Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय १९
हमारी सत्ता के स्तर
यदि हमारे अन्तरस्थ पुरुष को इस प्रकार अपने सर्वोच्च आत्मा, भागवत पुरुष, के साथ एकत्व के द्वारा अपनी प्रकृति का ज्ञाता, ईश और स्वतन्त्र भोक्ता बनना हो, तो स्पष्ट ही, हमारी सत्ता के वर्तमान स्तर पर निवास करके वह ऐसा नहीं कर सकता । क्योंकि, यह स्तर भौतिक है जिसमें पूर्ण रूप से प्रकृति का ही शासन है । यहां दिव्य 'पुरुष' प्रकृति की क्रियाओं की विमूढ़ बनानेवालो तरंग में, उसके कार्य- कलाप के स्थूल आडम्बर में पूर्ण रूप से छिपा हुआ है, और उसने जड़तत्त्व में आत्मा का जो आवेष्टन कर रखा है उसमें से प्रकट होती हुई व्यक्तिगत अन्तरात्मा अपनी सब क्रियाओं में शरीर और प्राणरूपी यन्त्रों के अन्दर फंसे रहने एवं इनके अधीन रहने के कारण दिव्य स्वातत्र्य का अनुभव करने में असमर्थ है । जिसे यह अपना स्वातंत्र्य एवं स्वामित्व कहती है वह प्रकृति के प्रति मन की सूक्ष्म दासतामात्र है; निश्चय ही वह पशु, वनस्पति और धातु जैसी प्राणिक और भौतिक वस्तुओं की स्थूल दासता की अपेक्षा कम बोझिल है तथा उससे मुक्त होकर प्रभुत्व प्राप्त करना अधिक शक्य है, किन्तु फिर भी वह वास्तविक स्वातंत्र्य और स्वामित्व नहीं है । अतएव, हमें चेतना के विभिन्न स्तरों तथा मनोमय सत्ता के आध्यात्मिक स्तरों का उल्लेख करना पड़ा है; क्योंकि यदि इनका अस्तित्व न होता तो देहधारी जीव के लिये यहां इस भूतल पर मुक्ति लाभ करना सम्भव न होता । उसे अन्य लोकों में तथा एक भिन्न प्रकार की भौतिक या आध्यात्मिक देह में, जो स्थूल पार्थिव अनुभव के अपने कठोर आवरण में कम आग्रह के साथ आवेष्टित हो, मुक्ति प्राप्त करने के लिये प्रतीक्षा करनी होती तथा, अधिक-से-अधिक, इसके लिये .अपने को तैयार करना पड़ता ।
सामान्य प्रचलित ज्ञानयोग में हमारी चेतना के दो स्तरों को, आध्यात्मिक और जड़भावापन्न मानसिक स्तरों को, स्वीकार करना ही आवश्यक माना जाता है । इन दो के बीच में स्थित है शुद्ध तर्कबुद्धि । वह इन दोनों का अवलोकन करती है, दृश्य जगत् के भ्रमों को भेदकर जड़तापन्न मानसिक स्तर के परे चली जाती है और आध्यात्मिक स्तर की वास्तविकता अनुभव करती है और तब व्यक्ति में रहनेवाले 'पुरुष' का संकल्प ज्ञान की इस भूमिका के साथ अपनेको एक करके निम्न स्तर को त्याग देता है तथा पीछे हटकर उच्च स्तर में प्रवेश करता है, वहां निवास करता है, मन और शरीर का लय कर देता है, प्राण को भी अपनेसे दुर त्याग देता है और अपने-आपको परम पुरुष में निमज्जित करके व्यक्तिगत सत्ता से मुक्त हो जाता है । वह जानता है कि यह हमारी सत्ता का सम्पूर्ण सत्य नहीं है, सम्पूर्ण सत्य तो
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इससे कहीं अधिक जटिल वस्तु है; वह जानता है कि स्तर बहुत-से हैं, पर वह उनकी उपेक्षा करता है या उनकी ओर ध्यान नहीं देता; क्योंकि वे इस मोक्ष के लिये अनिवार्य नहीं हैं । बल्कि सच पूछों तो वे इसमें बाधा ही डालते हैं, क्योंकि उनमें निवास करने से नये आकर्षक चैत्य अनुभव, चैत्य उपभोग, चैत्य शक्तियां प्राप्त होती हैं तथा नामरूपात्मक ज्ञान का एक नया ही जगत् दिखायी देता है जिन सबका अनुसरण उसके अनन्य लक्ष्य, अर्थात् ब्रह्म में लय के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करता है, और भगवान् की ओर ले जानेवाले राजपथ के दोनों ओर एक के बाद एक असंख्य जाल बिछा देता है । परन्तु, क्योंकि हम जगत्-सत्ता को स्वीकार करते हैं और क्योंकि हमारे लिये समस्त जगत्-सत्ता ब्रह्म ही है तथा ईश्वर की उपस्थिति से परिपूर्ण है, ये चीजें हमें भयभीत नहीं कर सकतीं; पथ-भ्रष्ट करनेवाले कोई भी संकट क्यों न आयें, हमें उनका सामना करके उनपर विजय पानी होगी । यदि जगत् और हमारा अपना जीवन इतने जटिल हैं तो हमें उनकी जटिलताओं को जानना तथा अंगीकार करना होगा जिससे हमारा आत्मज्ञान एवं पुरुष और प्रक्रति के सम्बन्धों का ज्ञान पूर्ण हो सके । यदि अनेक स्तरों का अस्तित्व है तो हमें उन सबको उसी प्रकार भगवान् के लिये अधिकृत करना होगा, जिस प्रकार हम अपनी मन, प्राण और शरीररूपी साधारण भूमिका को आध्यात्मिक रूप से अधिकृत तथा रूपान्तरित करने का यत्न करते हैं ।
