Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २८
राजयोग
जैसे हठयोगी के लिये योग के सब बन्द द्वारों की कुंजी शरीर और प्राण है, वैसे ही राजयोग में उन द्वारों की कुंजी मन है । पर क्योंकि दोनों में-हठयोग में पूर्ण रूप से और राजयोग की प्रचलित प्रणाली में आंशिक रूप से-यह माना जाता है कि मन शरीर और प्राण पर अवलम्बित है, अतएव, दोनों ही प्रणालियों में आसन और प्राणायाम का अनुष्ठान समाविष्ट है; पर एक में ये सम्पूर्ण क्षेत्र पर अधिकार किये रहते हैं, पर दूसरी में इनमें से प्रत्येक केवल एक ही सरल प्रक्रियातक सीमित रहता है और दोनों का सम्मिलित प्रयोजन एक सीमित और मध्यवर्ती कार्य को ही पूरा करना होता है । हम सहज ही देख सकते हैं कि मनुष्य यद्यपि अपनी सत्ता में एक देहधारी आत्मा है, फिर भी, अपनी पार्थिव प्रकृति में वह कितने बड़े परिमाण में एक देहप्रधान एवं प्राणमय सत्ता है और हम यह भी देख सकते हैं कि कैसे उसकी मानसिक क्रियाएं कम-से-कम प्रथम दृष्टि में, लगभग पूर्ण रूप से उसके शरीर और स्नायु-मणडल के अधीन प्रतीत होती हैं । आधुनिक पदार्थविज्ञान और मनोविज्ञान भी कुछ समयतक ऐसा मानते रहे हैं कि यह अधीनता वास्तव में एक प्रकार की अभिन्नता है; उन्होंने यह सिद्धान्त स्थापित करने का यत्न किया है कि मन या आत्मा जैसी किसी पृथक् (शरीर से भिन्न) सत्ता का यहां अस्तित्व ही नहीं है और मन की सभी क्रियाएं वस्तुतः शरीर के ही व्यापार हैं । इस अयुक्तियुक्त सिद्धान्त को यदि एक ओर छोड़ दिया जाये तो भी वैसे मन की इस अधीनता का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है कि इसे एक सर्वथा अपरिहार्य अवस्था ही मान लिया गया है और मन के द्वारा प्राण तथा शरीर के व्यापारों के नियंत्रण को या इनसे अपने को अलग कर लेने की उसकी शक्ति को या ऐसी किसी भी चीज को चिरकालतक एक भूल, मन की एक विकृत अवस्था या इन्द्रजाल कहकर वर्णित किया गया है । अतएव, मन की अधीनता एक चरम-परम सत्य बनकर रही है, और पदार्थविज्ञान को इस अधीनता की असली कुंजी नहीं मिलती, न वह इसकी खोज ही करता है और अतएव, वह हमारे लिये मुक्ति और प्रभुत्व का रहस्य भी नहीं उपलब्ध कर सकता ।
योग का मनोभौतिक विज्ञान यह भूल नहीं करता । वह कुंजी की खोज करता है, उसे पा लेता है और हमारे लिये मुक्ति साधित कर सकता है; क्योंकि वह इस बात को ध्यान में रखता है कि हमारी स्थूल सत्ता के पीछे एक चैत्य या मानसिक शरीर है और हमारा यह भौतिक शरीर स्थूल आकार में उसकी एक प्रकार की प्रतिकृति है, और उस मानसिक शरीर के द्वारा वह भौतिक शरीर के उन रहस्यों को
५४५
