Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
भाग ३
भगवत्प्रेम का योग
अध्याय १
प्रेम और त्रिमार्ग
मानव-प्रकृति और मानव-जीवन में इच्छा, ज्ञान और प्रेम तीन दिव्य शक्तियां हैं । ये उन तीन मार्गों की सूचक हैं जिनसे मानव-आत्मा भगवान् की ओर आरोहण करती है । अतएव, जैसा कि हम देख चुके हैं, इन तीनों की सम्मिलित परिपूर्णता, इन तीनों में मनुष्य का भगवान् सें मिलन ही पूर्णयोग की नींव है ।
कर्म जीवन की प्रमुख शक्ति है । प्रकृति पहले शक्ति और उसके कर्मों को हाथ में लेती है जो मनुष्य में सचेतन होकर इच्छाशक्ति और उसकी सफलताओं का रूप धारण कर लेते हैं; इसीलिये हम देखते हैं कि अपने कर्म को भगवान् की ओर मोड़ देने पर मनुष्य का जीवन सुचारु और सुनिश्चित रूप से दिव्य बनने लगता है । यह प्रथम प्रवेश का द्वार है, दीक्षा का श्रीगणेश है । जब उसकी इच्छा भगवान् की इच्छा के साथ एक हो जाती है और सत्ता का सम्पूर्ण कर्म भगवान् से प्रवाहित होता और भगवान् को लक्ष्य में रखकर किया जाता है, तब 'कर्मों में मिलन' पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाता है । परन्तु कर्म ज्ञान में ही चरितार्थ होते हैं; गीता कहती है कि सारे-के-सारे कर्म ज्ञान में परिसमाप्त होते हैं, सर्वं कर्माखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते । इच्छाशक्ति और कर्मों में मिलन होने पर हम उन सर्वव्यापक चिन्मय पुरुष के साथ एकमय हो जाते हैं जिनसे हमारी सम्पूर्ण इच्छाशक्ति और कर्म उद्भूत होते हैं और अपना बल आहरण करते हैं और जिनमें वे अपनी शक्तियों का चक्र पूरा करते हैं । इस मिलन का मुकुट है प्रेम; कारण, जिन परम पुरुष में हम रहते-सहते, चलते-फिरते और काम-काज करते हैं, जिनके आश्रय पर हमारी सत्ता स्थित है, जिनके लिये ही हम अन्त में काम करना और अस्तित्व में रहना सीखते हैं, उनके साथ सचेतन मिलन से उत्पन्न आनन्द को ही प्रेम कहते हैं । यही है हमारी शक्तियों का त्रिक, तीनों का भगवान् में संगम । जब हम कर्मों को अपने प्रवेशपथ और अपने मिलन-मार्ग के रूप में अपनाकर अपनी यात्रा शुरू करते हैं तब हम इसी त्रिवेणी पर पहुंचते हैं ।
भगवान् में नित्य निवास की नींव है ज्ञान । कारण, समस्त जीवन और अस्तित्व की नींव है चेतना, और ज्ञान चेतना की एक क्रिया का ही नाम है । ज्ञान वह प्रकाश है जिससे चेतना अपने-आपको तथा अपने तथ्यों को जानती है, वह शक्ति है जिससे हम, कर्म से प्रारम्भ करके, विचार और क्रिया के आन्तरिक परिणामों को अपनी चेतन सत्ता के दृढ़ विकास के भीतर धारण करने में समर्थ होते हैं । इस प्रकार अन्त में हमारी सत्ता, मिलन के द्वारा, दिव्य सत्ता की अनन्तता में अपनी पूर्णता प्राप्त करती है । भगवान् हमें अनेक रूपों में दर्शन देते हैं और उनमें से
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प्रत्येक की कुंजी है ज्ञान; फलत:, ज्ञान से हम अनन्त एवं भगवान् में सर्वभाव से (सर्वभावेन)१ प्रवेश करते तथा उन्हें अधिकृत करते हैं, उन्हें सर्वभाव से अपने अन्दर ग्रहण करते तथा उनसे अधिकृत होते हैं ।