सभी देशों में प्राचीन ज्ञान हमारी सत्ता के गुप्त सत्यों की खोज से भरा हुआ था और इसने साधना और जिज्ञासा के उस विशाल क्षेत्र का निर्माण किया जिस यूरोप में गह्यविद्या के नाम से पुकारा जाता है, --पूर्व में हम इसके लिये इस प्रकार का कोई शब्द प्रयुक्त नहीं करते, क्योकि ये चीजें हमें उतनी दूर, रहस्यमय एवं असामान्य नहीं प्रतीत होतीं जितनी कि पश्चिमी मन को; हमारे लिये ये अपेक्षाकृत निकट हैं और हमारे साधारण भौतिक जीवन तथा इस विशालतर जीवन के बीच का पर्दा कहीं अधिक पतला है । भारत,१ मिश्र, काल्डिया, चीन, यूनान तथा कैल्टिक देशों में ये चीजें उन विविध यौगिक प्रणालियों और साधनाओं के अंग रही हैं जिनका कभी सर्वत्र अत्यधिक बोलबाला था, परन्तु आधुनिक मन को ये चीजें कोरा अन्धविश्वास एवं रहस्यवाद प्रतीत हुई हैं, यद्यपि जिन तथ्यों और अनुभवों पर ये आधारित हैं वे अपने क्षेत्र में जड़ जगत् के तथ्यों और अनुभवों के बिल्कुल समान ही वास्तविक हैं और उनके समान ही अपने बुद्धिगम्य नियमों के द्वारा नियन्त्रित हैं । यहां चैत्य ज्ञान के इस विशाल और दुर्गम क्षेत्र का अवगाहन करने का हमारा विचार नहीं है ।२ परन्तु इसकी रूपरेखा का निर्माण करनेवाले कुछ-
१ उदाहरणार्थ, भारत में तांत्रिक प्रणाली ।
२ आशा है कि इस विषय पर हम आगे चलकर विचार करेंगे; परन्तु 'आर्य' में हमारा पहला उद्देश्य आध्यात्मिक और दार्शनिक सत्यों का निरूपण ही होना चाहियेः जब ये सत्य हृदयंगम हो जायें तभी चैत्य सत्यों में सुरक्षित और स्पष्ट रूप से प्रवेश किया जा सकता है ।
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एक मोटे तथ्यों और सिद्धान्तों का वर्णन करना अब आवश्यक हो जाता है, क्योंकि उनके बिना हमारा ज्ञानयोग पूर्ण नहीं हो सकता । हम देखते हैं कि विविध प्रणालियों में वर्णित तथ्य सदा एक ही होते हैं, किन्तु उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक अवस्था में बहुत-से भेद पाये जाते हैं, जैसा कि ऐसे विशाल और गहन विषय के विवेचन में स्वाभाविक और अनिवार्य ही है । एक प्रणाली में कुछ चीजों को छोड़ दिया जाता है तो दूसरी में उन्हें सबसे प्रधान स्थान दे दिया जाता है, एक में उन पर जरूरत से कम बल दिया जाता है तो दूसरी में अत्यधिक बल दे दिया जाता है; अनुभव के कुछ क्षेत्रों को एक प्रणाली में तो केवल गौण प्रदेश माना जाता है, पर दूसरी प्रणालियों में उन्हें पृथक् राज्यों के रूप में वर्णित किया जाता है । परन्तु मैं यहां वैदिक और वैदान्तिक व्यवस्था का, जिसकी महान् पद्धतियों को हम उपनिषदों में पाते हैं, संगत रूप में अनुसरण करूंगा । ऐसा करने का प्रथम कारण तो यह है कि वह मुझे सरल-से-सरल और साथ ही सर्वाधिक दार्शनिक प्रतीत होती है और इससे भी बढ़कर, विशेष रूप में इसका कारण यह है कि उसकी कल्पना आरम्भ से ही हमारे मोक्षरूपी परम लक्ष्य के लिये इन विविध स्तरों की उपयोगिता के दृष्टिकोण से की गयी थी । वह हमारी साधारण सत्ता के तीन तत्त्वों, मन, प्राण और जड़ देह को, सच्चिदानन्द के त्रयात्मक आध्यात्मिक तत्त्व को तथा इन्हें जोड़नेवाले विज्ञान-तत्त्व, अतिमानस, अर्थात् मुक्त या आध्यात्मिक प्रज्ञा को अपना आधार बनाती है, और इस प्रकार हमारी सत्ता की सभी विस्तृत सम्भव भूमिकाओं को सात स्तरों की परम्परा में व्यवस्थित कर देती है, --इन्हें कभी-कभी केवल पांच ही माना जाता है, क्योंकि, केवल निचले पांच ही हमारें लिये पूर्ण रूप से प्राप्य हैं । विकसित होता हुआ व्यक्ति इन स्तरों के द्वारा ही अपनी पूर्णता की ओर आरोहण कर सकता है ।
परन्तु सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि चेतना के स्तरों एवं सत्ता के स्तरों से हमारा क्या अभिप्राय है । हमारा अभिप्राय है पुरुष और प्रकृति के सम्बन्धों की एक सामान्य सुस्थिर भूमिका या उनके सम्बन्धों का एक ऐसा ही लोक । क्योंकि, जिस भी वस्तु को हम लोक कह सकते हैं वह एक ऐसे व्यापक सम्बन्ध की चरितार्थता से भिन्न कुछ नहीं होती तथा नहीं हों सकती जिसे विराट् सत् ने अपनी सत्ता, अथवा यूं कहें कि अपने सनातन तथ्य या सम्भाव्य शक्ति, और अपनी सम्पूति की शक्तियों के बीच उत्पन्न या स्थापित किया है । अपनी सम्भूति के साथ अनेक प्रकार के सम्बन्ध रखने तथा उसका अनुभव करनेवाली इस सत्ता को ही हम आत्मा या पुरुष कहते हैं, व्यक्ति में हम इसे व्यक्तिगत आत्मा तथा विश्व में
