योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

 

 

   प्रकृति के तीन पग

 

हम 'योग' के पिछले विकासक्रमों में एक ऐसी विशिष्टताकारी और पृथक्कारी प्रवृत्ति देखते हैं जिस की, प्रकृति की और समस्त वस्तुओं की भांति, एक अपनी समर्थक उपयोगिता ही नहीं थी बल्कि अनिवार्य उपयोगिता भी थी | हम उन सब विशिष्ट उद्देश्यों और प्रणालियों का एक समन्वय प्राप्त करना चाहते हैं जो इस प्रवृत्ति के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न हो चुके हैं । किन्तु अपने प्रयत्न में बुद्धिमत्तापूर्ण पथप्रदर्शन प्राप्त करने के लिये हमें पहले इस पृथक्कारी प्रेरणा के आधारभूत सामान्य सिद्धान्त और प्रयोजन को जान लेना चाहिये, साथ ही हमें उन विशेष उपयोगिताओं को भी जान लेना चाहिये जिन के ऊपर योग के प्रत्येक संप्रदाय की प्रणाली आधारित है । सामान्य उद्देश्य को जानने के लिये हमें 'प्रकृति' की वैश्व क्रियाओं के विषय में छान-बीन करनी चाहिये । उस के अन्दर हमें केवल विकृतिकारी 'माया' की दिखावटी और भ्रान्तिपूर्ण क्रिया को ही नहीं, बल्कि भगवान् की सर्वव्यापक सत्ता के अन्दर उन की वैश्व शक्ति और क्रिया को भी पहचान लेना चाहिये, यह क्रिया एक विशाल, असीम पर सूक्ष्म रूप में चुनाव करनेवाली प्रज्ञा को रूप देती है तथा उस के द्वारा प्रेरित होती है गीता में इसे 'प्रवृत्ति (प्रज्ञा) प्रसृता पुराणी' कहा गया है । यह प्रज्ञा आरम्भ में 'सनातन सत्ता' से निकली थी । विशेष उपयोगिताओं को जानने के लिये हमें 'योग' की विभिन्न प्रणालियों पर एक पैनी दृष्टि डालनी होगी तथा उन की बारीकियों के समूह के बीच में से उस प्रधान विचार को ढूंढ़ना होगा जिस के अधीन वे कार्य करती हैं, हमें उस में से उस मूलगत शक्ति को भी ढूंढ़ना होगा जो उन्हें चरितार्थ करनेवाली प्रक्रियाओं को जन्म एवं शक्ति देती है । इस के बाद हम उस सामान्य सिद्धान्त और सामान्य शक्ति को अधिक आसानी से ढूंढ़ सकते हैं जो सब की उत्पत्ति एवं प्रवृत्ति के स्रोत हैं, जिन की ओर सब शक्तियां अवचेतन रूप में गति करती हैं और जिनमें उन सब के लिये चेतन रूप में संयुक्त होना सम्भव है ।

 

     मनुष्य के अन्दर विकसनशील आत्माभिव्यक्ति को, जिसे आधुनिक भाषा में उस का विकास कहते हैं, तीन क्रमिक तत्त्वों पर आधारित होना चाहिये; पहला वह तत्त्व है जो पहले ही विकसित हो चुका है, दूसरा, जो लगातार चेतन विकास की अवस्था में रहता है और तीसरा जिसे विकसित होना है तथा जो प्रारम्भिक रचनाओं में या किन्हीं अन्य अधिक विकसित रचनाओं में, सतत रूप में नहीं तो कभी- कभी, एक नियमित अन्तरालपर, शायद पहले से प्रकट हो सकता है । यह भी संभव है कि वह कुछ एसे प्राणियों में — चाहे वे कितने भी विरल क्यों न

 


 

हों-प्रकट हो जो हमारी वर्तमान मनुष्य जाति की उच्चतम सम्भव उपलब्धि के निकट हैं । कारण, प्रकृति की गति एक नियमित और यांत्रिक रूप से आगे ही पग रखती हुई नहीं बढ़ती । वह सदा अपने से आगे प्रगति करती रहती है, उस समय भी जब कि उसे इस प्रगति के परिणाम-स्वरूप निराश होकर पीछे हटना पड़ता है । वह द्रुत वेग से आगे की ओर बढ़ती है । उसमें बहुत बड़े, सुन्दर और आकस्मिक विकास होते हैं, उसे बड़ी विशाल उपलब्धियां प्राप्त होती हैं । कभी- कभी वह बड़े आवेगपूर्वक इस आशा से आगे बढ़ती है कि वह स्वर्ग के राज्य को बलपूर्वक प्राप्त कर लेगी । अपने को अतिक्रान्त करने वाली उस की ये क्रियाएं उस के अंदर के उस तत्त्व को दर्शाती हैं जो अत्यधिक दिव्य है अथवा अत्यधिक आसुरी है, किन्तु दोनों दशाओं में वह इतना अधिक शक्तिशाली अवश्य है कि वह उसे द्रुत गति से आगे, उस के लक्ष्य की ओर ले जायगा ।

 

