Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ११
कर्म का स्वामी
हमारे कर्मों का स्वामी और प्रेरक है वह 'एक' जो विराट् एवं परम है तथा सनातन एवं अनन्त है । वह परात्पर, अविज्ञात या अज्ञेय परब्रह्म है, वह ऊर्ध्वस्थित, अप्रकट एवं अव्यक्त, अनिर्वचनीय देव है, साथ ही वह सर्वभूत की आत्मा, सब लोकों का स्वामी, सब लोकों से अतीत, प्रकाशस्वरूप तथा पथप्रदर्शक, सर्वसुन्दर एवं आनन्दघन, प्रेमी और प्रेमभाजन भी है । वह विश्वात्मा है तथा हमारे चारों ओर की यह सब स्रष्ट्री शक्ति भी है; वह हमारे भीतर अन्तर्यामी देव है । जो कुछ भी है वह सब वही है, और जो कुछ है उस सबसे भी वह 'अधिक' है । हम स्वयं, चाहे हम इसे जानते नहीं, उसकी सत्ता की सत्ता एवं उसकी शक्ति की शक्ति हैं और उसकी चेतना से निर्गत चेतना के द्वारा ही चेतन हैं । हमारी मर्त्य सत्ता भी उसके सत्तत्त्व में से बनी है और हमारे अन्दर एक अमर सत्ता भी है जो सनातन प्रकाश और आनन्द का स्फुलिंग है । अपनी सत्ता के इस सत्य को चाहे ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से या अन्य किसी भी साधन से जानना तथा उपलब्ध करना और यहां या और कहीं इसे कार्यक्षम बनाना ही योगमात्र का लक्ष्य है ।
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परन्तु सुदीर्घ यात्रा तथा कठिन प्रयास के उपरान्त ही हम सत्य का साक्षात् करनेवाली आंखों से भगवान् को देख पाते हैं, और यदि हम उसके सच्चे स्वरूप के अनुरूप अपनेको फिरसे गढ़ना चाहें तो हमें और भी दीर्घकाल तक तथा अधिक विकट पुरुषार्थ करना होगा । कर्म का स्वामी अपने-आपको जिज्ञासु के समक्ष तुरन्त ही प्रकाशित नहीं कर देता, चाहे बराबर ही उसीकी शक्ति पर्दे के पीछे से कार्य कर रही होती है, किन्तु वह प्रकट तभी होती है जब हम कर्तृत्व का अहंकार त्याग देते हैं, और जितना ही यह त्याग अधिकाधिक मूर्त्त होता जाता है उस शक्ति की प्रत्यक्ष क्रिया उतनी ही बढ़ती चली जाती है । किन्तु उसकी पूर्ण उपस्थिति में निवास करने का अधिकार हमें तभी प्राप्त होगा जब उसकी दिव्य शक्ति के प्रति हमारा समर्पण पूर्ण हो जायेगा । तभी हम यह भी देख सकेंगे कि हमारा कर्म अपने-आपको एक सहज-स्वाभाविक तथा पूर्ण रूप से भागवत संकल्प के सांचे में ढाल रहा है ।
अतएव, इस पूर्णता की प्राप्ति में कुछ क्रम और सोपान अवश्य होने चाहियें जैसे कि प्रकृति के किसी भी स्तर पर अन्य समस्त पूर्णता की ओर प्रगति में होते
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हैं । इसकी पूर्ण गरिमा का अन्तर्दर्शन हमें पहले भी, एकाएक या शनैः -शनैः, एक बार या अनेक बार, प्राप्त हो सकता है, परन्तु जबतक आधारशिला पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हो जाती, तबतक यह एक अल्पकालिक और केंद्रित अनुभूति ही होती है, स्थायी और सर्वतोव्यापी अनुभूति एवं शाश्वत उपस्थिति नहीं । भागवत उन्मेष के विशाल और अनन्त वैभव तो बाद में ही प्राप्त होते हैं और अपना बल-माहात्म्य शनैः -शनैः अनावृत करते हैं । अथवा, एक स्थिर अन्तर्दर्शन भी हमारी प्रकृति के शिखरों पर विद्यमान हो सकता है, किन्तु निम्नतर अंगों का पूर्ण प्रत्युत्तर तो क्रमशः ही प्राप्त होता है । सभी योगों में सर्वप्रथम आवश्यक वस्तुएं हैं--श्रद्धा और धैर्य । यदि हृदय की उत्कण्ठाएं और उत्सुक संकल्प की उग्रताएं --जो स्वर्ग के राज्य को बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लेना चाहती हैं, --इन अधिक विनीत और शान्त सहायकों को अपनी प्रचण्डता का आधार बनाने से घृणा करें, तो वें दुःखदायी प्रतिक्रियाएं पैदा कर सकती हैं । इस दीर्घ और कठिन पूर्णयोग के लिये सर्वांगीण श्रद्धा एवं अविचल धैर्य का होना अत्यन्त आवश्यक है ।
परंतु हृदय तथा मन की अधीरता और हमारी राजस प्रकृति की उत्सुक पर स्सलनशील इच्छा-शक्ति के कारण योग के विषम एवं संकीर्ण पथ पर इस श्रद्धा तथा धैर्य का उपार्जन वा अभ्यास करना कठिन होता है । प्राणिक प्रकृति का मनुष्य सदा ही अपने परिश्रम के फल के लिये तरसता है और यदि उसे ऐसा लगता है कि फल देने से इंकार किया जा रहा है या इसमें बहुत देर लगायी जा रही है तो वह आदर्श तथा पथप्रदर्शन में विश्वास करना छोड़ देता है । कारण, उसका मन सदा पदार्थों की बाह्य प्रतीति के द्वारा ही निर्णय करता है, क्योंकि यह उस बौद्धिक तर्क का प्रमुख और दृढ़ स्वभाव है जिसमें वह इतना अपरिमित विश्वास करता है । जब हम चिरकाल तक कष्ट भोगते या अन्धेरे में ठोकरें खाते हैं तब अपने हृदयों में भगवान् को कोसने से अथवा जो आदर्श हमने अपने सामने रखा है उसे त्याग देने से अधिक आसान हमारे लिये और कुछ नहीं होता । कारण, हम कहते हैं, ''मैंने सर्वोच्च सत्ता पर विश्वास किया है और मेरे साथ विश्वासघात करके मुझे दुःख, पाप और भ्रान्ति के गर्त में गिरा दिया गया है ।'' अथवा, ''मैंने एक ऐसे विचार पर अपने सारे जीवन की बाजी लगा दी है जिसे अनुभव के दृढ़ तथ्य खंडित तथा निरुत्साहित करते हैं । यह अधिक अच्छा होता कि मैं भी वैसा ही होता जैसे दूसरे आदमी हैं जो अपनी सीमाएं स्वीकार करते हैं और सामान्य अनुभव के स्थिर आधार पर विचरण करते हैं ।'' ऐसी घड़ियों में--और ये कभी-कभी बारम्बार आती हैं और देरतक रहती हैं--समस्त उच्चतर अनुभव विस्मृत हो जाता है और हृदय अपनी कटुता में डूब जाता है । यहांतक कि इन अंधेरे रास्तों में हम सदा के लिये पतित भी हो सकते हैं अथवा दिव्य संघर्ष से पराङ्मुख हो सकते है ।
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परन्तु यदि कोई पथ पर दूर तक तथा दृढ़ता से चल चुका हो तो हृदय की श्रद्धा उग्र-से-उग्र विरोधी दबाव में भी स्थिर रहेगी; यह आच्छादित या प्रत्यक्षतः अभिभूत भले ही हो जाय तो भी, यह पहला अवसर पाते ही फिर उभर आयेगी । कारण, हृदय या बुद्धि से ऊंची कोई वस्तु इसे अति निकृष्ट पतनों के होते हुए भी तथा अत्यन्त दीर्घकालीन विफलता में भी सहारा देगी । परन्तु ऐंसी दुर्बलताएं या अन्धकार की अवस्थाएं एक अनुभवी साधक की प्रगति में भी व्याघात पहुंचाती हैं और नौसिखुए के लिये तो ये अत्यन्त ही भयानक होती हैं । अतएव, यह आरम्भ से ही आवश्यक होता है कि हम इस पथ की विकट कठिनाई को समझें और इसे अंगीकार करें तथा उस श्रद्धा की आवश्यकता अनुभव करें जो बुद्धि को भले ही अन्ध प्रतीत होती हो फिर भी हमारी तर्कशील बुद्धि से अधिक ज्ञानपूर्ण होती है । कारण, श्रद्धा ऊपर से मिलनेवाला अवलंब है; यह उस गुप्त ज्योति की उज्जल छाया है जो बुद्धि और इसके ज्ञात तथ्यों से अतीत है । यह उस निगूढ़ ज्ञान का हृदय है जो प्रत्यक्ष प्रतीतियों का दास नहीं है । हमारी श्रद्धा, अटल रहकर, अपने कर्मों में युक्तियुक्त सिद्ध होगी और अन्त में दिव्य ज्ञान की स्वयंप्रकाशता में उन्नीत तथा रूपान्तरित हो जायगी । हमें सदा ही गीता के इस आदेश का दृढ़ता से अनुसरण करना होगा कि ''निराशा एवं अवसाद से रहित हृदय के द्वारा योग का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये ।''१ सदा ही हमें सन्देहशील बुद्धि के सम्मुख ईश्वर की यह प्रतिज्ञा दुहरानी होगी, ''मैं तुझे समस्त पाप एवं अशुभ से निश्चितरूपेण मुक्त कर दूंगा; शोक मत कर ।'' अन्त में, श्रद्धा की चंचलता दूर हों जायगी; क्योंकि हम भगवान् की मुखछवि निहार लेंगे और भागवत उपस्थिति को अनवरत अनुभव करेंगे ।
हमारे कर्मों का स्वामी जब हमारी प्रकृति का रूपान्तर कर रहा होता है तब भी वह इसका मान करता है; वह सदा हमारी प्रकृति के द्वारा ही अपनी क्रिया करता है, मन की मौज के अनुसार नहीं । हमारी इस अपूर्ण प्रकृति में हमारी पूर्णता की सामग्री भी निहित है, पर वह अविकसित, विकृत तथा स्थानभ्रष्ट है और अव्यवस्था या त्रुटिपूर्ण दुर्व्यवस्था के साथ एक ही जगह पटकी हुई है । इस सब सामग्री को धैर्यपूर्वक पूर्ण बनाना है, शुद्ध, पुनर्व्यवस्थित, नव-घटित तथा रूपान्तरित करना है; इसे न तो छिन्न-भिन्न तथा नष्ट- भ्रष्ट वा क्षत-विक्षत करना है और न कोरे बलात्कार वा इन्कार के द्वारा मिटा ही देना है । यह संसार तथा इसमें रहनेवाले हम सब उसी की रचना एवं अभिव्यक्ति हैं, और वह इसके साथ तथा हमारे साथ ऐसे ढंग से बर्ताव करता है जिसे हमारा क्षूद्र एवं अज्ञ मन तबतक नहीं समझ सकता जबतक
