Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ६
ज्ञानयोग की साधन-पद्धतियों का समन्वय
पिछले अध्याय में हम ने त्याग का निरूपण अत्यन्त व्यापक दृष्टि से किया है, जैसे कि उससे पहले हमने एकाग्रता के सभी सम्भव रूपों की चर्चा की थी अतएव, जो कुछ कहा गया है वह ज्ञानमार्ग की भांति कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग पर भी समान रूप से लता होता है, क्योंकि तीनों ही मार्गों में एकाग्रता और त्याग की आवश्यकता होती है, हां, जिस रीति और भावना से वहां उनका प्रयोग किया जाता है वें भले ही भिन्न-भिन्न हों । परन्तु अब हमें, अधिक विशिष्ट रूप में, ज्ञानमार्ग के असली सोपानों का वर्णन करना होगा, इस मार्ग पर बढ़ने के लिये हमें एकाग्रता और त्याग की दोहरी शक्ति की सहायता लेनी होगी । क्रियात्मक रूप में, इस मार्ग का मतलब है-सत्ता की उस महान् सीढी पर फिर से ऊपर की ओर चढ़ना जिसपर से अन्तरात्मा स्थूल भौतिक जीवन में उतसई है ।
ज्ञान का प्रधान लक्ष्य है आत्मा को, अपनी सच्ची आत्म-सत्ता को फिर से प्राप्त करना, और यह लक्ष्य इस सिद्धान्त को मानकर चलता है कि हमारी सत्ता की वर्तमान अवस्था हमारी सच्ची सत्ता नहीं है । इसमें सन्देह नहीं कि हमने उन तीखे समाधानों को त्याग दिया है जो वि
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देखते हैं । वह दृष्टिबिंदु एक क्षणिक मिथ्या-कल्पना पर आधारित है जिसे आत्मा और प्रकृति ने विकासोन्मुख अहं की सुविधा के लिये अपने बीच में प्रतिष्ठित किया है । और, यह मिथ्यापन ही उस व्यापक विकृति, अव्यवस्था और दुःख-कष्ट का मूल है जो हमारे आभ्यन्तरिक जीवन को और अपनी परिस्थिति के साथ हमारे सम्बन्ध को पग-पग पर घेरे रहते हैं । हमारा वैयक्तिक और सामाजिक जीवन, अपने साथ और अपने साथियों के साथ हमारा व्यवहार मिथ्यात्व पर आधारित है, इसलिये इनके स्वीकृत सिद्धान्त और पद्धतियां भी मिथ्या हैं, यद्यपि इस सब भ्रान्ति में से एक विकसनशील सत्य अपने को प्रकट करने के लिये अनवरत यत्न करता रहता है । अतएव, मनुष्य के लिये 'ज्ञान' परम महत्त्वपूर्ण वस्तु है, वह ज्ञान नहीं जिसे जीवन का व्यावहारिक ज्ञान कहते हैं, बल्कि आत्मा और प्रकृति का गहरे-से- गहरा ज्ञान१। इस ज्ञान के ऊपर ही जीवन के सच्चे व्यवहार की नींव रखी जा सकती है ।
उक्त भ्रान्ति का कारण यह है कि हम अपने शरीर आदि के साथ मिथ्या तदात्मता स्थापित कर लेते हैं । प्रकृति ने अपनी स्थूल-भौतिक एकता के अन्तर्गत पृथक्-पृथक् दीखनेवाले शरीरों को उत्पन्न किया है । जड़ प्रकृति में व्यक्त हुआ आत्मा उन शरीरों को आवेष्टित करता है तथा उनमें निवास करता है, उन्हें धारण तथा प्रयुक्त करता है; वह अपने-आपको भूलकर जड़तत्त्व की इस एक गांठ को ही अनुभव करता है और कहता है, ''यह शरीर ही मैं हूं । '' वह अपने-आपको शरीर समझता है, शरीर के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होता है, शरीर के