योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १४

 

करणों की शक्ति

 

आत्मसिद्धि-योग का दूसरा अंग है हमारी सामान्य प्रकृति के करणों की शक्ति को समुन्नत, विस्तृत और विशुद्ध करना । सिद्धि के इस दूसरे अंग के विकास को सम मन और आत्मा की सुस्थिर अवस्था प्राप्त होने तक प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं, पर अपनी पूर्णता तो यह इस सुस्थिरता में ही प्राप्त कर सकता है तथा इसीमें यह दिव्य मार्गदर्शन की सुरक्षा में अपनी क्रिया भी कर सकता है । इस विकास का लक्ष्य प्रकृति को दिव्य कर्मों के लिये एक योग्य यंत्र बनाना है । सब कर्म शक्ति ही करती है, और क्योंकि पूर्ण योग का ध्येय कर्मों का त्याग करना नहीं वरन् दिव्य चेतना में स्थित होकर वहां से परमोच्च मार्गदर्शन के अनुसार सब कर्मों को करना है, मन, प्राण और शरीर-रूपी करणों की विशिष्ट शक्तियों को दोषों से मुक्त करके शुद्ध ही नहीं करना होगा बल्कि उन्हें उन्नत करके इस अधिक महान् कर्म के लिये सक्षम भी बनाना होगा । अन्त में तो उन्हें आध्यात्मिक और अतिमानसिक रूपान्तर की प्रक्रिया में से भी गुजरना होगा ।

 

     आत्म-पूर्णता की साधना के इस दूसरे भाग के चार अंग हैं और उनमें से पहला है यथार्थ शक्ति अर्थात् बुद्धि, हृदय, प्राणमय मन और शरीर की शक्तियों की यथायथ अवस्था । अभी इन चार में से अन्तिम की आरम्भिक पूर्णता का निर्देश करना ही सम्भव होगा, क्योंकि पूर्ण सिद्धि का विवेचन तो अतिमानस का तथा शेष सत्ता पर उसके प्रभाव का वर्णन करने के बाद ही करना होगा । शरीर कार्य के स्थूल भाग के लिये एक आवश्यक बाह्य यंत्र मात्र नहीं है, बल्कि इस जीवन के काम-काज के लिये समस्त आन्तरिक कार्य का आधार या मूल आश्रय भी है । मन या आत्मा की समस्त क्रिया भौतिक चेतना में अपना कम्पन पैदा करती है, एक प्रकार के गौण देहगत संकेत के रूप में वहां अपने-आपको अंकित करती है और भौतिक यन्त्र के द्वारा जड़जगत् के समक्ष अपने-आपको कम-से-कम कुछ अंश में प्रकाशित करती है । परन्तु मनुष्य के शरीर की इस क्षमता की कुछ स्वाभाविक सीमाएं हैं जिन्हें वह अपनी सत्ता के उच्चतर भागों की क्रीड़ा पर बलपूर्वक थोपता है । और, दूसरे, शरीर की एक अपनी ही अवचेतन ढंग की चेतना है जिसमें वह मानसिक और प्राणिक सत्ता के पुराने अभ्यासों और पुरानी प्रकृति को दुराग्रहपूर्ण निष्ठा के साथ संजोये रखता है और जो किसी भी बड़े भारी ऊर्ध्वमुख परिवर्तन का यंत्रवत् विरोध और प्रतिरोध करती है या कम-से-कम उसे सम्पूर्ण प्रकृति का आमूल रूपान्तर नहीं बनने देती । यह प्रत्यक्ष ही है कि यदि हम एक ऐसा मुक्त दिव्य या आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक कार्य करना चाहते हैं जो शक्ति के द्वारा

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परिचालित हो और एक दिव्यतर सामर्थ्य के स्वभाव को चरितार्थ करता हो, तो शारीरिक प्रकृति के इस बाह्य स्वरूप में एक प्रकार का काफी पूर्ण रूपान्तर साधित करना होगा । पूर्णता के अन्वेषकों ने मनुष्य की भौतिक सत्ता को सदा ही एक बड़ी भारी बाधा अनुभव किया है और वे उससे घृणा, इन्कार या विद्वेष करते हुए और शरीर एवं स्थूल जीवन को पूर्णरूपेण या यथासम्भव दबा देने की इच्छा से उससे मुंह मोड़ने के आदी रहे हैं । परन्तु पूर्ण योग के लिये यह विधि ठीक नहीं हो सकती । शरीर हमें एक ऐसे एकमात्र यंत्र के रूप में दिया गया है जो हमारे समूचे कार्यों के लिये आवश्यक है; इसका उपयोग करना चाहिये न कि अनादर और उत्पीड़न और न ही दमन या विनाश । यदि वह अपूर्ण, विरोधी और दुराग्रही है तो अन्य अंग अर्थात् प्राण-सत्ता, हृदय, मन और बुद्धि भी तो ऐसे ही हैं । उसे भी उन्हींकी तरह परिवर्तित करके पूर्ण बनाना होगा तथा रूपान्तर की प्रक्रिया में से गुजरना होगा । जैसे हमें अपने लिये एक नया प्राण, नया हृदय और नया मन प्राप्त करना होगा वैसे ही एक विशेष अर्थ में हमें अपने लिये एक नये शरीर का भी निर्माण करना होगा ।

 

