योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ८

 

परम इच्छाशक्ति

 

 आत्मा की इस विकसनशील अभिव्यक्ति के प्रकाश में, --उस आत्मा की जो पहले प्रत्यक्षत: अज्ञान में बद्ध होती है और पीछे अनन्त की शक्ति तथा प्रज्ञा में स्वतंत्र होती है, --हम कर्मयोगी के प्रति गीता के इस महान् एवं सर्वोच्च उपदेश को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं कि, ''सब धर्मों अर्थात् आचार-व्यवहार के सब सिद्धान्तों, विधानों एवं नियमों को त्यागकर केवल मेरी ही शरण ले ।''  सभी मानदण्ड और नियम कुछ ऐसी अस्थायी रचनाएं होते हैं जो जड़-प्रकृति से आत्मा की ओर संक्रमण करते हुए अहं की आवश्यकताओं पर आधारित होती हैं । निःसन्देह ये सामयिक उपाय सापेक्ष रूप में अनिवार्य होते हैं जब तक कि हम संक्रमण की अवस्थाओं से तृप्त, शरीर और प्राण के जीवन से सन्तुष्ट एवं मन के व्यापार में आसक्त रहते हैं, अथवा मानसिक स्तर के उन प्रदेशों में ही आबद्ध रहते हैं जो आध्यात्मिक दीप्तियों के द्वारा थोड़े-बहुत प्रभावित हैं । परन्तु इनके परे एक असीम अतिमानसिक चेतना की निर्बाध विशालता है जहां सभी अस्थायी रचनाओं का अन्त हो जाता है । यदि हममें ऐसा विश्वास एवं साहस नहीं है कि हम अपने--आपको सर्वलोकमहेश्वर तथा सर्वभूत-सुहृत् के हाथों में सौंप दें और अपनी मानसिक सीमाओं एवं मर्यादाओं का पूरी तरह से त्याग कर दें तो सनातन तथा अनन्त के आध्यात्मिक सत्य में पूर्ण रूप से प्रवेश करना हमारे लिये सम्भव नहीं हो सकता । एक-न-एक समय हमें निःशेष भाव से, संकोच, भय वा संशय के बिना, मुक्त, अनन्त तथा परिपूर्ण ब्रह्म के महासागर में डुबकी लगानी ही होगी । विधान से परे हैं मुक्तता; वैयक्तिक मापदण्डों और सार्वजनिक एवं सार्वभौम मापदंडों के परे कोई अधिक महान् वस्तु है, एक निर्वैयक्तिक नमनीयता, दिव्य स्वतंत्रता, लोकोत्तर बल एवं स्वर्गीय सम्वेग है । आरोहण के संकीर्ण पथ के पश्च्यात ही शिखर पर विस्तृत अधित्यकाएं आती हैं ।

 

     आरोहण के तीन क्रम हैं, --सबसे नीचे शारीरिक जीवन है जो आवश्यकता तथा कामना के दबाव के वशीभूत है, मध्य में मानसिक, उच्चतर भावमय तथा आन्तरात्मिक नियम है जो महत्तर हितों, अभीप्साओं, अनुभवों एवं विचारों को टोहता है और शिखर पर पहले तो गम्भीरतर आन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक भूमिका है और फिर अतिमानसिक नित्य चेतना है जिसमें हमारी सब अभीप्साएं एवं जिज्ञासाएं अपना अन्तरीय अर्थ जान लेती हैं । शारीरिक जीवन में सर्वप्रथम कामना एवं आवश्यकता और तदनन्तर व्यक्ति तथा समाज के क्रियात्मक हित ही प्रभुत्वशाली विचार तथा प्रधान प्रेरकबल होते हैं । मानसिक जीवन में विचारों तथा

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आदर्शों का प्रभुत्व होता है--उन विचारों का जो सत्य का वेश धारण किये हुए अर्द्ध-प्रकाश होते हैं, तथा उन आदर्शों का जो वर्धमान पर अपूर्ण अन्तर्ज्ञान एवं अनुभव के परिणाम के रूप में मन के द्वारा विरचित होते हैं । जब कभी मानसिक जीवन प्रबल होता है तथा शारीरिक जीवन अपना पाशविक आग्रह कम कर देता है, तब मनुष्य--मनोमय प्राणी--अपने-आपको मानसिक प्रकृति के उस आवेग से प्रेरित अनुभव करता है जो व्यक्ति के जीवन को विचार वा आदर्श की भावना में ढाल देने का आवेग होता है, और अन्त में समाज का अधिक अनिश्चित एवं अधिक जटिल जीवन भी इस सूक्ष्म प्रक्रिया में से गुजरने को बाध्य होता है । आध्यात्मिक जीवन में अथवा उस अवस्था में जब मन से अधिक ऊंची शक्ति प्रकट हो चुकती है तथा प्रकृति को अपने अधिकार में कर लेती है, ये सीमित प्रेरक-बल पीछे हटने लगते हैं और क्षीण तथा लुप्त होते जाते हैं । तब, एकमात्र, आध्यात्मिक वा अतिमानसिक आत्मा, भागवत पुरुष या परात्पर तथा विश्वगत सत्तत्त्व ही हमारा ईश्वर होता है और वही हमारी प्रकृति के नियम या 'स्व- धर्म' की उच्चतम, विशालतम एवं सर्वांगीणतम सम्भव अभिव्यक्ति के अनुसार हमारे चरम विकास को स्वच्छन्दतापूर्वक गढ़ता है । अन्त में हमारी प्रकृति पूर्ण सत्य तथा इसकी सहज स्वतंत्रता में कार्य करने लगती है; क्योंकि वह केवल सनातन की ज्योतिर्मय शक्ति का ही अनुसरण करती है । व्यक्ति के लिये तब और कोई चीज प्राप्त करने को नहीं रह जाती, न कोई कामना ही पूर्ण करने को शेष रहती है; वह तो सनातन के निर्वैयक्तिक स्वरूप या विराट् व्यक्तित्व का अंश बन जाता है । जीवन में भागवत आत्मा को अभिव्यक्त और लीलायित करना तथा दिव्य लक्ष्य की ओर यात्रा करते हुए संसार का धारण और परिचालन करना--इन उद्देश्यों को छोड़ कर और कोई उद्देश्य तब उसे कार्य के लिये प्रेरित नहीं कर सकता । मानसिक धारणाएं सम्मतियां और कल्पनाएं तब और उसकी अपनी नहीं रहतीं; क्योंकि उसका मन निश्चल-नीरव हो जाता है, यह तब दिव्य ज्ञान के प्रकाश तथा सत्य की प्रणालिकामात्र होता है । आदर्श उसकी आत्मा की विशालता के लिये अत्यन्त संकीर्ण हो जाते हैं; उसके अन्दर तो अनन्त का महासागर सदा हिलारें मारता और उसे गति देता रहता है ।

