टि है जिसे पूरी दृष्टि समझ लिया गया है, एक मन्द और विचलित प्रकाश है जिसकी सूर्य के जाज्वल्यमान शरीर एवं उसके तेज के रूप में एक आदर्श कल्पना कर ली गयी है । यह आदर्शीकृत दृष्टि भी सत्ता के सारतत्त्व तक नहीं पहुंचती, उसका स्पर्श तक नहीं करती, यह तो केवल प्रकृति की एक निम्न अवस्था को ही छूती है । 'मन' एक चिन्मय सत्ता की अस्पष्ट बाह्य उपच्छाया है; वह चिन्मय सत्ता मन के द्वारा सीमित नहीं, बल्कि इससे अतीत है । परम्परागत ज्ञानमार्ग की पद्धति इन सभी चीजों का परित्याग करके उस शुद्ध चिन्मय सत्ता की परिकल्पना एवं उपलब्धि पर पहुंचती है जो स्वतः -सचेतन, स्वतः -आनन्दपूर्ण है और मन, प्राण तथा शरीर के द्वारा सीमित नहीं है; और इसके चरम भावात्मक अनुभव के लिये वह आत्मा है, अर्थात् हमारी सत्ता का मूल और तात्त्विक स्वरूप है । यहां, अन्त में, कोई ऐसी वस्तु प्राप्त होती है जो केन्द्रीय रूप से सत्य है, परन्तु इसतक पहुंचने की उतावली में यह ज्ञान कल्पना करता है कि चिन्तनात्मक मन तथा 'परम', 'बुद्धे: परतस्तु स: ' के बीच किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है और समाधि में अपनी आंखें मूंदकर, आत्मा के इन महान् तेजोमय साम्राज्यों को देखे बिना ही, उन सब स्तरों में से जो सचमुच ही रास्ते में पड़ते हैं, भाग जाने का यत्न करता हैं । शायद यह अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता हैं, पर पहुंचता है केवल अनन्त में सुषुप्ति लाभ करने के लिये ही । अथवा, यदि यह जागरित रहता भी है, तो उस परम के सर्वोच्च अनुभव में ही जिसमें आत्मोच्छेदक 'मन' प्रवेश कर सकता है न कि परात्पर में । 'मन' मानसभावापन्न आध्यात्मिक सूक्ष्मता में केवल आत्मा का, मन में प्रतिबिम्बित
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सच्चिदानन्द का ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है । परन्तु सर्वोच्च सत्य एवं पूर्ण आत्म-ज्ञान निरपेक्ष ब्रह्म में इस प्रकार की अंधी छलांग लगाकर नहीं, वरन् मन के परे धैर्यपूर्वक उस सत्य-चेतना में पहुंचकर प्राप्त किया जा सकता है जहां अनन्त को उसके सम्पूर्ण, अन्तहीन ऐश्वर्यों सहित जाना और अनुभव किया जा सकता है, देखा तथा उपलब्ध किया जा सकता है । और, वहां हमें पता चलता है कि यह आत्मा, जो हमारी अपनी सत्ता है केवल स्थितिशील सूक्ष्म एवं शून्य आत्मा नहीं है, बल्कि व्यक्ति और विश्व में तथा विश्व के परे विद्यमान महान् गतिशील आत्मा है । उस आत्मा एवं आत्मतत्त्व को मन की बनायी अमूर्त व्याप्तियों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता; ऋषियों और रहस्यदर्शियों के समस्त अन्तःप्रेरित वर्णन उसके अन्दर निहित अर्थों और ऐश्वर्यों को शेष नहीं कर सकते ।
