योग-समन्वय

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ८

 

प्रेम का रहस्य

 

 निर्व्यक्तिक भगवान् की उपासना, प्रचलित व्याख्या के अनुसार, वास्तविक भक्तियोग नहीं होगी; क्योंकि योग के प्रचलित रूपों में यह माना जाता है कि निर्वैयक्तिक तो केवल एक ऐसे पूर्ण एकत्व के लिये ही खोजा जा सकता है जिसमें ईश्वर और हमारा अपना व्यक्तित्व खो जाते हैं और वहां न उपासक रहता है न उपास्य; केवल एकता एवं अनन्तता के अनुभव का आनन्द ही शेष रह जाता है । परन्तु वास्तव में आध्यात्मिक चेतना के चमत्कारों को ऐसे कठोर तर्क में नहीं बांध देना चाहिये । जब हम पहले-पहल अनन्त की उपस्थिति अनुभव करने लगते हैं तो, क्योंकि हमारे अन्दर के सांत व्यक्तित्व को ही इसका स्पर्श लाभ होता है, वह उस स्पर्श और पुकार का सहज ही एक प्रकार के आराधना के भाव के साथ प्रत्युत्तर दे सकता है । दूसरे, हम अनन्त को एकत्व और आनन्द की आध्यात्मिक स्थिति नहीं, बल्कि अपनी चेतना के निकट अनिर्वचनीय देवाधिदेव की उपस्थिति समझ सकते हैं और तब भी प्रेम एवं उपासना को अवकाश प्राप्त हो जाता है । जब हमारा व्यक्तित्व इसके साथ एकत्व में विलीन होता दीखता है तब भी यह ऐसा व्यष्टिरूप भगवान् हो सकता है और वस्तुत: होता ही है जो विराट् या परात्पर में एक प्रकार के मिलन के द्वारा घुलमिल रहा होता है । उस मिलन में प्रेम तथा प्रेमी और प्रियतम आनन्दोद्रेक की एकीकारक अनुभूति में विस्मृत हो जाते हैं, पर उस एकत्व के अन्दर प्रसुप्त अवस्था में वे अभी भी विद्यमान होते हैं और उसमें अवचेतन रूप से बने ही रहते हैं । प्रेम के द्वारा आत्मा का समस्त मिलन निश्चय ही इसी प्रकार का होगा । यहांतक कि एक अर्थ में हम कह सकते हैं कि व्यष्टि आत्मा और ईश्वर के आध्यात्मिक सम्बन्ध की समस्त विविध अनुभूतियों के अन्तिम शिखर के रूप में मिलन का यह हर्ष प्राप्त करने के लिये ही एकमेव ने इस विश्व में 'बहु' का रूप धारण किया है ।

 

      तथापि दिव्य प्रेम का अधिक विविध और अत्यन्त घनिष्ठ अनुभव केवल निर्वैयक्तिक अनन्त की खोज से ही प्राप्त नहीं हो सकता; उसके लिये तो हमारे उपास्य देवाधिदेव का हमारे प्रति निकट और वैयक्तिक होना आवश्यक है । निर्वैयक्तिक के लिये यह सम्भव है कि जब हम उसके अन्तस्तल में प्रवेश करें तो वह अपने अन्तर्निहित व्यक्तित्व के सकल ऐश्वर्य प्रकाशित करे, और जो व्यक्ति केवल अनन्त उपस्थिति में ही प्रवेश करना या उसका आलिंगन करना चाहता है वह भी उससे ऐसी चीजें पा सकता है जिनका उसे स्वप्न में भी विचार नहीं आया होता । भगवान् की सत्ता में हमारे लिये ऐसे आश्चर्य भरे पड़े हैं जो परिसीमक बुद्धि

