योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ४

 

मानसिक सत्ता की पूर्णता

 

 इन अवस्थाओं में आत्मसिद्धियोग का मूलभूत विचार यह होना चाहिये कि मनुष्य की मानसिक प्राणिक और भौतिक प्रकृति के साथ उसकी अन्तरात्मा के वर्तमान सम्बन्धों को पलट दिया जाये । मनुष्य इस समय एक अंशत: स्व-चेतन आत्मा है जो मन, प्राण और शरीर के अधीन तथा इनके द्वारा सीमित है; उसे एक ऐसी पूर्ण स्व-चेतन आत्मा बनना है जो अपने मन, प्राण और शरीर की स्वामिनी हो । एक पूर्ण स्व-चेतन आत्मा इनके दावों और इनकी मांगों से सीमित न होती हुई अपने करणों से उच्चतर तथा इनकी मुक्त स्वामिनी होगी । मनुष्य के अतीत आध्यात्मिक, बौद्धिक और नैतिक प्रयासों के अधिकांश का मतलब यही है कि वह इस प्रकार अपनी सत्ता का स्वामी बनने का प्रयास करता आ रहा है ।

 

     मनुष्य को किसी पूर्ण रूप से सच्ची स्वतन्त्रता और प्रभुता के साथ अपनी सत्ता का स्वामी बनने के लिये अपनी उच्चतम आत्मा को, अपने अन्दर के उस वास्तविक मनुष्य या उच्चतम पुरुष को, ढूंढ़ना होगा जो स्वतन्त्र है तथा अपनी अविच्छेद्य शक्ति का स्वामी है । उसे मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक अहं रहना छोड़ देना होगा; क्योंकि यह अहं सदा मानसिक, प्राणिक, भौतिक प्रकृति की ही एक रचना, उसका यन्त्र एवं दास होता है । यह अहं उसकी वास्तविक आत्मा नहीं है बल्कि प्रकृति का एक करण है जिसके द्वारा प्रकृति ने मनुष्य के अन्दर मन, प्राण और शरीर में रहनेवाली एक सीमित एवं पृथक् व्यक्तिगत सत्ता की भावना विकसित की है । इस करण के द्वारा वह इस प्रकार कार्य करती है मानों वह इस जड़ जगत् में एक पृथक् सत्ता हो । प्रकृति ने कुछ ऐसी यान्त्रिक एवं संकीर्णकारी अवस्थाओं का विकास किया है जिनके अधीन यह कार्य घटित होता है; अन्तरात्मा का अपने--आपको अहं के साथ तदाकार कर देना एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा प्रकृति अन्तरात्मा को इस कार्य के लिये सहमत होने तथा इन यान्त्रिक संकीर्णकारी अवस्थाओं को स्वीकार करने के लिये प्रेरित करती है । जबतक तदाकारता बनीं रहती है तबतक आत्मा इस यान्त्रिक चक्र और संकीर्ण कार्य में आप-से-आप कैद हुई रहती है और जबतक वह इनसे परे नहीं चली जाती तबतक वह अपने वैयक्तिक जीवन का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग नहीं कर सकती, सच्चे अर्थों में अपने--आपसे परे चले जाना तो दूर की बात रही । इसी कारण योग की एक अनिवार्य क्रिया यह है कि जिस बाह्य अहं-बुद्धि के द्वारा हम मन, प्राण और शरीर की क्रिया के साथ अपने-आपको एकाकार किये हुए हैं उससे हम पीछे हट जायें तथा भीतर अपनी अन्तरात्मा में रहने लगें । बहिर्मुख अहंबुद्धि से मुक्ति आत्मा के स्वातंत्र्य और प्रभुत्व का पहला पग ३ ।

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 जब हम इस प्रकार पीछे हटकर अन्तरात्मा में प्रवेश करते हैं तो हम पाते हैं कि हम मन नहीं हैं बल्कि एक मनोमय पुरुष हैं जो देहाधिष्ठित मन की क्रिया के पीछे स्थित है । तब हम यह भी पाते हैं कि हम मानसिक और प्राणिक व्यक्तित्व भी नहीं हैं, --व्यक्तित्व तो प्रकृति की एक रचना है, --बल्कि हम मनोमय पुरुष हैं । हम अपने अन्दर के एक ऐसे पुरुष को जान जाते हैं जो आत्मज्ञान तथा विश्वज्ञान प्राप्त करने के लिये मन की भूमिकापर स्थित है और जो आत्मानुभव एवं विश्वानुभव प्राप्त करने के लिये तथा अन्तर्मुख और बहिर्मुख कार्य--व्यापार करने के लिये अपने--आपको एक व्यक्ति समझता है, किन्तु फिर भी मन, प्राण और शरीर से भिन्न है । प्राण की क्रियाओं से तथा भौतिक सत्ता के भिन्न होने की यह भावना अत्यन्त ही स्पष्ट होती हैं; कारण, यद्यपि पुरुष अपने मन को प्राण और शरीर में ग्रस्त अनुभव करता है, तथापि वह जानता है कि चाहे स्थूल प्राण और शरीर समाप्त या विनष्ट हो जायें, फिर भी वह अपनी मनोमय सत्ता में जीवन धारण करता रहेगा, परन्तु मन से भिन्न होने का अनुभव होना अधिक कठिन है और यह अनुभव उतने स्थिर रूप से स्पष्ट भी नहीं होता । किन्तु फिर भी यह प्राप्त अवश्य होता है; इसके लक्षण के रूप में मनोमय पुरुषों को अपने तीन प्रकार के अन्तर्ज्ञानों में से, जिनमें यह निवास करता है, कोई एक या तीनों ही प्राप्त होते हैं; इनके द्वारा यह अपनी महत्तर सत्ता को जान जाता है ।

 