विश्व के साथ सम्बन्ध की दृष्टि से यह परम सत् ब्रह्म है, वह एकमेव सद्वस्तु है जो विश्व के सभी विचारों, शक्तियों और आकारों का आध्यात्मिक, भौतिक एवं सचेतन उपादान ही नहीं है, बल्कि उनका उद्गम, आश्रय और स्वामी भी है, अर्थात् विश्वगत और विश्वातीत आत्मा है । वे सब अन्तिम परिभाषाएं भी जिनमें हम इस विश्व का विश्लेषण कर सकते हैं, अर्थात् शक्ति और जड़तत्त्व, नाम और रूप, पुरुष और प्रकृति, बिल्कुल वही नहीं हैं जो कुछ कि विश्व अपने-आपमें या अपनी प्रकृति में वस्तुत: है । जिस प्रकार, हम जो कुछ हैं वह सब मन-प्राण-शरीर से अपरिच्छिन्न परम आत्मा की क्रीड़ा है, उसका एक रूप हैं, उसकी मानसिक, आन्तरात्मिक, प्राणिक और भौतिक अभिव्यक्ति है, उसी प्रकार विश्व भी उस परम सत्ता की लीला एवं रूप है; उसकी विराट् जीवगत और प्रकृतिगत अभिव्यक्ति है जो सत्ता की शक्ति और जड़तत्त्व से परिच्छिन्न नहीं है, विचार, नाम और रूप से सीमित नहीं है तथा पुरुष और प्रकृति के मौलिक भेद से भी आबद्ध नहीं है । हमारी परम आत्मा और वह परम सत्ता जिसने इस विश्व का रूप धारण किया है, एक ही आत्मतत्त्व हैं, एक ही आत्मा और एक ही सत्ता हैं । व्यक्ति तो अपनी प्रकृति में वैश्व पुरुष की एक अभिव्यक्ति है और अपनी आत्मा में परात्पर सत्ता की एक अंश विभूति है । क्योंकि, यदि वह अपनी आत्मा को उपलब्ध कर ले तो वह यह भी जान जाता है कि उसकी अपनी सच्ची आत्मा यह प्राकृत व्यक्तित्व एवं यह निर्मित व्यष्टिभाव नहीं है, बल्कि दूसरों के साथ तथा प्रकृति के साथ अपने सम्बन्धों में यह एक वैश्व सत्ता है तथा अपने ऊर्ध्वमुख स्वरूप में परम विश्वातीत आत्मा का एक अंश या जीवन्त अग्रभाग है ।
यह परम सत्ता व्यक्ति या विश्व से परिच्छिन्न नहीं है । अतएव, आध्यात्मिक ज्ञान परम आत्मा की इन दो शक्तियों को अतिक्रम करके, यहांतक कि इन्हें त्यागकर एक ऐसी वस्तु की परिकल्पना पर पहुंच सकता है जो पूर्णतया परात्पर
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है, जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता, न जिसे मन द्वारा जाना ही जा सकता है, जो शुद्ध निरपेक्ष ब्रह्म है । परम्परागत ज्ञानमार्ग व्यक्ति और विश्व का परित्याग कर देता है । जिस 'निरपेक्ष' की वह खोज करता है वह निराकार, अनिर्देश्य, असंग है, वह न यह है न वह, नेति-नेति । और, फिर भी हम उसके बारे में कह सकते हैं कि वह एकमेव है, वह अनन्त है, वह अनिर्वचनीय आनन्द-चित्-सत् है । यद्यपि वह मन के द्वारा ज्ञेय नहीं है तथापि अपनी वैयक्तिक सत्ता के द्वारा तथा विश्व के नाम-रूपों के द्वारा हम परम आत्मा, अर्थात् ब्रह्म की उपलब्धि के निकट पहुंच सकते हैं, और उस परमात्मा की उपलब्धि के द्वारा हम इस पूर्ण-निरपेक्ष की किसी प्रकार की उपलब्धि तक भी पहुंच जाते हैं, इस निरपेक्ष की जिसका कि हमारा सच्चा आत्मा ही हमारी चेतना में विद्यमान वास्तविक स्वरूप है । यदि मानव-मन को अपने सम्मुख परात्पर और अपरिच्छिन्न निरपेक्ष की कोई परिकल्पना निर्मित करनी ही हो तो इसे विवश होकर इन्हीं उपायों का प्रयोग करना पड़ेगा । अपनी निजी परिभाषाओं और अपने सीमित अनुभव से छुटकारा पाने के लिये निषेध की प्रणाली इसके लिये अपरिहार्य ही है; इसे बाध्य होकर अनिश्चित 'अपरिच्छिन्न' में से 'अनन्त' की ओर चले जाना पड़ता है । क्योंकि यह उन धारणाओं और प्रतिरूपों के बंद कारागृह में निवास करता है जो इसकी क्रिया के लिये तो आवश्यक हैं, पर जड़तत्त्व या प्राण का अथवा मन या आत्मा का स्वयंस्थित सत्य नहीं हैं । परन्तु यदि हम एक बार मन के सीमान्त के क्षीण आलोक को पार कर अतिमानसिक ज्ञान के बृहत् स्तर