Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २७
हठयोग
योग के जितने विभिन्न मार्ग हैं लगभग उतने ही समाधितक पहुंचने के साधन भी हैं । जबतक हम शरीर में हैं तबतक समाधि की पूर्ण प्राप्ति एवं उपभोग केवल उच्चतम चेतना में ही किया जा सकता है । निःसन्देह, इस उच्चतम चेतना को प्राप्त करने के परम साधन के रूप में ही नहीं बल्कि स्वयं इस उच्चतम चेतना की असली शर्त्त और अवस्था के रूप में भी समाधि को इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है कि योग की कई एक साधनाएं तो ऐसी दिखायी देतीं है मानों वे केवल समाधितक पहुंचने के साधनमात्र हों । परम देव के साथ एकत्व की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना तथा इसे प्राप्त करना--यही सब योगों का स्वरूप है । परम देव के साथ एकत्व का अर्थ है उनकी सत्ता के साथ तथा उनके चैतन्य और आनन्द के साथ एकत्व, अथवा यदि हम पूर्ण एकत्व के विचार को मानने से इंकार करें तो इस एकत्व का अर्थ होगा कम-से-कम किसी-न-किसी प्रकार का एकत्व, चाहे उसका स्वरूप यह हो कि केवल आत्मा भगवान् के साथ सत्ता की एक ही भूमिका एवं लोक में निवास करे, सालोक्य, या उनके साथ एक प्रकार की अविच्छेद्य समीपता में निवास करे, सामीप्य, यह एकत्व तभी प्राप्त हो सकता है यदि हम अपने साधारण, मन की चेतना से अधिक ऊंचे स्तर की एवं अधिक प्रगाढ़ चेतना में उठ जायें । हम देख ही चुके हैं कि समाधि एक इसी प्रकार के उच्चतर स्तर और महत्तर प्रगाढ़ता की स्वाभाविक भूमिका के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होती है । ज्ञानयोग में स्वभावत: ही इसका अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि उसकी विधि और उसके उद्देश्य का वास्तविक मूलसूत्र ही यही है कि मानसिक चेतना को एक ऐसी निर्मल अवस्था में तथा एकाग्र शक्ति में उठा ले जाये जिसके द्वारा यह वास्तविक सत्ता को पूर्ण रूप से जान सके, उसमें लीन होकर तद्रुप बन सके । परन्तु दो महान् साधन-पद्धतियां ऐसी भी हैं जिनमें यह और भी अधिक महत्त्व ग्रहण कर लेती है । वे हैं राजयोग और हठयोग । अब हम इन दोनों पद्धतियों पर भी विचार कर लें; क्योंकि ज्ञानमार्ग की विधि से इनकी विधियों का बड़ा भारी भेद होने पर भी, इनका भी मूलसूत्र वही है जो ज्ञानयोग का है और वही इन्हें अन्तिम रूप से सार्थक भी सिद्ध करता है । तथापि इन दो क्रमिक सोपानों के पीछे जो मूल भाव निहित है उसपर यहां प्रसंगवश दृष्टि डालने से अधिक कुछ करने की हमें आवश्यकता नहीं; क्योंकि समन्वयात्मक एवं सर्वांगीण योग में इनका महत्त्व दूसरे दर्जे का ही है; निःसन्देह, इनके लक्ष्यों को तो हमें अपने लक्ष्य में समाविष्ट करना होगा, पर इनकी विधियों का या तो सर्वथा त्याग कर देना होगा अथवा इनका प्रयोग प्रारम्भिक या प्रासंगिक सहायता प्राप्त करने के लिये ही करना होगा ।
