Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २०
निम्न त्रिविध पुरुष
विराट् सत्ता के विविध लोकों तथा हमारी सत्ता के विविध स्तरों की रचना का मूलतत्त्व ऐसा ही है; मानों वे एक सीढ़ी की न्याईं हैं जिसका सबसे निचला सोपान जड़तत्त्व के भीतर तथा शायद इससे भी नीचे गया हुआ है और, शायद उस बिन्दुतक ऊपर उठा हुआ है जिसपर सत्ता विराट् सत् को पारकर विश्वातीत निरपेक्ष सत्ता के क्षेत्र में जा पहुंचती है, -कम-से-कम बौद्धों की लोक-शृंखला में इसीको सत्य के रूप में घोषित किया जाता है । परन्तु हमारी साधारण जड़पन्न चेतना के लिये इस सबका अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि यह हमसे छुपा दुआ है और इसके छुपे होने का कारण यह है कि हम इस स्थूल विश्व के एक छोटे-से कोने में अपनी ही सत्ता में व्यस्त हैं और इस भूतल पर एक ही शरीर में कुछ थोड़े-से काल के लिये जो हमारा जीवन चलता है उस अल्प-जीवनकाल के छ अनुभवों में ही ग्रस्त हैं । हमारी इस चेतना के लिये यह जगत् कुछ ऐसी जड़ वस्तुओं और शक्तियों का समूहमात्र है जिन्हें कई एक स्थिर स्वयंस्थित नियमों के द्वारा एक प्रकार का आकार देकर नियमित क्रियाओं की एक प्रणाली के रूप में परस्पर सुसंगत कर दिया गया है । इन नियमों का हमें पालन करना होता है, क्योंकि ये हमपर शासन करते हैं तथा हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं, साथ ही हमें इनका यथासम्भव अच्छे-से-अच्छा ज्ञान भी प्राप्त करना होता है ताकि हम इस एकमात्र लघु जीवन का, जो जन्म से आरंम्भ होता है, मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है तथा दुबारा प्राप्त नहीं होता, अधिक-से-अधिक लाभ उठा सकें । हमारी अपनी सत्ता जड़प्रकृति के विराट् जीवन में या जड़शक्ति की क्रियाओं के अविच्छिन्न सनातन प्रवाह में एक प्रकार की आकस्मिक घटना है या कम-से-कम एक बहुत छोटा या गौण संयोग है । किसी-न-किसी प्रकार एक आत्मा या मन शरीर में प्रकट हो गया है और यह वस्तुओं तथा शक्तियों के बीच इधर-उधर ठोकरें खाता रहता है क्योंकि यह उन्हें पूरी तरह से समझता नहीं, पहले तो यह एक संकटमय और अधिकतर विरोधी जगत् में जीने का ढंग निकालने की कठिनाई में ग्रस्त रहता है और फिर इसके नियमों को समझने तथा उनका प्रयोग करने के प्रयत्न में संलग्र रहता है ताकि जीवन जबतक कायम रहे तबतक के लिये उसे यथासम्भव अधिक-से-अधिक सह्य या सुखी बनाया जा सके । यदि हम वस्तुत: जड़तत्त्व में विद्यमान व्यक्तित्वप्राप्त मन की एक ऐसी गौण क्रिया से अधिक कुछ न हों, तो हमें देने के लिये जीवन के पास और कुछ भी नहीं होगा; तब तो अधिक-से-अधिक, सनातन जड़प्रकृति के साथ तथा 'जीवन' की कठिनाइयों के साथ क्षणिक बुद्धि और संकल्प का यह
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संघर्ष ही जीवन का अच्छे-से-अच्छा भाग होगा । कल्पना की क्रीड़ा, धर्म और कला के द्वारा हमारे सामने प्रस्तुत किये गये सांत्वनाप्रद मनोराज्य, तथा मनुष्य के विचारमग्न मन और उसकी चंचल कल्पना के द्वारा देखे गये समस्त आश्चर्यमय स्वप्न इस संघर्ष में योग देकर इसे हल्का अवश्य कर सकते हैं ।