नोट--ज्ञानयोग की यह लेखमाला सर्वप्रथम श्रीअरविन्द की दार्शनिक पत्रिका 'Arya' में प्रकाशित हुई थी । इस टिप्पणी में उसी पत्रिका की ओर निर्देश किया गया है ।
-अनुवादक
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विराट् पुरुष कहते हैं; सम्भूति के मूलातत्त्व तथा उसकी शक्तियों को हम प्रकृति कहते हैं । परन्तु सत्ता, चिच्छक्ति और आनन्द सदा ही सत् के तीन उपादानभूत तत्त्व होते हैं, अतएव, इन तीन मूलतत्त्वों के साथ जिस प्रकार का सम्बन्ध रखने के लिये प्रकृति को प्रेरित किया जाता है तथा इन्हें जो रूप प्रदान करने के लिये उसे अनुमति दी जाती है उनके द्वारा ही वस्तुतः किसी लोक का स्वरूप निर्धारित होता है । क्योंकि, सत् स्वयं ही अपनी सम्पूति का उपादान होता है और सदा ही होगा; इसे उस पदार्थ के रूप में ढालना ही होगा जिसके साथ शक्ति का वास्ता पड़ता है । और फिर, निश्चय ही, शक्ति का मतलब है वह बल जो पदार्थ का निर्माण करता है और उसे लेकर चाहे किन्हीं भी लक्ष्यों के लिये कार्य करता है; शक्ति वह वस्तु है जिसे हम साधारणतया प्रकृति कहते हैं । अपिच, जिस लक्ष्य एवं उद्देश्य से लोकों की रचना की गयी है वह समस्त सत्ता तथा समस्त शक्ति और उनके समस्त कार्य-व्यापार में अन्तर्निहित चेतना के ही द्वारा साधित होना चाहिये, और वह लक्ष्य होना चाहिये अपने-आपको तथा जगत् में अपने अस्तित्व के आनन्द को प्राप्त करना । किसी भी जगत्-सत्ता के सभी संयोगों और लक्ष्यों को इसी उद्देश्य के रूप में अपने-आपको परिणत करना होगा; जगत्-सत्ता एक ऐसी सत्ता है जो अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को, उसकी शक्ति तथा उसके सचेतन आनन्द को विकसित कर रही है; यदि ये चीजें यहां निवर्तित अवस्था में हैं तो इनका विकास करना होगा; यदि ये आवृत हैं तो इन्हें प्रकट करना होगा ।
यहां हमारी आत्मा जड़ जगत् में निवास करती है; इसीको वह प्रत्यक्ष रूप में जानती है; इसमें अपनी शक्यताओं को उपलब्ध करना ही वह समस्या है जिससे उसे मतलब है । परन्तु जड़तत्त्व का अभिप्राय है आत्मविस्मृतिपूर्ण शक्ति में और उपादान-तत्त्व के स्व-विभाजक, सूक्ष्मातिसूक्ष्मतया विघटित रूप में सत्ता के सचेतन आनन्द का निवर्तन । अतएव, जड़ जगत् का सम्पूर्ण सिद्धान्त एवं प्रयत्न निवर्तित वस्तु का विवर्तन तथा अविकसित वस्तु का विकास ही होना चाहिये । यहां प्रत्येक वस्तु आरम्भ से ही जड़-शक्ति की प्रचण्ड रूप से कार्य करनेवाली निश्चेतन निद्रा में आच्छादित है; अतएव, किसी भी जड़प्राकृतिक अभिव्यक्ति का संपूर्ण लक्ष्य निश्चेतन में से चेतना का जागरण ही होना चाहिये; उस अभिव्यक्ति की सम्पूर्ण चरम परिणति यह होनी चाहिये कि जड़ प्रकृति का पर्दा दूर हो जाय तथा पूर्णत: आत्म-सचेतन पुरुष अभिव्यक्ति में अपनी ही बन्दीकृत आत्मा के प्रति ज्योतिर्मय रूप में प्रकट हों उठे । क्योंकि, 'मानव' एक ऐसी बन्दीकृत आत्मा है, इसलिये यह ज्योतिर्मय मुक्ति एवं आत्मज्ञान की प्राप्ति उसका उच्चतम लक्ष्य तथा उसकी पूर्णता की शर्त होनी चाहिये ।
परन्तु जड़ जगत् के बन्धन इस लक्ष्य की यथोचित पूर्ति के प्रतिकूल प्रतीत होते हैं; फिर भी यह लक्ष्य, अत्यन्त अनिवार्य रूप से, भौतिक शरीर में उत्पन्न मनोमय
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प्राणी का उच्चतम लक्ष्य है । पहली बात तो यह है कि सत्ता ने यहां अपने-आपको, मूलत: जड़तत्त्व के रूप में निर्मित किया है; वह एक बाह्य विषय बन गयी है, अपने-आपको अनुभव करनेवाली अपनी चिच्छक्ति के लिये स्व-विभाजक जड़ पदार्थ के रूप में इन्द्रियगोचर एवं मूर्त बन गयी है, और इस जड़तत्त्व के संघात से मनुष्य के लिये स्थूल शरीर बनाया गया है जो दूसरे शरीरों से पृथक् एवं विभक्त है और एक प्रक्रिया के स्थिर अभ्यासों के या, जैसा कि हम इन्हें कहते हैं, निश्चेतन जड़ प्रकृति के नियमों के अधीन है । मनुष्य की सत्ता की शक्ति भी जड़तत्त्व में कार्य करती हुई प्रकृति या शक्ति ही है जो निश्चेतना में से क्रमश: जागरित होकर प्राण के रूप में प्रकट हों गयी है और सदा ही रूप के द्वारा सीमित तथा शरीर के अधीन होती है, शरीर के