     जिस तत्त्व को प्रकृति ने हमारे लिये विकसित किया है तथा दृढ़ रूप से स्थापित किया है वह हमारा शारीरिक जीवन है । उसने पृथ्वी पर हमारे कर्म और विकास के दो निम्न तत्त्वों में किन्तु जो अधिक मूल रूप में आवश्यक हैंएक प्रकार का सहयोग एवं समन्वय स्थापित कर दिया है । एक तत्त्व है 'जड़ पदार्थ', जिससे चाहे अत्यधिक आध्यात्मिक मनुष्य घृणा ही करे पर जो हमारा आधार है तथा हमारी समस्त प्राप्तियों और उपलब्धियों की पहली शर्त है । दूसरा तत्त्व  'जीवन-शक्ति' है जो स्थूल शरीर में हमारे अस्तित्व का साधन है, यहांतक कि जो वहां हमारी मानसिक और आध्यात्मिक क्रियाओं का भी आधार है । उसने सफलतापूर्वक अपनी सतत भौतिक क्रियाओं में एक प्रकार का स्थायित्व प्राप्त कर लिया है; ये क्रियाएं पर्याप्त रूप में स्थिर एवं स्थायी हैं, साथ ही ये इतनी नमनीय एवं परिवर्तनशील भी हैं कि ये मनुष्यजाति में अधिकाधिक अभिव्यक्त होनेवाले  'भगवान्' का उचित निवासस्थान और साधन बन सकती हैं । 'ऐतरेय' उपनिषद् में एक कथा आती है जिस का यही मतलब है । उसमें कहा गया है कि जब दिव्य सत्ता ने देवताओं के सामने बारी-बारी से पशुओं के रूप उपस्थित किये तो वे उन्हें अस्वीकार करते गये, पर ज्यों ही मनुष्य उन के सामने आया, वे चिल्ला उठे : "यही वस्तु पूर्ण रचना है", और उन्होंने उसमें प्रवेश करना स्वीकार कर लिया । प्रकृति ने जड़-पदार्थ के तमस् में और उस सक्रिय जीवन में जो उस जड़-पदार्थ में निवास करता है तथा उससे पोषण प्राप्त करता है एक क्रियात्मक समझौता भी साधित कर लिया है । उस समझौते पर प्राणिक जीवन ही निर्भर नहीं करता, वरन् उस की सहायता से मन का पूर्णतम विकास भी सम्भव हो सकता है । यह सन्तुलन मनुष्य में प्रकृति की आधारभूत स्थिति की रचना करता है तथा 'योग' की भाषा में उस का स्थूल शरीर कहलाता है; यह शरीर भौतिक सत्ता अर्थात् 'अन्नकोष' और स्नायु-प्रणाली अर्थात प्राणकोष से बना है ।

 


 

     तब, यदि यह निम्न प्रकार का सन्तुलन ही उच्चतर क्रियाओं का एक आधार और प्रारम्भिक साधन हो जिसे वैश्व शक्ति ने प्रस्तुत किया है, और यदि यही उस साधन का निर्माण करता हो जिसमें भगवान् इस पृथ्वी पर अपने-आपको व्यक्त करना चाहते हैं, यदि यह भारतीय उक्ति सच्ची हो कि शरीर ही वह यंत्र है जो हमारी प्रकृति के यथार्थ नियम को चरितार्थ करने के लिये प्रदान किया गया है, तो भौतिक जीवन के किसी प्रकार के भी अन्तिम त्याग का अर्थ दिव्य प्रज्ञा की चरितार्थता से पीछे हटना होगा, साथ ही यह पार्थिव अभिव्यक्ति-सम्बन्धी उसके उद्देश्य का भी त्याग होगा । कुछ व्यक्तियों के लिये यह त्याग उनके विकास के किसी गुप्त नियम के कारण ठीक वृत्ति भी हो सकता है, किन्तु यह उद्देश्य के रूप में मनुष्यजाति के लिये कभी भी अभिप्रेत नहीं है । अतएव, ऐसा कोई भी योग पूर्णयोग नहीं हो सकता जो शरीर की उपेक्षा करे या उसके अन्त और त्याग को पूर्ण आध्यात्मिकता प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त बना दे । बल्कि, शरीर को भी पूर्ण बनाना 'आत्मा' की अन्तिम विजय होनी चाहिये और शारीरिक जीवन को दिव्य बनाना भगवान् की वह अन्तिम मुहर होनी चाहिये जो वे अपने जागतिक कार्य पर स्वयं लगाते हैं । भौतिक शरीर आध्यात्मिकता के मार्ग में बाधा खड़ी करता है यह भौतिक शरीर का त्याग करने के लिये कोई तर्क नहीं है, क्योंकि वस्तुसम्बन्धी अदृश्य भवितव्यता में हमारी सब से बड़ी कठिनाइयां हमारे सर्वश्रेष्ठ सुअवसर होती हैं । एक अत्यधिक बड़ी कठिनाई प्रकृति के इस संकेत को सूचित करती है कि हमें एक अत्यधिक बड़ी विजय प्राप्त करनी है तथा एक चरम समस्या का समाधान करना है । यह एक ऐसे विषय के सम्बन्ध में चेतावनी नहीं है जिससे बचने का प्रयत्न करना पड़े, न ही यह किसी ऐसे शत्रु के सम्बन्ध में चेतावनी है जिससे हमें भागना पड़े ।

 