परन्तु, क्योंकि मनुष्य केवल एक प्राणयुक्त शरीर नहीं बल्कि एक आत्मा है, वह इस बात से कभी देरतक संतुष्ट नहीं रह सकता कि उसकी सत्ता के विषय में यह प्रथम दृष्टिकोण, --जीवन के बाह्य और वस्तुनिष्ठ तथ्यों के द्वारा समर्थित यह एकमात्र दृष्टिकोण-कोई वास्तविक सत्य या सम्पूर्ण ज्ञान है : उसकी आभ्यन्तरिक सत्ता परे की सद्वस्तुओं के संकेतों तथा इंगितों से परिपूर्ण है, यह अनन्तता और अमरता की अनुभूति की ओर खुली हुई है, अन्य लोकों, सत्ता की उच्चतर सम्भावनाओं, तथा आत्मा के लिये अनुभव के विस्तृत क्षेत्रों के विषय में इसे सहज ही विश्वास हो जाता है । विज्ञान हमें सत्ता का बाह्य सत्य एवं हमारी भौतिक और प्राणिक सत्ता का स्थूल ज्ञान प्रदान करता है; परन्तु हम अनुभव करते हैं कि इससे परे भी कुछ सत्य विद्यमान हैं जो सम्भवतः हमारी आन्तरिक सत्ता के विकास तथा उसकी शक्तियों के विस्तार के द्वारा हमारे प्रति अधिकाधिक खुल सकते हैं । जब इस लोक का ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है तो इससे परे स्थित सत्ता की अन्य भूमिकाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिये हमारे अन्दर अदम्य प्रेरणा उत्पन्न होती है, और यही कारण है कि प्रबल जड़वाद तथा सन्देहवाद के युग के बाद सदा ही गुह्य विद्या का, रहस्यवादी सम्प्रदायों एवं नये धर्मों का तथा अनन्त और भगवान् की अधिक गहरी खोजों का युग आता है । हमारे स्थूल मन का तथा हमारे शारीरिक जीवन के नियमों का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है; सदा ही यह हमें नीचे और पीछे अवस्थित आन्तरिक सत्ता की समस्त रहस्यमय एवं गुप्त गहराईतक ले आता है । हमारी स्थूल चेतना तो उस गहराई का एक किनारा या बाह्य प्रांगणमात्र है । उस गहराई का पता लगने पर हम देखने लगते हैं कि जो कुछ हमारी स्थूल इन्द्रियों के लिये गोचर है वह विराट् सत्ता का स्थूल भौतिक आवरणमात्र है और जो कुछ हमें अपने स्थूल मन में प्रत्यक्ष अनुभूत होता है वह पीछे की ओर स्थित, न खोजे गयें अनन्त प्रदेशों का केवल एक प्रान्तभाग ही है । उनकी खोज करना भौतिक विज्ञान या स्थूल मानसशास्त्र के ज्ञान से भिन्न किसी अन्य ज्ञान का ही कार्य होना चाहिये ।
अपने-आपसे तथा अपनी सत्ता के प्रत्यक्ष और स्थूल तथ्यों से परे जाने के लिये मनुष्य के प्रथम प्रयत्न को हम 'धर्म' कहते हैं । भगवान् पर मनुष्य की भौतिक और मानसिक सत्ता निर्भर करती है । उनके विषय में उसकी आन्तरिक भावना को और उनका साक्षात् करने एवं उनके सम्पर्क में रहने की उसकी आत्मा की अभीप्सा को पुष्ट करना तथा जीवन्त बनाना--यह धर्म का पहला मुख्य कार्य
