योग-समन्वय

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १३

 

मनोमय सत्ता की कठिनाइयां

 

ज्ञानमार्ग का निरूपण करते-करते हम यहांतक आ पहुंचे हैं । इस निरूपण का आरम्भ हमने इस स्थापना से किया था कि मन, प्राण और शरीर के स्तरों से ऊपर अपनी शुद्ध आत्मा एवं शुद्ध सत्ता का साक्षात्कार इस योग का प्रथम लक्ष्य है, परन्तु अब हम यह स्थापना करते हैं कि केवल इतना ही यथेष्ट नहीं है बल्कि हमें आत्मा या ब्रह्म की मूल अवस्थाओं और मुख्यत: उसके सच्चिदानन्द-रूपी त्रिविध सत्स्वरूप का भी साक्षात्कार करना होगा । केवल शुद्ध सत्ता ही नहीं, बल्कि शुद्ध चेतना भी और उस सत्ता एवं चेतना का शुद्ध आनन्द भी आत्मा का सत्स्वरूप एवं ब्रह्म का सारतत्त्व हैं ।

 

   अथ च, आत्मा या सच्चिदानन्द का साक्षात्कार दो प्रकार का होता है । एक तो होता है शान्त-नीरव, निष्क्रिय, निश्चिल, आत्मलीन, स्वयंपूर्ण सत्-चित्-आनन्द का जो एक एवं निर्व्यक्तिक हैं, और गुणों की क्रीड़ा से रहित एवं विश्व के अनन्त दृश्य-प्रपंच से पराङ्मुख हैं या इसके उदासीन और निष्किय द्रष्टा हैं । दूसरा साक्षात्कार भी इन्हीं सत्-चित्-आनन्द का होता है, पर उसमें हमें अनुभव होता है कि ये परमोच्च और मुक्त हैं, जगत् के प्रभु हैं, अविचल शान्ति में से कार्य करते हैं, सनातन आत्म-लीनता में से अपने-आपको अनन्त कर्मों और गुणों के रूप में बाहर उंडेलते हैं, एकमेव परमोच्च व्यक्ति हैं जो एक विशाल सम निर्व्यक्तित्व में व्यक्तित्व की इस समस्त क्रीड़ा को अपने अन्दर धारण किये हुए हैं, जगत् के अनन्त प्रपंच को बिना आसक्ति के, पर किसी प्रकार के अभेद्य पार्थक्य के भी बिना, दिव्य प्रभुत्व के साथ तथा अपने सनातन ज्योतिर्मय आत्मानन्द की अगणित रश्मियों के द्वारा धारण कर रहे हैं--एक ऐसी अभिव्यक्ति के रूप में धारण कर रहे हैं जिसे वे अपने अन्दर समाये हुए हैं, पर जो उन्हें अपने अन्दर समा नहीं सकती, जिसपर वें मुक्त रूप में शासन करते हैं और इसलिये जिससे वे बद्ध नहीं होते । पर यह धार्मिक लोगों का व्यक्तिस्वरूप ईश्वर नहीं है न यह दार्शनिकों का सगुण ब्रह्म ही है, बल्कि यह वह सत्ता है जिसमें सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक तथा सगुण और निर्गुण परस्पर सुसमन्वित हो जाते हैं । यह परात्पर है जो इन दोनों को अपनी सत्ता में धारण करता है और अपनी अभिव्यक्ति के लिये मूल अवस्थाओं के रूप में इन दोनों का प्रयोग भी करता है । अतएव, पूर्णयोग के साधक के लिये यह परात्पर ही साक्षात्कार का ध्येय है ।

 

   इससे हमें यह बात तुरन्त स्पष्ट हो जाती है कि मन, प्राण और शरीर से पीछे हटने की विधि से हमें शुद्ध और निश्चल आत्मा का जो साक्षात्कार प्राप्त होता है

