Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय १०
प्रकृति के तीन गुण
यदि आत्मा को अपनी सत्ता और कर्मों में स्वतंत्र होना है तो अपरा प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया का अतिक्रम करना उसके लिये अनिवार्य है । इस तथ्यात्मक वैश्व प्रकृति के प्रति सुसमंजस अधीनता किंवा प्रकृति के करणों की शुभ और अविकल कर्म की अवस्था आत्मा के लिये आदर्श नहीं है, उसके लिये तो अधिक अच्छा यह है कि वह ईश्वर तथा उसकी शक्ति के अधीन रहे, पर अपनी प्रकृति की स्वामिनी बने । परम इच्छाशक्ति के माध्यम या वाहन के रूप में उसे अपनी अन्तर्दृष्टि और स्वीकृति या अस्वीकृति के द्वारा यह निर्णय करना होगा कि प्रकृति ने मन-प्राण-शरीररूपी प्राकृतिक करणों की चेष्टा के लिये जो शक्ति-भंडार, पारिपार्श्विक अवस्थाएं तथा सम्मिलित गति के लयताल प्रदान किये हैं उनका क्या प्रयोग किया जायगा । परन्तु इस निम्नतर प्रकृति पर प्रभुत्व केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है यदि इसे पार करके इसका प्रयोग ऊपर से किया जाय । ऐसा तभी किया जा सकता है यदि हम इसकी कर्मसम्बन्धी शक्तियों और गुणों एवं अवस्थाओं को अतिक्रान्त कर जायें; अन्यथा हम इसकी अवस्थाओं के ही अधीन रहेंगे और विवश होकर इसके द्वारा शासित होते रहेंगे, इस तरह हम आत्मा में स्वतन्त्र नहीं होंगे ।
प्रकृति की तीन मूल अवस्थाओं का विचार प्राचीन भारतीय मनीषियों की उपज है और इसकी सत्यता हमारे सामने सहज ही स्पष्ट नहीं होती, क्योंकि यह उनके सुदीर्घ अध्यात्मविषयक परीक्षण तथा गभीर आन्तर अनुभूति का परिणाम था । अतएव, सुदीर्घ आन्तर अनुभव तथा अन्तरंग आत्म-निरीक्षण के बिना और प्रकृति- शक्तियों का साक्षात् ज्ञान प्राप्त किये बिना इसे ठीक-ठीक समझना या दृढ़ता से उपयोग में लाना कठिन है । तथापि कुछ मोटे निर्देश कर्म-मार्ग पर आरूढ़ जिज्ञासु के लिये अपनी प्रकृति के अनेकविध शक्ति-संयोगों को समझने, विश्लेषण करने तथा उन्हें अपनी स्वीकृति या निषेध से नियन्त्रित करने में सहायक हो सकते हैं । प्रकृति की मूल अवस्थाओं को भारतीय पुस्तकों में गुण कहा गया है और इन्हें सत्त्व, रज और तम के नाम दिये गये हैं । सत्त्व सन्तुलन की शक्ति है और गुण के रूप में यह सत् सामंजस्य, सुख और प्रकाश कहलाता है; रज गति की शक्ति हैं और गुण के रूप में यह संघर्ष, प्रयत्न, आवेश तथा कर्म कहलाता है; तम अचेतना एवं जड़ता की शक्ति है और गुण के रूप में यह अन्धता, अक्षमता तथा निष्क्रियता कहलाता है । ये विशेष लक्षण अध्यात्मविषयक आत्मविश्लेषण के लिये प्रायः ही प्रयुक्त होते हैं और भौतिक प्रकृति में भी ये ठीक घटते हैं । अपरा प्रकृति
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की एक-एक वस्तु और हरेक सत्ता में ये निहित हैं और प्रकृति की कार्यप्रणाली तथा इसका गतिशील रूप इन गुणात्मक शक्तियों की परस्पर-क्रिया के ही परिणाम हैं ।
चेतन या अचेतन सभी वस्तुओं का प्रत्येक रूप क्रियारत प्राकृतिक शक्तियों का एक स्थिरतापूर्वक रक्षित सन्तुलन होता है । यह उन सहायक, बाधक या विनाशक सम्पर्को के अन्तहीन प्रवाह के अधीन होता है जो इसे अपने चारों ओर की शक्तियों के अन्य संयोगों से प्राप्त होते हैं । हमारी अपनी मन-प्राण-शरीररूपी प्रकृति भी इस प्रकार के रचनाकारी शक्ति-संयोग या त्रिगुण-संयोग तथा सन्तुलन के सिवा और कुछ नहीं है । पारिपार्श्विक स्पर्शों के ग्रहण तथा उनके प्रति प्रतिक्रिया में ये तीन गुण ग्रहीता का स्वभाव तथा प्रत्युत्तर का स्वरूप निर्धारित करते हैं । जड़ तथा अशक्त रहकर वह किसी प्रत्युत्तर-स्वरूप प्रतिक्रिया, आत्म-रक्षा की किसी चेष्टा, अथवा आत्मसात् करने एवं अनुकूल बनाने की किसी भी क्षमता के बिना उन स्पर्शों को झेल सकता है; यह तमोगुण है, जड़ता की रीति है । तम के लक्षण हैं--अन्धता, अचेतनता, अक्षमता और निर्बुद्धिता, प्रमाद, आलस्य, निष्क्रियता और यान्त्रिक पुनरावर्त्तिता, मन की जड़ता, प्राण की मूर्च्छा