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है । इसका एक कार्य यह भी है कि यह उसे उस सम्भावना के विषय में विश्वास दिलाये जिसका स्वप्न वह सदा से देखता आया है, पर जिसके विषय में उसका साधारण जीवन उसे कोई आश्वासन नहीं देता । वह सम्भावना यह है कि वह अपने-आपको अतिक्रम कर सकता है तथा शारीरिक जीवन और मरणशीलता में से अमर जीवन और आध्यात्मिक अस्तित्व के आनन्द में विकसित हों सकता है । यह उसमें इस भावना को भी दृढ़ करता है कि सत्ता का जो लोक या भूमिका आज उसके भाग्य में बदी है उससे भिन्न अन्य लोक या भूमिकाएं भी हैं, ऐसे लोक हैं जिनमें यह मरणशीलता और बुराई तथा दुःख के प्रति यह अधीनता स्वाभाविक अवस्था नहीं हैं, बल्कि अमरता का आनन्द ही शाश्वत स्थिति है । आनुषंगिक रूप में, यह उसे मर्त्य जीवन का एक ऐसा नियम भी प्रदान करता है जिसके द्वारा वह अपने-आपको अमरता के लिये तैयार कर सके । वह एक आत्मा है, शरीर नहीं, और उसका पार्थिव जीवन एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा वह अपने आध्यात्मिक अस्तित्व की भावी अवस्थाओं का निर्धारण करता है । ये सब विचार सभी धर्मों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं; इसके आगे हमें उनसे कुछ भी निश्चित आश्वासन नहीं मिलता । बल्कि उनकी आवाजें अलग-अलग हो जाती हैं; उनमें से कुछ तो हमें बताते हैं कि इस भूतल पर बस हमें एक ही जीवन मिलता है जिसमें हम अपने भावी अस्तित्व का निर्धारण कर सकते हैं, आत्मा की अतीत काल की अमरता से इन्कार करते हैं और इसकी केवल भावी अमरता का ही दृढ़तापूर्वक प्रतिपादन करते हैं, इसे इस अविश्वसनीय सिद्धान्त का भय तक दिखाते हैं कि जो लोग सही रास्ते से चूक जाते हैं उन्हें भविष्य में चिरन्तन दुःख ही प्राप्त होता है । उधर, कुछ अन्य धर्म जो अधिक व्यापक तथा तर्कसंगत हैं, दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित करते हैं कि आत्मा अनेक क्रमिक जन्मों को धारण करती है जिनके द्वारा वह अनन्त के ज्ञान में विकसित होती है । वे इस बात का पूर्ण आश्वासन देते हैं कि अन्त में सभी इस ज्ञान और पूर्णता को प्राप्त करेंगे । कुछ धर्म अनन्त भगवान् को हमसे भिन्न एक ऐसे 'पुरुष' के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं जिनके साथ हम व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं, कुछ दूसरे धर्म उन्हें एक निर्व्यक्तिक सत्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिसमें हमारी पृथक् सत्ता को निमज्जित हो जाना होगा; अतएव कुछ धर्म तो उन परे के लोकों को हमारा गन्तव्य धर्म बताते हैं जिनमें हम भगवान् के सान्निध्य में निवास करते हैं, जब कि अन्य धर्म अनन्त में लय के द्वारा विश्वसत्ता के त्याग को हमारा लक्ष्य बताते हैं । बहुत-से धर्म हमसे अनुरोध करते हैं कि पार्थिव जीवन को एक कसौटी या अल्पकालीन यंत्रणा या फिर एक नि:सार वस्तु मानते हुए हमें इसे सहन करना या त्याग देना चाहिये और परे के लोकों पर ही अपनी आशाभरी दृष्टि गड़ानी चाहिये; कुछ धर्मों में हम आत्मा की, इस भूतल पर देह में मूर्तिमन्त भगवान् की, मानव के सामूहिक जीवन में होनेवाली भावी विजय