ज्ञान के बिना हम, प्रकृति की शक्ति की अन्धता में ग्रस्त होकर, अन्धभाव से भगवान् में निवास करते हैं । प्रकृति की शक्ति अपने कामों में व्यस्त है, पर अपने मूलस्रोत और स्वामी को भूली हुई है । इस प्रकार हम भगवान् के अन्दर अदिव्य ढंग से वास करने के कारण अपनी सत्ता के सच्चे एवं पूर्ण आनन्द से वंचित रहते हैं । ज्ञान से ज्ञेय के साथ सचेतन एकत्व प्राप्त होता है, -क्योंकि पूर्ण और सच्चा ज्ञान तादात्म्य के आश्रय पर ही स्थित रह सकता है; ऐसे ज्ञान से भेदभाव दूर होता है और हमारी सारी संकीर्णता, विषमता, दुर्बलता तथा तृष्णा समूल नष्ट हो जाती है । परन्तु ज्ञान कर्मों के बिना पूर्ण नहीं होता; क्योंकि केवल पुरुष या उसकी आत्म-सचेतन प्रशान्त सत्ता ईश्वर नहीं है, बल्कि पुरुष में निहित परम इच्छाशक्ति भी ईश्वर ही है; अतः यदि कर्म ज्ञान में परिसमाप्त होते हैं तो ज्ञान भी कर्मों में चरितार्थ होता है । यहां भी, प्रेम ज्ञान का मुकुट है; क्योंकि प्रेम है मिलन का आनन्द; एकत्व को अपने आनन्द का अशेष ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये मिलन के हर्ष से सचेतन होना होगा । अवश्य ही पूर्ण ज्ञान का फल होता है पूर्ण प्रेम, सर्वांग ज्ञान का फल होता है प्रेम का परिपूर्ण एवं बहुल ऐश्वर्य । गीता कहती है, ''जो मुझे पुरुषोत्तम के रूप में जानता है--केवल इस रूप में नहीं कि मैं अक्षर एकत्व हूं वरन् भगवान् की अनेकात्मक गति के रूप में (क्षर रूप में) भी और उस रूप में भी जो क्षर-अक्षर दोनों से उत्तम है, जिसमें दोनों दिव्य ढंग से धारित हैं, --वह पूर्ण ज्ञान से युक्त होने के कारण प्रेम के द्वारा सर्वात्मना मुझे ही खोजता है, वह सर्ववित् सर्वभाव से मुझे ही भजता है''२ यह है हमारी शक्तियों का त्रिक, तीनों का भगवान् में संगम, जब हम ज्ञानमार्ग सें अपनी यात्रा शुरू करते हैं तब हम इसी त्रिवेणी पर पहुंचते हैं ।
प्रेम समस्त सत्ता का किरीट और उसकी परिपूर्णता का पथ है; इसीसे सत्ता चरम आत्म-अन्वेषण की समस्त तीव्रता और सम्पूर्ण सम्पदा तथा आनन्दोल्लास की ओर आरोहण करती है । यद्यपि परम सत् का साक्षात् स्वरूप है चित्, और चेतना से ही, अर्थात् एकात्मता में कृतार्थ होनेवाले पूर्ण ज्ञान से ही, हम उसके साथ एकाकार होते हैं, तथापि चेतना का स्वरूप ही है आनन्द, और आनन्द के शिखर
१ गीता १५- १९
२ यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ।।
यो मामेवमसह्य्म्युधो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद भजति मां सर्वभावेन भारत ।। गीता १५. १८-१९
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की कुंजी एवं रहस्य है प्रेम । इच्छा चेतन सत्ता की एक ऐसी शक्ति है जिससे यह अपनेको चरितार्थ करती है और इच्छाशक्ति में एकत्व स्थापित करके ही हम परम सत्ता के साथ उसकी स्वाभाविक अनन्त शक्ति में एकाकार होते हैं । ऐसा होते हुए भी, उस शक्ति के सभी कर्म आनन्द से उत्पन्न होते एवं आनन्द में निवास करते हैं और आनन्द ही है उनका लक्ष्य एवं परिणति; शुद्ध परम सत् से और उसकी चेतन-शक्ति द्वारा अभिव्यक्त सब रूपों से प्रेम करना ही आनन्द की पूर्ण विशालता का पथ है । प्रेम है दिव्य आत्म-आनन्द का वेग और मद और प्रेम के बिना हम सत् की अनन्तता की मुग्ध शान्ति, आनन्द की लवलीन नीरवता भले ही प्राप्त कर लें पर उसकी ऐश्वर्य-सम्पदा की अथाह गहराईतक नहीं पहुंच सकते । प्रेम हमें विरह के दुःख से ले चलकर पूर्ण मिलन के आनन्दतक पहुंचाता है, पर साथ ही हम मिलन की क्रिया के उस हर्ष को भी नहीं खोते जो आत्मा की सबसे बड़ी खोज है और जिसके लिये संसार का जीवन एक लंबी तैयारी है । इसलिये प्रेममार्ग से भगवान्तक पहुंचना अपने-आपको यावत्सम्भव सबसे महान् आध्यात्मिक परिपूर्णता के लिये तैयार करना है ।
प्रेम कृतार्थ होकर ज्ञान का बहिष्कार नहीं कर डालता, बल्कि स्वयं ज्ञान को उत्पन्न करता है; ज्ञान जितना ही अधिक पूर्ण होता है, प्रेम की सम्भावना उतनी ही अधिक समृद्ध होती है । गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, ''भक्ति से मनुष्य मुझे पूर्ण रूप से जान लेता है--मैं तत्त्वत: जितना और जो कुछ भी हूं--अपने सम्पूर्ण विस्तार और महानता में तथा अपनी सत्ता के तत्त्वों में मैं जो कुछ भी हूं उस सबको--मनुष्य भक्ति से अवश्यमेव जान लेता है, और मुझे तत्त्वतः जानकर वह मुझमें प्रवेश करता है ।'' ज्ञान के बिना प्रेम प्रगाढ़ और उत्कट, पर अन्ध, असंस्कृत और प्रायः भयानक, महाशक्तिसम्पन्न, पर साथ ही बाधक होता है; सीमित ज्ञान से युक्त प्रेम अपने उत्साह में और प्रायः अपने उत्साह के कारण ही संकीर्णता का दोषी बनता है; किन्तु जो प्रेम पूर्ण ज्ञान की ओर ले जाता है उससे अनन्त एवं परम मिलन (सायुज्य) की प्राप्ति होती है । ऐसा प्रेम दिव्य कर्मों से असंगत नहीं, वरन् अपनेको हर्षपूर्वक उनमें नियोजित करता है; क्योंकि यह ईश्वर से प्रेम करता और उनकी सम्पूर्ण सत्ता में, सर्वभूत में, प्राणिमात्र में, उनसे एकमय होता है, तब संसार के लिये कर्म करना (लोकसंग्रह) अपने ईश्वर-प्रेम को अनेकानेक रूपों में अनुभव और चरितार्थ करना होता है । यह है हमारी शक्तियों का त्रिक, तीनों का ईश्वर में संगम; जब हम प्रेम को अपने पथ का दिव्य दूत बनाकर भक्तिमार्ग से अपनी यात्रा आरम्भ करते हैं तब हम इसी त्रिवेणी पर पहुंचते हैं; इसका लक्ष्य यह है कि हम उस सर्व-प्रेमी की सत्ता का दिव्य परमानन्द प्राप्त कर उसमें अपनी सत्ता को पूर्ण रूप से कृतार्थ करें और अनुभव करें कि यही हमारी परिपूर्णता का सुरक्षित लोक एवं आनन्दमय धाम है और यही है उसकी किरणों को विश्व में फैलाने का केन्द्र ।