१ स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा-गीता ६-२३
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वह शान्त होकर दिव्य ज्ञान के प्रति उन्मुक्त न हों जाय । हमारी भूलों में भी एक ऐसे सत्य का उपादान रहता है जो हमारी अन्धान्वेषक बुद्धि के प्रति अपना अर्थ प्रकाशित करने का यत्न करता है । मानव-बुद्धि भूल को अपने अन्दर से निकालती है, पर साथ-ही-साथ सत्य को भी निकाल फेंकती है और उसके स्थान पर एक और अर्द्ध-सत्य, अर्द्ध-भ्रान्ति को ला बिठाती है । परन्तु भागवत प्रज्ञा हमारी भूलों को तबतक बनी रहने देती है जबतक हम प्रत्येक मिथ्या आवरण के नीचे गुप्त और सुरक्षित रखे हुए सत्य को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो जाते । हमारे पाप उस अन्वेषक शक्ति के भ्रान्त पग होते हैं जिसका लक्ष्य पाप नहीं, वरन् पूर्णत्व होता है अथवा एक ऐसा कर्म होता हैं जिसे हम दिव्य पुण्य कह सकते हैं । बहुधा वे एक ऐसे गुण को ढकनेवाले पर्दे होते हैं जिसे रूपान्तरित करके इस भद्दे आवरण से मुक्त करना होता है; अन्यथा, वस्तुओं के पूर्ण विधान में, उन्हें पैदा होने या रहने ही न दिया जाता । हमारे कर्मों का स्वामी न तो प्रमादी है न उदासीन साक्षी और न ही अनावश्यक बुराइयों की रंगरेलियों से मन बहलानेवाला, वह हमारी बुद्धि से अधिक ज्ञानी हैं, वह हमारे पुण्य से भी अधिक ज्ञानी है ।
यहीं नहीं कि हमारी प्रकृति इच्छा-शक्ति की दृष्टि से भ्रान्त तथा ज्ञान की दृष्टि से अज्ञ है, बल्कि शक्ति की दृष्टि से दुर्बल भी है । किन्तु भागवती शक्ति संसार में विद्यमान है और यदि हम उसपर विश्वास रखें तो वह हमें मार्ग दिखायेगी और हमारी दुर्बलताओं तथा हमारी क्षमताओं को दिव्य प्रयोजन के लिये प्रयुक्त करेगी । यदि हम अपने तात्कालिक लक्ष्य में असफल होते हैं तो वह इसलिये कि असफलता ईश्वर को अभिमत होती है । प्रायः हमारी विफलता या दुष्परिणाम ही ठीक मार्ग होता है जिसमें हमें तात्कालिक एवं पूर्ण सफलता से प्राप्य फल की अपेक्षा अधिक सच्चा फल प्राप्त होता है । यदि हम दुःख भोगते हैं तो वह इसलिये कि हमारे अन्दर के किसी भाग को आनन्द की एक अधिक दुर्लभ सम्भावना के लिये तैयार करना होता है । यदि हम ठोकर खाते हैं तो इसलिये कि अन्त में अधिक पूर्ण ढंग से चलने का रहस्य जान जायें । शान्ति, पवित्रता और पूर्णता प्राप्त करने के लिये भी हमें अति प्रचण्ड रूप में उतावले नहीं हो जाना चाहिये । शान्ति हमारी सम्पदा अवश्य होनी चाहिये, परन्तु एक रिक्त या लुण्ठित प्रकृति की अथवा उन घातित या अपंग शक्तियों की शान्ति नहीं जो चेष्टा करने में समर्थ ही नहीं रहती, क्योंकि हम उन्हें बल, ओज और तेज के अयोग्य बना डालते हैं । पवित्रता हमारा लक्ष्य अवश्य होनी चाहिये, किन्तु एक शून्य या निरानन्द एवं कठोर उदासीनता की पवित्रता नहीं । पूर्णता की हमसे मांग की जाती है, पर उस पूर्णता की नहीं जो अपने क्षेत्र को संकुचित सीमाओं में घेर कर अथवा अनन्त के नित्य-विस्तारशील कुंडल को मनमाने ढंग से छोटा करके ही अस्तित्व रख सकती है । हमारा लक्ष्य दिव्य प्रकृति में रूपान्तरित होना है, परन्तु दिव्य प्रकृति कोई
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मानसिक या नैतिक नहीं वरन् एक आध्यात्मिक अवस्था है जिसकी उपलब्धि करना यहांतक कि कल्पना करना भी हमारी बुद्धि के लिये कठिन है । हमारे कर्म तथा हमारे योग का स्वामी यह जानता है कि उसे क्या करना है, और हमारा कर्तव्य है कि हम उसे उसीकी साधन-सामग्री तथा उसीकी प्रणाली से अपने भीतर कार्य करने का अवकाश दें ।
अज्ञान की गति मूलतः अहंकारमय होती है और जब हम अभी अपनी अनिष्पन्न प्रकृति के अर्द्ध-प्रकाश एवं अर्द्ध-बल में व्यक्तित्व को अंगीकार करते तथा कर्म में आसक्त होते हैं तब अहंकार से छुटकारा पाना हमारे लिये एक अत्यन्त कठिन कार्य होता है । कर्म करने की प्रवृत्ति का त्याग कर अहं को भूखों मारना अथवा व्यक्तित्व की समस्त क्रिया से सम्बन्ध-विच्छेद कर अहं का नाश कर डालना अपेक्षाकृत सुगम है । इसे शान्तिमय समाधि में या दिव्य प्रेम के परमानन्द में निमग्र आत्म-विस्मृति के स्तर पर ऊंचा उठा ले जाना भी अपेक्षाकृत सरल है । परन्तु सच्चे 'पुरुष' को विमुक्त करके एक ऐसी दिव्य मानवता प्राप्त करना जो दिव्य बल का शुद्ध आधार तथा दिव्य कर्म का पूर्ण यन्त्र हो, एक अधिक कठिन समस्या है । एक के बाद एक सभी सोपानों को दृढ़ता से पार करना होगा; एक के बाद एक सभी कठिनाइयों को पूरी तरह से अनुभव करना और उन्हें पूरी तरह से जीतना होगा । दिव्य प्रज्ञा और शक्ति ही हमारे लिये यह कार्य कर सकती है और वह ऐसा करेगी ही यदि हम पूर्ण श्रद्धा से उसके चरणों में नतमस्तक होकर दृढ़ साहस तथा धैर्य के साथ उसकी कार्यप्रणालियो को हृदयंगम करें और उन्हें अपनी सहमति दें ।
इस दीर्घ पथ का प्रथम सोपान यह है कि हम अपने सभी कर्म अपने में तथा जगत् में विद्यमान भगवान् को यश-रूप में अर्पित करें । यह अर्पण मन तथा हृदय का भाव है; इसमें प्रथम प्रवेश तो इतना कठिन नहीं, किन्तु इसे पूर्ण रूप में सच्चा एवं व्यापक बनाना अत्यन्त कठिन है । द्वितीय सोपान है अपने कर्मों के फल में आसक्ति का परित्याग । कारण, यज्ञ का एकमात्र सच्चा, अवश्यम्भावी तथा परम स्पृहणीय फल--एकमात्र आवश्यक वस्तु--यही है कि हमारे भीतर भागवत उपस्थिति एवं भागवत चेतना तथा शक्ति प्रकट हों और यदि यह फल उपलब्ध हो जाय तो और सब कुछ स्वयमेव प्राप्त हो जायगा । तृतीय सोपान है केंद्रीय अहंभाव तथा कर्तृत्व के अहंकार से भी छुटकारा प्राप्त करना । यह सब से कठिन रूपान्तर है और यदि पहले दो सोपान पार न कर लिये गये हों तो इसे पूर्णतया सम्पन्न किया ही नहीं जा सकता । पर वे प्रारम्भिक सोपान भी तबतक पार नहीं हो सकते जबतक रूपान्तर की इस गति को सफल बनाने के लिये तीसरा सोपान प्रारम्भ नहीं हो जाता और यह अहंभाव का विनाश कर कामना के असली मूल का ही उन्मूलन नहीं कर देता । जब कोई जिज्ञासु अपने क्षुद्र अहंभाव को अपनी प्रकृति में से
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निकाल फेंकता है तभी वह उस सच्चे पुरुष को जान सकता है जो भगवान् के अंश और शक्ति के रूप में ऊपर अवस्थित है और तभी वह भागवत शक्ति के संकल्प से भिन्न अन्य समस्त प्रेरक-शक्ति का परित्याग भी कर सकता है ।