खोज सकता है जो निरे भौतिक अनुसन्धान के द्वारा प्रकट नहीं होते । इस मानसिक या चैत्य शरीर को आत्मा मृत्यु के पश्चात् भी धारण किये रहती है, इसमें एक प्रकार की सूक्ष्म प्राणशक्ति भी है जो इसके अपने सूक्ष्म स्वभाव और उपादान के अनुरूप है, --क्योंकि जहां कहीं भी किसी प्रकार का जीवन है, वहां प्राणशक्ति का तथा उसके कार्य के आधारभूत उपादान का होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है, --और यह शक्ति नाड़ी-नामक अनेक प्रणालिकाओं के एक संस्थान में से संचालित की जाती है जो चैत्य शरीर का सूक्ष्म स्नायु-संघटन है, --ये स्नायु- प्रणालिकाएं छ: (या वस्तुत: सात) केंद्रों के रूप में पुंजीभूत हैं जिन्हें पारिभाषिक रूप में पद्म या चक्र कहा जाता है और ये एक चढ़ती हुई शृंखला में उस शिखर तक ऊंची उठी हुई हैं जहां सहस्रदल पद्म है; इस पद्म से ही समस्त मानसिक एवं प्राणिक शक्ति प्रवाहित होती है । इन पद्मों में से प्रत्येक मनोवैज्ञानिक शक्तियों, सामर्थ्यों और क्रियाओं-सम्बन्धी अपनी विशिष्ट प्रणाली का केंद्र एवं उन शक्तियों आदि का कोषागार है, --प्रत्येक प्रणाली हमारी मनोवैज्ञानिक सत्ता के किसी स्तर से सम्बन्ध रखती है, --और ये शक्तियां एवं क्रियाएं आदि नाड़ियों में से संचरित होती हुई प्राणशक्तियों की धारा से निःसृत होती हैं और उसीमें लौट जाती हैं ।
चैत्य शरीर की यह व्यवस्था भौतिक शरीर के अन्दर इस रूप में प्रकट होती है कि उसमें एक दणडाकार मेरुस्तम्भ है तथा स्नायुग्रन्धियों के कुछ चक्राकार केंद्र हैं; ये केंद्र या चक्र मेरुस्तम्भ के मूल से, जिसके साथ सबसे निचला चक्र जुड़ा हुआ है, उठते हुए मस्तिष्क तक पहुंचते हैं और कपाल के शीर्षबिन्दु पर स्थित ब्रह्मरन्ध्र में अपने शिखर पर पहुंच जाते हैं । परन्तु देहप्रधान मनुष्य में ये चक्र या पद्म बन्द हैं या फिर केवल कुछ-कुछ ही खुले हैं । परिणामस्वरूप, उसमें केवल ऐसी ही शक्तियां और वे भी उतनी ही मात्रा में क्रियाशील हैं जैसी और जितनी उसके साधारण भौतिक जीवन के लिये पर्याप्त हैं, और मन तथा अन्तरात्मा का भी उतना ही अंश उसके अन्दर अपनी क्रीड़ा कर रहा है जितना इस जीवन की आवश्यकताओं के साथ मेल खा सकता है । यंत्रीय दृष्टिकोण से देखा जाये तो यही असली कारण है कि देहधारी आत्मा शारीरिक और प्राणिक जीवन पर इतनी निर्भर दिखायी देती है, --यद्यपि यह निर्भरता उतनी पूर्ण किंवा उतनी वास्तविक नहीं है जितनी कि दिखायी देती है । स्थूल शरीर और जीवन में आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति कार्यरत नहीं है, मन की गुप्त शक्तियां उसमें जागरित नहीं हैं, शरीर और प्राण की शक्तियों का ही प्रभुत्व है । परन्तु इस बीच परमोच्च शक्ति वहां प्रसुप्त रूप में बराबर ही विद्यमान रहती है; ऐसा कहा जाता है कि यह सबसे नीचे के चक्र अर्थात् मूलाधार में एक सर्प की भांति कुंडल मारे सोयी पडी है, --अतएव, इसे कुण्डलिनी शक्ति के नाम से पुकारा जाता है । जब प्राणायाम के द्वारा शरीर के अन्दर प्राण की ऊपर और नीचे की धाराओं का भेद मिट जाता है तो यह
५४६
कुण्डलिनी चौंककर जाग उठती है, यह अपने कुण्डलों को खोलती है और एक अग्निमय सर्प की भांति ऊपर उठना आरम्भ करती है, जैसे-जैसे यह आरोहण करती है, प्रत्येक पद्म या चक्र को खोलती जाती है, यहांतक कि अन्त में शक्ति ब्रह्मरन्ध्र में पहुंचकर एकत्व की गहरी समाधि में पुरुष से मिलन लाभ करती है ।
यदि एक कम प्रतीकात्मक, अधिक दार्शनिक पर शायद कम गहन भाषा में कहें तो इसका अर्थ यह है कि हमारी सत्ता की असली शक्ति हमारे प्राण-संस्थान की गहराइयों में प्रसुप्त और निश्चेतन पड़ी हुई है और प्राणायाम के अभ्यास से वह जाग उठती है । विकसित होती हुई वह हमारी मनोवैज्ञानिक सत्ता के सभी केंद्रों को खोल डालती है, उन केंद्रों में एक ऐसी सत्ता की शक्तियां एवं चेतना निवास करती हैं जो आज शायद हमारी प्रच्छन्न सत्ता कहलायेगी; अतएव, जैसे-जैसे शक्ति और चेतना का प्रत्येक केंद्र खुलता है, हम क्रमिक मनोवैज्ञानिक स्तरों में प्रवेश लाभ करते जाते हैं और उनसे सम्बन्ध रखनेवाले सत्ता के लोकों या उसकी विराट् भूमिकाओं के साथ आदान-प्रदान स्थापित करने में समर्थ हो जाते हैं । चैत्य सत्ता की वे सब शक्तियां जो देहप्रधान मनुष्य के लिये तो असामान्य हैं पर अन्तरात्मा के लिये स्वाभाविक हैं हमारे अन्दर विकसित हो जाती हैं । अन्त में, आरोहण के शिखर पर, यह ऊपर उठती और विकसित होती हुई शक्ति एक अतिचेतन सत्ता के साथ मिलन लाभ करती है जो हमारी भौतिक और मानसिक सत्ता के पीछे एवं ऊपर गुप्त रूप में अवस्थित है; यह मिलन हमें एकत्व की गहरी समाधि में पहुंचा देता है जिसमें हमारी जाग्रत् चेतना अतिचेतन में लीन हो जाती है । इस प्रकार प्राणायाम के पूर्ण और अनवरत अभ्यास के द्वारा हठयोगी अपने ही ढंग से आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक परिणामों को प्राप्त करता है, अन्य योगों में इन परिणामों की प्राप्ति के लिये अधिक प्रत्यक्षत: आन्तरात्मिक एवं आध्यात्मिक विधियों के द्वारा यत्न किया जाता है । इसके साथ वह केवल एक ही मानसिक साधन को अपने योगाभ्यास में सम्मिलित करता है; वह है किसी विशेष मंत्र, पवित्र शब्द, नाम या गुह्य सूत्र का उपयोग । योग की भारतीय प्रणालियों में उसका अत्यधिक महत्त्व है और वह उन सबमें समान रूप से पाया जाता है । मंत्र-शक्ति, षट्चक्र और कुण्डलिनी शक्ति का यह रहस्य समस्त जटिल मनोभौतिक विद्या एवं साधना का एक प्रधान सत्य है; तान्त्रिक दर्शन हमें विद्या एवं साधना का एक युक्तिपूर्ण विवरण और इसकी विधियों का एक पूर्णतम सारसंग्रह देने का दावा करता है । भारत के वे सभी धर्म और साधनाभ्यास जो मनोभौतिक पद्धति का व्यापक रूप से प्रयोग करते हैं, अपनी साधनाओं के लिये न्यूनाधिक इसीपर निर्भर करते हैं ।
राजयोग भी प्राणायाम का उपयोग करता है और उन्हीं प्रधान मानसिक उद्देश्यों के लिये करता है जिनके लिये कि हठयोग; परन्तु अपने सम्पूर्ण सिद्धान्त में एक
५४७
मानसिक पद्धति होने के कारण, यह उसे अपने क्रियात्मक अभ्यासों की शृंखला में केवल एक अवस्था के रूप में तथा एक अत्यन्त परिमित सीमा तक तीन या चार व्यापक प्रयोजनों के लिये ही प्रयुक्त करता है । यह आसन और प्राणायाम से आरम्भ नहीं करता, बल्कि पहले मन की नैतिक शुद्धि के लिये आग्रह करता है । यह प्रारम्भिक साधन परम महत्त्वशाली है, इसके बिना शेष राजयोग का मार्ग कष्टों और बाधाओं से संकुल और अप्रत्याशित मानसिक, नैतिक तथा शारीरिक संकटों से पूर्ण हो सकता है ।१ उसकी प्रचलित प्रणाली में यह नैतिक शुद्धि पांच 'यम' और पांच 'नियम' इन दो वर्गों में विभक्त है । इनमें से यम व्यवहारसम्बन्धी नैतिक आत्म-संयम के नियम हैं, जैसे, सत्य-भाषण करना, पीड़ा पहुंचाने या हिंसा या चोरी करने से विरत होना (सत्य, अहिंसा, अस्तेय) आदि; पर वास्तव में इन्हें नैतिक आत्म-संयम एवं पवित्रता की सामान्य आवश्यकता के कुछ मुख्य लक्षणमात्र समझना होगा । अधिक व्यापक रूप में, यम का अभिप्राय हैं ऐसा कोई भी आत्म-अनुशासन जिसके द्वारा मनुष्य के राजसिक अहंभाव और इसकी उत्तेजनाओं एवं कामनाओं को विजित तथा शान्त करके पूर्ण रूप से मिटा दिया जाये । इसका उद्देश्य नैतिक शान्ति अर्थात् आवेशशून्य स्थिति को उत्पन्न करना है और इस प्रकार राजसिक मनुष्य में अहंभाव की मृत्यु के लिये तैयारी करना है । इसी प्रकार 'नियम' का अभिप्राय कुछ-एक नियमित अनुष्ठानों के द्वारा मन को अनुशासन में लाना है जिनमें से सर्वोच्च है भागवत सत्ता का ध्यान करना (ईश्वरप्रणिधान) । उनका उद्देश्य सात्त्विक शान्ति और पवित्रता को जन्म देना तथा एकाग्रता के लिये तैयारी करना है जिसकी नींव पर शेष सारे योग का सुरक्षित रूप से अनुष्ठान किया जा सकता है ।
इसी अवस्था में, जब कि यह नींव सुस्थिर हो जाती है, आसन और प्राणायाम के अभ्यास का समय आता है और ये अपने पूर्ण फलों को भी तभी उत्पन्न कर सकते हैं । मन और नैतिक सत्ता का नियन्त्रण अपने-आपमें हमारी साधारण चेतना को केवल यथोचित प्रारम्भिक अवस्था में ले आता है; यह उच्चतर चैत्य पुरुष के उस विकास या आविर्भाव को सम्पन्न नहीं कर सकता जो कि योग के महत्तर लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये आवश्यक है । इस आविर्भाव को सम्पन्न करने के लिये प्राण और स्थूल शरीर के मानसिक सत्ता के साथ वर्तमान गठबन्धन को ढीला करना होगा और महत्तर चैत्य पुरुष के द्वारा अतिचेतन पुरुष के साथ मिलन की ओर आरोहण करने के लिये मार्ग प्रशस्त करना होगा । यह कार्य प्राणायाम के द्वारा
१ आधुनिक भारत में, जो लोग योग के प्रति आकृष्ट होते हैं पर इसकी क्रिया-प्रक्रियाओं का ज्ञान पुस्तकों से या इस विषय की केवल थोड़ी-सी जानकारी रखनेवाले व्यक्तियों से अर्जित करते हैं, वे प्रायः सीधे ही राजयोग के प्राणायाम की प्रक्रियाओं में कूद पड़ते हैं, किन्तु इसके परिणाम बहुधा अनिष्टकारी ही होते हैं । अत्यन्त शक्तिशाली आत्मावाले व्यक्ति ही इस मार्ग में भूलें करने के दुष्परिणाम को सह सकते हैं ।
५४८
किया जा सकता है । राजयोग आसन की एक सहज-से-सहज एवं अत्यन्त स्वाभाविक स्थिति का अर्थात् एक ऐसी स्थिति का ही उपयोग करता है जिसे शरीर बैठने पर एवं अपने-आपको समेटने पर स्वभावत: ही ग्रहण करता है, पर पीठ और सिर बिल्कुल तने हुए एवं सीधी रेखा में रहते हैं, जिससे कि सुषष्णा नाड़ी जरा भी न झुकी रहे । इस पिछले नियम का उद्देश्य स्पष्टतः ही इस सिद्धान्त के साथ सम्बद्ध है कि हमारे स्नायुमण्डल में छ: चक्र हैं तथा मूलाधार और ब्रह्मरन्ध्र के बीच प्राणशक्ति का संचार होता रहता है । राजयोग का प्राणायाम स्नायुमण्डल को शुद्ध और निर्मल करता है; यह हमें ऐसी सामर्थ्य प्रदान करता है कि हम प्राणशक्ति को सारे शरीर में समान रूप से संचारित कर सकते हैं, साथ ही, आवश्यकतानुसार हम इसे जिधर भी संचालित करना चाहें कर सकते हैं और इस प्रकार शरीर और प्राण- सत्ता की पूर्णतः स्वस्थ एवं निर्दोष स्थिति को सुरक्षित रख सकते हैं; यह हमें शरीर में प्राणशक्ति की पांचों अभ्यस्त क्रियाओं के ऊपर नियन्त्रण प्रदान करता है और साथ ही उन अभ्यासगत विभागों को भी तोड़ गिराता है जिनके कारण सामान्य जीवन में हमारे लिये प्राणशक्ति की केवल साधारण यान्त्रिक प्रक्रियाएं करना ही सम्भव होता है । यह मनोभौतिक संस्थान के छ: केन्द्रों को पूर्ण रूप से खोल देता है और प्रत्येक ऊर्ध्वोन्मूल स्तर पर जाग्रत् चेतना में जागरित शक्ति के प्रभाव तथा अनावृत पुरुष की ज्योति को ले आता है । मन्त्र के प्रयोग के साथ मिलकर तो यह शरीर के अन्दर दिव्य शक्ति को लाता है और समाधि की उस एकाग्रता के लिये जो राजयोग-प्रणाली का मुकुट है, हमें तैयार करता तथा सुविधा प्रदान करता है ।
राजयोग की एकाग्रता चार क्रमिक अवस्थाओं में विभक्त है, इनमें से आरम्भिक अवस्था है मन और इन्द्रियों दोनों को बाह्य वस्तुओं से पीछे खींच लेना (प्रत्याहार); इससे अगली है--अन्य सब विचारों और मानसिक क्रियाओं को त्यागकर चित्त को एकाग्रता के एक ही विषय पर स्थिर करना (धारणा); इसके बाद है--मन का इस विषय में सतत निमग्न रहना (ध्यान); अन्तिम है--चेतना का पूर्ण रूप से अन्दर चले जाना जिसके द्वारा यह समाधि के एकत्व में पहुंचकर समस्त बाह्य मानसिक क्रिया से बेसुध हो जाती है । इस मानसिक साधन का वास्तविक लक्ष्य मन को बाह्य तथा मानसिक जगत् सें हटाकर भगवान् के साथ मिलन की अवस्था में ले जाना है । अतएव, पहली तीन अवस्थाओं में किसी मानसिक साधन या अवलम्बन का प्रयोग करना होता है जिसके द्वारा, एक विषय से दूसरे की ओर इधर-उधर दौड़ते रहने का अभ्यासी मन, एक ही विषय पर स्थिर हो जाये, और वह कोई ऐसा विषय होना चाहिये जो भगवान् के विचार को निरूपित करे । साधारणतया वह एक नाम या रूप या मन्त्र होता है जिसके द्वारा मन को ईश्वर के अनन्य ज्ञान या आराधन में स्थिर किया जा सकता है । इस प्रकार अपने-आपको विचार पर एकाग्र करके मन विचार से उसके सत्तत्त्व में प्रवेश करता
५४९
है, जिसमें डूबकर वह निष्चल-नीरव, निमग्न और तद्रूप हो जाता है । यह परम्परागत विधि है । किन्तु कुछ अन्य विधियां भी हैं जो समान रूप से राजयोग के ढंग की हैं, क्योंकि वे मानसिक एवं चैत्य सत्ता को कुंजी के रूप में प्रयोग में लाती हैं । उनमें से कुछ का उद्देश्य मन को तुरन्त निमग्न करना न होकर उसे स्तब्ध करना होता है, इस प्रकार की एक साधन-पद्धति वह है जिसके द्वारा मन का केवल निरीक्षण किया जाता है और निरुद्देश्य दौड़धूप करते हुए बेसिर-पैर के विचारों में भटकते रहने की इसकी आदत को समाप्त होने दिया जाता है, इस विधि में मन यह अनुभव करता है कि इस दौड़धूप के लिये उसे जो अनुमति मिली हुई थी वह सब वापिस ले ली गयी है तथा इसका अब न कोई उद्देश्य रहा है न रस; इस प्रकार की एक और पद्धति भी है जो अधिक आयासपूर्ण एवं शीघ्र फल देनेवाली है । उसके द्वारा समस्त बहिर्मुख विचार को बहिष्कृत करके मन को अपने ही अन्दर डूबने के लिये बाध्य किया जाता है । उस स्थिति में अपनी पूर्ण निस्तब्धता में वह शुद्ध सत्स्वरूप 'पुरुष' पर ही विचार कर सकता है, या फिर, उसकी अतिचेतन सत्ता में प्रविष्ट हो जा सकता है । विधि में भेद है, लक्ष्य और परिणाम एक ही हैं ।
कोई यह कल्पना कर सकता है कि यहां राजयोग का सम्पूर्ण कार्य एवं लक्ष्य पूरा हो जाता है । क्योंकि, इसका कार्य चेतना की तरंगों अर्थात् उसकी बहुविध क्रियाओं, चित्तवृत्ति को शान्त करना है, इसके लिये पहले तो यह निरन्तर ही मलिन राजसिक क्रियाओं के स्थान पर शान्त एवं आलोकमय सात्त्विक क्रियाओं को प्रतिष्ठित करता है और उसके बाद सबकी सब क्रियाओं को शान्त कर देता है । इसका लक्ष्य भगवान् के साथ नीरव आत्ममिलन एवं एकत्व लाभ करना है । पर वास्तव में हम देखते हैं कि राजयोग की प्रणाली में अन्य लक्ष्य भी सम्मिलित हैं,--जैसे गुह्य शक्तियों या सिद्धियों का अभ्यास और प्रयोग; उनमें से कुछ एक तो इसके मुख्य उद्देश्य से असम्बद्ध और यहांतक कि असंगत प्रतीत होते हैं । निःसन्देह, उन शक्तियों या सिद्धियों की बहुधा ही यह कहकर निन्दा की जाती है कि ये ऐसे संकट और व्याक्षेप हैं जो योगी को उसके भगवन्मलिन-रूपी एकमात्र उचित लक्ष्य से छू ले जाते हैं । अतएव, स्वभावतः ही ऐसा प्रतीत होगा कि मानो जबतक हम मार्ग में हैं तबतक तो इन्हें त्याग ही देना होगा; और जब एक बार लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी तो ऐसा लगेगा कि अब ये तुच्छ और निरर्थक हैं । पर राजयोग एक चैत्य विज्ञान है और चेतना की सभी उच्चतर भूमिकाओं तथा उनकी शक्तियों की प्राप्ति इसके अन्दर समाविष्ट हो जाती है, क्योंकि उन भूमिकाओं एवं शक्तियों के द्वारा ही मनोमय पुरुष अतिचेतन सत्ता की ओर ऊपर उठता है तथा परमोच्च पुरुष के साथ मिलन लाभ करने की अपनी चरम-परम शक्यता को चरितार्थ करता है । अपि च, जबतक योगी शरीर में रहता है तबतक वह सदा मानसिक रूप से निष्किय एवं समाधि-मग्न ही नहीं रहता, और उसकी सत्ता के उच्चतर स्तरों पर उसे जो शक्तियां और अवस्थाएं प्राप्त हो
५५०
सकती हैं उनका वर्णन करना चैत्य-विज्ञान की पूर्णता के लिये आवश्यक है ।
ये शक्तियां और अनुभव सर्वप्रथम तो इस भौतिक स्तर से, जिसमें हम रहते हैं, ऊपर अवस्थित प्राणिक और मानसिक स्तरों से सम्बन्ध रखते हैं और सूक्ष्म शरीर में ये अन्तरात्मा के लिये स्वाभाविक ही हैं; जैसे-जैसे आत्मा की स्थूल शरीर पर निर्भरता कम होती जाती है, वैसे-वैसे ये असामान्य क्रियाएं सम्भव होती जाती हैं और यहांतक कि हमारे बिना चाहे भी स्वयमेव व्यक्त होती रहती हैं । ये क्रियाएं किंवा शक्तियां और अनुभव चैत्य विज्ञान के द्वारा प्रतिपादित प्रक्रियाओं से प्राप्त और स्थिर किये जा सकते हैं और तब इनका प्रयोग करना न करना हमारे संकल्प पर निर्भर करता है; अथवा यह भी हो सकता है कि इन्हें स्वयमेव विकसित होने दिया जाये और इनका प्रयोग तभी किया जाये जब कि ये स्वयमेव प्राप्त हों, या जब अन्तरस्थ भगवान् इनके प्रयोग के लिये हमें प्रेरित करें; या फिर, इस प्रकार स्वाभाविक रूप से विकसित और सक्रिय होने पर भी, इन्हें योग के एकमात्र परम ध्येय के प्रति एकचित्त निष्ठा रखते हुए त्याग दिया जा सकता है । दूसरे, कुछ ऐसी पूर्णतर एवं महत्तर शक्तियां भी हैं जो अतिमानसिक स्तरों से सम्बन्ध रखती हैं और भगवान् की अतिमानसिक-प्रज्ञानमय आध्यात्मिक सत्ता की वास्तविक शक्तियां हैं । इन्हें व्यक्तिगत प्रयत्न के द्वारा, सुरक्षित या सम्पूर्ण रूप से, कदापि नहीं प्राप्त किया जा सकता, बल्कि ये हमें केवल ऊपर से ही प्राप्त हो सकती हैं, अथवा यदि व्यक्ति मन से ऊपर आरोहण करके आध्यात्मिक सत्ता, शक्ति, चेतना और विचारणा में निवास करने लगता है तथा जब वह ऐसा करने लगता है तभी उसके लिये ये शक्तियां स्वाभाविक हो सकती हैं । यदि वह तब भी जगत्-सत्ता के अन्दर कर्म करना जारी रखता है तो ये शक्तियां तब असामान्य और श्रम-प्राप्त सिद्धियां न रहकर उसके कर्म की वास्तविक प्रकृति एवं प्रणालीमात्र बन जाती हैं ।
कुल मिलाकर, पूर्णयोग के लिये राजयोग और हठयोग की विशिष्ट विधियां प्रगति की किन्हीं विशेष अवस्थाओं में समय-समय पर उपयोगी हो सकती हैं, पर वे अनिवार्य नहीं हैं । यह ठीक है कि उनके प्रधान लक्ष्यों को योग के सर्वांगीण स्वरूप में सम्मिलित करना होगा; पर इन्हें अन्य साधनों से भी प्राप्त किया जा सकता है । क्योंकि, पूर्णयोग की विधियां मुख्यतः आध्यात्मिक होनी चाहियें, और भौतिक विधियों अथवा नियत चैत्य या चैत्य-भौतिक प्रक्रियाओं पर बड़े परिमाण में निर्भर रहने का अर्थ उच्चतर क्रिया का स्थान निम्नतर क्रिया को देना होगा । इस प्रश्न पर हम एक प्रसंग में आगे चलकर विचार करेंगे, जब हम विधियों के समन्वय के अन्तिम सूत्र पर आयेंगे । यहां हम विभिन्न योगों का जो विवेचन कर रहे हैं उसका उद्देश्य हमें इस समन्वय की ओर ले जाना ही है ।
५५१
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.