३९७


वह इस उपर्युक्त दृष्टिकोण से हमारे लिये इस महत्तर साक्षात्कार के आवश्यक आधार को प्राप्त करनामात्र है । इसलिये वह विधि हमारे योग के लिये पर्याप्त नहीं; किसी और साधन की भी आवश्यकता है जो अधिक सर्वग्राही रूप में भावात्मक हो । जिस प्रकार हम अपनी प्रतीयमान सत्ता का गठन करनेवाले सभी तत्त्वों से तथा जिस विश्व में यह निवास करती है उसके दृग्विषयों सें पीछे हटकर स्वयंभू और चिन्मय ब्रह्म में प्रविष्ट हुए थे, उसी प्रकार अब हमें ब्रह्म की सर्वव्यापक स्वयंभू सत्ता, चेतना एवं आनन्द के द्वारा अपने मन, प्राण और शरीर को फिर से अपने अधिकार में लाना होगा । हमें केवल विश्वलीला सें स्वतन्त्र, विशुद्ध स्वयंभू सत्ता को ही अधिकृत नहीं करना होगा, बल्कि सम्पूर्ण सत्ता को अपनी सत्ता समझते हुए अधिकृत करना होगा । हमें अपने-आपको देश-कालगत समस्त परिवर्तन से परे एक अनन्त अहंशून्य चेतना के रूप में ही नहीं जानना होगा, बल्कि चेतना और उसकी सर्जनक्षम शक्ति की देश-कालगत अभिव्यक्ति के समस्त प्रवाह के साथ भी अपने-आपको एक करना होगा; केवल अथाह शान्ति और निश्चलता को ही नहीं, बल्कि जगत् की वस्तुओं में मुक्त और असीम आनन्द को भी प्राप्त करने में समर्थ बनना होगा । क्योंकि, यही सच्चिदानन्द है, यही ब्रह्म है, केवल शुद्ध शान्ति नहीं ।

 

   यदि अतिमानसिक स्तरतक ऊंचे उठना और वहां सुरक्षित रूप में स्थित होकर, दिव्य अतिमानसिक करणों की शक्ति और पद्धति से जगत् और सत्ता का, चेतना और कर्म का, सचेतन अनुभव की बहिर्मुख और अन्तर्मुख गतिविधि का सत्य स्वरूप जानना सहजसाध्य होता तो सच्चिदानन्द या ब्रह्म के उक्त साक्षात्कार में कोई वास्तविक कठिनाइयां उपस्थित न होतीं । परन्तु मनुष्य एक मानसिक प्राणी है और अभीतक वह अतिमानमिक नहीं बना है । अतएव, मन के द्वारा ही उसे ज्ञान-रूपी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना तथा अपनी सत्ता का साक्षात्कार करना होगा; हां, इसके लिये उसे अतिमानसिक स्तरों से जो भी सहायता प्राप्त हो सके उसे भी अवश्य ग्रहण करना होगा । अपनी सत्ता का जो स्तर हमने आज वस्तुत: चरितार्थ कर लिया है उसका यह मनोमय स्वरूप और परिणामतः हमारे योग का यह स्वरूप हमपर कुछ विशेष सीमाओं एवं प्रधान कठिनाइयों को लाद देते हैं जिन्हें केवल भागवत सहायता या कृच्छ साधना के  द्वारा और वस्तुत: इन दोनों साधनों के संयोग से ही दूर किया जा सकता है । अब आगे बढ़ने से पहले पूर्ण ज्ञान, पूर्ण साक्षात्कार एवं पूर्ण अभिव्यक्ति के मार्ग की इन कठिनाइयों का संक्षेप में वर्णन कर देना आवश्यक है ।

 

  वस्तुतः चरितार्थ मानसिक सत्ता और चरितार्थ आध्यात्मिक सत्ता हमारे अस्तित्व की व्यवस्था में दो विभिन्न स्तर हैं, इनमें से एक तो उत्कृष्ट एवं दिव्य है और दूसरा उत्कृष्ट एवं मानवीय । पहले की सम्पदा हैं अनन्त सत्ता, अनन्त चित्तपस्, अनन्त