साथ ही जन्म लेता और उसके साथ ही नष्ट हों जाता है; अथवा कम-से-कम वह अपनी सत्ता को इसी रूप में देखता है । और फिर, प्रकृति ने अपनी विराट्- प्राणसम्बन्धी एकता के अन्तर्गत प्राण की पूथक्-पृथक् दीखनेवाली धाराओं का सृजन किया है जो प्रत्येक शरीर के अन्दर तथा उसके चारों ओर जीवन-शक्ति के एक आवर्त के रूप में प्रवाहित होती रहती हैं, और प्राणिक प्रकृति में प्रकट दुआ आत्मा उस धारा को पकड़ लेता है और उसकी पकड़ में आ जाता है, प्राण के उस घूमते हुए छोटे-से भँवर में कुछ समय के लिये कैद हो जाता है । आत्मा, अपने-आपको और भी अधिक भूलकर, कहता है, ''मैं यह प्राण हूं"; वह अपने- आपको प्राण समझता है, उसकी लालसाओं या कामनाओं को अपना लालसाएं या कामनाएं समझता है, उसीके सुखों में लोट लगाता है, उसके घावों से घायल हो जाता है, उसकी गतियों के साथ-साथ बेतहाशा दौड़ता है या फिर ठोकर खाकर गिर पड़ता है । यदि वह अभीतक मुख्य रूप से देह-बुद्धि के द्वारा ही शासित हों तो वह उस आवर्त की सत्ता के साथ अपनी सत्ता को एकाकार कर लेता है और सोचता है कि ''जिस शरीर के चारों ओर इस आवर्त ने अपनी रचना कर रखी है
१ आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान ।
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उसके विनाश से जब यह छिन्न-भिन्न हो जायेगा तब 'मैं' भी नहीं रहूंगा । '' यदि वह प्राण की उस धारा को अनुभव करने में समर्थ हो जिसने इस आवर्त का निर्माण किया है तो वह अपने-आपको वही धारा समझने लगता है और कहता है, ''मैं जीवन का यही प्रवाह हूं मैंने यह शरीर धारण किया है, मैं इसे छोड़कर दूसरे शरीर धारण करूंगा; मैं अमर प्राण हू जो सतत पुनर्जन्म के चक्र में घूमता रहता है । ''
और फिर, प्रकृति नै अपनी मानसिक एकता के अन्तर्गत, विराट् मन में, मानो मन: -शक्ति के पृथक्-पृथक् दीखनेवाले विद्युज्जनक यंत्र (dynamos) निर्मित किये हैं । ये यंत्र मानसिक शक्ति और मानसिक क्रियाओं के उत्पादन, वितरण और पुनः -संचय के लिये स्थिर-केंद्रों की तरह काम करते हैं, मानो ये मानसिक तार- प्रेषण (telegraphy) की व्यवस्था में स्टेशनों का काम करते हैं जहां संदेश सोचे एवं लिखे जाते हैं तथा भेजे, पाये और बांचे जाते हैं, और ये संदेश तथा ये क्रियाएं अनेक प्रकार की होती हैं, —संवेदनात्मक, भावमय, बोधात्मक, प्रत्ययात्मक तथा बोधिमय । मनोमय प्रकृति मैं प्रकट हुआ आत्मा इन सबको स्वीकार करता है, जगत् के सम्बन्ध में अपने दृष्टिकोण को निश्चित करने के लिये इनका प्रयोग करता है और उसे लगता है कि वह इनके आघातों को बाहर भेजता है और स्वयं ग्रहण भी करता है, इनके परिणामों को भोगता है या फिर उनपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है । प्रकृति इन मनरूपी विद्युत्-यंत्रों का आधार अपने बनाये जड़ शरीरों में स्थापित करती है, इन शरीरों को अपने स्टेशनों की आधार- भूमि बनाती है और प्राण- धाराओं की गति से परिपूर्ण