 

*

 

      जो कोई भी व्यक्ति सच्चाई के साथ कर्मों के पथ पर आरूढ़ होता है उसे उस अवस्था को, जिसमें आवश्यकता तथा कामना हमारे कार्यों का प्रथम नियम होती हैं, कोसों दूर छोड़ देना होगा । कारण, जो भी इच्छाएं अभी तक उसकी सत्ता को व्याकुल करती हैं उनको उसे--यदि वह योग के उच्च ध्येय को अपनाता है

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तो--अपने से पृथक् कर अपने अन्दर स्थित ईश्वर के हाथों में सौंप देना होगा । परा शक्ति साधक के और सर्वजन के मंगल के लिये उन इच्छाओं के साथ यथायोग्य बर्ताव करेगी । क्रियात्मक रूप में हम यह देखते हैं कि जब एक बार ऐसा समर्पण कर दिया जाता है, -- हां, इसके साथ सच्चा परित्याग भी सदैव आवश्यक होता है, --तब भी पुरानी प्रकृति के अविरत आवेग के वश कामना के अहंमूलक उपभोग की प्रवृत्ति कुछ काल के लिये उभर सकती है । परन्तु वह केवल इसलिये उभरती है कि कामना के अर्जित आवेग को समाप्त कर दे तथा इसकी प्रतिक्रियाओं द्वारा, इसके दुःख तथा बेचैनी द्वारा--जो उच्चतर शान्ति की प्रसादपूर्ण घड़ियों किंवा दिव्य आनन्द की अद्भुत गतियों से तीव्र रूप में भिन्न होते हैं--शरीरधारी प्राणी की सत्ता के अत्यन्त अशिक्षणीय अंग को, उसकी स्नायविक, प्राणिक एवं भाविक प्रकृति को भी यह सिखा दे कि अहंभावमयी कामना उस आत्मा के लिये नियम नहीं होती जो मुक्ति चाहती है अथवा अपनी मूल देव- प्रकृति के लिये अभीप्सा करती हैं, फिर भी उन प्रवृत्तियों के अन्दर कामना का जो तत्त्व है वह आगे चलकर एक अनवरत वर्जक और रूपान्तरकारी दबाव के द्वारा निकाल फेंका जायगा या दृढ़तापूर्वक दूर कर दिया जायगा । केवल उनके अन्दर की वह शुद्ध क्रिया-शक्ति (प्रवृत्ति) ही जो ऊपर से प्रेरित या आरोपित समस्त कर्म तथा फल में एक समान आनन्द लेने के कारण अपना औचित्य सिद्ध करती है, अन्तिम पूर्णता के सुखद सामंजस्य में सुरक्षित रखी जायगी । कर्म करना एवं उपभोग करना स्नायवीय सत्ता का स्वाभाविक नियम तथा अधिकार है; किन्तु वैयक्तिक कामना के द्वारा अपने कर्म तथा भोग का चुनाव करना उसकी एक अज्ञानयुक्त इच्छामात्र है, उसका अधिकार नहीं । चुनाव तो परम तथा वैश्व इच्छाशक्ति को ही करना होगा; कर्म को उस परम इच्छाशक्ति की प्रबल गति में बदल जाना होगा; भोग का स्थान शुद्ध आध्यात्मिक आनन्द की क्रीड़ा को लेना होगा । समस्त वैयक्तिक इच्छा या तो ऊपर से प्राप्त अस्थायी प्रतिनिधित्व होती है या अज्ञानी असुरके द्वारा परकीय स्वत्व का अपहरण ।

 

     सामाजिक नियम अर्थात् हमारी उन्नति की दूसरी अवस्था एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा अहं को वश में रखा जाता है, इसलिये कि वह विस्तीर्णतर सामूहिक अहं के अधीन रहकर अनुशासन सीख सके । यह नियम किसी भी नैतिक अर्थ से सर्वथा शून्य हो सकता है और केवल समाज की आवश्यकताओं या क्रियात्मक हित को--हित के विषय में किसी समाज की जैसी भी कल्पना हो उसके अनुसार--प्रकट कर सकता है । अथवा यह उन आवश्यकताओं और उस हित को एक ऐसे रूप में भी प्रकट कर सकता है जो एक उच्चतर नैतिक या आदर्श नियम के द्वारा संशोधित, रंजित तथा परिपूरित हो । जो व्यक्ति विकास कर रहा है, पर अभी तक पूर्णत: विकसित नहीं दुआ है उसके लिये यह नियम सामाजिक कर्त्तव्य,

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पारिवारिक दायित्व, सांप्रदायिक या राष्ट्रीय मार्ग के रूप में तब तक अनिवार्य ही होता है जब तक कि यह उच्चतर शुभ-विषयक उसकी प्रगतिशील भावना के विरुद्ध नहीं होता । परन्तु कर्मयोग का साधक इसे भी कर्मों के स्वामी पर उत्सर्ग कर देगा । जब वह इस प्रकार का समर्पण कर चुकेगा, उसके बाद से उसके सामाजिक आवेग तथा निर्णय, उसकी कामनाओं की भांति ही, केवल इसलिये उपयोग में लाये जायेंगे कि वे सर्वथा समाप्त हो जायें । अथवा जहां तक ये कुछ काल के लिये अभी भी आवश्यक होंगे वहां तक ये सम्भवतः उसे इस योग्य बनाने के लिये काम में लाये जायेंगे कि वह अपनी निम्नतर मानसिक प्रकृति को समूची मानवजाति या इसके किसी समूह--विशेष के साथ, इसकी चेष्टाओं, आशाओं और अभीप्साओं के साथ एकाकार कर सके । परन्तु वह अल्पकाल बीत जाने के बाद ये हटा लिये जायंगे और एकमात्र दिव्य शासन ही स्थिर रहेगा । वह भगवान् के साथ तथा दूसरों के साथ दिव्य चेतना के द्वारा ही एकमय होगा, मनोमय प्रकृति के द्वारा नहीं ।

 