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हठयोग एक शक्तिशाली, पर कठिन और कष्टप्रद प्रणाली है । इसकी क्रिया का सारा सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि शरीर और आत्मा में घनिष्ठ सम्बन्ध है । बंध और मोक्ष, पशूचित दुर्बलता और दिव्य शक्ति, मन और अन्तरात्मा की तमसाच्छन्नता तथा प्रकाशमयता, पीड़ा और अपूर्णता के प्रति अधीनता और आत्म-प्रभुता, मृत्यु और अमरता--इन सब द्वंद्वों की कुंजी एवं इनका रहस्य शरीर ही है । हठयोगी के लिये शरीर एक सजीव स्थूल द्रव्य का पिण्डमात्र नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक और भौतिक सत्ता के बीच एक गुह्य सेतु है; हमने हठयौगिक साधना के एक प्रतिभाशाली व्याख्याकार को वेदान्त के प्रतीक 'ओ३म्' की ऐसी व्याख्या करते भी देखा है कि यह इस गुह्य मानव-देह का प्रतिरूप है । पर यद्यपि वह सदा स्थूल शरीर की ही बात करता है और इसीको अपनी योग-क्रियाओं का आधार बनाता है, तथापि वह इसे शरीर-रचना-शास्त्री या शरीरक्रिया-विज्ञान की आंख से नहीं देखता, बल्कि इसका वर्णन एवं व्याख्या एक ऐसी भाषा में करता है जो सदा ही स्थूल देह-संस्थान के पीछे रहनेवाले सूक्ष्म शरीर की ओर दृष्टिपात करती है । वास्तव में, हठयोगी के सम्पूर्ण लक्ष्य का सार हम अपने दृष्टिकोण से इस रूप में प्रतिपादित कर सकते हैं, --यद्यपि वह स्वयं इसे इन शब्दों में प्रस्तुत करना नहीं चाहेगा, --कि वह इस स्थूल शरीर में आत्मा को कुछ निश्चित वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के द्वारा एक ऐसी शक्ति, ज्योति, पवित्रता एवं स्वतन्त्रता तथा उत्तरोत्तर उर्ध्व स्तरों की ऐसी आध्यात्मिक अनुभूतियां प्रदान करने का यत्न करता हैं जो आत्मा के लिये, यहां सूक्ष्म शरीर में तथा विकसित कारण शरीर में निवास करने पर, स्वभावत: ही सुलभ होंगी ।
जो लोग विज्ञान के विचार का सम्बन्ध केवल स्थूल जगत् के बाह्य दृग्विषयों से ही जोड़ते हैं तथा इनके पीछे जो कुछ है उस सबसे इसे पृथक् रखते हैं उनको हठयोग की प्रक्रियाओं के वैज्ञानिक होने की बात विचित्र प्रतीत हो सकती है; पर ये प्रक्रियाएं भी समान रूप से, नियमों तथा उनकी क्रियाओं के सुनिश्चित अनुभव पर आधारित हैं और ठीक ढंग से अनुसरण करने पर सुपरीक्षित परिणामों को उत्पन्न करती हैं । वास्तव में, हठयोग, अपने ही ढंग से, ज्ञान प्राप्त करने की एक प्रणाली है; पर जहां वास्तविक ज्ञानयोग आध्यात्मिक साधना के रूप में क्रियान्वित किया गया सत्ता का तत्त्वज्ञान है, अर्थात् एक मनोवैज्ञानिक प्रणाली है, वहां हठयोग सत्ता का विज्ञान है, अर्थात् एक मनोभौतिक प्रणाली है । दोनों ही भौतिक, आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक परिणामों को उत्पन्न करते हैं; पर ये एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न ध्रुवों पर स्थित हैं, अतएव, इनमें से एक के लिये तो मनोभौतिक परिणाम बहुत ही कम महत्व रखते हैं, एकमात्र शुद्ध आन्तरात्मिक एवं आध्यात्मिक परिणाम ही महत्त्वपूर्ण हैं, यहांतक कि शुद्ध आन्तरात्मिक भी हमारे सम्पूर्ण ध्यान को आकृष्ट करनेवाले आध्यात्मिक परिणामों के सहायकमात्र होते हैं; दूसरे मे (हठयोग
