योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १२

 

सच्चिदानन्द का साक्षात्कार

 

पिछले अध्याय में हमने आत्मा के जिन प्रकारों का वर्णन किया है वे प्रथम दृष्टि में अत्यन्त तत्त्वज्ञानात्मक ढंग के प्रतीत हो सकते हैं, ऐसे बौद्धिक विचार प्रतीत हो सकते हैं जो क्रियात्मक उपलब्धि की अपेक्षा कहीं अधिक दार्शनिक विश्लेषण के लिये ही उपयुक्त हैं । पर यह एक मिथ्या विभेद है जो हमारी बौद्धिक शक्तियों के विभाजन से उत्पन्न दुआ है । जिस प्राचीन ज्ञान को, प्राची के ज्ञान को, आधार बनाकर हम चल रहे हैं उसका यह, कम-से-कम, एक मूल सिद्धान्त है कि दर्शन को केवल एक उच्च कोटि का बौद्धिक आमोद-प्रमोद या तर्कशास्त्रीय सूक्ष्मता की क्रीड़ा अथवा यहांतक कि दार्शनिक सत्य की उसके अपने निज के लिये खोज नहीं होना चाहिये, बल्कि उसे सम्पूर्ण सत्ता के मूल  सत्यों की सभी समुचित साधनों से खोज करनी चाहिये और फिर उन सत्यों को हमारी अपनी सत्ता के मार्ग-निर्देशक सूत्र बन जाना चाहिये । सांख्य, अर्थात् सत्य का एक अमूर्त एवं विश्लेषणात्मक साक्षात्कार, ज्ञान का एक पक्ष है; योग, अर्थात् अपनी अनुभूति एवं आन्तरिक अवस्था में तथा अपने बाह्य जीवन में उसका मूर्त और समन्वयात्मक साक्षात्कार, एक और पक्ष है । ये दोनों ही ज्ञानप्राप्ति के साधन हैं जिनके द्वारा मनुष्य असत्य और अज्ञान में से निकलकर सत्य में और उसके द्वारा जीवन-यापन कर सकता है । और, क्योंकि विचारशील मानव-प्राणी का लक्ष्य सदैव वह ऊंची-से-ऊंची सत्ता ही होनी चाहिये जिसे वह जान सकता या धारण कर सकता है, हमारी आत्मा को चिन्तन के द्वारा उच्चतम सत्य की ही खोज करनी चाहिये और फिर जीवन के द्वारा उसे पूर्णरूपेण चरितार्थ भी करना चाहिये ।

 

    ज्ञानयोग के जिस अंग पर-निरपेक्ष भगवान् की आत्म-अभिव्यक्ति के आधार में काम करनेवाले सत्ता के मूलतत्त्वों एवं स्वयंभू-सत्ता के जिस प्रकारों के जिस ज्ञान पर--हम इस समय विचार कर रहे हैं उसका सारा महत्त्व इस उपर्युक्त उच्चतम सत्य की प्राप्ति में ही निहित है । यदि हमारी सत्ता का सत्य एक ऐसा अनन्त एकत्व है जिसमें ही पूर्ण विशालता, प्रकाश, ज्ञान, शक्ति और आनन्द विद्यमान हैं, और यदि अन्धकार, अज्ञान, दुर्बलता, दुःख और न्यूनता के प्रति हमारी समस्त अधीनता का कारण यह है कि हम जगत् को अनन्ततया बहुल, पृथक्-पृथक् जीवों के संघर्ष के रूप में देखते हैं, तो स्पष्ट ही यह अत्यन्त व्यावहारिक, ठोस एवं उपयोगितावादी और अत्यन्त उच्च एवं दार्शनिक ज्ञान की बात है कि हम एक ऐसा साधन ढूंढ़ निकालें जिसके द्वारा हम भ्रान्ति सें निकलकर सत्य में जीवन-

    १ तत्त्वज्ञान ।

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यापन करना सीख सकें । इसी प्रकार, यदि वह एकमेव, स्वभाव से ही, हमारे मनस्तत्त्व का गठन करनेवाले गुणों की इस क्रीड़ा के बन्धन से मुक्त है और यदि इस क्रीड़ा के वश में रहने से ही वह संघर्ष और विरोध-वैषम्य उत्पन्न होते हैं जिनमें हम निवास करते हैं और परिणामतः शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, सफलता-विफलता, हर्ष-शोक और सुख-दुःख के दो ध्रुवों के बीच सदा के लिये तड़फड़ाते रहते हैं, तो इन गुणों को पार करना और इनसे सदैव परे रहनेवाले परात्पर तत्त्व की स्थिर शान्ति के आधार पर प्रतिष्ठित होना ही एकमात्र व्यावहारिक ज्ञान है । यदि अपने विकारी व्यक्तित्व के प्रति आसक्ति ही हमारे आत्म-विषयक अज्ञान का तथा अपने साथ और जीवन की परिस्थिति के साथ एवं दूसरों के साथ हमारे असामंजस्य और कलह का मूल है और यदि कोई ऐसा निर्व्यक्तिक एकमेव है जिसमें इस प्रकार के प्रत्येक असामंजस्य, अज्ञान और निरर्थक तथा कोलाहलपूर्ण प्रयत्न का अभाव है, क्योंकि वह अपने स्वरूप के साथ सनातन तादात्म्य और सामंजस्य में रहता है, तब अपनी अन्तरात्मा में सत्ता की उस निर्व्यक्तिकता तथा अक्षुब्ध एकता को प्राप्त करना ही मानव-प्रयत्न की एकमात्र दिशा एवं उसका लक्ष्य है जिसे हमारी बुद्धि व्यावहारिकता का नाम देने को सहमत हों सकती है ।

 

   एकता और निर्व्यक्तिकता से युक्त तथा गुणों की क्रीड़ा से मुक्त एक सत्ता यहां अवश्य ही

विद्यमान है । मन और शरीर के द्व अपने सब सम्बन्धों की सच्ची कुंजी एवं इनका सच्चा रहस्य ढूंढने के लिये सनातन काल से यत्न करती हुई प्रकृति के संघर्ष और विक्षोभ से यह निर्व्यक्तिक सत्ता हमें ऊपर उठा ले जाती है । और, मनुष्यजाति का यह ऊंचे-से-ऊंचा प्राचीन अनुभव है कि इस सत्तातक पहुंचकर ही, जो परतत्त्व हमारी मानसिक और प्राणिक सत्ता से नित्य ही उच्चतर है उसमें अपने-आपको निर्व्यक्तिक, एकत्वमय, शान्त, आत्म-समाहित तथा मन और प्राण से उच्च बनाकर ही स्वयं-स्थित और अतएव, सुस्थिर शान्ति तथा आन्तरिक स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है । इसलिये यह ज्ञानयोग का प्रथम लक्ष्य है और एक अर्थ में तो यह उसका विशिष्ट तथा प्रधान लक्ष्य भी है । पर, जैसा कि हम बलपूर्वक कहते आये हैं, प्रथम लक्ष्य होने पर भी यही सब कुछ नहीं है; प्रधान होने पर भी यह सर्वांगीण लक्ष्य नहीं है । ज्ञान यदि हमें केवल यही बताये कि सम्बन्धों से विमुख होकर सम्बन्धातीत में कैसे पहुंचना चाहिये, व्यक्तित्व और बहुत्व को त्यागकर निर्व्यक्तिकता और निर्विशेष एकता में कैसे प्रवेश करना चाहिये तो उसे हम पूर्ण ज्ञान नहीं कह सकते । उसे सम्बन्धों की समस्त क्रीड़ा की, बहुत्व के समुर्ण वैविध्य की, व्यक्तित्वों के सम्पूर्ण संघर्ष एवं पारस्परिक कार्य-प्रतिकार्य की वह कुंजी, इनका वह रहस्य भी हमें प्रदान करना होगा जिसे खोजने के लिये विश्व-सत्ता यत्न कर रही है । और, यदि ज्ञान हमें केवल एक विचार प्रदान करे तथा उसे अनुभव के द्वार प्रमाणित न कर सके तब भी वह अपूर्ण ही कहलायेगा । हम तो

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कुंजी तथा रहस्य को पाना चाहते हैं, ताकि इस प्रपंच को उस सत्य के द्वारा नियन्त्रित कर सकें जिसे वह प्रकट करता है, उसके असामंजस्यों को उनके पीछे अवस्थित सामंजस्थ और एकीकरण के गुप्त तत्त्व के द्वारा दूर कर सकें तथा जगत् के केंद्राभिमुख और केंद्रविमुख प्रयत्न से उसके उद्देश्य की सामंजस्यपूर्ण चरितार्थता तक पहुंच सकें । जगत् का अन्तस्तल केवल शान्ति की ही नहीं, बल्कि चरितार्थता की भी खोज कर रहा है और पूर्ण तथा कार्यक्षम आत्मज्ञान को उसे यह चीज प्रदान करनी ही होगी । शान्ति तो आत्म-चरितार्थता का एक सनातन आधार, असीम नियम-विधान तथा स्वाभाविक वातावरणमात्र हो सकती है ।

 

   और फिर बहुत्व, व्यक्तित्व, गुण, सम्बन्धों की क्रीडा--इन सबका सच्चा रहस्य ढूंढ़ निकालनेवाले ज्ञान को हमारे सम्मुख यह प्रकट करना ही होगा कि निर्व्यक्तिक तथा व्यक्तित्व के स्रोत के बीच, निर्गुण तथा गुणों के रूप में अपने-आपको प्रकट करनेवाले सगुण के बीच, सत्ता की एकता तथा उसकी नानाकार अनेकता के बीच सत्ता के मूलतत्त्व की एक प्रकार की वास्तविक एकता तथा सत्ता की शक्ति की घनिष्ठ एकता है । जो ज्ञान इन द्वंद्वो के बीच खूब चौड़ा अन्तराल रहने देता है वह अन्तिम ज्ञान नहीं हों सकता, भले वह विश्लेषणात्मक बुद्धि को कितना ही युक्तियुक्ता या आत्म-विभाजक अनुभव को कितना ही सन्तोषजनक क्यों न प्रतीत हो । सच्चे ज्ञान को ऐसा एकत्व प्राप्त करना होगा जो सबकी सब वस्तुओं से परे होता हुआ भी उन्हें अपने अन्दर समाये रखता है, उसे कोई ऐसा एकत्व नहीं प्राप्त करना होगा जो सब वस्तुओं को अपने अन्दर समा नहीं सकता और उनका परित्याग कर देता है । क्योंकि, सर्वस्वरूप विराट् सत्ता के अपने अन्दर या किसी परात्पर एकत्व तथा सर्वस्वरूप विराट् सत्ता के बीच द्वैत की ऐसी कोई मूलवर्ती दुस्तर खाई हो ही नहीं सकती । जो बात यहां ज्ञान के बारे में कही गयी है वही अनुभव और आत्म-चरितार्थता के बारे में भी समझनी चाहिये । जो अनुभव वस्तुओं के सर्वोच्च उद्गम में दो विरोधी तत्त्वों के बीच ऐसी मूलवर्ती दुस्तर खाई देखता है और इन दोनों में से किसी एक या दूसरे में रहने के लिये बाध्य होकर, अधिक-से- अधिक, इस खाई को कूदकर पार करने मे ही सफल हो सकता है, पर इन्हें एक-दूसरे में अन्तर्भूत एवं एकीभूत नहीं कर सकता, वह चरम अनुभव नहीं है । चाहे हम विचार के द्वारा ज्ञान प्राप्त करना चाहें या विचार को पार कर जानेवाली ज्ञान-दृष्टि के द्वारा या फिर अपनी सत्ता के अन्दर होनेवाले उस पूर्ण आत्मानुभव के द्वारा जो ज्ञानलब्ध साक्षात्कार की पराकाष्ठा एवं परिपूर्णता है, हमें पूर्णरूपेण तृप्त करनेवाली एकता का विचार, साक्षात्कार तथा अनुभव करने में और उसे जीवन के अन्दर चरितार्थ करने मे समर्थ होना चाहिये । एकमेव-विषयक परिकल्पना, दृष्टि तथा अनुभूति मे हम इस प्रकार की एकता को ही प्राप्त करते हैं, उस एकमेव की एकता बहु के रूप में प्रकट होने से नष्ट नहीं होतीं न दृष्टि से ओझल ही हो जाती

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है, वह गुणों के बन्धन से मुक्त है और फिर भी अनन्त-गुण है, वह सब सम्बन्धों को अपने अन्दर धारण तथा संयुक्त किये हुए है और फिर भी सदा से 'केवल' है, वह अमुक एक व्यक्ति नहीं है और फिर भी सब-के-सब व्यक्ति वह ही है, क्योंकि वह समस्त 'पुरुष' है और वही एकमात्र सचेतन 'पुरुष' भी है । जिस व्यक्ति-रूपी केंद्र को हम अपनी सत्ता कहते हैं उसके लिये तो अपनी चेतना के द्वारा इन भगवान् में प्रवेश करना तथा अपने अन्दर इनकी प्रकृति को प्रतिमूर्त्त करना ही एक ऐसा आदर्श है जो हमारे सामने रखा गया है । यह आदर्श उच्च और अद्भुत तो है ही, पर साथ ही पूर्णतया युक्तियुक्त तथा सबसे अधिक व्यावहारिक एवं उपयोगी भी है । यह हमारी अपनी सत्ता की और साथ-ही-साथ हमारी विराट् सत्ता की, अपने-आपमें व्यक्ति की तथा विश्व की अनेक सत्ताओं के साथ सम्बन्ध रखनेवाले व्यक्ति की पूर्ण सार्थकता है । सत्ता की इन दो अवस्थाओं, व्यक्ति और विराट्, में कोई ऐसा विरोध नहीं है जिसका परिहार ही न हो सकता हो; वरंच, हमारा अपना आत्मा और विश्व का आत्मा एक ही हैं यह उपलब्धि हो जाने के बाद व्यक्ति और विराट् में भी घनिष्ठ एकता प्रकट हो जाती है ।

 

   वास्तव में ये सब विरोधी द्वंद्व परात्पर पुरुष में चेतन सत्ता की अभिव्यक्ति के लिये सर्वसामान्य, अनिवार्य अवस्थाएंमात्र हैं, वे परात्पर तो कैसी ही विरोधी दिखायी देनेवाली इन सब अवस्थाओं के केवल पीछे ही नहीं, बल्कि इनके भीतर भी सदा एक ही रहते हैं । और, इन सब द्वंद्वो का मू एकीकारक आत्म-तत्त्व एवं एकमात्र तात्त्विक रूप वह है जिसे हमारे विचार की सुविधा के लिये सच्चिदानन्दद्य (सत्-चित्-आनन्द) का त्रैत कहा गया है, ये तीन अविच्छेद्य दिव्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त हैं । इनमें सें कोई भी वास्तव मे पृथक् नहीं है, यद्यपि हमारा मन और मानसिक अनुभव इनमें केवल भेद ही नहीं, पार्थक्य भी पैदा कर सकते हैं । मन यह कह और सोच सकता है कि ''मैं था तो सही, पर अचेतन था'' --क्योंकि यह तो कोई व्यक्ति नहीं कह सकता ''मैं हू तो सही, पर अचेतन हूं", -और मन यह भी सोच सकता तथा अनुभव कर सकता है ''मैं हू पर दुःखी हू तथा मेरे जीवन मे किसी प्रकार का भी आनन्द नहीं है ।'' किन्तु असल मे यह बात असम्भव है । जो सत्ता हमारा वास्तविक स्वरूप है, जो सनातन ''अहमस्मि (मैं हू)'' रूप मे अनुभूत सत्ता है, जिसके विषय मे यह कहना कभीं सच नहीं हो सकता कि ''यह थी'', वह कहीं भी और कभी भी अचेतन नहीं होती । जिसे हम अचेतनता कहते हैं वह केवल अन्यविध चेतनता है; वह बाह्य-वस्तु-विषयक हमारी मानसिक चेतनता की इस ऊपरी लहर का हमारी प्रच्छन्न आत्म-चेतनता के भीतर एवं सत्ता के अन्य स्तरों-सम्बन्धी हमारी चेतनता के भीतर भी प्रविष्ट होना है । जब हम सुप्त, अचेत, मूर्च्छित, ''मृत'' या अन्य किसी अवस्था मे होते हैं तब हम असल मे उससे अधिक अचेतन नहीं होते जितने कि हम अपनी भौतिक सत्ता और

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परिस्थिति से बेसुध होकर आन्तरिक विचार में डूबे होने पर होते हैं । जो कोई योग में थोडी दूर भी आगे बढ़ चुका है उसके लिये यह एक अत्यन्त आरम्भिक स्थापना है, एक ऐसी स्थापना है जो विचार के सम्मुख कोई भी कठिनाई उपस्थित नहीं करती, क्योंकि यह पग-पग पर अनुभव के द्वारा प्रमाणित होती है । पर यह अनुभव करना अधिक कठिन है कि सत्ता और सत्ता का निरानन्द साथ-साथ नहीं रह सकते । जिसे हम दुःख, शोक, पीड़ा एवं आनन्द का अभाव कहते हैं वह भी सत्ता के आनन्द की एक उपरितलीय लहरमात्र है जो हमारे मानसिक अनुभव के निकट ये आपात-विरोधी रंग-रूप धारण कर लेती है और इसका कारण यह है कि एक प्रकार की माया के वश हमारी विभाजित सत्ता इस लहर को अपने अन्दर एक मिथ्या रूप में ही ग्रहण करती है । यह विभाजित सत्ता हमारी सत्ता बिल्कुल ही नहीं है, बल्कि चिच्छक्ति की एक खणडात्मक रूप-रचना या विकृत फुहारमात्र है जिसे हमारी आत्म-सत्ता के अनन्त सागर ने ऊपर की ओर उछाल फेंका है । इस सत्य को अनुभव करने के लिये हमें अपनी मनोमय सत्ता की इन उथली आदतों एवं क्षुद्र चालों में ग्रस्त रहने की अवस्था से परे हट जाना होगा, --और जब हम निश्चितरूपेण इनके पीछे और परे हट जाते हैं तो हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि ये कितनी छिछली हैं; तब ये इतनी हलकी और ऊपरी-सी मामूली चुभन साबित होती हैं कि इनपर हंसी ही आती है । इसके साथ ही हमें सच्ची सत्ता और सच्ची चेतना को तथा सत्ता और चेतना की सच्ची अनुभूति को, सत् चित् और आनन्द को भी उपलब्ध करना होगा ।

 

    चित् अर्थात् भागवत चेतना हमारी मानसिक आत्म-चेतनता नहीं है; अनुभव से हमें पता चल जायगा कि यह तो केवल एक रूप, एक निम्नतर एवं सीमित प्रकार या गति है । जैसे-जैसे हम विकसित होंगे और अपने तथा वस्तुओं के अन्दर विद्यमान आत्मा के प्रति जागरित होंगे वैसे-वैसे हमें अनुभव होगा कि पौधे में, धातु में, अणु में, विद्युत् में, भौतिक प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में भी चेतना है; हमें यह भी पता चलेगा कि यह वस्तुत: सब बातों में मानसिक चेतना से अधिक निम्न या सीमित प्रकार की भी नहीं है, बल्कि अनेक ''जड़'' पदार्थों में तो यह अधिक प्रगाढ़, वेगमय और तीव्र है, यद्यपि उनमें उपरितल पर प्रकट होने के लिये यह अभी अपेक्षाकृत कम ही विकसित हो पायी है । किन्तु यह भी अर्थात् प्राणिक और भौतिक प्रकृति की यह चेतना भी, चित् की तुलना में, निम्नतर और अतएव सीमित रूप, प्रकार एवं गति है । चेतना के ये निम्नतर प्रकार एक ही अविभाज्य सत्ता के अन्तर्गत निम्न स्तरों का चित्तत्त्व हैं । हमारे अपने अन्दर भी हमारी अवचेतन सत्ता में एक ऐसी क्रिया है जो ठीक उस ''जड़'' भौतिक प्रकृति की ही क्रिया है जिससे कि हमारी भौतिक सत्ता का आधार गठित दुआ है, हमारे अन्दर एक और क्रिया भी है जो वनस्पति-जीवन की है और फिर एक और भी है जो हमारे चारों ओर की

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निम्नतर जीव-सृष्टि की है । चेतना की ये सब क्रियाएं हमारे अन्दर की विचारशील एवं तर्कप्रधान चित्-सत्ता के द्वारा इतनी अधिक अभिभूत और मर्यादित हैं कि हमें इन निम्नतर स्तरों का कुछ भी वास्तविक भान नहीं है; हम इनकी अपनी परिभाषाओं में यह जानने में असमर्थ हैं कि हमारे ये भाग क्या कर रहे हैं, और इनकी क्रिया का ज्ञान हम विचारशील और तर्कप्रधान मन के लक्षणों और मूल्यों में अत्यन्त अपूर्ण रूप से ही प्राप्त करते हैं । फिर भी हम काफी अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारे अन्दर एक पाशविक भाग है तथा एक ऐसा भाग भी है जौ विशिष्ट रूप से मानवीय है, --एक तो ऐसी सत्ता है जो सचेतन सहज-प्रेरणा और आवेग से युक्त तथा विचार या विवेक-बुद्धि से रहित प्राणी की है, एक और सत्ता भी है जो उसके अनुभव की ओर अभिमुख होकर उसपर फिर से विचार और संकल्प की क्रिया करती है, ऊपर की उच्चतर स्तर की ज्योति और शक्ति के साथ इसे मुक्त करती है और कुछ अंश में इसका नियंत्रण, प्रयोग तथा संशोधन भी करती है । परन्तु मनुष्य में अवस्थित पाशविक भाग हमारी अवमानवीय सत्ता के ऊपर का सिरामात्र है; इसके नीचे ऐसा बहुत कुछ है जो पाशविक से भी निम्न है किंवा केवल प्राणिक है, ऐसा बहुत कुछ है जो अन्ध-प्रेरणा और आवेग के वश कार्य करता है, उस प्रेरणा और आवेग का गठन करनेवाली चेतना उपरितल के पीछे अन्तर्हित है । इस अवपाशविक सत्ता के नीचे और भी अधिक उतरकर एक अवप्राणिक सत्ता है । जब हम योग से प्राप्त होनेवाले इस अतिसामान्य आत्मज्ञान और अनुभव में आगे बढ़ते हैं तो हमें पता चलता है कि शरीर की भी अपनी एक चेतना है; इसके भी अपने अभ्यास एवं आवेग हैं, अपनी सहज-प्रवृत्तियां हैं, इसमें एक निष्क्रिय और प्रभावशाली संकल्प भी है जो हमारी शेष सत्ता के संकल्प से भिन्न प्रकार का है और इसका प्रतिरोध कर सकता है तथा इसके प्रभाव को सीमित कर सकता है । हमारी सत्ता में जो संघर्ष पाया जाता है उसके अधिकांश का कारण यह है कि इन विभिन्न और विषमजातीय स्तरों की सत्ता उक्त प्रकार से परस्पर- मिश्रित है तथा ये स्व-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया भी करते रहते हैं । क्योंकि मनुष्य यहां एक विकास का परिणाम है और निरी भौतिक तथा अवप्राणिक चेतन सत्ता से लेकर अपनी सत्ता के वर्तमान शिखरतक अर्थात् मानसिक प्राणी की सत्ता तक के इस सम्पूर्ण विकास को वह अपने अन्दर धारण किये हुए है ।

 

   परन्तु यह विकास वस्तुत: एक अभिव्यक्ति है और जिस प्रकार हममें ये अवसामान्य सत्ताएं एवं अवमानवीय स्तर हैं ठीक उसी प्रकार हममें हमारी मानसिक सत्ता के ऊपर अतिसामान्य एवं अतिमानवीय स्तर भी हैं । यहां चित् सत्ता के विश्वव्यापी चित्तत्त्व के रूप में अन्य स्थितियों को भी ग्रहण करती है, किन्हीं अन्य रूपों में विचरण करती है, कर्म करने के किन्हीं अन्य नियमों के अनुसार तथा अन्य शक्तियों के द्वारा कार्य करती है । जैसा कि प्राचीन वैदिक ऋषियों ने खोज निकाला

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था, मन के ऊपर एक सत्य-भूमिका है, अर्थात् स्वतः--प्रकाशमान एवं स्वयं-शक्तिशाली विचार का एक स्तर है, जिसकी ज्योति और शक्ति को हमारे मन पर, हमारी तर्कबुद्धि और भावनाओं पर, हमारे आवेगों और संवेदनों पर प्रयुक्त किया जा सकता है और जो वस्तुओं के वास्तविक सत्य के अर्थ के अनुसार इन सबका उपयोग एवं नियंत्रण भी कर सकता है ठीक वैसे ही जैसे कि हम अपने तर्कमूलक और नैतिक बोधों के अर्थ में अपनी इन्द्रियानुभूति और पाशविक प्रक्रति का उपयोग और नियंत्रण करने के लिये इनपर अपने मानसिक तर्क और संकल्प का प्रयोग करते हैं । सत्य के इस स्तर में ज्ञान की खोज का काम नहीं है, यहां तो है उसपर सहज-स्वाभाविक प्रभुत्व; यहां संकल्प और तर्कबुद्धि, सहजप्रेरणा और आवेग, कामना और उपलब्धि, विचार और सद्वस्तु-इनमें कोई विरोध या भेद नहीं होता, बल्कि ये सब एकस्वर, सहचारी तथा परस्पर-फलोत्पादक होने के साथ-साथ अपने उद्गम एवं विकास और अपनी चरितार्थता में भी एकीभूत होते हैं । परन्तु इस स्तर के परे और इसके द्वारा प्राप्त हो सकने वाले अन्य स्तर भी हैं जिनमें साक्षात् चित् ही हमारे सामने प्रकाशित हो उठती है, वह चित् जो यहां नानाविध रूप-रचना और अनुभूति के लिये प्रयुक्त की जानेवाली इस समस्त विविध चेतना का मूल उद्गम एवं आद्य पूर्णत्व है । उन स्तरों में संकल्प, ज्ञान, सम्वेदन तथा हमारी अन्य सब वृत्तियां, शक्तियां, सब प्रकार के अनुभव केवल समस्वर, सहचारी और एकीभूत ही नहीं होते, बल्कि चेतना की एक ही सत्ता और शक्ति के रूप में उपस्थित होते हैं । यह चित् ही अपने-आपको इस प्रकार परिवर्तित करती है कि सत्य के स्तर पर अतिमानस का रूप धारण कर लेती है और मन के स्तर पर मानसिक बुद्धि, संकल्प, भावावेग और सम्वेदन का तथा इससे नीचे के स्तरों पर एक ऐसी अन्धकारमयी शक्ति की प्राणिक या भौतिक अन्धप्रेरणाओं, आवेगों और अभ्यासों का रूप धारण कर लेती है जो उपरितल पर अपने ऊपर कोई सचेतन अधिकार नहीं रखती । सब कुछ चित् है, क्योंकि सब कुछ सत् है; सब कुछ मूल  चेतना की नानाविध गति है, क्योंकि सब कुछ मूल सत्ता की नानाविध गति है ।

 

   जब हम चित् को प्राप्त कर लेते, देख या जान लेते हैं, तो हमें यह भी पता लग जाता है कि इसका सारतत्त्व है अपनी सत्ता का आनन्द । आत्मा को प्राप्त करने का अर्थ है आत्मानन्द प्राप्त करना; आत्मा को प्राप्त न किये होने का अर्थ है सत्ता के आनन्द की कम या अधिक अस्पष्ट खोज में लगे होना । चित् सनातन काल से अपने आनन्द से युक्त है; और क्योंकि चित् सत्ता का विश्वव्यापी चित्तत्त्व है, चिन्मय विराट् पुरुष भी सचेतन आत्मानन्द से युक्त है, सत्ता के विश्वव्यापी आनन्द का स्वामी है । भगवान् चाहे अपने-आपको सर्वगुणमय के रूप में प्रकट करें या निर्गुण के रूप में, व्यक्तित्व के रूप में या निर्व्यक्तित्व के रूप में, बहु को अपने अन्दर विलीन किये हुए एकमेव के रूप में अथवा अपने तात्त्विक बहुत्व को

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प्रकट करते हुए एकमेव के रूप में, पर वे सदा ही आत्मानन्द और विराट् आनन्द को अधिकृत किये रहते हैं, क्योंकि वे नित्य ही सच्चिदानन्द हैं । हमारे लिये भी अपने सच्चे आत्मा को उसके मूल और विराट् स्वरूप में जानने और प्राप्त करने का अर्थ है सत्ता का मूल और विश्वव्यापी आनन्द, आत्मानन्द और विराट् आनन्द उपलब्ध करना । क्योंकि, विराट् आत्मा मूल सत्ता, चेतना और आनन्द का बाहर की ओर प्रवाहमात्र है; और जहां कहीं तथा जिस भी रूप में यह अपने को किसी सत्ता के आकार में प्रकट करता है वहां मूल चेतना का अस्तित्व अवश्य है और अतएव वहां मूल आनन्द भी अवश्य विद्यमान है ।

 

   व्यक्ति की आत्मा अपनी सत्ता का यह सत्य स्वरूप प्राप्त नहीं कर पाती अथवा अपने अनुभव के इस सत्य स्वरूप को उपलब्ध नहीं कर पाती, क्योंकि यह अपने-आपको मूल सत्ता और विराट् आत्मा दोनों से पृथक् कर लेती है और अपनी सत्ता के पृथक् आकस्मिक संयोगों के साथ, अतात्त्विक स्वरूप और प्रकृति तथा पृथक् अंग एवं करण-विशेष के साथ अपने-आपको एकाकार कर लेती है । इस प्रकार यह अपने मन, शरीर तथा प्राणधारा को अपनी वास्तविक सत्ता मान बैठती है । यह इन्हें इनकी अपनी खातिर विराट् सत्ता तथा उस परात्पर के विरुद्ध, जिससे विराट् सत्ता प्रकट हुई है, प्रबल रूप में प्रतिष्ठित करने का यत्न करती है । किसी अधिक महान् और परे की वस्तु के लिये विराट् के अन्दर अपने-आपको प्रस्थापित तथा चरितार्थ करने का यत्न करना इसके लिये उचित है, किन्तु विराट् के विरोध में तथा उसके एक खण्डात्मक रूप के अधीन होकर ऐसा करने का यत्न करना उचित नहीं । इस खण्डात्मक रूप को या यूं कहें कि खण्डात्मक अनुभवों के इस समुदाय को यह मानसिक अनुभव के एक कृत्रिम केन्द्र, मानसिक अहंभाव, के चारों ओर इकट्ठा कर लेती है और इसे अपनी सत्ता कहकर पुकारती है तथा इस अहं की सेवा करती है । अपि च, ये सभी रूप, यहांतक कि विशालतम एवं व्यापकतम रूप भी, जिस महत्तर और परतर वस्तु की आंशिक अभिव्यक्तियां हैं उसके लिये जीने के बजाय यह इस अहं के लिये ही जीती है । किन्तु यह मिथ्या आत्मा में जीवन धारण करना है, सच्ची आत्मा में नहीं; यह अहं के लिये तथा उसके आदेशानुसार जीवन बिताना है, भगवान् के लिये तथा उनके आदेशानुसार नहीं । किन्तु यह पतन दुआ कैसे और किस प्रयोजन के लिये हुआ ? यह प्रश्न योग की अपेक्षा कहीं अधिक सांख्य के क्षेत्र से सम्बन्ध रखता है । हमें तो बस इस क्रियात्मक तथ्य को हृदयंगम कर लेना होगा कि ऐसा आत्मविभाजन ही हमारी चेतना की सीमितता का कारण है और इस सीमितता के कारण हम अपने अस्तित्व और अनुभव का सच्चा स्वरूप उपलब्ध करने में असमर्थ बन बैठे हैं और अतएव अपने मन, प्राण और शरीर में अज्ञान, असमर्थता और दुःख-कष्ट के अधीन हो गये हैं । एकत्व की अप्राप्ति ही मूल कारण है; एकत्व को फिर से प्राप्त करना ही

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सर्वोपरि साधन है-यह एकत्व हमें विराट् के साथ ही नहीं, उस सत्ता के साथ भी प्राप्त करना होगा जिसे प्रकट करने के लिये यहां विराट्  आत्मा उपस्थित है । हमें अपने तथा सबके सच्चे आत्मा का साक्षात्कार करना होगा; और सच्चे आत्मा के साक्षात्कार का मतलब है सच्चिदानन्द का साक्षात्कार ।

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