३९८


आनन्द, और अतिमानस का अनन्त, सर्वग्राही और अमोघ ज्ञान,--ये चार दिव्य तत्त्व; दूसरे की सम्पदा हैं मानसिक सत्ता, प्राणिक सत्ता, भौतिक सत्ता--ये तीन मानवीय तत्त्व । अपनी दृश्यमान प्रकृति में ये दोनों स्तर स्वर के विपरीत हैं; प्रत्येक दूसरे का उल्टा है । दिव्य स्तर पर है अनन्त और अमर सत्ता; मानवीय स्तर पर है एक ऐसा जीवन जो काल, क्षेत्र और स्वरूप की दृष्टि से सीमित है, यह एक ऐसा जीवन है जो मृत्यु ही है, ऐसी मृत्यु जो जीवन अर्थात् अमर अस्तित्व बनने का यत्न कर रही है । दिव्य स्तर पर है एक अनन्त चेतना जो अपने अन्दर जो कुछ भी व्यक्त करती है उससे परे है तथा उसे अपने अन्दर समाये भी रहती है; उधर मानवीय स्तर पर है एक ऐसी चेतना जो निश्चेतना की निद्रा से मुक्त हुई है, और जिन साधनों का वह प्रयोग करती है उनके अधीन है, शरीर और अहंभाव की सीमाओं में आबद्ध है तथा अन्य चेतनाओं, शरीरों और अहंभावों के साथ अपना सम्बन्ध ढूंढ़ने की चेष्टा कर रही है--इसके लिये वह भावात्मक रूप में तो एकताजनक सम्पर्क और सहानुभूति के विविध साधनों का प्रयोग करती है और निषेधात्मक रूप में द्वेषपूर्ण सम्बन्ध और विरोध के नाना साधनों को उपयोग में लाती है । दिव्य स्तर पर है अविच्छेद्य आत्मानन्द और अखण्ड विराट्-आनन्द; उधर मानवीय स्तर पर है ऐसे मन और शरीर का सम्वेदन जो आनन्द की खोज कर रहे हैं, पर पा रहे हैं केवल सुख, उदासीनता और दुःख । दिव्य स्तर पर हैं सर्वग्राही अतिमानसिक ज्ञान और सर्वसाधक अतिमानसिक संकल्प; मानवीय स्तर पर है अज्ञान जो वस्तुओं को अंशों और खण्डों में ज्ञान करके ज्ञान पाने का यत्न कर रहा है, ज्ञान-प्राप्ति के लिये इसे उन खण्डों को एक-दूसरे के साथ भद्दे रूपमें जोड़ना पड़ता है; मानवीय स्तर पर है अक्षमता जो मानवीय ज्ञान के क्रमिक विस्तार के अनुपात में बढ़ते हुए शक्ति के क्रमिक विस्तार के द्वारा, सामर्थ्य और संकल्प-बल के उपार्जन के लिये यत्न कर रही है; और इस विस्तार को मानवता अपने ज्ञान की अपूर्ण एवं खण्डित प्रणाली के अनुरूप अपने संकल्प का अपूर्ण एवं खण्डित प्रयोग करके ही सम्पन्न कर सकतीं है । दिव्य स्तर एकता के ऊपर आधारित है और परात्पर तत्त्वों तथा समग्र विश्व का स्वामी है; मानवीय स्तर विभक्त बहुत्व के ऊपर आधारित है और 'बहु' पदार्थों के भाग-विभाग और खण्डों तथा उनके कठिन संयोजनों एवं एकीकरणों का स्वामी होते हुए भी उनके अधीन है । इन दोनों स्तरों के बीच मनुष्य के लिये एक परदा और आवरण पड़े हुए हैं जो मानव-सत्ता को दिव्य सत्ता के प्राप्त करने में ही नहीं, बल्कि उसके जानने में भी बाधा पहुंचाते हैं ।

 

   अतएव जब मनोमय प्राणी, मनुष्य, दिव्य सत्ता को जानना तथा उपलब्ध करना चाहता है, जब वह वही बन जाना चाहता है तो पहले उसे इस आवरण को उठाना होता है, इस पर्दे को एक तरफ करना पड़ता है । पर जब वह इस कठिन प्रयास में सफल हो जाता है, तो वह देखता है कि दिव्य सत्ता एक ऐसी सत्ता है जो उससे

३९९


उत्कृष्ट है, दूरस्थ तथा उच्च है, मानसिक, प्राणिक, यहांतक कि भौतिक रूप में भी उससे ऊपर है, जिसकी ओर वह अपने तुच्छ स्तर से दृष्टि उठाकर देखता है और जिसकी ओर उसे, यदि सम्भव हो तो, उठना होता है, अथवा यदि यह सम्भव न हो तो इसे नीचे अपनी ओर पुकार लाना होता है, इसके अधीन होकर इसकी आराधना करनी होती है । वह इसे सत्ता के एक उच्चतर स्तर के रूप में देखता है, और तब अपनी परिकल्पना या अनुभूति के स्वरूप के अनुसार वह इसे सत्ता की एक परमोच्च अवस्था, एक स्वर्ग या सत् या निर्वाण समझता है । अथवा वह इसे अपने से या कम-से-कम अपनी वर्तमान सत्ता से भिन्न एक परमोच्च पुरुष के रूप में देखता है और तब वह इसे ईश्वर मानकर इसके किसी एक या दूसरे नाम से पुकारता है; इस अवस्था में भी, इस परम सत्ता के किसी एक पक्ष या रूप के सम्बन्ध में उसकी जो परिकल्पना या उपलब्धि होती है, उसका जो अन्तदर्शन या बोध होता है उसीके अनुसार वह इसे सव्यक्तिक या निर्व्यक्तिक तथा सगुण या निर्गुण सत्ता के रूप में, निष्चल-नीरव और उदासीन शक्ति या कर्मशील स्वामी एवं सहायक के रूप में देखता है । या फिर वह इसे एक ऐसी सर्वोच्च सद्वस्तु के रूप में देखता है, उसकी अपनी अपूर्ण सत्ता जिसकी एक प्रतिच्छाया है अथवा जिससे उसका सम्बन्धविच्छेद हो गया है, और तब वह इसे आत्मा या ब्रह्म कहकर पुकारता है और सत्, असत्, ताओ, शून्य, शक्ति, अज्ञेय--इन नानाविध विशिष्ट नामों से वर्णित करता है, पर करता है सदा अपने विचार या साक्षात्कार के अनुसार ।