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में) भौतिक परिणाम का महत्त्व अत्यन्त गुरुतर है, आन्तरात्मिक परिणाम एक कफी बड़ा फल है, आध्यात्मिक एक चरम-परम परिणति है, पर शरीर हमसे अपने लिये जिस ध्यान की मांग करता है वह इतना अधिक और सर्वग्रासी होता है कि आध्यात्मिक परिणति दीर्घकालतक एक स्थगित एवं दूरस्थ वस्तु प्रतीत होती है । तथापि यह नहीं भूलना चाहिये कि दोनों अवश्यमेव एक ही लक्ष्य पर पहुंचते हैं । हठयोग भी परम देव की प्राप्ति का एक मार्ग है, यद्यपि यह एक लंबी, कठिन और अतिसावधानतापूर्ण प्रक्रिया के द्वारा आगे बढ़ता है, दुःखम् आप्तुम् ।
योगमात्र अपनी प्रणाली में साधना के तीन मूल तत्त्वों के द्वारा अग्रसर होता है; उनमें से पहला है शुद्धि अर्थात् हमारे भौतिक, नैतिक और मानसिक संस्थान में सत्ता की शक्ति की मिश्रित और अनियमित क्रिया से जो भी भूलें, गड़बड़ियां और बाधाएं उत्पन्न होती हैं उन सबको दूर करना । दूसरा है एकाग्रता, अर्थात् एक निश्चित लक्ष्य के लिये सत्ता की उस शक्ति को अपने अन्दर पूर्ण उत्कर्षतक ले जाना तथा प्रभुत्व और आत्मनिर्देशन के साथ उसका उपयोग करना । तीसरा है मुक्तता, अर्थात् मिथ्या और सीमित लीला में व्यष्टिभावापन्न शक्ति की जो संकीर्ण और दुःखमय ग्रंथियां आज हमारी प्रकृति के नियम के रूप में कार्य करती हैं उनसे अपनी सत्ता को मुक्त करना । हमारी यह मुक्त सत्ता हमें परम देव के साथ एकत्व या मिलन प्राप्त कराती है, इस मुक्त सत्ता का उपभोग ही हठयोग की चरम परिणति है; इसीके लिये योग किया जाता है । ये तीन अनिवार्य सोपान हैं और इसी प्रकार तीन उच्च, उन्मुक्त और असीम स्तर भी हैं जिनकी ओर ये सोपान आरोहण करते हैं; और हठयोग अपनी समस्त साधना में इन्हें दृष्टि में रखता है ।
इसकी भौतिक साधना के मुख्य अंग दो हैं, आसन और प्राणायाम, अन्य सब अंग तो इनके सहायकमात्र हैं । आसन का अभिप्राय है शरीर को निश्चलता की कुछ स्थितियों का अभ्यासी बनाना और प्राणायाम का अभिप्राय है श्वास-प्रश्वास के व्यायामों के द्वारा शरीर में प्राणशक्ति की धाराओं का नियमित संचालन तथा नियन्त्रण । स्थूल आधार हमारा यन्त्र है; पर स्थूल आधार दो तत्त्वों से अर्थात् भौतिक और प्राणिक तत्त्वों किंवा शरीर और जीवन-शक्ति से बना दुआ है; इनमें से शरीर प्रत्यक्ष यन्त्र और आधार है और जीवन-शक्ति अर्थात् प्राण-बल और वास्तविक यन्त्र है । ये दोनों ही यन्त्र आज हमारे स्वामी हैं । हम शरीर के दास हैं, हम प्राणशक्ति के अधीन हैं; यद्यपि हम आत्मा हैं, मनोमय प्राणी हैं तथापि अत्यन्त परिमित अंश में ही हम इनके स्वामी होने की वृत्ति को धारण कर सकते हैं । हम एक तुच्छ एवं सीमित भौतिक प्रकृति से बंधे हैं, और परिणामस्वरूप एक तुच्छ एवं सीमित प्राणशक्ति से भी बंधे हैं; हमारा शरीर बस इसी प्राणशक्ति को धारण करने में समर्थ है अथवा इसीको कार्यक्षेत्र प्रदान कर सकता है । इसके अतिरिक्त, हमारे अन्दर इनमें से प्रत्येक की तथा दोनों की क्रिया क्षूद्रतम सीमाओं के ही नहीं, बल्कि