     कारण, जब साधक स्वतंत्र हो जायगा उसके बाद भी वह संसार में ही रहेगा और संसार में रहने का मतलब है कर्मों में रहना । परन्तु कामना के बिना कर्मों में रहने का अर्थ है समूचे संसार की भलाई के लिये या वर्ग या जाति के लिये या भूतल पर विकसित होनेवाली किसी नयी सृष्टि के लिये कर्म करना अथवा अपने अन्त:स्थ भागवत संकल्प द्वारा नियुक्त कार्य करना । यह कार्य उसे उस परिस्थिति या समुदाय से प्राप्त ढांचे में करना होगा जिसमें वह पैदा दुआ है या जिसमें उसे रखा गया है अथवा यह उसे एक ऐसे ढांचे में करना होगा जो दैवी आदेश ने उसके लिये चुना या पैदा किया है । अतएव, हमारी पूर्णता की अवस्था में हमारी मानसिक सत्ता के अन्दर ऐसी कोई भी चीज शेष नहीं रहनी चाहिये जो उस वर्ग एवं समुदाय का या भगवान् के और किसी भी सामूहिक रूप का विरोध करे या उसके साथ हमारी सहानुभूति एवं स्वतंत्र एकमयता में बाधा डाले जिसका नेता, सहायक या सेवक बनने के लिये वह भगवान् के द्वारा नियुक्त है । परन्तु अन्त में इसे भगवान् के साथ तादात्म्य द्वारा प्राप्त एक स्वतंत्र आत्म-एकाकारता बन जाना होगा, न कि मेल-मिलाप की कोई ऐसी मानसिक शर्त्त या नैतिक गांठ या कोई प्राणिक साहचर्य बने रहना होगा जो किसी प्रकार के वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, सांप्रदायिक या धार्मिक अहंकार से नियंत्रित हों । यदि किसी सामाजिक नियम का पालन किया भी जायगा तो वह किसी भौतिक आवश्यकता या वैयक्तिक या सार्वभौम हितबुद्धि या उपयोगिता के वश अथवा परिस्थिति के दबाव या किसी कर्त्तव्य-भावना के कारण नहीं किया जायगा, बल्कि केवल कर्मों के स्वामी के लिये तथा इस बात को ईश्वरेच्छा अनुभव करते या जानते हुए किया जायगा कि सामाजिक विधान या नियम या सम्बन्ध, जैसा भी वह है, अन्तर्जीवन की प्रतिमा के

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रूप में अभी भी सुरक्षित रखा जा सकता है और उसका उल्लंघन करके मनुष्यों में 'बुद्धिभेद' नहीं पैदा करना चाहिये । दूसरी ओर, यदि सामाजिक विधान या नियम या सम्बन्ध की अवहेलना की भी जायगी तो वह कामना, वैयक्तिक संकल्प या वैयक्तिक सम्मति को तुष्ट करने के लिये नहीं की जायगी, वरन् इसलिये कि हमें आत्मा के विधान को प्रकट करनेवाले एक महत्तर नियम का अनुभव हो चुका होगा अथवा यह ज्ञान प्राप्त हो चुका होगा कि दिव्य सर्व-संकल्प की प्रगति में वर्तमान नियमों और रूपों के परिवर्तन, अतिक्रमण या उन्मूलन के लिये प्रयास अवश्य होना चाहिये जिससे कि विश्व-विकास के लिये आवश्यक एक अधिक स्वतंत्र और विशाल जीवन का उदय हो सके ।

 

     अब रहा नैतिक नियम या आदर्श; ये दोनों उन बहुत-से लोगों को भी जो अपने को स्वतंत्र समझते हैं, सदैव पवित्र एवं बुद्धि-अगोचर प्रतीत होते हैं । परन्तु अपनी दृष्टि सदा ऊर्ध्वमुखी रहने के कारण, साधक, इन्हें उन भगवान् के प्रति उत्सर्ग कर देगा जिन्हें समस्त आदर्श अपूर्ण एवं आंशिक रूप से ही प्रकट करने की चेष्टा करते हैं । सभी नैतिक गुण उनके स्वभावसिद्ध तथा असीम पूर्णत्व के तुच्छ तथा अनमनीय हास्यास्पद अभिनयमात्र हैं । स्नायविक या प्राणिक कामना के मिटने के साथ ही पाप एवं अशुभ का बंधन भी मिट जाता है; क्योंकि इसका सम्बन्ध हमारे अन्दर के उस गुण से है जो प्राणगत आवेश का गुण (रजोगुण) है तथा जो हमें प्रवृत्ति के लिये प्रेरित या प्रचालित करता है, और इसलिये प्रकृति के इस गुण का रूपान्तर होते ही यह छिन्न-भिन्न हो जाता है । परन्तु अभीप्सु को रूढ़िभूत या अभ्यासगत पुण्य की अथवा किसी मनोनिर्दिष्ट या उच्च या निर्मल सात्त्विक पुण्य की सुवर्ण-रंजित या स्वर्णिम शृंखला से भी आबद्ध नहीं रहना होगा । इसके स्थान पर उसे एक ऐसी वस्तु प्रतिष्ठित करनी होगी जो उस क्षुद्र एवं न्यूनतापूर्ण वस्तु से जिसे मनुष्य (Virtue) या पुण्य कहते हैं अधिक गंभीर और अधिक तात्त्विक हों । 'वर्चु' (Virtue) शब्द का मूल अर्थ था मनुष्यत्व और यह नैतिक मन तथा इसकी रचनाओं से अधिक विस्तृत और अधिक गहरी वस्तु है । कर्मयोग की सिद्धि इससे भी ऊंची और गहरी अवस्था है जिसे शायद ''आत्म- भाव'' कह सकते हैं--क्योंकि आत्मा मनुष्य से अधिक महान् है । परम सत्य और प्रेम के कर्मों में स्वयमेव स्रवित होता हुआ यह स्वतंत्र आत्म-भाव मानवीय पुण्य का स्थान ले लेगा । परन्तु इस परम सत्य को न तो व्यावहारिक बुद्धि के छोटे-मोटे कमरों में रहने के लिये बाधित किया जा सकता है और न ही इसे उस व्यापकतर चिन्तक बुद्धि की अधिक गरिमामयी रचनाओं में आबद्ध किया जा सकता है जो अपने निरूपणों को परिमित मानव-बुद्धि पर शुद्ध सत्य के रूप में आरोपित किया करती है । यह भी आवश्यक नहीं कि यह परम प्रेम मानवीय आकर्षण, सहानुभूति तथा दया की आंशिक एवं मन्द और अज्ञ एवं भावोद्वेलित चेष्टाओं से संगत ही

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हो, इनसे अभिन्न होना तो दूर की बात रही । क्षुद्र नियम विशालतर गति को बांध नहीं सकता; मन की खण्ड उपलब्धि आत्मा की परम परिपूर्णता पर शासन नहीं कर सकती ।