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का अस्पष्ट सकेत पाते हैं और अतएव व्यक्ति की पृथक् आशा और अभीप्सा का ही नहीं बल्कि जाति की संयुक्त एवं समवेदनापूर्ण आशा और अभीप्सा का भी समर्थन करते हैं । धर्म वास्तव में कोई ज्ञान नहीं बल्कि एक श्रद्धा एवं अभीप्सा है; निःसंदेह, यह विशाल आध्यात्मिक सत्यों के अनिश्चित सहजज्ञान के द्वारा तथा साधारण जीवन से ऊपर उठी आत्माओं के आन्तरिक अनुभवों के द्वारा सत्य प्रमाणित होता है, पर अपने-आपमें यह हमें केवल एक ऐसी आशा एवं श्रद्धा ही प्रदान करता है जिसके द्वारा हम आत्मा के गुप्त प्रदेशों तथा विशालतर सत्यों की गहरी प्राप्ति के लिये अभीप्सा करने को प्रेरित हो सकें । पर किसी धर्म के कुछ-एक विशिष्ट सत्यों को, उसके प्रतीकों या उसकी किसी विशेष साधना को हम सदा ही कट्टर सिद्धान्तों का रूप दे देते हैं । यह इस बात का चिह्न है कि आध्यात्मिक ज्ञान में हम अभीतक बच्चे ही हैं और अनन्त के विज्ञान से अभी कोसों दूर हैं ।
तथापि प्रत्येक महान् धर्म के पीछे, अर्थात् उसके श्रद्धा, आशा, प्रतीकों, विकीर्ण सत्यों तथा संकीर्णता-जनक सिद्धान्तोंवाले बाह्य पहलू के पीछे, अन्तरीय आध्यात्मिक साधनाभ्यास तथा ज्ञानलोक का आभ्यन्तरिक पक्ष भी होता है जिसके द्वारा गुप्त सत्य जाने जा सकते हैं, चरितार्थ तथा प्राप्त किये जा सकते हैं । प्रत्येक बाह्य धर्म के पीछे एक आन्तरिक योग एवं अन्तर्ज्ञान होता है जिसके लिये उसकी श्रद्धा पहली सीढ़ी होती है, उसके पीछे ऐसी अवर्णनीय सद्वस्तुएं होती हैं जिन्हें उसके प्रतीक मूर्तिमन्त रूप में प्रकट करते हैं, उसके पीछे उसके विकीर्ण सत्यों के लिये एक गभीरतर अनुभूति होती है, उसके पीछे सत्ता के उच्चतर स्तरों के रहस्य होते हैं । उसके मन्तव्य और अन्धविश्वास भी उन रहस्यों के असंस्कृत संकेत एवं निदेंश होते हैं । पदार्थों के प्रथम दृश्य रूपों तथा उपयोगों के स्थान पर स्थूल जगत् की महान् प्राकृतिक शक्तियों के गुप्त सत्यों एवं अद्यावधि गुह्य बलों का आविष्कार करके और हमारे मनों में मान्यताओं तथा धारणाओं के स्थान पर परीक्षित अनुभव और अधिक गहरे बोध को उत्पन्न करके जो कार्य भौतिक जगत् के हमारे ज्ञान के लिये सायंस करती है, वही कार्य योग हमारी सत्ता के उन उच्चतर स्तरों और लोकों तथा उसकी उन उच्चतर शक्यताओं के लिये करता है जो सब धर्मों का लक्ष्य है । अतएव, बन्द द्वारों के पीछे विद्यमान क्रमबद्ध अनुभव का यह सब भण्डार जिसकी कुंजी को मनुष्य की चेतना, चाहे तो, प्राप्त कर सकती है, एक व्यापक ज्ञानयोग के क्षेत्र में आ जाता है । क्योंकि ऐसे ज्ञानयोग के लिये केवल निरपेक्ष ब्रह्म की खोज या भगवान् के निज स्वरूप के ज्ञान तक अथवा व्यक्तिगत मानव-आत्मा के साथ केवल एकाकी सम्बन्ध रखनेवाले भगवान् के ज्ञान तक ही सीमित रहना अभीष्ट नहीं है । यह सच है कि निरपेक्ष ब्रह्म की चेतना प्राप्त करना ज्ञानयोग की पराकाष्ठा है और भगवान् की प्राप्ति उसका पहला, सबसे महान् तथा उत्कट ध्येय है और किसी निम्न ज्ञान के लिये इस लक्ष्य की उपेक्षा करने का अर्थ है हमारे (पूर्ण)