नाड़ी-संस्थान के द्वारा मन और शरीर के बीच सम्बन्ध स्थापित करती है । इस प्राणमय नाड़ी-संस्थान के द्वारा मन प्रकृति के स्थूल भौतिक जगत् का ज्ञान प्राप्त करता है और साथ ही, जहांतक वह चाहे वहांतक, प्राणिक जगत् का भी शान लाभ कर सकता है । अन्यथा मन सर्वप्रथम और प्रधान रूप में मनोमय जगत् से ही सचेतन होगा और भौतिक जगत् की झांकी केवल परोक्ष रूप में ही प्राप्त करेगा । वर्तमान वस्तुस्थिति में इसका ध्यान शरीर और भौतिक जगत् पर ही जमा हुआ है जिनके अन्दर यह प्रतिष्ठित है; शेष सारी सत्ता को यह केवल धुंधले, परोक्ष या अवचेतन रूप में, अपनी चेतना के उस विशाल अवशेष के अन्दर ही जानता है जिसे इसकी ऊपरी चेतना प्रत्युत्तर नहीं देती और जिसे वह अ चुकी है ।
आत्मा इस मनरूपी डायनेमो (dynamo) या स्टेशन के साथ अपने-आपको एकाकार कर लेता है और कहता है, ''मैं यह मन ही हूं | '' और, क्योंकि मन शारीरिक जीवन में डूबा रहता है, वह (आत्मा) सोचता है, ''मैं एक सजीव शरीर में रहनेवाला मन हूं " अथवा, और भी अधिक प्रचलित रूप में वह यों सोचता है कि ''मैं एक शरीर हूं जो जीवन धारण करता और सोचता है । '' वह देहबद्ध मन के विचारों, भावों और संवेदनों के साथ अपने-आपको तदाकार कर लेता है और
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सोचता है कि जब शरीर का नाश होगा तब इस सबका भी नाश हों जायेगा, इसलिये तब स्वयं मेरा अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा । अथवा यदि वह अपने मनोमय व्यक्तित्व के सतत प्रवाह को अनुभव कर लेता है तो वह समझता है कि मैं एक मनोमय पुरुष हूं जो एक बार या बारंबार शरीर धारण करता है और पार्थिव जीवन के समाप्त होने पर इससे परे के मनोमय लोकों में लौट जाता है; इस प्रकार कभी तो शरीर में और कभी प्रकृति के मानसिक या प्राणिक स्तर पर मानसिक रूप से सुख-दुःख का भोग करनेवाले इस मनोमय पुरुष के सतत स्थायित्व को छी वह अपनी अमर सत्ता कहता है या फिर, क्योंकि मन, वह चाहे कितना ही अपूर्ण क्यों न हो, प्रकाश और ज्ञान का ही करण है और अपने से परे की सत्ता की कुछ कल्पना कर सकता है, वह उस परे की सत्ता में, किसी शून्य या किसी सनातन सत्ता में, मनोमय पुरुष के लय की सम्भावना देखता है और कहता है, ''वहां मेरा, मनोमय पुरुष का, अस्तित्व समाप्त हों जाता है । '' देहबद्ध मन और प्राण की इस वर्तमान क्रीड़ा के प्रति अपनी आसक्ति या घृणा की मात्रा के अनुसार वह ऐसे लय से डरता है या इसकी कामना करता है, इसे अस्वीकार कर देता है या स्वीकार कर लेता है ।