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सतत अशुद्धता के भी अधीन है; हर बार जब कि इस अशुद्धता को सुधारा जाता है यह फिर पैदा हो जाती है । साथ ही, इनकी क्रिया सब प्रकार की गड़बड़ियों की शिकार भी होती रहती है जिनमें से कुछ तो इनका सामान्य अंग-सी हैं, एक प्रकार की उग्र अवस्था हैं, हमारे साधारण एवं स्थूल जीवन का भाग हैं; उनके अतिरिक्त कुछ अन्य गड़बड़ियां भी हैं जो असामान्य ढंग की हैं, अर्थात् इनकी व्याधियां और अस्तव्यस्त स्थितियां हैं । हठयोग को इन सबसे निपटना होता है; उसे इन सबपर विजय पानी होती है; और यह कार्य वह मुख्यत: इन्हीं दो पद्धतियों के द्वारा करता है; इनकी क्रिया तो जटिल और कष्टप्रद है, पर इनका मूल सिद्धान्त सीधा-सादा है और साथ ही ये प्रभावशाली भी हैं ।
हठयोग की आसन-प्रणाली के मूल में दो गभीर विचार निहित हैं जिनसे अनेक प्रभावपूर्ण फलितार्थ निकलते हैं । पहला है शरीर की निश्चलता के द्वारा आत्मनियन्त्रण का विचार, दूसरा है निश्चलता के द्वारा शक्ति की प्राप्ति का विचार । शारीरिक निश्चलता की शक्ति हठयोग में उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी ज्ञानयोग में मानसिक निश्चलता की शक्ति, और इन दोनों के महत्त्व के कारण भी एक-से ही हैं । हमारी सत्ता और प्रकृति के गभीरतर सत्यों के प्रति अनभ्यस्त मन को ये दोनों ऐसी प्रतीत होंगी मानो ये जड़ता की उदासीन निष्क्रियता की खोज कर रही हों । पर सत्य इससे ठीक उल्टा है; क्योंकि यौगिक निष्क्रियता, वह चाहे मन की हो या शरीर की, शक्ति को अधिक-से-अधिक बढ़ाने, अधिकृत और संयमित करने की शर्त है । हमारे मनों की सामान्य क्रिया अधिकांश में एक प्रकार की अव्यवस्थित चंचलता है, इस क्रिया में शक्ति का क्षय होता है किंवा उसे परीक्षणों के रूप में वेगपूर्वक लुटाया जाता है; शक्ति के इस व्यय-अपव्यय में से केवल थोड़ा-सा अंश ही एक आत्मप्रभुत्वपूर्ण संकल्प के क्रिया-व्यापार के लिये चुना जाता है, --यहां यह समझ लेना होगा कि शक्ति का यह व्यय इस दृष्टिबिन्दु से ही अपव्यय कहलाता है न कि विश्व-प्रकृति के दृष्टिबिन्दु से । जो व्यय हमें सर्वथा निरर्थक प्रतीत होता है वह भी विश्व-प्रकृति के दृष्टिकोण के अनुसार उसकी अपनी मितव्ययपूर्ण व्यवस्था के उद्देश्यों में सहायक होता है । हमारे शरीरों की चेष्टा भी एक उक्त प्रकार की चंचलता है ।
यह इस बात का चिह्न है कि शरीर में जो परिमित-सी प्राण-शक्ति प्रविष्ट या उत्पन्न होती है उसे भी वह धारण करने में सदा असमर्थ रहता है; परिणामतः, यह इस बात का भी चिह्न है कि यह प्राण-शक्ति सामान्य रूप से ही विकीर्ण होती रहती है और व्यवस्थित एवं परिमितव्यय-युक्त क्रिया का तत्त्व तो सर्वथा गौण ही होता है । अपि च, फलस्वरूप, जो प्राणिक शक्तियां शरीर में साधारणतः कार्य करती हैं उनकी गति और परस्परक्रिया के बीच जो आदान-प्रदान एवं सन्तुलन स्थापित होता है उसमें तथा जो शक्तियां शरीर पर बाहर से क्रिया करती हैं,