कारण सदा ही शेष सारी प्राणशक्ति से तथा अन्य प्राणधारी जीवों से पृथक् रहती है; निश्चेतना के नियमों तथा शारीरिक जीवन की सीमाओं के द्वारा सदा ही उसके विकास और स्थायित्व में तथा उसकी पूर्णता के सम्पादन में बाधा डाली जाती है । इसी प्रकार, उसकी चेतना एक मनशक्ति है जो शरीर में तथा तीव्र रूप से व्यक्तिभावापन्न प्राण में प्रकट हों रही है; अतएव, यह अपनी क्रियाओं और सामर्थ्यों में सीमित है तथा कोई विशेष क्षमता न रखनेवाले शारीरिक अंगों एवं अत्यन्त सीमाबद्ध प्राणिक शक्ति पर निर्भर करती है; यह शेष सारी विराट् मनःशक्ति से पृथक् है तथा अन्य मनोमय प्राणियों के विचारों में भी इसे प्रवेश प्राप्त नहीं है, क्योंकि उनकी आन्तरिक क्रियाएं मनुष्य के स्थूल मन के लिये एक बन्द पुस्तक के समान हैं; हां, यह बात अलग है कि अपने मन के साथ सादृश्य के द्वारा तथा उनके अपर्याप्त शारीरिक संकेतों एवं भावाभिव्यक्तियों के द्वारा वह इन क्रियाओं को कुछ हदतक पढ़ अवश्य सकता है । उसकी चेतना सदा ही फिर से निश्चेतना में निमज्जित हो रही है जिसमें इसका एक बहुत बड़ा भाग सदैव निवर्तित रहता है; इसी प्रकार उसका जीवन सदा मृत्यु की ओर तथा उसका स्थूल अस्तित्व सदा विघटन की ओर फिर-फिर ढुलक रहा है । उसका अपनी सत्ता का आनन्द चारों ओर के पदार्थों के साथ इस अपूर्ण चेतना के उन सम्बन्धों पर निर्भर करता है जो स्थूल सम्वेदनों तथा ऐन्द्रिय मन पर आधारित हैं; दूसरे शब्दों में, उसका आनन्द एक सीमित मन पर निर्भर करता है जो सीमित शरीर, सीमित प्राण-शक्ति और सीमित करणों के द्वारा अपने से बाहर के एवं विजातीय जगत् पर अधिकार स्थापित करने का यत्न कर रहा है । इसलिये इसकी प्रभुत्व प्राप्त करने की शक्ति एवं आनन्द-प्राप्ति की सामर्थ्य परिमित है, और जगत् का जो भी सम्पर्क इसकी शक्ति को अतिक्रम कर जाता है, अर्थात् जिसे इसकी शक्ति सहन नहीं कर सकती, ग्रहण, आत्मसात् और अधिकृत नहीं कर सकतीं वह निश्चय ही आनन्द से भिन्न किसी और वस्तु दुःख-कष्ट या शोक में बदल जायगा । या फिर उसे इसकी शक्ति ग्रहण नहीं कर सकेगी, उसका सम्वेदन ही नहीं कर सकेगी, या, यदि उसे
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ग्रहण कर सकी तो, उदासीन भाव से त्याग देगी । इसके अतिरिक्त, अस्तित्व का जिस प्रकार का आनन्द यह प्राप्त करती है वह इसे सच्चिदानन्द के आत्मानन्द की भांति स्वाभाविक और सनातन रूप में प्राप्त नहीं है, बल्कि काल के प्रवाह में अनुभव और उपार्जन के द्वारा प्राप्त होता है, और इसलिये उसे, अनुभव को पुनः-पुन: प्राप्त करके ही, स्थिर और सतत रूप में बनाये रखा जा सकता है तथा उसका स्वरूप अनिश्चित एवं क्षणिक होता है ।
इस सबका अर्थ यह हुआ कि इस जड़ जगत् में पुरुष और प्रकृति के स्वाभाविक सम्बन्ध इस बात के सूचक हैं कि चेतन सत्ता अपनी क्रियाओं की शक्ति में पूर्ण रूप से डूबी हुई है और अतएव पुरुष अपने-आपको पूर्ण रूप से भूल चुका है तथा अपने स्वरूप को बिलकुल नहीं जानता, प्रकृति का पूर्ण आधिपत्य स्थापित हो गया है और हमारी आत्मा प्रकृति-शक्ति के अधीन हो गयी है । आत्मा अपने-आपको नहीं जानती, यह यदि किसी चीज को जानती है तो केवल प्रकृति की क्रियाओं को ही । 'मानव' में व्यक्तिगत स्व-सचेतन आत्मा के प्रादुर्भावमात्र से अज्ञान और दासता के ये प्राथमिक सम्बन्ध मिट नहीं जाते क्योंकि, यह आत्मा सत्ता के एक ऐसे स्थूल भौतिक स्तर पर प्रकृति की एक ऐसी भूमिका में निवास कर रही है जिसमें जड़तत्त्व अभी भी प्रकृति के साथ इसके सम्बन्धों का मुख्य निर्धारक है और इसकी चेतना जड़तत्त्व के द्वारा ही सीमित होने के कारण पूर्णत: स्वराट् चेतना नहीं हो सकती । विराट् आत्मा भी यदि जड़ प्रकृति के नियमसूत्र के द्वारा सीमित हो जाय तो वह भी पूर्णरूपेण आत्म-प्रभुत्व से सम्पन्न नहीं हों सकता; फिर व्यक्तिगत आत्मा तो आत्मप्रभुत्व से और भी कम सम्पन्न हो सकती है, क्योंकि उसके लिये शेष सत्ता शारीरिक, प्राणिक और मानसिक बन्धन एवं पृथक्त्व के कारण उससे बाहरी वस्तु बन जाती है जिस पर वह फिर भी अपने जीवन, आनन्द और ज्ञान के लिये निर्भर करती है। अपने बल, ज्ञान, जीवन और अस्तित्वसम्बन्धी आनन्द की ये सीमाएं ही मनुष्य के अपने-आपसे तथा जगत् से असन्तुष्ट