Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ३
कर्म में आत्म-समर्पण—गीता का मार्ग
केवल दूरर्स्थ, नीरव या उन्नीत आनन्द-विभोर पारलौकिक जीवन ही नहीं, वरन् समस्त जीवन हमारे योग का क्षेत्र है । सोचने, देखने, अनुभव करने और रहने की हमारी स्थूल, संकीर्ण और खंडात्मक मानवीय शैली का गंभीर एवं विशाल अध्यात्म-चेतना में तथा एक सर्वांगपूर्ण आन्तरिक एवं बाह्य अस्तित्व में रूपान्तर और हमारे सामान्य मानव-जीवन का दिव्य जीवन-प्रणाली में रूपान्तर इसका प्रधान लक्ष्य होना चाहिये । इस परम लक्ष्य का साधन है—हमारी सम्पूर्ण प्रकृति का अपने- आपको भगवान् के हाथों में सौंप देना । हमें अपनी प्रत्येक चीज अपने अन्तःस्थ ईश्वर, विश्वमय 'सर्व' और विश्वातीत परमात्मा को समर्पित कर देनी होगी । अपने संकल्प, अपने हृदय और अपने विचार को उस एक और बहुरूप भगवान् पर पूर्णरूपेण एकाग्र करना और अपनी सम्पूर्ण सत्ता को निःशेष रूप से भगवान् पर ही न्योछावर कर देना इस योग की एक निर्णायक गति है, यह अहं का उस 'तत्' की ओर मुड़ना है जो उससे अनन्तगुना महान् है, यही उसका आत्मदान और अनिवार्य समर्पण है ।
मानव प्राणी का जीवन, जैसा कि यह साधारणतया बिताया जाता है, नाना तत्त्वों के अर्द्ध-स्थिर, अर्द्ध-तरल समूह से बना है । वे तत्त्व हैं—अत्यन्त अपूर्णतया नियन्त्रित विचार, इंद्रियानुभव, संवेदन, भाव, कामनाएं सुखोपभोग तथा कर्म जो अधिकतर रूढ़िबद्ध एवं पुनरावर्ती और केवल अंशत: प्रभावशाली और विकसनशील होते हैं, पर जो सबके सब उथले अहं के इर्द-गिर्द केंद्रित रहते हैं । इन (विचार, इंद्रियानुभव आदि ) क्रियाओं की गति का सम्मिलित परिणाम वह आन्तरिक विकास होता है जो कुछ अंश में तो इसी जीवन में प्रत्यक्ष और फलप्रद होता है और कुछ अंश में भावी जन्मों में होनेवाली प्रगति के लिये बीज का काम करता है । सचेतन सत्ता की यह प्रगति, उसके उपादानभूत अंगों का विस्तार, उत्तरोत्तर आत्म-प्रकाशन और अधिकाधिक समस्वरित विकास ही मानव के अस्तित्व एवं जीवन का सम्पूर्ण अर्थ और समस्त सार है । चेतना के इस सार्थक विकास के लिये ही मनुष्य ने, मनोमय प्राणी ने इस स्थूल शरीर में प्रवेश किया है । यह विकास विचार, इच्छाशक्ति, भाव, कामना, कर्म और अनुभव की सहायता से होता है और अन्त में परम दिव्य आत्म-ज्ञान प्राप्त करा देता है । इसके सिवा शेष सब कुछ सहायक और गौण है अथवा आनुषंगिक और निष्प्रयोजन है; केवल वही चीज आवश्यक है जो मनुष्य की प्रकृति के विकास में और उसकी अन्तरात्मा एवं आत्मा
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की उन्नति में अथवा यूं कहें कि उनकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्ति और उपलब्धि में पोषक और सहायक हो ।
हमारे योग का लक्ष्य बस इह-जीवन के इस परम लक्ष्य को शीघ्र-से-शीघ्र प्राप्त करना है । यह योग प्राकृतिक विकास की मन्द तथा अस्त-व्यस्त प्रगति की साधारण, लम्बी विधि को छोड़ देता है । प्राकृतिक विकास तो, अधिक-से-अधिक, एक प्रच्छन्न अनिश्चित-सी उन्नति ही होता है; यह कुछ हद तक परिस्थिति के दबाव के द्वारा और कुछ हद तक लक्ष्यहीन शिक्षा और अर्द्ध-प्रकाशमान सोद्देश्य प्रयत्न के द्वारा सम्पन्न होता है । यह सुयोगों का अंशत: प्रबुद्ध और अर्द्ध-यान्त्रिक उपयोगमात्र होता है जिसमें अनेक भूलें, पतन और पुन: -पतन भी होते हैं । इसका एक बहुत बड़ा भाग प्रत्यक्ष परिस्थितियों और आकस्मिक घटनाओं एवं उनके परिवर्तनों से गठित होता है, यद्यपि इसके पीछे गुप्त दिव्य सहायता एवं पथ-प्रदर्शन अवश्य छिपा रहता है । योग में हम इस अस्त-व्यस्त, केंकड़े की-सी टेढ़ी चाल के स्थान पर एक वेगशाली, सचेतन और आत्म-प्रेरित विकास-प्रक्रिया को प्रतिष्ठित करते हैं जो हमें यथासम्भव सीधे ही अपने लक्ष्य की ओर ले जा सकती है । एक ऐसे विकास में जो सम्भवतः असीम हो सकता है कहीं किसी लक्ष्य की चर्चा करना एक दृष्टि से अशुद्ध होगा । फिर भी हम अपनी वर्तमान उपलब्धि से परे एक तात्कालिक लक्ष्य एवं दूरतर उद्देश्य की कल्पना कर सकते हैं जिसके लिये मनुष्य की आत्मा अभीप्सा कर सकती है । एक नूतन जन्म की सम्भावना का द्वार उसके सामने खुला पड़ा है; वह सत्ता के एक उच्चतर और विशालतर स्तर में आरोहण कर सकता है और वह स्तर उसके अंगों का रूपान्तर करने के लिये यहां अवतरित हो सकता है । एक विस्तृत और प्रदीप्त चेतना का उदय होना भी सम्भव है जो उसे मुक्त आत्मा और पूर्णताप्राप्त शक्ति बना देगी और यदि वह चेतना व्यक्ति के परे भी सब ओर व्याप्त हो जाय तो वह दिव्य मानवता अथवा नवीन, अतिमानसिक और अतएव अतिमानवीय जाति की भी रचना कर सकती है । इसी नूतन जन्म को हम अपना लक्ष्य बनाते हैं । दिव्य चेतना में विकसित होना, केवल आत्मा को ही नहीं, अपितु अपनी प्रकृति के सभी अंगों को पूर्ण रूप से दिव्यता में रूपान्तरित करना हमारे योग का सम्पूर्ण प्रयोजन है ।
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हमारी योग साधना का उद्देश्य है—सीमित एवं बहिर्मुख अहं को बहिष्कृत कर देना और उसके स्थान पर ईश्वर को प्रकृति के नियन्ता अन्तर्यामी के रूप में सिंहासनासीन करना । इसका तात्पर्य है—सब से पहले कामना को उसके अधिकार से च्युत कर देना और फिर उसके सुख को प्रधान मानवीय प्रेरक भाव के रूप में कदापि स्वीकार न करना । आध्यात्मिक जीवन अपना पोषण कामना से नहीं, बल्कि