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चाहे दूसरों की हों या चारों ओर के वातावरण में विविध रूप से कार्य करनेवाली सार्वभौम प्राणशक्ति की, उनके साथ इन पूर्वोक्त शक्तियों का जो आदान-प्रदान चलता है उसमें निरन्तर ही एक अनिश्चित सन्तुलन एवं सामंजस्य स्थापित होता रहता है जो किसी भी क्षण बिगड़ सकता है । प्रत्येक बाधा, प्रत्येक त्रुटि, प्रत्येक अति एवं प्रत्येक आघात नाना प्रकार की अशुद्धता और अव्यवस्था उत्पन्न करता है । प्रकृति को जब अपने ऊपर छोड़ दिया जाता है तो वह अपने उद्देश्यों के लिये इन सबसे अपना कार्य खूब अच्छी तरह चला लेती है । परन्तु ज्यों ही मनुष्य का भ्रान्तिशील मन और संकल्प उसकी आदतों और प्राणिक अन्धप्रवृत्तियों एवं सहज स्फुरणाओं में हस्तक्षेप करते हैं, विशेषकर जब वे झूठी या बनावटी आदतें पैदा कर देते हैं, तब एक और भी अधिक अनिश्चित व्यवस्था एवं बारंबार पैदा होनेवाली अव्यवस्था हमारी सत्ता का नियम बन जाती हैं । तथापि यह हस्तक्षेप होना अनिवार्य है, क्योंकि, मनुष्य अपने अन्दर की प्राणिक प्रकृति के प्रयोजनों के लिये ही नहीं बल्कि उन उच्चतर प्रयोजनों के लिये भी जीवन धारण करता है जिन्हें प्रकृति अपने प्रथम सन्तुलन के समय विचार में ही नहीं लायी थी और जिनके साथ उसे कठिनतापूर्वक अपनी क्रियाओं का मेल बिठाना होता है । अतएव, एक महत्तर स्थिति या क्रियाशीलता को प्राप्त करने के लिये सबसे पहली आवश्यक बात यह है कि इस अव्यवस्थित चंचलता से छुटकारा पाया जाये, क्रिया को शान्त करके नियन्त्रित किया जाये । हठयोगी को शरीर और प्राणशक्ति की स्थितिशीलता और क्रियाशीलता के एक असामान्य सन्तुलन को साधित करना होता है, वह सन्तुलन असामान्य होते हुए भीं महत्तर अवस्था की ओर नहीं बल्कि उच्चता और आत्म- प्रभुत्व की ओर उच्च होता है ।
आसन की निश्चल स्थिति का पहला उद्देश्य यह है कि शरीर पर जो चंचल क्रिया बलात् थोपी जाती है उससे मुक्त दुआ जाये तथा इसे (शरीर को) बाध्य किया जाये कि यह प्राणशक्ति को बिखेरने और लुटाने के स्थान पर उसे अपने अन्दर धारण करे । आसन के अभ्यास में जो अनुभव होता है वह यह नहीं है कि निष्क्रियता के द्वारा शक्ति निरुद्ध एवं क्षीण होती है, वरन् यह कि इससे शक्ति की मात्रा, उसका अन्त-प्रवाह एवं संचार अत्यधिक बढ़ जाता है । पर, क्योंकि हमारा शरीर अतिरिक्त शक्ति को हिलने-डुलने के द्वारा बाहर निकालने का आदी है, अतएव शुरू में वह इस वृद्धि तथा इस धारित अन्तःक्रिया को अच्छी तरह सहन नहीं कर सकता और प्रबल कंपनों के द्वारा इसे बाहर बिखेर देता है; आगे चलकर वह इसे धारण करने में अभ्यस्त हो जाता है और जब आसन सिद्ध हो जाता है तब वह बैठने के उस विशिष्ट ढंग में भी, जो चाहे आरम्भ में उसके लिये कठिन या अस्वाभाविक ही क्यों न रहा हो, उतना ही आराम अनुभव करता है जितना बैठने या सहारा लेने के सरल-से-सरल ढंगों में । उसपर प्रभाव डालने के लिये
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बढ़ी हुई प्राण-शक्ति की जितनी भी मात्रा प्रयोग में लायी जाती है उसे वह धारण करने में उत्तरोत्तर समर्थ होता जाता है और उसे इस वृद्धिगत मात्रा को चेष्टाओं के रूप में बहा देने की जरूरत नहीं होती, और शक्ति की यह वृद्धि इतनी विपुल होती है कि इसकी कोई सीमा नहीं दिखायी देती; फलतः, सिद्ध हठयोगी का शरीर सहिष्णुता और बल तथा अथक शक्ति-प्रयोग के ऐसे करतबों को कर सकता है कि जिन्हें मनुष्य की सामान्य भौतिक शक्तियां अपनी पराकाष्ठा को पहुंचकर भी नहीं कर सकतीं । क्योंकि, वह इस शक्ति को केवल धारण करके