     इसी प्रकार प्राणिक और स्नायविक शक्तियां भी हमारे अन्दर किसी महान् उपयोगिता के लिये ही मौजूद हैं । वे भी हमारी अन्तिम परिपूर्णता में अपनी सम्भावनाओं को दिव्य रूप में चरितार्थ करने की मांग करती हैं । विश्व-योजना में जो महान् कार्य इस तत्त्व को सौंपा गया है उसपर उपनिषदों की उदार बुद्धिमत्ता ने भी अत्यधिक बल दिया है : "जिस प्रकार पहिये के आरे उसके केन्द्र में जुड़े हुए हैं, उसी प्रकार 'जीवन-शक्ति' में त्रिविध ज्ञान, 'यज्ञ' और सबल व्यक्तियों की शक्ति और ज्ञानियों की पवित्रता स्थापित है । वह सब जो त्रिविध स्वर्ग में विद्यमान है 'जीवन-शक्ति' के नियंत्रण में है ।'' अतएव, ऐसा कोई योग 'पूर्णयोग' नहीं हो सकता जो इन स्नायविक शक्तियों को नष्ट कर दे, इनपर इस शक्तिहीन निश्चलता को जबर्दस्ती लाद दे या इन्हें हानिकारक क्रियाओं का स्रोत समझकर इनका समूल

 

 

   १प्रश्र उपनिषद २, ६ और १३

 

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नाश कर दे । इनका नाश नहीं, बल्कि इनका पवित्रीकरण, इनका रूपान्तर, इनपर नियन्त्रण एवं इनका उचित प्रयोग ही वह उद्देश्य है जो हमारे सामने है, इसी उद्देश्य के लिये इन्हें हमारे अंदर उत्पन्न एवं विकसित किया गया है ।

 

     यदि शारीरिक जीवन को ही 'प्रकृति' ने हमारे लिये, अपने आधार और प्रथम यन्त्र के रूप में दृढ़तापूर्वक विकसित किया है, तो हमारे मानसिक जीवन को वह अपने अगले पग और उच्चतर यन्त्र के रूप में विकसित कर रही है । उसके साधारण उत्कर्षों में यह उसका उच्च एवं प्रधान विचार है । उन समयों को छोड्कर जब कि वह थक जाती है तथा विश्राम और शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिये अंधकार में चली जाती है, अन्य समय उसका सदा यही लक्ष्य रहता है, पर ऐसा वहीं होता है जहां वह अपनी प्रथम प्राणिक और शारीरिक उपलब्धियों के जालों से मुक्त हो सकती है । कारण, यहां मनुष्य में अन्य प्राणियों से एक ऐसी विभिन्नता है जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । उसके अंदर केवल एक मन नहीं, बल्कि द्विविध और त्रिविध मन हैं, भौतिक और स्नायविक मन, विशुद्ध बौद्धिक मन जो शरीर और इन्द्रियों की भ्रांतियों से अपने-आपको मुक्त कर लेता है और तीसरा, बुद्धि से ऊपर दिव्य मन जो तार्किक रूप से विवेक और कल्पनापूर्ण बुद्धि की अपूर्ण विधियों से अपने-आपको मुक्त कर लेता है । मनुष्य में मन सर्वप्रथम शारीरिक जीवन में आवृत रहता है, वनस्पति में वह पूर्ण रूप से छिपा रहता है और पशु में वह सदा बन्दी बना रहता है । वह इस जीवन को अपनी क्रियाओं की पहली शर्त के रूप में ही नहीं, वरन् समस्त शर्त के रूप में भी स्वीकार करता है तथा अपनी आवश्यकताओं को इस प्रकार पूर्ण करने का प्रयत्न करता है मानो वही जीवन का संपूर्ण उद्देश्य हों । किन्तु मनुष्य का शारीरिक जीवन एक आधार है, उद्देश्य नहीं, उसकी पहली अवस्था है, अन्तिम और निर्धारक अवस्था नहीं । प्राचीन लोगों के यथार्थ विचार में मनुष्य मूल रूप से विचारक है, विचारशील प्राणी है, 'मनु' है, एक मानसिक सत्ता है जो प्राण और शरीर को गति देती है, वह पशु नहीं है जो उनके द्वारा चालित होता है । इसलिये, सच्चा मानवीय जीवन केवल तभी शुरू होता है जब कि बौद्धिक मन जड़ पदार्थ में से प्रकट होता है, जब हम स्नायविक और भौतिक आक्रमण से मुक्त होकर मन में अधिकाधिक निवास करने लगते हैं और जिस हद तक वह मुक्ति हमें प्राप्त होती है उस हद तक हम शारीरिक जीवन को यथार्थ रूप में स्वीकार कर सकते हैं तथा उसका यथार्थ प्रयोग करने में समर्थ होते हैं । कारण, स्वामित्व प्राप्त करने के लिये एक निपुण अधीनता नहीं, वरन् स्वतन्त्रता ही सच्चा साधन है । अपनी भौतिक सत्ता की अवस्थाओं को, विस्तृत एवं उन्नत अवस्थाओं को जबरदस्ती से नहीं, बल्कि स्वतन्त्रतापूर्वक स्वीकार करना ही उच्च मानवीय आदर्श है ।

 

  मनोमय: प्राणशरीरनेतामुण्डक उपनिषद् २, २, ७.