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सो इन तीन शक्तियों का मिलन ही हमारी पूर्णता की नींव है, अतएव भगवान् के अन्दर अपनी सर्वांग आत्म-परिपूर्णता के अभिलाषी के लिये यह आवश्यक है कि इन तीनों मार्गों के अनुयायियों में जो परस्पर निन्दा की वृत्ति तथा भ्रान्त धारणा प्रायः ही पायी जाती है उनसे वह अलग रहे और यदि उसमें लेशभर भी ये चीजें हों तो इन्हें निकाल फेंके । बहुधा ही देखने में आता है कि ज्ञान-संप्रदाय के लोग भक्त के मार्ग के प्रति घृणा न करने पर भी इसे अपनी बहुत ऊंची चोटी पर से नीची दृष्टि से देखते हैं जैसे यह कोई निकृष्ट, अज्ञानपूर्ण वस्तु हो और केवल उन्हीं आत्माओं के योग्य हो जो सत्य की ऊंचाइयों के लिये अभी तैयार नहीं हैं । यह ठीक है कि ज्ञान के बिना भक्ति प्रायः ही अपक्व, असंस्कृत, अन्ध एवं भयावह वस्तु होती है जैसा कि धर्मों की त्रुटियों, अपराधों और मूर्खताओं से कितनी ही बार सिद्ध हो चुका है । परन्तु इसका कारण यह है कि उन धर्मों में भक्ति को अभी अपना मार्ग, अपना सच्चा तत्त्व उपलब्ध नहीं हुआ है, वास्तव में उसने अभी मार्ग पर पग भी नहीं धरा है, बल्कि वह इसे टोह-टटोल रही है, इसकी ओर ले जानेवाली किसी एक पगडंडी पर ही चल रही है; इस अवस्था में ज्ञान भी भक्ति की तरह अपूर्ण होता है, --वह कट्टरपन्थी, धार्मिक फूट डालनेवाला, असहिष्णु और किसी एक ही अनुदार तत्त्व की संकीर्णता में आबद्ध होता है, यहांतक कि उस तत्त्व को भी वह प्रायः अत्यन्त अपूर्ण रूप में ही ग्रहण करता है । जब भक्त उस शक्ति को भली-भांति जान जाये जो उसे ऊंचा उठावेगी तब समझो कि प्रेम सचमुच उसकी पकड़ में आ गया है, वह उसे अन्त में वैसे ही अमोघ रूप में शुद्ध तथा विशाल बनाता है जैसे ज्ञान बना सकता है; ये समकक्ष शक्तियां हैं, इनके एक ही लक्ष्य पर पहुंचने के उपाय भले ही भिन्न-भिन्न हों । भक्त के भावावेश को नीची दृष्टि से देखनेवाले दार्शनिक का अभिमान भी, अन्य सब प्रकार के अभिमान की तरह, उसकी अपनी प्रकृति की किसी विशेष त्रुटि से पैदा होता है; क्योंकि यदि बुद्धि को अति एकांगी रूप में विकसित किया जाये तो वह हृदय से मिलनेवाली देन को खो बैठती है । बुद्धि हृदय की अपेक्षा हर तरह से उत्कृष्ट ही हो ऐसी बात नहीं है; यदि यह उन द्वारों को अधिक शीघ्रता से खोल डालती है जिन्हें हृदय प्रायः व्यर्थ में ही टटोलता रहता है तो, यह भी प्रायः उन सत्यों से चूक जाती है जो हृदय के लिये अति निकट तथा सुग्राह्य हैं । विचार-पद्धति जब गंभीर होते-होते आध्यात्मिक अनुभूति में परिणत होती है तब यदि वह शीघ्र ही गगनचुम्बी चोटियों, शिखरों, व्योमव्यापी विशालताओंतक जा पहुंचती है तो भी, यह हृदय की सहायता के बिना दिव्य सत्ता तथा दिव्य आनन्द के अतिशय गंभीर एवं समृद्ध गुहा-गह्वरों तथा समुद्रीय गहराइयों की थाह नहीं ले सकती ।
भक्तिमार्ग प्रायः ही अनिवार्य रूप से निम्न कोटि का माना जाता है । इसके कई कारण हैं । प्रथम, यह पूजा को लेकर चलता है और पूजा आध्यात्मिक अनुभव की
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उस अवस्था से सम्बन्ध रखती है जहां मानव-आत्मा और भगवान् में पार्थक्य हो या उनकी एकता अभी अधूरी हो, दूसरे, इसका असली मूलतत्त्व ही है प्रेम और प्रेम सदैव दो का बोधक होता है, प्रेमी और प्रियतम का, अतएव द्वित्व का, परन्तु सबसे ऊंचा आध्यात्मिक अनुभव है एकत्व, और तीसरे, यह वैयक्तिक ईश्वर की खोज करता है जब कि सवोंच्च तथा शाश्वत सत्य है निर्व्यक्तिक ईश्वर, भले इसे एकमात्र सद्वस्तु न भी माना जाये । परन्तु पूजा भक्तिमार्ग का प्रथम पगमात्र है । जहां बाह्य पूजा आन्तरिक आराधना में परिवर्तित हो जाती है वहीं से शुरू होती है सच्ची भक्ति; वह गभीर होकर प्रगाढ़ दिव्य प्रेम का रूप धारण करती है; उस प्रेम का फल होता है भगवान् के साथ हमारे सम्बन्धों की घनिष्ठता का हर्ष; घनिष्ठता का हर्ष मिलन के आनन्द में परिणत हो जाता है । ज्ञान की तरह प्रेम भी हमें सर्वोच्च एकत्वतक पहुंचाता है और यह उस एकत्व को उसकी यावत्सम्भव अधिक-से-अधिक गभीरता तथा तीव्रता प्रदान करता है । यह सच है कि प्रेम एकता में भिन्नता की ओर सहर्ष मुड़ता है, जिससे स्वयं एकत्व भीं समृद्धतर और मधुरतर हो जाता है । परन्तु यहां हम कह सकते हैं कि हृदय विचार से अधिक ज्ञानी है, कम-से-कम उस विचार से अधिक ज्ञानी जो भगवान्सम्बन्धी विरोधी विचारों पर दृष्टि गड़ाता है और उनमेंसे किसी एक पर ही अपना सारा ध्यान लगाता है और दूसरे को, जो इसके विपरीत प्रतीत होता है, पर असल में इसका पूरक तथा इसकी महत्तम परिपूर्णता का साधन होता है, बहिष्कृत कर देता है । यही मन की दुर्बलता है--यह अपने विचारों, अपनी भावात्मक और अभावात्मक धारणाओं से तथा भागवत सद्वस्तु के उन रूपों से जिन्हें यह देखता है, अपने-आपको सीमित कर लेता है, और उन्हें एक-दुसरे से भिड़ा देने की प्रवृत्ति इसमें अत्यधिक होती है ।
मनन, विचार या वह दार्शनिक प्रवृत्ति जिससे मानसिक ज्ञान भगवान् के समीप पहुंचता है प्रायः ही अमूर्त्त को मूर्त्त से, उच्च और दूरस्थ तत्त्व को गभीर एवं समीपस्थ से बहुत अधिक महत्त्व देती है । एकमेव अपने ही भीतर जो आनन्द लेता है उसमें इस अधिक महान् सत्य प्रतीत होता है, परन्तु एकमेव बहु में जो आनन्द लेता है या बहु एकमेव में जो आनन्द लेता है उसमें इसे हीनतर सत्य या यहांतक कि मिथ्यात्व का बोध होता है, निर्व्यक्तिक और निर्गुण में इसे अधिक महान् सत्य अनुभूत होता है और सव्यक्तिक तथा सगुण में हीनतर सत्य या मिथ्यात्व । परन्तु भगवान् हमारे विचार-द्वंद्वों से परे हैं, उनके रूपों में जो तात्त्विक विरोध हम खड़ा कर देते हैं उनसे भी वे अतीत हैं । हम देख चुके हैं कि वे अनन्य एकत्व से बद्ध एवं सीमित नहीं हैं; उनकी एकता अपनेको अनन्त विविधता में चरितार्थ करती है और उस विविधता के हर्ष की पूर्णतम कुंजी है प्रेम के पास, इसलिये वह एकता के हर्ष को भी नहीं गंवाता । सर्वोच्च ज्ञान और ज्ञानलब्ध सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभव को, बहु के साथ उनके नाना सम्बन्धों के बीच भी उनकी एकता वैसी ही
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पूर्ण प्रतीत होती है जैसी उनके आत्म-मग्न आनन्द में । यदि विचार को निर्व्यक्तिक या निर्गुण विशालतर और उच्चतर सत्य मालूम होता है और सव्यक्तिक वा सगुण क्षुद्रतर अनुभव तो आत्मा उन दोनों को ही उसी एक सद्वस्तु के पक्ष समझती है जो अपनेको दोनों में रूपायित करती है, और यदि उस सद्वस्तु का एक इस प्रकार का ज्ञान है जिसे विचार अनन्त निर्व्यक्तिकता पर आग्रह करके प्राप्त करता है तो उसका एक ऐसा ज्ञान भी है जिसे प्रेम अनन्त सव्यक्तिकता पर आग्रह करके अधिगत करता है । इनमेंसे प्रत्येक के आध्यात्मिक अनुभव का यदि अन्ततक अनुसरण किया जाये तो वह एक ही चरम सत्य पर पहुंचता है । जैसा कि गीता हमें बताती है, ज्ञान की ही भांति भक्ति से भी हम पुरुषोत्तम के साथ सायुज्य लाभ करते हैं--पुरुषोत्तम अर्थात् वह परम पुरुष जो निर्व्यक्तिक को तथा असंख्य व्यक्तित्वों को, निर्गुण को तथा अनन्त गुणों को, शुद्ध सह चित् और आनन्द को तथा इनके सम्बन्धों की अपार क्रीड़ा को अपने अन्दर धारण किये है ।
दूसरी ओर भक्त की प्रवृत्ति कोरे ज्ञान की काष्ठसम शष्कता से घृणा करने की होती है । यह सच भी है कि आध्यात्मिक अनुभूति के आह्लाद के बिना दर्शन अपने-आपमें एक ऐसी चीज है जो जितनी स्पष्ट है उतनी ही रूक्ष भी, और जो परितृप्ति हम चाहते हैं वह सारी-की-सारी यह हमें नहीं दे सकता; अपि च, इसका आध्यात्मिक अनुभव भी जबतक विचार का सहारा छोड़कर मन को अतिक्रांत नहीं कर जाता तबतक अमूर्त्त आनन्द में ही अत्यधिक निवास करता है; इसी प्रकार, जहां यह पहुंचता हैं वह वास्तव में शून्य नहीं है जैसा कि वह हृदय के भावावेश को प्रतीत होता है, फिर भी शिखरों की सीमाएं तो उसमें हैं ही । इसके विपरीत, स्वयं प्रेम भी ज्ञान के बिना अधूरा है । गीता भक्ति के भेदों का वर्णन करती हुई कहती है कि प्रारम्भ में भक्ति तीन प्रकार की होती है, एक तो वह जो संसार के दुःखों से घबराकर भगवान् की शरण लेती है, आर्त्त; दूसरी वह जो किसी चीज की कामना करती हुई, इष्टफलदाता के रूप में भगवान् के पास जाती है, अर्थार्थी; और तीसरी वह है जो किसी दिव्य अज्ञात तत्त्व से प्रेम तो पहले से ही करती है, पर अभीतक उसे जानती नहीं और उससे आकृष्ट होकर उसे जानने को आतुर होती है, जिज्ञासु; परन्तु यह सबसे बढ़कर श्रेय उस भक्ति को देती है जो ज्ञानयुका हो । स्पष्ट ही है कि भाव की जो तीव्रता यों कहती है कि, ''मैं समझती तो नहीं, मैं प्रेम करती हूं" ', और, प्रेम करती हुई, समझने की परवाह भी नहीं करती, वह प्रेम की अन्तिम नहीं, बल्कि प्रथम आत्म-अभिव्यक्ति है, और वह उसकी सर्वोच्च तीव्रता भी नहीं है । वास्तव में, जैसे-जैसे भगवान् का ज्ञान विकसित हो, वैसे-वैसे भगवान् में आनन्द और उससे प्रेम भीं बढ़ना चाहिये । और फिर, ज्ञानरूपी आधार के बिना निरा आनन्दातिशय सुरक्षित भी नही रह सकता; जिससे हम प्रेम करते हैं उसीमें निवास करने से ही वह सुरक्षा एवं स्थिरता प्राप्त होती है, उसमें निवास करने का