सुतरां, यह सब सत्य और असत्य का मिश्रण है । यह सत्य है कि 'मन', 'प्राण' और 'जड़तत्त्व' प्रकृति में अस्तित्व रखते हैं और यह भी सत्य है कि मन, प्राण और शरीर उसमें व्यक्तिभाव धारण करते हैं, परन्तु आत्मा इन चीजों के साथ जो तादात्म्य स्थापित कर लेता है वह मिथ्या है । मन, प्राण और जडूतत्त्व भी हमारी सत्ता का स्वरूप हैं तो सही, पर केवल इस अर्थ में कि है सत्ता के ऐसे तत्त्व हैं जिन्हें हमारी सच्ची आत्मा ने अपनी एकमेव सत्ता को सृष्टि के रूप में प्रकट करने के लिये पुरुष और प्रकृति के मिलन तथा इनकी परस्पर-क्रिया के द्वारा विकसित किया है । व्यक्तिगत मन, प्राण और शरीर इन तत्त्वों की एक लीलामात्र हैं । यह लीला यहां आत्मा और प्रकृति के पारस्परिक आदान-प्रदान में 'एकं सत्' के बहुत्व को प्रकट करने के साधन के रूप में प्रस्थापित की गयी है; वह 'एक सत्' अपने बहुत्व को नित्य ही प्रकट कर सकता है तथा अपनी एकता के अन्दर वह इसे नित्य ही प्रच्छन्न रूप में धारण किये रहता है । व्यक्तिगत मन, प्राण और शरीर उस हदतक हमारी अपनी सत्ता के ही रूप हैं जहांतक हम उस 'एक' के बहुत्व के केंद्र हैं; विराट् मन, प्राण और शरीर भी हमारी अपनी आत्मा के रूप हैं, क्योंकि अपनी मूल सत्ता में हम वही 'एक' हैं । परन्तु आत्मा विराट् या व्यक्तिगत मन, प्राण और शरीर से अधिक कुछ है और जब हम इन चीजों के साथ तादात्म्य स्थापित करके अपने-आपको सीमा में बांध लेते हैं तो हम अपने ज्ञान को एक असत्य पर आधारित करते हैं, हम अपनी निज सत्ता के ही नहीं, बल्कि वैश्व सत्ता तथा व्यक्तिगत कार्य-प्रवृत्तियों के निर्धारक विचार एवं व्यावहारिक अनुभव को भी एक मिथ्या रूप दे देते हैं ।
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आत्मा चरम सनातन पुरुष एवं विशुद्ध सत्ता है और ये सब चीजें उसकी अभिव्यक्तियां हैं । हमें इसी ज्ञान को लेकर आगे बढ़ना होगा; इस ज्ञान का साक्षात्कार करके इसे व्यक्ति के आन्तर और बाह्य जीवन का आधार बनाना होगा । ज्ञानयोग ने इस प्राथमिक सत्य से आरम्भ करके साधना की दो प्रकार की— भावात्मक और अभावात्मक—विधियों की परिकल्पना की है । उन विधियों के द्वारा हम इन मिथ्या तादात्म्यों से छुटकारा पा सकते हैं और इनसे पीछे हटकर सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । अभावात्मक विधि यह है कि ''मैं शरीर हूं " इस मिथ्या विचार का विरोध करने तथा इसे जड़मूल से निकाल फेंकने के लिये हम सदैव यह कहें कि ''मैं शरीर नहीं हूं", और फिर इस ज्ञान पर अपने-आपको एकाग्र करें तथा भौतिक सत्ता के प्रति आत्मा की आसक्ति को त्याग कर देहबुद्धि से मुक्त हो जायें । इसके आगे हम यह कहते हैं कि ''मैं प्राण नहीं हूं " और इस ज्ञान पर अपने-आपको एकाग्र करके तथा प्राण की चेष्टाओं और कामनाओं के प्रति आसक्ति का त्याग करके हम प्राण-बुद्धि से छुटकारा पा लेते हैं । अन्त में हम यह कहते हैं कि ''मैं मन नहीं हूं गति, इन्द्रिय और विचार नहीं हूं" और इस ज्ञान पर अपने-आपको एकाग्र करके तथा मानसिक क्रियाओं का त्याग करके हम मन को आत्मा समझने के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार जिन चीजों के साथ हमने तादात्म्य स्थापित कर रखा था उनके तथा अपने बीच जब हम निरन्तर एक खाई पैदा करते जाते हैं तो उनके आवरण हमारे आगे से उत्तरोत्तर हटते