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योग को हीनता या यहांतक कि क्षुद्रता से ग्रस्त करना और उसके विशिष्ट लक्ष्य से भ्रष्ट होना या दूर रहना, परन्तु भगवान् का निज स्वरूप ज्ञात हो जाने पर ज्ञानयोग हमारी सत्ता के विभिन्न स्तरों पर हमारे साथ तथा जगत् के साथ नानाविध सम्बन्ध रखनेवाले भगवान् का ज्ञान भी भली-भांति प्राप्त कर सकता है । शुद्ध आत्मा की ओर आरोहण को अपने आन्तरिक आत्मोत्थान के शिखर के रूप में सतत सामने रखकर हम उस शिखर से अपनी सत्ता के निम्न भागों को, स्थूल भाग तक को, तथा उनकी प्राकृतिक क्रियाओं को अपने अधिकार में ला सकते हैं ।
इस ज्ञान को हम दो पहलुओं से, पुरुष के पहलू तथा प्रकृति के पहलू से, पृथक्-पृथक् प्राप्त कर सकते हैं; और भगवान् के स्वरूप के प्रकाश में पुरुष और प्रकृति के नाना सम्बन्धों को पूर्ण रूप से प्राप्त करने के लिये हम इन दोनों पहलुओं को मिला भी सकते हैं । उपनिषद् में कहा गया है कि मनुष्य और जगत् में अर्थात् पिण्ड और ब्रह्माण्ड में पांच प्रकार का 'पुरुष' विद्यमान है । इनमें पहला है अन्नमय पुरुष, आत्मा या सत्ता; यह वह सत्ता है जिसका ज्ञान हम सबको सर्वप्रथम प्राप्त होता है, एक ऐसी आत्मा है जो न तो शरीर के सिवा कोई सत्ता रखती प्रतीत होती है और न ही उससे स्वतंत्र कोई प्राणिक या यहांतक कि मानसिक क्रिया । यह अन्नमय पुरुष जड़ प्रकृति में सर्वत्र विद्यमान है; यह शरीर में व्याप्त है, अज्ञात रूप में इसकी क्रियाओं को परिचालित करता है और इसके अनुभवों का सम्पूर्ण आधार है; जो पदार्थ मानसिक रूप से सचेतन नहीं हैं उन सबको भी यह अनुप्राणित करता है । परन्तु मनुष्य में यह अन्नमय पुरुष प्राणमय तथा मनोमय भी बन गया है; इसने प्राणिक और मानसिक सत्ता तथा प्रकृति के नियम और शक्ति-सामर्थ्य का कुछ अंश प्राप्त कर लिया है । परन्तु इसे उनकी जो प्राप्ति हुई है वह गौण है, मानों इसकी मूल प्रकृति पर ऊपर से थोपी गयी है और वह भौतिक सत्ता तथा उसके करणों के नियम और कार्य के अधीन ही प्रयोग में लायी जाती है । शरीर और भौतिक प्रकृति का हमारे मानसिक और प्राणिक भागों पर यह आधिपत्य ही, प्रथम दृष्टि में, जड़वादियों के इस सिद्धान्त को प्रमाणित करता प्रतीत होता है कि मन और प्राण भौतिक शक्ति की अवस्थाएं एवं उसके परिणाममात्र हैं और उनके सब व्यापारों की व्याख्या प्राणि-शरीर में भौतिक शक्ति की क्रियाओं कै द्वारा की जा सकतीं है । वास्तव में मन और प्राण का पूर्ण रूप से शरीर के अधीन होना अविकसित मानवता की विशेषता हैं, जैसे कि मानव से भिन्न निम्न कोटि के प्राणी में तो यह और भी बड़ी मात्रा में पायी जाती है । जो लोग पार्थिव जीवन में इस अवस्था को पार नहीं कर लेते वे, पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार, मृत्यु के बाद मन या उच्चतर प्राण के लोकों में आरोहण नहीं कर सकते, बल्कि अपने पार्थिव जीवन में और अधिक विकास करने के लिये उन्हें भौतिक स्तर-परम्परा की सीमाओं से वापिस आना पड़ता है । क्योंकि अविकसित अन्नमय पुरुष, पूर्ण रूप से