सुरक्षित ही नहीं रख सकता, बल्कि देह-संस्थान पर इसके प्रभुत्व तथा उसके अन्दर इसकी अधिक पूर्ण गति को सहन भी कर सकता है । इस प्रकार जब प्राणशक्ति शान्त और निष्किय शरीर को अपने अधिकार में लाकर एक शक्तिशाली एवं समरस क्रिया के रूप में उसपर कार्य करती है तथा धारक शक्ति और धारित शक्ति के अस्थिर सन्तुलन से मुक्त हों जाती है तो यह एक कहीं अधिक महान् तथा प्रभावशाली शक्ति बन जाती है । वास्तव में, तब ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर ने इसे अपने अन्दर धारण नहीं किया है और न वह इसे अधिकृत एवं प्रयुक्त ही करता है वरन् सच पूछो तो उसीने शरीर को अपने अन्दर धारण किया है तथा वही उसे अधिकृत और प्रयुक्त करती है, --जैसे कि चंचल सक्रिय मन में जब कोई आध्यात्मिक शक्ति प्रविष्ट होती है तो वह इसपर अधिकार जमाकर अनियमित तथा अपूर्ण रूप में इसका प्रयोग करता प्रतीत होता है, पर यही आध्यात्मिक शक्ति जब प्रशान्त मन में आती है तो उसे धारण करती है तथा अधिकृत करके प्रयोग में लाती है ।
इस प्रकार शरीर अपने-आपसे मुक्त हो जाता है, अपनी बहुत-सी अव्यवस्थाओं एवं अनियमितताओं से रहित होकर शुद्ध हो जाता है और आसन के द्वारा आंशिक रूप से तथा आसन और प्राणायाम की सम्मिलित प्रक्रिया के द्वारा तो पूर्ण रूप से ही एक सिद्ध यन्त बन जाता है । इसके अन्दर जो शीघ्र ही थक जाने की प्रवृत्ति है उससे यह मुक्ता हो जाता है; यह स्वास्थ्य की अमित शक्ति प्राप्त कर लेता है; क्षय, जरा और मरण की इसकी प्रवृत्तियां अवरुद्ध हो जाती हैं । साधारण आयुर्मान के बहुत आगे पहुंची हुई अवस्था में भी हठयोगी शारीरिक जीवन के बलवीर्य, स्वास्थ्य और यौवन को अक्षुण्ण बनाये रखता है; यहांतक कि दैहिक यौवन का बाह्य स्वरूप भी दीर्घकालतक सुरक्षित रहता है । उसमें दीर्घजीवन की शक्ति औरों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है, और उसके दृष्टिकोण से, शरीर के यन्त्र होने के कारण, दीर्घकालतक इसे सुरक्षित रखना तथा उस सारे काल में इसे क्षयकारी दोषों से मुक्त रखना कोई कम महत्त्व की बात नहीं है । यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि हठयोग में कितने ही प्रकार के आसन हैं जिनकी कुल संख्या अस्सी से ऊपर पहुंचती है । उनमें से कुछ तो अत्यन्त ही जटिल और दुष्कर हैं । आसनों की इतनी अधिक विविधता कुछ तो ऊपर दिखाये गये परिणामों में वृद्धि करने तथा शरीर के
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प्रयोग में अत्यधिक स्वाधीनता और नमनीयता प्रदान करने में सहायक होती है, पर साथ ही यह शरीर की भौतिक शक्ति और पृथ्वी की शक्ति जिसके साथ कि वह सम्बद्ध है--इन दोनों के सम्बन्ध को बदलने में भी सहायता करती है । इसका एक परिणाम यह होता है कि पृथ्वी-शक्ति का भारी पंजा ढीला पड़ जाता है जिसका पहला लक्ष्य यह है कि शरीर थकावट की प्रवृत्ति पर विजय पा लेता है और अन्तिम लक्षण यह है कि उत्थापन या आंशिक लघिमा के अद्भुत दृग्विषय का प्रत्यक्ष अनुभव होता है । स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर की प्रकृति को कुछ-कुछ प्राप्त करके