जाते हैं और आत्मा हमारे अनुभव के प्रति प्रत्यक्ष होने लगता है । उस आत्मा के बारे में तब हम कहते हैं, ''मैं 'वह' हूं शद्ध, सनातन, आनन्दस्वरूप'' और अपने विचार तथा अपनी सत्ता को इस ज्ञान पर एकाग्र करके हम 'वही' बन जाते हैं और अन्त में व्यक्तिगत सत्ता तथा विश्व का त्याग करने में समर्थ हो जाते हैं । दूसरी विधि भावात्मक है और वह वस्तुत: राजयोग से सम्बन्ध रखती है । वह यह है कि हम अन्य सब विचारों का निरोध करक केवल ब्रह्म के विचार पर एकाग्रता करें, जिससे कि यह मनरूपी डायनेमो हमारी बाह्य या वैविध्यपूर्ण आन्तर सत्ता पर क्रिया करना बिलकुल बन्द कर दे; मन के निश्चल हो जाने से प्राण और शरीर की लीला भी एक नित्य समाधि में, सत्ता की किसी अवर्णनीय गभीरतम समाधि की अवस्था में, शान्त हो जायेगी और वहां हम निरपेक्ष सत् में प्रविष्ट हों जायेंगे ।
स्पष्ट ही यह साधना एक स्व-केंद्रित तथा अन्य-वर्जक आन्तर क्रिया है जो विचार में जगत् से इन्कार करके तथा अन्तर्दर्शन में इसके प्रति आत्मा के नेत्र बन्द करके इससे छुटकारा पा लेती है । परन्तु यह विश्व तो परमेश्वर में एक सत्य के रूप में विद्यमान है ही, भले किसी व्यष्टि आत्मा ने इसके प्रति अपनी आंखें बन्द कर रखी हों, और परम आत्मा इस विश्व में मिथ्या रूप में नहीं, बल्कि वास्तविक रूप में विद्यमान है, वह उन चीजों को धारण कर रहा है जिन्हें हम त्याग चुके हैं, सभी
चीजों में सचमुच ही अन्तर्यामी की तरह व्याप्त है, विश्व सत्ता में व्यक्ति को वस्तुत: ही समाये हुए है और विश्व को उस सत्ता में समाये हुए है जो इससे अतीत और परात्पर है । अपने आन्तर ध्यान की समाधि से बाहर आने पर हमें हर बार ही जो यह अटल विश्व चारों ओर से घेरे हुए दिखायी देता है, इसमें व्याप्त इस सनातन आत्मा का हमें क्या करना होगा? जो आत्मा बहिर्मुख भाव में विश्व पर दृष्टिपात करती है उसके लिये निवृत्तिप्रधान ज्ञानमार्ग ने एक समाधान एवं साधनमार्ग प्रतिपादित किया है । वह यह है कि उसे अन्तर्यामी, सर्वतोव्यापी और सर्वनिर्मायक आत्मा को एक ऐसे आकाश के रूप में देखना चाहिये जिसमें सब रूप विद्यमान हैं, जो सब रूपों में व्याप्त है और सब पदार्थों का उपादान कारण है । उस आकाश में विराट् प्राण और मन वस्तुओं के 'श्वास' के रूप में, आकाशगत वायवीय समुद्र के रूप में, विचरण करते हैं और उससे इन सब दृश्य पदार्थों का निर्माण करते है; परन्तु जिन चीजों का वे निर्माण करते हैं वे नाम और रूपमात्र हैं, वास्तविक वस्तुएं नहीं; उदाहरणार्थ, एक घड़े का जो रूप हम देखते हैं वह केवल मिट्टी (पृथ्वी) का ही एक रूप है और वह पीछे मिट्टी (पृथ्वी) में ही मिल जाता है, इसी प्रकार पृथ्वी भी एक रूप है जो विराट् प्राण में लय को प्राप्त हो सकता है, विराट् प्राण एक ऐसी गति है जो उस शान्त निर्विकार आकाश में लय को प्राप्त होकर शान्त हो जाती है । इस शान पर एकाग्रता करने से, समस्त दृग्विषयों एवं बाह्य रूपों