 

     सर्वप्रथम, उच्चतर प्रेम एवं सत्य अपनी गति को साधक में उसकी निजी प्रकृति के सारभूत धर्म या पथ के अनुसार ही चरितार्थ करेगा । क्योंकि, वह धर्म या पथ दिव्य प्रकृति का एक विशेष रूप एवं परा शक्ति की एक विशिष्ट शक्ति ही होता है, जिसमें से उसकी अन्तरात्मा लीला में आविर्भूत होती है, --निःसन्देह यह उस धर्म वा पथ के रूपों से सीमित नहीं होती, क्योंकि आत्मा तो सीमारहित है । फिर भी इसके प्रकृति-तत्त्व पर उस गति का प्रभाव अंकित रहता है और यह तत्त्व उस प्रबल प्रभाव के चक्राकार घुमावों के चारों ओर उन सरणियों या दिशाओं में निर्बाध रूप से विकसित होता है । साधक दिव्य सत्य-गति को ज्ञानी या शूरवीर योद्धा या प्रेमी तथा उपभोक्ता या कर्मी एवं सेवक के स्वभाव के अनुसार अथवा तीन मूल गुणों के किसी अन्य ऐसे सम्मिश्रण में प्रकट करेगा जो उसकी सत्ता के अपनी ही आन्तर प्रेरणा द्वारा नियत आकार का गठन करनेवाला हो । उसके कार्यों में स्वच्छन्द क्रीड़ा करती हुई उसकी इस स्व-प्रकृति (स्वधर्म) को ही मनुष्य उसमें देखेंगे न कि किसी बाह्य क्षुद्रतर नियम या विधान के द्वारा गठित, निर्धारित तथा कृत्रिमतया नियमित आचार को ।

 

     परन्तु, इससे भी ऊंची एक और उपलब्धि है, एक 'आनंत्य' है जिसमें यह अन्तिम नियम-मर्यादा भी अतिक्रान्त हो जाती है, क्योंकि प्रकृति पूर्ण रूप से तृप्त हों जाती है तथा इसकी सीमाएं विलुप्त हो जाती हैं । वहां आत्मा सभी सीमाओं से मुक्त रहती है, क्योंकि वह अपने अन्दर की दिव्य इच्छाशक्ति के अनुसार सभी रूपों तथा सांचों का प्रयोग करती है, पर वह जिस भी शक्ति या रूप को उपयोग में लाती है उससे निगड़ित नहीं हो जाती, उससे आबद्ध या उसके अन्दर अवरुद्ध नहीं हो जाती । यह कर्म-मार्ग का शिखर है और यही आत्मा की उसके कर्मों में पूर्ण स्वाधीनता है । वास्तव में, वहां कोई भी कर्म इसके नहीं होते; इसकी सभी चेष्टाएं 'परम' की ही स्वरलहरी होती हैं । वे उसीसे निःसृत होती हैं-ऐसे स्वतंत्र रूप में जैसे अनन्त में से एक स्वत:स्फूर्त संगीत निःसृत होता है ।

 

 

     अतएव, समर्पण ही कर्मयोग का साधन तथा साध्य है--अपनी समस्त चेष्टाओं का परम तथा विश्वव्यापी इच्छाशक्ति के प्रति पूर्ण समर्पण, अशेष कर्मों का अपने अन्तःस्थित किसी ऐसी नित्य सत्ता के शासन के प्रति बिना किसी शर्त्त तथा नियम--मर्यादा के समर्पण, जो हमारी अहं-प्रकृति की साधारण कर्म-प्रणाली का स्थान

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ग्रहण कर लेती है । परन्तु वह दिव्य परम इच्छाशक्ति क्या है तथा हमारे भ्रान्त करणों एवं हमारी अन्ध तथा बन्दीकृत बुद्धि द्वारा वह कैसे पहचानी जा सकती है ?

 

     साधारणतया हम अपने विषय में ऐसा सोचते हैं कि हम संसार में एक पृथक् ''अहं'' हैं जो एक पृथक् शरीर तथा मनोमय एवं नैतिक प्रकृति पर शासन करता है, अपने स्व-निर्धारित कार्य पूरी स्वाधीनता से चुनता है तथा स्वतंत्र है और इसी कारण अपने कर्मों का एकमात्र स्वामी एवं उत्तरदायी है । यह कल्पना करना कि कैसे हमारे अन्दर इस प्रतीयमान ''अहं'' तथा इसके साम्राज्य की अपेक्षा अधिक सत्य, अधिक गंभीर एवं अधिक शक्तिशाली कोई अन्य वस्तु हो सकती है साधारण मनुष्य के लिये सुगम नहीं-उस मनुष्य के लिये जिसने अपनी रचना तथा रचनाकारी तत्त्वों पर विचार नहीं किया है तथा इनके मूल में गंभीर दृष्टि नहीं डाली है; यह उन मनुष्यों के लिये भी कठिन है जिन्होंने चिन्तन तो किया है, पर जिन्हें आध्यात्मिक दृष्टि एवं अनुभूति प्राप्त नहीं हुई है । परन्तु दृश्य-प्रपंच के यथार्थ ज्ञान की भांति आत्मज्ञान का भी सबसे पहला कदम यह है कि हम वस्तुओं के प्रतीयमान सत्य के मूल में जायं और उस वास्तविक पर निगूढ़ तथा तात्त्विक और क्रियाशील सत्य को ढूंढ़ निकालें जो इनकी प्रतीतियों से आवृत है ।

 