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मूल सत्ता के विशुद्ध और अहंतारहित आध्यात्मिक आनन्द से प्राप्त करेगा । हमारी उस प्राणिक प्रकृति को ही नहीं जिसकी निशानी कामना है, बल्कि हमारी मानसिक सत्ता को भी नूतन जन्म तथा रूपान्तरकारी परिवर्तन का अनुभव करना होगा । हमारे विभक्त, अहंपूर्ण, सीमित और अज्ञानयुक्त विचार एवं बोध को विलुप्त हो जाना होगा और इसके स्थान पर उस अन्धकाररहित दिव्य प्रकाश की एक व्यापक एवं अविकल धारा को प्रवाहित होना होगा जिसका अन्तिम और सर्वोच्च रूप एक ऐसी स्वाभाविक स्वयं-सत् सत्य-चेतना हो जिसमें अन्धकार में खोजनेवाला अर्द्ध-सत्य तथा स्खलनशील भ्रान्ति न हो । हमारे विमूढ़, व्याकुल, अहं-केंद्रित तथा क्षुद्र- भाव- प्रेरित संकल्प एवं कर्म का अन्त हो जाना चाहिये और इसके स्थान पर एक तीव्र- प्रभावशाली, ज्ञानपूर्वक स्वयंचालित और भगवान् से प्रेरित एवं अधिष्ठित शक्ति की पूर्ण क्रिया को प्रतिष्ठित होना चाहिये । हमारे सभी कार्यों में उस परम निर्वैयक्तिक, अविचल और निर्भ्रान्त संकल्प को दृढ़ और सक्रिय होना चाहिये जो भगवान् के संकल्प के साथ सहज और शान्त एकत्व रखता हो । हमें अपने दुर्बल अहंकारमय भावों की अतृप्तिकर ऊपरी क्रीड़ा का बहिष्कार कर इसके स्थान पर उस निभृत, गंभीर और विशाल अन्तरस्थ चैत्य हृदय का आविर्भाव करना होगा जो उन भावों के पीछे छिपा हुआ अपने मुहूर्त्त की प्रतीक्षा कर रहा है । इस अन्तरीय हृदय से—जिसमें भगवान् का वास है—प्रेरित होकर हमारे सब भाव और अनुभव भागवत प्रेम और बहुविध आनन्द की दोहरी उमंग की प्रशान्त और प्रगाढ़ गतियों में रूपान्तरित हो जायेंगे । यही है दिव्य मानवता या विज्ञानमय जाति का लक्षण । यही—न कि मानवीय बुद्धि और कर्म की अतिरंजित किवा उदात्तीकृत शक्ति—उस अतिमानव का रूप है जिसे अपने योग के द्वारा विकसित करने के लिये हमें आह्वान प्राप्त हुआ है ।
साधारण मानव जीवन में बहिर्मुख कर्म स्पष्ट ही हमारे जीवन का तीन-चौथाई या इससे भी बड़ा भाग होता है; केवल कुछ-एक असाधारण व्यक्ति ही, —जैसे ऋषि-मुनि, विरले मनीषी, कवि और कलाकार, —अपने भीतर अधिक रह सकते है । निःसन्देह ये, कम-से-कम अपनी प्रकृति के अन्तरतम अंगों में, अपने-आपको बाह्य कर्म की अपेक्षा आन्तरिक विचार और भाव में ही अधिक गढ़ते हैं । परन्तु इन आन्तर और बाह्य पक्षों में से कोई भी दूसरे से पृथक् होकर पूर्ण जीवन के रूप की रचना नहीं करेगा, वरंच जब आन्तर और बाह्य जीवन पूर्णतः एकीभूत होकर अपने से परे की किसी वस्तु की लीला में रूपान्तरित हो जायंगे तब उनकी वह समरसता ही पूर्ण जीवन को मूर्त्त रूप देगी । अतएव, कर्मयोग, —अर्थात् केवल ज्ञान और भाव में ही नहीं, अपितु अपने संकल्प और कार्यों में भी भगवान् के साथ मिलन, —पूर्णयोग का एक अनिवार्य अंग है, एक ऐसा आवश्यक अंग है जिसके महत्त्व का वर्णन नहीं हो सकता । वास्तव में हमारे विचार और भाव
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रूपान्तर एक पंगु उपलब्धि ही रहेगा यदि इसके साथ हमारे कार्यों की भावना और बाह्य रूप का भी एक अनुरूप रूपान्तर न हो जाय ।
परन्तु यदि यह पूर्ण रूपान्तर संपन्न करना है तो हमें अपने मन और हृदय की भांति अपने कार्यों और बाह्य चेष्टाओं को भी भगवान् के चरणों में समर्पित करना होगा, अपनी कार्य करने की सामर्थ्यों का अपने पीछे विद्यमान महत्तर शक्ति के हाथों में समर्पण करने के लिये सहमत होना होगा तथा इस समर्पण को उत्तरोत्तर सम्पन्न भी करना होगा । हम ही कर्ता और कर्मी है इस भाव को मिटा देना होगा । जो भागवत संकल्प इन सम्मुखीन प्रतीतियों के पीछे छिपा हुआ है, उसीके हाथों में हमें सब कुछ सौंप देना होगा, ताकि वह इस सबका अधिक सीधे तौर से उपयोग कर सके, क्योंकि उस अनुमन्ता संकल्प के द्वारा ही हमारे लिये कोई भी कार्य करना सम्भव होता है । एक निगूढ़ शक्तिशाली देव ही हमारे कार्यों का सच्चा स्वामी और अधिष्ठाता साक्षी है, और केवल वही हमारे अहंकार से उत्पन्न अज्ञान, कालुष्य और विकार में भी हमारे कर्मों का सम्पूर्ण मर्म और अन्तिम प्रयोजन जानता है । हमें अपने सीमित और विकृत अहंभावमय जीवन और कर्मों का उस महत्तर दिव्य जीवन, संकल्प और बल के विशाल एवं प्रत्यक्ष प्रवाह में पूर्ण रूपान्तर साधित करना होगा जो हमें इस समय गुप्त रूप में धारण कर रहा है । इस महत्तर संकल्प और बल को हमें अपने अन्दर सचेतन और स्वामी बनाना होगा; इसे आज की तरह केवल अतिचेतन और धारण करनेवाली और अनुमति देनेवाली शक्ति ही नहीं बने रहना होगा । जो सर्वज्ञ शक्ति और सर्वशक्तिमान् ज्ञान आज गुप्त है उसका पूर्ण ज्ञानमय प्रयोजन एवं प्रक्रिया हमारे अन्दर बिना विकृत हुए संचरित हो—ऐसी अवस्था हमें प्राप्त करनी होगी । वह शक्ति और ज्ञान हमारी समस्त रूपान्तरित प्रकृति को अपनी उस शुद्ध और निर्बाध प्रणालिका में परिणत कर देंगे जो सहर्ष स्वीकृति देने और भाग लेनेवाली होगी । यह पूर्ण निवेदन तथा समर्पण और इससे फलित होनेवाला यह समग्र रूपान्तर तथा (ज्ञान और बल का) स्वतंत्र संचार सर्वांगीण कर्मयोग का समस्त मूल साधन और अन्तिम लक्ष्य हैं ।
उन लोगों के लिये भी जिनकी पहली स्वाभाविक गति चिन्तनात्मक मन और उसके ज्ञान का अथवा हृदय और उसके भावों का पूर्ण निवेदन तथा समर्पण और फलतः उनका पूर्ण रूपान्तर होती है, कर्मों का अर्पण इस रूपान्तर के लिये एक आवश्यक अंग है । अन्यथा, पारलौकिक जीवन में वे ईश्वर को भले ही पा लें पर इह-जीवन में वे भगवान् को अभिव्यक्त नहीं कर सकेंगे, इह-जीवन उनके लिये निरर्थक, अदिव्य और असंगत वस्तु ही रहेगा । वह सच्ची विजय उनके भाग्य में नहीं है जो हमारे पार्थिव जीवन की पहेली की कुंजी होगी; उनका प्रेम आत्म-विजयी एवं परिपूर्ण प्रेम नहीं होगा, न उनका ज्ञान ही एक समग्र चेतना और सर्वांगीण ज्ञान होगा । निःसन्देह, यह सम्भव है कि केवल ज्ञान या ईश्वराभिमुख भाव को लेकर या
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इन दोनों को एक साथ लेकर योग प्रारम्भ किया जाय और कर्मों को योग की अन्तिम गति के लिये रख छोड़ा जाय । परन्तु इसमें हानि यह है कि हम आन्तरिक अनुभव में सूक्ष्म वृत्तिवाले बनकर तथा अपने बाह्य-सम्बन्धशून्य आन्तरिक अंगों में बन्द रहते हुए अतीव एकांगी रूप में भीतर-ही-भीतर निवास करने की ओर आकृष्ट हो सकते हैं । सम्भव है कि वहां हम अपने आध्यात्मिक एकान्तवास के कठोर आवरण से आच्छादित हो जायें और फिर बाद में अपनी आन्तरिक जीवनधारा को सफलतापूर्वक बाह्य जीवन में प्रवाहित करना और उच्चतर प्रकृति में हमने जो सिद्धि प्राप्त की है उसे बाह्य जीवन के क्षेत्र में व्यवहृत करना हमें कठिन मालूम होने लगे । जब हम इस बाह्य राज्य को भी अपनी आन्तरिक विजयों में जोड़ने की ओर प्रवृत्त होंगे, तब हम अपने को एक ऐसी शुद्ध रूप से आन्तरिक क्रिया के अत्यधिक अभ्यस्त पायेगे जिसका जड़ स्तर पर कोई प्रभाव नहीं होगा । तब बहिर्जीवन और शरीर का रूपान्तर करने में हमें बड़ी भारी कठिनाई होगी । अथवा हम देखेंगे कि हमारा कर्म अन्तर्ज्योति के साथ मेल नहीं खाता; यह अभी तक पुराने अभ्यस्त भ्रान्त पथों का ही अनुसरण करता है और पुराने सामान्य अपूर्ण प्रभावों के अधीन है; हमारा अन्तरस्थ सत्य एक कष्टकर खाई के द्वारा हमारी बाह्य प्रकृति की अज्ञानपूर्ण क्रिया से पृथक् होता चला जाता है । यह अनुभव प्रायः ही होता है, क्योंकि ऐसी एकांगी पद्धति में प्रकाश और बल स्वयंपूर्ण बन जाते हैं और अपने-आपको जीवन में प्रकट करने या पृथ्वी और इसकी प्रक्रियाओं के लिये नियत भौतिक साधनों का प्रयोग करने को इच्छुक नहीं होते । यह ऐसा ही है मानो हम किसी अन्य विशालतर एवं सूक्ष्मतर जगत् में रह रहे हों और जड़ तथा पार्थिव सत्ता पर हमारा दिव्य प्रभुत्व बिल्कुल भी न हो या शायद किसी प्रकार का भी प्रभुत्व नहीं के बराबर हो ।
फिर भी प्रत्येक को अपनी प्रकृति के अनुसार चलना चाहिये और यदि हमें अपने स्वाभाविक योगमार्ग का अनुसरण करना है तो उसमें कुछ कठिनाइयां तो सदा ही आयेंगी जिन्हें कुछ काल के लिये स्वीकार करना पड़ेगा । योग, अन्तत:, मुख्य रूप में आन्तर चेतना और प्रकृति का परिवर्तन है, पर यदि हमारे अंगों का सन्तुलन ही ऐसा हो कि प्रारम्भ में यह परिवर्तन कुछ अंगों में ही करना सम्भव हो और शेष को अभी ऐसे ही छोड़कर बाद में अपने हाथ में लेना आवश्यक हो तो हमें इस प्रक्रिया की प्रत्यक्ष अपूर्णता को स्वीकार करना ही होगा । तथापि पूर्णयोग की आदर्श क्रियाप्रणाली एक ऐसी विकासधारा होगी जो अपनी प्रक्रिया में प्रारम्भ से ही सर्वांगीण और अपनी प्रगति में अखंड तथा सर्वतोमुखी हो । कुछ भी हो, इस समय हमारा प्रमुख विषय उस योग-मार्ग का निरूपण करना है जो अपने लक्ष्य और सम्पूर्ण गतिधारा की दृष्टि से सर्वांगीण हो, किन्तु जो कर्म से प्रारम्भ करे और कर्मद्वारा ही अग्रसर हो, पर साथ ही हर सीढ़ी पर एक जीवनदायी दिव्य प्रेम से
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अधिकाधिक प्रेरित और एक सहायक दिव्य ज्ञान से अधिकाधिक आलोकित हो ।
आध्यात्मिक कर्मों का सब से महान् दिव्य सत्य जो आज तक मानव-जाति के लिये प्रकट किया गया है, अथवा कर्मयोग की पूर्णतम पद्धति जो अतीत में मनुष्य को विदित थी, भगवद्गीता में पायी जाती है । महाभारत के उस प्रसिद्ध उपाख्यान में कर्मयोग की महान् मूलभूत रूपरेखा अनुपम अधिकार के साथ और विश्वस्त अनुभव की निर्भ्रान्त दृष्टि के साथ सदा के लिये अंकित कर दी गयी है । यह ठीक है कि केवल उसका मार्ग ही, जैसा कि पूर्वजों ने इसे देखा था, पूरी तरह खोलकर बताया गया है; पूर्ण चरितार्थता या सर्वोच्च रहस्थ के विकास का संकेत ही दिया गया है, उसे खोलकर नहीं रखा गया है; उसे परम रहस्य के अव्यक्त अंश के रूप में छोड़ दिया गया है । इस मौन के कारण स्पष्ट हैं, क्योंकि चरितार्थता अनुभव का विषय होती है और कोई भी उपदेश इसे प्रकट नहीं कर सकता । इसका वर्णन किसी ऐसे ढंग से नहीं किया जा सकता जिसे मन सचमुच में समझ सके, क्योंकि मन को वह प्रकाशमय रूपान्तरकारी अनुभव प्राप्त ही नहीं है । इसके अतिरिक्त जो आत्मा उन चमकीले द्वारों को पार कर अन्तर्ज्योति की ज्वाला के सम्मुख पहुंच गयी है उसके लिये समस्त मानसिक तथा शाब्दिक वर्णन जितना क्षुद्र, अपर्याप्त तथा प्रगल्भ होता है उतना ही निःसार भी होता है । सभी दिव्य सिद्धियों का निरूपण हमें विवश होकर मनोमय मनुष्य के साधारण अनुभव के अनुरूप रचित भाषा की अनुपयुक्त और भ्रामक शब्दावली में ही करना पड़ता है । इस प्रकार वर्णित होने के कारण वे सिद्धियां केवल उन्हींको ठीक-ठीक समझ में आ सकती हैं जो पहले से ही ज्ञानी हों और, ज्ञानी होने के कारण, इन निःसार बाह्य शब्दों को एक परिवर्तित, आन्तरिक तथा रूपान्तरित अभिप्राय प्रदान कर सकते हों । वैदिक ऋषियों ने प्रारम्भ में ही बल देकर कहा था कि परम ज्ञान के शब्द केवल उन्हीं के लिये अर्थ-द्योतक होते हैं जो पहले से ही ज्ञानी हों । गीता ने अपने गूढ़ उपसंहार के रूप में जो मौन साध लिया है उससे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जिस समाधान की हम खोज कर रहे हैं उस तक वह नहीं पहुंच पायी है; वह उच्चतम आध्यात्मिक मन की सीमाओं पर ही रुक जाती है और उन्हें पार कर अतिमानसिक प्रकाश की दीप्तियों तक नहीं पहुंचती । फिर भी उसका प्रधान रहस्य है—हृदयस्थ ईश्वर के साथ केवल स्थितिशील ही नहीं, वरन् क्रियाशील एकत्व और हमारे दिव्य मार्गदर्शक तथा हमारी प्रकृति के स्वामी एवं अन्तर्वासी के प्रति पूर्ण समर्पण का सर्वोच्च गुह्य ज्ञान । यह समर्पण अतिमानसिक रूपान्तर का अनिवार्य साधन है और फिर अतिमानसिक परिवर्तन से ही सक्रिय एकत्व सम्भव होता है ।
तब गीताद्वारा प्रतिपादित कर्मयोग-प्रणाली क्या है? इसके मुख्य सिद्धान्त या
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इसकी आध्यात्मिक पद्धति का हम संक्षेप में इस प्रकार वर्णन कर सकते हैं कि वह चेतना की दो विशालतम और उच्चतम अवस्थाओं या शक्तियों, अर्थात् समता और एकता का मिलन है । इसकी पद्धति का सार है भगवान् को अपने जीवन में तथा अपनी अन्तरात्मा और आत्मा में निःशेष रूप से अंगीकार करना । व्यक्तिगत कामना के आन्तरिक त्याग से समता प्राप्त होती है । इससे भगवान् के प्रति हमारा पूर्ण समर्पण साधित होता है तथा हमें विभाजक अहं से मुक्ति पाने में सहायता मिलती है और यह मुक्ति ही हमें एकत्व प्रदान करती है । परन्तु यह एकत्व शक्ति की सक्रिय अवस्था में होना चाहिये न कि केवल स्थितिशील शान्ति या निष्क्रिय आनन्द की अवस्था में । गीता हमें कर्मों के और प्रकृति की पूर्ण वेगमयी शक्तियों के भीतर भी आत्मा की स्वतन्त्रता का आश्वासन देती है, पर केवल तभी यदि हम अपनी समस्त सत्ता की उस सत्ता के प्रति अधीनता स्वीकार कर लें जो पृथक् और सीमित करनेवाले अहं से उच्चतर है । यह एक ऐसी सर्वांगपूर्ण शक्तिमय सक्रियता को प्रस्थापित करती है जो प्रशान्त निष्क्रियता पर आधारित हो । इसका रहस्य है—एक ऐसा बृहत्तम कर्म जो अचल शान्ति के आधार पर दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित हो अर्थात् परम अन्तरीय निश्चल-नीरवता की एक स्वच्छन्द अभिव्यक्ति हो ।
यह संसार एक एवं अखंड, नित्य, विश्वातीत और विश्वमय ब्रह्म है जो विभिन्न वस्तुओं और प्राणियों में विभिन्न प्रतीत होता है । पर वह केवल प्रतीति में ही ऐसा है, क्योंकि वास्तव में वह सदा सभी पदार्थों और प्राणियों में एक तथा 'सम' है और भिन्नता तो केवल ऊपरी वस्तु है । जब तक हम अज्ञानमय प्रतीति में रहते हैं तब तक हम ' अहं' हैं और प्रक्रति के गणों के अधीन रहते हैं । बाह्य आकारों के दास बने हुए द्वंद्वों से बंधे हुए और शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, सौभाग्य-दुर्भाग्य एवं जय-पराजय के बीच ठोकरें खाते हुए हम लाचार माया के पहिये के लोहमय या स्वर्णलोहमय घेरे पर चक्कर काटते रहते हैं । सबसे अच्छी अवस्था में भी हमारी स्वतन्त्रता अत्यन्त तुच्छ और सापेक्ष ही होती है और उसीको हम अज्ञानपूर्वक अपनी स्वतन्त्र इच्छा कहते हैं । पर मूलतः वह मिथ्या होती है, क्योंकि प्रकृति के गुण ही हमारी व्यक्तिगत इच्छा में से अपने-आपको व्यक्त करते हैं; प्रकृति की शक्ति ही हमें ज्ञानपूर्वक वश में रखती हुई, पर हमारी समझ और प्रकड़ से बाहर रहकर यह निर्धारित करती है कि हम क्या इच्छा करेंगे और वह इच्छा किस प्रकार करेंगे । हमारा स्वतन्त्र अहं नहीं, बल्कि प्रकृति यह चुनाव करती है कि अपने जीवन की किसी घड़ी में हम एक युक्तियुक्त संकल्प या विचाररहित आवेग के द्वारा किस पदार्थ की अभिलाषा करेंगे । इसके विपरीत, यदि हम ब्रह्म की एकीकारक वास्तविक सत्ता में निवास करते हैं तो हम अहं से ऊपर उठकर विश्वप्रकृति को लांघ जाते हैं । तब हम अपनी सच्ची अन्तरात्मा को पुन: प्राप्त कर लेते हैं और आत्मा बन जाते हैं । आत्मा में हम प्रकृति की प्रेरणा से ऊपर और
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उसके गुणों एवं शक्तियों से उत्कृष्ट होते हैं । अन्तरात्मा, मन और हृदय में पूर्ण समता प्राप्त करके हम अपनी उस सच्ची आत्मा को, जो स्वभाव से ही एकत्व धर्मवाली है, अनुभव कर लेते हैं । हमारी यह सच्ची आत्मा सभी सत्ताओं के साथ एकीभूत है । यह उस सत्ता के साथ भी एकीभूत है जो अपने-आपको इन सब सत्ताओं में तथा उस सबमें प्रकट करती है जिसे हम देखते और अनुभव करते हैं । यह समता और एकता एक अनिवार्य दोहरी नींव है जो हमें भागवत सत्ता, भागवत चेतना और भागवत कर्म के लिये स्थापित करनी होगी । यदि हम सबके साथ एकाकार नहीं हैं तो आध्यात्मिक दृष्टि से हम दिव्य नहीं हैं । सब वस्तुओं, घटनाओं और प्राणियों के प्रति आत्मिक समता रखे बिना हम दूसरों को आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं देख सकते, न हम उन्हें दिव्य ढंग से जान सकते हैं और न उनके प्रति दिव्य ढंग से सहानुभूति ही रख सकते हैं । परा शक्ति एवं एकमेव नित्य और अनन्त देव सब पदार्थों और सब प्राणियों के प्रति 'सम' है, और क्योंकि वह 'सम' है, वह अपने कर्मों और अपनी शक्ति के सत्य के अनुसार और प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी के सत्य के अनुसार पूर्ण ज्ञानपूर्वक कार्य कर सकता है ।
अपिच, मनुष्य को जो सच्ची स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है वह केवल यही है । यह एक ऐसी स्वतन्त्रता है जिसे वह तब तक नहीं प्राप्त कर सकता जब तक वह अपनी मानसिक पृथक्ता से ऊपर नहीं उठता और विश्व-प्रकृति में एक चिन्मय आत्मा नहीं बन जाता । भगवान् की इच्छा ही संसार में एकमात्र स्वतन्त्र इच्छा है और इसीको प्रकृति कार्य-रूप में परिणत करती है; कारण, वह अन्य सभी इच्छाओं की स्वामिनी और स्त्रष्ट्री है । मनुष्य की स्वतन्त्र इच्छा एक अर्थ में सच्ची हो सकती है, परन्तु प्रकृति के गुणों से सम्बन्ध रखनेवाली अन्य सभी चीजों की भांति, यह भी केवल सापेक्ष रूप में ही सत्य है । मन प्राकृतिक शक्तियों के भंवर पर सवार होता है, अनेक सम्भावनाओं के बीच एक स्थिति पर अपने को सन्तुलित कर लेता है, एक या दूसरी तरफ झुक जाता है, एक निश्चय कर लेता है और समझता है कि मैंने चुनाव किया है । परन्तु यह उस शक्ति को नहीं देखता और न इसे उसका तनिक आभास ही होता है जिसने पीछे छिपे रहकर इसके चुनाव का निश्चय किया है । यह उसे देख भी नहीं सकता, क्योंकि वह शक्ति एक ऐसी वस्तु है जो अखण्ड है और हमारी दृष्टि के लिये निर्विशेष है । मन तो अधिक-से-अधिक इस शक्ति के उन नानाविध और जटिल विशिष्ट निर्धारणों में से कुछ-एक का पर्याप्त स्पष्टता और सूक्ष्मता के साथ विवेचन मात्र कर सकता है जिसके द्वारा यह शक्ति अपने अप्रमेय प्रयोजनों को सिद्ध करती है । स्वयं एकांगी होने से, मन हमारी सत्तारूपी मशीन के एक भाग पर सवार हो जाता है और काल एवं परिपार्श्व में इसकी जो चालक शक्तियां हैं उनके नौ-दशमांश से तथा अपनी गत तैयारी एवं भावी दिशा से अनभिज्ञ ही रहता है । परन्तु, क्योंकि यह सवार होता है, यह समझता है कि यह
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मशीन को चला रहा है । एक दृष्टि से इसका महत्त्व है : क्योंकि मन की वह स्पष्ट रुचि जिसे हम अपनी इच्छा कहते हैं और उस रुचि के सम्बन्ध में हमारा वह दृढ़ निश्चय जो हमारे सामने ऐच्छिक चुनाव के रूप में उपस्थित होता है, विश्व-प्रकृति के अत्यन्त शक्तिशाली निर्धारकों में से एक है; किन्तु यह निश्चय कभी भी स्वतन्त्र और सर्वेसर्वा नहीं होता । मानव-इच्छा की इस क्षुद्र निमित्तमात्रता के पीछे कोई विराट्, शक्तिशाली और नित्य वस्तु है जो उसकी रुचि की दिशा की देख-रेख करती है और उसकी इच्छा के किसी विशेष रुख को बल प्रदान करती है । प्रकृति में एक अखंड सत्य है जो हमारी वैयक्तिक रुचि से अधिक महान् है और इस अखण्ड सत्य में, या इसके परे और पीछे भी, कोई ऐसी चीज है जो सब परिणामों को निश्चित करती है । उसकी उपस्थिति और उसका गुप्त ज्ञान प्रकृति की क्रियाप्रणाली के अन्दर ठीक सम्बन्धों, परिवर्तनशील या स्थिर आवश्यकताओं तथा गति के अनिवार्य सोपानों के एक सक्रिय और सहजप्राय बोध को स्थिर रूप से बनाये रखते हैं । एक निगूढ़ दिव्य इच्छाशक्ति है, —नित्य और अनन्त, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् —जो इन सब प्रत्यक्षत:-अनित्य और सान्त, निश्चेतन या अर्धचेतन पदार्थों की समष्टि में तथा इनमें से प्रत्येक व्यष्टि में अपनेको प्रकट करती है । जब गीता कहती है कि सब जीवों के हृद्देश में ईश्वर विराजमान है और वह प्राणिमात्र को प्रकृति की माया के द्वारा यंत्रारूढू की भांति चला रहा है तो वहां उसका अभिप्राय इसी निगूढ़ शक्ति या उपस्थिति से है ।
यह दिव्य इच्छाशक्ति कोई विजातीय शक्ति या उपस्थिति नहीं है । इसका हमसे घनिष्ठ सम्बन्ध है और हम स्वयं इसके अंग हैं, क्योंकि यह हमारी अपनी उच्चतम आत्मा की ही चीज है और हमारी आत्मा ही इसे धारण करती है । हां, यह हमारी सचेतन मानसिक इच्छाशक्ति नहीं है । प्रत्युत, जिसे हमारी सचेतन इच्छाशक्ति स्वीकार करती है उसे यह प्रायः ही ठुकरा देती है और जिसे हमारी सचेतन इच्छाशक्ति ठुकरा देती है उसे यह प्रायः स्वीकार कर लेती है । कारण, जहां यह गुप्त एकमेव इच्छाशक्ति सबको और प्रत्येक अखण्ड वस्तु को तथा एक-एक अंश को जानती है वहां हमारा स्थूल मन केवल वस्तुओं के एक छोटे-से भाग को ही जानता है । हमारी इच्छाशक्ति मन के भीतर सचेतन है और जो कुछ भी यह जानती है विचार द्वारा ही जानती है । दिव्य इच्छाशक्ति हमारे लिये अतिचेतन है, क्योंकि यह मूलतः मन से परे की वस्तु है; यह सब कुछ जानती है, क्योंकि यह स्वयं सब कुछ है । हमारी सर्वोच्च आत्मा जो इस वैश्व शक्ति की स्वामिनी और भर्त्री है हमारा अहं-रूप स्व नहीं है, न ही वह हमारी वैयक्तिक प्रकृति है । वह तो कोई परात्पर तथा विश्वमय वस्तु है जिसकी ये क्षुद्रतर वस्तुएं फेनराशि और तरल तरंगेंमात्र हैं । यदि हम अपनी सचेतन इच्छा को अर्पित कर दें और इसे सनातन पुरुष की साथ एक हो जाने दें, तब और केवल तभी हम सच्चा स्वातंत्र्य
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प्राप्त कर सकते हैं । भागवत स्वातंत्र्य में निवास करते हुए हम बन्धनों में जकड़ी हुई उस तथाकथित स्वतंत्र-इच्छा से तब और नहीं चिमटे रहेंगे जो कठपुतली के समान चालित स्वतंत्रता होती है तथा जो अज्ञ, मिथ्या एवं सापेक्ष है और अपने ही न्यूनतापूर्ण प्राणिक प्रेरक भावों एवं मानसिक आकारों की भ्रान्ति से बद्ध है ।
एक विभेद को, जो विशेष महत्त्वपूर्ण है, हमें अपनी चेतना में दृढ़तया अंकित कर लेने की जरूरत है, वह है प्रकृति और पुरुष में विभेद, यांत्रिक प्रकृति और इसके स्वतंत्र स्वामी में, ईश्वर या एकमात्र ज्योतिर्मयी भागवती संकल्प-शक्ति और विश्व के अनेक कार्यवाहक गुणों और शक्तियों में विभेद ।
प्रकृति, — सनातन की चेतनाशक्ति के रूप में नहीं जो कि इसका दिव्य सत्य रूप है, बल्कि अपने उस रूप में जिसमें यह हमें अज्ञान में प्रतीत होती है, — एक कार्यवाहक शक्ति है, जो यंत्रवत् क्रिया करती है । इसके विषय में हमें जो अनुभव होते हैं उनके अनुसार यह सचेतन रूप में बुद्धिशाली नहीं है, यद्यपि इसके सभी काम पूर्ण बुद्धि से प्रेरित होते हैं । अपने-आप स्वामिनी न होती हुई भी, यह एक ऐसी आत्म-सचेतन शक्ति१ से पूर्ण है जो अपने अन्दर अनन्त प्रभुत्व को धारण किये हुए है । इस शक्ति के द्वारा परिचालित होने के कारण यह सबपर शासन करती है और जिस कार्य को ईश्वर इसके द्वारा करना चाहते हैं उसे यह ठीक-ठीक संपन्न करती है । भोग न करती हुई भी यह भोगी जाती है और सब भोगों का भार अपने अन्दर वहन करती है । प्रक्रिया-शक्ति के रूप में 'प्रकृति' एक यन्त्रवत् कार्य करनेवाली सक्रिय शक्ति है, क्योंकि यह अपने पर लादी हुई गति को पूरा करती है । परन्तु इसके अन्दर वह एकमेव है जो जानता है, — एक सत्ता वहां विराज रही है जो इसकी समस्त क्रिया-प्रक्रिया से अभिज्ञ है । प्रकृति अपने साथ संयुक्त या अपने अन्दर विराजमान 'पुरुष' का ज्ञान, प्रभुत्व और आनन्द धारण करती हुई कार्य करती है; परन्तु यह इनमें भाग तभी ले सकती है यदि यह अपने अन्दर व्याप्त उस पुरुष के अधीन रहकर उसे प्रतिबिम्बित करे । पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है और फिर भी स्थिर तथा निष्क्रिय है; वह प्रकृति के कार्य को अपनी चेतना और ज्ञान में धारण करता है और उसका उपभोग करता है । वह प्रकृति के कार्यों को अनुमति देता है और प्रकृति उससे अनुमत कार्यों को उसकी प्रसन्नता के लिये संपादित करती है । पुरुष अपनी अनुमति को अपने-आप कार्यान्वित नहीं करता; वह प्रकृति को उसके कार्य में आश्रय देता है और जो कुछ वह अपने ज्ञान में देखता है उसे शक्ति, प्रक्रिया एवं मूर्त्त परिणाम में प्रकट करने के लिये उसे अनुमति देता है । यह प्रकृति और पुरुष का सांख्यकृत विवेचन है । यद्यपि सारा वास्तविक सत्य यही नहीं
१ यह शक्ति ईश्वर की चिन्मयी दिव्य शक्ति है, परात्पर और विश्वगत जननी है ।
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है, यद्यपि यह किसी भी प्रकार पुरुष या प्रकृति का सर्वोच्च सत्य नहीं है फिर भी यह सत्ता के अपरार्ध में एक प्रामाणिक तथा अपरिहार्य अनिवार्य ज्ञान है ।
किसी भी पिड में विद्यमान व्यष्टिरूप आत्मा या चेतन सत् इस अनुभवग्राही पुरुष के साथ या इस क्रियाशील प्रकृति के साथ तदाकार हो सकता है । यदि वह अपने-आपको प्रकृति के साथ तदाकार करता है तो वह स्वामी, भोक्ता और ज्ञाता नहीं होता, बल्कि प्रकृति के गुणों और व्यापारों को प्रतिबिम्बित करता है । अपनी इस तदाकारता से वह उस दासता और यांत्रिक क्रिया-प्रणाली में भाग लेता है जो इस प्रकृति का अपना विशेष धर्म है । यहां तक कि प्रकृति में पूर्णतया लीन होकर यह आत्मा अचेतन या अवचेतन बन जाती है, प्रकृति के स्थूल रूपों में पूर्ण रूप से प्रसुप्त हो रहती है जैसे मिट्टी और धातु में, या फिर लगभग प्रसुप्त हो रहती है जैसे उद्भिज-जीवन में । वहां, उस अचेतना में, यह तमस् के अर्थात् अन्धता और जड़ता के तत्त्व के, उनकी शक्ति या गुण की प्रबलता के अधीन होती है । सत्त्व और रज भी वहां अवश्य होते हैं, पर वे तम के घने आवरण में छिपे रहते हैं । देहधारी जीव जब अपनी विशेष प्रकार की चेतना में उदित हो रहा होता है, किन्तु अभी प्रकृति में तम की अत्यधिक प्रबलता के कारण सच्चे अर्थों में चेतन नहीं होता, तब वह उत्तरोत्तर रजस् के अधीन होता जाता है । रजस् कामना तथा अन्धप्रेरणा से प्रेरित कर्म और आवेश का तत्त्व, शक्ति, गुण या अवस्था है । इस अवस्था में एक प्रकार की पाशविक प्रकृति गठित और विकसित होती है जिसकी चेतना संकीर्ण और बुद्धि असंस्कृत होती है तथा जिसके प्राणिक अभ्यास और आवेग राजस-तामसिक होते हैं । महत् अचेतना से आध्यात्मिक स्तर की ओर और भी अधिक बाहर आकर देहधारी पुरुष सत्त्व को, अर्थात् प्रकाश के गुण को, उन्मुक्त करता है और एक प्रकार का ज्ञान, स्वामित्व तथा सापेक्ष स्वातंत्र्य प्राप्त करता है और इसके साथ-साथ उसे आन्तरिक सन्तोष और सुख का परिच्छिन्न तथा मर्यादित अनुभव भी प्राप्त होता है । मनुष्य की अर्थात् स्थूल देह में रहनेवाले मनोमय पुरुष की प्रकृति ऐसी ही होनी चाहिये, परन्तु इन कोटि-कोटि देहधारी जीवों में से कुछ-एक को छोड़कर किसी की भी प्रकृति ऐसी नहीं होती । साधारणतः उसमें अन्ध पार्थिव जड़ता और विक्षुब्ध एवं अज्ञ पाशव जीवन-शक्ति इतनी अधिक होती है कि वह प्रकाशमय और आनन्दमय आत्मा नहीं बन सकता, बल्कि वह समस्वर संकल्प और ज्ञान से युक्त मन भी नहीं बन सकता । हम देखते हैं कि स्वतन्त्र, स्वामी, ज्ञाता और भोक्ता पुरुष के सच्चे स्वभाव की ओर मनुष्य का आरोहण अभी यहां पूर्ण नहीं हुआ है, अभी तक यह विघ्न-बाधा और विफलता से ही आक्रान्त है । कारण, मानवीय और पार्थिव अनुभव में ये सत्त्व, रज और तम सापेक्ष गुण हैं; इनमें से किसी का भी ऐकान्तिक और पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता । सब एक-दूसरे से मिले हैं और इनमें से किसी एक की भी शुद्ध क्रिया कहीं
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नहीं पायी जाती । इनकी अस्तव्यस्त और अनिश्चित परस्पर-क्रिया ही अहम्मन्य मानव-चेतना के अनुभवों को निर्धारित करती है और इस प्रकार वह चेतना प्रकृति के एक अस्थिर सन्तुलन के झूले में झूलती रहती है ।
देहधारी आत्मा के प्रकृति में लीन होने का चिह्न यह होता है कि उसकी चेतना अहं के घेरे में ही सीमित रहती है । इस सीमित चेतना को स्पष्ट छाप मन और हृदय की सतत असमता में और अनुभव के स्पर्शों के प्रति उनकी अनेकविध प्रतिक्रियाओं के बीच के अस्तव्यस्त संघर्ष और असामंजस्य में देखी जा सकती है । मानवीय प्रतिक्रियाएं लगातार द्वंद्वों में चक्कर काटती रहती हैं । द्वंद्व इस कारण पैदा होते हैं कि आत्मा प्रकृति के अधीन है और प्रभुत्व तथा उपभोग के लिये प्रायः ही एक तीव्र पर ओछा संघर्ष करती रहती है । परन्तु वह संघर्ष अधिकांश में निष्फल जाता है और आत्मा प्रकृति के प्रलोभक तथा दुःखमय विरोधी द्वंद्वों, —सफलता और विफलता, सौभाग्य और दुर्भाग्य, शुभ और अशुभ, पाप और पुण्य, हर्ष और शोक तथा सुख और दुःख—के अन्तहीन घेरे में चक्कर काटती रहती है । प्रकृति के अन्दर ग्रस्त रहने की इस अवस्था से जागकर जब यह एकमेव और भूतमात्र के साथ अपनी एकता अनुभव करती है तभी यह इन द्वंद्वों से मुक्त होकर कर्त्री जगत्-प्रकृति से अपना ठीक सम्बन्ध स्थापित कर सकती है । तब यह उसके हीनतर गुणों के प्रति तटस्थ, उसके द्वंद्वों के प्रति समचित्त और स्वामित्व तथा स्वातंत्र्य के योग्य हो जाती है । अपनी ही नित्य सत्ता के प्रशान्त, प्रगाढ़ एवं अमिश्रित आनन्द से परिपूर्ण होकर यह उच्च सिंहासनाधिरूढ़ ज्ञाता और साक्षी के रूप में प्रकृति से ऊर्ध्व में आसीन (उदासीन ) रहती है । देहधारी आत्मा अपनी शक्तियों को कर्म में प्रकट करना जारी रखती है, किन्तु यह अज्ञान में अब और ग्रस्त नहीं रहती, न ही अपने कर्मों से बद्ध होती है । इसके कर्मों का इसके भीतर अब कोई परिणाम उत्पन्न नहीं होता, बल्कि केवल बाहर प्रकृति में ही परिणाम उत्पन्न होता है । प्रकृति की संपूर्ण गति इसे ऊपरी सतह पर तरंगों का उठना और गिरनामात्र प्रतीत होती है । इन तरंगों से इसकी अगाध शान्ति एवं विशाल आनन्द में, इसकी बृहत् विश्वव्यापिनी समता या निःसीम ईश्वर-भाव में किंचित् भी अन्तर नहीं पड़ता । १
१यह आवश्यक नहीं कि कर्मयोग के लिये हमें गीता का सम्पूर्ण दर्शन निर्विवाद स्वीकार करना चाहिये । हम चाहें तो इसे एक मनोवैज्ञानिक अनुभव का वर्णन मान सकते हैं, जो योग की व्यावहारिक भित्ति के रूप में उपयोगी है । इस क्षेत्र में यह पूर्णत: युकिायुक्त है और ऊंचे तथा विस्तृत अनुभव से पूरी तरह संगत भी है । इस कारण मैंने यह उचित समझा है कि इसे यहां यथासम्भव आधुनिक चिन्तन की भाषा में प्रतिपादित कर दूं । जो कुछ मनोविज्ञान की अपेक्षा कहीं अधिक वैश्व-सत्ता-विषयक दर्शन से सम्बन्ध रखता है वह सब मैंने छोड़ दिया है |
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हमारे प्रयत्न की प्रतिज्ञाएं निम्नलिखित हैं और वे एक ऐसे आदर्श की ओर इंगित करती हैं जो अधोलिखित सूत्रों में या इनके समानार्थक को में प्रकट किया जा सकता है—
ईश्वर में निवास करना, अहं में नहीं । एक बृहत् आधार पर प्रतिष्ठित होकर कार्य करना, क्षुद्र अहम्मन्य चेतना पर प्रतिष्ठित होकर नहीं, बल्कि विश्व-आत्मा और विश्वातीत परम देव की चेतना पर प्रतिष्ठित होकर कार्य करना ।
सभी घटनाओं में और सभी सत्ताओं के प्रति पूर्णतया सम होना और उन्हें इस रूप में देखना तथा अनुभव करना कि वे अपने साथ और भगवान् के साथ एक हैं । सभीको अपने में और सभीको ईश्वर में अनुभव करना; ईश्वर को सब में तथा अपने-आपको सबमें अनुभव करना ।
ईश्वर में निवास करते हुए कर्म करना, अहं में नहीं । यहां सब से पहली बात यह है कि कर्म का चुनाव व्यक्तिगत आवश्यकताओं और मानदंडों के विचार से नहीं, बल्कि ऊर्ध्व-स्थित सजीव और सर्वोच्च सत्य के आदेश के अनुसार करना । इसके बाद, ज्यों ही हम आध्यात्मिक चेतना में काफी हद तक प्रतिष्ठित हो जायें, त्यों ही अपनी पृथक् इच्छाशक्ति या चेष्टा से कर्म करना छोड़ देना, वरंच अपने से अतीत भागवत संकल्प की प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन की छाया में कर्म को उत्तरोत्तर होने और बढ़ने देना । अन्त में, चरम-फलस्वरूप, उस उच्च अवस्था में उठ जाना जिसमें हमें भागवत शक्ति के साथ ज्ञान तथा शक्ति, चेतना, कर्म और सत्ता के आनन्द में तादात्म्य प्राप्त हो जाता है । इसके साथ ही एक ऐसी प्रबल क्रियाशीलता अनुभव करना जो मर्त्य कामना, प्राणिक अन्ध-प्रेरणा, आवेग और मायामय मानसिक स्वतन्त्र इच्छा के वशीभूत न हो, प्रत्युत अमर आत्म- आनन्द और अनन्त आत्म-ज्ञान में ज्योतिष्मान् रूप से धारित और विकसित हो । यही वह सक्रियता है जो प्राकृतिक मनुष्य को, सचेतन रूप में, दिव्य आत्मा और सनातन आत्मा के अधीन और उसमें निमज्जित कर देने से प्रवाहित होती है । आत्मा ही वह सत्ता है जो सदा से इस जगत्-प्रकृति के परे है और इसे संचालित करती है ।
परन्तु आत्म-साधना के किन क्रियात्मक उपायों से हम यह सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं?
स्पष्ट है कि समस्त अहम्मूलक किया और उसकी नींव अर्थात् अहम्मय चेतना का बहिष्कार ही हमारी अभीष्ट सिद्धि का उपाय है । और, क्योंकि कर्मयोग के पथ में कर्म ही सब से पहले खोलने योग्य ग्रंथि है, हमें इसे वहीं से खोलने का प्रयत्न करना होगा जहां, अर्थात् कामना और अहंभाव में, यह मुख्य रूप से बंधी हुई है ।
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अन्यथा हम केवल कुछ-एक बिखरे धागे ही काटेंगे न कि अपने बंधन का मर्मस्थल । इस अज्ञानमय एवं विभक्त प्रकृति के प्रति हमारी अधीनता की यही दो ग्रन्थियां हैं—कामना और अहंभाव । इन दो में से कामना की जन्मभूमि है भाव, सम्बेदन और अन्ध-प्रेरणाएं वहीं से यह विचारों और इच्छाशक्ति पर अपना प्रभाव डालती है । अहंभाव इन चेष्टाओं में तो रहता ही है, पर साथ ही वह चिन्तनात्मक मन और उसकी इच्छाशक्ति में भी अपनी गहरी जड़ें फैलाता है और वहीं वह पूर्णत: आत्म-सचेतन भी होता है । भूत की तरह बसेरा डाले हुई जगद्व्यापिनी अविद्या की ये ही युगल अन्धकारमय शक्तियां हैं जिनमें हमें प्रकाश पहुंचाना है और जिनसे हमें छुटकारा प्राप्त करना है ।
कर्म के क्षेत्र में कामना अनेक रूप धारण करती है । उनमें सबसे अधिक प्रबल रूप है अपने कर्मों के फल के लिये प्राणमय पुरुष की लालसा या उत्कण्ठा । जिस फल की हम लालसा करते हैं वह आन्तरिक सुखरूपी पुरस्कार हो सकता है; वह किसी अभिमत विचार या किसी प्रिय संकल्प की पूर्ति या अहंकारमय भावों की तृप्ति, या अपनी उच्चतम आशाओं और महत्त्वाकांक्षाओं की सफलता का गौरवरूपी पुरस्कार हो सकता है । अथवा वह एक बाह्य पारितोषिक हो सकता है, अर्थात् एक ऐसा प्रतिफल जो सर्वथा स्थूल हो, जैसे धन, पद, प्रतिष्ठा, विजय, सौभाग्य अथवा प्राणिक या शारीरिक कामना की किसी और प्रकार की तृप्ति । परन्तु ये सब समान रूप से कुछ ऐसे फंदे हैं जिनके द्वारा अहंभाव हमें बांधता है । सदा ही ये सुख-सन्तोष हमारे अन्दर यह भाव और विचार पैदा करके कि हम स्वामी और स्वतन्त्र हैं हमें छला करते हैं, जब कि वास्तव में अन्ध 'कामना' की कोई स्थूल या सूक्ष्म, भली या बुरी मूर्त्ति ही — जो जगत् को प्रचालित करती है, — हमें जोतती और चलाती है अथवा हमपर सवार होती और हमें कोड़े लगाती है । इसीलिये गीता ने कर्म का जो सब से पहला नियम बताया है वह है फल की किसी भी प्रकार की कामना के बिना कर्तव्य कर्म करना, अर्थात् निष्काम कर्म करना ।
देखने में तो यह नियम आसान है, फिर भी इसे एक प्रकार की पूर्ण सद्हृदयता और स्वतन्त्रकारी समग्रता के साथ निभाना कितना कठिन है ! अपने काम के अधिक बड़े भाग में यदि हम इस सिद्धान्त का प्रयोग करते भी हैं तो बहुत कम, और तब भी प्रायः कामना के सामान्य नियम को एक प्रकार से सन्तुलित करने और इस क्रूर आवेग की अतिशयित क्रिया को कम करने के लिये ही करते हैं । अधिक-से-अधिक हम इतने से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं कि हम अपने अहंभाव को संयत और संशोधित कर लें जिससे वह हमारी नैतिक भावना को बहुत अधिक ठेस लगाने और दूसरों को अत्यन्त निर्दयतापूर्वक पीड़ा पहुंचानेवाला न रहे । और, अपनी इस आंशिक आत्म-साधना को हम अनेक नाम और रूप देते हैं; अभ्यास के द्वारा हम कर्तव्य- भावना, दृढ़ सिद्धान्त-निष्ठा, वैराग्यपूर्ण सहिष्णुता या धार्मिक
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समर्पण और ईश्वरेच्छा के प्रति एक शान्त या आनन्दपूर्ण निर्भरता का स्वभाव बना लेते हैं । परन्तु गीता का आशय इन चीजों से नहीं है, यद्यपि ये अपने-अपने स्थान में उपयोगी अवश्य हैं । इसका लक्ष्य है एक चरम-परम, पूर्ण एवं दृढ़-स्थिर अवस्था, एक ऐसी प्रवृत्ति और भावना जो आत्मा का सम्पूर्ण सन्तुलन ही बदल डालेगी । प्राणिक आवेग का मन द्वारा निग्रह करना नहीं, बल्कि अमर आत्मा की दृढ़ अविचल स्थिति ही इसका नियम है ।
इसके लिये वह जिस कसौटी का उल्लेख करती है वह है मन और हृदय की पूर्ण समता — सभी परिणामों के प्रति, सभी प्रतिक्रियाओं के प्रति, सभी घटनाओं के प्रति । यदि सौभाग्य और दुर्भाग्य, यदि मान और अपमान, यदि यश और अपयश, यदि जय और पराजय, यदि प्रिय घटना और अप्रिय घटना आवें और चली जावें, पर हम उनसे चलायमान न हों, इतना ही नहीं, वरन् वे हमें छू तक न सकें और हम भावों, स्नायविक प्रतिक्रियाओं एवं मानसिक दृष्टि में स्वतन्त्र बने रहें, प्रकृति के किसी भी भाग में जरा-सी भी चंचलता या हलचल के साथ प्रत्युत्तर न दें, तभी समझना चाहिये कि हमें वह पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी है जिसकी ओर गीता निर्देश करती है, अन्यथा नहीं । छोटी-से-छोटी प्रतिक्रिया भी इस बात का प्रमाण होती है कि हमारी साधना अभी अपूर्ण है, हमारी सत्ता का कोई भाग अज्ञान और बन्धन को अपना नियम स्वीकार करता है और अभी तक पुरानी प्रकृति से चिपटा हुआ है, हमारी आत्म-विजय कुछ ही अंश में सिद्ध हुई है, यह हमारी प्रकृतिरूपी भूमि की कुछ लम्बाई में या किसी हिस्से में या किसी छोटे से चप्पे में अभी तक अपूर्ण या अवास्तविक है । अथच अपूर्णता का वह जरा-सा कंकड़ योग के सम्पूर्ण भवन को भूमिसात् कर सकता है |
सम आत्म-भाव से मिलती-जुलती और अवस्थाएं भी होती हैं जिन्हें गीता की गंभीर और बृहत् आध्यात्मिक समता समझ बैठने की भूल हमें नहीं करनी चाहिये । निराशाजनित त्याग की भी एक समता होती है और अभिमान की तथा कठोरता एवं तटस्थता की भी समता होती है । ये सब अपनी प्रकृति में अहंभावमय होती हैं । साधना-पथ में ये आया ही करती हैं, किन्तु इन्हें त्याग देना होगा अथवा इन्हें वास्तविक शम में रूपान्तरित कर देना होगा । इनसे और अधिक ऊंचे स्तर पर तितिक्षावादी (stoic) की समता, धार्मिक-वृत्तिमय त्याग की या साधु-सन्तों की- सी अनासक्ति की समता तथा जगत् से किनारा खींच कर उसके कर्मों से तटस्थ रहनेवाली आत्मा को समता भी होती हैं । ये भी पर्याप्त नहीं हैं; ये प्रारम्भिक प्रवेश-पथ हो सकती हैं, किन्तु आत्मा के वास्तविक और पूर्ण स्वत:सत् विशाल सम-एकत्व में हमारे प्रवेश के लिये ये प्रारम्भिक आत्म-अवस्थाएं ही होती हैं अथवा ये अपूर्ण मानसिक तैयारियों से अधिक कुछ नहीं होतीं ।
यह निश्चित है कि इतने बड़े परिणाम पर हम बिना किन्हीं प्रारम्भिक अवस्थाओं
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के तुरन्त ही नहीं पहुंच सकते । सब से पहले हमें संसार के आघातों को इस प्रकार सहना सीखना होगा कि हमारी सत्ता का केंद्रीय भाग उनसे अछूता और शान्त रहे, भले ही हमारा स्कूल मन, हृदय और प्राण खूब जोर से डगमगा जायें । अपने जीवन की चट्टान पर अविचल खडे रहकर, हमें अपनी आत्मा को विलग कर लेना होगा, ताकि वह हमारी प्रकृति के इन बाह्य व्यापारों का पीछे से निरीक्षण करती रहे या अन्दर बहुत गहरे स्थित होकर इनकी पहुंच से परे रहे । इसके बाद, निर्लिप्त आत्मा की इस शान्ति और स्थिरता को इसके करणों तक फैला कर, शान्ति की किरणों को प्रकाशमय केंद्र से अधिक अन्धकारमय परिधि तक शनैः-शनैः प्रसारित करना सम्भव हो जायगा । इस प्रक्रिया में हम बहुत-सी गौण अवस्थाओं की क्षणिक सहायता ले सकते हैं, किसी प्रकार की तितिक्षा का अभ्यास (stoism), कोई शान्तिप्रद दर्शन, किसी प्रकार का धार्मिक भावातिरेक हमें अपने लक्ष्य के किंचित् निकट पहुंचाने में सहायक हो सकते हैं । अथवा हम अपनी मानसिक प्रकृति की कम प्रबल एवं उन्नत किन्तु उपयोगी शक्तियों को भी सहायता के लिये पुकार सकते हैं । परन्तु अन्त में हमें इनका त्याग या रूपान्तर करके इनके स्थान पर पूर्ण आन्तरिक समता और स्वत:सत् शान्ति, यहां तक कि, यदि सम्भव हो तो, अपने सभी अंगों में एक अखंड, अक्षय, आत्मसंस्थित और स्वाभाविक आनन्द प्राप्त करना होगा ।
किन्तु तब हम काम करना ही कैसे जारी रख सकेंगे? क्योंकि साधारणतया मानव प्राणी काम इसलिये करता है कि उसे कोई कामना होती है अथवा वह मानसिक, प्राणिक या शारीरिक अभाव या आवश्यकता अनुभव करता है । वह या तो शरीर की आवश्यकताओं से परिचालित होता है या धन-सम्पत्ति एवं मान-प्रतिष्ठा की तृष्णा से, अथवा मन या हृदय की व्यक्तिगत सन्तुष्टि की लालसा किंवा शक्ति या सुख की अभिलाषा से । अथवा वह किसी नैतिक आवश्यकता के वशीभूत होकर उसीसे इधर-उधर प्रेरित होता है, या कम-से-कम इस आवश्यकता या कामना से प्रेरित होता है कि वह अपने विचारों या अपने आदर्शों या अपने संकल्प या अपने दल या अपने देश या अपने देवताओं का संसार में प्रभुत्व स्थापित करे । यदि इनमें से कोई भी कामना अथवा अन्य कोई भी कामना हमारे कार्य की परिचालिका नहीं होती तो ऐसा प्रतीत होता है मानों समस्त प्रवर्तक कारण या प्रेरकशक्ति ही हटा ली गयी है और तब स्वयं कर्म भी अनिवार्य रूप से बन्द हो जाता है । गीता दिव्य जीवन का अपना तीसरा महान् रहस्य खोलकर इस शंका का उत्तर देती है । एक अधिकाधिक ईश्वराभिमुख और अन्ततः ईश्वर-अधिकृत चेतना में रहते हुए हमें समस्त कर्म करने ही होंगे; हमारे कर्म भगवान् के प्रति यज्ञ-रूप होने चाहियें, और अन्त में तो हमें सम्पूर्ण सत्ता को, —मन, संकल्प-शक्ति, हृदय, इंद्रिय, प्राण और शरीर, सब को—एकमेव के प्रति समर्पित कर देना चाहिये
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जिससे कि ईश्वर-प्रेम और ईश्वर-सेवा ही हमारे कर्मों का एकमात्र प्रेरक भाव बन जाय । निःसन्देह प्रेरक शक्ति का और कर्मों के स्वरूप तक का यह रूपान्तर ही गीता का प्रधान विचार है । कर्म, प्रेम और ज्ञान के गीताकृत अद्वितीय समन्वय का यही आधार है । अन्त में, कामना नहीं, बल्कि सनातन की प्रत्यक्षत: अनुभूत इच्छा ही हमारे कर्म की एकमात्र परिचालिका और इसके आरम्भ का एकमात्र उद्गम रह जाती है ।
समता, अपने कर्मों के फल की समस्त कामना का त्याग, अपनी प्रकृति और समष्टि-प्रकृति के परम प्रभु के प्रति यज्ञ-रूप में कर्म करना, —यही गीता की कर्मयोग-प्रणाली में ईश्वर-प्राप्ति के तीन प्रधान साधन हैं ।
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