का त्याग करने से हमें यह दिखायी देने लगता है कि यह सारा जगत् उस आकाश-ब्रह्म में नामरूपात्मक भ्रममात्र है; यह हमारे निकट एक अवास्तविक वस्तु बन जाता है; और जगत् के अवास्तविक बन जानें पर उसके अन्दर आत्मा की अन्तयामिता भी अवास्तविक बन जाती है और तब रह जाता है केवल आत्मा जिसपर हमारे मन ने जगत् के नाम-रूप का मिथ्या ही आरोप कर रखा है । इस प्रकार हमारा निरपेक्ष ब्रह्म में व्यक्तिगत सत्ता का लय करना उचित ठहरता है ।
फिर भी, आत्मा तो अपनी अन्तयामिता के अविनाशी स्वरूप में, अपनी दैवी सर्वतोव्यापकता के अक्षर स्वरूप में, प्रत्येक वस्तु और सभी वस्तुएं बनने की अपनी अपरंपार माया के रूप में अपनी लीला निरन्तर किये ही जा रहा है; ऐसा लगता है कि हमारे उस वंचक का पता लगा लेने से तथा इस जगत् का त्याग कर देने से आत्मा या जगत् पर तिलभर भी असर नहीं पड़ता । तब क्या हमें इस बात का भी ज्ञान नहीं प्राप्त करना होगा कि वह कौन-सी वस्तु है जो इस प्रकार हमारे अंगीकार एवं परित्याग से ऊपर रहती हुई अटल बनी रहती है और जो इतनी महान्, इतनी अनाद्यनन्त है कि उसपर इसका कुछ असर ही नहीं पड़ता? अवश्य ही, यहां भी कोई अजेय सद्वस्तु कार्य कर रही है और समग्र 'ज्ञान' की यह मांग है कि हम उसका साक्षात्कार एवं अनुभव करें; नहीं तो यह सिद्ध हो सकता है कि हमारा अपना ज्ञान ही माया एवं मायावी था न कि विश्वगत परमेश्वर । अतएव, हमें अभी
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और एकाग्रता करनी होगी और इस वस्तु को भी देखना तथा अनुभव करना होगा जो इतने प्रभुत्वपूर्ण रूप में अटल बनी रहती है और यह जानना होगा कि आत्मा उस परम पुरुष से भिन्न कुछ नहीं जो प्रकृति का स्वामी है, विश्व का धर्ता है जिसकी अनुमति से यह विश्व आगे बढ़ रहा है, जिसका संकल्प इसके अनन्तविध कार्यों को प्रबल रूप से प्रेरित करता है तथा इसके शाश्वत गति-चक्रों का निर्धारण करता है । और, अभी एक बार फिर हमें एकाग्रता करनी होगी तथा साक्षात्कार और अनुभव प्राप्त करना होगा और यह जानना होगा कि आत्मा 'एकं सत्' है जो सबका आत्मा और सबकी प्रकृति दोनों हैं, एक ही साथ पुरुष और प्रकृति दोनों है और अतएव वस्तुओं के इन सब रूपों में अपने-आपको प्रकट कर सकता है तथा ये सब रूप-रचनाएं बन भी सकता है । नहीं तो यह समझना चाहिये कि जिस वस्तु को आत्मा बहिष्कृत नहीं करता उसे हमने अपने ज्ञान से बहिष्कृत कर दिया हैं और अपने ज्ञान में एक मनमाना चुनाव किया है ।
प्राचीन निवृत्तिप्रधान ज्ञानमार्ग वस्तुओं की एकता को और 'एकं सत्' के इन सब रूपों पर एकाग्रता करने के सिद्धान्त को स्वीकार करता था, परन्तु वह इनमें एक प्रकार का विभेद करता था तथा एक क्रमपरम्परा की स्थापना करता था । जो आत्मा वस्तुओं के ये सभी रूप धारण करता है वह विराट् या वैश्व पुरुष कहलाता है; जो आत्मा इन सब रूपों का निर्माण करता है वह हिरण्यगर्भ अर्थात् ज्योतिर्मय या ज्ञानपूर्वक सर्जन