प्राणशक्ति के साथ इसके सम्बन्धों को कुछ अंश में आयत्त करने लगता है; वह एक अधिक महान् शक्ति का रूप धारण कर लेता है जो अधिक सबल रूप में अनुभूत होती है और फिर भी एक अपेक्षाकृत हल्की, मुक्त और अधिक सूक्ष्मतायोग्य भौतिक क्रिया को सम्पन्न कर सकती है तथा ऐसी शक्तियां भी प्राप्त कर सकती है जो अपनी पराकाष्ठा को पहुंचकर हठयोग की सिद्धियों या गरिमा, महिमा, अणिमा और लघिमा की असाधारण शक्तियों में परिणत हो जाती है । इसके अतिरिक्त प्राण स्थूल इन्द्रियों और करणों की क्रिया पर, उदाहरणार्थ, हृदय की धड़कनों और श्वास-प्रश्वास पर पूर्ण रूप से निर्भर रहना छोड़ देता है । ये क्रियाएं अन्त में जीवन की समाप्ति या क्षति हुए बिना स्थगित की जा सकती हैं ।
यह सब आसन और प्राणायाम की चरम-परम परिणति है, तथापि यह एक आधारभूत भौतिक शक्ति और स्वतन्त्रतामात्र है । हठयोग का उच्चतर उपयोग तो अधिक घनिष्ठ रूप से प्राणायाम पर निर्भर करता है । आसन अत्यधिक प्रत्यक्ष रूप में सम्पूर्ण भौतिक सत्ता के अधिक स्कूल भाग पर कार्य करता है; यद्यपि यहां भी इसे प्राणायाम की सहायता की जरूरत पड़ती है । प्राणायाम आसन से प्राप्त होनेवाली भौतिक निष्चलता और आत्म-नियन्त्रण को लेकर चलता है और अधिक प्रत्यक्ष रूप में सूक्ष्मतर प्राणिक भागों पर अर्थात् स्नायुमण्डल पर कार्य करता है । यह कार्य श्वास-क्रिया के विविध प्रकार के नियन्त्रणों सें सम्पन्न किया जाता है जिनमें से सर्वप्रथम है रेचक और पूरक की समानता । यह नियन्त्रण आगे बढ़ता हुआ इन दोनों के अत्यन्त तालबद्ध नियन्त्रणों का रूप धारण कर लेता है, जिनमें रेचक और पूरक के बीच कुछ काल के लिये प्राण का कुंभक भी किया जाता है । शुरू-शुरू में प्राण का कुंभक करने (इसे अपने अन्दर रोके रखने) के लिये कुछ प्रयत्न करना पड़ता है, पर अन्त में यह और इसकी समाप्ति दोनों उतने ही सुगम हो जाते हैं और उतने ही स्वाभाविक प्रतीत होते हैं जितने कि श्वास का बारम्बार अन्दर लेना एवं बाहर फेंकना जो कि प्राण का साधारण व्यापार है । परन्तु प्राणायाम के प्रमुख लक्ष्य ये हैं--स्नायुसंस्थान को शुद्ध करना, सभी स्नायुओं में बिना किसी रुकावट, गड़बड़ी या अनियमितता के प्राणशक्ति को संचारित करना और इसकी क्रियाओं पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त करना ताकि देहस्थित आत्मा का मन और संकल्प
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न तो देह या प्राण के अधीन रहे और न इन दोनों की सम्मिलित संकीर्णताओं के । प्राण के इन व्यायामों में स्नायुमण्डल की शुद्ध और अव्याहत स्थिति को लाने की जो शक्ति है वह हमारे शरीर-क्रिया-विज्ञान का प्रसिद्ध और सुप्रतिष्ठित तथ्य है । प्राणायाम की शक्ति देह-संस्थान को स्वच्छ करने में भी सहायता पहुंचाती है, परन्तु आरम्भ में यह उसके सब मार्गों और प्रणालिकाओ को शुद्ध करने में पूर्ण रूप से प्रभावशाली नहीं सिद्ध होती; अतएव हठयोगी उनमें जमा हुई सब प्रकार की मलिनताओं को नियमपूर्वक साफ करने के लिये परिपूरक के रूप में स्थूल विधियों का भी प्रयोग करता है । आसन और प्राणायाम के साथ मिलकर ये विधियां, --विशेष प्रकार के आसनों के परिणामस्वरूप विशेष प्रकार की व्याधियां भी मिट जाती हैं, --शरीर के स्वास्थ्य को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखती हैं । परन्तु मुख्य लाभ यह होता है कि इस शुद्धता के कारण प्राण-शक्ति को कहीं भी, शरीर के किसी भी भाग में और किसी भी प्रकार से या उसकी अपनी गति के किसी भी प्रकार के लयताल के साथ परिचालित किया जा सकता है ।
फेफड़ों में केवल सांस भरने और उनसे बाहर निकालने की क्रिया तो हमारे देह-संस्थान में प्राण या जीवन-श्वास की एक ऐसी अत्यन्त गोचर एवं बाह्य गतिमात्र है जो हमारी पकड़ में आ सकती है । योग-विघा के अनुसार प्राण की गति पांच प्रकार की है जो सम्पूर्ण स्नायुमण्डल तथा सारे भौतिक शरीर में व्याप्त है तथा इसकी सब क्रियाओं का निर्धारण करती है । हठयोगी श्वास-प्रश्वास की बाह्य क्रिया को एक प्रकार की कुंजी मानकर अपने अधिकार में ले आता है; यह कुंजी उसके लिये प्राण की इन पांचों शक्तियों के नियन्त्रण का द्वार खोल देती है । वह इनकी आन्तरिक क्रियाओं को प्रत्यक्ष रूप में जान लेता है, अपने सारे शारीरिक जीवन और कार्य से मानसिक रूप में सचेतन हो जाता है । वह अपने देह संस्थान की सभी नाड़ियों या स्नायु-प्रणालिकाओं में से प्राण का संचालन करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । वह छ: चक्रों में अर्थात् स्नायुमण्डल के छ: स्नायुग्रन्थिमय केन्द्रों में होनेवाली प्राण की क्रिया को जान जाता है, और इनमें से प्रत्येक में वह इसे इसकी वर्तमान सीमित, अभ्यस्त और याचिक क्रियाओं से परे उन्मुक्त कर देने में समर्थ होता है । संक्षेप में, वह शरीरगत प्राण के अत्यन्त सूक्ष्म स्नायविक तथा स्थूलतम भौतिक रूपों पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है, यहांतक कि इसके अन्दर के उस तत्त्व को भी अपने नियन्त्रण में ले आता है जो इस समय हमारी इच्छा के अधीन नहीं है तथा हमारे द्रष्टृस्वरूप चैतन्य और संकल्प की पहुंच के बाहर है । इस प्रकार शरीर और प्राण दोनों की क्रियाओं की शुद्धि के आधार पर हमें इन दोनों पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त हो जाता है तथा हम इनका स्वतन्त्र और प्रभावपूर्ण उपयोग करने लगते हैं, यह प्रभुत्व एवं उपयोग ही हठयोग के उच्चतर लक्ष्यों के लिये नींव का काम करते हैं ।
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परन्तु ये सब प्राप्तियां अभी केवल आधार ही हैं, अर्थात् ये हठयोग के द्वारा प्रयुक्त दो यन्त्रों की बाह्य और आन्तर भौतिक अवस्थाएं मात्र हैं । पर अधिक महत्त्वपूर्ण विषय तो अभी रहता ही है, वह है उन आन्तरात्मिक एवं आध्यात्मिक परिणामों का विषय जिनके लिये इन अवस्थाओं का उपयोग किया जा सकता है । यह उपयोग शरीर और मन-आत्मा के तथा स्थूल और सूक्ष्म शरीर के उस सम्बन्ध पर निर्भर करता है जिसपर हठयोग की प्रणाली आधारित है । यहां यह राजयोग की सीध में पहुंच जाती है, और एक ऐसा बिन्दु आ जाता है जिसपर पहुंचकर एक से दूसरी प्रणाली में पग रखा जा सकता है ।
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