     यह अहं या ''मैं'' हमारा सारभूत भाग होना तो दूर रहा, हमारा स्थायी सत्य भी नहीं है; यह प्रकृति की एक रचनामात्र है, उसका एक रूप है, बोधग्राही तथा विवेककारी मन में यह विचार का केंद्रीकरण करनेवाला एक मानसिक रूप है, हमारे प्राणमय भागों में यह भाव तथा सम्वेदन का केंद्रीकरण करनेवाला एक प्राणिक रूप है और हमारे शरीरों में यह शारीरिक सचेतन ग्रहणशीलता का एक रूप है जो देहतत्त्व तथा इसके व्यापार का केंद्रीकरण करता हैं । आन्तरिक तौर पर हम जो कुछ हैं वह अहं नहीं, बल्कि चेतना, अन्तरात्मा या आत्मसत्ता है । बाहर से एवं स्थूल रूप में हम जो कुछ हैं तथा जो कुछ करते हैं वह अहं नहीं, वरन् विश्व-प्रकृति है । कर्त्री वैश्व शक्ति हमारा रूप बढ़ती है और इस प्रकार गठित हमारी प्रकृति तथा परिस्थिति एवं मनोवृत्ति के द्वारा, वैश्व शक्तियों से रचित हमारी व्यष्टिभावापत्र रूप-रचना के द्वारा, हमारे कार्यों तथा उनके परिणामों को प्रेरित वा निर्दिष्ट करती है । वास्तव में विचार, इच्छा वा कर्म हम नहीं करते, बल्कि विचार हममें उदित होता है, इच्छाशक्ति हममें उद्भूत होती है, आवेग तथा कर्म हममें घटित होते हैं । हमारा अहंभाव प्राकृतिक चेष्टाओं के इस समस्त प्रवाह को अपने चारों ओर एकत्र कर लेता है तथा इसे अपने सम्मुख विचारार्थ उपस्थित करता है । वैश्व शक्ति किंवा विश्व-प्रकृति ही विचार की रचना करती है, इच्छाशक्ति को बलात् आरोपित करती है और प्रेरणा का संचार करती है । हमारे शरीर, मन तथा अहं उस कार्यरत शक्ति-समुद्र की तरंग हैं, ये उसपर शासन नहीं करते प्रत्युत उसके द्वारा शासित तथा परिचालित होते हैं । सत्य तथा आत्मज्ञान की ओर प्रगति करते-

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करते साधक को एक ऐसे स्थल पर पहुंचना होगा जहां आत्मा अपनी दिव्यदृष्टिसम्पन्न आंखें खोलती है और अहं तथा कर्म-सम्बन्धी इस सत्य को पहचान लेती है । तब साधक यह विचार त्याग देता है कि कोई मानसिक, प्राणिक एवं शारीरिक ''अहं'' है जो कर्म करता या कर्म का संचालन करता है; वह जान जाता है कि प्रकृति एवं वैश्व प्रकृति की शक्ति ही अपने निश्चित गुणों का अनुसरण करती हुई उसमें तथा सभी पदार्थों एवं प्राणियों में एकमात्र और अद्वितीय कर्मकर्त्री है ।

 

     परन्तु प्रकृति के गुणों को किसने निश्चित किया है ? अथवा शक्ति की गतियों का उद्गम एवं अधिष्ठाता कौन है ? इसके मूल में अवस्थित है एक चेतना--अथवा एक 'चेतन' --जो इसके कर्मों का स्वामी, साक्षी, ज्ञाता, भोक्ता, धर्त्ता तथा अनुमन्ता है; यह चेतना है आत्मा या पुरुष । प्रकृति हमारे अन्दर कर्म को आकार देती है; पुरुष इसके अन्दर या इसके पीछे रहकर उसे साक्षिभाव से देखता और अनुमति देता है तथा उसका धारण एवं भरण करता है । प्रकृति हमारे मन में विचार की रचना करती है; इसके अन्दर या पीछे अवस्थित पुरुष उस विचार को तथा उसके अन्तर्निहित सत्य को जानता है । प्रकृति कर्म का परिणाम निश्चित करती है; इसके अन्दर या पीछे अवस्थित पुरुष उस परिणाम को भोगता या सहता है । प्रकृति मन और तन की रचना करती है, उनपर परिश्रम करती एवं उन्हें विकसित करती है; पुरुष उस रचना एवं विकास को धारण करता है और प्रकृति के कार्यों के प्रत्येक पग को अनुमति देता है । प्रकृति एक संकल्पशक्ति का प्रयोग करती है जो पदार्थों एवं मनुष्यों में कार्य करती है और पुरुष, जो करना चाहिये उसे अपनी अन्तर्दृष्टि से देख कर, उस संकल्प-शक्ति को कर्म में प्रवृत्त करता है । यह पुरुष तलीय अहं नहीं है, बल्कि अहं के पीछे अवस्थित निश्चल-नीरव आत्मा है, शक्ति का स्रोत है, ज्ञान का उद्गम तथा ग्रहीता है । हमारा मानसिक ''मैं'' इस आत्मा अथवा शक्ति एवं ज्ञान की एक मिथ्या प्रतिच्छायामात्र है । अतः यह पुरुष या भरण करनेवाला चैतन्य प्रकृति के अखिल कर्मों का मूल, ग्रहीता तथा आधार है, पर यह स्वयं कर्ता नहीं है । सामने की ओर अवस्थित प्रकृति अथवा प्रकृति-शक्ति तथा इसके मूल में विद्यमान शक्ति अथवा चित्-शक्ति या आत्म-शक्ति--क्योंकि यही दो विश्वजननी के आन्तर तथा बाह्य रूप हैं, --उस सबकी व्याख्या कर देती हैं जो कुछ कि संसार में किया जाता है । विश्वजननी किंवा प्रकृति-शक्ति ही एकमात्र तथा अद्वितीय कर्मकत्रीं है ।

 

     पुरुष-प्रकृति, चित्-शक्ति किंवा विश्वप्रकति को धारण करनेवाली आत्मा, --क्योंकि ये दोनों अपने पार्थक्य में भी एक तथा अविभेद्य हैं, --एक साथ ही विश्वव्यपि तथा विश्वातीत शक्ति हैं । परन्तु व्यक्ति में भी कोई ऐसी सत्ता है जो मानसिक अहं नहीं है, कोई ऐसी सत्ता है जो इस महत्तर सद्वस्तु से सारतः अभिन्न है । यह सत्ता उस एकमेव पुरुष का शुद्ध प्रतिबिम्ब या अंश है; यह अन्तरात्मा है,

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पुरुष या शरीरधारी जीव है, व्यक्तिगत आत्मा या जीवात्मा है; यह शुद्ध आत्मा है जो अपने बल एवं ज्ञान को इसलिये सीमित करती प्रतीत होती है कि परात्पर तथा विश्वगत प्रकृति की वैयक्तिक क्रीड़ा को आश्रय दे सके । गम्भीरतम वास्तविकता के क्षेत्र में अनन्ततया 'एक' अनन्ततया 'बहु' भी है; हम 'तत्' के प्रतिबिम्ब या अंशमात्र नहीं, बल्कि 'तत्' ही हैं । हमारे अहं के विपरीत, हमारा आध्यात्मिक व्यक्तित्व हमारी विश्वमयता तथा परात्परता का निषेध नहीं करता । परन्तु इस समय हमारी अन्तःस्थ अन्तरात्मा या आत्मा विश्वप्रकृति मे व्यष्टि-भाव के निर्माण में तल्लीन रहने के कारण अपने-आपको अहं के विचार से भ्रान्त होने देती है । उसे इस अज्ञान से छुटकारा पाना है, उसे जानना है कि वह परम तथा विश्वव्यापी आत्मा की एक प्रतिच्छिया या एक अंश या रूप है और विश्वकर्म में इसकी चेतना का एकमात्र केंद्र है । परन्तु यह 'जीव पुरुष' भी कर्मों का कर्त्ता नहीं है वैसे ही जैसे कि अहं कर्त्ता नहीं है, अथवा जैसे द्रष्टा तथा ज्ञाता की धारक चेतना कर्त्री नहीं है । इस प्रकार, सदा-सर्वदा परात्पर तथा विश्वव्यापिनी शक्ति ही एकमात्र कर्त्री है, परन्तु इसके पीछे अवस्थित है एकमेव परमदेव जो इसमें से युगल-शक्ति, पुरुष-प्रकृति एवं ईश्वर-शक्ति के रूप में प्रकट होता है । वह 'परम' इस शक्ति के रूप में गतिशील हो जाता है और इसीके द्वारा वह विश्व में कर्मों का एकमात्र आरम्भक और स्वामी है ।

 यदि कर्म-विषयक सत्य यही है तो सबसे पहले साधक को यह करना होगा कि

 

      ईश्वर-शक्ति और पुरुष-प्रकृति बिल्कुल एक ही चीज हों ऐसी बात नहीं; क्योंकि पुरुष और प्रकृति पृथक्-पृथक् शक्तियां हैं, पर ईश्वर और शक्ति अपने अन्दर एक-दूसरे को समाविष्ट रखते हैं । ईश्वर वह पुरुष है जो प्रकृति को अपने अन्तर्गत रखता है तथा अपने अन्दर विराजमान शक्ति के सामर्थ्य से शासन करता है । शक्ति वह प्रकृति है जो पुरुष-रूप आत्मा से युक्त है तथा ईश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करती हैं; ईश्वर की इच्छा उस शक्ति की अपनी ही इच्छा है तथा अपनी गति में वह ईश्वर की उपस्थिति को सदा अपने संग रखती है । पुरुष-प्रकृति का अनुभव कर्म-मार्ग पर चलनेवाले जिज्ञासु के लिये अत्यन्त उपयोगी होता है; क्योंकि चेतन पुरुष और शक्ति का पार्थक्य तथा शक्ति की यांत्रिक क्रिया के प्रति पुरुष की अधीनता हमारे अज्ञान एवं अपूर्णत्व का एक प्रबल कारण हैं । अतएव इस अनुभव से पुरुष अपने को प्रकृति की यांत्रिक प्रक्रिया से मुक्त करके स्वतन्त्र हो सकता है और प्रकृति पर प्रथम आध्यात्मिक नियंत्रण प्राप्त कर सकता है । ईश्वर-शक्ति पुरुष-प्रकृति के सम्बन्ध और इस सम्बन्ध की अज्ञ क्रिया के पीछे अवस्थित है और विकास के प्रयोजन के लिये इसका उपयोग करती है । ईश्वर-शक्ति का अनुभव पुरुष को उच्चतर गतिशीलता और दिव्य व्यापार में सहयोगी बना सकता है और आध्यात्मिक प्रकृति में सत्ता का पूर्ण एकत्व एवं सामंजस्य साधित कर सकता है ।

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वह कर्म के अहंकारमय रूपों से पीछे हटे तथा इस भावना से मुक्त हो जाय कि कोई ''मैं'' है जो कार्य करता है । उसे यह देखना तथा अनुभव करना होगा कि जो कोई भी चीज उसमें घटित होती है वह उसके उन मानसिक तथा शारीरिक करणों की सुनम्य, सचेतन वा अवचेतन या कभी पराचेतन सहज प्रक्रिया से घटित होती है जो कि आध्यात्मिक, मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक विश्व-प्रकृति की शक्तियों के द्वारा परिचालित होते हैं ।उसके उपरितल पर एक व्यक्तित्व है जो चुनाव करता तथा इच्छा करता है, हार मान लेता तथा संघर्ष करता है और प्रकृति में अपने-आपको सुरक्षित रखने अथवा प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का यत्न करता है । पर यह व्यक्तित्व स्वयं प्रकृति की ही रचना है और यह उसके द्वारा इस प्रकार शासित, परिचालित तथा निर्धारित होता है कि यह स्वतंत्र नहीं कहला सकता । यह उसमें निहित आत्मा की रचना या अभिव्यक्ति है, -यह आत्मा की अंशभूत आत्मा होने की अपेक्षा कहीं अधिक प्रकृति का अंशभूत 'स्व' है, यह आत्मा की प्राकृतिक तथा प्रक्रियात्मक सत्ता है न कि उसकी आध्यात्मिक तथा शाश्वत सत्ता, यह एक अस्थायी निर्मित व्यक्तित्व है, न कि वास्तविक अमर व्यक्ति । साधक को तो वास्तविक अमर व्यक्ति बनना होगा । उसे आन्तरिक तौर पर निश्चल बनने में सफल होना होगा और बाह्य क्रियाशील व्यक्तित्व से अपने-आपको निरीक्षक के रूप में पृथक् कर लेना होगा । उसे अपने अन्दर वैश्व शक्तियों की क्रीड़ा का अध्ययन करना होगा और इसके लिये उसे इसके पैंतरों तथा गतियों में आसक्त रहने की विमूढ़कारी अवस्थाओं सें पीछे स्थित होना होगा । इस प्रकार निश्चल, शान्त, अनासक्त, आत्म- अध्ययनार्थी तथा अपनी प्रकृति का द्रष्टा बन कर वह अनुभव करता है कि वह व्यष्टि-रूप आत्मा है जो विश्व-प्रकृति के कर्मों का निरीक्षण करती है, इसके परिणामों को शान्त भाव से स्वीकार करती है तथा प्राकृतिक-कर्मसम्बन्धी आवेग को अनुमति देती या उससे अपनी अनुमति हटा लेती है । इस समय यह आत्मा या पुरुष एक सन्तुष्ट दर्शक से अधिक कुछ नहीं है, अपनी आवृत चेतना के दबाव से यह हमारी सत्ता की क्रिया और अभिवृद्धि पर शायद प्रभाव डालता है, किन्तु अधिकांश में अपनी शक्तियां या इनका कुछ भाग बाह्य व्यक्तित्व को सौंप देता है, -वास्तव में यह इन्हें प्रकृति को ही सौंप देता है, क्योंकि यह बाह्य 'स्व' प्रकृति का ईश नहीं, बल्कि उसके अधीन है, अनीश है । परन्तु एक बार अनावृत होकर यह अपनी स्वीकृति या निषेध को कार्यकारी बना सकता है, अपने कर्म का स्वामी बन सकता है और प्रकृति के परिवर्तन का प्रभुत्वपूर्ण भाव में निर्धारण कर सकता है । चाहे प्रकृति की अभ्यस्त गति स्थिर संस्कार और पुराने शक्ति-संग्रह के परिणाम-स्वरूप, दीर्घकाल तक, पुरुष की स्वीकृति के बिना भी होती रहे और चाहे, पहले से अभ्यास न होने के कारण, प्रकृति किसी स्वीकृत गति का भी दृढ़तापूर्वक निषेध करती रहे, फिर भी उसे पता चलेगा कि अन्त में उसीकी स्वीकृति या

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अस्वीकृति की विजय होती है, -- धीमे- धीमे, बहुत प्रतिरोध के साथ अथवा शीघ्रतापूर्वक, अपने साधनों एवं प्रवृत्तियों को द्रुतगति से अनुकूल बनाते हुए --प्रकृति अपने-आपको और अपने व्यापारों को उसकी आन्तर दृष्टि या संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट दिशा में परिवर्तित कर लेती है । इस प्रकार साधक मानसिक नियंत्रण या अहंमूलक इच्छाशक्ति के प्रयोग के स्थान पर आन्तरिक आध्यात्मिक संयम सीख जाता है जो उसे उसके अन्दर काम करनेवाली प्रकृति-शक्तियों का स्वामी बना देता है और तब वह उनका अचेतन यन्त्र या जड़ दास नहीं रहता । उसके ऊपर तथा चारों ओर विराजमान है शक्ति अर्थात् जगज्जननी और यदि उसे इसकी प्रणालियों का सत्य ज्ञान हो तथा इसमें निहित दिव्य इच्छाशक्ति के प्रति वह सच्चे भाव से समर्पण करे तो वह इससे वे सभी चीजें प्राप्त कर सकता है जिनकी आवश्यकता वा इच्छा उसकी अन्तरतम आत्मा को होती है । अन्तमें, वह अपने तथा प्रकृति के भीतर उस सर्वोच्च क्रियाशील आत्मा से सज्ञान हों जाता है जो उसके सब 'देखने' तथा 'जानने' का स्रोत है, और साथ ही अनुमति, स्वीकृति तथा परित्याग का भी स्रोत है । यह है महेश्वर, परात्पर देव सर्वगत एक, ईश्वर-शक्ति जिसका उसकी आत्मा एक अंश है अर्थात् उस परम सत्ता का सत्तांश तथा उस परम शक्ति का शक्त्यंश है । हमारी शेष प्रगति उन प्रणालियों के विषय में हमारे ज्ञान पर निर्भर करती है जिनके अनुसार कर्मों का स्वामी जगत् में तथा हममें अपनी इच्छा को प्रकट करता है और जिनके अनुसार वह परात्पर एवं विराट् शक्ति के द्वारा सभी कर्म सम्पन्न करता है ।

 

     ईश्वर अपनी सर्वज्ञता में वह चीज देखता है जो करनी होती है । यह 'देखना' (ईक्षण) ही उसका संकल्प है, यह सर्जनक्षम शक्ति का एक रूप है । जो कुछ वह देखता है उसे उसके साथ एकीभूत सर्व-सचेतन माता अपनी क्रियाशील आत्मा के अन्दर ले लेती और मूर्तिमन्त करती है और कार्यवाहिका प्रकृति-शक्ति उसे उनकी सर्वशक्तिमती सर्वज्ञता की स्वाभाविक क्रिया के रूप में चरितार्थ कर देती है । परन्तु जो होना है और अतएव जो करना है उसके विषय में यह अन्तर्दृष्टि ईश्वर की निज सत्ता में से ही उद्भूत होती है, सीधे उसकी चेतना से तथा उसकी सत्ता के आनन्द से ही प्रवाहित होती है, सहज-स्फूर्त रूप में, जैसे सूर्य से प्रकाश निकलता है । यह अन्तर्दृष्टि मानवीय 'देखने' का प्रयास नहीं है, न ही यह कर्म एवं उद्देश्य के सत्य का अथवा प्रकृति की यथार्थ मांग का कष्टसाध्य मानवीय ज्ञान है । जब हमारी व्यष्टिगत आत्मा अपनी सत्ता तथा ज्ञान में ईश्वर के साथ पूर्णत: एकीभूत हो जाती है तथा आद्या शक्ति या परात्पर माता से साक्षात् सम्बन्ध स्थापित कर लेती है, तब हममें भी परम इच्छाशक्ति  उच्च एवं दिव्य प्रकार से उद्भूत हो सकती है, --एक ऐसी वस्तु के रूप में उद्भूत हो सकती है जो विश्वप्रकृति की सहज- स्फूर्त क्रिया से सम्पन्न होनी निश्चित है तथा सम्पन्न होती ही है । तब कोई कामना,

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कोई उत्तरदायित्व, कोई प्रतिक्रिया नहीं रहती; आश्रयदायी तथा सर्वतोव्यापी एवं अन्तर्वासी भगवान् की शान्ति, निश्चलता, ज्योति एवं शक्ति में ही सब कुछ घटित होता है ।

 