    शरीर के सम्बन्ध में संकल्प-शक्ति को सबसे पहला कार्य यह करना होगा कि वह उसमें उत्तरोत्तर और बलपूर्वक उसकी समस्त सत्ता, चेतना, शक्ति और बाह्य तथा आन्तर कार्य का एक नया अभ्यास डाले । उसे सिखाना होगा कि वह पहले तो उच्चतर करणों के हाथों में पर अन्त में आत्मा और उसकी नियामक एवं ज्ञानप्रद शक्ति के हाथों में पूर्णतया निष्क्रिय यंत्र बनकर रहे । उसमें अभ्यास डालना होगा कि वह उत्कृष्टतर अंगों पर अपनी सीमाओं को न थोपे, बल्कि अपनी क्रिया और प्रतिक्रिया को उनकी मांगों के अनुसार ढाले, या यूं कहें कि एक उच्चतर स्वर का, उच्चतर कोटि की प्रतिक्रियाओं का विकास करे । वर्तमान अवस्था में शरीर और भौतिक चेतना का स्वर परमेश्वर की इस मानवीय वीणा के संगीत को निर्धारित करने की एक बहुत बड़ी शक्ति रखता है; आत्मा से, चैत्य पुरुष से, अपने भौतिक जीवन के पीछे अवस्थित महत्तर जीवन से हमें जो स्वर प्राप्त होते हैं वे हमारे अन्दर निर्बाध रूप से प्रवेश नहीं पा सकते, अपना उच्च, शक्तिशाली और वास्तविक गीत विकसित नहीं कर सकते । इस स्थिति को पलटना होगा; शरीर और भौतिक चेतना को इन उच्चतर स्वरों को प्रवेश प्रदान करने और इनके अनुसार अपने-आपको ढालने का अभ्यास विकसित करना होगा और उन्हें नहीं बल्कि प्रकृति के श्रेष्ठतर भागों को हमारे जीवन और अस्तित्व का संगीत निश्चित करना होगा ।

 

    इस परिवर्तन को साधित करने के लिये पहला पग है मन और उसके विचार एवं संकल्प के द्वारा शरीर और प्राण का नियंत्रण करना । योगमात्र का अभिप्राय यह है कि इस नियंत्रण को अत्युच्च शिखर तक पहुंचाया जाये । पर आगे चलकर

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स्वयं मन को अपना स्थान आत्मा एवं आत्मिक शक्ति तथा अतिमानस एवं अतिमानसिक शक्ति को दे देना होगा । और अन्त में शरीर को एक ऐसी पूर्ण शक्ति का विकास करना होगा कि आत्मा उसके अन्दर जो भी शक्ति लाये उसे वह धारण कर सके तथा उसे बिखेरे और गंवाये बिना या स्वयं टूटे-फूटे बिना उसकी क्रिया को भी धारण कर सके । उसमें ऐसी सामर्थ्य होनी चाहिये कि आध्यात्मिक या उच्चतर मन या प्राण की चाहे कितनी ही प्रबल शक्ति उसमें क्यों न भर दी जाये उसे वह धारण कर सके तथा उस शक्ति के द्वारा शक्तिशाली रूप से प्रयोग में भी लाया जा सके और उस प्रबल अन्तःप्रवाह या दबाव से शरीर-यंत्र का कोई भी भाग क्षुब्ध, अस्तव्यस्त, छिन्न-भिन्न या नष्ट न हो, -जैसे कि जो लोग बिना तैयारी के या अनुपयुक्त साधनों के द्वारा, अविवेकपूर्वक, योगाभ्यास करने की चेष्टा करते हैं अथवा जिस शक्ति को धारण करने के लिये वे बौद्धिक, प्राणिक एवं नैतिक रूप से अयोग्य हैं उसका बिना सोचे-विचारे, उतावलेपन से आवाहन करते हैं, उनका मस्तिष्क, प्राणिक स्वास्थ्य या नैतिक स्वभाव प्रायः ही क्षत-विक्षत हो जाता है । और इस प्रकार उच्चतर शक्ति से पूरित होने पर शरीर में यह क्षमता भी होनी चाहिये कि वह उस आध्यात्मिक या अन्य प्रकार की कर्तृ-शक्ति के, जो इस समय हमारे लिये सामान्य नहीं है, संकल्प के अनुसार स्वाभाविक रूप से, यंत्रवत् और ठीक-ठीक काम कर सके और ऐसा करते हुए उसके उद्देश्य तथा प्रबल प्रेरणा को विकृत एवं क्षीण न करे और न उसे किसी मिथ्यारूप में ही परिणत कर डाले । भौतिक चेतना और शक्ति में तथा भौतिक यंत्र में अनन्त आध्यात्मिक शक्ति को धारण करने की यह सामर्थ्य, धारण शक्ति, शरीर की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धि या पूर्णता है ।

 

   इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप शरीर आत्मा का एक पूर्ण यन्त्र बन जायेगा । आध्यात्मिक शक्ति शरीर में तथा उसके द्वारा, जो कुछ वह चाहती है तथा जैसा चाहती है वही कुछ और वैसा कर सकेगी । वह मन की या, अधिक उच्च अवस्था में, अतिमानसिक असीम क्रिया का सञ्चालन करने में समर्थ हो जायेगी और इसमें शरीर क्लान्ति, अक्षमता, अयोग्यता या मिथ्याकरण के वश छलपूर्वक उस क्रिया का त्याग नहीं कर देगा । वह शक्ति शरीर के भीतर प्राणशक्ति की परिपूर्ण घारा को प्रवाहित करने तथा पूर्णताप्राप्त प्राण-सत्ता के विशाल कर्म और उल्लास का सूत्रपात करने में भी समर्थ होगी, पर यह सब करने में वह विरोध-वैषम्य नहीं उत्पन्न होगा जो अपूर्ण शरीर-यन्त्र के साथ प्राण की सामान्य अन्धप्रेरणाओं एवं उसके आवेगों के सम्बन्ध से पैदा हुआ करता है जब कि वे प्रेरणाएं और आवेग शरीर का प्रयोग करने के लिये बाध्य होते हैं । इसके साथ ही आध्यात्मिक शक्ति अध्यात्म-भावित चैत्य सत्ता की एक ऐसी पूर्ण क्रिया का सञ्चालन करने में भी समर्थ होगी जो शरीर की निम्नतर अन्धप्रेरणाओं के कारण मिथ्या और हीन रूप