में पहुंच पायें तो ये उपाय अनिवार्य नहीं रह जाते । अतिमानस को परम अनन्त सत्ता का एक बिल्कुल ही और प्रकार का, भावात्मक, प्रत्यक्ष और जीवन्त अनुभव प्राप्त है । निरपेक्ष ब्रह्म व्यक्तित्व और निर्व्यक्तित्व से परे है और फिर भी वह निर्व्यक्तिक तथा परम व्यक्ति और सभी व्यक्ति--दोनों है । निरपेक्ष ब्रह्म एकत्व और बहुत्व के भेद से परे हैi, और फिर भी वह 'एक' है तथा समस्त जगतों में असंख्य 'बहु' भीं है । वह सभी गुणकृत सीमाओं से परे है और फिर भी निर्गुण शून्य के द्वारा सीमित नहीं है, बल्कि अशेष, अनन्त गुण-गण से सम्पन्न भी है । वह व्यष्टिगत जीव और सभी जीव है और उनसे अधिक भी है वह निराकार ब्रह्म भी है और विश्व भी । वह विश्वगत और विश्वातीत आत्मा है, परम प्रभु परम आत्मा है, परम पुरुष और पराशक्ति है, नित्य अजन्मा है जो अनन्त रूप से जन्म लेता है, अनत्त हैं जो असंख्य रूप से सांत है, बहुमय 'एक' है, जटिलतामय 'सरल' है, अनेकपक्षीय 'एकमेव सत्ता' है, अनिर्वचनीय नीरवता का शब्द है, निर्व्यक्तिक सर्वव्यापी व्यक्ति है, परम रहस्य है जो उच्चतम चेतना में अपनी आत्मा के प्रति प्रकाशमान है, पर अपने निरतिशय प्रकाश में हीनतर चेतना के प्रति आवृत है तथा उसके द्वारा सदा के लिये अभेद्य है । परिमाणात्मक मन के लिये ये चीजें
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ऐसे परस्पर-विरोधी तत्त्व हैं जिनमें समन्वय नहीं किया जा सकता, पर अतिमानसिक सत्य-चेतना की अटल दृष्टि और अनुभूति के लिये ये इतने सरल और अनिवार्य रूप में एक-दूसरे की आभ्यन्तरिक प्रकृति से युक्त हैं कि इन्हें विरोधी वस्तुएं समझना भी एक अकल्पनीय अन्याय है । परिमापक और पृथक्कारक बुद्धि की रची हुई दीवारें उस चेतना के सामने विलुप्त हो जाती हैं और सत्य अपने सरल-सुन्दर रूप में प्रकट होकर सब वस्तुओं को अपने सामंजस्य, एकत्व और प्रकाश की परिभाषाओं में परिणत कर देता है । परिमाण और विभेद रहते तो हैं, पर स्व- विस्मृतिपूर्ण आत्मा के लिये एक पृथक्कारक कारागृह के रूप में नहीं, बल्कि उपयोगयोग्य आकृतियों के रूप में रहते हैं ।
परात्पर निरपेक्ष ब्रह्म से सचेतन होना और साथ ही वैयक्तिक तथा वैश्व सत्ता पर पड़नेवाले उसके प्रभाव से सचेतन होना ही चरम एवं सनातन ज्ञान है । हमारे मन नाना पद्धतियों से इस ज्ञान का विवेचन कर सकते हैं, इसके आधार पर विरोधी दर्शनों की रचना कर सकते हैं, इसे सीमित एवं संशोधित कर सकते हैं, इसके किन्हीं पहलुओं पर बहुत ही अधिक बल दे सकते हैं और दूसरों पर बहुत कम, इससे शुद्ध या अशुद्ध निष्कर्ष निकाल सकते हैं; परन्तु हमारे बौद्धिक विभेदों और अपूर्ण निरूपणों से इस अन्तिम तथ्य में कोई फर्क नहीं पड़ता कि यदि हम विचार और अनुभव को इनके अन्तिम छोर तक ले जायें तो जिस ज्ञान में ये परिसमाप्त होंगे वह यही है । अध्यात्म-ज्ञान के योग का लक्ष्य इस सनातन सद्वस्तु, इस आत्मा, इस ब्रह्म किंवा इस परात्पर के सिवा और कोई नहीं हो सकता जो सबके ऊपर और अन्दर अवस्थित है तथा जो व्यक्ति में अभिव्यक्त होता दुआ भी छुपा हुआ है, विश्व में प्रकट होकर भी प्रच्छन्न है ।