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मतलब है--चेतना में उसके साथ एकमय होना, चेतना का एकत्व ही ज्ञानप्राप्ति के लिये सर्वोत्तम अवस्था है । भगवान् का ज्ञान भगवत्पेम को इसकी अति सुदृढ़ सुरक्षा प्रदान करता है, इसके अनुभवजन्य विपुलतम हर्ष को इसकी ओर खोल देता है, इसे दृष्टिविस्तार (outlook) के उच्चात्युच्च शिखरोंतक ऊंचा उठा ले जाता है ।
इन दो शक्तियों की एक-दूसरे के विषय में भ्रान्तियां एक प्रकार का अज्ञान ही हैं । इसी प्रकार ये दोनों ही जब कर्ममार्ग को अपनी-अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि के उच्चतर शिखर से हीन समझकर घृणा की दृष्टि से देखती हैं तो इनकी यह प्रवृत्ति भी कुछ कम अज्ञानपूर्ण नहीं । जिस प्रकार ज्ञान की अपनी तीव्रता होती है उसी प्रकार प्रेम की भी अपनी तीव्रता होती है जिसे कर्म बाहरी तथा विक्षिप्त करनेवाली चीज प्रतीत होते हैं । परन्तु कर्म इस प्रकार बाहरी तथा विक्षिप्त करनेवाले तभी होते हैं जब हमने पुरुषोत्तम के साथ संकल्प तथा चेतना की एकता प्राप्त नहीं की होती । वह एकता एक बार प्राप्त हुई कि कर्म ज्ञान की साक्षात् शक्ति तथा प्रेम का मूर्त्तिमन्त प्रस्रवण बन जाते हैं । यदि ज्ञान है एकत्व की असली भूमिका और प्रेम है उसका आनन्द तो दिव्य कर्म हैं उसकी ज्योति और मधुरता की जीवन्त शक्ति । प्रेम की एक गति ऐसी भी होती है जैसी मानव-प्रेम की अभीप्सा में देखने में आती है । यह प्रेमी और प्रियतम को हृदय के परिणय-प्रासाद में बन्द रखकर उन्हें उनके अनन्य एकत्व के उपभोग में संसार से और अन्य सबसे अलग-थलग कर देनेवाली गति है । यह शायद इस मार्ग की अनिवार्य गति है । फिर भी, ज्ञान में परितृप्त विशालतम प्रेम संसार को कोई इस हर्ष से भिन्न और प्रतिकूल वस्तु नहीं, वरन् प्रियतम की सत्ता समझता है और प्राणिमात्र को भी उसीकी सत्ता के रूप में देखता है; इस अन्तर्दर्शन में दिव्य कर्म अपना आह्लाद और अपनी सार्थकता अनुभव करते हैं ।
यही है वह ज्ञान जिसमें पूर्णयोग को निवास करना होगा । हमें मन, बुद्धि, इच्छाशक्ति, हृदय की शक्तियों को लेकर भगवान् की ओर प्रस्थान करना है; परन्तु मन में सब कुछ सीमित है । अतः इस मार्ग में शुरू-शुरू में तथा चिरकालतक सीमा-संकीर्णता और एकांगिता तो रहेगी ही । किन्तु पूर्णयोग इन्हें अन्य अधिक एकान्तिक साधनापथों की अपेक्षा ढीले-ढाले रूप में ही धारण करेगा । यह मानसिक आवश्यकता से अपेक्षाकृत शीघ्र ही ऊपर उठ जायेगा । ज्ञान के या कर्म के मार्म की तरह ही यह प्रेम के मार्ग से भी यात्रा शुरू कर सकता है; पर इसकी परितृप्ति के हर्ष का प्रारम्भ तो वहीं होता है जहां ये तीनों आकर मिल जाते हैं । प्रेम को यह छोड़ू नहीं सकता । हां, यह अपना प्रारम्भ इससे नहीं करता; कारण प्रेम कर्मों का मुकुट और ज्ञान का प्रस्फुटन है ।
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