करनेवाला पुरुष कहलाता है; जो आत्मा इन सब पदार्थों को अपने अन्दर आवृत रूप में धारण करता है वह प्राज्ञ अर्थात् सचेतन कारण या मूल निर्धारक पुरुष कहलाता है; इन सबके परे है निरपेक्ष ब्रह्म जो इस सब अवास्तविक प्रपंच को अनुमति देता है, पर इससे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता । हमें इस जगत् रो पीछे हटकर उस निरपेक्ष ब्रह्म में अपनी चेतना का लय कर देना होगा और फिर इसके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखना होगा, क्योंकि ' ज्ञान ' का मतलब है अन्तिम 'ज्ञान', और अतएव लघुतर उपलब्धियां हम से दूर हो जानी चाहियें । पर स्पष्ट ही, हमारे दृष्टिकोण से, ये मन के किये हुए व्यावहारिक भेद हैं । ये कुछ उद्देश्यों के लिये तो उपयोगी हैं, पर इनका अन्तिम मूल्य कुछ भी नहीं है । जगद्विषयक हमारा दृष्टिकोण एकता पर आग्रह करता है; विराट् आत्मा ज्ञानपूर्वक सर्जन करनेवाले आत्मा (हिरण्यगर्भ) से भिन्न नहीं है, न ज्ञानपूर्वक सर्जन करनेवाला कारण-रूप आत्मा (प्राज्ञ) से भिन्न है, और न ही कारण-रूप आत्मा (प्राज्ञ) निरपेक्ष ब्रह्म से, बल्कि यह एक ही ''सत् आत्मा है जो सर्वभूतों के रूप में विलसित हो रहा है'' १ और यह आत्मा उस परमेश्वर से भिन्न नहीं है जो इन सब व्यष्टि-सत्ताओं के रूप में अपने-आपको प्रकट करता है और न वह परमेश्वर ही उस 'एकं सत्' -रूप ब्रह्म से भिन्न है जो सचमुच ही यह सब कुछ
१ सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूत् ।
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है जिसे हम देख सकते हैं, इन्द्रिय, प्राण या मन के द्वारा अनुभव कर सकते हैं । उस आत्मा, परमेश्वर, ब्रह्म को हमें जानना चाहिये जिससे कि हम उसके साथ तथा उसके द्वारा प्रकट की जानेवाली सभी वस्तुओं के साथ अपनी एकता अनुभव कर सकें और फिर उस एकता में हमें निवास भी करना चाहिये । क्योंकि ज्ञान से हमारी मांग यह है कि उसे एकता साधित करनी चाहिये; जो ज्ञान विभाजित करता है वह सदा ही अधूरा ज्ञान होता है जो कुछ व्यावहारिक प्रयोजनों के लिये ही हितकर होता है; पर 'असली' ज्ञान तो वह है जो एकता लाता है ।
अतएव, हमारा पूर्णयोग इन विविध साधनाओं और एकाग्रता के प्रकारों को अपनायेगा तो सही, पर वह इन्हें स्व-दूसरे के साथ समस्वर करेगा और यदि हो सके तो इन्हें एक ऐसे समन्वय के द्वारा घुला-मिलाकर एक कर देगा जो इनकी स्व-अरे का वर्जन करने की वृत्ति को कु कर देगा । पूर्ण ज्ञान का अन्वेषक परमेश्वर और सर्वमय विराट् का साक्षात्कार केवल इसलिये नहीं करेगा कि नीरव आत्मा या अज्ञेय ब्रह्म की प्राप्ति के लिये इनका परित्याग कर दे जैसा कि एकमात्र परात्पर की खोज करनेवाला योग करता है, न ही वह केवल परमेश्वर के लिये या केवल विराट्-रूप सर्व में जीवन धारण करेगा, जैसा कि अनन्य रूप से ईश्वरवादी या अनन्य रूप से सर्वेश्वरवादी योग करता है । पूर्णज्ञान का साधक अपने विचार और व्यवहार में किंवा अपने अनुभव एवं साक्षात्कार में किसी भी धार्मिक मत या दार्शनिक सिद्धान्त से नहीं बंधा रहेगा । वह तो सत्ता के सर्वांगपूर्ण सत्य की खोज करेगा । प्राचीन साधनाओं का वह परित्याग नहीं करेगा, क्योंकि वे सनातन सत्यों पर प्रतिष्ठित हैं, पर अवश्य ही, वह उन्हें अपने लक्ष्य के अनुरूप नयी दिशा में मोड़ देगा ।