और आत्मा की निद्रा । इसका प्रभाव, यदि उसे अन्य तत्त्वों के द्वारा सुधारा न जाय तो, इसके सिवाय और कुछ नहीं हो सकता कि प्रकृति का वह रूप या सन्तुलन विघटित हो जायगा और उसके स्थान पर न कोई नया रूप उत्पन्न होगा और न कोई नया सन्तुलन या क्रियाशील विकास की कोई नयी शक्ति ही उत्पन्न होगी । इस जड़ अशक्तता के मूल में निहित है अज्ञान का तत्त्व तथा पारिपार्श्विक शक्तियों के उत्तेजक या आक्रामक स्पर्श एवं उनके सुझाव को तथा नूतन अनुभव के लिये उनकी प्रेरणा को समझने और आयत्त एवं प्रयुक्त करने की अयोग्यता या प्रमादपूर्ण अनिच्छा ।
दूसरी ओर, प्रकृति के स्पर्शों का ग्रहीता उसकी शक्तियों से संस्पृष्ट तथा उत्तेजित, पीड़ित वा आक्रान्त होकर दबाव के अनुकूल या प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी कर सकता है । प्रकृति उसे प्रयत्न, प्रतिरोध एवं प्रयास करने, अपनी परिस्थिति को अधिकृत या स्वांगीकृत तथा अपनी इच्छाशक्ति को स्थापित करने और युद्ध, निर्माण एवं विजय करने के लिये स्वीकृति, प्रोत्साहन तथा प्रेरणा देती है । यह रजोगुण है, आवेश, कर्म और कामना की तृष्णा की रीति है । संघर्ष, परिवर्तन और नवसर्जन, विजय और पराजय, हर्ष और शोक तथा आशा और निराशा इसकी सन्तानें हैं और ये इसका ऐसा चित्र-विचित्र जीवन-सदन निर्मित करती हैं जिसमें यह मौज मनाता है । परन्तु इसका ज्ञान अपूर्ण या मिथ्या ज्ञान होता है जो अपने साथ अज्ञानयुक्त प्रयत्न, भूल-भ्रान्ति, अनवरत कुसामंजस्य, आसक्ति का कष्ट, हताश कामना, और हानि रख असफलता का दुःख लाता है । रजोगुण की देन है गतिशील बल, स्फूर्ति, कर्मण्यता तथा ऐसी शक्ति जो सर्जन एवं कर्म करती है और विजय कर सकती
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है । किन्तु यह रजोगुण अविद्या के मिथ्या प्रकाशों या अर्द्धप्रकाशों में विचरण करता है और असुर, राक्षस तथा पिशाच के स्पर्श से कलुषित होता है । मानव-मन का उद्धत ज्ञान और उसके निज-सन्तुष्ट विकार एवं धृष्ट भ्रान्तियां; मद, अहंकार और महत्त्वाकांक्षा क्रूरता, अत्याचार, पाशविक क्रोध और उग्रता; स्वार्थ, क्षुद्रता, छल- कपट और निकृष्ट नीचता; ईर्ष्या, असूया एवं अथाह कृतघ्नता और काम, लोभ, लूट-मार एवं बलापहार जो पृथ्वी-प्रकृति को विकृत करते हैं, इस अनिवार्य किन्तु उग्र एवं भयानक प्रकृति-वृत्ति की स्वाभाविक सन्तानें हैं ।
परन्तु देहधारी जीव प्रकृति के इन दो गुणों से ही बंधा हुआ नहीं है; एक इनसे अच्छा और अधिक प्रकाशयुक्त ढंग भी है जिससे वह अपने चारों ओर के सम्पर्को और जगत्-शक्तियों के प्रवाह के साथ व्यवहार कर सकता है । इन सम्पर्कों और शक्तियों को वह स्पष्ट समझ, समस्थिति एवं सन्तुलन के साथ भी ग्रहण कर सकता है और इनकी ओर प्रतिक्रिया कर सकता है । प्राकृतिक जीव की इस व्यवहार-शैली में एक ऐसी शक्ति है जो समझ से युक्त होने के कारण सहानुभूति प्रकाशित करती है; यह प्रकृति की प्रेरणा और उसकी विधियों की थाह लेती है और उन्हें अधिकृत तथा विकसित करती है । इसमें एक ऐसी बुद्धि है जो प्रकृति की कार्य-प्रणालियों तथा उसके आशयों की तह में जाती है और उन्हें आत्मसात् करके उपयोग में ला सकती है । इसमें एक ऐसी प्रसन्न प्रतिक्रिया होती है जो अभिभूत नहीं होती किन्तु मेल साधती है, सुधारती एवं समस्वर करती है तथा सभी वस्तुओं में से सार निकाल लेती है । यह सत्त्वगुण है, अर्थात् प्रकृति की वह वृत्ति है जो प्रकाश और सन्तुलन से पूर्ण है, सत् ज्ञान, आनन्द, सौन्दर्य तथा सुख और ठीक समझ, ठीक सन्तुलन एवं ठीक व्यवस्था के लक्ष्य की ओर अभिमुख है । इसका स्वभाव है ज्ञान की उज्वल विशदता का ऐश्वर्य और सहानुभूति एवं अन्तरंगता का ज्वलन्त उत्साह । सूक्ष्मता और ज्ञानदीप्ति, संयमित शक्ति, समस्त सत्ता की पूर्ण समस्वरता एवं समतोलता सात्त्विक प्रकृति की सर्वोच्च उपलब्धि है ।