 

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     इस प्रकार विकसित होता हुआ मनुष्य का मानसिक जीवन वस्तुत: सब के अन्दर एक-सा नहीं होता; बाह्य रूप से देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ व्यक्तियों में ही यह अत्यधिक पूर्ण रूप से विकसित है, जब कि बहुत से लोगों में, अधिकतर लोगों में, यह या तो उनकी सामान्य प्रकृति का एक छोटा-सा अंग होता है जो भली प्रकार व्यवस्थित भी नहीं होता या बिल्कुल ही विकसित नहीं होता, या फिर यह उनमें प्रसुप्त अवस्था में होता है तथा सरलता से सक्रिय नहीं बनाया जा सकता । निश्चय ही मानसिक जीवन प्रकृति का अन्तिम विकास नहीं है । यह अभीतक मानव-प्राणी में दृढ़तापूर्वक स्थापित भी नहीं हुआ । इसका संकेत हमें इस बात से मिलता है कि प्राण-शक्ति और जड़-पदार्थ का उत्कृष्ट एवं पूर्ण सन्तुलन और स्वस्थ, सबल एवं दीर्घ आयुवाला मानव-शरीर साधारणतया उन्हीं जातियों या समुदायों में पाया जाता है जो चिन्तन के प्रयत्न को, उससे उत्पन्न होनेवाली क्षुब्धता एवं खिंचाव को अस्वीकार कर देते हैं अथवा जो केवल स्थूल मन से ही सोचते हैं । सभ्य मनुष्य को अभी पूर्ण सक्रिय मन और शरीर में सन्तुलन स्थापित करना है, सामान्यतया यह सन्तुलन उसमें अभी नहीं है । वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता है कि एक अधिक तीव्र प्रकार के मानसिक जीवन के लिये किया गया अधिकाधिक प्रयत्न प्रायः ही मानवी तत्त्वों में अधिकाधिक असन्तुलन पैदा कर देता है, जिसके परिणाम-स्वरूप प्रसिद्ध वैज्ञानिक मनीषी प्रतिभा को एक प्रकार का पागलपन कहने लगते हैं तथा उसे हृास का, प्रकृति की अस्वस्थ विकृति का परिणाम मानने लगते हैं । पर जो तथ्य इस अतिशयोक्ति को उचित ठहराने के लिये प्रयुक्त किये जाते हैं उन्हें यदि अलग-अलग न लेकर अन्य समस्त यथार्थ स्वीकृत तथ्यों के साथ लिया जाय, तो वे एक भिन्न सत्य की ओर संकेत करते हैं । प्रतिभा वैश्व शक्ति का एक प्रयत्न है; यह हमारी बौद्धिक शक्तियों को इस हद तक वेग एवं तीव्रता प्रदान करता है कि वे उन अधिक सबल, प्रत्यक्ष और द्रुत सामर्थ्यों के लिये तैयार हो जायं जो अतिबौद्धिक या दिव्य मन की क्रीड़ा होती है । तब यह एक सनक या एक अवर्णनीय तथ्यमात्र नहीं रहता, बल्कि यह प्रकृति के विकास की सीधी दिशा में एक पूर्णतया स्वाभाविक अगला कदम बन जाता है । प्रकृति ने शारीरिक जीवन और स्थूल मन में सुसंगति स्थापित कर दी है, वह उसमें और बौद्धिक मन की क्रीड़ा में भी सुसंगति स्थापित कर रही है । कारण, यद्यपि उसका कार्य पूर्णतया पाशव और प्राणिक शक्ति को कम करना होता है, तो भी वह किसी सक्रिय अस्तव्यस्तता को न तो उत्पन्न करती है और न उसे ऐसा करने की आवश्यकता ही पड़ती है । पर अभी भी वह द्रुत वेग से आगे की ही ओर बढ़ रही है, यह उसका पहले से अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंचने का एक प्रयत्न है; उसकी प्रक्रिया से उत्पन्न अस्तव्यस्तताएं इतनी बड़ी नहीं होतीं जितनी कि वे मानी जाती हैं । उनमेंसे कुछ तो नयी अभिव्यक्तियों के स्थूल प्रारम्भिक प्रयास हैं और कुछ विघटन की ऐसी क्रियाएं

 

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हैं जो आसानी से ठीक कर ली गयी हैं तथा जो प्रायः ही नयी क्रियाओं को जन्म देती हैं और सदा ही उन दूर तक पहुंचनेवाले प्रकृति के लक्ष्यभूत परिणामों का केवल थोड़ा-सा ही मूल्य चुकाती हैं ।

 