 

   अतएव यदि हम मानसिक रूप में सच्चिदानन्द का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो उसमें यह पहली कठिनाई आ सकती है कि हम उसे एक ऐसी वस्तु के रूप में देखेंगे जो हमसे ऊपर और परे है, यहांतक कि एक अर्थ में हमारे चारों ओर भी विद्यमान है, किन्तु फिर भी हमें ऐसा अनुभव होगा कि उस सत्ता और हमारी सत्ता के बीच एक खाई है, खाई भी ऐसी जिसपर सेतु नहीं है अथवा यहांतक कि जिसपर सेतु बांधा ही नहीं जा सकता । यह अनन्त सत्ता विद्यमान है; पर जो मानसिक सत्ता इसका ज्ञान प्राप्त करती है उससे यह बिल्कुल भिन्न है, और न तो हम अपने-आपको उसतक ऊंचे उठाकर वही बन सकते हैं और न ही उसे नीचे अपनेतक उतार ला सकते हैं जिससे कि अपने सत्ता और विश्व-सत्ता के सम्बन्ध में हमारा अपना अनुभव उसकी आनन्दमय असीमता का अनुभव बन जाय । यह महान्, असीम, अपरिच्छिन्न चेतना एवं शक्ति विद्यमान है; पर हमारी चेतना एवं शक्ति इसके अन्तर्गत होती हुई भी इससे पृथक् अवस्थित है, सीमित, क्षुद्र, निरुत्साहित, अपने-आपसे तथा जगत् से विरक्त है, पर जिस उच्चतर चित्-शक्ति का उसने साक्षात्कार किया है उसमें भाग लेने में असमर्थ है । यह अपरिमेय एवं निष्कलुष आनन्द विद्यमान है;  पर हमारी सत्ता इसका दिव्य हर्ष धारण करने में

४००


असमर्थ सुख, दुःख और जड़ निष्किय सम्वेदन से युक्त निम्नतर प्रकृति का क्रीड़ा-स्थल बनी रहती है । यह पूर्ण ज्ञान एवं संकल्प

विद्यमान है; पर हमारा अपना ज्ञान एवं संकल्प सदैव एक विकृत प्रकार का मानसिक ज्ञान एवं पंगु संकल्प ही बना रहता है जो भगवान् की उक्त प्रकार की दिव्य प्रकृति में भाग नहीं ले सकता, यहां तक कि इसके साथ एकस्वर भी नहीं हो सकता । या फिर, जबतक हम केवल भगवत्साक्षात्कार के भाव-विभोर चिन्तन में ही निवास करते हैं, हम अपने 'स्व' से मुक्त रहते हैं; पर ज्यों ही हम अपनी चेतना को पुनः अपनी सत्ता की ओर मोड़ते हैं, हम उस भागवत साक्षात्कार से दूर जा पड़ते हैं और वह तिरोहित हो जाता है या हमसे बहुत परे चला जाता है और हमारे लिये गोचर नहीं रहता । भगवान् हमें छोड़कर चले जाते हैं; साक्षात्कार विलुप्त हो जाता है; हम फिर से अपनी मर्त्य सत्ता की क्षुद्रता में आ गिरते हैं ।

 