होने का सारा कारण हैं । और, यदि जड़ जगत् ही सब कुछ होता और जड़-प्राकृतिक स्तर ही मनुष्य की सत्ता का एकमात्र स्तर होता तो वह व्यष्टिभूत 'पुरुष', पूर्णता और आत्मचरितार्थता को या, निःसन्देह, पशुओं के जीवन से भिन्न किसी अन्य प्रकार के जीवन को कभी न प्राप्त कर सकता । अवश्य ही या तो ऐसे लोक होने चाहियें जिनमें वह पुरुष और प्रकृति के इन अपूर्ण एवं असन्तोषजनक सम्बन्धों से मुक्त हों जाता है या फिर उसकी अपनी सत्ता के ऐसे स्तर होने चाहियें जिनकी ओर आरोहण करके वह इनके परे जा सकता है, अथवा कम-से-कम ऐसे स्तर, लोक एवं उच्चतर जीव होने चाहिये जिनसे वह ज्ञान, नानाविध शक्तियां और आनन्द, तथा अपनी सत्ता का विकास प्राप्त कर सकता है या इन चीजोंको प्राप्त करने में सहायता लाभ कर सकता है जो अन्यथा उसे प्राप्त हो ही न सकतीं ।
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प्राचीन शास्त्रों में प्रतिपादित किया गया है कि ये सब चीजें अस्तित्व रखती हैं, --अन्य लोक, उच्चतर स्तर, उनके साथ आदान-प्रदान करना तथा उनमें आरोहण करना भी सम्भव है, उसकी उपलब्ध सत्ता की वर्तमान क्रमशृंखला में जो स्तर उसके ऊपर है उसके साथ सम्बन्ध तथा उसके प्रभाव के द्वारा विकास साधित किया जा सकता है ।
जैसे पुरुष और प्रकृति के सम्बन्धों की एक ऐंसी भूमिका है जिसमें जड़तत्त्व प्रधान निर्धारक है, अर्थात् जैसे स्थूलभौतिक सत्ता का एक लोक है, वैसे ही उसके ठीक ऊपर एक और लोक है जिसमें जड़तत्त्व सर्वोपरि नहीं है, वरञच्च प्राणशक्ति प्रधान निर्धारिका के रूप में उसका स्थान ले लेती है । इस लोक में पदार्थों के रूप जीवन की अवस्थाओं का निर्धारण नहीं करते, बल्कि जीवन ही उनके रूप का निर्धारण करता है, और अतएव यहां रूप जड़-जगत् के रूपों की अपेक्षा अत्यधिक स्वतंत्र और तरल हैं, व्यापक रूप में और, हमारी धारणाओं की दृष्टि से, अद्भुत रूप में परिवर्तनशील हैं । यह प्राणशक्ति निश्चेतन जड़-शक्ति नहीं है, अपनी निम्नतम क्रियाओं को छोड़कर अन्य क्रियाओं में यह मूल पदार्थगत अवचेतन शक्ति भी नहीं है, बल्कि यह सत्ता की एक सचेतन शक्ति है जो रूप-निर्माण में सहायक होती है, पर इससे कहीं अधिक मूल रूप में, उपभोग, प्रभुत्व की प्राप्ति और अपने क्रियाशील आवेग की पूर्ति के लिये ही सहायता प्रदान करती है । अतएव, कामना और आवेग की तुष्टि ही निरी प्राणिक सत्ता के इस लोक का, आत्मा और उसकी प्रकृति के सम्बन्धों की इस भूमिका का प्रथम नियम हैं; इस लोक में, प्राणशक्ति हमारे स्थूल जीवन की अपेक्षा कितनी ही अधिक स्वतंत्रता और क्षमता के साथ अपनी क्रीड़ा करती है । इसे कामना का लोक कहा जा सकता है, क्योंकि कामना ही इसका प्रधान लक्षण है । अपिच, यह एक ही अपरिवर्तनीय-से नियम में बंधा हुआ नहीं है जैसा कि स्थूल जीवन बंधा हुआ दिखायी देता है, बल्कि यह अपनी स्थिति में अनेक प्रकार के परिवर्तन ला सकता है, अनेक उपस्तरों को स्थान देता है; वे स्तर एक ओर तो उन स्तरों से आरम्भ होते हैं जो जड़ सत्ता को स्पर्श करते हैं और मानों उसमें घुल-मिल जाते हैं और दूसरी ओर वे उन स्तरों तक पहुंचते हैं जो प्राणशक्ति के शिखर पर शुद्ध मानसिक और चैत्य सत्ता के स्तरों को जा छूते हैं तथा उनमें घुल-मिल जाते हैं । क्योंकि, प्रकृति में सत्ता की अनन्त क्रमशृंखला के अन्दर बीच-बीच में कोई चौड़ी खाइयां या ऊबड़-खाबड़ अन्तराल नहीं हैं जिन्हें कूदकर पार करना पड़े, बल्कि एक भूमिका दूसरी में घुल-मिल जाती है, सारी शृंखला में एक सूक्ष्म सातत्य है; प्रकृति की विभिन्न अनुभव प्राप्त करने की शक्ति इस सातत्य में से क्रमों, निश्चित भूमिकाओं एवं सुस्पष्ट स्तरों की रचना करती है जिनके द्वारा आत्मा जगज्जीवनसम्बन्धी अपनी शक्यताओं को नाना रूप से जानती तथा प्राप्त करती है । और, क्योंकि किसी-न-किसी प्रकार का