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ऊपर उठ सकने से पहले उसे अधिक बड़े लाभ के लिये उन्हें क्रियान्वित करके समाप्त कर देना होता है ।
अधिक विकसित मानवता हमें ऐसा अवसर देती है कि हम सत्ता के प्राणिक और मानसिक स्तरों से प्राप्त होनेवाली समस्त शक्तियों और अनुभूतियों का अधिक उत्तम और स्वतंत्र प्रयोग कर सकते हैं, सहायता पाने के लिये इन गुप्त स्तरों की ओर पहले से अधिक झुक सकते हैं और कामनामय लोक से प्राप्त महत्तर प्राणिक बलों एवं शक्तियों के द्वारा तथा मानसिक और बौद्धिक स्तरों से प्राप्त महत्तर एवं सूक्ष्मतर मानसिक बलों एवं शक्तियों के द्वारा अन्नमय पुरुष की मूल प्रकृति को अपने अधिकार में करके उसमें परिवर्तन ला सकते हैं । इस विकास की सहायता से हम मृत्यु और पुनर्जन्म की बीच की सत्ता के उच्चतर शिखरों पर आरोहण करने में समर्थ हो जाते हैं तथा और भी अधिक उच्चतर मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिये स्वयं पुनर्जन्म को भी अधिक अच्छी तरह तथा अधिक तीव्र गति से उपयोग में ला सकते हैं । परन्तु ऐसा होने पर भी, अपनी भौतिक सत्ता में जो अबतक भी हमारी जाग्रत् सत्ता के अधिक बड़े भाग का निर्धारण करती है, हम अपने कर्म के प्रेरित करनेवाले लोकों या स्तरों का निश्चित ज्ञान पाये बिना ही कार्य करते हैं । निःसंदेह, भौतिक सत्ता के प्राण-स्तर और मानस-स्तर को तो हम जानते हैं, पर वास्तविक प्राण-स्तर और मानस-स्तर को या उस उच्चतर एवं विशालतर प्राणमय और मनोमय पुरुष को नहीं जानते जो हमारी साधारण चेतना के पर्दे के पीछे हमारी निज सत्ता है । विकास की ऊंची अवस्था में ही हम उन्हें जान पाते हैं और तब भी, साधारणत:, अपनी मानसीकृत भौतिक प्रकृति के कार्य के पीछे अवस्थित पुरुष के रूप में ही । पर हम उन स्तरों पर सचमुच में निवास नहीं करते, क्योंकि यदि ऐसा होता तो प्राण-शक्ति का शरीर पर तथा मन-रूपी सम्राट् का इन दोनों पर सचेतन नियंत्रण हम बहुत शीघ्र प्राप्त कर लेते, तब हम अपने संकल्प और ज्ञान को अपनी सत्ता के स्वामी बनाकर तथा प्राण और शरीर पर मन की सीधी क्रिया करके अपने भौतिक और मानसिक जीवन का बहुत बड़ी हदतक निर्धारण कर सकते । योग के द्वारा, आत्म-चेतना और आत्म-प्रभुत्व को उच्च तथा विशाल बनाते हुए अन्नमय पुरुष के परे जाने तथा ऊर्ध्व स्तरों में उच्चतर पुरुष को प्राप्त करने की यह शक्ति कम या अधिक मात्रा में अधिगत की जा सकती है ।
पुरुष के पहलू से यह शक्ति इस प्रकार प्राप्त की जा सकती है कि व्यक्ति अन्नमय पुरुष से तथा स्थूल प्रकृति में ग्रस्त रहने की उसकी प्रवृत्ति से पीछे हटे तथा विचार और संकल्प को उच्चतर पुरुष पर एकाग्र करने की साधना करे जो उसे पहले तो प्राणमय और फिर मनोमय पुरुष में ऊपर उठा ले जायेगी । ऐसा करने से हम प्राणमय पुरुष बन सकते हैं और अन्नमय पुरुष को इस नयी चेतना में उठा ले
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जा सकते हैं । इसके परिणामस्वरूप हम शरीर, उसकी प्रकृति और उसके कार्यों को, प्राणमय पुरुष की, जो तब हमारा निज स्वरूप होता है, गौण अवस्थाओं के रूप में ही जानते हैं, हम यह भी जान जाते हैं कि इन सबका उपयोग प्राणमय पुरुष जड़ जगत् के साथ अपना नानाविध सम्बन्ध स्थापित करने के लिये करता है । अन्नमय पुरुष से एक विशेष प्रकार की पृथक्ता और फिर उससे उच्चता; यह स्पष्ट अनुभव कि शरीर एक यंत्र या आवरणमात्र है और उसे सहज ही अपनेसे अलग किया जा सकता है; हमारी स्थूल सत्ता और जीवन-परिस्थिति पर हमारी इच्छाओं का असाधारण प्रभाव, प्राणशक्ति का स्पष्ट ज्ञान और उसका कुशलतापूर्वक प्रयोग तथा संचालन करने में सामर्थ्य और सुविधा का अत्यधिक अनुभव, क्योंकि इसकी क्रिया हमें शरीर के सम्बन्ध से मूर्त पर सूक्ष्म रूप में भौतिक अनुभूत होती है और मन के द्वारा प्रयुक्त शक्ति के रूप में यह एक प्रकार की सूक्ष्म घनता से युक्त प्रतीत होती है; अपने अन्दर अन्नमय भूमिका के ऊपर प्राणभूमिका का अनुभव और कामनालोक का ज्ञान तथा उसके जीवों के साथ सम्पर्क; ऐसी नयी शक्तियों का सक्रिय हो उठना जिन्हें साधारणतया गुह्यशक्ति या सिद्धियां कहा जाता है; विश्व में विद्यमान प्राणमय पुरुष का घनिष्ठ बोध और उसके साथ अनुभव-साम्य तथा दूसरों की कामनाओं का, उनके भावावेशों तथा प्राणिक आवेगों का ज्ञान या संवेदन; -योग के द्वारा जो यह नयी चेतना प्राप्त होती है उसके ये कुछ-स्व चिह्न हैं।
परन्तु ये सब आध्यात्मिक अनुभव निम्न स्तरों की चीजें हैं और वास्तव में भौतिक सत्ता की अपेक्षा कोई अधिक आध्यात्मिक नहीं हैं । हमें इसी प्रकार और भी अधिक ऊंचे जाकर अपने-आपको मनोमय पुरुष में उठा ले जाना होगा । ऐसा करने से हम मनोमय पुरुष बन सकते हैं और अन्नमय तथा प्राणिक सत्ता को उसमें उठा ले जा सकते हैं । फलस्वरूप, प्राण, शरीर और इनकी क्रियाएं हमारें लिये हमारी सत्ता की गौण अवस्थाएं बन जाती हैं । मनोमय पुरुष जो अब हमारा निज स्वरूप बन गया है भौतिक सत्ता से सम्बन्ध रखनेवाले अपने निम्न प्रयोजनों को पूरा करने के लिये प्राण, शरीर और इनकी क्रियाओं का उपयोग करता है । यहां भी हम पहले-पहल प्राण और शरीर से एक प्रकार की पृथक्ता प्राप्त कर लेते हैं और हमारा वास्तविक जीवन देहप्रधान मनुष्य के स्तर से सर्वथा भिन्न स्तर पर प्रतिष्ठित प्रतीत होता है, उसका सम्बन्ध पार्थिव सत्ता से अधिक सूक्ष्म सत्ता के साथ, पार्थिव ज्ञान से अधिक महान् ज्ञानज्योति तथा एक कहीं अधिक विरल किन्तु फिर भी अधिक प्रभुत्वपूर्ण शक्ति के साथ प्रतीत होता है । वास्तव में हमारा सम्पर्क मानसिक स्तर के साथ होता है, हम मनोमय लोक से सचेतन होते हैं, उसके जीवों और उसकी शक्तियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । उस स्तर से हम कामनामय लोक और भौतिक जीवन को इस रूप में देखते हैं मानों ये हमसे नीचे