    जैसे भी हो, इस खाई को पाटना होगा । यहां मनोमय मानव के लिये दो सम्भावनाएं हैं । उसके लिये एक सम्भावना तो यह है कि वह एक महान् सुदीर्घ, एकाग्र, अनन्य प्रयत्न के द्वारा अपनी सत्ता में से उठकर परम सत्ता में पहुंच जाय । परन्तु इस प्रयत्न में मन को अपनी चेतना का त्याग कर एक अन्य चेतना में विलीन हो जाना पड़ता है और यदि अपना पूर्ण विनाश नहीं तो अस्थायी विलय अवश्य कर देना होता है । उसे समाधि की लयावस्था में चले जाना होता है । इसी कारण राजयोग तथा कुछ अन्य योगप्रणालियां योग-समाधि की अवस्था को परम महत्त्व प्रदान करती हैं जिसमें मन अपने साधारण प्रिय विषयों और कार्यों से ही पीछे नहीं हट जाता, बल्कि पहले तो बाह्य कर्म और बोध एवं अस्तित्व का भान करनेवाली समस्त चेतना से और फिर आभ्यन्तर मानसिक क्रियाओंविषयक समस्त चेतना से भी पीछे हट जाता है । अपनी इस अन्तःसमाहित अवस्था में मनोमय सत्ता को स्वयं परमोच्च तत्त्व के अथवा उसके विविध पक्षों या नाना स्तरों के विभिन्न प्रकार के साक्षात्कार प्राप्त हो जाते हैं, पर आदर्श यह है कि मन से सर्वथा मुक्त होकर और मानसिक साक्षात्कार से परे जाकर उस पूर्ण समाधि में प्रवेश किया जाय जिसमें मन या निम्नतर सत्ता का कोई भी चिह्न बाकी नहीं रहता । परन्तु यह चेतना की एक ऐसी अवस्था है जिसे विरले व्यक्ति ही प्राप्त कर सकते हैं और जिससे वापिस आना सबके लिये सम्भव नहीं ।

 

    मनोमय सत्ता को जो जाग्रत् अवस्था उपलब्ध है वह, एकमात्र, मानसिक चेतना की अवस्था ही है; अतएव यह स्पष्ट है कि वह हमारी सम्पूर्ण जाग्रत् सत्ता और हमारी समस्त आन्तरिक मनश्चेतना-दोनों को पूरी तरह से पीछे छोड़े बिना साधारणतया किसी अन्य चेतना में पूर्ण रूप से प्रवेश नहीं कर सकती । यह तो योग-समाधि की आवश्यक शर्त है । परन्तु मनुष्य इस समाधि में निरन्तर नहीं रह सकता; अथवा, यदि कोई इसमें अनिश्चित रूप से दीर्घ कालतक स्थिर रह भी सके

४०१


तो भी शारीरिक जीवन के प्रति की गयी कोई प्रबल या अटल पुकार इसे सदा ही भंग कर सकती है । और जब वह मानसिक चेतना में लौटता है, वह फिर निम्नतर सत्ता में पहुंच जाता है । अतएव यह कहा गया है कि मानव-जन्म से पूर्ण मुक्ति, मनोमय प्राणी के जीवन से ऊर्ध्व की ओर पूर्ण आरोहण तबतक साधित नहीं हो सकता जबतक शरीर और शारीरिक जीवन का भी अन्तिम रूप सें त्याग न कर दिया जाय । जो योगी इस विधि का अनुसरण करता है उसके सामने यह आदर्श रखा जाता है कि वह समस्त कामना को तथा मानवजीवन किंवा मानसिक सत्ता की प्रत्येक छोटी-से-छोटी इच्छा को भी त्याग दे, अपने-आपको जगत् से पूर्णतया पृथक् कर ले और समाधि की एकाग्रतम अवस्था में अधिकाधिक बार तथा उत्तरोत्तर गहरे रूप में प्रवेश करके अन्त में सत्ता की उस पूर्ण अन्त:-समाहित अवस्था में ही शरीर का त्याग कर दे जिससे कि यह परमोच्च सत्ता में प्रयाण कर सके । अपि च, मन और आत्मा की इस प्रत्यक्ष असंगति के कारण ही बहुत से धर्म और दर्शन जगत् की निन्दा करने में प्रवृत्त होते हैं और केवल संसार से परे स्थित किसी स्वर्ग या फिर निर्वाण की शून्यावस्था या परमोच्च पुरुष में परम, निराकार, स्वयं-स्थित अस्तित्व को प्राप्त करने की आशा रखते हैं ।