     यदि हम समस्त परिस्थितियों पर विचार करें तो हम शायद इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मानसिक जीवन मनुष्य के अन्दर कोई हाल में ही प्रकट नहीं हुआ, बल्कि वह पहली उपलब्धि की ही द्रुत पुनरावृत्ति है जिससे च्युत होकर जाति की 'शक्ति 'खेदजनक रूप में हृास को प्राप्त हो गयी थी । बर्बर जाति का मनुष्य शायद उतना सभ्य मनुष्य का पहला पूर्वज नहीं है जितना कि वह किसी पूर्व- सभ्यता का हीन-वंशज है । कारण, यदि वास्तविक बौद्धिक उपलब्धि असमान रूप से विभाजित है तो भी उसकी क्षमता सर्वत्र अवश्य फैली हुई है । यह देखा जा चुका है कि व्यक्तिगत दृष्टान्त में जो जाति अत्यधिक निम्न समझी जाती है, उदाहरणार्थ, मध्य-अफ्रीका की चिरन्तन बर्बर जातियों से उत्पन्न नये हब्शी, वह भी बौद्धिक संस्कृति का अनुसरण करने में समर्थ है, और इसके लिये उसमें रक्त के मिश्रण की आवश्यकता नहीं है, न ही इसके लिये उसे भावी पीढ़ियों तक ठहरने की जरूरत है, हां, प्रधान यूरोपीय संस्कृति की बौद्धिक क्षमता को पाने में वह अभी असमर्थ है । जन-समुदाय में भी मनुष्यों को अनुकूल परिस्थितयां मिलने पर उस उपलब्धि के लिये केवल कुछ ही पीढ़ियों की आवश्यकता प्रतीत होती है जिसे पाने के लिये बाह्य रूप से हजारों वर्ष लग सकते हैं । अतएव, या तो मनुष्य मनोमय प्राणी बननेका गौरव प्राप्त होने के कारण विकास के मंद नियमों के पूरे बोझ से मुक्त हो गया है, या फिर वह पहले से ही भौतिक योग्यता के एक ऊंचे स्तर का प्रतिनिधित्व करता है और यदि उसे सहायक अवस्थाएं और उचित उत्साहवर्धक वातावरण प्राप्त हो जायें, तो वह सदा ही बौद्धिक जीवन के कार्य के लिये इस योग्यता का प्रदर्शन कर सकता है । बर्बर मनुष्य की उत्पत्ति मानसिक अयोग्यता से नहीं होती, बल्कि अवसर को लंबे समय तक खोते रहने या उससे अलग रहने से तथा जागृत करनेवाली प्रेरणा को स्वीकार न करने से होती है । बर्बरता एक मध्यवर्ती निद्रा है, मूल अंधकार नहीं ।

 

     इसके अतिरिक्त, आधुनिक विचार और आधुनिक प्रयत्न की सारी प्रवृत्ति ही निरीक्षक की दृष्टि को यह बताती है कि वह मनुष्य के अन्दर प्रकृति का एक ऐसा विशाल और चेतन प्रयत्न है जिसका कार्य बौद्धिक साधन और योग्यता के एक सामान्य स्तर को तथा आगे की सम्भावना को चरितार्थ करना है, ऐसा वह उन अवसरों को, जिन्हें आधुनिक सभ्यता मानसिक जीवन को प्रदान करती है, सर्वसुलभ करके करना चाहती है । यूरोपीय बुद्धि जो इस प्रवृत्ति की विशेष समर्थक है तथा जो स्थूल प्रकृति और जीवन की बाह्य क्रियाओं में व्यस्त रहती है इसी प्रयत्न का एक आवश्यक अंग है | यह मनुष्य की भौतिक सत्ता में, उसके प्राणिक

 

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और भौतिक वातावरण में उसकी पूर्ण मानसिक सम्भावनाओं के लिये एक पर्याप्त आधार तैयार करना चाहती है । शिक्षा का विस्तार, पिछड़ी जातियों की उन्नति, दलित वर्गों का उत्कर्ष, श्रम से बचने के साधनों की बहुलता, आदर्श सामाजिक और आर्थिक अवस्थाओं की ओर प्रगति तथा सभ्य मनुष्यजाति में उन्नत स्वास्थ्य, दीर्घ आयु एवं नीरोग शरीर की प्राप्ति के लिये विज्ञान का प्रयासये सब इस प्रवृत्ति के अर्थ और इसकी दिशा को व्यक्त करते हैं; ये इसके ऐसे संकेत हैं जो आसानी से समझ में आ सकते हैं । यथार्थ साधनों का या कम-से-कम अन्तिम साधनों का प्रयोग सदा न भी किया जाय, तो भी उनका उद्देश्य एक यथार्थ प्रारम्भिक उद्देश्य अवश्य है, यह उद्देश्य है एक स्वस्थ वैयक्तिक और सामाजिक संगठन तथा स्थूल मन की उचित आवश्यकताओं और मांगों की तुष्टि, पर्याप्त सहजता, अवकाश और समान अवसर । इसके परिणाम-स्वरूप भगवान् की एक विशेष कृपापात्र जाति, वर्ग या व्यक्ति नहीं, बल्कि समस्त मनुष्यजाति अपनी भाविक और बौद्धिक सत्ता को उसकी पूर्णतम योग्यता तक विकसित करने के लिये स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सकेगी । वर्तमान समय में भौतिक और आर्थिक उद्देश्य की प्रधानता हो सकती है, किन्तु पृष्ठभूमि में सदा ही उच्चतर और प्रमुख प्रेरणा कार्य करती है या अतिरिक्त शक्ति के रूप में प्रतीक्षा करती है ।

 