ज्ञानमार्ग की सर्वोच्च परिणति का आवश्यक रूप में यह अर्थ नहीं कि अस्तित्व समाप्त हो जायगा । कारण, जिस परम सत् के सदृश हम अपने-आपको ढालते हैं, जिस निरपेक्ष और परात्पर ब्रह्म में हम प्रवेश करते हैं वह सदा ही उस पूर्ण और चरम-परम चेतना से युक्त रहता है जिसकी हम खोज कर रहे हैं और फिर भी उसके द्वारा वह जगत् में अपनी लीला को आश्रय देता है । हम यह मानने के लिये भी बाध्य नहीं हैं कि हमारा जागतिक अस्तित्व इसलिये समाप्त हो जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति से इसका उद्देश्य या परिणति पूर्णतया चरितार्थ हो जाती है और इसलिये उसके बाद हमारे लिये यहां और कुछ (पाने को) नहीं रह जाता । क्योंकि, आरम्भ में हमारी प्राप्ति केवल यही होती है कि व्यक्ति अपनी चेतन सत्ता के सारतत्त्व में आत्मा को सनातन रूप से उपलब्ध कर लेता है और इसके संग मुक्ति, अपरिमेय नीरवता और शान्ति भी अधिगत हो जाती हैं; उस आधार पर ब्रह्म की अनन्तमुखी आत्म-चरितार्थता साधित करने, व्यक्ति में तथा उसकी परिस्थिति के द्वारा एवं उसके दृष्टान्त और कार्य-व्यवहार के द्वारा दूसरों में एवं समूचे विश्व में ब्रह्म की क्रियाशील
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दिव्य अभिव्यक्ति को साधित करने का कार्य फिर भी शेष रहेगा, नीरवता इस कार्य को निराकृत नहीं कर देती और यह मोक्ष एवं स्वातंत्र्य के साथ भी एकीभूत है, --यह वह कार्य है जिसे करने के लिये महान् व्यक्ति इस जगत् में जीवन धारण किया करते हैं । जबतक हम अहंमय चेतना में, मन के मद्धिम प्रकाश में, बन्धन में निवास करते हैं तबतक हमारी क्रियाशील आत्म-चरितार्थता साधित नहीं हो सकती । हमारी वर्तमान सीमित चेतना तो केवल तैयारी का क्षेत्र हो सकती है, यह प्रर्ण रूप में कुछ भी साधित नहीं कर सकती; क्योंकि यह जो कुछ भी प्रकट करती है वह सब अहं-अधिष्ठित अज्ञान और भ्रान्ति से पूर्णतया दूषित होता है । अभिव्यक्त जगत् में ब्रह्म की सच्ची और दिव्य आत्म-चरितार्थता ब्राह्मी चेतना के आधार पर ही साधित हो सकती है और अतएव यह तभी सम्भव हो सकती है यदि मुक्त जीव, अर्थात् जीवनमुक्त पुरुष जीवन को अपनाये ।
यह है पूर्ण ज्ञान, क्योंकि हम जानते हैं कि सब जगह और सभी अवस्थाओं में देखनेवाली आंख के लिये सब कुछ वह 'एक' ही है, दिव्य अनुभव के प्रति सब कुछ भगवान् की एक ही समष्टि है । केवल हमारा मन ही अपने विचार और अभीप्सा की क्षणिक सुविधा के लिये एकत्व की एक तथा दूसरे पक्ष के बीच कठोर विभाजन की कृत्रिम रेखा खींचने एवं उनमें सतत असंगति की कल्पना करने का यत्न करता है । मुक्त ज्ञानी इस जगत् में बद्ध जीव और अज्ञानी मन की अपेक्षा अधिक ही निवास करता तथा कर्म करता है, कम नहीं । वह सभी कर्म करता है, सर्वकृत्, पर हां, करता है सच्चे ज्ञान और महत्तर चेतन शक्ति के साथ । और, ऐसा करने से वह परम एकत्व को गंवा नहीं देता, न परम चेतना और सर्वोच्च ज्ञान से नीचे ही गिरता है । क्योंकि, परम सत्, चाहे इस समय वह हमसे कितना ही छुपा हुआ क्यों न हो, यहां इस जगत् में भी उससे कम विद्यमान नहीं है जितना कि वह अत्यन्त पूर्ण और अनिर्वचनीय आत्म-लय में एवं अत्यन्त असहिष्णु निर्वाण में हो सकता है ।
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