६०६


 के विचारों को विस्मय-विमुग्ध कर देते हैं । परन्तु साधारणतया भक्तिमार्ग दूसरे सिरे से शुरू करता है; यह भागवत व्यक्तित्व की उपासना से आरम्भ करता है, इसीके द्वारा अपने ध्येय की ओर आरोहण करता तथा विस्तृत होता है । भगवान् एक पुरुष हैं, कोई अमूर्त सत्ता या शुद्ध कालातीत अनन्तता की स्थिति नहीं । वे आद्य और वैश्व सत्ता हैं, परन्तु वह सत्ता अस्तित्व की चेतना एवं आनन्द से अविच्छेद्य है और एक ऐसी सत्ता को, जो अपने अस्तित्व एवं आनन्द से सचेतन है, हम उचिततः दिव्य अनन्त पुरुष कह सकते हैं । अपिच, चेतनामात्र में शक्ति निहित रहती है; जहां सत्ता की अनन्त चेतना है, वहां सत्ता की अनन्त शक्ति भी है और उसी शक्ति के द्वारा इस विश्व में सबका अस्तित्व है । उसी सत्ता के द्वारा सब सत्ताओं का अस्तित्व है; सभी वस्तुएं ईश्वर की आकृतियां हैं; समस्त विचार, कर्म, भाव और प्रेम उन्हींसे उद्भुत होते हैं और उन्हीमें लौट जाते हैं, वही हैं उनके सभी परिणामों का उद्गम, आश्रय और गप्त लक्ष्य । इसी देवाधिदेव एवं इसी पुरुष के प्रति पूर्णयोग की भक्ति प्रवाहित और उन्नीत होगी । अपने परात्पर रूप में यह उन्हें पूर्ण मिलन के हूर्षावेश में ढूंढ़ेगी अपने विश्वमय रूप में यह उन्हें गुणों और सभी रूपों ओर सर्वभूतों में विश्वव्यापी आनन्द और प्रेम के साथ ढूंढ़ेगी, अपने वैयक्तिक रूप में यह उनके साथ वे सभी मानवीय सम्बन्ध स्थापित करेगी जिन्हें प्रेम मनुष्य-मनुष्य के बिच उत्पन्न करता है ।

 

      हृदय जिसकी खोज कर रहा है उसकी अशेष सर्वांगपूर्णता को प्रारम्भ से ही अधिकृत करना सम्भव नहीं हो सकता; ऐसा तो वास्तव में तभी हो सकता है यदि हमारी बुद्धि, स्वभाव और भाविक मन हमारे विगत जीवन की प्रवृत्ति द्वारा विशालता एवं सृक्ष्मता में विकसित हो चुके हों । बुद्धि, सौन्दर्यग्राही एवं भाविक मन में और संकल्प  तथा सक्रिय अनुभव के अंगों में भी विशालता लानेवाले अपने शिक्षण के द्वारा हमें इस दिशा में ले जाना ही साधारण जीवन के अनुभव का उद्देश्य है । यह साधारण सत्ता को विस्तृत तथा परिष्कृत करता है जिससे यह उस 'तत्' के सम्पूर्ण सत्य की ओर सुगमतया खुल सके जो इसे अपनी आत्माभिव्यक्ति का मन्दिर बनाने के लिये तैयार कर रहा है । साधारणतः, अपनी सत्ता के इन सभी अंगों में मनुष्य सीमाबद्ध है । प्रारम्भ में वह केवल उतना भर दिव्य सत्य ग्रहण कर सकता है जितना उसकी अपनी प्रकृति तथा इसके विगत विकास एवं संस्कारों के साथ कुछ व्यापक साम्य रखता है । अतएव, ईश्वर पहले अपने दिव्य गुणों और प्रकृति के विभिन्न सीमित स्वरूपों में ही हमसे मिलता है; जिज्ञासु के समक्ष वह वस्तुओं के एक ऐसे चरम आदर्श के रूप में प्रकट होता है जिसे वह समझ सके, और जिसका उसका संकल्प एवं हृदय प्रत्युत्तर दे सकें; वह अपन देवत्व का कोई नाम-रूप प्रकाशित करता है । इसीको योग में इष्ट देवता अर्थात् हमारी प्रकृति द्वारा इसकी पूजा के लिये चुना हुआ नाम-रूप कहा जाता है ।

