योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २६

 

समाधि 

 

ज्ञानयोग का लक्ष्य सदा ही एक उच्चतर या दिव्य चेतना में, जो आज हमारे लिये स्वाभाविक नहीं है, विकास, आरोहण या विलय साधित करना होता है । योगलीनता की घटना अर्थात् समाधि को जो महत्त्व दिया जाता है उसका इस लक्ष्य के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । यह माना जाता है कि सत्ता की कुछ भूमिकाएं ऐसी हैं जो केवल समाधि में ही प्राप्त की जा सकती हैं; उनमें से वह भूमिका विशेष रूप से कामनीय है जिसमें आत्मज्ञान की समस्त क्रिया समाप्त हो जाती है और निश्चल, कालातीत एवं अनन्त सत्ता में शुद्ध अतिमानसिक लय को छोड़कर और किसी प्रकार का चैतन्य होता ही नहीं । इस समाधि में प्रवेश करके आत्मा सर्वोच्च निर्वाण की नीरवता में चली जाती है जहां से वह सत्ता की किसी भ्रमात्मक या निम्नतर अवस्था में नहीं लौट सकती । भक्तियोग में समाधि का इतना सर्वातिशायी महत्त्व नहीं है, तथापि वहां दिव्य प्रेम का आनन्द आत्मा को सत्ता की जिस निश्चेष्ट अवस्था में डुबा देता है उसके रूप में वहां भी इसका (समाधि का) स्थान है । इसमें प्रवेश पाना राजयोग और हठयोग में योगसाधना की सीढ़ी का सर्वोच्च सोपान माना जाता है । तो फिर पूर्णयोग में समाधि का क्या स्वरूप है या इसमें होनेवाले चेतना के लय का प्रयोजन क्या है ? यह स्पष्ट ही है कि जब कि जीवन में भगवान् को प्राप्त करना हमारे लक्ष्य के अन्तर्गत है, जीवन के विलोप की अवस्था चरम और परम सोपान या सर्वोच्च कामनीय स्थिति नहीं हों सकती : योगसमाधि जो कितनी ही योगप्रणालियों का लक्ष्य है, हमारा लक्ष्य नहीं हो सकती, वह तो केवल एक साधन ही हो सकतीं है; और साधन भी जागरित अवस्था से पलायन करने के लिये नहीं बल्कि देखने, चैतन्य रहने और कार्य करनेवाली सम्पूर्ण चेतना को विस्तृत और उन्नत करने के लिये ।

 

  समाधि का महत्त्व उस सत्य पर आधारित है जिसे आधुनिक ज्ञान नये सिरे से खोज रहा है पर जिसे भारतीय मनोविज्ञान ने कभी भी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है । वह सत्य यह है कि जगत् का या हमारी अपनी सत्ता का एक छोटा-सा भाग ही हमारे ज्ञान या कार्य-व्यवहार में आता है । शेष सारा भाग पीछे की ओर सत्ता के प्रच्छन्न विस्तारों में छुपा हुआ है । ये प्रच्छन्न विस्तार नीचे अवचेतन की गहनतम गहराइयों में पहुंचे हुए हैं और ऊपर अतिचेतना की उच्चतम चोटियोंतक उठे हुए हैं, अथवा ये हमारी जाग्रत् आत्मा के छोटे-से क्षेत्र को एक विशाल परिचेतन सत्ता के द्वारा चारों ओर से घैर हैं । हमारे मन और हमारी इन्द्रियों को इस विशाल परिचेतन सत्ता के केवल कुछ संकेत ही प्राप्त होते हैं । प्राचीन भारतीय

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मनोविज्ञान ने इस तथ्य को प्रकट करने के लिये चेतना को जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति नामक तीन क्षेत्रों में विभक्त किया था; उसने मनुष्य में जागरित, स्वाप्न और सुषुप्त पुरुष की कल्पना की थी, इनके साथ ही वह सत्ता के एक परमोच्च या निरपेक्ष 'पुरुष' को भी मानता था जो तुरीय एवं इन तीनों से परे है; उक्त तीनों पुरुष इस जगत् में सापेक्ष अनुभव का आनन्द लेने के लिये इस तुरीय पुरुष में से ही आविर्भूत होते हैं ।

  यदि हम प्राचीन ग्रन्धों की शब्दावलि का विवेचन करें तो हमें पता चलेगा कि जाग्रत् अवस्था का अभिप्राय है जड़ जगत् के विषय में हमारी वह चेतना जिसे हम स्थूल मन के द्वारा शासित इस देहबद्ध जीवन में सामान्यतया धारण करते हैं । स्वप्नावस्था एक ऐसी चेतना है जो पीछे रहनेवाले सूक्ष्मतर प्राण-स्तर और मानस-स्तर से सम्बन्ध रखती है; इन स्तरों के विषय में इंगित प्राप्त होने पर भी ये हमें वैसे ठोस रूप में वास्तविक नहीं प्रतीत होते जैसे स्थूल जगत् के पदार्थ; सुषुप्ति-अवस्था एक ऐसी चेतना है जो विज्ञान के अपने विशिष्ट स्तर अर्थात् अतिमानसिक स्तर से सम्बन्ध रखती है, यह स्तर हमारे अनुभव से परे है क्योंकि हमारा कारण शरीर या विज्ञानकोष हमारे अन्दर विकसित नहीं हुआ है तथा उसकी क्षमताएं हमारे अन्दर सक्रिय नहीं हैं, और इसीलिये इस स्तर के साथ हमारा सम्बन्ध निःस्वप्न निद्रा या सुषुप्ति की अवस्था में ही स्थापित होता है । इससे भी परे की तुरीय (चौथी) अवस्था हमारी शुद्ध स्वयंभू या निरपेक्ष सत्ता की चेतना है जिसके साथ हमारा किसी प्रकार का भी सीधा सम्बन्ध बिलकुल नहीं है, चाहे अपनी स्वाप्न या जाग्रत् अथवा यहांतक कि सुषुप्त चेतना में भी हम उसके कोई भी मानसिक प्रतिबिम्ब क्यों न ग्रहण कर लें; हां, इनमें से सुषुप्ति में ग्रहण किये हुए प्रतिबिम्ब तो हमारी स्मृति में भी नहीं आ सकते । चार अवस्थाओं की यह शृंखला सत्ता की सीढ़ी के उन क्रमिक सोपानों से साम्य रखती है जिनके द्वारा हम निरपेक्ष भगवान् की ओर फिर से आरोहण करते हैं । अतएव साधारणत: जाग्रत् अवस्था से पीछे हटकर इससे दूर एवं अन्दर की ओर गये बिना तथा जड़ जगत् से सम्पर्क खोये बिना हम स्कूल मन से चेतना के उच्चतर स्तरों या भूमिकाओं में नहीं पहुंच सकते । सुतरां, जो लोग इन उच्चतर भूमिकाओं का अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये समाधि एक कामनीय वस्तु बन जाती है तथा स्थूल मन और प्रकृति की सीमाओं सें मुक्त होने के लिये एक साधन का काम करती है ।

 

  समाधि या योगलीनता की स्थिति जैसे-जैसे सामान्य जाग्रत् अवस्थाओं से अधिकाधिक दूर हटती जाती है तथा चेतना की ऐसी भूमिकाओं में प्रवेश करती है जिनका जाग्रत् मन के प्रति वर्णन करना अधिकाधिक अशक्य होता है और जो जाग्रत् अवस्थावाले जगत् के आह्वान को स्वीकार करने के लिये उत्तरोत्तर कम उद्यत होती हैं, वैसे-वैसे वह (समाधि) अधिकाधिक गहराइयों मे डूबती जाती है । एक विशेष स्थिति के परे वह पराकाष्ठा को पहुंच जाती है और तब, जो आत्मा उनमें

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जाकर निमग्र हो गयी है, उसे जगाना या वापिस बुलाना प्रायः या सर्वथा असंभव ही हों जाता है; वह अपने ही संकल्प के बल पर या, अधिक-से-अधिक, शारीरिक मांग के प्रचण्ड आघात के कारण ही वापिस आ सकती है, पर इस प्रकार वापिस आन में एकाएक ही जो उथलपुथल होती है उसके कारण यह आघात शरीर के लिये संकटपूर्ण होता है । कहा जाता कि समाधि की कुछ ऐसी परमोच्च अवस्थाएं भी हैं जिनमें आत्मा अत्यन्त दीर्घकालतक स्थित रहने पर फिर वापस नहीं आ सकती; क्योंकि वह उस सूत्र पर जो उसे जीवन की चेतना के साथ बांधे रखता है अपना अधिकार खो बैठती है, और शरीर छूट जाता है, निःसन्देह, वह अपनी उसी स्थिति में सुरक्षित रहता है जिसमें उसे (समाधि लगाते समय) स्थिर किया गया था, विघटन के द्वारा मृत्यु को नहीं प्राप्त होता, पर जो आत्मायुक्त प्राण उसके अन्दर अधिष्ठित था उसे वह पुनः प्राप्त नहीं कर सकता । अन्त में, योगी विकास की एक विशेष अवस्था में ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेता है कि वह अपने शरीर को मृत्यु की साधारण क्रिया-शृंखला के बिना ही अपने इच्छाबल का प्रयोग करके, निश्चित रूप से त्याग सकता है, या फिर वह एक और प्रक्रिया के द्वारा अर्थात् ऊर्ध्वमुखी प्राणधारा (उदान) के द्वार से प्राणात्मक जीवन-शक्ति को खींचकर तथा उसके लिये सिर में गुह्य ब्रह्मरन्ध में से निकलने का मार्ग खोलकर भी शरीर को त्याग सकता है । समाधि की अवस्था में जीवन का त्याग करने से वह सीधे ही सत्ता की उस उच्चतर भूमिका को प्राप्त कर लेता है जिसकी वह अभीप्सा करता है ।

 

  स्वयं स्वप्न--अवस्था में भी अनन्त प्रकार की गहराइयां हैं, कम गहरी स्वप्न-अवस्था से आत्मा को वापिस बुलाना आसान होता है और स्थूल इन्द्रियों का जगत् अत्यन्त निकट होता है, यद्यपि कुछ समय के लिये यह बहिष्कृत रहता है; अधिक गहरी स्वप्नावस्था में यह बहुत दूर चला जाता है और अन्तर्मगन्ता की अवस्था को भेदने में अपेक्षाकृत असमर्थ होता है, क्योंकि मन समाधि की सुरक्षित गहराइयों में प्रवेश पा चुकता है । समाधि और सामान्य निद्रा में अर्थात् योग की स्वप्नावस्था और स्वप्न की भौतिक अवस्था में जरा भी समानता नहीं है । इनमें से पिछली तो स्थूल मन की एक अवस्था है; पहली में वास्तविक एवं सूक्ष्म मन स्थूल मन के मिश्रण से मुक्त होकर कार्य करता है । स्थूल मन के स्वप्न कई वस्तुओं का एक असंबद्ध मिश्रण होते हैं । वे वस्तुएं ये हैं--स्व तो स्कूल जगत् के अस्पष्ट संपर्कों के प्रति की गयी प्रतिक्रियाएं संकल्प-शक्ति और बुद्धि से विच्छिन्न हुई मन की निम्नतर शक्तियां इन सम्पर्कों के चारों ओर एक विशृंखल कल्पना का जाल बुन डालती हैं; दूसरे, मस्तिष्कगत स्मृति में से उठनेवाले अव्यवस्थित संस्कार; तीसरे, मानसिक स्तर पर विचरती हुई आत्मा से मन पर पड़नेवाले प्रतिबिम्ब, ये प्रतिबिम्ब

 

  १ इच्छामृत्यु ।

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साधारणत: बिना समझे या सुसंगत किये ग्रहण कर लिये जाते हैं, ग्रहण करते समय प्रबल रूप से विकृत हो जाते हैं तथा स्वप्न के अन्य तत्त्वों अर्थात् मस्तिष्कवर्ती स्मृतियों के साथ एवं स्थूल जगत् से आनेवाले किसी भी इन्द्रिय-स्पर्श के प्रति मनमौजी प्रतिक्रियाओं के साथ अव्यवस्थित रूप में मिश्रित हो जाते हैं । इसके विपरीत, योग की स्वप्नावस्था में मन स्थूल जगत् से न सही पर अपने--आपसे स्पष्ट रूप में सचेतन होता है, सुसंगत रूप में कार्य करता है और या तो अपने साधारण संकल्प एवं बुद्धि का एकाग्र शक्ति के साथ प्रयोग कर सकता है या फिर मन के अधिक उन्नत स्तरों के उच्चतर संकल्प और बुद्धि को उपयोग में ला सकता है । वह बाह्य जगत् के अनुभव से दूर हट जाता है तथा स्थूल इन्द्रियों को एवं जड़ पदार्थों के साथ सम्पर्क स्थापित करनेवाले इन्द्रिय-द्वारों को मजबूती से बन्द कर देता है; परन्तु अपनी प्रत्येक विशिष्ट क्रिया को अर्थात् चिन्तन, तर्कणा, प्रतिबिम्ब-ग्रहण और अन्तर्दर्शन को वह श्रेष्ठ एकाग्रता की बढ़ी हुई शुद्धता और शक्ति के साथ सम्पन्न करता रह सकता है । वह एकाग्रता जाग्रत् मन के विक्षेपों एवं उसकी अस्थिरता से मुक्त होती है । साथ ही, वह अपने संकल्प का प्रयोग करके अपने ऊपर या अपने चारों ओर के प्राणियों एवं पदार्थों के ऊपर मानसिक, नैतिक एवं भौतिक प्रभाव भी उत्पन्न कर सकता है । वे प्रभाव स्थिर रह सकते हैं तथा समाधि की समाप्ति के बाद आनेवाली जाग्रत् अवस्था में अपने फल प्रकट कर सकते हैं ।

 

  स्वप्नावस्था की शक्तियों पर पूर्ण स्वामित्व प्राप्त करने के लिये स्थूल इन्द्रियों पर बाह्य जगत् के रूपों, शब्दों आदि के आक्रमण को दूर करना सर्वप्रथम आवश्यक है । निःसन्देह स्वप्न-समाधि में सूक्ष्म शरीर से संबद्ध सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा बाह्य स्थूल जगत् का ज्ञान प्राप्त करना सर्वथा सम्भव है; मनुष्य जहांतक चाहे वहींतक और जाग्रत् अवस्था की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत परिमाण में बाह्य जगत् के रूपों, शब्दों आदि का ज्ञान प्राप्त कर सकता है : क्योंकि स्थूल भौतिक इन्द्रियों की अपेक्षा सूक्ष्म इन्द्रियों का क्षेत्र कहीं अधिक महान् है, वह एक ऐसा क्षेत्र है जिसे कार्यतः असीम बनाया जा सकता है । परन्तु सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा स्थूल जगत् का यह जो ज्ञान प्राप्त होता है वह स्थूल इन्द्रियों से प्राप्त हमारे सामान्य जगत्-ज्ञान से सर्वथा भिन्न होता है; इनमें से पिछला समाधि की सुस्थिर अवस्था से मेल नहीं खाता, स्थूल इन्द्रियों का दबाव समाधि को भंग कर देता है और मन को उसके सामान्य क्षेत्र में जीवन यापन करने के लिये वापिस बुला लाता है क्योंकि वे अपनी शक्ति का प्रयोग केवल इसी क्षेत्र में कर सकती हैं । परन्तु सूक्ष्म इन्द्रियां अपने स्तरों तथा इस स्थूल जगत् दोनों में अपनी शक्ति को प्रकट कर सकती हैं, यद्यपि यह उनकी अपनी सत्ता के लोक की अपेक्षा उनके लिये अधिक दूर है । स्थूल इन्द्रियों के द्वारों को बन्द करने के लिये योग में अनेक प्रकार के उपाय काम में

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लाये जाते हैं जिनमें से कुछ तो भौतिक उपाय ही हैं; परन्तु एकमात्र सर्वसमर्थ साधन है एकाग्रता की शक्ति जिसके द्वारा मन को भीतर की ओर गहराइयों में ले जाया जाता है जहां स्थूल पदार्थों की पुकार उसतक पहले की तरह आसानी से नहीं पहुंच सकती । स्वप्नावस्था की शक्तियों पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करने के लिये दूसरा आवश्यक कार्य स्थूल निद्रा के हस्तक्षेप से छुटकारा पाना है । मन जब स्थूल पदार्थों के सम्पर्क से विमुख होकर भीतर जाता है तो वह अपने साधारण स्वभाव के अनुसार निद्रा की जड़ता में या उसके स्वप्नों में जा पड़ता है, और अतएव जब उसे समाधि के प्रयोजनों के लिये भीतर की ओर पुकारा जाता है तो वह अभीष्ट प्रत्युत्तर नहीं देता या देंने मे प्रवृत्त नहीं होता बल्कि पहले अवसर पर तो निरी स्वभाव की शक्ति के वश ही स्थूल तन्द्रारूपी साधारण प्रत्युत्तर नहीं देता या देने में प्रवृत्त होता है । मन के इस स्वभाव से छुटकारा पाना होगा; मन को स्वप्नावस्था में जागरित रहना तथा अपने ऊपर स्वामित्व रखना सीखना होगा, पर वह जागरित अवस्था बहिर्मुख नहीं अन्तर्मुख होनी चाहिये जिसमें वह अपने अन्दर डूबा रहकर भी अपनी समस्त शक्तियों का प्रयोग कर सके ।

 

  स्वप्नावस्था के अनुभव अनन्त प्रकार के होते हैं । क्योंकि यह सामान्य मानसिक शक्तियों अर्थात् तर्क, विवेक, संकल्प और कल्पना के ऊपर परम प्रभुत्व रखती है तथा इन्हें चाहे किसी भी ढंग से, किसी भी विषय पर और किसी भी उद्देश्य के लिये प्रयोग में ला सकती है, इतना ही नहीं, बल्कि यह उन सब लोकों के साथ, भौतिक से लेकर उच्चतर मानसिक लोकोंतक के साथ, सम्बन्ध भी स्थापित कर सकती है जिनतक इसकी स्वाभाविक पहुंच है या जिनतक पहुंच पाना यह पसन्द करती है । ऐसा यह उन अनेक साधनों के द्वारा करती है जो स्थूल बहिर्मुखी इन्द्रियों की संकीर्ण सीमाओं से मुक्त इस अन्तर्मुख मन की सूक्ष्मता, नमनीयता और सर्वग्राही गति के लिये सुलभ होते हैं । सर्वप्रथम, यह सभी वस्तुओं को वे चाहे भौतिक जगत् की हों या अन्य स्तरों की, अनुभवगम्य प्रतिमूर्तियों की सहायता से जान सकतीं है; ये प्रतिमूर्तियां दृश्य वस्तुओं की ही नहीं बल्कि शब्द, स्पर्श, गन्ध, रस, गति, क्रिया तथा उन सब वस्तुओं की भी होती हैं जो मन और उसके कारणों के लिये गोचर हो सकती हैं । क्योंकि समाधि की अवस्था में मन आन्तरिक आकाशतक, जिसे कभी-कभी चिदाकाश भी कहते हैं, पहुंच जाता है, अर्थात् वह अधिकाधिक सूक्ष्म होते जानेवाले आकाश की उन गहराइयोंतक पहुंच जाता है जिनके और भौतिक इन्द्रियों के बीच में जड़ जगत् के स्थूलतर आकाश का घना पर्दा पड़ा हुआ है, और सभी इन्द्रिय-गोचर वस्तुएं वे चाहे स्थूल लोक की हों या किसी अन्य लोक की, इस सूक्ष्म आकाश में अपना पुनर्निर्माण करनेवाले स्पन्दनों, अपनी इन्द्रियगम्य प्रतिध्वनियों, प्रतिकृतियों तथा पुनरावर्ती प्रतिमाओं का सृजन करती हैं । यह सूक्ष्मतर आकाश इन स्पन्दनों आदि को ग्रहण करके अपने अन्दर धारण करता है ।

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  समाधि की यह अवस्था दूरदर्शन तथा दूरश्रवण आदि की अद्भुत घटनाओं में से बहुत-सी की व्याख्या कर देती है; क्योंकि इन घटनाओं का अर्थ यही है कि जाग्रत् मन एक ऐसी अवस्था में असाधारण रूप से प्रवेश पा लेता है जो एक विशेष प्रकार की स्मृति के प्रति सीमित रूप में सचेतन होती है, इस स्मृति को सूक्ष्म आकाश में विद्यमान प्रतिमाओं की स्मृति कहा जा सकता है । इसके द्वारा भूत और वर्तमान की ही नहीं बल्कि भविष्य की भी सब वस्तुओं के संकेतों को ग्रहण किया जा सकता है; क्योंकि भविष्य की वस्तुएं मनके उच्चतर स्तरों पर ज्ञान और अन्तर्दृष्टि के प्रति पहले से ही संसिद्ध हो चुकी होती हैं और उनकी प्रतिमाओं का प्रतिबिम्ब वर्तमान काल में मन पर पड़ सकता है । ये चीजें जाग्रत् मन के लिये अपवाद-रूप एवं दुष्प्राय हैं तथा इन्हें एक विशिष्ट शक्ति को अधिगत करके या फिर श्रमसाध्य अभ्यास के द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है, पर समाधि-चेतना की स्वप्नावस्था के लिये ये सहज-स्वाभाविक हैं क्योंकि उसमें प्रच्छन्न मन स्वतंत्र होता है । और यह मन नाना स्तरों पर वस्तुओं का बोध भी प्राप्त कर सकता है । यह बोध वह इन इन्द्रियगोचर प्रतिमाओं के द्वारा ही नहीं प्राप्त करता बल्कि एक विशेष प्रकार से विचार को जानकर या अपने अन्दर ग्रहण एवं अंकित करके भी प्राप्त करता है, विचार को जानने आदि की यह क्रिया चेतना के उस अद्भुत व्यापार से मिलती-जुलती होती है जिसे आधुनिक मनोविज्ञान में विचार-संक्रमण का नाम दिया गया है । परन्तु स्वप्नावस्था की शक्तियां यहीं समाप्त नहीं हो जातीं । इसमें मन हमारी सत्ता को मनोमय या प्राणमय शरीर के एक सूक्ष्म रूप में एक प्रकार से बाहर प्रक्षिप्त करके अन्य भूमिकाओं और लोकों में या इस लोक के सुदूर स्थानों एवं दृश्यों में सचमुच प्रवेश कर सकता है, एक प्रकार की प्रत्यक्ष शारीरिक सत्ता के साथ उनमें विचरण कर सकता है और उनके दृश्यों, सत्यों तथा घटना-चक्रों के प्रत्यक्ष अनुभव को जागरित अवस्था में ले आ सकता है । इसी प्रयोजन के लिये वह साक्षात् मनोमय या प्राणमय शरीर का भी बाहर प्रक्षेप कर सकता है तथा उसके द्वारा सर्वत्र पर्यटन कर सकता है, ऐसा करते समय वह स्थूल शरीर को ऐसी प्रगाढ़तम समाधि में छोड़ जाता है कि जबतक वह इसमें वापिस नहीं आ जाता तबतक इसमें जीवन का कोई चिह्न नहीं प्रतीत होता ।

 

परन्तु समाधि की स्वप्नावस्था का सबसे बडा महत्त्व इन अधिक बाहरी चीजों मे नहीं ३ । उसका सबसे बडा महत्त्व तो यह ३ कि वह विचार, भावावेग और संकल्प की ऐंसी उच्चतर भूमिकाओं और शक्तियों को सहज मे उच्चा करती है जिनके द्वारा आत्मा उच्चता, विशालता और आत्म-प्रभुता मे वर्धित होती है । विशेषकर, इन्द्रियग्राह्य वस्तुओं के द्वारा उत्पन्न विक्षेप सें पीछे हटकर आत्मा एकाग्रतापूर्ण एकान्त की पूर्ण शक्ति मे, स्वतंत्र तर्क, विचार और विवेक के द्वारा अथवा इससे अधिक अन्तरंग एवं चरम रूप मे उत्तरोत्तर गभीर अन्तर्दर्शन एवं

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तादात्म्य के द्वारा अपने-आपको इस प्रकार तैयार कर सकतीं है कि भगवान्, परम आत्मा एवं परात्पर सत्य को, उसके मूल तत्त्वों तथा उसकी शक्तियों एवं अभिव्यक्तियों को और साथ ही उसके उच्चतम मूल सत्स्वरूप को भी प्राप्त कर सके । अथवा, मानो आत्मा के एक आवृत और निभृत कक्ष में अनन्य आन्तरिक हर्ष और भावावेश के द्वारा वह अपने-आपको दिव्य प्रियतम के साथ एवं समस्त आनन्द और परमोल्लास के स्वामी के साथ मिलन का आह्लाद प्राप्त करने के लिये तैयार कर सकतीं है ।

 

  पूर्णयोग की दृष्टि से समाधि की इस प्रणाली में एक हानि दिखायी दे सकती है । वह यह कि जब समाधि समाप्त होती है तो सूत्र भंग हों जाता है और आत्मा बाह्य जीवन की विक्षिप्त और अपूर्ण अवस्था में वापिस आ जाती है, हां, इस बाह्य जीवन पर उसका उतना उन्नायक प्रभाव अवश्य पड़ता है जितना कि इन गभीरतर अनुभवों की सामान्य स्मृति उत्पन्न कर सकती है । परन्तु यह खाई या दरार अनिवार्य हों ऐसी बात नहीं है । पहली बात तो यह है कि समाधि के अनुभव जाग्रत् मन के लिये शून्यवत् तभीतक रहते हैं जबतक अन्तरात्मा समाधि की अभ्यस्त नहीं हो जाती; जैसे-जैसे यह अपनी समाधिपर अधिकार प्राप्त करती है, वैसे-वैसे यह विस्मृति के किसी प्रकार के भी अन्तराल के बिना आन्तरिक मन से बाह्य जागरित मनतक आने में समर्थ बनती जाती है । दूसरे, जब एक बार ऐसा हो जाता है, तो जो कुछ आन्तरिक अवस्था में प्राप्त हुआ है, उसे जागरित चेतना के द्वारा प्राप्त करना अधिक सुगम हो जाता है और साथ ही उसे आसानी से एक ऐसा रूप भी दिया जा सकता है कि वह जाग्रत् अवस्था के जीवन की स्वाभाविक अनुभूति, शक्ति, सामर्थ्य और मानसिक अवस्था बन जाये । ऐसा होने पर सूक्ष्म मन, जो साधारणत: स्थूल सत्ता की आग्रहपूर्ण मांग के कारण आच्छादित रहता है, जागरित अवस्था में भी शक्तिशाली बनता जाता है, जिससे कि अन्त में विशाल बनता हुआ मानव जागरित अवस्था में भी अपने स्थूल शरीर की तरह अपने अनेक सूक्ष्म शरीरों में भी निवास कर सकता है, उनसे तथा उनके अन्दर सचेतन हो सकता है, उनकी इन्द्रियों, क्षमताओं और शक्तियों का प्रयोग करके अतिभौतिक सत्य, चेतना और अनुभव का स्वामि बनकर रह सकता है ।

 

  सुषुप्ति अवस्था में आत्मा सत्ता की उच्चतर शक्ति की ओर आरोहण करती है । अर्थात् वह विचार से परे शुद्ध चेतना, भावावेग से परे शुद्ध आनन्द तथा संकल्प से परे शुद्ध प्रभुत्व के स्तर की ओर ऊपर उठती है; सच्चिदानन्द की जिस परमोच्च स्थिति में से इस जगत् के सब कार्य-व्यापार उत्पन्न होते हैं उसके साथ एकत्व लाभ करने के लिये सुषुप्ति अवस्था एक द्वार का काम करती है । परन्तु यहां हमें प्रतीकात्मक भाषा के गर्तजालों से बचने का ध्यान रखना होगा । इन उच्चतर भूमिकाओं के लिये 'स्वप्न' और 'सुषुप्ति' शब्दों का प्रयोग एक रूपक से अधिक

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कुछ नहीं । यह रूपक सामान्य स्थूल मन के उस अनुभव से लिया गया है जो उसे अपरिचित भूमिकाओं के विषय में होता है । यह सत्य नहीं है कि 'सुप्ति' (अर्थात् पूर्ण निद्रा) नामक तीसरी भूमिका में 'पुरुष' निद्रा की अवस्था में होता है । बल्कि सुषुप्तिगत 'पुरुष' को प्राज्ञ अर्थात् प्रज्ञा और ज्ञान का स्वामी या विज्ञानमय 'पुरुष' और ईश्वर अर्थात् सत्ता का प्रभु कहा गया है । स्थूल मन के लिये यह सुषुप्ति (प्रगाढ़तम निद्रा) है, पर हमारी विशालतर एवं सूक्ष्मतर चेतना के लिये यह एक अधिक महान् जागृति है । जो चीजें सामान्य मन के सामान्य अनुभव से परे की हैं पर फिर भी उसके क्षेत्र के अन्दर आती हैं वे सभी उसे स्वप्नवत् प्रतीत होती हैं; परन्तु जब वह उस सीमा-रेखा पर पहुंचता है जिसके आगे की चीजें उसके क्षेत्र से सर्वथा परे की होती हैं, तो वह सत्य को स्वप्नावस्था की भांति भी नहीं देख सकता, बल्कि निद्रा की शून्य बोधहीनता और अग्रहणशीलता में पहुंच जाता है । यह सीमारेखा व्यक्ति की चेतना की शक्ति के अनुसार तथा उसके ज्ञानालोक और जागरण की मात्रा और उच्चता के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है । यह रेखा अधिकाधिक ऊंचाई की ओर हटती जा सकती है, यहांतक कि अन्त में यह मन के घेरे को भी पार कर सकती है । निःसन्देह, साधारणतया मानव-मन अतिमानसिक स्तरों पर समाधि की आन्तरिक जाग्रत् अवस्था के रूप में भी जागरित नहीं रह सकता; पर इस असमर्थता पर विजय पायी जा सकती है । इन स्तरों पर जागरित रहकर आत्मा विज्ञानमय विचार अथवा विज्ञानमय संकल्प और आनन्द की भूमिकाओं की स्वामिनी बन जाती है और यदि वह समाधि-अवस्था में ऐसा कर सके तो वह अपने अनुभव की स्मृति और शक्ति को जागरित अवस्था में भी ले जा सकती है । हमारे सामने जो इससे ऊंचा अर्थात् आनन्द का स्तर खुला पड़ा है उसपर जागरित आत्मा, उक्त रीति से ही, आनन्दमय पुरुष को उसके आत्म-समाहित और विश्व-व्याप्त दोनों रूपों में प्राप्त कर सकती है । तथापि इससे ऊपर की भूमिकाएं भी हो सकती हैं जहां से वापिस आती हुई यह इसके सिवा और कोई स्मृति नहीं ला सकती कि ''जैसे भी हो, मैं ऐसे आनन्द में थी जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकती''; वास्तव में वह अपरिच्छिन्न सत्ता का एक ऐसा आनन्द है जिसे विचार के द्वारा प्रकट करना अथवा रूपक या आकार के द्वारा वर्णित करना जरा भी सम्भव नहीं है । हो सकता है कि इस भूमिका में अस्तित्व का भान भी एक ऐसे अनुभव में विलुप्त हो जाये जिसमें जगत् की सत्ता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता और बौद्धों का निर्वाण-रूपी प्रतीक ही एकमात्र सर्वोच्च सत्य प्रतीत होता है । आत्मा के जागरण की शक्ति कितने ही ऊंचे स्तरतक क्यों न पहुंच जाये, तथापि प्रतीत होता है कि उससे परे एक ऐसी भूमिका अवश्य है जिसमें सुषुप्ति के रूपक का प्रयोग फिर भी उपयुक्त होगा ।

 

  समाधि या योगलीनता की स्थिति का मूलतत्त्व यही है, --इसके जटिल

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दृग्विषयों की तह में जाने की अभी हमें जरूरत नहीं । इतना देख लेना ही काफी है कि पूर्णयोग में इसकी उपयोगिता दो प्रकार की है । यह सच है कि एक सीमा तक जिसका ठीक-ठीक वर्णन या निर्धारण करना कठिन है, समाधि से प्राप्त हो सकनेवाली प्रायः सभी अनुभूतियां समाधि का आश्रय लिये बिना भी प्राप्त की जा सकती हैं । तथापि आध्यात्मिक एवं आन्तरात्मिक अनुभव के कुछ ऐसे शिखर भी हैं जिनका बिम्बग्राही नहीं बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव गहराई के साथ तथा पूर्ण रूप में योगसमाधि के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । पर जो अनुभव किसी और तरीके से भी प्राप्त हो सकता है उसके लिये भी समाधि एक प्रस्तुत साधन या एक सुविधापूर्ण विधि का काम करती है; जिन भूमिकाओं में उच्च आध्यात्मिक अनुभव की खोज की जाती है वे जैसे-जैसे अधिक ऊंची एवं दुश्प्राप्य होती जाती हैं वैसे-वैसे यह समाधि की विधि भी अनिवार्य नहीं तो अधिकाधिक सहायक अवश्य होती है । एक बार वहां प्राप्त हो जानेपर इस अनुभव को जाग्रत् चेतना में भी यथासम्भव अधिक-से-अधिक लाना होगा । क्योंकि, जो योग समस्त जीवन को पूर्ण रूप से तथा बिना किसी संकोच के अपने अन्दर समाविष्ट करता है उसमें समाधि का पूरा लाभ तभी प्राप्त होता है जब इसकी प्राप्तियों को मनुष्य में देहधारी आत्मा के पूर्ण जागरण के लिये स्वाभाविक सम्पदा और अनुभूति बनाया जा सके ।

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