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नहीं धारण करेगी, न उनसे किसी प्रकार दूषित ही होगी; इसी प्रकार वह शक्ति भौतिक क्रिया और अभिव्यक्ति को उच्चतर आन्तरात्मिक जीवन के मुक्त स्वर के रूप में प्रयुक्त कर सकेगी । और स्वयं शरीर में भी धारक शक्ति की महत्ता, बहिर्गामी और कार्यसञचालक शक्ति की प्रचुर सामर्थ्य, ऊर्जा और बल, स्नायविक और भौतिक सत्ता की लघुता (हलकापन), स्कूर्ति, क्षिप्रता एवं अनुकूलनीयता औ सम्पूर्ण शरीर-यन्त्र की तथा उसे चलानेवाली कमानियों की धारक और प्रतिक्रियाशील शक्ति विद्यमान होंगी । इस समय शरीर अपनी सबलतम और श्रेष्ठतम स्थिति में भी इन महत्ता और बल आदि को धारण करने में समर्थ नहीं है ।

 

  यह शक्ति अपने सारतत्त्व मे कोई बाह्य, भौतिक या स्नायविक सामर्थ्य नहीं होगी, बल्कि अपने स्वरूप में सर्वप्रथम तो एक असीम प्राण-शक्ति होगी, दूसरे, इस प्राणशक्ति को धारण और प्रयुक्त करनेवाली एक उत्कृष्टतर या परमोच्च संकल्पशक्ति होगी जो शरीर में कार्य करेगी । शरीर या दृश्य पदार्थ में प्राणिक शक्ति की क्रीड़ा समस्त कार्य के लिये, यहांतक कि अत्यन्त स्पष्ट रूप से जड़ दिखाई देनेवाले भौतिक कार्य के लिये भी आवश्यक है । जैसा कि प्राचीन मनीषियों को ज्ञात था, विश्वव्यापी प्राण ही अपने नाना रूपों में विद्युदणु और परमाणु तथा गैस से लेकर धातु वनस्पति, पशु और देह-प्रधान मनुष्यतक सभी भौतिक पदार्थों की पार्थिव शक्ति को धारण या संचालित करता है । जो लोग शरीर की या शरीर में एक महत्तर सिद्धि पाने का प्रयास करते हैं उन सबकी जान-अनजान में यही चेष्टा होती है कि इस प्राणिक शक्ति से शरीर में अधिक स्वतन्त्रता और प्रबल रूप से कार्य कराया जाये । साधारण मनुष्य इसे यान्त्रिक रूप में शारीरिक व्यायामों तथा अन्य भौतिक साधनों के द्वारा अपने अधिकार में रखने का यत्न करता है, हठयोगी अपेक्षाकृत अधिक महान् और नमनीय किन्तु फिर भी यान्त्रिक ढंग से, आसन और प्राणायाम के द्वारा, इसपर शासन करने का प्रयास करता है; परन्तु हमारे उद्देश्य के लिये इसे अधिक सूक्ष्म, सारभूत और सुनम्य साधनों के द्वारा अधिकार में लाया जा सकता है; सर्वप्रथम, मन के एक ऐसे संकल्प के द्वारा जो उस विराट् प्राणशक्ति की ओर, जिससे कि हम शक्ति आहरण करते हैं, अपने-आपको विशालतापूर्वक खोल दे तथा अपने अन्दर बलशाली रूप से उसका आवाहन करे तथा उसकी बलवत्तर उपस्थिति एवं अधिक प्रबल क्रिया को शरीर के अन्दर स्थिर करे; दूसरे, मन के एक ऐसे संकल्प के द्वारा जो विराट् प्राण नहीं वरंच आत्मा और उसकी शक्ति की ओर अपने-आपको खोले और ऊपर से एक उच्चतर प्राणिक शक्ति का, अतिमानसिक प्राण-शक्ति का अपने अन्दर आवाहन करे; तीसरे, अन्तिम पग के रूप में, आत्मा के उच्चतम अतिमानसिक संकल्प के द्वारा जो कार्य क्षेत्र में उतरकर शरीर की पूर्णता का काम सीधे अपने हाथ में ले ले । सच पूछो तो

 

   १ महत्त्व, बल, लघुता और धारण-सामर्थ्य ।

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प्राणिक यन्त्र जब निरे भौतिक दिखाई देनेवाले साधनों का प्रयोग करता है तब भी उसे वास्तव में एक अन्तःस्थ संकल्प ही सदा परिचालित करता है तथा कार्यक्षम बनाता है; पर आरम्भ में वह संकल्प निम्न क्रिया पर आश्रित रहता है । जब हम अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंचते हैं तो दोनों का सम्बन्ध शनैः--शनैः उलट जाता है; तब वह संकल्प अपनी विशिष्ट शक्ति के साथ कार्य करने या शेष साधनों को केवल गौण यन्त्र के रूप में ही संचालित करने में समर्थ बन जाता है ।

 