 ६०७


 इसलिये कि मनुष्य इस देवाधिदेव का अपने प्रत्येक अंग से आलिंगन कर सके यह ऐसे रूप में प्रकाशित किया जाता है जो इसके गुणों और पक्षों के अनुरूप होता है और जो उपासक के लिये ईश्वर का जीवन्त विग्रह बन जाता है । विष्णु शिव, कृष्ण, काली, दुर्गा, ईसा और बुद्ध के रूप कुछ-एक ऐसे ही रूप हैं जिन्हें मनुष्य का मन उपासना के लिये अंगीकार कर लेता है । यहांतक कि एकेश्वरवादी भी, जो निराकार ईश्वर की पूजा करता है, उन्हें किसी गुण का रूप, कोई मानसिक रूप या प्राकृतिक रूप प्रदान कर देता है जिसके द्वारा वह उनकी परिकल्पना करता और उनके पास पहुंचता है । परन्तु यदि कोई भगवान् का मानों एक सजीव रूप एवं मानसिक शरीर देख सके तो उससे भगवत्प्राप्ति में बहुत अधिक सामीप्य और माधुर्य आ जाता है ।

 

    सर्वांगीण भक्तियोग का मार्ग यह होगा कि ईश्वर-विषयक इस विचार को हम विश्वमय बनावें, एक बहुविध और सर्व-आश्लेषी सम्बन्ध के द्वारा उन्हें घनिष्ठ वैयक्तिक रूप दे दें, नित्य-निरन्तर उन्हें अपनी सम्पूर्ण सत्ता के समक्ष उपस्थित रखें और अपनी सारी-की-सारी सत्ता उनपर उत्सर्ग कर दें, उन्हींको दें दें, समर्पित कर दें, जिससे वे हमारे निकट और हमारे भीतर और हम उनके संग और उनके भीतर निवास करें । मनन और दर्शन करना, सभी वस्तुओं में अनवरत उन्हींका चिन्तन और सदा-सर्वदा-सर्वत्र उन्हींके दर्शन करना इस भक्तिमार्ग का अनिवार्य अंग है । जब हम भौतिक प्रकृति के पदार्थों पर दृष्टिपात करें तो उनके अन्दर हमें अपने दिव्य प्रियतम को देखना होगा; जब हम मनुष्यों और जीवों पर दृक्पात करें तो उनके अन्दर हमें उन्हींको देखना होगा और उनके साथ अपने सम्बन्ध में हमें यह देखना होगा कि हम उन्हींके आकारों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर रहे हैं । जब जड़ जगत् की सीमा लांघकर हम अन्य स्तरों की सत्ताओं का ज्ञान लाभ करें या उनसे सम्बन्ध स्थापित करें तब भी हमें वही विचार वा दृष्टि अपने मनों के प्रति सत्य बनानी होगी । हमारे इस मन के सामान्य स्वभाव को, जो केवल जड़प्राकृतिक एवं प्रत्यक्ष रूप तथा साधारण खण्डित सम्बन्ध के प्रति ही खुला है और अन्तःस्थ गुप्त देवाधिदेव की उपेक्षा करता है, सर्व-आलिंगी प्रेम और आनन्द के अविरत अभ्यास के द्वारा इस गभीरतर एवं विपुलतर बोध और इस महत्तर सम्बन्ध के प्रति नत होना होगा । सभी देवताओं में हमें इन्हीं एक ईश्वर को देखना होगा जिन्हें हम अपने हृदय और अपनी सम्पूर्ण सत्ता से पूजते हैं; वे उन्हींके देवत्व के आकार हैं । अपने आध्यात्मिक आलिंगन को इस प्रकार विस्तारित करते हुए हम एक ऐसे बिन्दु पर जा पहुंचते हैं जहां सब कुछ वही होते हैं और इस चेतना का आनन्द हमारे लिये संसार को देखने का हमारा सामान्य अव्याहत ढंग बन जाता है । इससे उनके साथ हमारे मिलन में बाह्य या वस्तुगत सार्वभौमता आ जाती है ।

 

     आभ्यन्तरिक रूप में, प्रियतम की मूर्ति को हमारे अन्तर्नयन के लिये गोचर 

६०८


 बनना होगा । वे हमारे अन्दर ऐसे बस जायें जैसे अपने घर में, अपनी उपस्थिति की मधुरिमा से हमारे हृदयों को अनुप्राणित करें, सखा, स्वामी और प्रेमी के रूप में वे हमारी सत्ता के शिखर से हमारे मन-प्राण की समस्त चेष्टाओं को अधिशासित करें, ऊपर से वे हमें विश्व के अन्दर अपने साथ एकीभूत करें । सतत अन्तर्मिलन एक ऐसा हर्ष है जिसे घनिष्ठ, स्थायी और अचूक बनाना है । इस अन्तर्मिलन को असाधारण समीपता और उपासना के उस समयतक ही सीमित नहीं रखना है जब कि हम अपनी सामान्य व्यस्तताओं से विमुख होकर सर्वथा अपने भीतर चले जाते हैं, न हमें अपने मानवीय कार्यों का त्याग करके ही इसका अनुसरण करना है । हमें अपने सब विचारों, आवेगों, भावों और कार्यों को उनकी स्वीकृति या अस्वीकृति के लिये उनके समक्ष प्रस्तुत करना होगा, अथवा यदि हम अभी इस बिन्दुतक नहीं पहुंच सकते तो हमें इन्हें अपनी अभीप्सा के यज्ञ में उनके प्रति अर्पित करना होगा, जिससे वह हमारे अन्दर अधिकाधिक अवतीर्ण होकर इन सबमें उपस्थित रह सकें और इन्हें अपने समस्त संकल्प और बल, प्रकाश और ज्ञान, प्रेम और आनन्द से परिव्याप्त कर सकें । अन्त में हमारे सभी विचार, भाव, आवेग और कर्म उन्हींसे निःसृत और अपने किसी दिव्य बीज और रूप में परिवर्तित होने लगेंगे । अपने सम्पूर्ण अन्तर्जीवन में हम अपनेको उन्हींकी सत्ता के अङग के रूप में जान लेंगे और अन्ततोगत्वा हमारे उपास्य भगवान् की सत्ता और हमारे अपने जीवनों में कोई भेद ही नहीं रह जायेगा । इसी प्रकार सकल घटनाओं में भी हमें अपने साथ दिव्य प्रेमी के व्यवहारों को देखना और उनमें ऐसा आनन्द लेना होगा कि दुःख-ताप और शारीरिक पीड़ातक उनकी देनें बन जायें, आनन्द में परिणत हो जायें और दिव्य सम्पर्क की अनुभूति से विनष्ट होकर अन्तिम रूप से आनन्द में विलीन हो जायें, क्योंकि उनके हाथों का स्पर्श चमत्कारी रूपान्तर का रसायनज्ञ है। कुछ लोग जीवन का इस कारण त्याग कर देते हैं कि यह दुःख और पीड़ा से कलुषित है, परन्तु प्रभु-प्रेमी के लिये दुःख-दर्द उनसे मिलन के साधन, एवं उनके दबाव के चिह्न बन जाते हैं और अन्त में, जैसे ही उनकी प्रकृति के साथ हमारा मिलन इतना पूर्ण हो जाता है कि वैश्व आनन्द के ये आवरण उसे छिपा ही नहीं सकते, वैसे ही ये समाप्त हो जाते हैं । ये आनन्द में रूपान्तरित हो जाते हैं ।

 

     जिन सम्बन्धों से यह मिलन साधित होता है वे सभी इस पथ पर प्रगाढ़ और आनन्दमय रूप में वैयक्तिक बन जाते हैं । जो सम्बन्ध अन्त में उन सबको अपनेमें समा लेता, ऊंचा ले जाता या एक कर देता है वह प्रेमी और प्रियतम का सम्बन्ध है, क्योंकि वह सभी सम्बन्धों में प्रगाढ़ और आनन्दपूर्ण है और शेष सबको अपनी ऊंचाइयों पर ले जाता है और फिर भी उन्हें अतिक्रान्त किये रहता है । वे गुरु और मार्गदर्शक हैं और हमें ज्ञान की ओर ले जाते हैं; विकसनशील आन्तर ज्योति और दृष्टि के प्रत्येक पग पर हम एक कलाकार के स्पर्श जैसा उनका स्पर्श अनुभव

६०९


 करते हैं जो हमारे मन की मिट्टी को रूप देता है, सत्य और उसके शब्द को प्रकाशित करनेवाली उनकी वाणी को, उनसे प्राप्त उस विचार को जिसका हम प्रत्युत्तर देते हैं तथा उनके उन विद्युद्वज्रों की दीप्ति को भी हम अनुभव करते हैं जो हमारे अज्ञानान्धकार का नाश कर देते हैं । विशेषत:, जितना ही हमारे मन के आंशिक प्रकाश विज्ञान की ज्योतियों में रूपान्तरित होते जाते हैं, --यह चाहे कितनी भी कम या अधिक मात्रा में हो, --उतना ही हम इसे अपने मन का उनके मन में रूपान्तर अनुभव करते हैं और उत्तरोत्तर वही हमारे अन्दर विचारक और द्रष्टा बनते जाते हैं । हम अपने लिये सोचना और देखना छोड़ देते हैं, और केवल वही सोचते हैं जो वे हमारे लिये सोचना चाहते हैं तथा केवल वही देखते हैं जो वे हमारे लिये देखते हैं । तब गुरु प्रेमी में पूर्णरूपेण चरितार्थ हों जाते हैं; वे हमारी सम्पूर्ण मानसिक सत्ता को आलिंगित और अधिकृत करने के लिये, उसका उपभोग एवं उपयोग करने के लिये उसे अपने हाथ में ले लेते हैं ।

 

     वे स्वामी हैं; किन्तु भगवत्प्राप्ति के इस मार्ग में समस्त दूरी और पृथक्ता, समस्त भय, सम्भ्रम और निरे आज्ञापालन का भाव तिरोहित हो जाते हैं, क्योंकि हम उनके इतने निकट तथा उनसे इतने एकीभूत हो जाते हैं कि ये चीजें टिक ही नहीं पातीं और हमारी सत्ता का प्रेमी भी इसे अपनाकर अपने अधिकार में कर लेता है, इसका प्रयोग करता है और इसके साथ वह जो चाहता है करता है । आज्ञापालन सेवक का चिह्न है, किन्तु वह इस सम्बन्ध की--दास्य की--सबसे निचली सीढ़ी है । आगे चलकर हम आज्ञापालन नहीं करते, बल्कि उनकी इच्छा के अनुसार उसी प्रकार चलते हैं जिस प्रकार वाद्य-तार गायक की अङ्गुलि के संकेत पर सुर निकालता है । यन्त्र बनना आत्म-समर्पण और नमन की उच्चतर अवस्था ही है । परन्तु यह एक सजीव और प्रेमपूर्ण यन्त्र होता है और इसका पर्यवसान यह होता है कि हमारी सत्ता की सम्पूर्ण प्रकृति ईश्वर की दासी बन जाती है, उनके स्वामित्व और दैवी अधिकार एवं प्रभुत्व के प्रति अपने आनन्दपूर्ण दासत्व में हर्षित होती है । प्रगाढ़ आनन्द के साथ, बिना ननुनच के यह वह सब करती है जो वे इससे कराना चाहते हैं और वह सब वहन करती है जो वे इससे वहन कराना चाहते हैं, क्योंकि जो यह वहन करती है वह प्रियतम सत्ता का ही भार है ।

 

     वह सखा है, कष्ट और संकट में परामर्शदाता, सहायक एवं रक्षक है, शत्रुओं से बचानेवाला है, शूरवीर है जो हमारे लिये युद्ध लड़ता है या जिसकी ढाल की आड़ में हम युद्ध करते हैं, वह रथी है, हमारे पथों का कर्णधार है । यहां हम एकाएक निकटतर घनिष्ठता प्राप्त कर लेते हैं; वह हमारा संगी और नित्य सहचर होता है, जीवन के खेल का साथी । परन्तु इतना होने पर भी अभी एक प्रकार का भेद रहता है, वह रुचिकर भले ही हो, और सख्य का भाव उपकार की भाव- भंगी द्वारा अत्यधिक सीमित रहता है । प्रेमी हमें चोट पहुंचा सकता, त्याग सकता और

६१०


 हमपर कुपित हो सकता है, यहांतक प्रतीत हो सकता है कि वह विश्वासघात कर रहा है और फिर भी हमारा प्रेम स्थायी रहता है, इतना ही नहीं, बल्कि इन विरोधों से वह बढ्ता है; इनसे पुनर्मिलन का हर्ष और अधिकृत करने का हर्ष बढ्ता है इनके द्वारा भी वह प्रेमी हमारा सखा ही बना रहता है और जो कुछ भी वह करता है वह सब, हमें अन्त में पता चलता है, हमारी सत्ता के प्रेमी और सहायक ने ही हमारी आत्मा की पूर्णता के लिये और हमारे अन्दर अपने आनन्द के लिये किया है । ये विरोध और अधिक समीपता की ओर ही ले जाते हैं । वह हमारी सत्ता के माता-पिता भी हैं, इसके उत्पादक, रक्षक एवं कृपालु पालक-पोषक हैं और हमारी कामनाओं को पूरा करनेवाले हैं । वह एक शिशु हैं जो हमारी इच्छा के अनुसार उत्पन्न होता है और जिसे हम पालते-पोसते तथा बढ़ाते हैं । इन सब चीजों को हमारा प्रेमी अपनाता है उसका प्रेम अपनी घनिष्ठता एवं एकता में अपने अन्दर माता-पिता की-सी हितचिन्ता को धारण किये रहता है और उससे हम जो मांगें करते हैं उनकी पूर्ति की ओर ध्यान देता है । उस गभीरतम बहुमुख सम्बन्ध में सब कुछ एकीभूत हो जाता है ।

 

     प्रेमी और प्रियतम का यह निकटतम सम्बन्ध प्रारम्भ से प्राप्त कर लेना भी सम्भव है, पर यह पूर्णयोग के लिये उतना एकांगी नहीं होगा जितना किन्हीं केवल आनन्दरत भक्तिमार्गों के लिये । यह सम्बन्ध अन्य सम्बन्धों के रंग-रूपों का कुछ अंश प्रारम्भ से ही अपने अन्दर ले लेगा, क्योंकि वह ज्ञान और कर्म का भी अनुसरण करता है और उसे गुरु, सखा और स्वामी के रूप में भी भगवान् की आवश्यकता होती है । ईश्वर-प्रेम की वृद्धि के साथ ही उसके अन्दर ईश्वर-ज्ञान का तथा उसकी प्रकृति और जीवन में ईश्वरेच्छा की क्रिया का विस्तार भी अवश्य होगा । दिव्य प्रेमी अपने--आपके। प्रकाशित करता है; वह जीवन को अपने अधिकार में कर लेता है । परन्तु तात्त्विक सम्बन्ध अभी भी उस प्रेम का ही रहेगा जिससे सभी चीजें प्रस्त्रवित होती हैं और जो अत्युत्कट एवं पूर्ण होता है और अपनी परिपृर्ति के सैकड़ों मार्गों, पारस्परिक स्वत्व के सभी साधनों तथा मिलन के हर्ष के सहस्त्रों रूपों की खोज करता है । मन के सब भेद-प्रभेदों, इसकी सभी बाधाओं और ''नहीं हो सकता'' की उक्तियों, बुद्धि के सभी निष्प्राण विश्लेषणों का यह मजाक उड़ाता है अथवा यह इन्हें मिलन की कसौटियों, क्षेत्रों और द्वारों के रूप में ही प्रयुक्त करता है । प्रेम हमारे अन्दर अनेक प्रकार से उदित होता है । यह प्रेमी के सौन्दर्य के प्रति जागृति के रूप में, उनकी आदर्श मुखछवि और मूर्ति के दर्शन के द्वारा, जगत् में पदार्थों के सहस्रों रूपों के पीछे से हमारे प्रति उनके स्व-विषयक गुह्म संकेतों के द्धारा, हृदय की मन्द या आकस्मिक आवश्यकता के कारण, आत्मा की एक अव्यक्त प्यास के कारण, इस अनुभूति के द्वारा कि हमारे समीप-स्थित कोई हमें प्रेमपूर्वक खींच रहा है या हमारा पीछा कर रहा है अथवा इस 

६११


 अनुभव के द्वारा उदित हो सकता है कि कोई आनन्दमय और सर्वसुन्दर सत्ता है जिसकी हमें अवश्य खोज करनी चाहिये ।