सर्वांगीण सिद्धि प्रदान करनेवाली इस अन्तिम गति के कई सोपान हैं; क्योंकि यह एकदम या उन लंबे प्रवेश-पथों के बिना पूरी नहीं की जा सकती जो इसे उत्तरोत्तर निकट ले आते हैं तथा अन्त में इसे सम्भव बना देते हैं । सर्वप्रथम हमें यह भाव धारण करना होगा कि हम अपने-आपको कर्त्ता समझना छोड़ दें और दृढ़तापूर्वक यह अनुभव करें कि हम वैश्व शक्ति के केवल एक यन्त्र हैं । प्रारम्भ में ऐसा दीख पड़ता है कि एक ही शक्ति नहीं, वरन् अनेक वैश्व शक्तियां हमें चला रही हैं । किन्तु इन्हें अहं की पोषक शक्तियों के रूप में भी परिणत किया जा सकता है और यह दृष्टि मन को तो मुक्त कर देती है, पर शेष प्रकृति को मुक्त नहीं करती । जब हमें यह ज्ञान हों जाये कि सब कुछ एक ही वैश्व शक्ति का तथा उसके मूल में विराजमान भगवान् का व्यापार है तब भी यह आवश्यक नहीं कि यह ज्ञान सारी प्रकृति को मुक्त कर ही देगा । यदि कर्तृत्व का अहंकार लुप्त हो जाय तो यन्त्रभाव का अहंकार इसका स्थान ले सकता है या एक छद्मवेश में इसी को जारी रख सकता है । जगत् का जीवन इस प्रकार के अहंभाव के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है और यह अन्य किसी भी अहंभाव की अपेक्षा अधिक ग्रस्त करनेवाला तथा अधिक घोर हो सकता है । यही भय योग में भी है । कोई मनुष्य मनुष्यों का नेता बन जाता है अथवा किसी बड़े या छोटे क्षेत्र में सुप्रसिद्ध हो जाता है और अपनेको एक ऐसी शक्ति से पूर्ण अनुभव करता है जो उसकी समझ में उसके अपने अहं-बल से परतर होती है । वह अपने द्वारा काम करनेवाले एक दैव से अथवा एक गुह्य एवं अगम संकल्पशक्ति या एक अतिभास्वर अन्तज्याति से सचेतन हो सकता है । ऐसे मनुष्य के विचारों और कार्यों अथवा उसकी सर्जनशील प्रतिभा के असाधारण परिणाम होते हैं । वह या तो एक बड़ा भारी विनाश करता है जो मानवता के लिये पथ प्रशस्त कर देता है अथवा वह एक महान् निर्माण करता है जो मानवजाति का एक क्षणिक पड़ाव होता है । वह या तो दण्ड देनेवाला होता है या प्रकाश एवं सुख का वाहक, या तो सौन्दर्य का स्रष्टा होता है या ज्ञान का अग्रदूत । अथवा, यदि उसका कार्य तथा उस कार्य के परिणाम अपेक्षाकृत कम महान् हों और यदि उनका क्षेत्र भी सीमित हो तो भी उसके अन्दर यह भाव प्रबल रूप में रहता है कि वह एक यन्त्र है और अपने भगवदीय कार्य या अपने प्रयास के लिये चुना दुआ है । जो लोग ऐसे भाग्य तथा इन शक्तियों से सम्पन्न होते हैं वे
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अपनेको सहज में ही ईश्वर या नियति के हाथों के निमित्तमात्र मानने तथा घोषित करने लगते हैं । परन्तु उस घोषणा में भी हम देख सकते हैं कि एक इतना अधिक तीव्र एवं बढ़ा-चढ़ा अहंकार भीतर घुस सकता या आश्रय पा सकता है जिसे घोषित करने का साहस या अपने अन्दर आश्रय देने का सामर्थ्य साधारण मनुष्यों में नहीं होता । बहुधा यदि इस प्रकार के लोग ईश्वर की बात करते हैं तो ऐसा वह उसकी एक ऐसी प्रतिमूर्ति खड़ी करने के लिये ही करते हैं जो वास्तव में स्वयं उनके या उनकी अपनी प्रकृति के विशाल प्रतिबिम्ब के सिवाय और उनके अपने विशिष्ट प्रकार के संकल्प, विचार, गुण तथा बल के पोषक दैविक सार के सिवाय और कुछ नहीं होती । उनके अहं का यह परिवर्द्धित आकार ही वह स्वामी होता है जिसकी वे सेवा करते हैं । योग में प्रबल, पर असंस्कृत प्राणिक प्रकृति या मनवाले उन लोगों के साथ जो चटपट ऊंचे उठ जाते हैं ऐसा प्रायः ही होता है जब कि वे महत्त्वाकांक्षा, अभिमान या बड़े बनने की कामना को अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा में घुसने देते हैं तथा उसके द्वारा इसके प्रेरकभाव की शुद्धता को कलुषित होने देते हैं । वास्तव में उनके और उनकी सच्ची सत्ता के बीच में एक परिवर्द्धित अहं स्थित होता है । यह अहं उस, दिव्य या अदिव्य, महत्तर अगोचर शक्ति से, जो उनके द्वारा काम कर रही होती है और जिससे वे अस्पष्ट या तीव्र रूप में सचेतन हो जाते हैं, अपने वैयक्तिक प्रयोजन के लिये बल आयत्त कर लेता है । अतः, इस प्रकार का बौद्धिक ज्ञान या प्राणगत बोध कि एक शक्ति है जो हमसे महत्तर है और हम उसीसे परिचालित होते हैं, हमें अहं से मुक्त करने के लिये पर्याप्त नहीं है ।
यह ज्ञान अथवा यह बोध कि हममें या हमारे ऊपर एक महत्तर शक्ति विद्यमान है और वह हमें चला रही है कोई भ्रम या गर्वोंन्माद नहीं होता । जिन्हें ऐसा अनुभव एवं साक्षात्कार होता है उनकी दृष्टि साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक विशाल होती है और वे सीमित स्थूल बुद्धि से एक पग आगे बढ़े हुए होते हैं परन्तु उनकी दृष्टि पूर्ण दृष्टि या साक्षात् अनुभूति नहीं होती । क्योंकि उनके मन में स्पष्टता वा ज्ञानज्योति तथा उनकी आत्मा में सचेतनता नहीं होती, और क्योंकि उनकी जागृति आत्मा के आध्यात्मिक तत्त्व की अपेक्षा कहीं अधिक प्राणमय भागों में ही होती है, वे भगवान् के सचेतन यन्त्र नहीं बन सकते अथवा अपने स्वामी का साक्षात्कार नहीं कर सकते, बल्कि भगवान् ही उन्हें उनकी भ्रान्तिशील तथा अपूर्ण प्रकृति के द्वारा अपने उपयोग में लाते हैं । देवत्व को वे अधिक-से-अधिक दैव या एक वैश्व शक्ति के रूप में ही देखते हैं अथवा वे एक सीमित देव को या इससे भी निकृष्ट रूप में, एक दानवीय या राक्षसी शक्ति को, जो उसे छिपाये होती है, देव का नाम दे देते हैं । यहां तक कि कई धर्म-संस्थापकों ने भी एक साम्प्रदायिक ईश्वर या राष्ट्रीय ईश्वर की, अथवा आतंक एवं दण्ड की किसी शक्ति की या सात्त्विक प्रेम, दया और पुण्य के देवता की प्रतिमा खड़ी कर दी है और प्रतीत
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होता है कि एकमेव और सनातन का साक्षात्कार उन्होने नहीं किया है । भगवान् उस प्रतिमा को स्वीकार कर लेते हैं जो वे उनकी बनाते हैं और उस माध्यम के द्वारा उनमें अपना कार्य करते हैं । परशु क्योंकि वह एक शक्ति उन्हें अपने अन्दर दूसरों की अपेक्षा अधिक तीव्र रूप में अनुभूत होती है और उनकी अपूर्ण प्रकृति में वह अधिक प्रबलता से कार्य करती है, अहंभाव का प्रेरक तत्त्व भी उनके अन्दर दूसरों की अपेक्षा अधिक उत्कट हो सकता है । एक उन्नत या सात्त्विक अहंभाव अभी भी उन्हें अपने अधिकार में किये होता है और उनके तथा सर्वांगीण सत्य के बीच में आड़े आता हैं । यह भी कुछ चीज अवश्य है, एक आरम्भ अवश्य है, चाहे सत्य और पूर्ण अनुभव से यह अभी दूर ही है । जो लोग मानवीय बंधनों को थोड़ा बहुत तोड़ डालते हैं, किन्तु पवित्रता और ज्ञान से रहित होते हैं, उनकी तो और भी अधिक दुर्दशा हो सकतीं है, क्योंकि वे यन्त्र तो बन सकते हैं, पर भगवान् के नहीं; बहुधा वे भगवान् के नाम पर 'वृत्रों' की, अर्थात उसके आवरणों तथा काले विरोधियों एवं अन्धकार की शक्तियों की ही अनजान में सेवा करते हैं ।
हमारी प्रकृति को अपनेमें वैश्व शक्ति की प्रतिष्ठा अवश्य करनी चाहिये, किन्तु इसके निम्नतर रूप में अथवा इसकी राजसिक वा सात्त्विक गतिवाले रूप में नहीं; इसे वैश्व संकल्प की सेवा अवश्य करनी चाहिये, पर एक महत्तर मोक्षकारी ज्ञान के प्रकाश में । हमारे यन्त्रत्व के भाव में किसी प्रकार का अहंकार कदापि नहीं होना चाहिये, तब भी नहीं जब हम अपनी अन्त:स्थ शक्ति की महत्ता से पूर्णत: सचेतन हों । प्रत्येक मनुष्य, सचेतन रूप से हो या अचेतन रूप से, एक वैश्व शक्ति का यन्त्र है और किसी एक तथा दूसरे कार्य में एवं किसी एक तथा दूसरे प्रकार के यन्त्र में आभ्यन्तर उपस्थिति के सिवाय और कोई ऐसा सारभूत भेद नहीं होता जो अहंमूलक अभिमान की मूर्खता को उचित ठहरा सके । ज्ञान और अज्ञान में अन्तर केवल आत्मा की कृपा का ही होता है; भागवत शक्ति का श्वास जिसे वरण करता है उसीमें प्रवाहित होता है और आज एक को तथा कल किसी दूसरे को वाणी या बल से पूरित कर देता है । यदि कुम्भकार एक पात्र दूसरे की अपेक्षा अधिक पूर्णता से गढ़ता है तो उसका श्रेय पात्र को नहीं, बल्कि निर्माता को होता है । हमारे मन का भाव यह नहीं होना चाहिये कि ''यह मेरा बल है'' अथवा देखो ''मुझमें ईश्वर की शक्ति है'', वरन् यह कि ''इस मन तथा शरीर में भागवती शक्ति कार्य कर रही है और यह वही है जो सभी मनुष्यों तथा प्राणियों में, पौधे तथा धातु में, सचेतन तथा सजीव वस्तुओं में और अचेतन तथा निर्जीव प्रतीत होनेवाली वस्तुओं में भी कार्य करती हैं ।'' एक ही देव सबमें कार्य कर रहा है और सम्पूर्ण संसार समान रूप से एक दिव्य कर्म तथा क्रमिक आत्म-अभिव्यक्ति का यन्त्र है--यह विशाल दृष्टि यदि हमारी अखण्ड अनुभूति बन जाय तो यह हमें अपने अन्दर से समस्त राजसिक अहंकार को निकाल डालने में सहायक होगी और फिर सात्त्विक