     परन्तु तादात्म्य की यह सर्वोच्च उपलब्धि साधित होने से पहले भी परम इच्छाशक्ति का कोई रूप हमारे अन्दर एक अलंध्य प्रेरणा एवं ईश्वर-प्रेरित क्रिया के रूप में प्रकट हो सकता है । तब हम एक स्वयंस्फूर्त्त आत्मनिर्धारक शक्ति के द्वारा कर्म करते हैं, पर प्रयोजन और उद्देश्य का पूर्णतर ज्ञान बाद में ही उत्पन्न होता है । अथवा कर्म का आवेग अन्तःप्रेरणा या सम्बोधि के रूप में भी प्रकट हो सकता है, पर वह प्रकट होता है मन की अपेक्षा कहीं अधिक हृदय एवं शरीर में ही । यहां अमोघ दृष्टि तो प्राप्त हो जाती है, पर पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान अभी भी स्थगित रहता है और जब आता हैं तो देर में । परन्तु भागवत इच्छाशक्ति करणीय कार्य के एक प्रकाशमान अनन्य आदेश अथवा समग्र बोध या एक अविच्छिन्न बोध-शृंखला के रूप में भी हमारे संकल्प या विचार के भीतर अवतरित हो सकती है अथवा वह ऊपर से एक ऐसे निर्देश के रूप में भी उतर सकती है जिसे निम्नतर अंग सहज भाव से क्रियान्वित करते हैं । जब योग अभी अपरिपक्व होता है, केवल कुछ-एक कार्य ही इस ढंग से किये जा सकते हैं, अथवा केवल एक सामान्य क्रिया ही इस प्रकार प्रवृत्त हो सकती है और वह भी केवल उच्चता और ज्ञानदीप्ति की अवस्थाओं में ही । जब योग में पूर्णता प्राप्त होती है तो कर्ममात्र इसी कोटि का हो जाता है । निःसन्देह इस वृद्धिशील प्रगति को हम तीन अवस्थाओं में विभक्त कर सकते हैं जिनके द्वारा सर्वप्रथम, हमारी व्यक्तिगत इच्छाशक्ति अपने से परतर परम इच्छाशक्ति या चिच्छक्ति के द्वारा यदा-कदा या बहुधा आलोकित या प्रेरित होती है, बाद में यह उसे निरन्तर अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करती जाती है और अन्त में यह उस दिव्य बल-क्रिया के साथ एकीभूत तथा उसमें निमज्जित हो जाती है । प्रथम अवस्था वह है जब हम अभी बुद्धि, हृदय तथा इन्द्रियों के द्वारा ही संचालित होते हैं; इन बुद्धि आदि को दिव्य स्फुरणा तथा पथप्रदर्शन की खोज अथवा प्रतीक्षा करनी होती है और उसे ये सदा ही उपलब्ध अथवा ग्रहण नहीं कर पाते । दूसरी अवस्था वह है जब उच्च, प्रकाशित या अन्तर्ज्ञानात्मक अध्यात्मभावित मन उत्तरोत्तर मानवीय बुद्धि का स्थान ग्रहण करता जाता है और आन्तर चैत्य हृदय बाह्य मानवीय हृदय का तथा विशुद्ध एवं निःस्वार्थ प्राणिक बल इन्द्रियों का स्थान लेता जाता है । तीसरी अवस्था वह है जब हम अध्यात्म-भावापन्न मन से भी ऊपर उठकर अतिमानसिक स्तरों पर पहुंच जाते हैं ।

 

     इन तीनों ही अवस्थाओं में मुक्त कर्म का मूल स्वरूप एक ही होता है, --यह प्रकृति का एक स्वत:स्फूर्त्त व्यापार होता है, किन्तु अब यह पूर्ववत् अहं के द्वारा या उसके लिये नहीं प्रत्युत परम पुरुष की इच्छा के अनुसार तथा उसके भोग के लिये

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सम्पन्न किया जाता है । और भी ऊंचे स्तर पर यह व्यापार निरपेक्ष तथा विश्वमय परब्रह्म का परम सत्य बन जाता है, जिसे अब और हमारी निम्नतर प्रकृति की स्थलनशील, अज्ञ और सर्व-विकारक शक्ति अपने अपूर्ण बोध और अपनी हीन या विकृत कार्यान्विति के द्वारा चरितार्थ नहीं करती, बल्कि सर्वज्ञ एवं परात्पर विश्वजननी ही व्यष्टि की आत्मा के द्वारा व्यक्त करती है और उसीकी प्रकृति के द्वारा सचेतन रूप में कार्यान्वित भी करती है । ईश्वर ने अपने-आपको और अपनी परम प्रज्ञा एवं नित्य चेतना को अज्ञ प्रकृति-शक्ति में छुपा रखा है और इसे अनुमति देता है कि यह व्यक्ति को, उसकी सहायता के द्वारा, अहं के रूप में प्रचालित करे । अपने आशयों को अधिक श्रेष्ठ बनाने और अधिक शुद्ध आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिये मनुष्य अर्द्धप्रबुद्ध एवं अपूर्ण ढंग से जो-जो प्रयत्न करता है उन सबके रहते भी प्रकृति की यह निम्नतर क्रिया प्रायः प्रधान बनी रहती है । हमारे अन्दर प्रकृति के पिछले कार्यों की जो शक्ति संचित है, उसकी जो अतीत रचनाएं एवं चिररूढ़ संस्कार निहित हैं उनके कारण हमारा पूर्णता-प्राप्ति का मानवीय प्रयत्न विफल हो जाता है, अथवा यह बहुत ही अधूरे ढंग से आगे बढ़ता है । यह सफलता के सच्चे और गगनचुंबी शिखर पर केवल तभी आरोहण करता है जब हमारे ज्ञान या शक्ति से अधिक महान् ज्ञान या शक्ति हमारे अज्ञान का आवरण भेद डालती है और हमारी वैयक्तिक इच्छाशक्ति को परिचालित करती अथवा अपने हाथ में ले लेती है । कारण, हमारी मानवीय इच्छाशक्ति एक पथभ्रष्ट एवं भ्रान्तिशील रश्मि है जो परम इच्छाशक्ति से विच्छिन्न हो गयी है । निम्नतर क्रिया में से उच्चतर ज्योति तथा शुद्धतर शक्ति में शनैः -शनैः उदित होने का काल पूर्णता के प्रयासी के लिये मृत्यु के अन्धकार की उपत्यका होता है; यह परीक्षाओं, यातनाओं, दुःखों, अज्ञानावरणों, स्खलनों, भ्रान्तियों, गर्त्तजालों से संकुल एक भीषण पथ होता है । इस अग्नि-परीक्षा को संक्षिप्त तथा हल्का करने के लिये अथवा इसमें दिव्य आनन्द का संचार करने के लिये अपेक्षित है--श्रद्धा, और मन का उस ज्ञान के प्रति वृद्धिशील समर्पण जो अपने को भीतर से हमपर आरोपित करता है तथा सबसे अधिक अपेक्षित है सच्ची अभीप्सा और यथार्थ, अविचल एवं निष्कपट अभ्यास । गीता कहती है, ''निराशारहित हृदय के साथ, स्थिरचित्त होकर, योग का अभ्यास करो'';   क्योंकि पथ की प्रारम्भिक अवस्था में हमें चाहे आन्तरिक कलह एवं दुःख के तीक्ष्ण गरल के बड़े लंबे घूंट पीने पड़ते हैं, तो भी इस प्याले का अन्तिम स्वाद है--अमृतत्व की सुधा की मधुरिमा तथा नित्य आनन्द की सोम-सुरा ।

 

      १ स निश्चेयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा । गीता ६-२३ ।

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