   बहुतेरे लोग शरीर में रहनेवाली इस प्राणिक शक्ति को नहीं जानते या फिर जिस अधिक स्थूल-रूपवाली शारीरिक शक्ति को यह अनुप्राणित करती है तथा अपने वाहन के रूप में प्रयुक्त करती है उससे इसका भेद नहीं कर सकते । पर जब चेतना योग-साधना के द्वारा अधिक सूक्ष्म हो जाती है तो हम अपने चारों ओर विद्यमान प्राणशक्ति के सागर को जान सकते हैं, मानसिक चेतना के द्वारा उसे अनुभव कर सकते हैं, मन-रूपी इन्द्रियों के द्वारा ठोस रूप में भी उसे जान सकते हैं, उसकी धाराओं और गतियों को देख सकते हैं और संकल्प के द्वारा सीधे ही उसका निर्देशन कर सकते हैं तथा उसपर क्रिया करके प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं । पर जबतक हम उसके प्रति इस प्रकार सचेतन न हों जायें, तबतक हमें उसकी उपस्थिति में तथा इस प्राणशक्ति के ऊपर महत्तर प्रभुत्व का एवं इसके महत्तर प्रयोग का विकास करने के लिये हमारे संकल्प के अन्दर जो शक्ति है उसमें कामचलाऊ या कम-से-कम परीक्षणात्मक श्रद्धा रखनी होगी । मन की इस शक्ति में श्रद्धा रखने की जरूरत है कि वह शरीर की अवस्था और क्रियापर अपने संकल्प का दबाव डाल सकता है, जो लोग रोग का उपचार श्रद्धा, संकल्प या मानसिक क्रिया के द्वारा करते हैं उनमें उक्त प्रकार की श्रद्धा विद्यमान होती है; परन्तु हमें इस प्रभुत्व को प्राप्त करने का यत्न केवल इस या किसी अन्य सीमित प्रयोग के लिये ही नहीं करना चाहिये, बल्कि व्यापकतया एक बाह्य एवं क्षुद्रतर करण के ऊपर आभ्यन्तर एवं महत्तर करण की न्याय्य शक्ति के रूप में इसे पाने का यत्न करना चाहिये । हमारे मन की पुरानी आदतें, हमारे वर्तमान अपूर्ण आधार में उसकी अपेक्षाकृत निसहायता के विषय में हमारा वर्तमान सामान्य अनुभव तथा शरीर और भौतिक चेतना में विरोधी विश्वास--ये सब इस श्रद्धा का प्रतिरोध करते हैं । क्योंकि, उनमें भी अपनी एक विशेष प्रकार की सीमाकारी श्रद्धा है जो मन के विचार का विरोध करती है जब कि वह शरीर पर एक अबतक अनुपलब्ध उच्चतर पूर्णता के नियम को लागू करना चाहता है । पर जैसे-जैसे हम मन के विचार को दृढ़ करते जायेंगे और इस शक्ति को हमारे अनुभव के प्रति अपना प्रमाण देते अनुभव करेंगे, वैसे-वैसे मन की श्रद्धा अपने-आपको अधिक दृढ़ आधार पर स्थापित करने तथा सबल बनने में समर्थ होती जायेगी, और शरीर की विरोधी श्रद्धा परिवर्तित हो जायेगी, जिस चीज से वह पहले इन्कार करती थी उसे स्वीकार

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कर लेगी और अपने अभ्यासों में नये नियन्त्रण को स्वीकार ही नहीं करेगी बल्कि स्वयं भी इस उच्चतर क्रिया के लिये उच्च शक्ति का आवाहन करेगी । अन्त में हम इस सत्य को अनुभव कर लेंगे कि यह सत्ता, जो कि हमारा स्वरूप है, वही कुछ है या बन सकती है जो कुछ बनने की श्रद्धा इसके अन्दर विद्यमान है एवं जो कुछ बनने का यह संकल्प करती है, -क्योंकि श्रद्धा केवल एक ऐसे संकल्प का ही नाम है जो महत्तर सत्य की प्राप्ति को लक्ष्य में रखकर उसके लिये प्रयास करता है । यह अनुभव कर लेने पर हम अपनी सम्भावनाओं की सीमाएं नियत करना बन्द कर देंगे अथवा अपने अन्तःस्थ आत्मा की एवं मानव-यन्त्र के द्वारा कार्य करनेवाली भागवत शक्ति की गुप्त सर्वशक्तिमत्ता से इन्कार करना छोड़ देंगे । किन्तु यह स्थिति, कम-से-कम एक व्यावहारिक शक्ति के रूप में, उच्च सिद्धि की एक बाद की अवस्था में ही प्राप्त होती है ।

 

  प्राण केवल एक ऐसी शक्ति ही नहीं है जो शारीरिक और प्राणिक बल की क्रिया के लिये आवश्यक है, बल्कि वह मानसिक और आध्यात्मिक क्रिया का भी अवलम्बन है । अतएव प्राणिक शक्ति की पूर्ण और निर्बाध क्रिया निम्नतर किन्तु फिर भी आवश्यक प्रयोजन के लिये ही अपेक्षित नहीं है, बल्कि हमारी जटिल मानव-प्रकृति के करणों में मन, अतिमानस और आत्मा की मुक्त और पूर्ण क्रिया के लिये भी आवश्यक है । प्राणशक्ति और उनकी क्रियाओं पर प्रभुत्व प्राप्त करने के लिये प्राणायाम के अभ्यासों के प्रयोग का मुख्य आशय यही है; यह प्रयोग योगकी कुछ-एक प्रणालियों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य अङग है । पूर्णयोग के साधक को भी प्राणशक्ति पर ऐसा ही प्रभुत्व प्राप्त करना होगा; पर वह इसे अन्य साधनों से प्राप्त कर सकता है और, कम-से-कम, इसकी प्राप्ति और सुरक्षा के लिये उसे किसी शारीरिक या श्वास-प्रश्वाससम्बन्धी व्यायाम पर निर्भर नहीं करना होगा, क्योंकि उससे तुरन्त ही एक प्रकार की सीमितता एवं प्रकृति के प्रति अधीनता उत्पन्न हो जायेगी । प्रकृति-रूपी करण का प्रयोग पुरुष को नमनीय रूप में करना होगा पर उसे पुरुष पर एक स्थिर नियन्त्रण का रूप नहीं धारण कर लेना होगा । तथापि, प्राणशक्ति की आवश्यकता बनी ही रहती है और आत्मचिन्तन तथा अनुभव करने पर यह आवश्यकता हमारे सामने स्पष्ट हो जायेगी । वैदिक रूपक में वह (प्राणशक्ति) देहधारी मन और संकल्प का अश्व एवं वाहन है । यदि वह बल और वेग से तथा अपनी सब शक्तियों के प्रचुर ऐश्वर्य से पूर्ण हो तो मन अपने कार्य की सरणियों पर पूर्ण और अकुण्ठित गति के साथ चलता जा सकता है । परन्तु यदि वह पंगु या शीघ्र थक जानेवाली या मन्द या दुर्बल हो तो संकल्प की कार्यान्विति एवं मन की क्रिया उस दुर्बलता के बोझ के नीचे दब जाती है । जब अतिमानस पहले-पहल कार्यक्षेत्र में आता है तो उसपर भी यही नियम लागू होता है । निःसन्देह, ऐसी अवस्थाएं और क्रियाएं भी हैं जिनमें मन प्राणिक शक्ति को

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अपने अन्दर समेट लेता है और यह निर्भरता जस भी अनुभूत नहीं होती; पर तब भी प्राण-शक्ति वहां विद्यमान होती है, भले वह शुद्ध मानसिक शक्ति में तिरोहित ही क्यों न हो । जब अतिमानस पूर्णतया शक्तिशाली हो जाता है तो वह बिलकुल सहज रूप में ही प्राणिक शक्ति के साथ अपनी इच्छानुसार बर्ताव कर सकता है, और हम देखते हैं कि अन्त में यह प्राणशक्ति अतिमानसीकृत प्राण के अपने विशिष्ट रूप में रूपान्तरित हो जाती है जो उस महत्तर चेतना की एक चालक शक्तिमात्र है । परन्तु यह रूपान्तर योगसिद्धि की एक और भी बाद की अवस्था से सम्बन्ध रखता है ।

 

  और फिर, हमारे अन्दर चैत्य प्राण, प्राणमय मन या कामनामय पुरुष भी है; यह भी अपनी पूर्णता की मांग करता है । यहां भी सबसे पहली आवश्यक बात यह है कि मन को प्राणिक सामर्थ्य से परिपूर्ण होना चाहिये अर्थात् उसमें अपना समग्र कार्य सम्पन्न करने की, हमारे आन्तरिक चैत्य प्राण को जो प्रेरणाएं और शक्तियां इस जीवन में चरितार्थ करने के लिये दी गयी हैं उन सबको अपने अधिकार में लाने की, उन्हें धारण करने की तथा क्षमता, स्वतन्त्रता और पूर्णता के साथ उन्हें कार्यान्वित करने के लिये एक साधन के रूप में काम करने की शक्ति होनी चाहिये । अपनी पूर्णता के लिये हमें जिन चीजों की आवश्यकता है उनमें से बहुत-सी--उदाहरणार्थ, साहस, जीवन में फलीभूत होनेवाली अमोघ संकल्पशक्ति, जिन्हें हम आज चरित्र का बल और व्यक्तित्व का बल कहते हैं उनके सभी अङग, -अपनी पूर्णतम शक्ति के लिये तथा ऊर्जस्वी कार्य के मूल स्रोत के लिये बहुत बड़े अंश में चैत्य प्राण की पूर्णता पर ही निर्भर करती है । परन्तु इस पूर्णता के साथ चैत्यप्राण-सत्ता में एक सुस्थिर प्रसन्नता, निर्मलता और शुद्धता भी होनी चाहिये । यह क्रियाशक्ति न तो अशान्त, अति व्याकुल एवं तूफानी होनी चाहिये और न ही आवेशपूर्ण या असंस्कृत रूप में उग्र; प्राणशक्ति तो हमारे अन्दर अवश्य होनी चाहिये, उसे अपने कर्म का आनन्द भी अवश्य प्राप्त होना चाहिये, पर शक्ति होनी चाहिये निर्मल, प्रसन्न और विशुद्ध और आनन्द होना चाहिये सुस्थिर, दृढ़प्रतिष्ठ और विशुद्ध । और इसकी पूर्णता की तीसरी शर्त यह है कि इसे पूर्ण समता में सुस्थित होना चाहिये । कामनामय पुरुष को अपनी कामनाओं के कोलाहल, आग्रह या वैषम्य से मुक्त होना होगा ताकि उसकी कामनाएं न्याय और सन्तुलन के साथ तथा ठीक ढंग से पूरी हो सकें और अन्त में तो उनको कामना के स्वरूप से सर्वथा मुक्त करके दिव्य आनन्द की प्रेरणाओं में रूपान्तरित कर देना होगा । इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये उसे सब प्रकार की मांगों को छोड़ना होगा, साथ ही, उसे हृदय, मन या आत्मा पर अपना अधिकार स्थापित करने की चेष्टा ही नहीं करनी होगी, बल्कि शान्त मन और शुद्ध हृदय के मार्ग के द्वारा उसके अन्दर आत्मा से जो कोई प्रेरणा एवं आदेश आयें उन्हें निष्क्रिय और सक्रिय दोनों प्रकार

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की दृढ़ समता के साथ स्वीकार करना होगा । इसी प्रकार हमारी सत्ता का प्रभु उस प्रेरणा का जो भी फल उसे प्रदान करे तथा उससे उसे जो भी कम या अधिक अथवा पूर्ण या शून्य भोग प्राप्त हो वह भी उसे स्वीकार करना होगा । तथापि, प्राप्ति और भोग उसका नियम-धर्म हैं, उसका कार्य, उपयोग एवं स्वधर्म हैं । उसका वध या दमन करना अभिप्रेत नहीं है, न उसे एक ऐसी वस्तु बना देना ही अभीष्ट है जिसकी ग्रहण-शक्ति कुन्द हो तथा जो विषण्ण, दमित, अपङ्ग, जड़ या वन्ध्य हो । उसके अन्दर प्राप्त करने की पूर्ण शक्ति, उपभोग की प्रसन्नतापूर्ण शक्ति तथा शुद्ध और दिव्य सम्वेग एवं आनन्द की उल्लासपूर्ण शक्ति अवश्य होनी चाहिये । उसे जो उपभोग प्राप्त होगा वह अपने सारतत्त्व में आध्यात्मिक आनन्द होगा, पर वह एक ऐसा आनन्द होगा जो मानसिक, भावमय, क्रियाशील, प्राणिक एवं भौतिक हर्ष को अपने अन्दर समाविष्ट करके रूपान्तरित कर देता है; अतएव, उसके अन्दर इन सब चीजों के लिये सर्वांगीण सामर्थ्य अवश्य होनी चाहिये; और अक्षमता या थकावट के कारण या फिर तीव्र एवं महान् अनुभूतियों को सहन करने में असमर्थ होने के कारण उसे आत्मा, मन, हृदय, संकल्पशक्ति और शरीर की अनुभूतियों का साथ देने में असफल नहीं हो जाना चाहिये । पूर्णता, शुभ्र पवित्रता और प्रसन्नता, समता, प्राप्ति और भोग के लिये सामर्थ्य--ये तत्त्व चैत्य प्राण की चतुर्विध पूर्णता के अंग हैं ।

 

   इसके बाद हमें जिस करण को पूर्ण बनाने की आवश्यकता है वह है चित्त, और इस शब्द के पूर्ण अर्थ के अन्तर्गत हम भावप्रधान और शुद्ध चैत्य सत्ता को समाविष्ट कर सकते हैं । मनुष्य का यह हृदय एवं चैत्य पुरुष, जो प्राण की अन्धप्रेरणाओं के तन्तुजाल से ओतप्रोत है, भावावेश और चैत्य स्पन्दनों के मिश्रित और अस्थिर रंगों से बनी हुई वस्तु है । ये भावावेश और चैत्य स्पन्दन अच्छे और बुरे, सुखद और दुःखद, तृप्त और अतृप्त, क्षुब्ध और शान्त तथा तीव्र और मन्द दोनों प्रकार के होते हैं । इन सबसे इस प्रकार आलोड़ित और आक्रान्त होने के कारण हमारा चित्त किसी भी प्रकार की वास्तविक शान्ति से परिचित नहीं है, अपनी सब शक्तियों की स्थिर पूर्णता प्राप्त करने में समर्थ नहीं है । शुद्धि और समता के द्वारा तथा ज्ञान की ज्योति और संकल्पशक्ति के सामंजस्य के द्वारा उसमें शान्त भावोद्रेक एवं पूर्णता की स्थिति लायी जा सकती है । इस पूर्णता के पहले दो अंग ये हैं--एक ओर तो उच्च और विशाल मधुरता, उन्मुक्तता, भद्रता, शान्ति, निर्मलता और दूसरी ओर प्रबल और उत्कट शक्ति एवं प्रचण्डता । साधारण मानवीय स्वभाव और कर्म की ही भांति दिव्य स्वभाव और कर्म में भी सदैव दो छोर होते हैं, माधुर्य और बल, मृदुता और शक्ति, सौम्य और रौद्र, धारण, सहन और समस्वर करनेवाली शक्ति, और अपना अधिकार जमाने और विवश कर देनेवाली

 

   १ पूर्णता, प्रसन्नता, समता, भोग-सामर्थ्य ।

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क्ति, विष्णु और ईशान, शिव और रुद्र । सर्वांगपूर्ण जागतिक कर्म के लिये दोनों समान रूप से आवश्यक हैं । हमारे हृदय में रुद्र-शक्ति जो-जो विकृत रूप धारण करती है वे ये हैं--तूफानी आवेश, क्रोध और भयंकरता और कठोरता, कठिनता, पाशविकता, क्रूरता, अहंपूर्ण महत्त्वाकांक्षा, तथा अत्याचार और आधिपत्य से प्रेम । हमें शान्त, निर्मल और मधुर चैत्य पुरुष को प्रस्कुटित करके इन तथा अन्य मानवीय विकृतियों से मुक्त होना होगा ।

 

   परन्तु दूसरी ओर, शक्ति को धारण करने की अक्षमता भी एक प्रकार की अपूर्णता है । जब भावप्रधान एवं चैत्य जीवन की शक्ति को किंवा अपने-आपको दृढ़तापूर्वक स्थापित करने की उसकी सामर्थ्य को दबाया और निरुत्साहित किया जाता है अथवा उसका मूलोच्छेद कर दिया जाता है तो उसके परिणामस्वरूप अन्ततः चित्त में शिथिलता और दुर्बलता, भोगासक्ति, एक प्रकार की अदृढ़ता एवं पंगुता या जड़ निष्कियता उत्पन्न हो जाती है । परन्तु केवल डटी रहने तथा सब कुछ सहन करनेवाली शक्ति को प्राप्त करना या केवल प्रेम, उदारता, सहिष्णुता, मृदुता, नम्रता एवं तितिक्षा से युक्त हृदय का विकास करना भी समग्र पूर्णता नहीं है । पूर्णता का दूसरा पक्ष है एक ऐसी आत्म-संहत, शान्त और अहंकाररहित रुद्रशक्ति जो चैत्य शक्ति से सम्पन्न हो किंवा बलवान् हृदय की एक ऐसी शक्ति जो बिना हिचकिचाये एक आग्रहपूर्ण एवं बाहर से कठोर दीखनेवाले कर्म को अथवा आवश्यकता पड़ने पर प्रचण्ड हिंसाकर्म को भी धारण करने में समर्थ हो; बल, शक्ति और सामर्थ्य का अपरिमित तेज जो हृदय की मधुरता और निर्मलता के साथ समस्वरित हो तथा कर्म में उसके साथ एकमय हों सकता हो, अर्थात् सोम की सुधामयी चन्द्र-रश्मियों के मण्डल से समुद्भूत होनेवाली इन्द्र की विद्युत् ही दोहरी पूर्णता है । और, इन दो शक्तियों, सौम्यत्व और तेजस् को अपने अस्तित्व और कार्य का आधार आभ्यन्तरिक प्रकृति तथा चैत्य पुरुष की दृढ़ समता पर रखना होगा । इसके लिये चैत्य पुरुष को समस्त असंस्कृतता से तथा हृदय की ज्योति अथवा शक्ति की समस्त अतिशयता या न्यूनता से मुक्त होना चाहिये ।

 

   दूसरा आवश्यक तत्त्व है हृदय की श्रद्धा, विश्व-कल्याण में विश्वास और उसके लिये संकल्प, विराट् आनन्द की ओर खुले होना । शुद्ध चैत्य पुरुष का सारतत्त्व है आनन्द, उसका उद्भव विश्व में विद्यमान आनन्दमय पुरुष से हुआ है; किन्तु भावावेश से युक्त स्थूल हृदय जगत् के परस्पर-विरोधी बाह्य रूपों से अभिभूत हो जाता है तथा शोक, भय, विषाद, राग और क्षणिक एवं आंशिक हर्ष-रूपी अनेक प्रतिक्रियाओं को अनुभव करता है । पूर्णता प्राप्त करने के लिये आवश्यकता है सम हृदय की, न कि केवल निष्क्रिय समता की; हमें एक ऐसी भागवत शक्ति की अनुभूति होनी चाहिये जो हमारे समस्त अनुभवों के पीछे हमारे कल्याणसाधन की ओर अग्रसर हो रही है, हमारे अन्दर एक ऐसी श्रद्धा एवं संकल्पशक्ति होनी चाहिये

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जो जगत् के विषों को अमृत में परिणत कर सके, विपदा के पीछे छुपे हुए एक अधिक सुखदायी आध्यात्मिक हेतु को, दुःख के पीछे प्रेम के रहस्य को तथा वेदना के बीज में छुपे हुए दिव्य शक्ति और आनन्द के पुष्प को देख सके । इस श्रद्धा, कल्याण-श्रद्धा, का होना आवश्यक है ताकि हृदय और सम्पूर्ण व्यक्त चैत्य सत्ता गुप्त दिव्य आनन्द को प्रत्युतर दे सके और इस वास्तविक मूल सारतत्त्व में अपने-आपको रूपान्तरित कर सके । इस श्रद्धा और संकल्प को असीम, विशालतम और गभीरतम प्रेम-शक्ति से समन्वित तथा उसकी ओर उन्मुक्त होना चाहिये । कारण, हृदय का मुख्य कार्य किंवा उसका सच्चा व्यापार है प्रेम । वह पूर्ण मिलन और एकत्व की प्राप्ति के लिये हमारा विधिनियत करण है; क्योंकि जगत् में केवल बुद्धि के द्वारा एकत्व को देखना ही पर्याप्त नहीं है जबतक कि हम हृदय के द्वारा तथा चैत्य पुरुष में भी उसे अनुभव न करें, और इसका अभिप्राय है, --एकमेव में तथा उसके अन्दर अवस्थित जगत् के सर्वभूतों में आनन्द लेना, भगवान् और समस्त वस्तुओं एवं प्राणियों से प्रेम । विश्व के कल्याण के विषय में हृदय की श्रद्धा एवं संकल्प इस अनुभव पर आधारित होते हैं कि एकमेव भगवान् सब पदार्थों में अन्तर्यामी-रूप से विराजमान हैं तथा जगत् का परिचालन कर रहे हैं । हृदय को समस्त जगत् में एकमेव भगवान् किंवा एकमेव आत्मा का जो यह दर्शन एवं चैत्य और भागवत अनुभव होता है उसीपर हमें विश्वप्रेम का आधार रखना होगा । तब चारों तत्त्व एकता में गठित हो जायेंगे और शुभ तथा मंगल के लिये युद्ध करने की रुद्र-शक्ति भी विश्व-प्रेम की शक्ति के आधार पर अपने कार्य में प्रवृत्त होगी । हृदय की सर्वोच्च और अत्यन्त विशिष्ट पूर्णता यह प्रेम-सामर्थ्य ही है ।

 

  करणों की पूर्णता में सबसे अन्त में आती है बुद्धि और चिन्तनात्मक मन की पूर्णता । इसके लिये सर्व-प्रथम आवश्यक वस्तु है बुद्धि की निर्मलता और पवित्रता । हमारी प्राणमय सत्ता सत्य के स्थान पर मन की कामना को थोपना चाहती है तथा क्षुब्ध भाव-प्रधान सत्ता, सत्य को भावावेशों के रूप-रंग से रञ्जित, विकृत और सीमित करके मिथ्या रूप देने का यत्न करती है; हमें बुद्धि को इन दोनों सत्ताओं की मांगों से मुक्त करना होगा । उसे अपने निज दोषों से भी मुक्त होना होगा, वे दोष हैं--विचार-शक्ति की जड़ता, ज्ञान की ओर खुलने में बाधा डालनेवाली संकीर्णता और अनिच्छा, चिन्तन की क्रिया में बौद्धिक यथार्थता और सावधानता का अभाव, पूर्व धारणा और पसन्दगी, बुद्धि में विद्यमान अहमात्मक इच्छा और ज्ञानप्राप्ति के संकल्प का मिथ्या निर्धारण । उसका एकमात्र संकल्प यह होना चाहिये कि वह सत्य, उसके सारतत्त्व एवं मान-प्रमाण को तथा उसके रूपों और सम्बन्धों को प्रतिबिम्बित करने के लिये एक निर्मल दर्पण बने, सामंजस्य का एक स्वच्छ मुकुर, यथोचित मानदण्ड और सूक्ष्म एवं सुन्दर यन्त्र अर्थात् सर्वांगपूर्ण बुद्धि बने । यह स्वच्छ और विशुद्ध बुद्धि तब प्रकाश से युक्त एक प्रशान्त करण

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एवं सत्य के सूर्य से निःसृत होनेवाली एक शुद्ध और शक्तिशाली ज्योति-रश्मि बन सकती है । किन्तु इसे भी केवल घनीभूत, शुष्क या श्वेत प्रकाशवाला करण ही नहीं बनना होगा, वरन् सब प्रकार के चित्र-विचित्र बोध को प्राप्त करने में समर्थ, नमनीय, समृद्ध, लचकीला भी होना चाहिये, समस्त तेज से देदीप्यमान तथा सत्य की अभिव्यक्ति के सब-के-सब रंगों के द्वारा चित्र-विचित्र और उसके सभी रूपों के प्रति उद्धाटित होना चाहिये । और इस प्रकार सुसम्पन्न होने पर वह सीमाओं से मुक्त हो जायेगी, ज्ञान की इस या उस शक्ति या क्रिया में अथवा उसके अमुकामुक रूप में बन्द नहीं रहेगी, बल्कि पुरुष उससे जिस भी काम की मांग करे उसके लिये तैयार रहनेवाला एक समर्थ यन्त्र बन जायेगी । विशुद्धता, निर्मल ज्ञान-ज्योति, समृद्ध और सुनम्य वैचित्र्य, सर्वांगीण सामर्थ्य--विशुद्धि प्रकाश, विचित्र-बोध, सर्वज्ञान-सामर्थ्य--चिन्तनात्मक बुद्धि की चतुर्विध पूर्णता का गठन करते हैं ।

 

  हमारे सामान्य करण जब इस प्रकार पूर्णता प्राप्त कर लेंगे तो वे एक-दुसरे के कार्य में अनुचित हस्तक्षेप किये बिना अपने-अपने ढंग से काम करेंगे तथा हमारी प्राकृत सत्ता की समस्वरित समग्रता में पुरुष के अप्रतिहत संकल्प की पूर्ति में सहायक होंगे । इस पूर्णता को अपनी कार्यक्षमता में, अपनी क्रियान्विति के शक्ति-सामर्थ्य में तथा सम्पूर्ण प्रकृति के क्षेत्र की एक विशेष प्रकार की महानता में निरन्तर उन्नत होते जाना होगा । तब हमारे करण अपने विज्ञानमय कार्य के करणों में रूपान्तरित होने के लिये तैयार हो जायेंगे जिनमें कि वे सारी-की-सारी पूर्णताप्राप्त प्रकृति के एक अधिक निरपेक्ष, एकीभूत और ज्योतिर्मय आध्यात्मिक सत्य को प्राप्त कर लेंगे । करणों की इस पूर्णता के साधनों पर हमें आगे एक प्रकरण में विचार करना होगा; पर अभी इतना कहना यथेष्ट होगा कि इसकी मुख्य-मुख्य अवस्थाएं हैं--संकल्प, आत्म-निरीक्षण और आत्मज्ञान तथा आत्म-परिवर्तन एवं रूपान्तर का सतत अभ्यास । 'पुरुष' में इस सबके लिये सामर्थ्य विद्यमान है क्योंकि अन्तःस्थ आत्मा सदा ही अपनी प्रकृति की क्रिया में परिवर्तन करके उसे पूर्ण बना सकती है । परन्तु मनोमय पुरुष को इसके लिये मार्ग प्रशस्त करना होगा और इसके साधन ये हैं--स्पष्ट तथा सतर्क अन्तर्निरीक्षण, एक ऐसे अन्वेषणशील एवं सूक्ष्म आत्मज्ञान की ओर अपने-आपको खोलना जो उसे अपने प्राकृत करणों का बोध तथा उत्तरोत्तर प्रभुत्व प्रदान करे, आत्मसंशोधन और आत्म-रूपान्तर का सजग और आग्रहपूर्ण संकल्प--क्योंकि प्रकृति को अन्ततोगत्वा, चाहे किसी भी कठिनाई एवं किसी भी प्रारम्भिक या सुदीर्घ प्रतिरोध के साथ क्यों न हो, इसी संकल्प को प्रत्युत्तर देना होगा, --और ऐसा अटूट अभ्यास जो समस्त दोष एवं विकार को निरन्तर दूर फेंकता रहे तथा उसका स्थान समुचित अवस्था और यथार्थ एवं उन्नत क्रिया को दे दे । जबतक हमारी मनोमय सत्ताओं की अपेक्षा महत्तर शक्ति एक अधिक सहज और द्रुत रूपान्तर को साधित करने के लिये सीधे ही हस्तक्षेप नहीं करती तबतक तपस्या और धैर्य का तथा ज्ञान एवं संकल्प की सत्यता और ऋजुता का आश्रय लेना आवश्यक है ।

 

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