     पर जब प्रारम्भिक शर्तें पूरी हो जायं और इस महान् प्रयत्न को अपना अधिकार मिल जाय, तो उसके आगे की सम्भावना का क्या स्वरूप होगा जिसकी चरितार्थता के लिये बौद्धिक जीवन की क्रियाओं को काम करना होगा? यदि 'मन' सचमुच ही 'प्रकृति' का उच्चतम तथ्य है तो तार्किक और कल्पनाकारी बुद्धि के समस्त विकास को और भावों और सम्बेदनों की सामंजस्यपूर्ण पुष्टि को अपने-आपमें पर्याप्त होना चाहिये । किन्तु, इसके विपरीत, यदि मनुष्य एक तर्कशील और भावुक प्राणी से कुछ अधिक है, जो कुछ विकसित हो रहा है उससे आगे भी यदि कोई और वस्तु है जिसे विकसित करना है तो यह बिल्कुल सम्भव है कि मानसिक जीवन की पूर्णता, बुद्धि की लचक, नमनीयता और विस्तृत योग्यता, भाव और सम्बेदना का व्यवस्थित प्राचुर्य एक उच्चतर जीवन और अधिक शक्तिशाली सामर्थ्यों के विकास की ओर केवल एक मार्ग होगा; इन सामर्थ्यों को अभिव्यक्त होना है तथा निम्न यन्त्र को उसी प्रकार अपने अधिकार में करना है जिस प्रकार मन ने शरीर पर अपना ऐसा अधिकार स्थापित कर लिया है कि भौतिक सत्ता अब केवल अपनी सृष्टि के लिये ही अपना अस्तित्व नहीं रखती, बल्कि एक उच्चतर क्रिया के लिये आधार और उपादान भी प्रस्तुत करती है ।

 

     मानसिक जीवन से एक अधिक उच्चतर जीवन की स्थापना ही भारतीय दर्शन का समस्त आधार है और इसे प्राप्त एवं संगठित करने का कार्य ही वह सच्चा उद्देश्य है जिसे चरितार्थ करने के लिये योग की प्रणालियां प्रयुक्त की जाती हैं ।

 

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मन विकास की अन्तिम अवस्था नहीं है, न ही वह उसका अन्तिम लक्ष्य है | वह शरीर के समान ही एक यन्त्रमात्र है, बल्कि योग की भाषा में उसे आन्तरिक यन्त्र कहा जाता है । भारतीय परम्परा इस बात की पुष्टि करती है कि जो वस्तु हमें प्राप्त करनी है वह मानवी अनुभव में कोई नयी वस्तु नहीं, बल्कि वह पहले भी विकसित हो चुकी है, यहां तक कि उसने मनुष्यजाति पर उसके विकास के कुछ युगों में शासन भी किया है । जो भी हो, किसी समय वह आंशिक रूप में अवश्य ही विकसित हुई होगी, केवल तभी वह जानी जा सकती थी । और, यदि प्रकृति अब अपनी इस उपलब्धि से च्युत हो गयी है, तो इसका कारण सदा यही होगा कि कहीं कोई समन्वय साधित नहीं हुआ या बौद्धिक और भौतिक आधार कुछ हद तक अपर्याप्त रह गया जिसकी ओर अब वह लौट आयी है; या फिर निम्न जीवन को नुकसान पहुंचाकर उच्चतर जीवन पर विशेष बल देना भी एक कारण हो सकता है ।

 

     तो फिर वह उच्चतर या उच्चतम जीवन क्या है जिसकी ओर हमारा विकास बढ़ रहा है ? इस प्रश्र का उत्तर देने के लिये हमें उच्चतम अनुभवों की श्रेणी को, असाधारण विचारों की श्रेणी को अपने हाथ में लेना होगा, इन सबको प्राचीन संस्कृत भाषा के सिवाय किसी और भाषा में ठीक-ठीक व्यक्त करना कठिन है, क्योंकि ये केवल उसी भाषा में कुछ हद तक क्रमबद्ध किये गये हैं । अंगरेजी भाषा में जो निकट शब्द हैं वे और बातों के साथ भी सम्बन्धित हैं और उनका प्रयोग बहुत-सी अशुद्धियों को ही नहीं, बल्कि गंभीर अशुद्धियों को भी उत्पन्न कर सकता है । योग की पारिभाषिक शब्द-सूची में हमारी भौतिक-प्राणिक सत्ता का नाम आता है, जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और जो अन्नकोष और प्राणकोषदो वस्तुओं से निर्मित है । उसमें हमारी मानसिक सत्ता का भी नाम है, यह सूक्ष्म शरीर है तथा केवल एक चीज से अर्थात् मनोमय कोष से बना है; पर इनके साथ-साथ उसमें एक तीसरा अर्थात् अतिमानसिक सत्ता का सर्वोच्च और दिव्य स्तर भी है जिसे कारण-शरीर कहते हैं तथा जो चौथे और पांचवें कोष से बना है जिन्हें विज्ञानकोष और आनन्दकोष कहा जाता है । किन्तु यह विज्ञान अथवा ज्ञान मानसिक प्रश्रों और तर्कों का कोई क्रमबद्ध परिणाम नहीं, न यह निष्कर्षों और मतों की कोई ऐसी अस्थायी अवस्था ही है जो उच्चतम सम्भावना की परिभाषाओं में वर्णित की गयी है, बल्कि यह एक विशुद्ध सत्य है, जो स्वयंभू और स्वयंप्रकाशमान है । यह आनन्द भी हृदय और संवेदनों का कोई बहुत बडा सुख नहीं जिसके पीछे दुःख और कष्ट विद्यमान हों, वरन् यह एक ऐसा आनन्द है जो स्वयंभू है तथा बाह्य वस्तुओं औरं किन्हीं विशेष अनुभूतियों से स्वतन्त्र अपना अस्तित्व रखता है । यह

 

 अन्त:करण

 

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एक ऐसा आत्मानन्द है जो एक परात्पर और असीम सत्ता का स्वभाव है, बल्कि यह उसका सारतत्त्व है ।

 

     क्या ऐसे मनोवैज्ञानिक विचार किसी वास्तविक और सम्भव वस्तु के साथ सम्बन्ध रखते हैं ? समस्त योग ही इन्हें अपनी अन्तिम अनुभूति और सर्वोच्च लक्ष्य मानता है । ये हमारी चेतना की उच्चतम सम्भव अवस्था को, हमारे अस्तित्व के अधिकतम विस्तृत क्षेत्र को शासित करनेवाले नियम हैं । हमारे विचार में उच्चतम योग्यताओं का एक समन्वय है; ये योग्यताएं कुछ हद तक सत्य दृष्टि, दैवी प्रेरणा और सहजज्ञान की मनोवैज्ञानिक योग्यताओं से साम्य रखती हैं, पर फिर भी ये सहजज्ञानयुक्त बुद्धि या दिव्य मन में कार्य नहीं करतीं, बल्कि इनसे एक उच्चतर स्तर पर कार्य करती हैं । ये सत्य को प्रत्यक्ष रूप में देखती हैं, बल्कि वस्तुओं के वैश्व और परात्पर सत्य में निवास करती हैं तथा उसकी रचना एवं प्रकाशपूर्ण क्रिया होती हैं । ये शक्तियां एक ऐसे चेतन अस्तित्व का प्रकाश हैं जो अहंभावयुक्त अस्तित्व को लांघ जाता है और जो स्वयं वैश्व और परात्पर दोनों है, इसका स्वभाव है आनन्द । ये स्पष्ट ही दिव्य हैं और जैसा कि मनुष्य आजकल प्रत्यक्ष रूप में बना हुआ है उसे देखते हुए ये चेतना और क्रिया की अतिमानसिक अवस्थाएं हैं । परात्पर अस्तित्व, आत्म-बोध और आत्म-आनन्द ये तीनों सचमुच ही सर्वोच्च 'आत्मा' की दार्शनिक रूप में व्याख्या करते हैं, और हमारे जाग्रत् ज्ञान के सामने अज्ञेय तत्त्व की रचना करते हैं, चाहे उस अज्ञेय को हम शुद्ध निर्व्यक्तिक सत्ता के रूप में मानें या जगत् को व्यक्त करनेवाले विश्वव्यापी व्यक्तित्व के रूप में । किन्तु योग में ये अपने मनोवैज्ञानिक पक्षों में आभ्यन्तरिक अस्तित्व की अवस्थाएं मानी जाती हैं जिन्हें हमारी जागृत चेतना इस समय नहीं जानती, किन्तु जो हमारे अन्दर एक अतिचेतन स्तर पर निवास करती हैं और इसीलिये जिनकी ओर हम सदा ही आरोहण कर सकते हैं ।

 

     'कारण-शरीर' इस शब्द से जो कुछ सूचित होता है उसके अनुसार, इस शरीर के लिये यह सर्वोच्च अभिव्यक्ति उस सबका स्रोत और प्रभावकारी शक्ति है जो वास्तविक विकासक्रम में उससे पहले आया है, जब कि दूसरे दो शरीरों के सम्बन्ध में, जो यन्त्र अर्थात् करण हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता । हमारी मानसिक क्रियाएं दिव्य ज्ञान से उत्पन्न हुई हैं तथा उसीमें से उनका चयन किया गया है और जबतक वे उस सत्य से जो गुप्त रूप में उनका स्रोत है अलग रहती हैं तबतक वे दिव्य ज्ञान की विकृतिमात्र होती हैं । हमारे सम्वेदन और आवेग का भी 'परमानन्द' के साथ यही सम्बन्ध है; हमारी स्नायविक शक्तियों और कार्यों का दिव्य चेतनाद्वारा धारण की हुई 'संकल्प-शक्ति ' और 'सामर्थ्य' के पक्ष के साथ तथा हमारी भौतिक

 

  १ सच्चिदानन्द

 

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सत्ता का उस 'परमानन्द' और 'चेतना' के विशुद्ध सार के साथ भी यही सम्बन्ध है । जिस विकास को हम अपने सामने देखते हैं तथा इस जगत् में हम जिसके सर्वोच्च रूप हैं उसे एक अर्थ में एक विपरीत अभिव्यक्ति माना जा सकता है । इस अभिव्यक्ति के द्वारा ही ये 'शक्तियां' अपनी एकता और विभिन्नता में, अपूर्ण सार- पदार्थ का तथा 'जड़-पदार्थ', 'प्राण' और 'मन' की क्रियाओं का प्रयोग करती हैं, उन्हें विकसित करती हैं तथा पूर्ण बनाती हैं जिससे कि वे उन दिव्य और सनातन अवस्थाओं के बढ़ते हुए सामंजस्य को जिनसे वे उत्पन्न हुई हैं एक परिवर्तनशील और अपेक्षित ढंग में व्यक्त कर सकें । यदि यही विश्व का सत्य हो तो विकास का लक्ष्य ही उसका कारण भी है, यही उसके तत्त्व में अन्तर्निहित है और उन्हींसे यह प्रस्फुटित भी होता है । किन्तु यह प्रस्फुटन यदि केवल बचने का एक तरीकामात्र है और, अपनेको धारण करनेवाले सारपदार्थ और उसकी क्रियाओं की ओर उन्हें उन्नत और रूपांतरित करने के लिये नहीं मुड़ता तो यह निश्चय ही अपूर्ण है । इस अन्तर्वर्ती अवस्था को अपने अस्तित्व के लिये कोई विश्वसनीय कारण नहीं मिलेगा, यदि इसका अन्तिम कार्य ऐसे रूपान्तर को साधित करना न हो । किन्तु यदि मानव-मन दिव्य 'प्रकाश' के वैभव को ग्रहण करने में समर्थ हो तो मानव भावना और सम्वेदन को इस ढांचे में रूपान्तरित किया जा सकता है और वे सर्वोच्च आनन्द की मात्रा और क्रिया को ग्रहण कर सकते हैं । यदि मानव कर्म एक दिव्य और निरभिमान 'शक्ति' की क्रिया का केवल प्रतिनिधित्व ही नहीं करता, वरन् अपने- आपको उस क्रिया से अभिन्न अनुभव भी करता है, यदि हमारी सत्ता का भौतिक तत्त्व सर्वोच्च सत्ता की पवित्रता में काफी भाग लेता है, और इन उच्चतम अनुभवों और साधनों को सहायता देने तथा इन्हें अधिक समय तक स्थिर रखने के लिये अपने अन्दर नमनीयता और स्थायी दृढ़ता को काफी मात्रां में एकत्रित करता है तो  'प्रकृति' के समस्त लम्बे परिश्रम का अन्त एक अत्यधिक बड़ी सफलता में होगा और उसके विकासक्रम अपने गहन अर्थ को प्रकट कर देंगे ।

 

     इस सर्वोच्च जीवन की एक झांकी भी इतनी चकाचौंध उत्पन्न करनेवाली है तथा इसका आकर्षण इतना व्यस्तकारी है कि यह यदि एक बार भी दृष्टि में आ जाय और इसके पाने के प्रयत्न में और सब कुछ छोड़ देना भी पड़े तो भी हम उसे उचित ही मानेंगे । जो विचार सब वस्तुओं को 'मन' में निहित मानता है तथा मानसिक जीवन को ही एकमात्र आदर्श समझता है, उस विरोधी और अतिशयोक्तिपूर्ण विचार के कारण हम मन को एक अयोग्य विकृति, एक बहुत बड़ी बाधा, भ्रान्तिपूर्ण विश्व का स्रोत तथा 'सत्य' का निषेध मानने लगते हैं । वस्तुत: हम ऐसे मन के अस्तित्व से ही इन्कार कर देंगे और यदि हम अन्तिम रूप में मुक्त होना चाहते हैं तो उसके समस्त कार्य और परिणाम भी विनष्ट हो जायंगे । किन्तु यह एक अर्ध सत्य है और इसकी भूल यह है कि यह केवल 'मन' की

 

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सीमाओं पर ही ध्यान देता है, और उसके दिव्य प्रयोजन की उपेक्षा कर देता है । अन्तिम ज्ञान वह है जो भगवान् को विश्व में और साथ ही विश्व के परे भी देखता है और स्वीकार करता है । पूर्णयोग वह है जो 'परात्पर सत्ता ' को प्राप्त करके विश्व की ओर लौट आता है तथा उसे अधिकृत कर लेता है, उसके पास यह शक्ति रहती है कि वह अस्तित्व की महान् सीढ़ी पर स्वतन्त्रतापूर्वक चढ़-उतर ले । कारण, यदि सनातन 'प्रज्ञा' का अस्तित्व है तो मन की सामर्थ्य का भी कोई उच्च उपयोग और भविष्य होगा ही । इस उपयोग को उस स्तर एवं भूमिका पर निर्भर होना चाहिये जो उसे आरोहण में प्राप्त है और उस भविष्य का अर्थ भी परिपूर्णता और सूपान्तर होना चाहिये, उन्मूलन और विनाश नहीं|

 

अतएव, हम प्रकृति में ये तीन क्रमिक अवस्थाएं देखते हैं : शारीरिक जीवन, जो यहां भौतिक जगत् में हमारे अस्तित्व की आधारशिला है; मानसिक जीवन, जिसमें हम अभिव्यक्त होते हैं और जिसकी सहायता से हम शारीरिक जीवन का अधिक उच्च प्रयोग़ करते हैं तथा उसे एक महत्तर पूर्णता में विकसित कर लेते हैं; दिव्य जीवन, जो इन दोनों का ही लक्ष्य है और जो इनकी ओर मुड़कर इन्हें इनकी उच्चतम सम्भावनाओं में उन्मुक्त करता है । क्योंकि हम इनमेंसे किसीको भी न तो अपनी पहुंच के बाहर समझते हैं और न अपनी प्रकृति से नीचे दर्जे की चीज समझते हैं और न ही इनमेंसे किसीके विनाश को अन्तिम उपलब्धि के लिये आवश्यक समझते हैं, हम इस मुक्ति और परिपूर्णता को कम-से-कम योग के लक्ष्य का एक अंग, बल्कि एक बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं ।

 

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