   परन्तु ऐसी परिस्थिति में, भगवत्पाप्ति के अभिलाषी मानव-मन को अपनी जागरित अवस्था के क्षणों का क्या करना होगा ? क्योंकि ये मर्त्य मन की समस्त दुर्बलताओं के अधीन हैं, यदि ये शोक, भय, क्रोध, आवेश, तृष्णा, लोभ, वासना के आक्रमणों के प्रति खुले हुए हैं तो यह मानना अयुक्तिसंगत है कि शरीर त्यागने के समय मानसिक सत्ता को योग-समाधि में एकाग्र करने-भर से मानव-आत्मा परम सत्ता में प्रयाण कर सकती है और वहां से उसे फिर वापिस नहीं आना पड़ता । कारण, मनुष्य की सामान्य चेतना अभीतक भी बौद्धों द्वारा प्रतिपादित कर्मशृंखला या कर्म-प्रवाह के अधीन है, यह अभी भी कुछ ऐसी शक्तियां उत्पन्न कर रही है जो, निश्चय ही, अपने को पैदा करनेवाले मनोमय मानव के सतत-प्रवहमान जीवन में निरन्तर कार्य करती रहेंगी तथा अपना फल उत्पन्न करेंगी । अथवा, एक और दृष्टिकोण से देखें तो, क्योंकि चेतना ही निर्धारक तत्त्व है, शारीरिक जीवन नहीं--यह तो एक परिणाममात्र है, मनुष्य अभी भी साधारणतया मानवीय या कम- से-कम मानसिक क्रिया के स्तर से ही सम्बन्ध रखता है और यह मानसिक क्रिया स्थूल शरीर में से प्रयाण कर जाने की घटनामात्र के कारण नष्ट नहीं हो सकती; क्योंकि, मर्त्य शरीर से छूटने का अर्थ यह नहीं कि मर्त्य मन से भी छुटकारा हो गया । इसी प्रकार, जगत् से प्रबल विरक्ति अथवा प्राणमय जीवन के प्रति उदासीनता या स्थूल जीवन के प्रति घृणा भी काफी नहीं है; क्योंकि यह भी निम्नतर मानसिक स्थिति और क्रिया का धर्म है । सबसे ऊंची शिक्षा यह है कि आत्मा के पूर्णतया मुक्त हो सकने के पूर्व हमें मुक्ति की कामना को भी इसके सब मानसिक

४०२


सहचारी भावों समेत पार कर जाना होगा: अतएव, न केवल मन को असामान्य अवस्थाओं में अपने घेरे से बाहर निकलकर उच्चतर चेतना में उठ जानें में समर्थ बनना होगा, अपितु इसकी जाग्रत् अवस्था को भी पूर्ण रूप से अध्यात्ममय बन जाना होगा ।

 

    यह तथ्य एक दूसरी सम्भावना को जिसका द्वार मनोमय मानव के लिये खुला हुआ है. साधना के क्षेत्र में उतार लाता है, क्योंकि यदि उसके लिये पहली सम्भावना यह है कि वह अपनी सत्ता में से उठकर सत्ता के दिव्य अतिमानसिक स्तर में पहुंच सकता है तो, दूसरी यह है कि वह दिव्य सत्ता को पुकारकर अपने अन्दर उतार ला सकता है ताकि उसका मन दिव्य सत्ता की प्रतिमूर्त्ति मे बदल जाय, दिव्य या आध्यात्मिक बन जाय । यह कार्य मन की प्रतिबिम्बित करने की शक्ति के द्वारा किया जा सकता है और मुख्यत: इसीके द्वारा किया जाना चाहिये, मन के अन्दर यह शक्ति है कि वह जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करता है, जिसका अपनी चतना से सम्बन्ध जोड़ता है तथा जिसका चिन्तन करता है उसे प्रतिबिम्बित कर सकता है । क्योंकि, वह वास्तव में एक दर्पण एवं माध्यम है और उसकी कोई भी क्रिया अपने अन्दर से उद्भूत नहीं होती, कोई भी अपने सहारे अस्तित्व नहीं रखती । साधारणतया, मन मर्त्य प्रकृति की अवस्था को और जड़ जगत् के नियमों के अधीन कार्य करनेवाली शक्ति की क्रियाओं को ही प्रतिबिम्बित करता है । परन्तु यदि वह इन क्रियाओं को तथा मानसिक प्रकृति के अपने विशिष्ट विचारों को एवं इसके दृष्टिकोण को त्याग करके निर्मल, निष्क्रिय और शुद्ध हो जाय तो एक स्वच्छ दर्पण की भांति उसमें दिव्य सत्ता का प्रतिबिम्ब पड़ता है अथवा तरंगों से रहित तथा वायु से अनुद्वेलित स्वच्छ जल में आकाश की भांति उसके अन्दर भगवान् प्रतिभासित होते हैं । तब भी मन भगवान् को पूर्ण रूप से अधिकृत नहीं कर लेता न वह भगवान् बन ही जाता है, बल्कि जबतक वह इस शुद्ध निष्क्रियता की अवस्था में रहता है तबतक भगवान् के या फिर उसके किसी ज्योतिर्मय प्रतिबिम्ब के अधिकार में रहता है । यदि वह क्रिया करने लग पड़े तो वह फिर से मर्त्य प्रकृति की उथल-पुथल में जा गिरता है और उसीको प्रतिबिम्बित करता है, भगवान् को नहीं । इसी कारण साधारणतया जो आदर्श हमारे सामने रखा जाता है वह यह है कि हमें पूर्ण निवृत्ति का अवलम्बन करना चाहिये तथा पहले तो समस्त बाह्य कर्म और फिर समस्त आन्तरिक क्रिया का त्याग कर देना चाहिये; यहां भी, ज्ञानमार्ग के अनुयायी के लिये एक प्रकार की जाग्रत् समाधि प्राप्त करना आवश्यक है । जो कोई कर्म अपरिहार्य है उसे ज्ञानेन्द्रियों ओर कर्मेन्द्रियों की निरी स्थूल क्रिया के रूप में ही चलते रहना होगा जिसमें अन्ततोगत्वा निश्चल मन कोई भाग नहीं लेता और जिससे वह किसी फल या लाभ की भी कामना नहीं करता ।