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अहं-बुद्धि भी हमारी प्रकृति से क्रमश: दूर होने लगेगी । अहं के इस रूप का परित्याग हमें सीधा उस वास्तविक यन्त्रिय कार्य की ओर ले जाता है जो सर्वांगीण कर्मयोग का मूलतत्त्व है । कारण, जब हम यन्त्रभाव के अहंकार का पोषण कर रहे होते हैं, तब हम अपने निकट तो यह दावा कर सकते हैं कि हम भगवान् के सचेतन यन्त्र हैं, पर वास्तव में हम भागवत शक्ति को अपनी कामनाओं या अपने अहंमूलक प्रयोजन का यन्त्र बनाने का यत्न कर रहे होते हैं । यदि अहं को वश में कर लिया जाये, पर इसका उन्मूलन न किया जाये तो हम दिव्य कर्म के इंजन तो अवश्य बन सकते हैं, पर हम अपूर्ण उपकरण ही रहेंगे और अपने मन की भूलों, प्राण की विकृतियों या भौतिक प्रकृति की हठीली दुर्बलताओं के द्वारा शक्ति की क्रिया को पथच्युत या क्षत-विक्षत ही कर देंगे । यदि यह अहं नष्ट हो जाय तो हम सच्चे अर्थों में ऐसे शुद्ध यन्त्र बन सकते हैं जो हमें चलानेवाले दिव्य हस्त की प्रत्येक गति को सचेतन रूप से अंगीकार करेंगे, इतना ही नहीं, बल्कि हम अपनी सच्ची प्रकृति से सज्ञान भी हो सकते हैं, उस एकमेव सनातन तथा अनन्त के ऐसे सचेतन अंश बन सकते हैं जिन्हें परम शक्ति ने अपने अन्दर अपने कार्यों के लिये प्रसारित किया है ।
अपना यन्त्र-स्वरूप अहं भागवती शक्ति को समर्पित करने के बाद एक और महत्तर सोपान पार करना होता है । भागवती शक्ति के इस रूप का ही ज्ञान पर्याप्त नहीं है कि यहीं वह एकमात्र वैश्व शक्ति है जो मन, प्राण तथा जड़ के स्तर पर हमें तथा सब प्राणियों को प्रचालित करती है । कारण, यह तो निम्नतर प्रकृति है और, यद्यपि भागवत ज्ञान, प्रकाश एवं बल अज्ञान में भी निगूढ़ तथा क्रियाशील रूप में विद्यमान हैं और इसके आवरण को कुछ भेद करके अपना सत्य-स्वरूप यत्किञ्चित् व्यक्त कर सकते हैं अथवा ऊपर से अवतीर्ण होकर इन हीन क्रियाओं को ऊंचा उठा सकते हैं, तथापि अपने अध्यात्म-भावित मन, अध्यात्म-भावित प्राण-गति और अध्यात्म-भावित देह-चेतना के अन्दर हमें एकमेव का अनुभव हो जाने पर भी, हमारे क्रियाशील अंगों में अपूर्णता बनी ही रहती है । परम शक्ति के प्रति हमारा प्रत्युत्तर तब भी स्खलनशील होता है, भगवान् का मुखमण्डल तब भी आवृत रहता है और अज्ञान का सतत मिश्रण भी बना ही रहता है । भागवत शक्ति के बल एवं ज्ञान के पूर्ण यन्त्र तो हम तभी बन सकते हैं यदि हम उसके प्रति--इस निम्न प्रकृति का अतिक्रम करनेवाले उसके सत्य--स्वरूप के प्रति--उन्मीलित हो जायें ।
केवल मुक्ति ही नहीं अपितु परिपूर्णता कर्मयोग का लक्ष्य होनी चाहिये । भगवान् हमारी प्रकृति द्वारा तथा हमारी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करता है; यदि हमारी प्रकृति अपूर्ण हो तो भगवान् का कर्म भी अपूर्ण,. मिश्रित एवं अयुक्त होगा ।
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यहां तक कि वह स्थूल भ्रान्तियों, असत्यों, नैतिक दुर्बलताओं और विक्षेपक प्रभावों से व्याहत भी हो सकता है । भगवान् का कर्म हमारे अन्दर तब भी होता रहेगा, पर होगा हमारी दुर्बलताओं के अनुसार, अपने उद्गम की शक्ति और पवित्रता के अनुसार नहीं । यदि हमारा योग सर्वांगीण योग न होता, यदि हमें अपने अन्त:स्थित आत्मा की मुक्ति, या प्रकृति से वियुक्त पुरुष की निश्चल सत्ता ही अभीष्ट होती, तो इस व्यावहारिक अपूर्णता की हमें कुछ भी परवा न होती । शान्त, अक्षुब्ध, हर्ष और विषाद से रहित, पूर्णता और अपूर्णता, गुण और दोष तथा पाप और पुण्य को अपना न मानते हुए और यह अनुभव करते हुए कि प्रकृति के गुण ही अपने क्षेत्र में कार्य करते हुए यह मिश्रण पैदा करते हैं, हम आत्मा की नीरवता में प्रतिगमन कर सकते थे और शुद्ध एवं निर्लिप्त रहकर केवल साक्षी की भांति प्रकृति के व्यापारों को देख सकते थे । परन्तु सर्वांगीण उपलब्धि में यह निश्चलता हमारे मार्ग का एक सोपानमात्र हो सकती है, अन्तिम पड़ाव नहीं, क्योंकि हमारा लक्ष्य आत्मसत्ता की स्थितिशीलता में ही नहीं, वरन् प्रकृति की गति में भी दिव्य चरितार्थता उपलब्ध करना है । ऐसा पूरी तरह से तबतक नहीं हो सकता, जबतक हम अपने कार्यों के प्रत्येक पग में तथा इनकी प्रत्येक गतिविधि और रूप-रेखा में, अपने संकल्प के प्रत्येक झुकाव तथा प्रत्येक विचार, भाव एवं आवेग में भगवान् की उपस्थिति और शक्ति को अनुभव नहीं कर लेते । इसमें सन्देह नहीं कि एक दृष्टि से हम अज्ञान की प्रकृति में भी भगवान् की उपस्थिति एवं शक्ति का अनुभव कर सकते हैं, परन्तु वह होगी एक प्रच्छन्न दिव्य शक्ति तथा उपस्थिति, एक वामनाकृति एवं क्षुद्र मूर्ति । हमारी मांग इससे बहुत बड़ी है, वह यह कि हमारी प्रकृति भगवान् के परम सत्य एवं परा ज्योति में, नित्य आत्म-सचेतन संकल्प की शक्ति और सनातन ज्ञान की बृहत्ता में भगवान् की ही एक विर्भूते बन जाये ।
अहं का पर्दा हटाने के बाद प्रकृति और इसके उन निम्नतर गुणों का पर्दा हटाना होता है जो हमारे तन-मन-जीवन पर शासन करते हैं । अहं की सीमाएं ज्यों ही लुप्त होने लगती हैं त्यों ही हमें पता चल जाता है कि वह पर्दा किस चीज का बना हुआ है और हम अपने में विश्व-प्रकृति की क्रिया होती देखते हैं एवं विश्व-प्रकृति के भीतर या इसके मूल में विश्वात्मा की उपस्थिति तथा जगद्वयापी ईश्वर की विराट् गति अनुभव करते हैं । यन्त्र का स्वामी इस अखिल क्रिया के पीछे अवस्थित है और इसके भीतर भी उसका स्पर्श किंवा उसके महान् पथप्रदर्शक या प्रवर्तक प्रभाव की प्रेरणा उपस्थित रहती है । तब हम अहं या अहं-शक्ति की सेवा नहीं करते; हम जगत् के स्वामी और उसके विकाससम्बन्धी सम्वेग का अनुसरण करते हैं । पग-पग पर हम संस्कृत के एक पद्य की भाषा में कहते हैं कि ''मेरे हृदय में बैठे हुए आप मुझे जैसे प्रेरित करते हैं वैसे ही, हे स्वामिन्--मैं कार्य करता हूं ।'' १
१ त्वया हृषीकेश हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।
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फिर भी, वह कार्य दो अत्यन्त भिन्न कोटियों का हो सकता है, एक तो वह जो केवल प्रकाशयुक्त होता है और दूसरा वह जो महत्तर एवं परा प्रकृति में रूपान्तरित तथा उन्नीत हुआ होता है । कारण, हम अपनी प्रकृति द्वारा धारित तथा अनुसृत होकर कर्ममार्ग पर चलते चले जा सकते हैं और जहां पहले हम प्रकृति और इसके अहंता-रूपी भ्रम के द्वारा ''यन्त्रारूढ़ की भांति चलाये जाते थे'', वहां अब हम इस बात को पूर्ण रूप से समझते हुए चल सकते हैं कि इस यन्त्र की क्रिया क्या है और सब कर्मों के स्वामी, जिन्हें हम इस क्रिया के पीछे अनुभव करते हैं, अपने जागतिक प्रयोजनों के लिये इसका क्या उपयोग करते हैं । निश्चय ही यह वह अवस्था है जिसे अनेक महान् योगी भी आध्यात्मीकृत मन के स्तरों पर प्राप्त कर चुके हैं; परन्तु यह आवश्यक नहीं कि हम सदा-सर्वदा ऐसी ही स्थिति में रहें, क्योंकि एक इससे भी महान् एवं अतिमानसिक सम्भावना विद्यमान है । अध्यात्म- भावापन्न मन से ऊंचे उठ जाना तथा परमोच्च माता की आद्या भागवती सत्य-शक्ति की जीवन्त उपस्थिति में सहज स्फुरणापूर्वक कर्म करना भी सम्भव है । हमारी गति उसकी गति से एकीभूत तथा उसमें निमज्जित हो जायेगी, हमारा संकल्प उसके संकल्प से एकीभूत, तथा हमारी शक्ति उसकी शक्ति में दायित्वमुक्त हो जायेगी और हम अनुभव करेंगे कि वह हमारे द्वारा इस प्रकार कर्म कर रही है मानों परमा प्रज्ञा-शक्ति के रूप में अभिव्यक्त साक्षात् भगवान् ही कर्म कर रहे हों । हमें अपने रूपान्तरित मन, प्राण तथा शरीर ऐसे जान पड़ेगे मानों वे अपने से अत्युच्च उस परा ज्योति एवं शक्ति की प्रणालिकाएं मात्र हों जो, अपने ज्ञान में परात्पर तथा परिपूर्ण होने के कारण, अपनी क्रिया-पद्धति में निर्भ्रान्त हैं । हम इस ज्योति एवं शक्ति के वाहन, साधन तथा यन्त्र ही नहीं, अपितु एक परम उदात्त शाश्वत अनुभूति में इसके अंग बन जायेंगे ।
इस चरम पूर्णता तक पहुंचने से पहले ही, हम भगवान् के साथ अपने कर्मों में, --उसके अत्यन्त ज्योतिर्मय शिखरों पर नहीं तो उसकी निरतिशय विशालता में, --मिलन लाभ कर सकते हैं । कारण, अब हम केवल प्रकृति या इसके गुणों को ही अनुभव नहीं करते, अपितु अपनी शारीरिक चेष्टाओं, स्नायविक एवं प्राणिक प्रतिक्रियाओं और मानसिक व्यापारों में एक ऐसी शक्ति को भी अनुभव कर लेते हैं जो शरीर, मन और प्राण से अधिक महान् है और जो हमारे सीमित करणों को अपने अधिकार में कर लेती और इनकी सभी गतियों का परिचालन करती है । अब हमें यह प्रतीति नहीं होती है कि हम ही गति कर रहे हैं और हम ही विचार या अनुभव कर रहे हैं, वरन् यह कि वही हमारे अन्दर गति, विचार और अनुभव कर रही है । यह शक्ति जिसे हम अनुभव करते हैं भगवान् की वैश्व शक्ति है, जो या तो आवृत रहती हैं या अनावृत, या तो स्वयं साक्षात् रूप में कार्य करती है या संसार के जीवों को अपनी शक्तियों का प्रयोग करने देती है । यहीं एकमात्र सत्
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शक्ति है और यही विश्वगत या व्यक्तिगत कार्य को सम्भव बनाती है । कारण, यह शक्ति तो स्वयं भगवान् ही है--अपनी शक्ति के विग्रह में । सब कुछ यह शक्ति ही है, कार्य की शक्ति, विचार एवं ज्ञान की शक्ति, प्रभुत्व एवं उपभोग की शक्ति, प्रेम की शक्ति । प्रतिक्षण या प्रति वस्तु में, अपने में तथा दूसरों में, सचेतन रूप से यह अनुभव करते हुए कि सर्वकर्ममहेश्वर उनमें विद्यमान है तथा इस विराट् शक्ति से, जो वह स्वयं ही है, वह सब वस्तुओं और सब घटनाओं को धारण करता है, इनमें निवास करता तथा इनका उपभोग करता है और इसी शक्ति द्वारा वह स्वयं इन सब वस्तुओं तथा सब घटनाओं के रूप में सम्भुत वा प्रकट होता है, --हम कर्मों द्वारा भागवत मिलन प्राप्त कर चुके होंगे और कर्मों में उपलब्ध इस कृतार्थता से वह सब भी अधिगत कर चुके होंगे जो कुछ दूसरों ने पराभक्ति या शुद्ध ज्ञान से उपलब्ध किया । परन्तु अभी भी एक और शिखर है जो हमें आहूत करता है, वह है--इस विश्वमय एकत्व से उठकर दिव्य परात्परता के एकत्व में आरोहण करना । हमारे कर्मों तथा हमारी सत्ता का स्वामी इहलोक में हमारा अन्तर्यामी ईश्वर ही नहीं है, न ही वह विश्वात्मा या किसी प्रकार की सर्वव्यापी शक्तिमात्र है । जगत् और भगवान् बिल्कुल एक ही चीज नहीं हैं, जैसा कि एक विशेष प्रकार के सर्वेश्वरवादी विचारकों का अभिमत है । जगत् अंशविभूति है; यह किसी ऐसी वस्तु पर अवलंबित है जो इसमें प्रकट तो होती है, पर इससे सीमित नहीं हो जाती । भगवान् केवल यहां ही हों ऐसी बात नहीं; एक परतत्त्व का भी अस्तित्व है, अनन्त परात्परता की भी अस्ति है । व्यष्टि-सत्ता भी, अपने आध्यात्मिक अंश में, वैश्व सत्ता के अन्दर बनी हुई कोई रचना नहीं है--हमारा अहं, हमारा मन, प्राण ओर शरीर अवश्य ही ऐसी रचनाएं हैं; परन्तु हमारे अन्दर की नित्य निर्विकार आत्मा किंवा हमारा अविनाशी जीव परात्परता में से प्रादुर्भूत हुआ है ।
वह परात्पर, जो सकल जगत् और सम्पूर्ण प्रकृति से परे है और फिर भी जगत् तथा इसकी प्रकृति का स्वामी हैं, जो अपने एकांश से इसमें अवतरित है और इसे एक अभूतपूर्व वस्तु में रूपान्तरित कर रहा है, --वह हमारी सत्ता का भी मूल है और वही हमारे कर्मों का उद्गम एवं स्वामी भी है । परन्तु परात्पर चेतना का धाम है ऊर्ध्व में, दिव्य सत्ता की केवलता में--और सनातन देव की पराशक्ति, सत्य एवं आनन्द भी वहीं है; हमारा मन उस केवलता की तनिक भी कल्पना नहीं कर सकता और हमारा बड़े-से-बड़ा आध्यात्मिक अनुभव भी हमारे अध्यात्म-भावित मन तथा हृदय में उस केवलता का एक क्षीण प्रतिबिम्बमात्र होता हैं, उसकी एक मन्द छाया एवं क्षुद्र शाखा ही होता है । तथापि इसीसे उद्भूत, ज्योति, शक्ति, आनन्द
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और सत्य का एक प्रकार का सौवर्ण प्रभामण्डल भी विद्यमान है जिसे प्राचीन गुह्यदर्शियों की भाषा में दिव्य ऋत-चेतना, अतिमानस वा विज्ञान कह सकते हैं । इस अविद्याजन्य, हीनतर-चेतनामय जगत् का उस विज्ञान से गूढ़ सम्बन्ध है और वह विज्ञान ही इसे धारण करता तथा विघटित अस्तव्यस्त स्थिति में गिरने से बचाता है । जिन शक्तियों को हम आज प्रज्ञान, अन्तर्ज्ञान या ज्ञानदीप्ति का नाम देकर सन्तोष कर लेते हैं वे तो केवल क्षीणतर प्रकाश हैं जिनका वह पूर्ण एवं जाज्वल्यमान उद्गम है । उच्चतम मानवीय बुद्धि के तथा उसके बीच आरोहणशील चेतना के अनेक स्तर हैं; उच्चतम मानसिक या अधिमानसिक स्तर हैं जिन्हें अधिकृत करने के बाद ही हम वहां पहुंच सकते हैं अथवा उसकी महिमा-गरिमा यहां उतार ला सकते हैं । यह आरोहण अथवा यह विजय कठिन भले ही हो, पर यह मानव--आत्मा की नियति है और दिव्य सत्य का ज्योतिर्मय अवरोहण या अवतरण पृथ्वी-प्रकृति के कृच्छ विकास की एक अवश्यम्भावी अवस्था है । वह उद्दिष्ट पूर्णता ही मानव--आत्मा के अस्तित्व का हेतु है, हमारी सर्वोच्च अवस्था तथा हमारे पार्थिव जीवन का मर्म है । कारण, यद्यपि परात्पर भगवान् हमारी रहस्यता के गुह्य हृदय में पुरुषोत्तम के रूप में यहां पहले से ही विराजमान हैं, तथापि वह अपनी सम्मोहिनी विश्वव्यापी योगमाया के नाना आवरणों एवं छद्मवेषों के द्वारा आवृत है । इहलोक में इस देह के भीतर आत्मा के आरोहण एवं विजय से ही वे आवरण-पट खुल सकते हैं, और अर्द्ध-सत्य का यह उलझा दुआ बाना जो सर्जनकारी भ्रम बन जाता है तथा यह उदयनशील ज्ञान जो जुड़-तत्त्व की निश्चेतना में डुबकी लगाकर धीमे-धीमे और थोड़ा- थोड़ा अपनी ओर लौटता हुआ एक प्रबल अज्ञान में परिणत हो जाता है--इन दोनों के स्थान पर परम सत्य की क्रियाशीलता प्रतिष्ठित हों सकती है ।
कारण, यहां इस जगत् के अन्दर विज्ञान सत्ता के मूल में गुप्त रूप से चाहे विद्यमान है, किन्तु जो शक्ति यहां क्रिया कर रही है वह विज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान--अज्ञान का इन्द्रजाल है, एक अपरिमेय पर प्रत्यक्षत: -यान्त्रिक अधिमानस-माया है । भगवान् हमें यहां अखण्ड दृष्टि में यों दिखायी देता है कि वह एक सम, निष्क्रिय एवं निर्व्यक्तिक साक्षी आत्मा है, गुण या देश-काल के बन्धन से रहित एक अचल, अनुमन्ता पुरुष है । उसका आश्रय या अनुमति समस्त कर्म तथा उन सब शक्तियों की क्रीड़ा को निष्पक्ष रूप से प्राप्त होती है जिन्हें परात्पर संकल्प ने इस जगत् में अपने-आपको चरितार्थ करने के लिये एक बार स्वीकृति और अधिकार दे दिया है । वस्तुओं में निहित यह साक्षी आत्मा या यह अचल आत्मतत्त्व किसी प्रकार का भी संकल्प और निर्धारण नहीं करता प्रतीत होता । परन्तु हमें यह अनुभव हो जाता है कि उसकी यह निष्क्रियता एवं मौन उपस्थिति ही सब वस्तुओं को उनके अज्ञान में भी एक दिव्य लक्ष्य की ओर यात्रा करने के लिये बाध्य करती
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है और विभाजन की अवस्था से उन्हें एक अद्यावधि-अचरितार्थ एकत्व की ओर आकृष्ट करती है । तथापि कोई परम निर्भ्रान्त भागवत संकल्प यहां विद्यमान प्रतीत नहीं होता, केवल एक विपुलतया विस्तारित विश्व-शक्ति अथवा एक यान्त्रिक कार्यवाहक 'प्र-क्रिया', 'प्र-कृति' ही, प्रतीत होती है । यह विश्वात्मा का एक पार्श्व है । उसका एक दूसरा पार्श्व भी है जो अपने को विश्वमय भगवान् के रूप में प्रस्तुत करता है, वह सत्ता में एक है, व्यक्तित्व एवं शक्ति में बहुविध । जब हम उसकी विराट् शक्तियों की चेतना में प्रवेश करते हैं तो वह हमें अनन्त गुण, संकल्प, कर्म, विश्वव्यापी विशाल ज्ञान तथा एक किन्तु असंख्यविध आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है । कारण, उसके द्वारा हम सर्वभूतों के साथ सारतः ही नहीं, बल्कि उनकी कार्यलीला में भी एक हो जाते हैं, अपनेको सबमें और सबको अपनेमें देखते हैं, समस्त ज्ञान, विचार एवं भाव को एक ही मन तथा हृदय की चेष्टाएं और समस्त बल एवं कर्म को एक ही सर्वसमर्थ संकल्प की गति अनुभव करते हैं; समस्त जड़तत्त्व और आकार को एक ही देह के अंग-प्रत्यंग, सब व्यक्तियों को एक ही व्यक्ति की शाखा-प्रशाखाएं एवं अहंभावों को एकमेवाद्वितीय वास्तविक सत्स्वरूप ''मैं'' की विकृतियां अनुभव करते हैं । उसमें तब हमारी कोई पृथक् स्थिति नहीं रह जाती, वरन् हमारा सक्रिय अहंकार वैश्व गति में वैसे ही खो जाता है जैसे निर्गुण, नित्य-निर्लिप्त एवं अनासक्त साक्षी के द्वारा हमारा स्थितिशील अहंभाव सार्वभौम शान्ति में लीन हो जाता है ।
परन्तु अभी भी, दूरस्थ दिव्य निश्चल-नीरवता तथा सर्वव्यापी दिव्य कर्म, इन दोनों अवस्थाओं में विरोध बना रहता है । इसका हम अपने अन्दर एक ऐस प्रकार से एवं ऐसे बड़े परिमाण में समाधान कर सकते हैं जो हमें पूर्ण प्रतीत होता है, पर वास्तव में पूर्ण नहीं होता, क्योंकि वह रूपान्तर एवं विजय को पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं कर सकता । सार्वत्रिक शान्ति, ज्योति, शक्ति एवं आनन्द की सम्पदा हमें प्राप्त हो जाती है, पर इसकी वास्तविक अभिव्यक्ति वही नहीं होती जो ऋत-चेतना या दिव्य विज्ञान की हो सकती है; यद्यपि यह अद्भुत रूप में स्वतन्त्र, उदात्त एवं आलोकित होती है फिर भी विश्वात्मा की वर्तमान अभिव्यक्ति का ही समर्थन करती है । यह अज्ञानमय जगत् के अस्पष्ट प्रतीकों एवं आवृत रहस्यों का वैसा रूपान्तर नहीं करती जैसा कि परात्पर अवतरण करेगा । हम स्वयं स्वतन्त्र हो जाते हैं, पर पृथ्वी-चेतना बंधन में ही ग्रस्त रहती है । एक और भी आगे का परात्पर आरोहण एवं अवरोहण ही इस विरोध का पूर्ण रूप से समाधान कर हमें रूपान्तरित और बंधनमुक्त कर सकता है ।
कर्मों के स्वामी का एक तीसरा अत्यन्त घनिष्ठ एवं वैयक्तिक रूप भी है जो उसके अनुत्तम गूढ़ रहस्य एवं आनन्दातिरेक की कुंजी है । कारण, वह गुप्त परात्परता के रहस्य से तथा वैश्व गति के अस्पष्ट प्राकटय से भगवान् की एक
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व्यष्टि-शक्ति को पृथक् करता है जो दोनों के बीच मध्यस्थ का काम कर सकती है तथा एक से दूसरे तक पहुंचने के लिये सेतु बांध सकती है । इस रूप में भगवान् का विश्वातीत और विश्वमय व्यक्तित्व हमारे व्यष्टि-भावापन्न व्यक्तित्व के अनुरूप है और हमारे साथ वैयक्तिक सम्बन्ध स्थापित करना स्वीकार करता है । हमारी परम आत्मा के रूप में वह हमसे एकाकार रहता है और फिर भी हमारे स्वामी, सखा, प्रेमी, गुरु, पिता एवं माता तथा महान् विश्वलीला में हमारे क्रीड़ासहचर के रूप में हमारे निकट और हमसे भित्र भी रहता है । इन सब रूपों में उसने हमारे मित्र एवं शत्रु या सहायक एवं बाधक रहकर बराबर ही अपनेको छिपाये रखा है और, हमपर प्रभाव डालनेवाले सभी सम्बन्धों तथा व्यापारों में उसने हमें हमारी पूर्णता तथा मुक्तता का मार्ग दिखाया है । इस अधिक वैयक्तिक अभिव्यक्ति के द्वारा ही परात्पर के पूर्ण अनुभव की प्राप्ति के द्वार हमारे लिये खुल सकते हैं । कारण, वैयक्तिक भगवान् के अन्दर हम एकमेव से जो सम्पर्क प्राप्त करते हैं वह केवल मुक्त निश्चलता और शान्ति में अथवा कर्मगत निष्क्रिय या सक्रिय समर्पण के द्वारा या अपने अन्दर व्याप्त तथा अपने मार्ग-निर्देशक वैश्व ज्ञान एवं बल के साथ एकत्व के रहस्य के द्वारा ही प्राप्त नहीं करते, बल्कि दिव्य प्रेम और दिव्य आनन्द के उल्लास के द्वारा भी हम उससे सम्पर्क प्राप्त करते हैं--ऐसे उल्लास के द्वारा जो प्रशान्त साक्षी और सक्रिय विश्व-शक्ति को तीव्र वेग से अतिक्रान्त करके एक महत्तर आनन्दपूर्ण रहस्य का विशेष निश्चयात्मक पूर्वज्ञान प्राप्त करता है । वास्तव में, हमारे साथ अत्यन्त घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध पर अद्यावधि अत्यन्त अस्पष्ट यह वैयक्तिक रूप अपने प्रगाढ़ आवरण में हमारे लिये परात्पर परमेश्वर के गहन और मादक रहस्य को और उसकी पूर्ण सत्ता तथा उसके तन्मयकारी परम सुख एवं रहस्यमय आनन्द की एक चरम निश्चयता को जितना अधिक आवेष्टित रखता है उतना न तो वह ज्ञान ही आवेष्टित रखता है जो किसी अनिर्वचनीय परतत्त्व की ओर ले जाता है और न वह कर्मकलाप जो हमें जगत्-प्रक्रिया से परे अपने आदि- कारण, परम ज्ञाता और परम प्रभु की ओर ले जाता है ।
परन्तु भगवान् के साथ का वैयक्तिक सम्बन्ध सर्वदा या प्रारम्भ से ही एक बृहत्तम विस्तार या उच्चतम आत्म-अतिक्रमण को बलपूर्वक स्थापित नहीं कर देता । हमारी सत्ता की निकटवर्ती या हमारा अन्तर्यामी यह देवाधिदेव पहले-पहल हमें अपनी वैयक्तिक प्रकृति तथा अनुभूति के क्षेत्र में ही, नायक एवं स्वामी, मार्गदर्शक एवं गुरु एवं मित्र एवं प्रेमी के रूप में अथवा एक आत्मसत्ता, शक्ति या उपस्थिति के रूप में भी पूर्णरूपेण अनुभूत हो सकता है । सुतरां, हमें यह अनुभव हो सकता है कि यह हमारे हृदय में अवस्थित अपने अन्तरंग सत्य-स्वरूप की शक्ति के द्वारा हमारी ऊर्ध्वमुख और विस्तारशील गति को निर्मित तथा उन्नीत करता है या हमारी उच्चतम बुद्धि के भी ऊपर से हमारी प्रकृति पर शासन करता है । हमारा वैयक्तिक
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विकास ही उसका मुख्य कार्य है, उसके साथ हमारा वैयक्तिक सम्बन्ध ही हमारा हर्ष और हमारी परिपूर्णता है, अपनी प्रकृति को उसकी दिव्य प्रतिमा में गढ़ना ही हमारी आत्म-उपलब्धि और सिद्धि है । मालूम होता है यह बाह्य जगत् इसीलिये बनाया गया है कि यह इस विकास के क्षेत्र का काम करे और इसकी क्रमिक अवस्थाओं के लिये साधन-सामग्री या सहायक एवं बाधक शक्तियां जुटाये । इस जगत् में हम जो भी काम करते हैं वे सब उसीके काम हैं, परन्तु जब वे कोई अस्थायी सार्वभौम उद्देश्य पूरा करते हैं तब भी हमारे लिये उनका मुख्य प्रयोजन इस अन्तर्यामी भगवान् से अपने सम्बन्धों को बाह्यतः सक्रिय बनाना या इन्हें आभ्यन्तर शक्ति प्रदान करना ही होता है । अनेक जिज्ञासु इससे अधिक कुछ नहीं मांगते अथवा वे इस आध्यात्मिक प्रस्फुटन की अविच्छिन्नता और परिपूर्णता केवल परतर लोकों में ही अनुभव करते हैं; भगवान् से मिलन पूर्ण रूप से उपलब्ध हो जाता है और उसके पूर्णत्व, हर्ष एवं सौन्दर्य के नित्य धाम में यह शाश्वत हो जाता है । परन्तु सर्वांगीण उपलब्धि के अन्वेषक के लिये यह पर्याप्त नहीं है । दूसरों से अलग-थलग निजी वैयक्तिक उपलब्धि, वह चाहे कैसी भी महान् और भव्य क्यों न हो, उसका सम्पूर्ण लक्ष्य या समग्र अस्तित्व नहीं हो सकती । एक ऐसा समय अवश्य आता है जब व्यक्ति विराट् की ओर खुलता है; यहांतक कि हमारा आध्यात्मिक, मानसिक, प्राणिक व्यष्टिभाव ही नहीं, अपितु शारीरिक व्यष्टिभाव तक विश्वमय हो जाता है । यह देवाधिदेव की वैश्व शक्ति तथा विश्वात्मा का शकत्यंश दिखायी देता है अथवा यह जगत् को उस अनिर्वचनीय विशालता में धारण करता है जो व्यष्टि-चेतना को तब प्राप्त होती है जब यह अपने बंधन तोड़कर ऊपर परात्पर की ओर तथा सब तरफ अनन्त में प्रवाहित होती है ।
जो योग केवल अध्यात्म-भावित मानसिक स्तर पर ही चरितार्थ किया जाता है उसमें भगवान् की वैयक्तिक या अन्तर्यामी, विश्वमय और विश्वातीत--इन तीन मूल अवस्थाओं का पृथक्-पृथक् अनुभवों के रूप में प्रत्यक्ष होना सम्भव है और ऐसा प्रायः होता ही है । तब इन अनुभवों में से प्रत्येक अकेला ही जिज्ञासु की उत्कंठा की पूर्ति के लिये पर्याप्त प्रतीत होता है । निभृत ज्योतिर्मय हृदय-गुहा में वैयक्तिक भगवान् के साथ एकाकी विचरता हुआ वह अपनी सत्ता को प्रियतम के अनुरूप गढ़ सकता है और अवपतित प्रकृति से निस्तार पाकर आत्मा के किसी उच्च लोक में उसके साथ निवास करने के लिये आरोहण कर सकता है । सार्वभौम विशालता में स्वतन्त्र, अहं से मुक्त, निज व्यक्तित्व में विश्व-शक्ति की क्रिया का केंद्रमात्र, निज सत्ता में शान्त-मुक्त, विश्वमयता में अमर, असीम देश-काल में अनन्तत:
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विस्तृत पर साक्षी आत्मा में निश्चल वह संसार में सनातन के स्वातंन्त्र का उपभोग कर सकता है । किसी अनिर्वचनीय परात्परता में एकाग्र होकर, अपने पृथक् व्यक्तित्व का विसर्जन कर, जागतिक हलचल के आयास-प्रयास को तिलांजलि देकर वह अवर्णनीय निर्वाण की शरण में जा सकता है, अकथनीय की ओर एक असहिष्णु ऊंची उड़ान में वह सभी वस्तुओं को मिथ्या घोषित कर सकता है ।
परन्तु जो व्यक्ति सर्वांगीण योग की विशाल पूर्णता चाहता है उसके लिये इनमें से कोई भी उपलब्धि पर्याप्त नहीं है । वैयक्तिक मोक्ष उसके लिये बस नहीं; क्योंकि वह अपनेको उस विश्व-चैतन्य की ओर खुलता अनुभव करता है जो अपनी विशालता एवं बृहत्ता से हमारी सीमित वैयक्तिक पूर्णता की संकीर्णतर तीव्रता को सर्वथा अतिक्रान्त किये हुए है । इस चैतन्य की पुकार अलंध्य होती है; इसकी अति महत् प्रेरणा से प्रचालित होकर उसे सब विभाजक सीमाएं तोड़ डालनी होंगी, अपने को विश्व-प्रकृति में फैला देना तथा संसार को अपनेमें समा लेना होगा । ऊर्ध्व में भी एक अनिर्वचनीय सक्रिय उपलब्धि उसके लिये प्रस्तुत है जो परम देव के धाम से इस प्राणिजगत् पर दबाव डाल रही है । वह अद्यावधि अनवतरित ऐश्वर्य यहां तभी व्यक्त हो सकता है यदि हम पहले विश्व-चेतना को किसी अंश में परिव्याप्त करें और फिर इसे अतिक्रान्त कर जायें । परन्तु विश्व-चैतन्य भी काफी नहीं है, क्योंकि यह अशेष भागवत सद्वस्तु नहीं है, यह सम्पूर्ण सत्ता नहीं है । व्यक्तित्व के मूल में एक दिव्य रहस्य निहित है जिसे ढूंढ़ निकालना पूर्णयोग के साधक के लिये आवश्यक है; परात्परता के देह- धारण का रहस्य वहां उपस्थित है और काल के भीतर व्यक्त होने के लिये प्रतीक्षा कर रहा है । इस विश्व-चेतना के अन्दर भी अन्त में एक छिद्र रह जाता है, वह यह कि एक उच्चतम ज्ञान, जो मुक्त तो कर सकता है, पर कुछ भी क्रियान्वित नहीं कर सकता, विश्व-शक्ति के साथ समान रूप से सन्तुलित नहीं होता, क्योंकि यह शक्ति सीमित ज्ञान का प्रयोग करती प्रतीत होती है अथवा यह अपने-आपको एक ऐसे तलीय अज्ञान से आवृत रखती है जो सर्जन तो कर सकता है, पर केवल अपूर्णता का या एक क्षणिक, सीमित और निगड़ित पूर्णता का । एक ओर तो स्वतन्त्र निष्क्रिय साक्षी होता है और दूसरी ओर होती है एक बद्ध कार्यकर्त्री जिसे कार्य के सब साधन प्राप्त ही नहीं हैं । प्रतीत होता है कि इन दो सहचरों और प्रतिपक्षियों का समन्वय एक 'अव्यक्त' में जो अभी हमसे परे है, रक्षित, स्थगित और निरुद्ध रखा हुआ है । दूसरी ओर, केवल किसी प्रकार की कूटस्थ परात्परता में पलायन कर जाने से ही हमारा व्यक्तित्व कृतार्थ नहीं होता और इससे वैश्व कर्म भी निरर्थक ही हो जाता है । अतएव, पूर्ण सत्य के जिज्ञासु को इससे सन्तुष्टि नहीं हो सकती । वह अनुभव करता है कि नित्य सत्य एक ऐसी शक्ति है जो सर्जन करती है और साथ ही वह एक अविनाशी सत्ता भी है; वह केवल मायिक या अज्ञानमय अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं है । सनातन सत्य अपने
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सत्यों को काल में व्यक्त कर सकता है । वह निश्चेतना और अज्ञान में ही नहीं, बल्कि ज्ञान में भी सृष्टि कर सकता है । भगवान् की ओर आरोहण करने के समान ही भगवान् का अवतरित होना भी सम्भव है; भावी पूर्णता और वर्तमान मुक्ति को अवतारित करने की सम्भावना भी विद्यमान है । जैसे-जैसे उसका ज्ञान विस्तृत होता है, उसके सामने यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि सर्वकर्ममहेश्वर ने यहां उसके अन्दर अन्तरात्मा को अन्धकार के भीतर अपनी अग्नि के स्फुलिंग के रूप में इसीलिये निक्षिप्त किया था कि यह सनातन ज्योति के एक केंद्र के रूप में विकसित हो सके ।
परात्पर, विश्वात्मा तथा व्यष्टि--ये तीन शक्तियां सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के ऊपर वितान की तरह छायी हुई हैं, ये इसके आधार में निहित और इसके अन्दर प्रविष्ट हैं; यह त्रैतों में से प्रथम त्रैत है । चेतना के उन्मेष में भी यही तीन मूल अवस्थाएं प्रकट होती हैं और यदि हम सत्ता के सम्पूर्ण सत्य का अनुभव करना चाहें तो इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं कर सकते । व्यष्टि-चेतना में से हम विशालतर एवं स्वतन्त्रतर विश्व-चेतना में जागरित होते हैं; किन्तु आकृतियों एवं शक्तियों की जटिल ग्रन्थि से युक्त विश्व-चेतना में से हम एक और भी महान् आत्म-अतिक्रमण के द्वारा एक ऐसी नि:सीम चेतना में उदित होते हैं जो परब्रह्म पर आधारित है । तथापि इस आरोहण में जिस चीज को हम छोड़ते प्रतीत होते हैं उसे वास्तव में हम नष्ट नहीं कर डालते, वरन् उन्नीत और रूपान्तरित कर देते हैं । कारण, एक ऐसा शिखर भी है जहां ये तीनों शक्तियां नित्य रूप से एक-दूसरी में निवास करती हैं । उस शिखर पर ये अपने समस्वरित एकत्व की नाभि में संयुक्त सच्चा हो जाती हैं । परन्तु वह शिखर ऊंचे-से-ऊंचे तथा विस्तृत-से-विस्तृत अध्यात्ममय मन से भी परे है, चाहे मन मैं भी उसकी कुछ छाया अवश्य अनुभव की जा सकती है । उसे प्राप्त करने तथा उसमें निवास करने के लिये मन को अपने-आपको पार करके अतिमानसिक विज्ञानमय ज्योति, शक्ति एवं सत्तत्त्व में रूपान्तरित होना होगा । इस निम्नतर क्षीण चेतना में समस्वरता के लिये प्रयत्न अवश्य किया जा सकता है, पर वह समस्वरता सदा अपूर्ण ही रहेगी । एक प्रकार की सुसंगति तो सम्भव है पर समकालिक एकीभूत परिपूर्णता नहीं । किसी भी महत्तर उपलब्धि के लिये मन को पार कर ऊपर आरोहण करना अपरिहार्य है। अथवा, आरोहण के साथ या इसके परिणामस्वरूप उस स्वयंभू सत्य का क्रियाशील अवतरण होना भी आवश्यक है जो प्राण और जड़तत्त्व की अभिव्यक्ति से पूर्वतर एवं सनातन है और नित्य ही मन से ऊपर अपने निज प्रकाश में उन्नीत रहता है ।
कारण, मन माया है, अर्थात् यह सत्-असत् है । सत्य और मिथ्या, सत् और असत् के आलिंगन का भी अपना एक क्षेत्र है और उस द्विधा-संकुल क्षेत्र में ही मन शासन करता प्रतीत होता है | पर वास्तव में यह अपने राज्य में भी एक
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परिक्षीग चेतना है, यह सनातन की आद्या परमोत्पादिका शक्ति का अंश नहीं है । मूल तात्त्विक सत्य की किसी प्रतिमा को प्रतिक्षिप्त करने में यह समर्थ भले ही हों, किन्तु इसमें सत्य की गतिशील शक्ति और क्रिया सदा छिन्न-भिन्न ही दीख पड़ती है । मन तो केवल दुकड़ों को जोड़ सकता है अथवा एकता का अनुमानमात्र कर सकता है; मन का सत्य या तो केवल एक अर्द्ध-सत्य होता है या पहेली का एक अंश । मानसिक ज्ञान सदा आपेक्षिक, आंशिक और अनिर्णायक होता है । इसकी बहिर्मुखी क्रिया और रचना इसके व्यापारों में और भी अधिक भ्रान्त रूप धारण कर लेती हैं अथवा ये केवल संकीर्ण सीमाओं में ही यथार्थ होती हैं, किंवा खंड सत्यों को अपूर्ण ढंग से मिलाने पर ही कोई यथार्थ वस्तु बनती हैं । इस क्षीण चेतना में भी भगवान् मनोगत आत्मा के रूप में अभिव्यक्त होता है, ठीक वैसे ही जैसे वह प्राण के अन्दर एक आत्मा के रूप में विचरण करता है अथवा और भी अधिक अस्पष्टतया जड़ के अन्दर एक आत्मा के रूप में वास करता है । परन्तु उसका पूर्ण क्रियाशील प्रकट्य मन में नहीं है, सनातन के पूर्ण तादात्म्य यहां नहीं हैं । हमारे अस्तित्व का स्वामी अपनी सत्ता और अपनी शक्तियों एवं क्रियाओं के अक्षय अखंड सत्य में हमारे समक्ष तभी प्रकाशित होगा जब हम मन की सीमा पार कर उस विशालतर ज्योतिर्मय चेतना तथा आत्म-सचेतन सत्ता में पहुंच जायेंगे, जहां दिव्य सत्य का निजधाम है और जहां वह परदेशी की तरह निवास नहीं करता । वहीं हमारे भीतर हमारी सत्ता के स्वामी के कार्य उसके अमोघ अतिमानसिक प्रयोजन की अविकल गति का रूप धारण कर लेंगे ।