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स्थित हों, ऐसी चींजे हों जिन्हें हम शरीर छोड़ने पर, मानसिक या चैत्य स्वर्गों में निवास करने के लिये, सचमुच ही सहज में त्याग सकते हैं । परन्तु हम प्राण और शरीर तथा प्राणिक और भौतिक स्तरों से इस प्रकार पृथक् और अनासक्त होने के स्थान पर, इनसे ऊंची भूमिका में स्थित भी हो सकते हैं और अपनी सत्ता के इस नये शिखर से इनपर प्रभुत्वपूर्ण ढंग से क्रिया भी कर सकते हैं । भौतिक या प्राणिक ऊर्जा से भिन्न प्रकार की क्रियाशक्ति, एक ऐसी वस्तु जिसे हम शुद्ध मनोबल एवं आत्मशक्ति कह सकते हैं, जिसका प्रयोग विकसित मनुष्य करता तो अवश्य है पर गौण तथा अपूर्ण रूप में ही, पर जिसे अब हम स्वतंत्रता के साथ तथा ज्ञानपूर्वक प्रयोग में ला सकते हैं, हमारे कार्य की साधारण प्रणाली बन जाती है; उधर, कामना-शक्ति और स्थूल क्रिया गौण हो जाती है और उनका प्रयोग उनके पीछे अवस्थित इस नयी शक्ति के साथ तथा उसके कभी-कभी काम आनेवाले साधनों के रूप में ही किया जाता है । तब हम विश्व में विद्यमान विराट् मन का भी सम्पर्क प्राप्त कर लेते हैं, उसकी अनुभूतियों के भी सहभागी बन जाते हैं, उससे सचेतन हो जाते हैं, समस्त घटनाओं के पीछे विद्यमान सूक्ष्म शक्तियों के उद्देश्यों, उनकी दिशाओं और शक्तिशाली विचार-तरंगों तथा उनके संघर्ष को जान जाते हैं । साधारण मनुष्य इन शक्तियों से अनभिज्ञ है या फिर वह स्थूल घटना से इनका अस्पष्ट अनुमान भर लगा सकता है, पर हम अब इनकी क्रियाओं का कोई स्थूल चिह्न या यहांतक कि प्राणिक संकेत पाने से पहले ही इन्हें प्रत्यक्ष देख सकते एवं अनुभव कर सकते हैं । हम अन्य जीवों के, वे चाहे अन्नमय भूमिका के हों या इससे ऊपर की भूमिकाओं के, मनोव्यापार का ज्ञान और अनुभव भी प्राप्त कर लेते हैं । मनोमय पुरुष की उच्चतर क्षमताएं, --प्राणमय भूमिका की अपनी विशिष्ट शक्तियों एवं सिद्धियों से कहीं अधिक विरल या सूक्ष्म प्रकार की गुह्य शक्तियां या सिद्धियां,--हमारी चेतना में स्वभावत: ही जाग उठती हैं ।
तथापि ये सब हमारी सत्ता के निम्न त्रिविध जगत् की अवस्थाएं हैं जिसे प्राचीन ऋषि ' 'त्रैलोक्य '' कहते थे । इन तीनों लोकों मे हमारी शक्तियां और हमारी चेतना कितनी ही विस्तृत क्यों न हों, फिर भी इनमें रहते हुए हम वैश्र देवों की सीमाओं के भीतर ही निवास कर रहे होते हैं और पुरुष पर प्रकृति के शासन के अधीन होते हैं, वह अधीनता अपेक्षाकृत अत्यधिक सूक्ष्म, सह्य तथा हल्की भले ही हो । वास्तविक स्वातंत्र और प्रभुत्व प्राप्त करने के लिये हमें अपनी सत्ता के अनेक अधित्यकाओंवाले पर्वत के और भी ऊंचे स्तर पर आरोहण करना होगा ।
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