 

    परन्तु पूर्णयोग के लिये यह पर्याप्त नहीं है । जाग्रत मन की अभावात्मक

४०३


निश्चलता ही नहीं, बल्कि उसका भावात्मक रूपान्तर भी साधित करना होगा । उसका रूपान्तर किया भी जा सकता है; कारण, यद्यपि दिव्य स्तर मानसिक चेतना से ऊपर हैं और उनमें वस्तुत: प्रवेश करने के लिये हमें साधारणतया मन को समाधि में लय करना पड़ता है, तथापि मनोमय सत्ता में हमारे सामान्य मन से ऊंचे दिव्य स्तर भी विद्यमान हैं जो वास्तविक दिव्य स्तर की अवस्थाओं को ही प्रदर्शित करते हैं, यद्यपि वे मन की अवस्थाओं से, जो यहां प्रभुत्वपूर्ण हैं, कुछ परिवर्तित हो जाती हैं । जो भी चीजें दिव्य स्तर के अनुभव से सम्बन्ध रखती हैं वे सब-की-सब इन स्तरों में अधिगत की जा aकती हैं, मानसिक ढंग से, और मानसिक रूप में । विकसित मनुष्य जाग्रत् अवस्था में भी दिव्य मन के इन स्तरोंतक ऊंचे उठ सकता है; अथवा वह इनसे ऐसे प्रभावों और अनुभवों की धारा भी प्राप्त कर सकता है जो अन्त में उसकी सम्पूर्ण जाग्रत् सत्ता को इनकी ओर खोल देंगे तथा इनकी प्रकृति के स्वरूप में रूपान्तरित कर देंगे । ये उच्चतर मनोमय भूमिकाएं उसकी पूर्णता के प्रत्यक्ष उद्गम, महान् वास्तविक यन्त्र एवं आन्तरिक धामहैं ।

 

   परन्तु इन स्तरोंतक पहुंचने या इनसे कोई प्रभाव ग्रहण करने में हमारे मन की संकीर्णताएं हमारा पीछा करती हैं । सर्वप्रथम, मन अविभाज्य वस्तु का एक प्रबल विभाजक है और इसका तो बस स्वभाव ही यही है कि यह अन्य सब वस्तुओं को छोड़कर एक समय में एक ही वस्तु पर अपने-आपको एकाग्र करता है अथवा दूसरी चीजों को गौण स्थान देकर केवल उसीपर बल देता है । इस प्रकार, सच्चिदानन्द की प्राप्ति में यह उसकी शुद्ध सत्ता अर्थात् सता् ! के पक्ष पर ही ध्यान एकाग्र करेगा और तब चेतना तथा आनन्द शुद्ध एवं अनन्त सत्ता के अनुभव में खो जाने या निश्चल रहने के लिये बाध्य होंगे; यह अनुभव उसे निवृत्तिपरायण अद्वैतवादी के साक्षात्कार की ओर ले जायेगा । अथवा, वह चेतना अर्थात् चित् के पक्ष पर अपने-आपको एकाग्र करेगा और तब सत्ता और आनन्द अनन्त परात्पर शक्ति एवं चित्तपस् के अनुभव पर आधारित हों जायेंगे; यह अनुभव उसे शक्ति के पुजारी तांत्रिक के साक्षात्कार की ओर ले जायेगा अथवा यह आनन्द के पक्ष पर ध्यान एकाग्र करेगा और तब सत् और चित् दोनों स्वराट् चेतनता या उपादानभूत सत्ता के आधार से रहित आनन्द में विलीन होते प्रतीत होंगे; यह अनुभव उसे निर्वाण के अभिलाषी बौद्ध साधक के साक्षात्कार की ओर ले जायेगा । अथवा, वह सच्चिदानन्द के किसी ऐसे रूप पर अपने-आपको एकाग्र करेगा जो अतिमानसिक ज्ञान, संकल्प या प्रेम के स्वरूप से उसके अन्दर स्कुरित होगा और तब सच्चिदानन्द का अनन्त, निर्गुण स्वरूप इष्टदेवता के इस रूप के अनुभव में प्रायः या पूर्णतया खो जायेगा; यह अनुभव उसे नाना धर्मों के आधारभूत साक्षात्कारों की ओर ले