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उपभोग ही कामना का संपूर्ण लक्ष्य होता है, कामनामय लोक की भी ऐसी ही प्रवृत्ति होनी चाहिये; परन्तु जहां कहीं आत्मा स्वतंत्र नहीं होती, --और कामना के वश में होने पर यह स्वतंत्र हो ही नहीं सकती, --वहां इसके समस्त अनुभव के अभावात्मक तथा भावात्मक रूप होने चाहियें, इसी कारण यह जगत् सीमित स्थूल मन को अचिन्त्य से लगनेवाले विशाल या तीव्र या सतत उपभोगों की सम्भावना को ही अपने अन्दर धारण नहीं करता है, बल्कि उतने ही बड़े कष्टों की सम्भावना को भी अपने अन्दर धारण किये हुए है । इसलिये निम्नतम स्वर्ग तथा सब-के-सब नरक इस प्राणलोक में ही स्थित हैं । इन स्वर्गों और नरकों की दन्तकथा और कल्पना के द्वारा मानव-मन ने प्राचीनतम युगों से अपने-आपको प्रलोभित और संत्रस्त कर रखा है । निःसन्देह, समस्त मानवीय कल्पनाएं किसी सत्य वस्तु या वास्तविक सम्भावना से सम्बन्ध रखती हैं, भले वे अपने-आपमें एक सर्वथा अशुद्ध निरूपण ही हों अथवा अतीव भौतिक रूपकों में प्रकट की गयी हों और अतएव अतिभौतिक सद्वस्तुओं के सत्य को व्यक्त करने के लिये अनुपयुक्त हों ।
प्रकृति कोई असंबद्ध दृग्विषयों का समूह नहीं है, बल्कि एक जटिल ढंग की एकता से युक्त है । अतएव स्थूल भौतिक जगत् तथा इस प्राणिक या कामनामय जगत् के बीच कोई ऐसी खाई नहीं हो सकती जिसे पाटा न जा सकता हो । इसके विपरीत, यह कहा जा सकता है कि एक अर्थ में ये दोनों एक-दसरे में विद्यमान हैं और कम-से-कम, कुछ हद तक एक-दूसरे पर आश्रित हैं । सच पूछो तो जड़ जगत् वस्तुत: प्राणलोक का एक प्रकार का प्रक्षेप है, यह एक ऐसी वस्तु है जिसे उसने अपनी अवस्थाओं से भिन्न अवस्थाओं में अपनी कुछ-एक कामनाओं को मूर्त रूप देने तथा पूरा करने के लिये बाहर की ओर प्रक्षिप्त किया है तथा अपने-आपसे पृथक् किया है; वे अवस्थाएं भिन्न होती हुई भी उसकी अपनी ही अत्यन्त स्थूल लालसाओं का युक्तिसंगत परिणाम हैं । हम कह सकते हैं कि इस भूतल पर का जीवन स्थूल विश्व की जड़, निश्चेतन सत्ता पर इस प्राणलोक के दबाव का ही परिणाम है । हमारी अपनी व्यक्त प्राणिक सत्ता भी एक विशालतर और गभीरतर प्राणिक सत्ता का उपरितलीय परिणाममात्र है; इस विशालतर प्राणिक सत्ता का अपना विशेष स्थान प्राणिक स्तर में है और इसीके द्वारा प्राणलोक के साथ हमारा सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । अपिच, प्राण-लोक हमपर निरन्तर क्रिया कर रहा है और जड़-जगत् की प्रत्येक वस्तु के पीछे प्राणलोक की विशिष्ट शक्तियां स्थित हैं; यहांतक कि अत्यन्त स्थूल और मूलपदार्थरूप वस्तुओं के पीछे भी मूलपदार्थगत प्राणशक्तिया एवं उन्हें धारण करनेवाले प्राथमिक जीव हैं जिन शक्तियों या जीवों के द्वारा वे धारण की जाती हैं । प्राणलोक के प्रभाव जड़ जगत् पर सदा ही पड़ रहे हैं और यहां अपनी शक्तियां तथा अपने परिणाम उत्पन्न कर रहे हैं जो फिर प्राणलोक में लौटकर उसमें परिवर्तन लाते हैं । हमारा प्राण-भाग, कामनामय भाग,
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सदा ही इस प्राणलोक के सम्पर्क में आ रहा तथा इससे प्रभावित हो रहा है; इसमें भी शुभ इच्छा और अशुभ इच्छा की कल्याणकारी और अकल्याणकारी शक्तियां हैं; जब हमें इनका ज्ञान नहीं होता, न इनसे कुछ मतलब ही होता है तब भी ये हमपर अपना कार्य करती हैं; ये शक्तियां केवल प्रवृत्तियां या निश्चेतन शक्तियां नहीं हैं । जड़तत्त्व की सीमाओं को छोड़कर अन्यत्र ये अवचेतन भी नहीं हैं, बल्कि चेतन शक्तियां एवं सत्ताएं हैं, सजीव प्रभाव हैं । जैसे ही हम अपनी सत्ता के उच्चतर स्तरों के प्रति जागरित होते हैं, हम जान जाते हैं कि ये या तो मित्र हैं या शत्रु, या तो ऐसी शक्तियां हैं जो हमपर अधिकार करना चाहती हैं या फिर ऐसी जिन्हें हम अपने अधिकार में ला सकते हैं, जीत सकते हैं, पार करके पीछे छोड़ जा सकते हैं । यूरोपीय गुह्यविद्या, विशेषकर मध्य युगों में, एक बड़ी हदतक प्राणलोक की शक्तियों के साथ मनुष्य के इस सम्भावित सम्बन्ध की खोज में ही ग्रस्त थी; पूर्वीय जादू और अध्यात्मविद्या के कुछ रूप भी बहुत बड़े अंश में इसीमें व्यस्त थे । भूतकाल में अन्धविश्वास बहुत अधिक था, अर्थात् अज्ञानपूर्ण तथा विकृत मान्यताएं बहुत अधिक फैली हुई थीं, उनकी मिथ्या व्याख्याएं तथा परे स्थित लोक के नियमों की अस्पष्ट और भद्दी विवेचनाएं प्रचलित थीं । तथापि भूतकाल के इन ''अन्धविश्वासों'' के पीछे कुछ सत्य विद्यमान थे । भावी विज्ञान, एकमात्र जड़-जगत् में व्यस्त रहने की अपनी प्रवृत्ति से मुक्त होकर, इन सत्यों को फिर से खोज सकता है । क्योंकि, अतिभौतिक लोक भी उतना ही वास्तविक है जितना कि स्थूलभौतिक जगत् में मनोमय प्राणियों का अस्तित्व ।
तो फिर, हमारे पीछे जो इतना कुछ विद्यमान है और हमपर सदा दबाव डाल रहा है उससे हम साधारणतया सचेतन क्यों नहीं हैं ? उसी कारण से जिस कारण कि हम अपने पड़ोसी के अन्तर्जीवन के प्रति सचेतन नहीं हैं, यद्यपि वह हमारे अन्तर्जीवन के समान ही अस्तित्व रखता है और हमपर निरन्तर एक गुह्य प्रभाव डाल रहा है, --क्योंकि हमारे विचार और भाव, अधिकांश में, हमारे अन्दर बाहर से ही आते हैं, अर्थात् वे हमारे मनुष्य-भाइयों से, व्यक्तियों तथा मानवजाति के सामुहिक मन--दोनों से आते हैं; और फिर, अपने पीछे अवस्थित प्राणलोक को हम उसी कारण से नहीं जानते जिस कारण कि हम अपनी सत्ता के उस महत्तर भाग को नहीं जानते जो हमारे जाग्रत् मन के लिये अवचेतन या प्रच्छन्न है और हमारी तलीय सत्ता पर सदैव प्रभाव डाल रहा है तथा गुह्य ढंग से उसका निर्धारण भी कर रहा है । प्राणलोक को न जानने का कारण यह है कि साधारणत: हम अपनी भौतिक इन्द्रियों का ही प्रयोग करते हैं और प्रायः पूर्ण रूप से शरीर, स्थूल प्राण और स्थूल मन में निवास करते हैं, पर प्राणलोक सीधे इन करणों के द्वारा ही हमारे सम्पर्क में नहीं आता । यह सम्पर्क वा सम्बन्ध हमारी सत्ता के अन्य कोषों के द्वारा स्थापित होता है, --उपनिषदों में इन्हें कोष ही कहा गया है, --बाद की
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परिभाषावलि में इन्हें जो नाम दिया गया है उसके अनुसार कहें तो यह अन्य शरीरों के द्वारा स्थापित होता है । वे कोष या शरीर हैं--मनोमय कोष या सूक्ष्म शरीर जिसमें हमारा सच्चा मनोमय पुरुष वास करता है और प्राणमय कोष या प्राणिक शरीर जो स्थूल या अन्नमय कोष के साथ अधिक निकट रूप में सम्बद्ध है और इसके साथ मिलकर हमारी जटिल सत्ता के स्थूल शरीर का निर्माण करता है । इन कोषों में ऐसी शक्तियां, इन्द्रियां और क्षमताएं हैं जो गुप्त रूप से हममें सदा ही कार्य कर रही हैं और हमारे स्थूल करणों के साथ तथा स्थूल प्राण और मन के चक्रों के साथ सम्बद्ध हैं और इनपर आघात करती हैं । आत्म-विकास के द्वारा हम इन्हें जान सकते हैं, इनके अन्दर अपना जीवन धारण कर सकते हैं, इनके द्वारा प्राणलोक तथा अन्य लोकों के साथ सचेतन सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं और स्वयं जड़-जगत् के भी सत्यों, तथ्यों तथा घटनाओं का अधिक सूक्ष्म अनुभव एवं अधिक अन्तरंग ज्ञान प्राप्त करने के लिये इनका प्रयोग भी कर सकते हैं । अपनी सत्ता का स्थूल भौतिक स्तर ही आज हमारे लिये सर्वेसर्वा है, किन्तु उक्त आत्मविकास के द्वारा हम इससे भिन्न अन्य स्तरों पर भी कम या अधिक पूर्ण रूप से निवास कर सकते हैं ।
प्राणलोक के विषय में जो कुछ कहा गया है वह, आवश्यक फेरफार के साथ, विश्व-सत्ता के और अधिक ऊंचे स्तरों पर भी लागू होता है । क्योंकि, इसके परे मनोमय भूमिका है, मानसिक सत्ता का लोक है जिसमें प्राण और जड़तत्त्व नहीं, बल्कि मन ही प्रधान निर्धारक है । मन वहां स्थूल भौतिक अवस्थाओं या प्राणशक्ति के द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि वह स्वयं ही अपनी संतुष्टि के लिये उनका निर्धारण और प्रयोग करता है । वहां मन अर्थात् मानसिक एवं बौद्धिक सत्ता एक अर्थ में स्वतंत्र है, और नहीं तो वह अपने-आपको एक ऐसे ढंग से सन्तुष्ट और चरितार्थ करने के लिये स्वतंत्र अवश्य है जिसे हमारा देहबद्ध और प्राणबद्ध मन कदाचित् कल्पना में भी नहीं ला सकता; क्योंकि वहां पुरुष शुद्ध मनोमय सत्ता है और यह शुद्धतर मानसिक सत्ता ही प्रकृति के साथ उसके सम्बन्धों का निर्माण करती है, प्रकृति वहां वस्तुत: प्राणिक और भौतिक न होकर मानसिक है । प्राणलोक और परोक्ष रूप से अन्नमय लोक--दोनों ही मनोमय लोक का प्रक्षेप हैं, मनोमय पुरुष की कुछ विशेष प्रवृत्तियों ने जो अपने लिये उपयुक्त क्षेत्र, अवस्थाएं तथा सामंजस्यों की एक व्यवस्था प्राप्त करने का यत्न किया है उसके परिणाम के रूप में ये दोनों लोक प्रकट हुए हैं; और यह कहा जा सकता है कि इस जगत् में मन के जो व्यापार दिखायी देते हैं वे इस मनोमय स्तर का पहले तो प्राणलोक पर और फिर स्थूल जगत् के जीवन पर दबाव पड़ने के परिणामस्वरूप प्रकट हुए हैं । प्राणलोक में इसके अन्दर जो परिवर्तन होता है उसके द्वारा यह हमारे अन्दर कामनामय मन की सृष्टि करता है; अपने स्वभावगत अधिकार के बल पर यह