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि ज्ञानमार्ग में हमारा प्रधान लक्ष्य दूसरों में विद्यमान परम आत्मा का अथवा प्रकृति के स्वामी या सर्वमय विराट् के रूप में विद्यमान उसी आत्मा का साक्षात्कार करने की अपेक्षा कहीं अधिक अपने ही अन्दर अपने उसी परम आत्मा का साक्षात्कार करना होना चाहिये । क्योंकि व्यक्ति को जिस चीज की सर्वाधिक अनिवार्य आवश्यकता है वह यही है, —अपनी सत्ता के उच्चतम सत्य को प्राप्त करना, इसकी अव्यवस्थाओं एवं अस्तव्यस्तताओं को तथा इसके मिथ्या तादात्म्यों को ठीक करना, इसकी यथायथ एकाग्रता एवं पवित्रता की अवस्थातक पहुंचना और इसके मूल उद्गम को जानना तथा उस ओर आरोहण करना । परन्तु यह कार्य हम इसके उद्गम में लय प्राप्त करने के लिये नहीं करते, वरन् इसलिये करते हैं कि हमारी सम्पूर्ण सत्ता और इस आन्तर राज्य के सभी अंग अपना यथार्थ आधार प्राप्त कर लें, हमारे उच्चतम आत्मा में निवास करें, केवल हमारे उच्चतम आत्मा के लिये ही जीवन धारण करें और उस विधान के सिवाय अन्य किसी विधान का पालन न करें जो हमारे उच्चतम आत्मा से उद्भूत होता है
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तथा संचारक मन में किसी प्रकार का मिथ्या रूप धारण किये बिना ही हमारी विशुद्ध सत्ता को प्राप्त होता है । ओर, यदि हम यह कार्य ठीक प्रकार सै करें तो हमें पता चलेगा कि इस परम आत्मा को ढृंढ़कर हमने सबमें विद्यमान एक आत्मा को भी ढृढ़ लिया है. अपनी प्रकृति के तथा समस्त प्रकृति के एकमेव प्रभु को, अपने सर्वमय आत्मा एवं विश्व के सर्वमय आत्मा को भी प्राप्त कर लिया है । कारण, इस आत्मा को जिस हम अपने अन्दर देखते हैं, अवश्य ही सभी जगह देखेगे, क्योंकि यही उसकी एकता का सत्य है । अपनी सत्ता के सत्य को खोजकर उसका ठीक प्रकार प्रयोग करने से अवश्य ही हमारी व्यक्तिगत सत्ता और विश्व के बीच का पर्दा बलात् फट जायेगा और फिर बिल्कुल ही हट जायेगा और जिस सत्य को हम अपनी सत्ता के अन्दर अनुभव करते हैं वह विश्व-सत्ता में भी जो तब हमारी छी सत्ता होगी हमें अपना अनुभव कराके ही रहेगा । अपने अन्दर वेदान्त के ''सोऽहम्'' (मैं वह हूं) का साक्षात्कार करके हम अपने चारों ओर दृष्टि डालने पर सभीमें इसी ज्ञान के दूसरे पक्ष, ''तत्त्वमसि '' (तू वह है) को अनुभव किये बिना नहीं रह सकते । हमें देखना केवल यह है कि क्रियात्मक रूप में इस साधना का अनुशीलन प्रकार करना चाहिये जिससे कि हम यह महान एकात्मता सफलतापृर्वक प्राप्त कर सकें ।
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