     सर्वप्रथम, उसे यह अन्तर्ज्ञान प्राप्त होता है कि मैं एक ऐसा पुरुष हूं जो मन की क्रिया का अवलोकन करता है; यह क्रिया उसे एक ऐसी चीज प्रतीत होती है जो उसके अन्दर और फिर भी उसके सामने की उसकी ज्ञानदृष्टि के एक विंषय के रूप में हो रही है । यह आत्म-चेतनता साक्षी पुरुष की अन्तर्ज्ञानात्मक चेतना है । साक्षी पुरुष एक शुद्ध-चैतन्यस्वरूप पुरुष है जो प्रकृति का निरीक्षण करता है और इसे एक ऐसे व्यापार के रूप में देखता है जिसका चेतना पर प्रतिबिम्ब पड़ता है और जो उस चेतना के द्वारा ही आलोकित होता है, पर जो अपने-आपमें उससे भिन्न है । मनोमय पुरुष के लिये प्रकृति एक व्यापारमात्र है, पृथक्करण और संयोजन करनेवाले विचार का, संकल्प, सम्वेदन और भावावेग का, स्वभाव, चरित्र और अहंभावना का एक जटिल व्यापार है; यह स्थूल शरीर के द्वारा लादी हुई अवस्थाओं में प्राणिक आवेगों, आवश्यकताओं और कामनाओं के आधार पर अपना कार्य करती है । पर यह उनके द्वारा सीमित नहीं होती, क्योंकि यह उन्हें नयी दिशाओं में मोड़ सकती है, अत्यधिक परिवर्तित, परिष्कृत और विस्तृत कर सकती है, इतना ही नहीं बल्कि यह विचार और कल्पना के रूप में तथा एक अत्यधिक सूक्ष्म और नमनीय रचनाओंवाले मानसिक लोक में कार्य भी कर सकती है । पर इसके साथ ही मनोमय पुरुष को यह अन्तर्ज्ञान भी प्राप्त होता है कि एक ऐसी सत्ता भी है जो इस वर्तमान कार्य-व्यापार से, जिसमें वह निवास करता है, अधिक

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 विशाल और महान् है, अनुभव की एक ऐसी भूमिका भी है जिसकी एक उपरितलीय योजना या एक चुनी हुई संकुचित और उथली क्रियामात्र है प्रकृति का वर्तमान कार्य-व्यापार । इस अन्तर्ज्ञान के द्वारा वह प्रच्छन्न अन्त:सत्ता की डयौढ़ी पर स्थित हो जाता है; इस अन्त:--सत्ता की सम्भाव्य शक्ति उससे अधिक विस्तृत है जिसे कि यह स्थूल मन उसके आत्मज्ञान के समक्ष प्रकट करता है । उसे अपना अन्तिम और सबसे महान् अन्तर्ज्ञान इस आन्तरिक अनुभव के रूप में प्राप्त होता है कि एक ऐसा तत्त्व है जो उसका अधिक वास्तविक एवं मूलभूत स्वरूप है, जो मन से उतना ही ऊंचा है जितना मन स्थूल प्राण और शरीर से ऊंचा है । इस आन्तरिक अनुभव के रूप में उसे अपनी अतिमानसिक एवं आध्यात्मिक सत्ता का अन्तर्ज्ञान प्राप्त होता है ।

 

     जिस स्थूल कार्य-व्यापार से मनोमय पुरुष पीछे की ओर हट गया है उसमें वह किसी भी समय फिर से मस्त हो सकता है, मन, प्राण और शरीर की यान्त्रिक क्रिया के साथ कुछ समय के लिये पूर्णतया एक होकर रह सकता है और अपने पुनरावर्ती सामान्य व्यापार को तन्मय होकर पुनः--पुन: दुहरा सकता है । परन्तु एक बार जब वह इससे पृथक् होने की क्रिया को सम्पन्न कर लेता है तथा कुछ समय के लिये इसमें निवास कर चुकता है, तो वह स्वयं अपने निकट बिल्कुल वही कभी नहीं हो सकता जो कुछ कि वह पहले था । बाह्य कार्य में ग्रस्तता अब केवल पुनः--पुनः होनेवाली एक ऐसी आत्म-विस्मृति का रूप धारण कर लेती है जिससे पीछे हटकर पुन: अपनेमें तथा शुद्ध आत्मानुभव में प्रवेश करने की प्रवृत्ति उसके अन्दर बनी रहती है । यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि इस बाह्य चेतना के जिस सामान्य व्यापार ने पुरुष के लिये उसके आत्मानुभव का वर्तमान प्राकृतिक रूप सृष्ट किया है उससे पीछे हटकर वह (पुरुष) अन्य दो स्थितियां भी धारण कर सकता है । उसे यह अन्तर्ज्ञान प्राप्त हो सकता है कि मैं एक देहस्थित पुरुष हूं जो प्राण को अपनी एक क्रिया तथा मन को इस क्रिया के प्रकाश के रूप में प्रकट करता है । यह देहस्थित पुरुष अन्नमय चेतन-सत्ता अर्थात् अन्नमय पुरुष है । यह प्राण और मन को विशिष्ट रूप से भौतिक अनुभव के लिये ही प्रयुक्त करता है, --और सब चीजों को भौतिक अनुभव के ही परिणाम समझा जाता है । यह शरीर के जीवन से परे की किसी भी वस्तु पर दृष्टिपात नहीं करता; जहांतक यह अपनी स्थूल व्यष्टि--सत्ता से परे किसी चीज को अनुभव करता भी है वहांतक यह केवल इस स्थूल विश्व का तथा अधिक-से-अधिक स्थूल प्रकृति की आत्मा के साथ अपने एकत्व का ही अनुभव प्राप्त करता है । परन्तु उसे यह अन्तर्ज्ञान भी प्राप्त हो सकता है कि मैं एक प्राणमय पुरुष हूं जिसने कालगत अभिव्यक्ति की महान् गति के साथ अपने-आपको एक कर रखा है तथा जो शरीर को एक आकार या एक आधारभूत इन्द्रियमय मूर्ति के रूप में एवं मन को प्राणानुभूति की एक सचेतन क्रिया के रूप

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 में प्रकट करता है । यह प्राणस्थित आत्मा प्राणमय चेतन सत्ता है अर्थात् प्राणमय पुरुष है । यह स्थूल शरीर की अवधि और सीमाओं से परे भी देख सकती है, अपने पीछे और आगे अर्थात् भूत और भविष्य में जीवन की सनातनता को तथा विराट् प्राण-सत्ता के साथ अपने एकत्व को अनुभव कर सकती है, पर काल में प्राणिक अभिव्यक्ति का जो सतत प्रवाह चल रहा है उससे परे नहीं देखती । ये तीन पुरुष परम आत्मा के आन्तरात्मिक रूप हैं जिनके द्वारा वह अपनी विश्वमय सत्ता के इन तीन स्तरों या तत्त्वों में से किसी एक के साथ अपनी चेतन सत्ता को एकीभूत करती है या उसपर अपने कार्य का आधार स्थापित करती है ।

 

     परन्तु मनुष्य अपने स्वभाव से ही एक मनोमय प्राणी है । इतना ही नहीं, बल्कि मन उसकी ऊंची-से-ऊंची वर्तमान भूमिका है जिसमें वह अपने वास्तविक स्वरूप के अधिक-से-अधिक निकट है तथा आत्मा को नितान्त सुगम एवं विशाल रूप से जान पाता है । उसकी पूर्णता या सिद्धि का मार्ग न तो यह है कि वह बाह्य या स्थूल जीवन में ग्रस्त रहे और न यह कि वह प्राणमय या अन्नमय पुरुष में ही स्थित रहे, बल्कि उसे उन तीन मानसिक अन्तर्ज्ञानों की प्राप्ति के लिये आग्रह करना होगा जिनके द्वारा वह अन्तिम रूप से भौतिक, प्राणिक और मानसिक स्तरों के ऊपर उठ सके । यह आग्रह दो सर्वथा भिन्न रूप धारण कर सकता है जिनमेंसे प्रत्येक का अपना लक्ष्य एवं कार्य-प्रणाली होती है । उसके लिये यह सर्वथा सम्भव है कि वह इसे एक ऐसी दिशा में खींच ले जाये जो प्रकृतिगत जीवन से दूर हो अर्थात् जो मन, प्राण और शरीर से अनासक्त एवं विरत होने की दिशा हो । वह अधिकाधिक एक ऐसे साक्षी पुरुष के रूप में जीवन यापन करने का यत्न कर सकता है जो प्रकृति के कार्य का अवलोकन करता है, पर उसमें रस नहीं लेता, न उसे अनुमति ही देता है, बल्कि अनासक्त रहकर प्रकृति के सम्पूर्ण कार्य का परित्याग कर डालता है तथा पीछे हटकर शुद्ध चेतन सत्ता में लौट जाता है । यह सांख्यों की मुक्ति है । वह अपने भीतर उस विशालतर सत्ता में भी प्रवेश कर सकता है जिसका उसे अन्तर्ज्ञान प्राप्त होता है; इसी प्रकार वह स्थूल मन से दूर हटकर उस स्वप्नावस्था या सुषुप्ति-अवस्था में भी जा सकता है जो उसे चेतना की विशालतर या उच्चतर भूमिकाओं में प्रवेश प्रदान करती है । इन भूमिकाओं में जाकर वह पार्थिव सत्ता को अपनेसे उतार फेंक सकता है । प्राचीन काल में यह माना जाता था कि मनुष्य उन अतिमानसिक लोकों में भी पहुंच सकता है जहां से वह पार्थिव चेतना में या तो लौट ही नहीं सकता अथवा जहां से लौटना उसके लिये अनिवार्य नहीं है । परन्तु इस प्रकार की मुक्ति अपनी स्पष्ट तथा सुनिश्चित पराकाष्ठा को तभी पहुंचती है यदि मनोमय प्राणी आध्यात्मिक सत्ता में ऊंचा उठ जाये । इस आध्यात्मिक सत्ता का अनुभव उसे तब प्राप्त होता है जब वह मन की समस्त भूमिका से दूर तथा ऊपर दृष्टिपात करता है । मनमात्र के परे दृष्टि डालना ही 

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एक चाबी है जिसके द्वारा वह शुद्ध सत् में निमज्जित होकर या विश्वातीत सत्ता में भाग लेता हुआ पार्थिव सत्ता का पूर्णरूपेण परित्याग कर सकता है ।

 

     परन्तु यदि हमारा लक्ष्य प्रकृति से अपने-आपको अलग करके उससे मुक्त होना ही नहीं, बल्कि पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करना हो तो फिर इस प्रकार का आग्रह पर्याप्त नहीं हों सकता । हमें अपने अन्दर होनेवाले प्रकृति के मानसिक, प्राणिक और भौतिक कार्य का अवलोकन करना होगा, उसके बन्धन की ग्रन्धियों को तथा उनसे मुक्त होने के लिये उन्हें खोलने के सूत्रों को ढूंढ़ निकालना होगा, उसकी अपूर्णता की कुंजियों को खोजकर पूर्णता की कुंजी को हस्तगत करना होगा । जब द्रष्टा आत्मा किंवा साक्षी पुरुष अपनी प्रकृति के कार्य के पीछे हटकर इसका निरीक्षण करता है, तो वह देखता है कि यह अपनी ही प्रेरणा से आरम्भ होता है तथा अपनी यान्त्रिक क्रिया की शक्ति के द्वारा, गति के सातत्य की अर्थात् मानसिक गति, प्राणावेग तथा अनैच्छिक स्थूल यान्त्रिक क्रिया के सातत्य की शक्ति के द्वारा ही चलता रहता है । पहले-पहल तो सारी चीज एक स्वयंचालित यन्त्र की पुनरावर्तिनी क्रिया प्रतीत होती है, यद्यपि वह सारी क्रिया मिलकर निरन्तर एक सृजन, अभिवृद्धि एवं विकास की ओर आरोहण करती है । उसे ऐसा लगता है मानों वह इस चक्र के अन्दर पकड़ाया हुआ हो, इसके प्रति अहं-बुद्धि होने के कारण इसके साथ चिपका हुआ हो और जैसे-जैसे यन्त्र चक्कर काटता है वैसे-वैसे उसके साथ वह भी चारों ओर तथा आगे की ओर घुमाया जा रहा हो । उसके मानसिक, प्राणिक और भौतिक व्यक्तित्व को जब एक बार, प्रकृति की क्रिया में फंसी हुई तथा अपनेको उस क्रिया का अङ्ग समझनेवाली आत्मा के द्वारा न देखकर, इस स्थिर अनासक्त दृष्टिकोण से देखा जाता है तो इसका स्वाभाविक रूप यों दिखायी देता है कि यह पूरे-का-पूरा प्रकृति का एक यान्त्रिक नियतिरूप निर्धारण है या उसके निर्धारणों का एक प्रवाह है जिसे पुरुष ने अपनी चेतना की ज्योति अर्पित कर रखी है ।

 

     परन्तु कुछ अधिक दीर्घ दृष्टि डालने पर हमें पता चलता है कि यह नियतिकृत निर्धारण उतना पूर्ण नहीं है जितना कि यह प्रतीत होता था; प्रकृति का व्यापार इसलिये चलता रहता है और इसका जो भी स्वरूप है वह इसलिये है कि पुरुष इसे अनुमति देता है । द्रष्टा पुरुष देखता है कि वह इस व्यापार को अपनी चेतन सत्ता के द्वारा धारण करता है तथा एक प्रकार से अपनी चेतना के द्वारा इसमें व्याप्त एवं ओतप्रोत भी है । वह जान जाता है कि उसके बिना वह जारी नहीं रह सकता और जहां वह इस अनुमति को दृढ़तापूर्वक हटा लेता है, वहां अभ्यासगत व्यापार क्रमश: मन्द पड़ता जाता है और फिर क्षीण होकर बन्द हो जाता है । इस प्रकार उसके समग्र सक्रिय मन को पूर्ण रूप से शान्त किया जा सकता है । तथापि उसके अन्दर एक निष्क्रिय मन भी है जो यन्त्रवत् क्रिया करता रहता है, पर यदि वह इसकी क्रिया से पृथक् होकर अपने अन्दर चला जाये तो इसे भी शान्त किया जा

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सकता है । तब भी जीवन का कार्य-व्यापार अपने अत्यन्त यान्त्रिक भागों में बराबर चालू रहता है; पर उसे भी शान्त करके बन्द किया जा सकता है । तब ऐसा दिखायी देगा कि वह केवल भर्ता पुरुष ही नहीं है, बल्कि एक प्रकार से अपनी प्रकृति का स्वामी, ईश्वर, भी हैं । उसके अन्दर जो यह चेतना है कि मैं अनुमति देनेवाला नियन्ता हूं तथा मेरी सहमति आवश्यक है उसीने उसे अहम्भाव की अवस्था में यह सोचने के लिये प्रेरित किया था कि मैं स्वतन्त्र इच्छा से युक्त एक आत्मा या मनोमय पुरुष हूं जो अपनी सब अभिव्यक्तियों को आप ही निर्धारित करता है । तथापि यह स्वतन्त्र इच्छा अपूर्ण एवं भ्रमात्मक-सी प्रतीत होती है, क्योंकि असल में जिसे इच्छा कहते हैं वह स्वयं प्रकृति की एक मशीनरी है और प्रत्येक पृथक् एवं व्यक्तिगत इच्छा अतीत कर्म के प्रवाह के द्वारा तथा तज्जनित अवस्थाओं की समष्टि के द्वारा निर्धारित होती है, -यद्यपि यह प्रतिक्षण विशुद्ध एवं मौलिक रूप से सृजन करनेवाली एक स्वयंजात इच्छा प्रतीत हो सकती है, क्योंकि उस कर्म-प्रवाह का परिणाम एवं वह अवस्था-समष्टि प्रतिक्षण एक नये विकास एवं नये निर्धारण के रूप में ही हमारे सामने आती है । द्रष्टा पुरुष जान जाता है कि इस सब समय में उसकी देन इतनी ही थी कि प्रकृति जो कुछ कर रही है उसे वह पीछे रहकर सहमति एवं अनुमति देता था । वह इस (प्रकृति) पर पूर्ण रूप से शासन करने के योग्य नहीं प्रतीत होता, बल्कि कुछ-एक सुनिश्चित सम्भावनाओं में चुनाव करने में ही समर्थ दिखायी देता है : इसमें प्रतिरोध करने की एक शक्ति है जो इसके भूतकालिक वेग से उत्पन्न हुई है; साथ ही, इसमें प्रतिरोध की एक और भी बड़ी शक्ति है जो इसीकी पैदा की हुई कुछ-एक निश्चित अवस्थाओं की समष्टि से उत्पन्न हुई है । इन अवस्थाओं को यह पुरुष के सामने एक ऐसी अटल नियम-शृंखला के रूप में उपस्थित करती है जिसका पालन करना उसके लिये आवश्यक है । वह इसकी कार्य करने की पद्धति को आमूल रूप में नहीं बदल सकता, इसके वर्तमान क्रिया-व्यापार के भीतर से अपने संकल्प को स्वतनत्त्रापूर्वक क्रियान्वित नहीं कर सकता, न ही, जबतक वह मन में स्थित है तबतक, एक ऐसे ढंग से इसके बाहर निकल सकता या ऊपर जा सकता है कि इसपर सचमुच में स्वतन्त्रतापूर्वक नियन्त्रण कर सके । पुरुष और प्रकृति दोनों एक-दूसरेपर निर्भर जान पड़ते हैं, प्रकृति पुरुष की अनुमति पर अपना आधार रखती है, पुरुष प्रकृति के कार्य के नियम पर, उसकी पद्धति एवं सीमाओं पर अपना आधार रखता है; स्वतन्त्र इच्छा की भावना प्रकृति के निर्धारण से इन्कार करती है, प्रकृति के द्वारा किये हुए निर्धारण की वास्तविकता स्वतन्त्र इच्छा को पंगु कर देती है । पुरुष निश्चित रूप से जानता है कि प्रकृति उसकी शक्ति है, किन्तु फिर भी वह इसके अधीन दिखायी देता है । वह अनुमन्ता पुरुष है, पर वह पूर्ण-निरपेक्ष स्वामी, ईश्वर, नहीं प्रतीत होता ।

 

    तथापि, किसी स्तरपर पूर्ण प्रभुत्व एवं वास्तविक 'ईश्वर' -त्व भी विद्यमान है । वह

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 इसे अनुभव करता है और जानता है कि यदि वह इसे प्राप्त कर ले तो वह प्रकृति का नियामक बन जायेगा, इसकी इच्छा का निष्क्रिय एवं अनुमन्ता साक्षी तथा भर्ता पुरुष ही नहीं, बल्कि इसकी क्रियाओं का स्वतन्त्र और शक्तिशाली प्रयोक्ता तथा निर्धारक भी बन जायेगा । परन्तु उसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह नियमन या प्रभुत्व मन से परे अवस्थित किसी अन्य भूमिका की वस्तु है । कभी-कभी वह अनुभव करता है कि मैं इसका प्रयोग भी कर रहा हूं पर एक प्रणालिका या यन्त्र के रूप में ही; तब यह उसे ऊपर से प्राप्त होता है । अत: यह स्पष्ट है कि यह अतिमानसिक प्रभुत्व है । परम आत्मा की एक ऐसी शक्ति है जो मनोमय पुरुष से बड़ी है; वह पहले से ही जानता है कि अपनी चेतन सत्ता के शिखर पर तथा उसके गुप्त अन्तस्तल में मैं यहीं शक्ति हूं । अतएव, नि:सन्देह, नियन्त्रण और प्रभुत्व की प्राप्ति का मार्ग यह है कि वह इस परम आत्मा के साथ तादात्म्य लाभ करे । यह तादात्म्य वह निष्क्रिय रूप से, अर्थात् अपनी मानसिक चेतना में आत्मा की शक्ति को प्रतिबिम्बित एवं ग्रहण करके, साधित कर सकता है, पर तब वह शक्ति का एक सांचा, वाहक या यन्त्र ही होगा, उसका स्वामी नहीं होगा, न उसमें भाग ही ले सकेगा । इसी प्रकार, वह अपने मन को आंतरिक अध्यात्मसत्ता में लीन करके भी परम आत्मा के साथ तादात्म्य प्राप्त कर सकता है, पर उस दशा में तादात्म्य की समाधि में उसका सचेतन कार्य समाप्त हो जाता है । अतः यह स्पष्ट है कि प्रकृति का सक्रिय स्वामी बनने के लिये उसे किसी उच्चतर अतिमानसिक भूमिकातक उठना होगा जहां नियामक आत्मा के साथ निष्क्रिय ही नहीं, वरन् सक्रिय एकत्व भी प्राप्त हो सकता है । इस महत्तर भूमिकातक आरोहण करने का मार्ग ढूंढ़कर स्वराट् अर्थात् आत्म-शासक बनना ही उसकी पूर्णता या सिद्धि की शर्त है ।

 

   इस आरोहण में जो कठिनाई आती है उसका कारण है प्रकृति में रहनेवाला अज्ञान । वह पुरुष है, मानसिक और भौतिक प्रकृति का साक्षी है, पर आत्मा और प्रकृति का पूर्ण ज्ञाता नहीं है । मन की भूमिका में जो ज्ञान प्राप्त होता है वह उसकी चेतना के द्वारा ही आलोकित होता है; वह मनोमय ज्ञाता है; पर उसे अनुभव होता है कि यह ज्ञान वास्तविक नहीं है, वरन् एक आंशिक खोज एवं आंशिक उपलब्धिमात्र है, यह तो मन से अधिक महान् प्रकाश का एक गौण और अनिश्चित प्रतिबिम्ब है तथा कार्य करने के लिये एक संकुचित एवं उपयोगी साधन है जो इस महत्तर प्रकाश से ही प्राप्त दुआ है । मन के ज्ञान के परे है वास्तविक ज्ञान । यह वास्तविक ज्ञान किंवा प्रकाश परम आत्मा का आत्म-चैतन्य एवं सर्व-चैतन्य है । मूल आत्म-चैतन्य की प्राप्ति उसे सत्ता के मानसिक स्तर पर भी हो सकती है यदि वह मनोमय पुरुष में इसके प्रतिबिम्ब को ग्रहण करे अथवा मनोमय पुरुष आत्मा में लीन हो जाये, इसी प्रकार वह प्राणमय पुरुष एवं अन्नमय पुरुष में

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भी इसे अवश्य प्राप्त कर सकता है, पर तब प्रतिबिम्ब ग्रहण करने या लय होने का तरीका मानसिक स्तर की अपेक्षा भिन्न होता है। परन्तु इस मूल आत्म-चैतन्य को अपने कार्य की आत्मा के रूप में प्रयुक्त करनेवाले एक क्रियाशक्तिमय सर्व--चैतन्य में भाग लेने के लिये उसे अतिमानसतक ऊपर उठना ही होगा, अपनी सत्ता का स्वामी बनने के लिये उसे आत्मा और प्रकृति का ज्ञाता बनना होगा, ज्ञाता ईश्वर । यह कार्य कुछ अंश में तो मन के उच्चतर स्तर पर किया जा सकता है जहां यह (मन) अतिमानस की क्रिया के प्रत्युत्तर से सीधे रूप से अपनी क्रिया कर सकता है, पर अपने वास्तविक तथा पूर्ण स्वरूप में यह सिद्धि मनोमय पुरुष की नहीं, बल्कि विज्ञानमय पुरुष की सम्पदा है । मनोमय पुरुष को उससे महान् विज्ञानमय पुरुष में और फिर इसे भी आनन्दमय पुरुष में उठा ले जाना इस सिद्धि का सर्वोच्च पथ है ।

 

   परन्तु अपनी वर्तमान प्रकृति को बिलकुल जड़मूल से बदले बिना तथा जो बहुत-से नियम इसकी मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता की जटिल ग्रन्थि के रूढ़ नियम प्रतीत होते हैं उन्हें त्यागे बिना कोई भी सिद्धि नहीं प्राप्त की जा सकती, इस योग की सिद्धि प्राप्त करना तो दूर की बात रही । इस ग्रन्थि का नियम एक निश्चित और सीमित उद्देश्य के लिये रचा गया है; वह उद्देश्य है--इस प्राणयुक्त देह में कुछ काल के लिये मानसिक अहं का भरण-पोषण तथा रक्षण, उसपर स्वत्व-स्थापन तथा उसकी वृद्धि, उसका उपभोग और अनुभव, उसकी आवश्यकता और क्रिया । इनके परिणामस्वरूप कुछ अन्य प्रयोजन भी सिद्ध हो जाते हैं, पर यह तात्कालिक तथा मूल-निर्धारक लक्ष्य और प्रयोजन है । इससे ऊंचे प्रयोजन की सिद्धि तथा अधिक स्वतन्त्र करणों की प्राप्ति के लिये इस ग्रन्थि को कुछ अंश में छिन्न-भिन्न तथा अतिक्रम करके एक विशालतर सक्रिय समन्वय में रूपान्तरित करना होगा । पुरुष देखता है कि जिस नियम की रचना की गयी है वह आत्मा और अनात्मा अर्थात् आभ्यन्तरिक सत्ता और बाह्य जगत्-विषयक प्रथम अव्यवस्थित चेतना में से कुछ एक यान्त्रिक पर विकासोन्मुख अनुभवों को चुनकर एक अंशत: स्थिर और अंशत: अस्थिर रूप से निर्धारित किया हुआ नियम है । इस निर्धारित नियम का मन, प्राण और शरीर पालन करते हैं, इसके लिये वे कभी एक-दूसरे पर सामञ्जस्य और मेलजोल के साथ क्रिया करते हैं तो कभी विरोध-वैषम्य के साथ तथा एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप करके उसे मर्यादित करते हुए । स्वयं मन की विविध क्रियाओं में भी एक ऐसा ही मिश्रित सामञ्जस्य और असामञ्जस्य देखने में आता है, इसी प्रकार स्वयं प्राण और शरीर की क्रियाओं में हम यही बात पाते हैं । यह सब ही एक प्रकार की अव्यवस्थित व्यवस्था है, एक ऐसी व्यवस्था है जो सतत रूप से घेरने और आक्रान्त करनेवाली अव्यवस्था में से विकसित और परिकल्पित की गयी है ।

 

   यह पहली कठिनाई है जिसका पुरुष को सामना करना होगा । यह है--विश्व-

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प्रकृति की मिश्रित एवं अव्यवस्थित क्रिया अर्थात् एक ऐसी क्रिया जो स्पष्ट आत्मज्ञान, विशिष्ट उद्देश्य तथा सुदृढ़ साधन से रहित है, जो इन वस्तुओं की प्राप्ति के लिये एक प्रयत्नमात्र है तथा जिससे क्रियात्मक रूप में एक सामान्य और सापेक्ष सफलता ही मिलती है, कुछ दिशाओं में तो पुरुष को प्रकृति की अनुकूलता का एक आश्चर्यजनक परिणाम देखने में आता है, पर बहुत-सी दिशाओं में इसकी अपूर्णता का दु:खकारी परिणाम भी अनुभव होता है । इस मिश्रित एवं अव्यवस्थित क्रिया में संशोधन करना होगा; शुद्धि आत्म-सिद्धि का एक अनिवार्य साधन है । इन सब अशुद्धियों और अपूर्णताओं के परिणामस्वरूप नाना प्रकार की सीमाओं एवं बन्धनों का जन्म होता है : पर बन्धन की मुख्य ग्रन्थियां दो या तीन हैं जिनसे अन्य ग्रन्थियां उत्पन्न होती हैं, उनमेंसे प्रधान ग्रन्थि है अहम् । इन सब ग्रन्थियों से छुटकारा पाना होगा; शुद्धि तबतक पूर्ण नहीं कही जा सकती जबतक कि वह मुक्ति को साधित न कर दे । अपिच, जब कुछ अंश में शुद्धि और मुक्ति साधित हो जाये उसके बाद भी शुद्ध हुए करणों को उच्चतर लक्ष्य एवं प्रयोजन के नियम के अनुरूप, कार्य की एक विशाल, वास्तविक और पूर्ण व्यवस्था के अनुसार रूपान्तरित करने का काम शेष रह जाता है । रूपान्तर के द्वारा मनुष्य अस्तित्व, शान्ति, शक्ति और ज्ञान के वैभव की एक प्रकार की पूर्णता प्राप्त कर सकता है, यहांतक कि एक अधिक महान् प्राणिक क्रियाशीलता तथा एक अधिक पूर्ण भौतिक जीवन भी प्राप्त कर सकता है । इस पूर्णता का एक परिणाम यह होता है कि उसे सत्ता का विशाल और पूर्ण आनन्द प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार शुद्धि मुक्ति, सिद्धि और भुक्ति (सत्ता का आनन्द) --ये इस योग के चार घटक अङग हैं ।

 

  परन्तु यदि पुरुष अपनी व्यक्तिगत सत्ता पर बल दे तो यह सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती, अथवा, कम-से-कम, यह सुरक्षित एवं पूर्णतया विशाल नहीं हो सकती । सुतरां, शारीरिक, प्राणिक और मानसिक अहं के साथ पुरुष ने जो तदात्मता स्थापित कर रखी है उसका त्याग करना ही काफी नहीं है; उसे अपनी अन्तरात्मा में भी भेदप्रधान नहीं, वरन् वास्तविक एवं विश्वभावापन्न व्यक्तित्व को प्राप्त करना होगा । अपनी निम्न प्रकृति में मनुष्य एक 'अहं' है जो अपने-आप तथा अन्य समस्त जगत् के बीच विचारत: एक स्पष्ट भेद-रेखा खींच देता है; उसके लिये अहं ही आत्मा ('स्व') है, पर शेष सब जगत् अनात्मा ('पर') है, अपनी सत्ता से बाह्य है । उसका सम्पूर्ण कार्य-व्यापार आत्मा और जगत्-विषयक इसी विचार को लेकर आरम्भ होता है तथा इसीपर आधारित है । पर वास्तव में यह विचार भ्रान्तिपूर्ण है । मानसिक विचार और मानसिक या अन्य प्रकार की क्रिया में वह अपने-आपको कितने ही तीव्र रूप में पृथक् व्यक्ति क्यों न स्वीकार करे, फिर भी वह विराट् सत्ता से पृथक् नहीं हो सकता, उसका शरीर विराट् शक्ति एवं उपादान तत्त्व से, उसका प्राण विराट् प्राण से, उसका मन विराट् मन से पृथक् नहीं ६४८


हो सकता, उसकी अन्तरात्मा एवं आत्मा विराट् पुरुष की अन्तरात्मा एवं आत्मा से पृथक् नहीं हो सकती । विराट् सत्ता प्रतिक्षण उसपर क्रिया करती है, उसपर आक्रमण करके अपना अधिकार स्थापित कर लेती है, उसके अन्दर अपना रूप गढ़ती है; इसके प्रतिक्रियास्वरूप वह भी विराट् सत्ता पर क्रिया करता है, उसपर आक्रमण करके अपना अधिकार जमाने का यत्न करता है, उसका रूप गढ़ने, उसके आक्रमण को विफल करने तथा उसके करणों को अपने अधिकार में लाकर उनका प्रयोग करने की चेष्टा करता है ।

 

  यह संघर्ष एक आधारभूत एकता का परिणाम है । यह एकता आरम्भ में हुई पृथक्ता के कारण बाध्य होकर संघर्ष का रूप धारण कर लेती है; मानव मन ने एकता को जिन दो खण्डों में विभक्त कर रखा है वे एकता को पुनः प्राप्त करने के लिये एक-दूसरे पर वेगपूर्वक टूट पड़ते हैं और उनमेंसे प्रत्येक पृथक् हुए खण्ड को अधिकार में लाकर अपने अन्दर मिलाने की चेष्टा करता है । विश्व सदा व्यक्ति को निगल जाने की चेष्टा करता है, अनन्त इस सान्त को जो अपनी आत्म-प्रतिरक्षा के लिये कटिबद्ध रहता है और यहांतक कि आक्रमण के द्वारा भी उत्तर देता हैं, पुनः अपने अन्दर मिला लेने का यत्न करता जान पड़ता है । पर सच पूछो तो विराट् पुरुष इस दृश्यमान संघर्ष के द्वारा मनुष्य के अन्दर अपने ही उद्देश्य को सिद्ध कर रहा है, यद्यपि उद्देश्य और उसकी क्रियान्विति का रहस्य एवं सत्य मनुष्य के ऊपरी चेतन मन को ज्ञात नहीं है; यह रहस्य एवं सत्य तो केवल आधारगत अवचेतन एकता में अस्पष्ट रूप से निहित है तथा केवल अधिशासक अतिचेतन एकता में ही प्रकाशमान रूप से ज्ञात है । मनुष्य भी अपने अहं को विस्तृत करने के अनवरत आवेग के द्वारा एकता की ओर प्रेरित होता है, उसका अहं अन्य अहम्मय सत्ताओं के साथ तथा विश्व के ऐसे भागों के साथ, जिन्हें वह भौतिक, प्राणिक और मानसिक रूप से अपने प्रयोग और अधिकार में ला सकता है, यथासम्भव उत्तम रीति से एकता स्थापित करता है । जैसे अपनी सत्ता का ज्ञान एवं उसपर प्रभुत्व प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य होता है, वैसे ही चारों ओर के प्राकृतिक जगत्, उसके पदार्थों करणों तथा जीवों का ज्ञान एवं प्रभुत्व प्राप्त करना भी उसका लक्ष्य होता है । आरम्भ में वह अहंपूर्ण आधिपत्य के द्वारा इस लक्ष्य को सिद्ध करने का यत्न करता है, पर जैसे-जैसे वह विकसित होता है, वैसे-वैसे गुप्त एकता के द्वारा उत्पन्न सहानुभूति का तत्त्व उसके अन्दर बढ़ता जाता है तथा अन्य भूतों के साथ एक विशाल होते जानेवाले सहयोग एवं एकत्व का और विश्व-प्रकृति एवं विराट् पुरुष के साथ सामंजस्य का भाव उत्पन्न होता है ।

 

  मन में अब स्थित साक्षी पुरुष देखता है कि उसके प्रयत्न की अक्षमता का और सच पूछो तो मनुष्य के जीवन एवं उसकी प्रकृति की समस्त अपूर्णता का कारण है व्यक्ति का मूल स्रोत से विच्छेद और उसके परिणामस्वरूप होनेवाला

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संघर्ष, ज्ञान का अभाव, सामंजस्य का अभाव, एकत्व का अभाव । अतएव, उसके लिये यह परमावश्यक है कि वह पृथक् करनेवाले व्यक्तित्व को अतिक्रम करके अपने-आपको विश्वमय बना ले, विश्व के साथ एक हो जाये । यह एकीकरण तभी सम्पन्न हो सकता है यदि हमारी आत्मा हमारे मनोमय पुरुष को विराट् मन के साथ, हमारे प्राणमय पुरुष को विराट् प्राण-पुरुष के साथ, हमारे अन्नमय पुरुष को भौतिक प्रकृति की विराट् अन्नमय चेतना के साथ एक कर दे । जब हम ऐसा एकत्व साधित कर सकते हैं तब जितनी शक्ति, तीव्रता, गहराई, पूर्णता तथा स्थायिता के साथ हम ऐसा कर सकते हैं, हमारी प्रकृति के कार्य-व्यापार पर इसके प्रभाव भी उतने ही महान् होते हैं । विशेषकर, मन की मन के साथ, प्राण की प्राण के साथ, प्रत्यक्ष और गहरी सहानुभूति एवं इनका एक-दूसरे के साथ प्रत्यक्ष और गहरा मेल बढ़ने लगता है, पृथक्ता पर शरीर का आग्रह उत्तरोत्तर कम होता जाता है, प्रत्यक्ष मानसिक तथा अन्य प्रकार के पारस्परिक आदान-प्रदान एवं प्रभावपूर्ण परस्पर-क्रिया की शक्ति बढ़ती जाती है; यह आदान-प्रदान एवं क्रिया वर्तमान अपूर्ण और अप्रत्यक्ष आदान-प्रदान एवं क्रिया को, जो आजतक देहाधिष्ठित मन के द्वारा प्रयुक्त सचेतन, साधना का अधिक बड़ा भाग थी, सहायता पहुंचाती है । किन्तु फिर भी पुरुष देखता है कि यदि मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक प्रकृति को अकेले अपने--आपमें देखा जाये तो इसमें विश्व-प्रकृति के तीन गुणों की यन्त्रवत् असमान परस्पर- क्रिया के कारण कोई त्रुटि, अपूर्णता एवं अव्यवस्थित क्रिया सदा ही रहती है । इसे अतिक्रम करने के लिये उसे मन, प्राण और शरीर की विराट् भूमिका में पहुंचकर भी वहां से विज्ञानमय एवं आध्यात्मिक विराट् पुरुष की भूमिकातक उठना होगा, विश्व के विज्ञानमय पुरुष अर्थात् विश्वात्मा से एक होना होगा । वह अपने तथा विश्व के भीतर अवस्थित एक उच्चतर तत्त्व की विशालतर ज्योति और व्यवस्था को, जो सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् की एक विशिष्ट क्रिया है, प्राप्त कर लेता है । यहांतक कि वह अपनी प्राकृत सत्ता पर भी इस ज्योति और व्यवस्था का प्रभाव डाल सकता है; इतना ही नहीं, वरन् उसके अन्दर परम आत्मा की जो क्रिया होती है उसके क्षेत्र के अन्तर्गत और उसके प्रमाण के अनुसार वह इस जगत् पर जिसमें वह रहता है तथा अपने चारों ओर की सभी वस्तुओं पर भी इस ज्योति और व्यवस्था का प्रभाव उत्पन्न कर सकता है । वह स्वराट् अर्थात् आत्मज्ञाता और आत्मशासक होता है, पर इस आध्यात्मिक एकता और परात्परता के द्वारा वह सम्राट् अर्थात् अपनी सत्ता के चारों ओर के जगत् का जाता और स्वामी भी बनने लगता है ।

 

   इस आत्मविकास में अन्तरात्मा को अनुभव होता है कि इस सरणि पर चलकर उसने समग्र पूर्णयोग का लक्ष्य अर्थात् अपनी आत्मा और अपने विश्वभावापन्न व्यक्तित्व में परमात्मा के साथ मिलन साधित कर लिया है । जबतक वह इस

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जगत्-सत्ता में रहे, इस पूर्णता की किरणें उसके अन्दर से फूटती रहनी चाहियें, --क्योंकि यह तो जगत् और इसके प्राणियों के साथ उसके एकत्व का एक आवश्यक परिणाम है । यह पूर्णता उसके चारों ओर के लोगों में एक ऐसे प्रभाव और कार्य के रूप में विकीर्ण होनी चाहिये जो इसे पाने के योग्य सभी लोगों को इसीकी ओर उठने या बढ़ने में सहायक हों । और, शेष लोगों के लिये यह एक ऐसे प्रभाव और कार्य के रूप में प्रसृत होनी चाहिये जो मानवजाति को इस सर्वोच्च सिद्धि की ओर तथा मनुष्यों के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में एक महत्तर दिव्य सत्य की किसी प्रतिमूर्ति की ओर आध्यात्मिक रूप से आगे ले जाने में सहायता पहुंचावें, जैसा कि कोई विरला 'स्वराट्' और 'सम्राट्' व्यक्ति ही कर सकता है । ऐसा मनुष्य जिस सत्यतक स्वयं आरोहण कर चुका है उसकी एक ज्योति एवं शक्ति का रूप धारण कर लेता है तथा दूसरे लोगों के आरोहण के लिये एक साधन बन जाता है ।

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