 

१ वेद में इन्हें सदस्, गृह या क्षय, धाम, पद, भूमि, क्षिति इन नानाविध नामों से पुकारा गया है |।

४०४


जायेगा और मानव-आत्मा के किसी ऊर्ध्वलोक या दिव्य धाम को प्राप्त करायेगा जिसमें आत्मा का परमात्मा के साथ सम्बन्ध जुड़ा रहता है । जिनका लक्ष्य जगत् के जीवन से हटकर कहीं और प्रयाण कर जाना है उनके लिये इस प्रकार का अनुभव पर्याप्त है, क्योंकि उनका मन इन तत्त्वों, पक्षों या रूपों में से किसी एक में निमज्जित हो जाता है या उसपर अधिकार जमा लेता है और इस प्रकार है इन दिव्य लोकों में अपने मन की अवस्थिति या अपनी जागरित अवस्था पर इन लोकों के अधिकार के द्वारा इस अभीष्ट प्रयाण को साधित कर सकते हैं ।

 

    परन्तु पूर्णयोग के साधक को इन सबमें सुसंगति स्थापित करनी होगी जिससे ये सच्चिदानन्द के पूर्ण साक्षात्कार की समग्र एवं सम एकता बन जायें । यहां मन की अन्तिम कठिनाई उसके सामने आती है, वह है एकता और अनेकता को एक साथ धारण कर सकने में उसकी असमर्थता । शुद्ध अनन्त सत्ता को प्राप्त करना तथा उसमें निवास करना अथवा इसके साथ ही चैतन्य-स्वरूप सत् का, जो आनन्द- स्वरूप भी है, पूर्ण मण्डलाकार अनुभव प्राप्त करना तथा इसमें निवास करना भी नितान्त कठिन नहीं है । यहांतक कि मन इस एकता के अनुभव को वस्तुओं की अनेकतातक भी इस प्रकार विस्तारित कर सकता है कि वह इसे विश्व में तथा इसकी प्रत्येक वस्तु शक्ति एवं गतिविधि में व्याप्त देखे अथवा इसके साथ ही यह भी अनुभव करे कि यह सत्-चित्-आनन्द इस विश्व को अपने अन्दर समाये हुए है तथा इसके सब पदार्थों के चारों ओर व्याप रहा है और इसकी सब गतिविधियों का मूल है । पर, निश्चय ही, इन सब अनुभवों को यथावत् एकीभूत तथा समस्वर करना उसके लिये एक कठिन कार्य है; तथापि वह सच्चिदानन्द को अपने अन्दर प्राप्त करने के साथ-साथ सबके अन्दर विराजमान और सर्वाधार प्रभु के रूप में भी प्राप्त कर सकता है । परन्तु इसके साथ इस अन्तिम अनुभव को भी एकीभूत करना कि यह सब कुछ ही सच्चिदानन्द है, तथा सब पदार्थों गतियों, शक्तियों और रूपों को इस रूप में अधिकृत करना कि ये उससे भिन्न और कुछ नहीं हैं--यह मन के लिये एक महाकठिन कार्य है । अलग-अलग इनमेंसे कोई भी चीज प्राप्त की जा सकती है; मन एक से दूसरीतक पहुंच सकता है, दूसरीतक पहुंचते ही पहली को त्याग दे सकता है तथा एक को निम्नतर या दूसरी को उच्चतर सत्ता के नाम से पुकार सकता है । परन्तु कुछ भी खोये बिना सबको एक करना, कुछ भी त्यागे बिना सबको समग्र बनाना उसके लिये सबसे कठिन कार्य है ।

४०५










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates