योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १८

 

पुरुष और उसकी मुक्ति

 

अब हमें जरा रुककर इस विषय पर विचार करना होगा कि पुरुष और प्रकृति के सम्बन्धों को इस प्रकार स्वीकार करने से हम किन सिद्धान्तों के साथ स्वभावत: ही बंध जाते हैं; क्योंकि इसका अर्थ यह है कि जिस योग का हम अनुसरण कर रहे हैं उसका लक्ष्य मानवजाति के साधारण लक्ष्य में से कोई भी नहीं है । यह न तो हमारे पार्थिव जीवन को ज्यों-का-त्यों स्वीकार करता है, न ही किसी प्रकार की नैतिक पूर्णता या धार्मिक भावोन्मादना से परे अवस्थित किसी स्वर्ग से या हमारी सत्ता के किसी ऐसे विलय से सन्तुष्ट हो सकता है जिसके द्वारा हम जीवन के दुःख-कष्ट का सन्तोषजनक रीति से खातमा कर डालें । हमारा लक्ष्य बिल्कुल और ही हो जाता है; वह है किसी निरी अहंता एवं पार्थिव सत्ता में नहीं, बल्कि भगवान् एवं अनन्त ब्रह्म में, ईश्वर में निवास करना, पर साथ ही प्रकृति से, अपने मनुष्य-भाइयों से, संसार तथा लौकिक जीवन से अलग भी नहीं रहना, जिस प्रकार भगवान् भी हम से तथा जगत् से अलग नहीं रहते । वे जगत् और प्रकृति तथा इन सब भूतों के साथ सम्बन्ध भी रखते हैं, पर रखते हैं परिपूर्ण तथा अविच्छेद्य शक्ति, स्वातंत्र तथा आत्म-ज्ञान के साथ । हमारी मुक्ति तथा पूर्णता का अर्थ है अज्ञान, बन्धन और दुर्बलता को पार करना और जगत् तथा प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखते हुए दिव्य शक्ति, स्वातंत्र्य और आत्मज्ञान के साथ भगवान् में निवास करना । क्योंकि, आत्मा का जगत्-सत्ता के साथ उच्च-से-उच्च सम्बन्ध पुरुष का प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व प्राप्त करना ही है । प्रभुत्व प्राप्त कर लेने पर वह पहले की तरह अज्ञ तथा अपनी प्रकृति के अधीन नहीं रहता, बल्कि अपनी व्यक्त सत्ता को जानता तथा पार कर जाता है, उसका उपभोग तथा नियमन करता है और मुझे अपने-आपको किस रूप में अभिव्यक्त करना है इसका निर्धारण वह विशाल दृष्टि से तथा स्वतन्त्रतापूर्वक करता है ।

 

   आत्मा की अपने विश्वगत जन्म और विकास में प्रकृति के साथ सम्पूर्ण लीला बस यही है कि एकमेव सत्ता अपने ही द्वैत के विविध रूपों में अपने-आपको खोज रही है । सर्वत्र एक ही स्वयंभू तथा असीम सच्चिदानन्द विद्यमान है, एक ऐसी एकता विद्यमान है जो अपने ही विविध रूपों की चरम अनन्तता से भंग नहीं हो सकती,--यही सत्ता का मूल सत्य है जिसे हमारा ज्ञान खोज रहा हैं और जिसे अन्त में हमारी आभ्यन्तरिक सत्ता प्राप्त करती है । इसीसे अन्य सब सत्य उद्भूत होते हैं, इसीपर वें आधारित हैं, यही प्रतिक्षण उनके अस्तित्व को सम्भव बनाता है और इसीमें वे अन्त में अपने-आपको तथा स्व-दूसरे को जान सकते हैं, इसीमें

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इनके विरोध दूर होते हैं तथा ये अपनी समस्वरता और सार्थकता प्राप्त करते हैं । जगत् के सभी सम्बन्ध, यहांतक कि इसके बड़े-सें-बड़े तथा अत्यन्त आघातजनक प्रत्यक्ष विरोध भी, किसी सनातन वस्तु के अपनी ही विराट् सत्ता में अपने ही साथ सम्बन्ध हैं; किसी भी जगह या किसी भी क्षण वे ऐसे असम्बद्ध जीवों के संघर्ष नहीं हैं जो अकस्मात् या विश्व-सत्ता की किसी यान्त्रिक आवश्यकता के कारण परस्पर आ मिलते हैं । अतएव एकत्व के इस सनातन तथ्य को फिर से प्राप्त करना ही हमारे आत्मज्ञान का मूल कार्य है; इसमें निवास करना ही अपनी सत्ता की आन्तरिक प्राप्ति का तथा जगत् के साथ हमारे यथोचित और आदर्श सम्बन्धों का प्रभावशाली सिद्धान्त होना चाहिये । इसी कारण हमें इस बात पर सर्वप्रथम और प्रधान रूप में बल देना पड़ा है कि एकत्व हमारे ज्ञानयोग का लक्ष्य है तथा एक प्रकार से सम्पूर्ण लक्ष्य है ।

 

   परन्तु यह एकत्व सर्वत्र तथा प्रत्येक स्तर पर

द्वैत के कार्यकारी या व्यावहारिक सत्य के द्वारा ही अपने-आपको चरितार्थ करता है । सनातन ब्रह्म, एकमेव, अनन्त, चिन्मय सत्ता अर्थात् पुरुष है, कोई निश्चेतन एवं यान्त्रिक वस्तु नहीं; जब उसकी चिन्मय सत्ता की शक्ति एकत्व की साम्यावस्था में स्थित होती है तब भी वह नित्य ही इस (शक्ति) के आनन्द में अवस्थित रहता है; पर जब उसकी चिन्मय सत्ता की शक्ति विश्व में नानाविध सर्जनक्षम स्वानुभव के साथ लीला में रत होती है तब भी वह इसके उतने ही नित्य आनन्द में अवस्थित रहता है । जैसे हार स्वयं इस तथ्य से सचेतन हैं या हो सकते हैं कि हम सदा ही कोई कालातीत, नामातीत तथा नित्य वस्तु हैं जिसे हम अपनी आत्मा कहते हैं और जो हमारी सत्ता के सभी अंगों की एकता को गठित करती है, और फिर भी इसके साथ-साथ हम जो कुछ करते और सोचते हैं, जो संकल्प और सृजन करते हैं तथा जो कुछ बनते हैं उस सबका नानाविध अनुभव भी हम प्राप्त करते हैं, जगत् में इस पुरुष की आत्म-सचेतनता भी ठीक ऐसी ही है । अन्तर इतना ही है कि हम, इस समय सीमित और अहंबद्ध मनोमय व्यक्ति होने के कारण, यह अनुभव साधारणतया अज्ञानावस्था में प्राप्त करते हैं और हम आत्मा में निवास नहीं करते, बल्कि पीछे की ओर मुड़कर समय-समय पर इसके ऊपर केवल दृष्टिपात करते हैं या कभी-कभी बाह्य सत्ता से पीछे हटकर इसमें प्रवेश करते हैं, जब कि सनातन को अपने अनन्त आत्मज्ञान में यह नित्य ही प्राप्त है, वह नित्य ही यही आत्मा है और आत्म-सत्ता की पूर्णता से ही इस समस्त आत्मानुभव पर दृष्टिपात करता है । मन के कारावास में बन्द हम लोगों की तरह वह अपनी सत्ता के सम्बन्ध में यों नहीं सोचता कि यह या तो आत्मानुभवों का एक प्रकार का अनिश्चित परिणाम एवं कुल योग है या फिर उनका एक महान् विरोध । सत्ता और अभिव्यक्ति का प्राचीन दार्शनिक विरोध सनातन आत्मज्ञान में सम्भव नहीं है ।

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   चिन्मय सत्ता की सक्रिय शक्ति को जो अपने आत्मानुभव की शक्तियों मे, अपने ज्ञान, संकल्प, आत्मानन्द, आत्म-रूपायण की शक्तियों मे, इनके सब शक्तिसम्बन्धी अद्भुत विभेदों, विपर्ययों, स्थिति-रक्षणो और परिवर्तनों, यहांतक कि विकारों मे भी अपने-आपको चरितार्थ करती है, हम विश्व की तथा अपनी प्रकृति कहते हैं । परन्तु भेद-वैविध्य की इस शक्ति के पीछे इसी शक्ति का एक सनातन साम्य है जो सम एकत्व पर प्रतिष्ठित है । उस एकत्व ने जैसे इन भेद-वैविध्यों को जन्म दिया है वैसे ही यह निष्पक्ष भाव से इन्हें धारण तथा नियन्त्रित भी करता है और सत्स्वरूप 'पुरुष' ने अपनी चेतना मे अपने आत्मानन्द का जो भी लक्ष्य परिकल्पित किया है तथा जिसे अपनी चेतना के संकल्प या बल के द्वारा निर्धारित किया है उसीकी ओर यह एकत्व इन्हें परिचालित भी करता है । यही है दिव्य प्रकृति जिसके साथ हमें अपने आत्मज्ञान के योग के द्वारा पुन: एकता प्राप्त करनी होगी । हमें पुरुष किवा सच्चिदानन्द बनना होगा जो अपनी प्रकृति के ऊपर दिव्य व्यक्तिगत प्रभुत्व मे आनन्द लेते हैं, हमें अब पहले की तरह अपनी अहंपूर्ण प्रकृति के अधीन मनोमय प्राणी नहीं रहना होगा । क्योकि, पुरुष वा सच्चिदानन्द ही वास्तविक मनुष्य है, व्यक्ति की परमोच्च और समग्र सत्ता है, और अहं तो हमारी सत्ता की एक निम्नतर एवं आशिक अभिव्यक्तिमात्र है जिसके द्वारा एक विशेष प्रकार का सीमित प्रारम्भिक अनुभव प्राप्त किया जा सकता है और कुछ समय के लिये उस अनुभव का रस भी लिया जाता है । परन्तु निम्नतर सत्ता मे इस प्रकार रस लेना ही हमारी सम्पूर्ण शक्यता नहीं है; यह ऐसा एकमात्र या सर्वोपरि अनुभव नहीं है जिसके लिये इस ज-जगत् मे हम मानव-प्राणियों के रूप मे जीवन धारण करते हैं ।

 

  हमारी यह व्यक्तिगत सत्ता ऐसी सत्ता है जिसके द्वारा स्व-चेतन मन अज्ञान मे ग्रस्त हों सकता है, पर साथ ही यह ऐसी सत्ता भी है जिसके द्वारा हम आध्यात्मिक सत्ता मे मुक्त हों सकते हैं तथा दिव्य अमरता का उपभोग कर सकते हैं । इस अमरत्व की प्राप्ति अपनी परात्पर या विराट् सत्ता मे विद्यमान सनातन पुरुष को नहीं, वरन् व्यक्ति को होती है; व्यक्ति ही आत्मज्ञान की ओर ऊपर उठता है, उसमें ही यह धारित होता है और उसीके द्वारा इसे प्रभावशाली रूप प्रदान किया जाता है । समस्त जीवन, वह आध्यात्मिक हो या मानसिक या भौतिक, आत्मा की अपनी प्रकृति की सम्भावनाओं के साथ एक प्रकार की क्रीड़ा या लीला है; क्योकि इस लीला के बिना किसी प्रकार की भी आत्माभिव्यक्ति नहीं हो सकती, न कोई आपेक्षिक आत्मानुभव ही प्राप्त हो सकता है । तब, सबको अपने विशालतर आत्मा के रूप मे अनुभव कर लेने पर भी और ईश्वर तथा अन्य भूतों के साथ अपनी एकता प्राप्त कर लेने पर भी यह लीला चालू रह सकती है और चालू रहनी ही चाहिये; हां, यदि हम समस्त आत्माभिव्यक्ति का तथा समाधिगत और तन्मयतापूर्ण

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आत्मानुभव के सिवा समस्त अनुभव का त्याग करना चाहें तो बात दूसरी है । उस दशा मे भी इस समाधि या इस मुक्त लीला का साक्षात्कार व्यक्ति को ही होता है; समाधि का मतलब है इस मनोमय व्यक्ति का एकता के अनन्य अनुभव मे मग्न होना, मुक्त लीला का मतलब है एकत्व के मुक्त साक्षात्कार और आनन्द के लिये उसका अपने मन को आध्यात्मिक सत्ता मे उठा ले जाना । क्योकि, दिव्य सत्ता का स्वभाव है सदा ही अपने एकत्व को धारण करना, पर साथ ही अनन्त अनुभवों मे, अनेक दृष्टिकोणों से, अनेक स्तरों पर, अपनी सत्ता की अनेक चेतन शक्तियों या उसके स्वरूपों के द्वारा, अपनी सीमित बौद्धिक भाषा मे कहें तो, एक ही चिन्मय पुरुष के व्यक्तित्वों के द्वारा भी इसे धारण करना । हममें से प्रत्येक मनुष्य इन व्यक्तित्वों मे से एक है । भगवान् सें दू हटकर सीमित अहं या सीमित मन मे स्थित होना अपने-आपसे दूर स्थित होना है, अपने सच्चे व्यक्तित्व को प्राप्त न करना है, वास्तविक नहीं, बल्कि दृश्यमान असत्य व्यक्ति बनना है; यह हमारी अज्ञान की शक्ति है । अपनी परमोच्च और समग्र सत्ता को, अपने सच्चे व्यक्तित्व को प्राप्त करने का अर्थ है भागवत सत्ता मे उन्नीत हो जाना और अपनी आध्यात्मिक, अनन्त एवं विराट् चेतना को उस चेतना के रूप मे जान लेना जिसमें हम अब निवास करते हैं; यह हमारी आत्मज्ञान की शक्ति है ।

 

  सनातन अभिव्यक्ति की इन तीनों शक्तियों--ईश्वर, प्रकृति और जीव-के सनातन अद्वैत को और एक-दूसरे के लिये इनकी अन्तरीय आवश्यकता को जानकर हम स्वयं सत्ता का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तथा जगत् के बाह्य रूपों मे से जो रूप हमारी अज्ञानावस्था मे हमें चक्कर मे डालते हैं उन सबका ज्ञान भी हमें प्राप्त हो जाता है । हमारा आत्मज्ञान इनमें से किसी भी चीज को नष्ट नहीं करता, वह तो केवल हमारे अज्ञान को तथा इसकी उन विशिष्ट अवस्थाओं को नष्ट करता है जिन्होंने हमें बन्धन मे डालकर हमारी प्रकृति के अहमय निर्धारणों का दास बना दिया था । जब हम अपना सच्चा स्वरूप पुन: प्राप्त कर लेते हैं तो अहं हमसे झकर अलग हो जाता है; उसका स्थान हमारी परमोच्च और समग्र सत्ता, हमारा सच्चा व्यक्तित्व ले लेता है । इस परमोच्च सत्ता के रूप मे यह व्यक्तित्व अपने-आपको सब भूतों के साथ एकाकार करता है और समस्त जगत् तथा प्रकृति को अपनी अनन्त सत्ता के अन्दर देखता है । इसमें हमारा अभिप्राय इतना ही है कि अपने पृथक् अस्तित्व की हमारी भावना, असीम, अविभक्त, अनन्त सत्ता की चेतना मे लुप्त हो जाती है जिसमें हम अपने-आपको पूर्ववत् नाम और रूप के साथ तथा अपने वर्तमान जन्म और विकास के विशेष मानसिक एवं भौतिक निर्धारणों के साथ आबद्ध अनुभव नहीं करते और विश्व के किसी भी पदार्थ या किसी भी व्यक्ति से पहले की तरह पृथक् नहीं रहते । इसी अनुभव को प्राचीन मनीषी जन्म का अभाव (अपुनर्भव) अथवा जन्म का मूलोच्छेद या निर्वाण कहते

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थे । इस अनुभव के होने पर भी हम अपने व्यक्तिगत जन्म और व्यक्त अस्तित्व के द्वार जीवन यापन तथा कर्म करना जारी रखते हैं, पर एक भिन्न प्रकार के ज्ञान तथा बिल्कुल और ही तरह के अनुभव के साथ यह जगत् भी तब बराबर चलता ही रहता है, पर हम इसे अपनी सत्ता के अन्दर देखते हैं, किसी ऐसी वस्तु के रूप मे नहीं देखते जो हमारी सत्ता से  बाहर एवं हमसे भिन्न हो । अपनी वास्तविक एवं समग्र सत्ता की इस नयी चेतना मे स्थायी रूप से निवास कर सकने का अर्थ है मुक्ति प्राप्त कर लेना तथा अमरत्व का उपभोग करना ।

 

  यहां यह जटिल विचार सामने आता है कि अमरता मृत्यु के बाद अन्य लोकों मे किवा सत्ता की उच्चतर भूमिकाओं मे ही प्राप्त हो सकती है अथवा मोक्ष को मानसिक या शारीरिक जीवन की समस्त सम्भावना का उच्छेद कर डालना चाहिये और व्यक्तिगत सत्ता का सदा के लिये निर्व्यक्तिक अनन्त सत्ता मे विलय कर देना चाहिये । इन विचारों के बल का स्रोत यह है कि आध्यात्मिक अनुभव के द्वारा इन्हें एक प्रकार का समर्थन प्राप्त होता है तथा जब अन्तरात्मा मन और ज देह के प्रबल बन्धनों को तोड़ती है तो वह इनकी एक प्रकार की आवश्यकता या एक ऊर्ध्वमुख आकर्षण अनुभव करती है। यह अनुभव होता है कि ये बन्धन समस्त पार्थिव जीवन या समस्त मानसिक अस्तित्व के सा अविच्छेद्य रूप से जुड़े हुए हैं । मृत्यु ज जगत् का राजा है, क्योकि जीवन यहां मृत्यु के अधीन रहकर ही, पुनः-पुन: मरण के द्वारा ही, अस्तित्व रखता प्रतीत होता है; अमरता को यहां कठिनाई से ही अधिगत करना होता है और वह अपने स्वरूप से ही समस्त मृत्यु का और अतएव ज जगत् मे होनेवाले समस्त जन्म का त्याग प्रतीत होती है। अमरता का क्षेत्र किसी अभौतिक स्तर मे, किन्हीं ऊर्ध्व लोकों मे होना चाहिये जहां शरीर या तो अस्तित्व ही नहीं रखता या वह भिन्न प्रकार का होता है और आत्मा का एक रूप या फिर एक गौण संयोगमात्र होता है । दूसरी ओर, जो लोग अमरता से भी परे जाना चाहते हैं वे यह अनुभव करते हैं कि सभी स्तर एवं स्वर्गलोक सांत सत्ता की अवस्थाएं हैं और अनन्त आत्मा इन सब चीजों से शून्य हैवे निर्व्यक्तिक और अनन्त सत्ता मे लय प्राप्त करने की आवश्यकता से अभिभूत होते हैं और निर्व्यक्तिक सत्ता के आनन्द को आत्मा की अभिव्यक्ति मे मिलनेवाले आनन्द के साथ किसी प्रकार समरस करने मे असमर्थता के वशीभूत होते हैं । ऐसे दर्शनों का सृजन किया गया है जो निमज्जन और विलय की इस आवश्यकता को बुद्धि के निकट प्रमाणित करते हैं; पर वस्तुत: महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक वस्तु है परात्पर की वह पुकार एवं अन्तरात्मा की मांग, इस प्रसंग मे वह एक प्रकार की निर्व्यक्तिक सत्ता या असत्ता मे अन्तरात्मा का आनन्द है । क्योकि, निर्णय करनेवाली वस्तु है, --पुरुष का निर्धारक आनन्द, वह सम्बन्ध जिसे वह अपनी प्रकृति के सा स्थापित करना चाहता है, वह अनुभव जिसे वह अपने व्यक्तिगत आत्मानुभव के

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विकास में अपनी प्रकृति की समस्त विविध सम्भावनाओं के बीच एक विशेष दिशा का अनुसरण करने के परिणामस्वरूप प्राप्त करता है । हमारी बुद्धि के किये हुए सप्रमाण विवेचन तो इस अनुभव का एक विवरणमात्र हैं जो हम तर्कबुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करते हैं; ये ऐसी युक्तियां हैं जिनके द्वारा हम मन की सहायता करते हैं ताकि वह जिस दिशा की ओर आत्मा अग्रसर हो रही है उसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर सके ।

 

   हमारी जागतिक सत्ता का कारण अहं नहीं है, जैसा कि हमारा वर्तमान अनुभव हमें मानने के लिये प्रेरित करता है; क्योंकि अहं तो जगज्जीवन की हमारी प्रणाली का एक परिणाम एवं संयोगमात्र है । यह एक सम्बन्ध है जिसे अनेक जीवों का रूप धारण करनेवाले पुरुष ने व्यष्टिभावापन्न मनों और शरीरों के बीच स्थापित किया है, यह आत्म-रक्षण और पारस्परिक वर्जन तथा आक्रमण का सम्बन्ध है जिसका उद्देश्य यह है कि इस जगत् में वस्तुओं की सब प्रकार की पारस्परिक निर्भरता के बीच एक स्वतन्त्र मानसिक और भौतिक अनुभव प्राप्त किया जा सके । परन्तु इन स्तरों पर निरपेक्ष स्वतन्त्रता प्राप्त हो ही नहीं सकती; अतएव, समस्त मानसिक और भौतिक अभिव्यक्ति का परित्याग करनेवाली निर्व्यक्तिक चेतना ही इस अन्य-वर्जक गति का एकमात्र चरम परिणाम हो सकती हैं; केवल इस तरीके से ही पूर्ण स्वतन्त्र आत्मानुभव प्राप्त किया जा सकता है । तब हमारी आत्मा अपने ही अन्दर निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व रखती प्रतीत होती है; भारतीय शब्द 'स्वाधीन' का जो अर्थ है, अर्थात् केवल अपने ऊपर निर्भर होना, ईश्वर एवं अन्य प्राणियों पर नहीं--इसी अर्थ में वह स्वाधीन होती है । अतएव इस अनुभव में ईश्वर, व्यक्तिगत आत्मा तथा अन्य प्राणी--इन सबको अज्ञानकृत भेद समझते हुए इनसे इंकार किया जाता है, इन्हें त्याग दिया जाता है, यह कार्य अहं ही करता है जो अपनी न्यूनता को स्वीकार करके अपने-आप तथा अपने विरोधी तत्त्व--दोनों का उन्मूलन कर देता है, ताकि स्वतन्त्र आत्मानुभव प्राप्त करने की उसकी अपनी मूल सहजवृत्ति पूरी हो सके कारण, वह देखता है कि ईश्वर तथा अन्य प्राणियों के साथ सम्बन्धों के द्वारा इसे पूरा करने का उसका प्रयत्न आद्योपांत भ्रम, मिथ्यात्व और निष्फलता के अभिशाप से ग्रस्त रहता है, वह उन्हें स्वीकार करना छोड़ देता है, क्योंकि उन्हें स्वीकार करने से वह उनके अधीन हों जाता है; वह अपने-आपको स्थायी मानना भी छोड़ देता है, क्योंकि अहं की स्थायिता का अर्थ है उन वस्तुओं को अर्थात् विश्व तथा अन्य प्राणियों को स्वीकार करना जिन्हें वह अपने से भिन्न मानकर बहिष्कृत करने का यत्न करता है । बौद्धों के आत्म-निर्वाण का स्वरूप है--उन सब वस्तुओं का पूर्ण बहिष्कार जिन्हें मनोमय पुरुष अनुभव करता है; अद्वैतवादी का अपनी निरपेक्ष सत्ता में आत्म-लय भी ठीक यहीं लक्ष्य है जिसकी कल्पना एक भिन्न प्रकार से की गयी है; इन दोनों लक्ष्यों के द्वारा आत्मा इस तथ्य को चरम रूप

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में प्रस्थापित करती है कि वह प्रक्रति से निरपेक्ष एवं ऐकान्तिक रूप में स्वतन्त्र है ।

 

   मोक्ष-प्राप्ति के जिस छोटे-से रास्ते को हम प्रकृति से पीछे हटने की क्रिया कहकर वर्णित कर आये हैं उसके द्वारा हमें सर्वप्रथम जो अनुभव प्राप्त होता है वह उपर्युक्त एकपक्षीय प्रवृत्ति को प्रश्रय देता है । क्योंकि उसका अर्थ है अहं को छिन्न-भिन्न करना और हमारा मन जैसा आज है उसके अभ्यासों का परित्याग करना; कारण, हमारा मन जड़तत्त्व और स्थूल इन्द्रियों के अधीन है और वस्तुओं की कल्पना केवल रूपों, पदार्थों बाह्य दृग्विषयों के रूप में तथा उन रूपों के साथ जोड़े जानेवाले नामों के रूप में ही करता है । दूसरे प्राणियों के आन्तरिक जीवन को हम प्रत्यक्ष रूप में नहीं जानते; हम अपने जीवन के साथ उसके सादृश्य के  तथा उनके वचन, कर्म आदि बाह्य चिह्नों पर आधारित अनुमान या परोक्ष ज्ञान के द्वारा ही उसे जानते हैं, उनके वचन, कर्म आदि को हमारे मन हमारी अपनी आन्तरिक सत्ता की स्थितियों के रूप में परिणत करके उनके आन्तरिक जीवन का अनुमान लगा लेते हैं; जब हम अहं और स्थूल मन के घेरे को तोड़कर आत्मा की अनन्तता में प्रविष्ट हो जाते हैं तब भी हम जगत् को तथा अन्य प्राणियों को उसी रूप में देखते हैं जिस रूप में देखने का अभ्यास मन ने हमारे अन्दर डाल रखा है, अर्थात् हम उन्हें नाम-रूपात्मक ही देखते हैं; हां, हमें आत्मा की प्रत्यक्ष और उच्चतर वास्तविकता का जो नया अनुभव प्राप्त होता है उसमें वे, मन के निकट उनकी जो प्रत्यक्ष बाह्य वास्तविकता एवं अप्रत्यक्ष आन्तरिक वास्तविकता थी उसे खो देते हैं । अब हमें जिस अधिक वास्तविक सद्वस्तु का अनुभव होता है, वे उसके सर्वथा विपरीत प्रतीत होते हैं; हमारा मन शान्त और उदासीन हो जाने के कारण उन मध्यवतीं स्तरों को जानने और उनका साक्षात्कार करने का अब और यत्न नहीं करता जो हमारी तरह उनमें भी विद्यमान हैं और जिनके ज्ञान का प्रयोजन आध्यात्मिक सत्ता और बाह्य जगत्प्रपच्च के बीच की खाई को पाटना है । हम तो तब शुद्ध आध्यात्मिक सत्ता की आनन्दमय अनन्त निर्व्यक्तिकता से तृप्त होते हैं; तब से हमें और किसी भी चीज की किंवा किसी भी व्यक्ति की परवा नहीं रहती । स्थूल इन्द्रियां हमें जो कुछ दिखाती हैं और मन उन इन्द्रियानुभवों के बारे में जो कुछ जानता एवं सोचता है और जिसमें वह इतने अपूर्ण तथा क्षणिक रूप में आनन्द लेता है, वह सब अब हमें अवास्तविक तथा निरर्थक प्रतीत होता है; सत्ता के मध्यवर्ती सत्यों पर हमारा अधिकार नहीं होता और न हम उनपर अधिकार पाने की कुछ परवा ही करते हैं । इन मध्यवर्ती सत्यों की भूमिकाओं के द्वारा ही एकमेव इन वस्तुओं का उपभोग करते हैं और ये उनके लिये उनके अस्तित्व और आनन्द का एक विशेष मूल्य धारण करती हैं । ऐसा कहा जा सकता है कि वह मूल्य ही विश्व-सत्ता को उनके लिये सुन्दर और व्यक्त करने योग्य वस्तु बना देता है । ईश्वर को जगत् में जो आनन्द प्राप्त होता है उसमें हम तब और भाग नहीं लें सकते;

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बल्कि हमें तो ऐसा प्रतीत होता है मानों सनातन प्रभु ने अपनी सत्ता के विशुद्ध स्वरूप में जड़तत्त्व की स्थूल प्रकृति को स्थान देकर अपने-आपको अवनत कर दिया हो या फिर निरर्थक नामों और अवास्तविक रूपों की कल्पना करके अपनी सत्ता के सत्य को मिथ्या रूप दे दिया हो । अथवा यदि हम उस आनन्द को अनुभव करते भी हैं तो एक ऐसी सुदूरस्थ अनासक्ति के साथ अनुभव करते हैं जो हमें घनिष्ठ प्राप्ति की किसी भी भावना के साथ इसमें भाग लेने से रोकती है, या फिर हम यदि इस विराट् आनन्द को अनुभव करते भी हैं तो इसके साथ ही एक तन्मयतापूर्ण और ऐकान्तिक आत्मानुभव के उत्कृष्टतर आनन्द के प्रति आकर्षण भी हमारे अन्दर बना रहता है । वह उत्कृष्टतर आनन्द स्थूल प्राण और शरीर के टिके रहने पर इन निम्नतर भूमिकाओं में हम जितने समय रहने के लिये बाध्य हैं उससे अधिक हमें इनमें रहने ही नहीं देता ।

 

   परन्तु अपने योगाभ्यास में जब हम आगे बढ़ते हैं तब, अथवा आत्म-साक्षात्कार के बाद हमारा आत्मा जब मुक्त भाव से पुनः जगत् की और मुड़ता है और हमारा अन्तःस्थ पुरुष अपनी प्रकृति को मुक्त रूप से पुन: अपने अधिकार में कर लेता है तब उसके परिणामस्वरूप, यदि हम दूसरों के शरीरों और उनकी बाह्य अभिव्यक्ति को ही नहीं जान जाते, बल्कि उनकी आन्तरिक सत्ता, उनके मनों और उनकी आत्माओं को तथा उनके अन्दर की उस वस्तु को भी घनिष्ठ रूप से जान जाते हैं जिससे उनके अपने स्थूल मन अभिज्ञ नहीं हैं, तो हम उनके अन्दर स्थित वास्तविक 'सत्' का भी साक्षात्कार कर लेते हैं और उन्हें हम कोरे नाम और रूप नहीं, बल्कि अपने ही परम आत्मा की अंशभूत आत्माएं अनुभव करते हैं । वे हमारे लिये सनातन के वास्तविक रूप बन जाते हैं । हमारे मन तब क्षुद्र निरर्थकता की भ्रान्ति या मिथ्यात्व की माया के अधीन नहीं रहते । निःसंदेह हमारे लिये जड़प्राकृतिक जीवन का पुराना ग्रस्तकारी मूल्य नहीं रहता, पर यह उस महत्तर मूल्य को प्राप्त कर लेता है जो दिव्य पुरुष के निकट इसका है; अब इसे हमारी अभिव्यक्ति की एकमात्र अवस्था नहीं समझा जाता, बल्कि मन और आत्मारूपी उच्चतर तत्त्वों की अपेक्षा गौण महत्त्व रखनेवाली वस्तु के रूप में ही देखा जाता है; महत्त्व में इस प्रकार की गौणता आने से इसका मूल्य घटने के बजाय बढ़ता ही है । हम देखते हैं कि हमारा भौतिक अस्तित्व, जीवन और स्वभाव पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध की केवल एक अन्यतम अवस्था को द्योतित करते हैं और इनका सच्चा उद्देश्य एवं महत्त्व तभी आंका जा सकता है जब इन्हें अपने-आपमें एक स्वतंत्र वस्तु के रूप में नहीं, बल्कि उन उच्चतर भूमिकाओं पर आश्रित वस्तुओं के रूप में देखा जाय जो इन्हें धारण करती हैं; उन उच्चतर भूमिकाओं के साथ अपने सम्बन्धों के द्वारा ही ये अपना अर्थ प्राप्त करते हैं और अतएव, उनके साथ सचेतन एकत्व के द्वारा ही ये अपनी समस्त यथार्थ प्रवृत्तियों और लक्ष्यों को पूर्ण कर सकते हैं । तब मुक्त


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आत्मज्ञान की प्राप्ति से जीवन हमारे लिये सार्थक हो जाता है और पहले की तरह निरर्थक नहीं रहता ।

 

   यह विशालतर समग्र ज्ञान एवं स्वातंत्र्य अन्त में हमारी सत्ता को मुक्त और चरितार्थ कर देता है । जब हम इसे प्राप्त करते हैं, तो हम जान जाते हैं कि क्यों हमारी सत्ता ईश्वर, हमारी आत्मा और जगत्--इन तीन तत्त्वों के बीच गति करती है; इन्हें या इनमें से किन्हीं को हम अब पूर्ववत् एक-दूसरे के विरुद्ध, असंगत एवं विसंवादी नहीं अनुभव करते; दूसरी ओर, हम इन्हें अपने अज्ञान की ऐसी अवस्थाएं भी नहीं समझते जो सबकी सब अन्त में शुद्ध निर्व्यक्तिक एकता में लय को प्राप्त हो जाती हैं । बल्कि अपनी आत्मचरितार्थता की अवस्थाओ के रूप में हम इनकी आवश्यकता अनुभव करते हैं । इन अवस्थाओं का मूल्य मुक्ति के बाद भी सुरक्षित रहता है, वरंच तब ही इन्हें अपना वास्तविक मूल्य प्राप्त होता है । तब हमें अपनी सत्ता पहले की तरह उन दूसरी सत्ताओं से पृथक् नहीं अनुभव होती जिनके साथ हमारे सम्बन्धों के द्वारा हमारा जगद्विषयक अनुभव गठित होता है । इस नयी चेतना में वे सब हमारे अन्दर निहित होती हैं और हम उनमें । वे और हम आगे को एक-दूसरी का बहिष्कार करनेवाली ऐसी अनेकानेक अहमात्मक सत्ताओं के रूप में अस्तित्व नहीं रखते जिनमें सें प्रत्येक अपनी निजी स्वतन्त्र चरितार्थता या आत्म-अतिक्रमण की कामना करती है और उसका अन्तिम लक्ष्य इसके सिवा और कुछ भी नहीं होता; वे सभी 'सनातन सत्ता' ही होती हैं और उनमें से प्रत्येक में रहनेवाली आत्मा सबको गुप्त रूप में अपने अन्दर समाविष्ट रखती है और अपनी एकता के इस उच्चतर सत्य को अपने पार्थिव अस्तित्व में प्रत्यक्ष तथा प्रभावशाली बनाने के लिये नाना प्रकार से यत्न करती है । स्व-दूसरे को बहिष्कृत करना नहीं, बल्कि अपने अन्दर समाविष्ट करना ही हमारी व्यक्तिगत सत्ता का दिव्य सत्य है, अपनी स्वतन्त्र चरितार्थता नहीं, बल्कि प्रेम ही उच्चतर नियम है ।

 

  पुरुष जो हमारी वास्तविक सत्ता है सदा ही प्रकृति से स्वतन्त्र और उसका स्वामी है और इस स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिये हम जो यत्न कर रहे हैं वह समुचित ही है; अहं-प्रधान क्रिया-प्रवृत्ति और इसके स्व-अतिक्रमण का प्रयोजन भी यही है, परन्तु इसकी यथार्थ परिपूर्णता स्वतन्त्र अस्तित्व के अहंमय सिद्धान्त को चरम एवं निरपेक्ष रूप देने में नहीं है, बल्कि पुरुष और प्रकृति के परस्पर-सम्बन्ध की इस अन्य उच्चतम भूमिका को प्राप्त करने में है । वहां प्रकृति का अतिक्रमण हो जाता है, पर उसके ऊपर प्रभुत्व भी प्राप्त हो जाता है, हमारी व्यक्तिगत सत्ता पूर्ण रूप से सार्थक हो जाती है, पर साथ ही जगत् के तथा दूसरों के साथ हमारे सम्बन्ध भी पूर्ण सार्थकता प्राप्त कर लेते हैं । अतएव, भूलोक की कुछ भी परवा न करते हुए परे अवस्थित स्वर्गलोकों में व्यक्तिगत मोक्ष प्राप्त करना हमारा सर्वोच्च लक्ष्य नहीं है; दूसरों का मोक्ष तथा उनकी परिपूर्णता साधित करना भी उतना ही हमारा निज

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कार्य है, --हम प्रायः यहांतक कह सकते हैं कि हमारा दिव्य आत्महित है, --जितना कि हमारा अपना मोक्ष । अन्यथा दूसरों के साथ हमारी एकता का कोई वास्तविक अर्थ नहीं होगा । इस जगत् में अहं-भावमय सत्ता के प्रलोभनों को जीतना अपने ऊपर हमारी पहली विजय है; संसार से परे के स्वर्गलोकों में मिलनेवाले व्यक्तिगत सुख के प्रलोभन को जीतना हमारी दूसरी विजय है; जीवन का त्याग करके निर्व्यक्तिक अनन्त सत्ता में आत्मलीनता का आनन्द प्राप्त करने के सबसे महान् प्रलोभन को जीतना अन्तिम और सबसे बड़ी विजय है । इस अन्तिम विजय के बाद ही हम अपनी व्यक्तिगत सत्ता की समस्त एकदेशीयता से मुक्त होते हैं और पूर्ण आध्यात्मिक स्वातंत्र्य प्राप्त करते हैं ।

 

   मोक्ष-प्राप्त आत्मा की स्थिति नित्यमुक्त पुरुष की स्थिति होती है । उसकी चेतना परात्परता और सर्वग्राही एकत्व की चेतना होती है । उसका आत्मज्ञान ज्ञान के समस्त रूपों का बहिष्कार नहीं करता, बल्कि सब वस्तुओं को परमेश्वर और उसकी दिव्य प्रकृति में एकीभूत तथा सुसंगत कर देता है । भगवन्मिलन का तीव्र धार्मिक हर्षोन्माद, जो केवल भगवान् और हमारी आत्मा को ही अनुभव करता है तथा और सब चीजों को बहिष्कृत कर देता है, मुक्त आत्मा के लिये एक ऐसा घनिष्ठ अनुभवमात्र है जो सब प्राणियों को चारों ओर से अपने भुजपाश में कसे हुए दिव्य प्रेम और आनन्द के आलिंगन में भाग लेने के लिये इसे तैयार करता है । सिद्ध आत्मा उस स्वर्गिक आनन्द में निवास नहीं कर सकती जो भगवान् को और हमें तथा भाग्यशाली भक्तों को आनन्द में एकीभूत कर देता है, पर जिसे प्राप्त करके हम दीन-दुःखियों तथा उनके दुःखों को केवल उदासीनता के भाव में देखते रह सकते हैं । क्योंकि ये दीन-दुःखी भी उसकी अपनी आत्माएं हैं; व्यक्तिगत रूप में दुःख और अज्ञान से मुक्त होकर वह स्वभावत: ही उन्हें भी अपनी मुक्त अवस्था की ओर आकृष्ट करने में प्रवृत्त होती है । दूसरी और, भगवान् और परात्पर को त्याग करके अपने-आप दूसरे लोगों तथा जगत् के बीच के सम्बन्धों में किसी प्रकार से डूबे रहना तो उसके लिये और भी अधिक असम्भव है, और अतएव वह भूलोक से या मनुष्य-मनुष्य के ऊंचे-से-ऊंचे एवं अत्यन्त परार्थपूर्ण सम्बन्धों से भी बंधी नहीं रह सकती । उसकी क्रियाप्रवृत्ति या चरम सिद्धि दूसरों के लिये अपने-आपको मिटा देने एवं पूर्णतया उत्सर्ग कर देने में नहीं है, बल्कि ईश्वर-प्राप्ति, मुक्ति और दिव्य आनन्द के द्वारा अपने-आपको कृतार्थ करने में है जिससे कि उसकी कृतार्थता में तथा इसके द्वारा दूसरे लोग भी कृतार्थ हो जायें । कारण, भगवान् में ही, भगवत्पाप्ति के द्वारा ही जीवन के सब विरोध-वैषम्य दूर हो सकते हैं, और अतएव मनुष्यों को भगवान् की ओर उठा ले जाना ही, अन्त में, मनुष्यजाति की सहायता करने का एकमात्र अमोघ उपाय है । हमारे आत्मानुभव की अन्य सब क्रियाओं एवं उपलब्धियों का भी अपना उपयोग एवं बल है, पर अन्त में इन

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अनेकानेक पगडंडियों या इन एकाकी मार्गों को चक्कर काटकर उस सर्वांगीण पथ की विशालता में मिल जाना होगा जिसके द्वारा मुक्त आत्मा सबको अतिक्रम कर जाती है तथा उन्हें अपने अन्दर समाविष्ट भी कर लेती है और भगवान् की व्यक्त सत्ता के रूप में उन सबको पूर्णतया कृतार्थ करने के लिये उनका आशा-केन्द्र एवं शक्तिशाली सहायक भी बन जाती है ।

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