Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ८
हृदय और मन के बन्धन से मुक्ति
परन्तु आरोहण करती हुई अन्तरात्मा को देहबद्ध प्राण से ही नहीं, बल्कि प्राणशक्ति की मनोगत क्रिया से भी अपने-आपको पृथक् करना होगा; उसे मन को पुरुष का प्रतिनिधि बनाकर उससे यह कहलाना होगा कि ''मैं प्राण नहीं हू; प्राण पुरुष का निज स्वरूप नहीं है, यह प्रकृति की महज एक क्रिया और वह भी (कई क्रियाओं में से) केवल एक क्रिया है । ''प्राण के विशेष लक्षण हैं-गति और क्रिया, व्यक्ति की सत्ता के बाहर जो भी चीजें हैं उन्हें ग्रहण और आत्मसात् करने के लिये प्रयत्न और यह जिस चीज को अपने अधिकार में ले आता है या जो चीज इसे प्राप्त हो जाती है उसमें सन्तुष्ट या असन्तुष्ट होने का सिद्धान्त जो आकर्षण और विकर्षण के सार्वभौम तथ्य से सम्बद्ध है । प्राण के ये तीन धर्म प्रकृति में सभी जगह देखने में आते हैं, क्योंकि प्राण प्रकृति में सभी जगह है । परन्तु हम मनोमय प्राणियों में इन सबको इन्हें देखने और ग्रहण करनेवाले भिन्न-भिन्न मन के अनुसार भिन्न -भिन्न प्रकार का मानसिक मूल्य दे दिया जाता है । ये क्रिया का, कामना और राग-द्वेष का, सुख और दुःख का रूप धारण कर लेते हैं । प्राण हमारे अन्दर सर्वत्र ओतप्रोत है और हमारे शरीर की ही नहीं, बल्कि हमारे इन्द्रियाश्रित मन, भावमय मन तथा चिन्तनात्मक मन की भी क्रिया को धारण कर रहा है । और, इन सबके अन्दर अपना नियम या धर्म लाकर, वह इनके यथार्थ कर्म को अव्यवस्थित, सीमित एवं अस्तव्यस्त कर देता है और उस धर्मच्युति-रूप अपवित्रता एवं उस विषम गड़बड़झाले को पैदा कर देता है जो हमारी आन्तरिक सत्ता की सारी बुराई की जड़ है । उस गड़बड़झाले में एक नियम, कामना का नियम, शासन करता प्रतीत होता है । जिस प्रकार सबको अपने अन्दर समानेवाले और सबके स्वामी विराट् परमेश्वर केवल दिव्य आनन्द के रसास्वादनार्थ कर्म, गति और उपभोग करते हैं, उसी प्रकार व्यक्ति का प्राण प्रधान रूप से कामना की तृप्ति के लिये ही गति और कर्म करता तथा सुख-दुःख भोगता है । अतएव, चैत्य (सूक्ष्म) प्राणशक्ति हमें एक प्रकार के कामनामय मन के रूप में ही अनुभूत होती है । यदि हम अपनी सच्ची आत्मा में पुन: प्रवेश करना चाहते हैं तो इस कामनामय मन पर हमें विजय पानी होगी ।
कामना, एक साथ ही, हमारे कार्यों का मूल हेतु हमारी सब कार्य-सिद्धियों का मुख्य करण और हमारे जीवन के सब दुःखों का मूल है । यदि हमारा इन्द्रियाश्रित मन, भावमय मन तथा चिन्तनात्मक मन प्राण-शक्ति के हस्तक्षेपों तथा उसकी लायी हुई चीजों से स्वतन्त्र रहकर कार्य कर सकें, यदि उस प्राणशक्ति को इस बात के
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लिये बाध्य किया जा सके कि वह हमारे जावन पर अपना जूआ लादने के बदले इन (उच्चतर) करणों के यथार्थ कार्य के अधीन होकर रहे तो सभी मानवीय समस्याएं अपने यथायथ समाधान की ओर सुसमंजस रूप में अग्रसर होंगी । प्राण- शक्ति का अपना यथार्थ धर्म यह है कि वह हमारे अन्दर के दिव्य तत्त्व के आदेश का पालन करे, वे अन्तर्वासी भगवान् उसे जो कुछ दें उसीको ग्रहण करे तथा उसीमें आनन्द ले और किसी भी प्रकार की कामना न करे । इन्द्रियाश्रित मन का अपना यथार्थ धर्म यह है कि वह प्राण के बाह्य स्पर्शों के प्रति निष्क्रिय और आलोकित रूप में खुला रहे तथा उनके सम्वेदनों को और उनके अन्दर विद्यमान रस (यथार्थ आस्वाद), एवं आनन्द के तत्त्व को अपने से उच्च करणतक पहुंचा दे । परन्तु देहगत प्राणशक्ति के आकर्षणों और विकर्षणों, स्वीकृतियों और निषेधों, सन्तुष्टियों और असन्तुष्टियों, सामर्थ्यों और असामर्थ्यों के हस्तक्षेप के कारण, प्रथम तो, उसका क्षेत्र सीमित हो जाता है और, दूसरे, वह इन सीमाओं के भीतर जड़गत प्राण के इन सब असामंजस्यों के साथ सम्बन्ध रखने के लिये बाध्य हो जाता है । वह सत्ता के आनन्द का यन्त्र बनने की जगह सुख-दुःख का यन्त्र बन जाता है ।
इसी प्रकार भावमय मन इन सब असामंजस्यों का ध्यान रखने तथा इनके प्रति भावावेशमयी प्रतिक्रियाएं करने के लिये विवश होने के कारण एक संघर्षमय क्षेत्र बन जाता है जिसमें हर्ष और शोक, प्रेम और घृणा, क्रोध, भय, संघर्ष, अभीप्सा, विरक्ति, राग, द्वेष, उदासीनता, सन्तोष, असन्तोष, आशा, निराशा, प्रस्तकार तथा प्रत्यपकार का एवं अन्यान्य भावावेशों का कितना विपुल खेल चलता रहता है जो इस जगत् में होनेवाले जीवनरूपी नाटक का स्वरूप है । इस गड़बड़झाले को हम अपनी आत्मा कहते हैं । परन्तु वास्तविक आत्मा, वास्तविक चैत्य सत्ता जिसका बहुधा हम बहुत ही कम भाग देख पाते हैं और जिसका विकास मनुष्यजाति का एक छोटा-सा भाग ही कर पाया है, शुद्ध प्रेम और आनन्द का तथा ईश्वर और अपने साथी-प्राणियों के साथ घुल-मिलकर एक हो जाने के लिये उज्ज्वल प्रयत्न करने का एक यन्त्र है । यह चैत्य सत्ता मानसभावापन्न प्राण या कामनामय मन की, जिसे हम भूल से अपनी आत्मा समझते हैं, क्रीड़ा के कारण ढकी हुई है; भावमय मन हमारे अन्दर की वास्तविक आत्मा को, हमारे हृदयों में विराजमान भगवान् को, प्रतिबिम्बित करने में असमर्थ है और इसके स्थान पर वह कामनामय मन को प्रतिबिम्बित करने को बाध्य होता है ।
इसी प्रकार चिन्तनात्मक मन का यथार्थ कार्य यह है कि वह ज्ञान-प्राप्ति में निष्पक्ष भाव से आनन्द लेते हुए निरीक्षण करे, समझे और निर्णय करे और अपने- आपको उन सन्देशों तथा ज्ञानरश्मियों की ओर खोले जो उन सब वस्तुओं में अपनी क्रिया करती हैं जिन्हें वह देखता है तथा उनमें भी जो अभी उससे छुपी हुई हैं, पर जो उत्तरोत्तर प्रकट होंगी । ये सन्देश और ज्ञानरश्मियां हमारे मन से ऊपर की ज्योति
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में छुपी हुई दिव्य वाणी से हमारे अन्दर एक चमक के रूप में गुप्ततया उतर आती हैं भले ही ये अन्तर्ज्ञानमय मन के द्वारा उतरती हुई प्रतीत हों या दृष्टिसम्पन्न हृदय में से उद्भूत होती हुई । परन्तु यह कार्य वह ठीक ढंग से नहीं कर सकता, क्योंकि यह इन्द्रियों में अवस्थित प्राणशक्ति के बन्धनों से, सम्वेदन और भावावेश के विरोधों से और बौद्धिक अभिरुचि, जड़ता, आयास, अहम्मय इच्छा के अपने निजी बन्धनों से जकड़ा हुआ है । इन बौद्धिक अभिरुचि आदि रूपों को यह इस कामनामय मन, इस चैत्य प्राण के हस्तक्षेप के कारण ही ग्रहण करता है । जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है, हमारी सम्पूर्ण मनश्चेतना इस प्राण के सूत्रों और धाराओं में ओतप्रोत है, - इस प्राणशक्ति के जो प्रयत्न करती है और सीमा में बांधती है, ग्रहण करती और चूक जाती है, कामना करती और कष्ट भोगती है, और इसे शुद्ध करके ही हम अपनी वास्तविक एवं सनातन आत्मा को जान सकते तथा प्राप्त कर सकते हैं ।
यह सत्य है कि इस सब बुराई की जड़ है अहं-बुद्धि और चेतन अहं-बुद्धि का स्थान है स्वयं मन । पर वास्तव में चेतन मन अहं को केवल प्रतिबिम्बित ही करता है, अहं की रचना तो वस्तुओं के अवचेतन मन में, पत्थर और पौधों के अन्दर विद्यमान मूक आत्मा में हो चुकी होती है । यह मूक आत्मा समस्त देह-प्राणधारियों में उपस्थित है, चेतन मन इसे मूलत: जन्म नहीं देता, बल्कि इसे अन्तिम रूप से उन्मुक्त करके केवल जाग्रत् और वावशक्तिसम्पन्न बना देता है । और, इस ऊर्ध्वमुख क्रमविकास में यह हमारी प्राणशक्ति ही है जो अहं की आग्रहपूर्ण ग्रंथि बन गयी है, यह हमारा कामनामय मन ही है जो उस गांठ को ढीली करने से इंकार करता है तब भी जब कि बुद्धि और हृदय अपने दुःखों का कारण खोज चुके होते हैं और उसे दूर करने के लिये सहर्ष उद्यत होते हैं; क्योंकि उनके अन्दर विद्यमान प्राण 'पशु' है जो विद्रोह करता है और अपने इंकार से उनके ज्ञान को आच्छन्न तथा प्रतारित करता है तथा उनके संकल्प को जबर्दस्ती दबा देता है ।
अतएव, मनोमय पुरुष को इस कामनात्मक मनसे अपने सम्बन्ध तथा तादात्म्य का विच्छेद करना होगा । उसे कहना होगा, ''मैं यह सत्ता नहीं हू जो संघर्ष करती और कष्ट भोगती है, सुख-दुःख, प्रेम और घृणा, आशा और निराशा, क्रोध और भय, हर्ष और विषाद के वशीभूत होती है, जो प्राणिक वृत्तियों और भावावेशों से बनी हुई सत्ता है । ये सब चीजें तो संवेदनात्मक और भावप्रधान मन में प्रकृति के कार्यव्यापार और अभ्यासमात्र हैं । '' तब मन अपने भावावेगों से पीछे हट जाता है और शरीर की क्रियाओं एवं अनुभूतियों की भांति इनका भी द्रष्टा या साक्षी बन जाता है । एक बार फिर अन्त:सत्ता में विभाजन पैदा हो जाता है । एक ओर तो होता है यह भावप्रधान मन जिसमें प्रकृति के गुणों के अभ्यास के अनुसार ये भाव और आवेग उठते रहते हैं और दूसरी ओर होता है द्रष्टा मन जो उन्हें देखता है,
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उनका अध्ययन करता तथा उन्हें समझता है, पर उनसे विलग रहता है । वह उन्हें इस प्रकार देखता है मानों मन के रंगमञ्च पर उससे भिन्न अन्य व्यक्तियों का एक प्रकार का खेल एवं अभिनय हो रहा हो, पहले तो वह उनमें रस लेता है और अभ्यास के कारण बारम्बार उनके साथ तदात्मता स्थापित करता रहता है, बाद में वह उन्हें पूर्णतया स्थिर और निर्लिप्त भाव से देखता है, और अन्त में, अपनी नीरव सत्ता की शान्ति ही नहीं, बल्कि उसका शुद्ध आनन्द भी प्राप्त करके, उनकी अवास्तविकता पर इस प्रकार मुस्कराता है जिस प्रकार कोई आदमी एक बचे के, जो खेल रहा है और उस खेल में अपने-आपको बिलकुल अ जाता है, काल्पनिक सुख-दुःखों पर मुस्कराया करता है । दूसरे, वह जान जाता है कि 'मैं अनुमति का स्वामी हू जो अपनी अनुमति को वापिस लेकर यह खेल बन्द कर सकता हूं । ' जब वह अनुमति को वापिस ले लेता है तब एक और महत्त्वपूर्ण घटना घटित होती है; भावमय मन सामान्यतया शान्त और पवित्र हो जाता है तथा इन प्रतिक्रियाओं से मुक्त भी, और जब ये आती भी हैं तब भी ये पहले की तरह भीतर से नहीं उठतीं, बल्कि बाहर से आनेवाले ऐसे संस्कारों की तरह उसपर प्रतिबिम्बित होती दिखायी देती हैं जिन्हें उसकी स्नायुएं अभी भी प्रत्युत्तर दे सकती हैं; परन्तु आगे चलकर प्रत्युत्तर देने की यह आदत भी समाप्त हों जाती है और समय आने पर भावमय मन अपने त्यागे हुए आवेशों से पूर्णतया मुक्त हों जाता है । आशा और भय, हर्ष और शोक, राग और द्वेष, आकर्षण और विकर्षण, सन्तोष और असन्तोष, हर्ष और विषाद, त्रास, क्रोध, भय, जुगुप्सा और लज्जा, तथा प्रेम और घृणा के आवेश हमारी मुक्त अन्तरात्मा से झड़कर अलग हो जाते हैं |
तब इनके स्थान पर क्या चीज आती है? हम चाहें तो इनके स्थान पर पूर्ण स्थिरता, नीरवता और उदासीनता आ सकती हैं । पर, यद्यपि यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें से अन्तरात्मा को साधारणतया गुजरना ही पड़ता है, तथापि हमने अपने सामने जो चरम लक्ष्य रखा है वह यह नहीं है । अतएव, हमारे योग में पुरुष संकल्प का स्वामी भी बन जाता है और उसका संकल्प अयुक्त उपभोग के स्थानपर चैत्य सत्ता के युक्त उपभोग की स्थापना करने का होता है । वह जो संकल्प करता है, प्रकृति उसे पूरा करती है । जो कामना और वासना का उपादान था वह शुद्ध, सम और शान्त-प्रगाढ़ प्रेम, आनन्द और एकत्वरूपी सत्य वस्तु में परिणत हो जाता है । वास्तविक आत्मा प्रकट हों उठती है और कामनामय मन के द्वारा खाली किये हुए स्थान पर प्रतिष्ठित हों जाती है । शुद्ध और रिक्त पात्र अब आवेश के कटुमिश्रित मधुर विष के बदले दिव्य प्रेम और आनन्द के सोमरस से पूरित हो जाता है । आवेश, यहांतक कि शुभ कार्य के लिये उठनेवाले आवेश भी, दैवी प्रकृति को मिथ्या रूप में प्रकट करते हैं । हमारे अन्दर 'कृपा' का जो आवेश उठता
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है उसमें स्थूल घृणा की अशुद्धि मिली होती है और दूसरों का कष्ट सहने में हमारे हृदय की असमर्थता की भी मिलावट रहती है । ऐसी कृपा के आवेश को त्याग देना होगा और इसके स्थान पर उस उच्चतर दिव्य करुणा को प्रतिष्ठित करना होगा जो सब कुछ देखती और समझती है, दूसरों का भार अपने ऊपर लेती है और उनकी सहायता करने तथा उनका दुःख दूर करने की सामर्थ्य भी रखती है, पर उनकी सहायता आदि का कार्य वह अहंपूर्ण इच्छा के साथ नहीं करती, न वह इसमें जगत् के दुःख-कष्ट के विरुद्ध विद्रोह करती है और न वस्तुओं के विधान एवं उद्गम पर अज्ञानपूर्ण दोषारोपण ही करती है, बल्कि प्रकाश और ज्ञान के साथ तथा प्रकट होते हुए भगवान् के यन्त्र के रूप में ही उनका दुःख निवारण करती है । इसी प्रकार जो प्रेम वस्तुओं की कामना करता तथा उनपर झपटता है, हर्ष से विक्षुब्ध और दुःख से चलायमान हों उठता है, उसका त्याग करना होगा और उसका स्थान उस सम, सबका आलिंगन करनेवाले प्रेम को देना होगा जो इन चीजों से मुक्त होता है तथा परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता और प्रत्युत्तर मिलने या न मिलने से जिसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । अन्तरात्मा की सभी क्रियाओं के साथ हमें ऐसा ही व्यवहार करना चाहिये; परन्तु इनके विषय में हम आगे चलकर आत्म- सिद्धि-योग के विवेचन के समय चर्चा करेंगे ।
जो बात कर्म और निष्कर्मता के बारे में कही गयी है वह एक और द्वंद्व पर भी लागू होती है । वह द्वंद्व यह है कि हमारे भावप्रधान मन में एक ओर तो उदासीनता एवं स्थिरता का भाव हो सकता है और दूसरी ओर सक्रिय प्रेम और आनन्द का । परन्तु हमारा आधार होनी चाहिये समता न कि उदासीनता । समतापूर्ण तितिक्षा, निष्पक्ष उदासीनता, हर्ष या शोक के कारण उपस्थित होने पर उनके प्रति हर्ष या शोक ऊ रूप में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया किये बिना शान्त समर्पण - ये सब समता का आरम्भिक सोपान एवं अभावात्मक आधार हैं; परन्तु समता तबतक पूर्ण नहीं हो पाती जबतक यह प्रेम और आनन्द का भावात्मक रूप धारण नहीं कर लेती । इन्द्रियाश्रित मन को सबमें सर्व-सुन्दर का सम रस प्राप्त करना होगा, हृदय को सबके लिये सम प्रेम तथा सबमें सम आनन्द अनुभव करना होगा और सूक्ष्म प्राण को सर्वत्र इस रस, प्रेम और आनन्द का आस्वादन करना डोगा । परन्तु यह एक भावात्मक पूर्णता है जो मुक्ति के द्वारा ही प्राप्त होती है; ज्ञानमार्ग में हमारा प्रथम लक्ष्य, वस्तुत:, मुक्ति प्राप्त करना है जो कामनात्मक मनसे अपने-आपको जुदा करने तथा उसकी वासनाओं का त्याग करने से ही प्राप्त होती है ।
कामनामय मन को विचार के करण से भी बाहर निकाल देना होगा और इसका सर्वोत्तम उपाय यह है कि पुरुष अपने-आपको स्वयं विचार और सम्मति से भी पृथक् कर ले । इसकी चर्चा हम एक प्रसंग में पहले ही कर चुके हैं जहां हमने इस विषय पर विचार किया था कि सत्ता की सर्वांगीण शुद्धि का क्या अभिप्राय है ।
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क्योंकि, ज्ञान-प्राप्ति की यह सब क्रिया जिसका हम वर्णन कर रहे हैं, अपने को शुद्ध करके मुक्ति लाभ करने की पद्धति है जिसके द्वारा पूर्ण और अन्तिम आत्म- ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है; उधर, क्रमश: बढ़ता हुआ आत्मज्ञान स्वयं ही शुद्धि और मुक्ति का साधन होता है । चिन्तनात्मक मनसे पृथक् होने की विधि भी वही होगी जो सत्ता के शेष सब भागों से पृथक् होने के लिये बतायी गयी है । शरीर और प्राण के साथ तथा कामनाओं, संवेदनों और आवेशोंवाले मन के साथ तादात्म्य से मुक्ति पाने के लिये चिन्तनात्मक मन का प्रयोग कर चुकने के बाद पुरुष स्वयं इस मन की ओर अभिमुख होकर कहेगा, ''यह भी मैं नहीं हूं; मैं न विचार हूं न विचारक; ये सब विचार, सम्मतियां, कल्पनाएं बुद्धि के प्रयास, उसके पक्षपात, पूर्वानुराग, मत-सिद्धान्त, संशय और स्व-संशोधन मेरा निज स्वरूप नहीं हैं; यह सब तो प्रकृति का व्यापारमात्र है जो विचारात्मक मन में घटित होता है । '' इस प्रकार, विचार और संकल्प करनेवाले मन तथा निरीक्षण करनेवाले मन में विभाजन पैदा हो जाता है और पुरुष केवल द्रष्टा बन जाता है; वह अपने विचार की प्रक्रिया तथा उसके नियमों को देखता है, समझता है, पर अपने-आपको उससे अलग कर लेता है । फिर, अनुमति के स्वामी के रूप में वह मन की अवचेतन धारा तथा तर्कबुद्धि की जटिल क्रिया से अपनी पुरानी अनुमति वापिस ले लेता है और इस प्रकार दोनों की आग्रहपूर्ण क्रियाओं को बन्द कर देता है । वह चिन्तनात्मक मन की दासता से मुक्त होकर पूर्ण नीरवता प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है ।
पूर्णता की प्राप्ति के लिये यह भी आवश्यक है कि पुरुष अपनी प्रकृति के स्वामी के रूप में अपना कार्य फिर से अपने हाथ में ले ले और निरी मन की अवचेतन धारा तथा बुद्धि के स्थान पर ऊपर से एक चमक के रूप में आनेवाले सत्य-सचेतन विचार को प्रतिष्ठित करने के लिये संकल्प का प्रयोग करे । परन्तु नीरवता को प्राप्त करना भी आवश्यक है, क्योंकि विचार में नहीं, बल्कि नीरवता में ही हम आत्मा को प्राप्त कर पायेंगे, उसकी निरी कल्पना ही नहीं बल्कि उसका साक्षात् अनुभव कर सकेंगे और मनोमय पुरुष से पीछे हटकर हम उस तत्त्व में पहुंच जायेंगे जो मन का भी मूत्र है । परन्तु इस मूलतक पहुंचने के लिये एक अन्तिम मुक्ति, अर्थात् मन में रहनेवाली अहंभावना से मुक्ति प्राप्त करना आवश्यक है ।
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