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हमारे अन्दर हमारे चैत्य-मानसिक और बौद्धिक जीवन की शुद्धतर शक्तियों को जागृत करता है । परन्तु हमारा स्थूल मन एक विशालतर प्रच्छन्न मन का, जिसका अपना विशिष्ट स्थान मनोमय स्तर है, एक गौण परिणाममात्र है । मनोमय सत्ता का यह लोक भी हमपर तथा हमारे जगत् पर अनवरत क्रिया कर रहा है, इसकी भी अपनी शक्तियां तथा अपने जीव हैं, यह भी हमारे मनोमय शरीर (कोष) के द्वारा हमारे साथ सम्बद्ध है । हम देखते हैं कि वहां चैत्य और मानसिक स्वर्ग हैं जिनकी ओर 'पुरुष' इस स्थूल शरीर का त्याग करने पर आरोहण कर सकता है और जबतक पार्थिव जीवन यापन करने का आवेग उसे फिर से नीचे की ओर नहीं खींचता तबतक वह वहां निवास कर सकता है । इस लोक में भी अनेक स्तर हैं, उनमें से सबसे निचला स्तर नीचे के लोकों से एक ही केन्द्र पर आ मिलता है तथा उनके साथ घुल-मिलकर एक हो जाता है । उनमें से सबसे ऊंचा स्तर मन:-शक्ति के शिखरों पर अधिक आध्यात्मिक सत्ता के लोकों के साथ घुल-मिलकर एक हों जाता है ।
अतएव, ये उच्चतम लोक अतिमानसिक हैं; ये अतिमानस अर्थात् मुक्त, आध्यात्मिक या दिव्य बुद्धि (intelligence)१ या विज्ञान के तत्त्व से तथा सच्चिदानन्द के त्रिविध आध्यात्मिक तत्त्व से सम्बन्ध रखते हैं । जब 'पुरुष' प्रकृति के साथ आत्मा की क्रीड़ा की कुछ विशिष्ट या संकीर्ण अवस्थाओं को प्राप्त कर एक प्रकार का पतन अनुभव करता है तो उस प्रकार के पतन के कारण इन उच्चतम लोकों से निम्न लोक उत्पन्न होते हैं । परन्तु ये उच्च लोक भी किसी अलंध्य खाई के द्वारा हमसे पृथक् नहीं हैं; ये 'आनन्दमय' और 'विज्ञानमय' नामक कोषों के द्वारा, कारण शरीर या आध्यात्मिक शरीर के द्वारा तथा, कम प्रत्याक्ष रूप में, मनोमय शरीर (कोष) के द्वारा हमपर प्रभाव डालते हैं यह बात भी नहीं है की उनकी गुप्त शक्तियां हमारी प्राणिक और भौतिक सत्ता के व्यापारों में कार्य न कर रही हों | प्राण और शरीर में विद्धमान मनोमय सत्ता पर इन उच्चतम लोकों का दबाव पड़ने के परिणामस्वरूप ही हमारे अन्दर हमारी सचेतन आध्यात्मिक सत्ता और हमारा अन्तर्ज्ञानात्मक मन जागृत होते हैं | परन्तु जैसा की हम कहते हैं, यह कारण शरीर ( या आध्यात्मिक शरीर ) मानवजाति के अधिक बड़े भाग में नहीं के बराबर विकसित है इस कारण शरीर में निवास करना अथवा, मनोमय सत्ता के विज्ञान-भूमिका-सम्बद्ध उपस्तरों से भिन्न, अतिमानसिक स्तरों की ओर आरोहण करना, या इससे भी बढ़कर इनमें सचेतन रूप से स्थित रहना मनुष्य के लिये सबसे अधिक कठिन कार्य है | यह समाधि की लियावस्था में ही साधित किया जा
१ इन्टेलिजेन्स (intelligence) विज्ञान या बुद्धि एक ऐसा शब्द है जो कुछ भ्रान्ति पैदा कर सकता है क्योंकि यह उस मानसिक बुद्धि के लिये भी प्रयुक्त होता है जो दिव्य विज्ञान से निकली हुई एक निम्नतर शक्ति मात्र है |
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सकता है, पर किसी अन्य प्रकार से तो यह व्यष्टिभूत 'पुरुष' की सामर्थ्यों में एक नये विकास के द्वारा ही साधित हो सकता है जिसकी कल्पना करने के लिये भी बहुत ही कम लोग तैयार हैं । तथापि यही उस पूर्ण आत्म-चेतना की शर्त है जिसके द्वारा ही पुरुष प्रकृति के ऊपर पूर्ण सचेतन नियंत्रण प्राप्त कर सकता है; क्योंकि उस चेतना में हमारी प्रकृति के निम्नतर प्रभेदकारी करणों का नियमन मन भी नहीं करता, बल्कि परम आत्मा ही अपनी सत्ता की गौण भूमिकाओं के रूप में स्वतंत्रतापूर्वक उनका प्रयोग करता है । ये गौण भूमिकाएं उच्चतर भूमिकाओं के द्वारा शासित होती हैं तथा उन्हींकी सहायता से अपनी पूर्ण सामर्थ्य प्राप्त करती हैं । यही (परम आत्मा के द्वारा निम्नतर भूमिकाओं का प्रयोग एवं उनपर शासन ही) निवर्तित वस्तुओं के पूर्ण विवर्तन तथा अविकसित वस्तुओं के विकास की अवस्था होगी । इस विवर्तन एवं विकास के लिये ही 'पुरुष' ने, मानों अपने ही साथ बाजी लगाकर, जड़-जगत् में बड़ी-सें-बड़ी कठिनाई की अवस्थाओं को स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया है ।
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