यह फल सुदीर्घ एवं कठिन यात्रा के अन्त में ही प्राप्त होता है । परन्तु कर्मों का स्वामी योगमार्ग के जिज्ञासु पथिक से मिलने और उसपर तथा उसके अन्तर्जीवन एवं कार्यों पर अपना अदृश्य या अर्द्ध-दृश्य दिव्य हस्त धरने को तबतक प्रतीक्षा नहीं करता रहता । इस संसार में वह विद्यमान तो पहले से ही है, --अचित् के सघन आवरणों के पीछे वह कर्मों के प्रवर्त्तक और ग्रहीता के रूप में विराजमान है, परा प्राण-शक्ति के भीतर वह प्रच्छन्न रूप में अवस्थित है तथा प्रतीकात्मक देवताओं एवं प्रतिमाओं के द्वारा मन के लिये गोचर भी है । यह भी खूब सम्भव है कि वह पूर्णयोग के मार्ग के लिये नियत भाग्यशाली आत्मा को पहले-पहल इन छद्मवेशों में ही दर्शन दे । अथवा यह भी हो सकता है कि इनसे भी अधिक अस्पष्ट आवरणों से आवृत उस सर्वकर्ममहेश्वर को हम एक आदर्श के रूप में परिकल्पित करें या उसे प्रेम, शुभ, सौन्दर्य या ज्ञान की एक अमूर्त्त शक्ति का मानसिक रूप दे दें । अथवा, जैसे ही हम पथ की ओर पग बढ़ाये वह मानवता की एक ऐसी पुकार या एक ऐसे विश्वगत संकल्प के प्रच्छन्न वेष में हमारे समक्ष
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प्रकट हो सकता है जो हमें अज्ञान के प्रधान चतुष्टय--अन्धकार, असत्य, मृत्यु और दुःख--के पंजे से जगत् का परित्राण करने के लिये प्रेरित करता है । पीछे जब हम इस मार्ग में पदार्पण कर चुकते हैं, वह हमें अपनी विशाल एवं महान् स्वातंत्र्यप्रद निर्व्यक्तिकता के द्वारा सब ओर से व्याप्त कर लेता है, या वह व्यक्तित्ववान् ईश्वर की छवि और आकृति के साथ हमारे समीप विचरता है । अपने भीतर तथा चारों ओर हम एक ऐसी शक्ति की उपस्थिति अनुभव करते हैं जो धारण-भरण, रक्षण तथा पालन-पोषण करती है । हम एक मार्गदर्शिका वाणी का श्रवण करते हैं । हम से महत्तर एक सचेतन संकल्प हम पर शासन करता है । एक अलंध्य शक्ति हमारे विचार एवं कार्य-कलाप और हमारे शरीर तक का संचालन करती है । एक नित्य-विस्तारशील चेतना हमारी चेतना को आत्मसात् कर लेती है, ज्ञान की एक जीवन्त ज्योति अन्तर में सर्वत्र प्रज्ज्वलित हो जाती है, अथवा एक दिव्यानन्द हमें अधिकृत कर लेता है । एक ठोस, बृहत् और अदम्य शक्तिमत्ता ऊपर से दबाव डालती है, हमारी प्रकृति के उपादान तक के भीतर पैठ जाती है और अपनेको इसके अन्दर उंडेल देती है । शान्ति, ज्योति, आनन्द, शक्ति और महिमा-गरिमा वहां अवस्थित हों जाती हैं । अथवा, वहां सम्बन्ध भी होते हैं, --वैयक्तिक, स्वयं जीवन की ही भांति घनिष्ठ, प्रेम के समान मधुर, गगन के समान व्यापक, अगाध सिंधु की भांति गभीर । एक सखा हमारे पास विचरता है; एक प्रेमी हमारे हृदय की गुहा में हमारे संग होता है, कर्म और अग्नि-परीक्षा का स्वामी हमें मार्ग दिखाता है; वस्तुओं का स्रष्टा हमें अपने यन्त्र के रूप में प्रयुक्त करता है; हम अनाद्यनन्त जननी की गोद में होते हैं । ये सब अधिक ग्राह्य रूप, जिनमें वह अनिर्वचनीय हमसे मिलता है, सत्य हैं, ये केवल सहायक, प्रतीक या उपयोगी कल्पनाएं ही नहीं हैं । परन्तु जैसे-जैसे हम विकसित होते हैं, हमारे अनुभव में विद्यमान इनके आदिम अपूर्ण रूप अपने मूलवर्ती एकमेव सत्य की विशालतर दृष्टि के अनुगत होते जाते हैं । पद-पद पर भगवान् के इन नाना रूपों के निरे मानसिक आवरण हटते जाते हैं और ये अधिक विस्तृत, अधिक गंभीर एवं अधिक अन्तरीय अर्थ प्राप्त कर लेते हैं । अन्त में अतिमानसिक सीमाओं पर ये सब देवता अपने पवित्र रूपों को मिला देते हैं और, अपना अस्तित्व जरा भी खोये बिना, परस्पर घुल-मिलकर एक हो जाते हैं । इस पथ पर भागवत रूप केवल त्याग दिये जाने के लिये ही प्रकट नहीं होते । ये अस्थायी आध्यात्मिक सुविधाएं या मायामय चेतना के साथ समझौते भी नहीं होते और न ही ये ऐसी स्वप्न-मूर्त्तियां होते हैं जो परब्रह्म की अवर्णनीय अतिचेतना के द्वारा गुह्य ढंग से हमपर प्रतिक्षिप्त कर दी जाती हैं । इसके विपरीत, जैसे-जैसे ये अपने उद्गमभूत सत्य के निकट पहुंचते हैं वैसे-वैसे इनकी शक्ति बढ्ती जाती है और इनकी निरपेक्ष पूर्णता प्रकट होती जाती है ।
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वह अद्यावधि-अतिचेतन परात्परता एक शक्ति भी है और सत्ता भी । अतिमानसिक परात्परता कोई शून्य महाश्चर्य नहीं है, बल्कि एक अनिर्वचनीय तत्त्व है जो अपने से उत्पन्न सभी मौलिक वस्तुओं को सदा अपने अन्दर समाये रखता है । उन्हें यह उनकी परम नित्य सत्यता में तथा उनके अपने विशिष्ट चरम रूप में धारण करता है । ह्रास, विभाजन तथा अवपतन, जो यहां एक असंतोषजनक पहेली की वा माया के रहस्य की भावना पैदा करते हैं, हमारे आरोहण में स्वयं क्षीण हों जाते हैं, तथा हमसे झड़ जाते हैं, और भागवत शक्तियां अपने वास्तविक रूप धारण कर लेती हैं तथा उत्तरोत्तर ऐसी प्रतीत होती हैं कि ये यहां चरितार्थ होते हुए सत्य की ही अवस्थाएं हैं । भगवान् की आत्मा यहां विद्यमान है और जड़ निश्चेतना में अपने निवर्तन तथा आवेष्टन में शनैः -शनैः जाग रही है । हमारे कर्मों का स्वामी भ्रमों का स्वामी नहीं है, बल्कि एक परम सद्वस्तु है जो अविद्या के उन कोयों से क्रमश: प्रसूत होनेवाली अपनी आत्म-प्रकाशक सद्वस्तुओं का निर्माण कर रहा है जिनमें वे विकासात्मक अभिव्यक्ति के प्रयोजनों के लिये कुछ देर सोयी पड़ी रहने दी गयी हैं । अतिमानसिक परात्परता कोई ऐसी चीज नहीं है जो हमारे वर्तमान अस्तित्व से सर्वथा पृथक् एवं असम्बद्ध हो । यह एक महत्तर ज्योति है जिसमें से यह सब कुछ इसलिये प्रादुर्भूत हुआ है कि आत्मा शनैः -शनैः निश्चेतना में पतित होने और फिर उसमें से आविर्भूत होने का अद्भुत कर्म कर सके । इस भगीरथ कर्म के चलते रहते यह हमारे मन के ऊपर अतिचेतन रूप में प्रतीक्षा करती रहती है जिससे यह अन्त में हमारे अन्दर सचेतन रूप धारण कर सके । आगे चलकर यह अपने-आपको अनावृत करेगी और इस अनावरण के द्वारा हमारी सत्ता तथा हमारे कर्मों का सम्पूर्ण मर्म हमारे समक्ष प्रकाशित कर देगी । यह उस भगवान् को आविर्भूत करेगी जिसकी इस जगत् में पूर्णतर अभिव्यक्ति सत्ता के गुप्त मर्म को उद्घाटित और चरितार्थ कर देगी ।
उस आविर्भाव में परात्पर भगवान् हमारे सम्मुख उत्तरोत्तर इस रूप में प्रकाशित होता जायगा कि वह परम सत् है तथा हम जो कुछ भी हैं उस सबका पूर्ण उद्गम है । पर साथ ही हम इस रूप में भी उसके दर्शन करेंगे कि वह कर्मों तथा सृष्टि का स्वामी है जो अपनी अभिव्यक्ति के क्षेत्र में अपनेको अधिकाधिक प्रवाहित करने को उद्यत रहता है । विश्वचेतना तथा उसका व्यापार तब पहले की तरह एक विशाल एवं नियमित आकस्मिक संयोग नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति का क्षेत्र प्रतीत होंगे । वहां भगवान् इस रूप में दिखायी देगा कि वह अधिष्ठातृ-स्वरूप सर्वव्यापी विश्वात्मा है जो सब कुछ परात्परता में से ग्रहण करता है तथा जो कुछ इस प्रकार अवतरित होता है उसे वह ऐसे आकारों में विकसित करता है जो अभी अपारदर्शक छद्मरूप या प्रवंचक अर्द्ध-छद्मरूप हैं, पर जो आगे चलकर अवश्य ही एक पारदर्शक अभिव्यक्ति बन जायेंगे । तब वैयक्तिक चेतना अपना सच्चा मर्म और
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व्यापार पुनः अधिगत कर लेगी, क्योंकि यह आत्मा का एक ऐसा रूप है जो पुरुषोत्तम से भेजा गया है और, समस्त प्रतीतियों के रहते हुए भी, यह एक ऐसा बीज वा नीहारिका है जिसके भीतर भगवती मातृशक्ति कार्य कर रही है जिससे कि वह काल तथा जड़तत्त्व में कालातीत एवं निराकार भगवान् की एक विजयशाली अभिव्यक्ति साधित कर सके । हमारी दृष्टि और अनुभूति के सामने शनैः -शनैः यह तथ्य प्रकट होता जायगा कि यही कर्मों के स्वामी की इच्छा है तथा यही उसका अपना अन्तिम मर्म है, और इस मर्म से ही जगत् की उत्पत्ति को एवं जगत् में हमारे कर्म को सार्थकता एवं प्रकाश प्राप्त होते हैं । इस तथ्य को हृदयंगम करना तथा इसकी चरितार्थता के लिये यत्न करना पूर्णयोग में दिव्य-कर्ममार्ग का सम्पूर्ण सार-सर्वस्व है ।
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