कोई भी सत्ता वैश्व शक्ति के इन गुणों में से पूरी तरह किसी एक के ही न्यारे सांचे में ढली हुई नहीं है; हर एक में और हर जगह तीनों के तीनों विद्यमान हैं । इनके परिवर्तनशील सम्बन्धों तथा परस्पर-संचारी प्रभावों का सतत संयोजन और वियोजन होता रहता है, बहुधा शक्तियों का संघट्ट तथा मल्लयुद्ध एवं स्व-दूसरी पर प्रभुता करने के लिये संघर्ष भी चलता रहता है । सभी के अन्दर कम या अधिक अंश या मात्रा में सात्त्विक वृत्तियां होती हैं, भले ही किसी-किसी में ये अलक्ष्य-सी न्यूनतम मात्रा में ही क्यों न हों; सभी में प्रकाश, निर्मलता एवं प्रसन्नता की स्पष्ट सरणियां या अविकसित प्रवृत्तियां, परिस्थिति के साथ सूक्ष्म अनुकूलीकरण और सहानुभूति, बुद्धि, समतोलता, यथार्थ विचार, यथार्थ संकल्प और भाव, यथार्थ आवेग, सद्गुण और नियम-क्रम देखने में आते हैं । सभी में राजसिक
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वृत्तियां भी होती हैं, सभी में आवेग, कामना, आवेश और संघर्षवाले मलिन अंग, विकार, असत्य एवं भ्रान्ति और असन्तुलित हर्ष एवं शोक दृष्टिगोचर होते हैं और सभी में कर्म एवं उत्सुक सर्जन की उग्र प्रेरणा, और परिस्थिति के दबाव तथा जीवन के आक्रमणों एवं प्रस्तावों के प्रति प्रबल या साहसपूर्ण अथवा प्रचंड या भयानक प्रतिक्रियाएं भी दिखायी देती हैं । सभी में तामसिक वृत्तियां भी होती हैं, सभी में स्थिर अन्धकारमय भाग, अचेतनता के क्षण या स्थल, दुर्बल सहिष्णुता या जड़ स्वीकृति का चिररूढ़ स्वभाव या इसके प्रति अस्थायी रुचि, प्रकृतिगत दुर्बलताएं या क्लान्ति, प्रमाद और आलस्य की गतियां देखने में आती हैं, अज्ञान एवं अशक्तता में पतन, विषाद, भय और भीरुतापूर्ण जुगुप्सा अथवा परिस्थितियों के प्रति और मनुष्यों, घटनाओं एवं शक्तियों के दबाव के प्रति अधीनता भी सभी के अन्दर पायी जाती है । हम सभी अपनी प्राकृतिक शक्ति की कुछ दिशाओं में अथवा अपने मन या स्वभाव के कई भागों में सात्त्विक हैं, कुछ दूसरी दिशाओं में राजसिक और कई अन्य दिशाओं में तामसिक भी हैं । किसी मनुष्य के सामान्य स्वभाव और विशिष्ट मन तथा कर्मधारा में इन गुणों में से जो कोई भी साधारणतया प्रबल होता है उसीके अनुसार उस मनुष्य के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वह सात्त्विक, राजसिक या तामसिक है । परन्तु ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं जो सदा एक ही प्रकार के हों और अपने प्रकार में विशुद्ध तो कोई भी नहीं होता । ज्ञानी सदा या पूर्णतया ज्ञानी नहीं होते, बुद्धिमान् केवल खंडश: ही बुद्धिमान् होते हैं; साधु अपने अन्दर अनेक असाधु चेष्टाएं दबाये रखता है और दुष्ट निरे दुष्ट ही नहीं होते । जड़-से-जड़ मनुष्य में भी अप्रकट अथवा अप्रयुक्त एवं अविकसित क्षमताएं होती हैं । अत्यन्त भीरु व्यक्ति भी किसी-किसी समय अपना जौहर दिखाता है अथवा उसका भी एक साहसी रूप होता है, असहाय और दुर्बल की प्रकृति में भी शक्ति का एक प्रसुप्त स्रोत होता है । सत्त्व आदि प्रधान गुण देहधारी जीव के मूल आत्मिक प्रतिरूप नहीं होते, वरन् उस रचना के चिह्नमात्र होते हैं जो रचना जीव अपने इस जीवन के लिये या अपने वर्तमान सत्ता-काल में अपने विकास के किसी विशिष्ट क्षण में निर्मित करता हैं ।
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जब एक बार साधक अपने भीतर या अपने पर होनेवाली प्रकृति की क्रिया से तटस्थ हो जाता है और उसमें हस्तक्षेप अथवा उसका सुधार या निषेध एवं चुनाव या निर्णय न करते हुए उसकी क्रीड़ा को होने देता है और जब वह उसकी कार्य-पद्धति का विश्लेषण एवं निरीक्षण कर लेता है, तब वह शीघ्र ही जान जाता है कि प्रकृति के गुण स्वाश्रित हैं और वे वैसे ही कार्य करते हैं जैसे एक बार
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चलाकर काम में लगायी हुई मशीन अपनी ही रचना तथा संचालक शक्तियों के द्वारा कार्य करती रहती है । शक्ति और संचालन का स्रोत प्रकृति है, प्राणी नहीं । तब उसे अनुभव हो जाता है कि मेरा यह संस्कार कैसा अशुद्ध था कि मेरा मन मेरे कार्यों का कर्त्ता है; मेरा मन तो मेरा एक छोटा-सा अंश तथा प्रकृति की रचना एवं इंजनमात्र है । वास्तव में प्रकृति ही अपने तीन सार्वभौम गुणों को इस प्रकार घुमाती हुई, जिस प्रकार कोई लड़की अपनी पुतलियों से खेलती हो, अपने गुणों द्वारा बराबर कार्य कर रही है । उसका 'अहं' सदैव एक यन्त्र तथा खिलौनामात्र होता है; उसका चरित्र और बुद्धि, उसके नैतिक गुण और मानसिक शक्तियां, उसकी कृतियां और कर्म एवं पराक्रम, उसका क्रोध और सहिष्णुता, उसकी क्रूरता और करुणा, उसका प्रेम और उसकी घृणा, उसका पाप और पुण्य, उसका प्रकाश और अन्धकार तथा हर्षावेश एवं शोकोच्छूवास प्रकृति की क्रीड़ामात्र हैं जिसे आत्मा आकृष्ट, विजित तथा वशीकृत होकर अपनी निष्क्रिय सहमति दे देती है । तथापि प्रकृति या शक्ति का नियन्तृत्व ही सब कुछ नहीं है, इस विषय में आत्मा की बात भी सुनी जाती है, उसकी भी चलती है, --किन्तु चलती है गुप्त आत्मा की या पुरुष की, न कि मन वा अहंकार की, क्योंकि ये स्वतन्त्र सत्ताएं नहीं, वरन् प्रकृति के ही भाग हैं । आत्मा की अनुमति क्रीड़ा के लिये अपेक्षित है और अनुमति के ईश तथा प्रदाता के रूप में वह आन्तर मौन संकल्प के द्वारा क्रीड़ा का नियम निर्धारित कर सकती है तथा अपने त्रिगुण-संयोगों में हस्तक्षेप कर सकती है, यद्यपि विचार एवं संकल्प और कर्म एवं आवेग में क्रियान्वित करना तब भी प्रकृति का ही कार्य तथा अधिकार रहता है । पुरुष प्रकृति को किसी सामंजस्य के साधित करने के लिये आदेश दे सकता है, पर इसके लिये वह उसके व्यापारों में हस्तक्षेप नहीं करता, बल्कि उसपर एक सचेतन दृष्टि डालता है, जिसे वह तुरन्त या बहुत कठिनाई के बाद एक प्रतिरूपक विचार और क्रियाशील प्रेरणा एवं अर्थपूर्ण प्रतिमा में रूपान्तरित कर देती है ।
यह सर्वथा प्रत्यक्ष ही है कि यदि हमें अपनी वर्तमान प्रकृति का दिव्य चेतना के मूर्त्त बल में तथा उसकी शक्तियों के यन्त्र में रूपान्तर करना है तो दो निम्न गुणों की क्रिया से छुटकारा पाना अनिवार्य है । तम दिव्य ज्ञान के प्रकाश को धुंधला कर देता है तथा उसे हमारी प्रकृति के अंधेरे और मलिन कोनों में प्रवेश नहीं करने देता । यह हमें निःशक्त कर देता है और दैवी आवेग का उत्तर देने की हमारी शक्ति, अपनेको परिवर्तित करने का हमारा बल और प्रगति करने एवं अपनेको महत्तर शक्ति के प्रति नम्य बनाने का हमारा संकल्प हर लेता है । रज ज्ञान को विकृत कर डालता है, हमारी बुद्धि को असत्य की सहायिका तथा प्रत्येक अशुभ चेष्टा की उत्तेजिका बना देता है, हमारी प्राण-शक्ति तथा इसके आवेगों को भड़काता और उलझाता है तथा शरीर का सन्तुलन एवं स्वास्थ्य उलट देता है । यह
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सब अभिजात विचारों तथा उच्चस्थ गतियों पर अधिकार कर लेता हैं और उनका मिथ्या तथा अहंकारमय उपयोग करता है । यहांतक कि दिव्य सत्य और दिव्य प्रभाव भी जब वे पार्थिव स्तर पर अवतरित होते हैं, इस दुरुपयोग और आक्रमण से नहीं बच सकते । जबतक तम आलोकित और रज रूपान्तरित नहीं हो जाता, तबतक कोई दिव्य परिवर्तन या दिव्य जीवन सम्भव नहीं हो सकता ।
अतएव, ऐसा प्रतीत होगा कि सत्त्व का ऐकान्तिक अवलंबन ही उद्धार का उपाय है; किन्तु इसमें कठिनाई यह है कि कोई भी गुण अपने दो संगियों एवं प्रतिस्पर्धियों के विरोध में अकेला विजयी नहीं हो सकता । यदि हम कामना एवं आवेश के गुण को कष्ट-क्लेश और पाप-ताप आदि विकारों का कारण समझकर इसे शान्त तथा वशीभूत करने की चेष्टा और प्रयास करें, तो रज दब जाता है, किन्तु तम उभड़ आता है । सक्रियता का तत्त्व शिथिल पड़ जाने से जड़ता उसका स्थान ले लेती है । प्रकाश का तत्त्व हमें सुस्थिर शान्ति, सुख, ज्ञान, प्रेम और शुद्ध भाव प्रदान कर सकता है, परन्तु यदि रज अनुपस्थित हो या नितान्त दमित हो, तो आत्मा की शान्ति अकर्मण्यता की निश्चलता बनती चली जाती है न कि सक्रिय रूपान्तर की दृढ़ भित्ति । निष्प्रभाव रूप में यथार्थ चिन्तन एवं यथार्थ कर्म करती हुई साधु सौम्य और ऋजु प्रकृति अपने क्रियाशील अंगों में सत्त्व-तामसिक, उदासीन, निस्तेज, असर्जनक्षम या बलशून्य हो सकती है । मानसिक और नैतिक अन्धकार का इसमें अभाव हो सकता है, परन्तु साथ ही कर्म के सबल स्रोत भी सूख जा सकते हैं । इस प्रकार यह भी एक अवरोधक सीमा होती है और साथ ही एक और प्रकार की अक्षमता भी । कारण, तमसू एक दुहरा तत्त्व है; जहां यह रज का निष्क्रियता के द्वारा विरोध करता है वहां यह सत्त्व का भी संकीर्णता, अन्धकार और अज्ञान के द्वारा विरोध करता है और यदि इनमें से कोई अवसन्न हो जाता है तो यह उसका स्थान लेने के लिये घुस आता है ।
यदि हम यह भूल सुधारने के लिये रज को पुनः आमंत्रित करते हैं तथा इसे सत्त्व से गठबंधन करने देते हैं और इनके सम्मिलित प्रभाव से अन्धकारमय तत्त्व से छुटकारा पाने का पुरुषार्थ करते हैं, तो हम देखते हैं कि हमारे कर्म का स्तर तो ऊंचा हो जाता है, किन्तु राजसिक उत्सुकता, लालसा, निराशा, तथा दुःख और रोष के प्रति वश्यता फिर भी बनी रहती है । हो सकता है कि ये गतियां अपने क्षेत्र एवं अपनी भावना तथा क्रिया में पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत हो जायें, पर जो शान्ति, स्वतन्त्रता, शक्ति और आत्म-प्रभुता हम प्राप्त करना चाहते हैं वे ये नहीं हैं । जहां-जहां कामना और अहंभाव रहते हैं, वहां-वहां आवेग और विक्षोभ भी उनके साथ रहते ही हैं और उनके जीवन में भाग लेते हैं । यदि हम तीनों गुणों में इस प्रकार का समझौता कराना चाहें कि सत्त्व प्रधान बनकर रहे और अन्य दोनों इसके अधीन रहें तो भी हम प्रकृति के खेल की एक अधिक संयत क्रिया पर ही
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पहुंचेंगे । एक नया सन्तुलन तो हमें प्राप्त हो जायगा, किन्तु आध्यात्मिक स्वातंत्र्य और प्रभुत्व कहीं दिखायी नहीं देंगे अथवा ये अभी केवल एक सुदूर सम्भावना ही रहेंगे ।
एक अन्य मूलत: भिन्न प्रकार की गति हमें गुणों से पीछे हटाकर तथा पृथक् करके अन्तर की ओर ले जायगी और इनसे ऊपर उठायेगी । जो भ्रान्ति प्रकृति के गुणों के व्यापार को स्वीकृति देती है उसे समाप्त होना होगा; क्योंकि जबतक इसे स्वीकृति दी जाती है, तबतक आत्मा इनकी क्रियाओं में आबद्ध और इनके नियम के अधीन ही होती है । रज और तम के समान ही सत्त्व को भी पार करना होगा, सोने की जंजीर भी वैसे ही तोड़ फेंकनी होगी जैसे भारी-भरकम बेड़ियां तथा मिश्र धातुओं के बन्धनभूत भूषण । गीता इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आत्म-साधना की एक नयी विधि बतलाती है । वह है गुणों की क्रिया से पीछे हटकर अपने अन्दर स्थित होना तथा प्रकृति की शक्तियों की तरंग के ऊपर विराजमान साक्षी की भांति इस अस्थिर प्रवाह का निरीक्षण करना । साक्षी वह है जो देखता है पर तटस्थ एवं उदासीन रहता है, गुणों के निज स्तर पर उनसे पृथक् तथा अपनी स्वाभाविक स्थिति में उनसे ऊपर उच्चासीन होता है । जब वे अपनी तरंगों के रूप में उठते-गिरते हैं, तब साक्षी उनकी गतिविधि देखता है, इसका निरीक्षण करता है, परन्तु न तो वह इसे स्वीकार करता है न इसमें क्षणभर भी हस्तक्षेप करता है । सबसे पहले निर्वैयक्तिक साक्षी की स्वतन्त्रता प्राप्त होना आवश्यक है; तदनन्तर स्वामी या ईश्वर का प्रभुत्व स्थापित हो सकता है ।
अनासक्ति की इस प्रक्रिया का प्रारम्भिक लाभ यह होता है कि व्यक्ति अपनी निज प्रकृति तथा सर्वजनीन विश्वप्रकृति को समझने लगता है । अनासक्त साक्षी अहंकार से लेशमात्र भी अन्ध हुए बिना प्रकृति की अविद्यामय शैलियों की क्रीड़ा को पूर्ण रूप से देख सकता है तथा उसकी सब शाखा-प्रशाखाएं आवरण एवं सूक्ष्मताएं छान मारने में समर्थ होता है--क्योंकि यह नकली रूप तथा छद्मवेश और जालबन्दी, धोखेबाजी तथा छल-चातुरी से भरी हुई है । दीर्घ अनुभव से सीखा हुआ, सभी कार्यों एवं अवस्थाओं को गुणों की परस्पर-क्रिया समझता हुआ, इनकी कार्यशैलियों से भिज्ञ होता दुआ वह आगे को इनके आक्रमणों से परास्त नहीं हो सकता, इनके फन्दों में एकाएक फंस नहीं सकता अथवा इनके स्वांगों के धोखे में नहीं आ सकता । साथ ही वह देखता है कि अहं यथार्थ में इससे अधिक कुछ नहीं है कि वह एक युक्ति है तथा इनकी परस्पर-क्रिया की धारक ग्रंथि है और, यह जानकर, वह निम्न अहंकारमय प्रकृति की माया से मुक्त हो जाता है । वह परोपकारी और मुनि एवं मनीषी के सात्त्विक अहंकार से छूट जाता है; वह
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स्वार्थसेवी के राजसिक अहंकार को भी उस अधिकार से च्युत कर देता है जो इसने उसके प्राणावेगों पर जमा रखा है । अब वह निज स्वार्थ का परिश्रमी पोषक तथा आवेश एवं कामना का पला हुआ कैदी या अतिश्रम करनेवाला दंडित दास नहीं रहता । अज्ञानमय या निष्क्रिय, जड़ एवं बुद्धिहीन, तथा मानवजीवन के साधारण चक्र में फंसी हुई सत्ता के तामसिक अहंकार को वह अपनी ज्ञान-ज्योति से छिन्न- भिन्न कर देता है । इस प्रकार हमारे समस्त वैयक्तिक कर्म में अहंभाव-रूपी मूल दोष का अस्तित्व निश्चित रूप से स्वीकार कर तथा इससे सचेतन होकर वह आगे से राजसिक या सात्त्विक अहंकार में आत्म-सुधार या आत्म-उद्धार का उपाय ढूंढ़ने की चेष्टा नहीं करता बल्कि इनसे ऊपर एवं प्रकृति के करणों तथा कार्यप्रणाली से परे केवल सर्वकर्म-महेश्वर तथा उसकी परम शक्ति वा परा प्रकृति की ओर ही उन्मुख होता है । केवल वहीं समस्त सत्ता शुद्ध और मुक्त है और वहीं दिव्य सत्य का शासन सम्भव है ।
इस प्रगति में पहला कदम है प्रकृति के तीन गुणों से एक विशेष प्रकार की निर्लिप्त उत्कृष्टता । आत्मा निम्न प्रकृति से अन्तरत: पृथक् तथा स्वतन्त्र होती है, इसके घेरों में फंसी हुई नहीं होती, इसके उर्ध्व में उदासीन और प्रसन्न भाव में स्थित रहती है । प्रकृति अपने पुराने अभ्यासों के त्रिविध चक्र में कार्य करती रहती है, --कामना और हर्ष-शोक हृदय को आ घेरते हैं, सब करणोपकरण अकर्मण्यता, जड़ता एवं खिन्नता के गर्त में जा गिरते हैं, प्रकाश और शान्ति हृदय, मन तथा शरीर में फिर लौट आते हैं । किन्तु आत्मा इन परिवर्तनों से परिवर्तित और प्रभावित नहीं होती । निम्न अंगों की वेदना तथा कामना का निरीक्षण करेती हुई पर उनसे अचलायमान, उनके हर्षों और आयासों पर मुस्कराती हुई, विचार की भ्रान्तियों तथा धूमिलताओं को और हृदय तथा स्नायुओं की उच्छृंखलता एवं दुर्बलताओं को समझती हुई पर उनसे पराभूत न होती हुई, प्रकाश एवं प्रसन्नता के लौटने पर मन के अन्दर उत्पन्न ज्ञान-आलोक तथा सुख-आराम से और उसके विश्राम एवं बल- सामर्थ्य के अनुभव से मोहित तथा इसमें आसक्त न होती हुई आत्मा अपनेको इनमेंसे किसी भी चीज में झोंकती नहीं, किन्तु अविचलित रहकर उच्चतर इच्छाशक्ति के निर्देशों तथा महत्तर एवं प्रकाशपूर्ण ज्ञान की स्कुरणाओं की प्रतीक्षा करती है । सदा ऐसा ही करती हुई यह अपने सक्रिय अंगों में भी तीन गुणों के संघर्ष तथा इनकी अपर्याप्त उपयोगिताओं एवं अवरोधक सीमाओं से अन्तिम रूप में मुक्त हो जाती है । कारण, अब यह निम्नतर प्रकृति अपने-आपको उत्तरोत्तर एक उच्चतर शक्ति के द्वारा प्रबल रूप से प्रेरित अनुभव करती है । पुराने अभ्यासों को, जिनसे यह चिपटी हुई थी, अब और स्वीकृति नहीं मिलती और वे अपनी बहुलता को एवं पुनरावर्तन की शक्ति को लगातार खोने लगते हैं । अन्त में यह इस बात को समझ जाती है कि इसे एक उच्चतर कार्य और श्रेष्ठतर अवस्था के लिये
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आवाहन प्राप्त हुआ है और चाहे कितनी भी धीमे क्यों न हो, चाहे कितनी भी अनिच्छा के साथ और किसी भी आरम्भिक या लंबी दुर्भावना एवं स्खलनशील अज्ञान के साथ ही क्यों न हो, यह अपनेको परिवर्तन के लिये प्रस्तुत, अभिमुख और तैयार करने लगती है ।
साक्षी और ज्ञाता की भी अवस्था से अतीत हमारी आत्मा की स्थितिशील स्वतन्त्रता का परम उत्कर्ष होता है प्रकृति का सक्रिय रूपान्तर । हमारे तीन करणों अर्थात् मन, प्राण, शरीर में एक-दुसरे पर प्रभाव डालते हुए तीन गुणों का सतत मिश्रण एवं विषम व्यापार तब और अपनी साधारण, अव्यवस्थित, विक्षुब्ध तथा अशुद्ध क्रिया और गति नहीं करता । तब एक और प्रकार की क्रिया करना सम्भव हो जाता है जो आरम्भ होती, बढ़ती तथा पराकाष्ठा को पहुंचती है, --एक ऐसी क्रिया जो अधिक सच्चे रूप में शुद्ध तथा अधिक प्रकाशयुक्त होती है और पुरुष और प्रकृति की गंभीरतम दिव्य परस्पर-लीला के लिये तो सहज एवं स्वाभाविक, किन्तु हमारी वर्तमान अपूर्ण प्रकृति के लिये असाधारण एवं अलौकिक होती है । स्थूल मन को सीमाओं में बाधनेवाला शरीर तब और उस तामसिक जड़ता पर आग्रह नहीं करता जो सदा एक ही अज्ञानमय चेष्टा को दुहराती रहती है । यह एक महत्तर शक्ति और ज्योति का निष्प्रतिरोध क्षेत्र और यन्त्र बन जाता है, यह आत्मा की शक्ति की प्रत्येक मांग का उत्तर देता है और प्रत्येक प्रकार के नये दिव्य अनुभव और उसकी तीव्रता को आश्रय देता है । हमारी सत्ता के गतिशील और सक्रिय प्राणिक भाग, हमारे स्नायविक, भाविक, सांवेदनिक और संकल्पात्मक भाग अपनी शक्ति में विस्तृत हो जाते हैं और अनुभव के आनन्दपूर्ण उपभोग तथा अश्रान्त कार्य के लिये अवकाश प्रदान करते हैं । पर साथ ही ये एक ऐसी विशाल, धीर-स्थिर और सन्तुलित शान्ति की आधार-शिला पर स्थित और सन्तुलित होना भी सीख जाते हैं जो शक्ति में अत्युच्च और विश्रान्ति में दिव्य है, जो न हर्षित होती है न उत्तेजित और न दुःख एवं वेदना से पीड़ित, न कामना और हठीले आवेगों से व्याकुल होती है और न ही निर्बलता और अकर्मण्यता से हतोत्साह । बुद्धि किंवा चिन्तनात्मक, बोधग्राही और विचारशील मन अपनी सात्त्विक सीमाएं त्यागकर सारभूत ज्योति और शान्ति की ओर खुल जाता है । एक अनन्त ज्ञान हमारे सामने अपने उज्ज्वल क्षेत्र प्रस्तुत करता है । एक ज्ञान जो मानसिक रचनाओं से गठित तथा सम्मति एवं धारणा से बद्ध नहीं होता, न स्खलनशील संदिग्ध तर्क एवं इन्द्रियों के तुच्छ अवलंब पर ही निर्भर करता है, बल्कि सुनिश्चित, यथार्थ, सर्वस्पशीं और सर्वग्राही होता है, एक अपार शान्ति और आनन्द जो सर्जनशील शक्ति और वेगमय कर्म के कुंठित आयास से मुक्ति की प्राप्ति पर निर्भर नहीं करते और न कुछ-एक सीमित सुखों से ही निर्मित होते हैं, बल्कि स्वयंसत् और सर्वसंग्राहक होते हैं, --ये सब हमारी सत्ता को अधिकृत करने के लिये उत्तरोत्तर-व्यापक क्षेत्रों में
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और नित्य-विस्तारशील एवं सदा अधिकाधिक मार्गों के द्वारा प्रवाहित होते हैं । एक उच्चतर शक्ति, आनन्द और ज्ञान मन, प्राण तथा शरीर से परे के किसी स्रोत से प्रकट होकर नये सिरे से इनका दिव्यतर रूप गढ़ने के लिये इन पर अधिकार कर लेते हैं ।
यहां हमारी निम्न सत्ता के त्रिविध गुण के विरोध-वैषम्य पार हो जाते हैं और दिव्य विश्व-प्रकृति का महत्तर त्रिविध गुण प्रारम्भ होता है । यहां तम या जड़ता की अन्धता का नाम-निशान नहीं । तम का स्थान ले लेता है दिव्य शम एवं प्रशान्त शाश्वत विश्राम जिसमें से कर्म तथा ज्ञान की लीला इस प्रकार आविर्भूत होती है मानों निश्चल एकाग्रता के परम गर्भ से आविर्भूत हो रही हो । यहां कोई राजसिक गति एवं कामना नहीं होती, न कर्म, सर्जन तथा धारण का कोई हर्ष-शोकमय प्रयास ही होता है और न विक्षुब्ध आवेग की कोई सार्थक उथल-पुथल । रज का स्थान ग्रहण करती है धीर-स्थिर शक्ति एवं असीम बल-क्रिया जो अपनी अत्यन्त प्रचंड तीव्रताओं में भी आत्मा की अचल समस्थिति को उद्वेलित नहीं करती और न ही इसकी शान्ति के विशाल गहन व्योमों तथा प्रकाशमान अथाह गह्वरों को कलुषित करती है । सत्य को निगृहीत तथा आबद्ध करने के लिये चतुर्दिक् खोजते फिरते हुए मन के निर्माणकारी प्रकाश का यहां अस्तित्व नहीं, चिन्ताकुल या निश्चेष्ट विश्राम का यहां नाम नहीं । सत्त्व के स्थान पर प्रतिष्ठित होता है प्रकाश तथा आध्यात्मिक आनन्द जो आत्मा की गभीरता एवं अनन्त सत्ता से एकीभूत हैं और सीधे गुह्य सर्वज्ञता के प्रच्छन्न तेजःपुंज से निःसृत होनेवाले प्रत्यक्ष एवं सत्य ज्ञान से अनुप्राणित हैं । यह वह महत्तर चेतना है जिसमें हमें अपनी निम्न चेतना को रूपान्तरित करना है, त्रिगुण की क्षुब्ध एवं असन्तुलित क्रिया से युक्त इस अज्ञानमय प्रकृति को हमें इस महत्तर ज्योतिर्मय परा प्रकृति में परिवर्तित करना है । सर्वप्रथम हम त्रिगुण से मुक्त, निर्लिप्त और अक्षुब्ध निस्त्रेगुण्य प्राप्त करते हैं । परन्तु यह तो उस अन्तरात्मा, आत्मा एवं आत्मतत्त्व की सहज अवस्था की प्राप्ति है जो स्वतन्त्र है और अज्ञान-शक्ति से युक्त प्रकृति की चेष्टा का अपनी अचल शान्ति में निरीक्षण करती है । यदि इस भित्ति पर प्रकृति और इसकी गति को भी स्वतन्त्र बनाना हो तो इसके लिये कर्म को एक ऐसी ज्योतिर्मयी शान्ति एवं नीरवता के अन्दर शान्त और स्थिर करना होगा जिसमें सभी आवश्यक क्रियाएं इस प्रकार की जाती हैं कि मन या प्राण-सत्ता किसी प्रकार की सचेतन प्रतिक्रिया या भागग्रहण या कार्यारम्भ नहीं करती, न विचार की कोई तरंग या प्राणिक भागों की कोई लहर ही उठती है; साथ ही, इसके लिये एक निर्वैयक्तिक वैश्व या परात्पर शक्ति की प्रेरणा, प्रवर्तना और क्रिया की सहायता भी प्राप्त करनी होगी । वैश्व मन, प्राण और सत्तत्त्व को अथवा हमारी अपनी वैयक्तिक सत्ता या इसकी प्रकृति-निर्मित देहपुरी से भिन्न किसी शुद्ध परात्पर आत्म-शक्ति और आनन्द को सक्रिय होना होगा । यह एक
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प्रकार की मुक्त स्थिति है जो कर्मयोग में अहंभाव, कामना और वैयक्तिक उपक्रम के त्याग द्वारा और विश्वात्मा या विश्व-शक्ति के प्रति हमारी सत्ता के समर्पण के द्वारा प्राप्त हो सकती है । ज्ञानयोग में यह विचार के निरोध, मन की नीरवता और विश्व-चेतना, विश्वात्मा, विश्व-शक्ति या परम सद्वस्तु के प्रति सम्पूर्ण सत्ता के उद्घाटन के द्वारा अधिगत हो सकती है । भक्तियोग में यह अपनी सत्ता के आराध्य स्वामी के रूप में उस आनन्दघन के हाथों में अपने हृदय और समस्त प्रकृति के समर्पण के द्वारा उपलब्ध हों सकती है । परन्तु सर्वोच्च परिवर्तन तो एक अधिक निश्चयात्मक एवं क्रियाशील अतिक्रमण के द्वारा ही साधित हो सकता है; एक उच्च आध्यात्मिक स्थिति अर्थात् त्रिगुणातीत स्थिति में हमारा स्थानान्तरण या रूपान्तर हो जाता है जिसमें हम एक महत्तर आध्यात्मिक गतिशीलता में भाग लेने लगते हैं । क्योंकि तीन निम्नतर विषम गुण दैवी प्रकृति की शाश्वत शान्ति, ज्योति और शक्ति किंवा उसकी विश्रान्ति, गति और दीप्ति के सम त्रिविध गुण में परिवर्तित हो जाते हैं ।
यह परम समस्वरता तबतक नहीं प्राप्त हो सकती जबतक अहंकारमय संकल्प, चुनाव तथा कर्म बन्द न हो जायें और हमारी सीमित बुद्धि शान्त न हो जाये । वैयक्तिक अहंभाव को बल लगाना छोड़ देना होगा, मन को मौन हो जाना होगा, कामनामय संकल्प को सर्वारम्भ परित्याग करना सीखना होगा । हमारे व्यक्तित्व को अपने उद्गम में मिल जाना होगा और समस्त विचार तथा आरम्भ को ऊर्ध्वलोक से उद्भूत होना होगा । हमारे कर्मों के गुप्त ईश्वर हमारे समक्ष शनैः -शनैः प्रकाशित होंगे और परम संकल्प एवं ज्ञान की अभय छाया में दिव्य शक्ति को अनुमति देंगे और वह शक्ति ही विशुद्ध तथा उच्च प्रकृति को अपना यन्त्र बनाकर हममें सभी कर्म करेगी । व्यक्तित्व का व्यष्टि-रूप केंद्र इहलोक में प्रकृति के कर्मों का भर्तामात्र होगा, यह उनका ग्रहीता तथा वाहन, उनकी शक्ति को प्रतिबिम्बित करनेवाला तथा उसके प्रकाश, हर्ष तथा बल में ज्ञानपूर्वक भाग लेनेवाला होगा । यह कर्म करता हुआ भी अकर्ता रहेगा और निम्न प्रकृति की कोई भी प्रतिक्रिया इसे स्पर्श नहीं करेगी । प्रकृति के तीन गुणों का अतिक्रमण इस परिवर्तन की पहली अवस्था है, इनका रूपान्तर इसकी अन्तिम सीढ़ी है । इससे कर्मों का मार्ग हमारी तमसाच्छन्न मानवीय प्रकृति की संकीर्णता के गर्त में से निकलकर उर्ध्वस्थित सत्य तथा प्रकाश के अबाध विस्तार एवं बृहत् व्योम में आरोहण करता है ।
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