 

      हम रागपूर्वक उनकी खोज कर सकते और अदृष्ट प्रियतम का अनुसरण कर सकते हैं । परन्तु वह प्रेमी भी, जिसका हमें विचारतक नहीं आता, हमारा पीछा कर सकता है, इस संसार के बीच एकाएक हमारे सामने आ सकता है और प्रारम्भ में हम चाहें या न चाहें, वह अपने ही लिये हम पर अपना अधिकार जमा सकता है । यहांतक कि, शुरू में वह प्रणयरोष के साथ शत्रु के रूप में भी हमारे पास आ सकता है और उसके साथ हमारे आरम्भिक सम्बन्ध संघर्ष एवं संग्राम के हो सकते हैं । जहां पहले-पहल प्रेम एवं आकर्षण उत्पन्न होता है, वहां भी भगवान् और आत्मा के सम्बन्ध चिरकालतक भ्रांति और रोष, ईर्ष्या और क्रोध, प्रेम के विवाद और कलह, आशा और निराशा और विरह एवं वियोग की वेदना से शबलित हो सकते हैं । अपने हृदय के समस्त आवेशों को हम तबतक उनके प्रति विसर्जित करते हैं जबतक वें आनन्द और एकत्व के अनन्य मद में शुद्ध नहीं हों जाते । परन्तु यह भी कोई नीरसता नहीं है; दिव्य प्रेम के आनन्द की सम्पूर्ण चरम एकता और सम्पूर्ण शाश्वत विविधता का वर्णन करना मानवोच्चारित भाषा के लिये सम्भव ही नहीं है । हमारे उच्चतर और निम्नतर अंग दोनों इससे परिप्लुत हो जाते हैं, मन और प्राण भी उतने ही जितनी कि आत्मा । यहांतक कि स्थूल शरीर भी इस हर्ष में अपना भाग ग्रहण करता है, स्पर्श अनुभव करता है, अपने सब अवयवों में, रग-रग में सोम-सुरा के--अमृत के प्रवाह से परिपूर्ण हो जाता है । प्रेम और आनन्द सत्ता के अन्तिम शब्द हैं, रहस्यों के रहस्प और गुह्यतम गुह्य हैं ।

 

     इस प्रकार विश्वमय और व्यक्तिभावापन्न होकर, अपनी तीव्रताओंतक उन्नीत, सर्वग्रासी, सर्व-आलिंगी और सर्व-परिपूरक होकर प्रेम एवं आनन्द का मार्ग परमोच्च मुक्ति प्रदान करता है । इसका सर्वोच्च शिखर अतिलौकिक मिलन है । किन्तु प्रेम के लिये पूर्ण मिलन ही मुक्ति है; इसके लिये मुक्ति का और कोई अर्थ ही नहीं है; यह सब प्रकार की मुक्तियों को अपने अन्दर समाविष्ट रखता है । अन्त में ये, जैसा कि कुछ लोग चाहेंगे, केवल एक के बाद दूसरी के क्रम से प्राप्त होनेवाली और अतएव परस्पर-वर्जक भी नहीं हैं । हम मानव आत्मा के साथ भगवान् का पूर्ण मिलन, 'सायुज्य' लाभ करते हैं; उसमें वे सब तत्त्व अपनेको प्रकट करते हैं जो यहां भेद पर अवलम्बित हैं, पर वहां भेद एकत्व का रूपमात्र है, --इसी प्रकार समीपता, संस्पर्श और परस्पर-सान्निध्य, 'सामीप्य', सालोक्य का आनन्द, परस्पर- प्रतिबिम्बन का, --जिसे हम 'सादृश्य' कहते हैं-- आनन्द और अन्य अद्भुत वस्तुएं भी वहां प्रकट होती हैं जिनके लिये भाषा के पास अभी कोई नाम नहीं हैं । ऐसी कोई चीज नहीं है जो ईश्वर-प्रेमी की पहुंच से परे हो अथवा जो उसे प्रदान न की जाये; क्योंकि वह दिव्य प्रेमी का प्रेमपात्र और प्रियतम की आत्मा है ।

६१२










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates