Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय १२
समता का मार्ग
पूर्ण और सर्वांगीण समता के वर्णन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि इस समता के दो पहलू हैं । अतएव इसे दो क्रमिक क्रियाओं के द्वारा प्राप्त करना होगा । उनमें से एक हमें अपरा प्रकृति की क्रिया से मुक्त कर देगी तथा दिव्य सत्ता की सुस्थिर शान्ति में प्रवेश प्रदान करेगी; दूसरी हमें परा प्रकृति की पूर्ण सत्ता और शक्ति में उन्मुक्त कर देगी और दिव्य एवं अनन्त ज्ञान, कार्य-संकल्प तथा आनन्द की समत्वपूर्ण स्थिति और विश्वमयता में प्रवेश प्रदान करेगी । पहली का वर्णन हम एक निष्क्रिय या अभावात्मक समता अर्थात् सब कुछ का ग्रहण करनेवाली समता के रूप में कर सकते हैं; वह समता जगत् के आघातों और दृग्विषयों का निर्विकार रूप से सामना करती है तथा उनके द्वारा हमपर लादे गये बाह्य रूपों और प्रतिक्रियाओं के द्वंद्वों का निषेध करती है । दूसरी समता सक्रिय और भावात्मक है । वह जगत् के दृग्विषयों को स्वीकार तो करती है पर एकमेव भागवत सत्ता की अभिव्यक्ति के रूप में ही । वह उनके प्रति समत्वपूर्ण प्रतिक्रिया करती है जो हमारे अन्दर की दिव्य प्रकृति से प्रकट होती है तथा उन्हें उसके गुप्त मूल्यों में रूपान्तरित कर देती है । पहली एकमेव ब्रह्म की शान्ति में निवास करती है तथा सक्रिय अज्ञान की प्रकृति को अपने से दूर कर देती है । दूसरी उस शान्ति के साथ-साथ भगवान् के आनन्द में भी निवास करती है और आत्मा के प्रकृतिगत जीवन पर सत्ता के दिव्य ज्ञान, बल और आनन्द की छाप लगा देती है । समता की यह द्विविध स्थिति, जो एक ही सामान्य सिद्धान्त के द्वारा एकीभूत होती है, पूर्णयोग में समता के मार्ग का निर्धारण करेगी ।
निष्किय या निरी ग्रहणशील समता की प्राप्ति का प्रयत्न तीन विभिन्न सिद्धात्तों या मनोवृत्तियों से आरम्भ हो सकता है । उन सबका परिणाम किंवा अन्तिम फल एक ही होता है । वे हैं तितिक्षा, उदासीनता और नति । तितिक्षा का सिद्धान्त इसपर निर्भर करता है कि यह जो इन्द्रिय-गोचर प्रकृति हमें हर तरफ से घेरे हुई है उसके सभी स्पर्शों संघर्षणों और संकेतों को सहन करने की सामर्थ्य हमारी अन्तःस्थ आत्मा में विद्यमान है; हमारी आत्मा उनसे पराभूत नहीं होती, न ही वह उनकी भाविक, साम्वेदनिक, क्रियाशील और बौद्धिक प्रतिक्रियाओं को सहने के लिये बाध्य होती है । निम्न प्रकृति में अवस्थित बाह्य मन में यह सामर्थ्य नहीं है । उसकी सामर्थ्य सीमित चेतना-शक्ति की सामर्थ्य है; सत्ता के इस स्तर पर चेतना और शक्ति का जो महत्तर भंवर इस सामर्थ्य को चारों ओर से घेरे हुए है उससे जो भी चीजें इसपर टूट पड़ती हैं या इसे घेर लेती हैं उन सबका इसे यथाशक्ति उत्तम रीति
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से सामना करना होता है । विश्व में जो यह (बाह्य मन) अपने को धारण कर भी सकता है तथा अपनी व्यक्तिगत सत्ता का दृढ़तापूर्वक समर्थन कर सकता है उसका भी कारण, निःसन्देह, इसके अन्दर रहनेवाली आत्मा की सामर्थ्य है, पर यह जीवन के आक्रमणों का सामना करने के लिये उस सामर्थ्य की सम्पूर्ण मात्रा को या उस शक्ति की अनन्तता को प्रकाश में नहीं ला सकता; यदि यह ऐसा कर सकता तो यह एक साथ ही अपने जगत् के समान बलशाली और उसका स्वामी होता । पर वास्तव में इसे जैसे-तैसे काम चलाना होता है । यह किन्हीं विशेष आघातों का सामना करता है और उन्हें अपूर्ण या पूर्ण रूप में, कुछ समय के लिये या सर्वकाल कै लिये आत्मसात् करने, उनकी बराबरी करने या उन्हें वश में करने में समर्थ होता है और तब यह उसी अनुपात में हर्ष, सुख, सन्तोष, अभिरुचि, प्रेम आदि की भाविक और साम्वेदनिक प्रतिक्रियाएं करता है, अथवा स्वीकृति, समर्थन, समझ, ज्ञान और विशेषानुराग की बौद्धिक एवं मानसिक प्रतिक्रियाएं करता है, और इन प्रतिक्रियाओं को इसकी संकल्पशक्ति राग और कामना के साथ तथा उन्हें चिरस्थायी बनाने, दुहराने, उत्पन्न और आयत्त करने एवं उसके जीवन की सुखकर आदत बनाने के लिये यत्न के साथ अधिकृत करती है । अन्य आघातों का भी यह सामना करता है पर उन्हें अपने मुकाबले अत्यन्त शक्तिशाली एवं दुर्धर्ष अनुभव करता है अथवा उन्हें अपनेसे अतीव भिन्न और बेमेल या इतने दुर्बल अनुभव करता है कि वे इसे सन्तुष्ट नहीं कर सकते; ये चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें वह सह नहीं सकता या अपने समान नहीं बना सकता या पचा नहीं सकता, और यह इनके प्रति दुख, पीड़ा, कष्ट, असन्तोष, अरुचि, अस्वीकृति, परित्याग, समझने या जानने की अक्षमता तथा प्रवेश से इन्कार की प्रतिक्रियाएं करने को बाध्य होता है । यह इनके विरुद्ध अपनी रक्षा करने, इनसे बचने, इनकी पुनः--पुन: आवृत्ति को टालने या कम-से-कम करने का यत्न करता है; इनके सम्बन्ध में यह भय, क्रोध, जुगुप्सा, त्रास, घृणा, विरक्ति तथा लज्जा की चेष्टाएं करता है, इनसे मुक्त होने के लिये सहर्ष उद्यत रहता है, पर यह इनसे छूट नहीं सकता, क्योंकि यह इनके कारणों के साथ बंधा हुआ है और यहांतक कि उन्हें आमन्त्रित करता है और अतएव यह इनके परिणामों के साथ भी बंधा हुआ है और उन्हें भी आमन्त्रित करता है; क्योंकि ये आघात जीवन के अङग हैं, जिन चीजों को हम चाहते हैं उनके साथ उलझे हुए हैं, और इनके साथ निपटने में हमारी असमर्थता हमारी प्रकृति की अपूर्णता का एक अङ्ग है । फिर, कुछ अन्य आघातों को हमारा सामान्य मन दबाने या निःशक्त कर देने में सफल हो जाता है और इनके प्रति वह उदासानता, सम्वेदनशून्यता या सहिष्णुता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया करता है जिसका स्वरूप न तो भावात्मक स्वीकृति और सुखोपभोग का होता है और न परित्याग या कष्ट- भोग का । वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं, विचारों और क्रियाओं के प्रति, जो कुछ भी मन के सम्मुख
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उपस्थित होता है उस सबके प्रति, उसकी प्रतिक्रियाएं सदा ही उक्त तीन प्रकार की होती हैं । परन्तु ये सामान्य होती हुई भी अनिवार्य बिल्कुल नहीं हैं; ये सामान्य कोटि के अभ्यासपरवश मन के लिये एक योजना का गठन करती हैं जो सबके लिये बिल्कुल एक-सी नहीं होती अथवा किसी एक व्यक्ति के मन के लिये भी विभिन्न समयों या विभिन्न अवस्थाओं में एक-सी नहीं होती । प्रकृति का कोई एक ही आघात किसी एक या दूसरे समय में उसके अन्दर सुखकर या भावात्मक, विरोधी या अभावात्मक अथवा उदासीन या तटस्थ प्रतिक्रियाएं पैदा कर सकता है ।
जो आत्मा प्रभुत्व प्राप्त करना चाहती है वह इन प्रतिक्रियाओं पर प्रबल और समत्वपूर्ण तितिक्षा की बाधक और प्रतिरोधी शक्ति का प्रयोग करके अपनी साधना आरम्भ कर सकती है । अप्रिय स्पर्शों से अपनी रक्षा करने या उन्हें त्यागने तथा उनसे बचने की चेष्टा करने के स्थान पर वह उनका सामना कर सकती है और दुःख झेलना तथा धैर्य, सहिष्णुता, अधिकाधिक समता किंवा कठोर या शान्त स्वीकृति की भावना के साथ आघातों को सहना सीख सकती है । यह मनोवृत्ति या यह साधना तीन परिणामों को, वस्तुओं के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की आत्मा की तीन शक्तियों को, जन्म देती है । सर्वप्रथम, ऐसा अनुभव होता है कि जो कुछ पहले असह्य था वह अब सुसह्य हो जाता है; जो शक्ति आघात का सामना करती है उसका आदर्शमान ऊंचा हो जाता है; तब अप्रिय प्रतिक्रियाओं के सरगम में कष्ट, वेदना, शोक, घृणा या अन्य किसी स्वर को उत्पन्न करने के लिये आघात को अपनी या अपने सुदीर्घ संस्पर्श की नित अधिकाधिक शक्ति की आवश्यकता पड़ती है । दूसरे, ऐसा अनुभव होता है कि सचेतन प्रकृति अपनेको दो भागों में विभक्त कर लेती है । उनमें से एक तो है सामान्य मानसिक और भावप्रधान प्रकृति जिसमें अभ्यस्त प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं । दूसरा है उच्चतर संकल्पशक्ति एवं बुद्धि । वह इस निम्नतर प्रकृति के आवेश का निरीक्षण करती है और उससे चलायमान या प्रभावित नहीं होती, उसे अपनी चीज नहीं मानती । वह उसे न तो स्वीकृति एवं अनुमति प्रदान करती है और न ही उसमें भाग लेती है । तब निम्नतर प्रकृति अपनी प्रतिक्रियाओं की शक्ति-सामर्थ्य को खोकर उच्चतर बुद्धि और संकल्प की स्थिरता और शक्ति के सुझावों के अधीन होने लगती है, और शनैः--शनैः वह स्थिरता एवं शक्ति मानसिक और भाविक, यहांतक कि सम्वेदनप्रधान, प्राणिक और भौतिक सत्ता पर भी अधिकार कर लेती है । यह अवस्था तीसरी शक्ति एवं परिणाम को उत्पन्न करती है, निम्न प्रकृति के प्रति इस सहिष्णुता तथा उसके ऊपर प्रभुता के द्वारा, उससे इस प्रकार के पार्थक्य तथा उसके परित्याग के द्वारा, सामान्य प्रतिक्रियाओं से मुक्त होने की और यहांतक कि, यदि हम चाहें तो, आत्म-बल के द्वारा अपने सब प्रकार के अनुभवों को फिर से ढालने की शक्ति प्रदान करती है । यह विधि अप्रिय ही नहीं बल्कि प्रिय प्रतिक्रियाओं पर भी प्रयुक्त की जाती है;
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अन्तरात्मा अपने-आपको उनके हाथों सौंप देने या उनके द्वारा बहा लिये जाने से इन्कार करती है; जो संस्पर्श हर्ष और सुख लाते हैं उन्हें वह शान्ति के साथ भोगती है; उनके द्वारा उद्वेल्लित होने से इन्कार करती है और प्रिय वस्तुओं से मन को जो हर्ष प्राप्त होता है तथा उनके लिये उसमें जो आतुर चाह होती है उनके स्थान पर आत्मा की शान्ति को स्थापित करती है । इस विधि का प्रयोग चिन्तनात्मक मन पर भी किया जा सकता है, अर्थात् इसके द्वारा मन ज्ञान को और उसके सीमित रूप को शान्तिपूर्वक ग्रहण कर सकता है, वह इस एक आकर्षक विचार-प्रेरणा की मोहकता की तरंग में बह जाने से अथवा उस दूसरी अनभ्यस्त या अरुचिकर विचार-प्रेरणा से घृणावश दूर हटने से इंकार करता है और अनासक्त साक्षिभाव के साथ सत्य की प्रतीक्षा करता है । वह साक्षिभाव शक्तिशाली, निष्काम और प्रभुत्वपूर्ण संकल्प तथा बुद्धि के आधार पर सत्य को विकसित होने देता है । इस प्रकार अन्तरात्मा शनैः--शनैः सब वस्तुओं के प्रति समत्वपूर्ण तथा अपनी स्वामिनी बन जाती है; वह मन की सबल प्रतिरोधशक्ति तथा आत्मा की अचलायमान शांति और गभीरता के साथ जगत् के स्पर्शों का सामना करने में समर्थ हो जाती है ।
दूसरा मार्ग तटस्थ उदासीनता की वृत्ति का है । इसकी विधि है--पदार्थों के आकर्षण या विकर्षण को एक ही साथ त्याग देना, उनके प्रति एक प्रकाशमय अविकार्य अवस्था का, उनका निषेध करनेवाली एक परित्याग--वृत्ति का तथा उनसे सम्बन्ध विच्छेद करने एवं उनका प्रयोग न करने के अभ्यास का विकास करना । यह वृत्ति जितना ज्ञान का आश्रय लेती है उतना संकल्प-शक्ति का नहीं लेती, यद्यपि संकल्पशक्ति भी सदैव आवश्यक होती है । यह एक ऐसी वृत्ति है जो मन के इन आवेशों को बाह्य मन के भ्रम से उत्पन्न वस्तुओ के रूप में देखती है अथवा यह इन्हें एक ही सम आत्मा के शान्त सत्य के अयोग्य हीन गतियों के रूप में या फिर तत्त्वज्ञानी की शान्त द्रष्ट्री संकल्प-शक्ति और रागशून्य बुद्धि के द्वारा त्याग देने योग्य प्राणिक और भाविक विक्षोभ के रूप में देखती है । यह मन में से कामना को निकाल फेंकती है, जो अहं-भाव वस्तुओं पर इन द्वंद्वात्मक मूल्यों को थोपता है उसे त्याग देती है, और कामना के स्थान पर तटस्थ एवं उदासीन शान्ति को तथा अहंकार के स्थान पर शुद्ध आत्मा को प्रतिष्ठित करती है । वह शुद्ध आत्मा जगत् के आघातों से अशान्त, उत्तेजित या विचलित नहीं होती । और इस प्रकार केवल भावप्रधान मन ही शान्त नहीं होता बल्कि बौद्धिक सत्ता भी अज्ञान- भूमिका के विचारों को त्याग देती है और निम्न ज्ञान के पक्षपातों से ऊपर उठकर एक ही सनातन एवं अपरिवर्तनशील सत्य को प्राप्त कर लेती है । यह मार्ग भी तीन परिणामों या शक्तियों का विकास करता है जिनके द्वारा यह शान्ति की ओर आरोहण करता है ।
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सर्वप्रथम, ऐसा अनुभव होता है कि मन जीवन के क्षुद्र सुखों और दुःखों से स्वेच्छापूर्वक ही बंधा हुआ है और वास्तव में, यदि आत्मा बाह्य और क्षणिक पदार्थों के द्वारा असहायवत् परिचालित होने के अपने अभ्यास को त्याग देनाभर पसन्द कर ले तो, ये सुख-दुःख मन पर कोई आन्तरिक प्रभुत्व नहीं प्राप्त कर सकते । दूसरे, ऐसा अनुभव होता है कि यहां भी निम्न या बाह्य मन, जो अभीतक पुराने अभ्यस्त स्पर्शों के अधीन है, और उच्चतर बुद्धि तथा संकल्पशक्ति जो आत्मा की उदासीन शान्ति में निवास करने के लिये पीछे की ओर अवस्थित हैं --इन दोनों के बीच विभाजन या मनोवैज्ञानिक पृथक्करण किया जा सकता है । दूसरे शब्दों में, एक आन्तरिक तटस्थ शान्ति, जो निम्न करणों के विक्षोभ का निरीक्षण करती है पर उसमें भाग नहीं लेती और न उसे किसी प्रकार की अनुमति ही देती है, हमारे ऊपर प्रभुत्व प्राप्त करती जाती है । आरम्भ में उच्चतर बुद्धि और संकल्पशक्ति प्रायः आच्छादित और आक्रान्त हों सकती हैं, मन निम्न अंगों की उत्तेजना के द्वारा खींच ले जाया जाता है, पर अन्त में यह शान्ति अजेय और चिरस्थायी बन जाती है, यह उग्र से उग्र स्पर्शों के द्वारा भी चलायमान नहीं होती, न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते । यह शान्तिमय आन्तरिक आत्मा बाह्य मन के विक्षोभ को अनासक्त उच्चता की स्थिति से देखती है अथवा यह उसे एक ऐसे क्षणिक और अलिप्त अनुग्रह के साथ देखती है जो एक बालक के क्षुद्र हर्षों और शोकों के प्रति प्रकट किया जा सकता है, यह उन्हें अपनी सत्ता के अंगभूत या किसी स्थिर वास्तविकता पर आधारित नहीं मानती । और अन्त में बाह्य मन भी इस स्थिर और उदासीन प्रशान्ति को क्रमश: स्वीकार कर लेता है; वह जिन चीजों से आकृष्ट होता था उनसे आकृष्ट होना या जिन दुःख-कष्टों को मिथ्या महत्त्व देने का आदी था उनसे दुःखित होना छोड़ देता है । इस प्रकार एक तीसरी शक्ति प्राप्त होती है जो विशाल स्थिरता और शान्ति की सर्वव्यापक शक्ति होती है, हमारी आरोपित, अवास्तविक और आत्मपीड़क प्रकृति के घेरे से मुक्ति का आनन्द रूप होती है, सनातन और अनन्त ब्रह्म के संस्पर्श का गम्भीर, अविचल और निरतिशय सुख होती है जो अपनी नित्यता के द्वारा अनित्य पदार्थो के संघर्ष और उपद्रव का स्थान लें लेता है, ब्रह्मसंस्पर्शत् अत्यन्तं सुखम् अश्रुते । अन्तरात्मा आत्मा के आनन्द मैं स्थिर रूप में स्थित हो जाती है, आत्मरति:, परमात्मा के अखण्ड और अनन्त आनन्द में प्रतिष्ठित हो जाती है और पहले की तरह बाह्य स्पर्शों तथा उनके दुःखों और सुखों का पीछा नहीं करती । वह जगत् को एक ऐसे खेल या अभिनय के दर्शक के रूप में ही देखती है जिसमें वह भाग लेने के लिये अब और बाध्य नहीं होती ।
तीसरा मार्ग नति का है । वह नति या तो ईसाई- धर्मवालों की नति हो सकती है जो ईश्वरेच्छा के प्रति अधीनता पर प्रतिष्ठित होती है, या वह सब वस्तुओं और घटनाओं को वैश्व संकल्पशक्ति की कालगत अभिव्यक्ति मानते हुए उनकी निरहंकार
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स्वीकृति हो सकती है, या फिर भगवान् किंवा परम पुरुष के प्रति व्यक्ति का पूर्ण समर्पण-रूप हो सकती है । जैसे पहला मार्ग संकल्पशक्ति का मार्ग था और दूसरा ज्ञान एवं बोधशील बुद्धि का, वैसे ही यह भावमय प्रकृति और हृदय का मार्ग है और भक्ति के सिद्धान्त के साथ अत्यन्त घनिष्ठ रूपसे सम्बद्ध है । यदि इसे अन्तिम छोरतक ले जाया जाये तो यह भी पूर्ण समता के इसी परिणामतक पहुंचता है । क्योंकि, अहं की गांठ ढीली हो जाती है और वैयक्तिक मांग दूर होने लगती है, हमें अनुभव होता है कि अब हम प्रिय वस्तुओं से मिलनेवाले हर्ष या अप्रिय वस्तुओं से होनेवाले दुःख के साथ बंधे हुए नहीं हैं; हम उन्हें उत्सुकतापूर्ण स्वीकृति या क्षोभमय परित्याग के बिना सहन करते हैं, उन्हें अपनी सत्ता के प्रभु के सुपुर्द कर देते हैं, हमारे लिये उनका जो वैयक्तिक परिणाम होता है उससे उत्तरोत्तर कम-से-कम मतलब रखते हैं और केवल एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु को पकड़े रहते हैं । वह वस्तु है भगवान् को प्राप्त करना, अथवा विराट् और अनन्त सत्ता के साथ सम्पर्क और एकरवरता प्राप्त करना, या भगवान् के साथ एकीभूत होना, उनकी प्रणालिका एवं उनका यन्त्र, सेवक और प्रेमी बनना, उनमें तथा उनके साथ अपने सम्बन्ध में आनन्द लेना और हर्ष या शोक का और कोई विषय या कारण न रखना । यहां भी कुछ समय के लिये अभ्यस्त आवेशोंवाले निम्न मन और प्रेम एवं आत्मदान करनेवाले उच्चतर चैत्य मन के बीच विभाजन हो सकता है, पर अन्ततोगत्वा निम्न मन वश में हो जाता है, परिवर्तित और रूपान्तरित हो जाता है, भगवान् के प्रेम, आह्लाद और आनन्द में विलीन हो जाता है तथा अन्य कोई स्वार्थ या आकर्षण उसमें नहीं रह जाते । तब भीतर सब कुछ उस एकत्व की सम शान्ति एवं उसका आनन्द ही होता है, वह एकमेव प्रशान्त आनन्द जो बुद्धि से परे है, वह शान्ति जो हमारी आध्यात्मिक सत्ता की गहराइयों में निम्नतर वस्तुओं के आमन्तण से अछूती रहती है ।
ये तीन मार्ग अपने पृथक्-पृथक् बिन्दुओं से आरम्भ होकर भी एक ही बिन्दु पर आकर मिल जाते हैं । इसका पहला कारण तो यह है कि ये बाह्य वस्तुओं के प्रति, बाह्यान् स्पर्शान् मन की सामान्य प्रतिक्रियाओं का निषेध करते हैं, दूसरा यह है कि ये अन्तरात्मा या आत्मा को प्रकृति के बाह्य व्यापार से पृथक् करते हैं । परन्तु यह स्पष्ट ही हे कि यदि हम एक अधिक सक्रिय समता प्राप्त कर सकें तो हमारी पूर्णता अधिक महान् होगी, अधिक सर्वग्राही रूप में पूर्ण होगी, क्योंकि वह समता हमें जगत से पीछे हटने या अनासक्त और तटस्थ शान्ति के साथ उसका सामना करने में ही समर्थ नहीं ब्रनायेगी, बल्कि उसकी ओर साहसपूर्वक लौटकर शान्त और सम आत्मा की शक्ति के द्वारा उसे अधिकृत करने की सामर्थ्य भी प्रदान करेगी । ऐसी समता प्राप्त करना सम्भव है क्योंकि जगत्, प्रकृति और कर्म वास्तव में कोई सर्वथा पृथक् वस्तु नहीं हैं, बल्कि आत्मा, विराट् पुरुष एवं भगवान् की
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एक अभिव्यक्ति हैं । सामान्य मन की प्रतिक्रियाएं उन दिव्य मूल्यों का एक हीन रूप हैं जो इस हीन रूप के अभाव में इस सत्य को हमारे सामने प्रकट कर देते, --ये एक मिथ्या रूप किंवा अज्ञान हैं जो उनकी क्रियाओं को बदल देता है, एक ऐसा अज्ञान है जो अन्ध जड़ निर्ज्ञान के भीतर आत्मा के निवर्तित होने से उद्भूत होता है । एक बार जब हम आत्मा किंवा भगवान् की परिपूर्ण चेतना में लौटते हैं, तब हम वस्तुओं का सच्चा दिव्य मूल्य प्रदान कर सकते हैं और परम आत्मा की शान्ति, आनन्द, ज्ञान और सर्वदर्शी संकल्प के साथ उन्हें ग्रहण कर सकते तथा उनपर क्रिया कर सकते हैं । जब हम ऐसा करने लग जाते हैं, तब अन्तरात्मा जगत् में सम आनन्द लेने लगती है, सब शक्तियों के साथ व्यवहार करने वाली सम संकल्पशक्ति तथा एक ऐसे सम ज्ञान को प्राप्त करने लगती है जो इस दिव्य अभिव्यक्ति के सब दृग्विषयों के पीछे अवस्थित आध्यात्मिक सत्य को अधिकृत कर लेता है । वह जगत् को भगवान् की ही भांति अनन्त प्रकाश, बल और आनन्द की पूर्णता के साथ अधिकृत कर लेती है ।
अतएव इस समस्त जगत् और जीवन पर निषेधात्मक एवं निष्क्रिय समता के स्थान पर भावात्मक एवं सक्रिय समता के योग के दृष्टिकोण द्वारा भी विचार किया जा सकता है । इसके लिये सबसे पहले आवश्यकता है नये ज्ञान की जो कि एकता का ज्ञान है, --इसका अभिप्राय है सब वस्तुओं को अपनी ही सत्ता के रूप में देखना और भगवान् में तथा सब वस्तुओं में भगवान् को देखना । तब, सब दृश्य पदार्थों, सब घटनाओं, सब दैवयोगों, सब व्यक्तियों और शक्तियों को आत्मा के प्रच्छन्न रूप, एक ही शक्ति के क्रिया-व्यापार, एक ही कार्यरत शक्ति के परिणाम तथा एक ही दिव्य ज्ञान के द्वारा शासित समझते हुए उन्हें सम भाव से स्वीकार करने के लिये एक संकल्पशक्ति उत्पन्न होती है; और महत्तर ज्ञान से युक्त इस संकल्पशक्ति के आधार पर प्रत्येक वस्तु का अनुद्विग्र आत्मा और मन के द्वारा सामना करने की शक्ति विकसित होती है । मुझे अपनी आत्मा का विश्व की आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करना होगा, सब प्राणियों के साथ एकत्व का साक्षात्कार और अनुभव प्राप्त करना होगा, सब शक्तियों, सामर्थ्यों और परिणामों को अपनी आत्मा की और अतएव घनिष्ठ रूप से मेरी अपनी ही इस शक्ति की क्रिया के रूप में देखना होगा; यह स्पष्ट ही है कि उनको मुझे अपनी अहं सत्ता की क्रिया के रूप में नहीं देखना होगा, अहंसत्ता को तो शान्त करना होगा, दूर करना एवं त्याग देना होगा, --अन्यथा यह सिद्धि प्राप्त ही नहीं हो सकती; परन्तु उन्हें एक ऐसे महत्तर निर्व्यक्तिक या विश्वव्यापी आत्मा की, जिसके साथ मैं अब एकमय हूं क्रिया के रूप में अनुभव करना होगा । कारण, मेरा व्यक्तित्व अब उस विश्वात्मा के कार्य का एक केन्द्रमात्र है, पर एक ऐसा केन्द्र है जो अन्य सब व्यक्तित्वों के साथ तथा उन सब दूसरी वस्तुओं के साथ भी, जो हमारे लिये केवल निर्व्यक्तिक पदार्थ और
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शक्तियां हैं, घनिष्ठ रूप सें सम्बद्ध और समस्वर है : पर वास्तव में वे भी एक ही निर्व्यक्तिक 'पुरुष', भगवान्, आत्मा और परमात्मा की शक्तियां हैं । मेरा व्यक्तित्व उन्हींका व्यक्तित्व है और अब पहले की तरह विश्वमय सत्ता के साथ असंगत या उससे पृथक् कोई वस्तु नहीं है; वह स्वयं विश्वमय होकर वैश्व आनन्द का ज्ञाता बन गया है तथा जिन वस्तुओं को वह जानता और भोगता है और जिनपर क्रिया करता है उन सबके साथ एकमय और उनका प्रेमी बन गया है । क्योंकि विश्व के समत्वपूर्ण ज्ञान तथा विश्व को स्वीकार करने के समत्वयुक्त संकल्प के साथ भगवान् की समस्त वैश्व अभिव्यक्ति में सम आनन्द भी प्राप्त होगा ।
यहां भी हम इस पद्धति के तीन परिणामों या इसकी तीन शक्तियों का वर्णन कर सकते हैं । सबसे पहले हम अपनी आत्मा में तथा आध्यात्मिक ज्ञान के अनुकृल क्रिया करनेवाली उच्चतर बुद्धि और संकल्पशक्ति में विश्व को समतापूर्वक स्वीकार करने की इस शक्ति का विकास करते हैं । परन्तु हम यह भी देखते हैं कि यद्यपि प्रकृति को समता की इस सामान्य वृत्ति को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया जा सकता है तथापि उस उच्चतर बुद्धि एवं संकल्पशक्ति और निम्नतर मानसिक सत्ता के बीच संघर्ष चलता रहता है, क्योंकि निम्नतर मानसिक सत्ता जगत् को देखने के तथा उसके आघातों के प्रति प्रतिक्रिया करने के पुराने अहंकारमय ढंग के साथ चिपकी रहती है । तब हम यह अनुभव करते हैं कि यद्यपि प्रकृति के ये दो भाग आरम्भ में अस्तव्यस्त एवं परस्पर-मिश्रित होते हैं, बारी-बारी से प्रकट होते, एक-दूसरे पर क्रिया करते तथा प्रभुत्व के लिये चेष्टा करते रहते हैं तथापि इन्हें एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकता है, अर्थात् उच्चतर आध्यात्मिक प्रकृति को निम्नतर मानसिक प्रकृति से मुक्त किया जा सकता है । परन्तु इस अवस्था में जब कि मन अभी भी दुःख, कष्ट, निम्न हर्ष और सुख की प्रतिक्रियाओं के अधीन होता है, पृर्णयोग के साधक के सामने एक बड़ी भारी कठिनाई उपस्थित होती है जो एक अधिक-तीव्रत: व्यक्तिप्रधान योग में उतना बड़ा प्रभाव नहीं दिखलाती । कारण, पूर्णयोग में मन केवल अपने कष्टों और कठिनाइयों को ही अनुभव नहीं करता बल्कि वह दूसरों के हर्षों और शोकों में भी भाग लेता है, तीव्र सहानुभूति के साथ उनके प्रति स्पन्दित होता है, उनके आघातों को सूक्ष्म संवेदनशीलता के साथ अनुभव करता है, उन्हें अपना आघात बना लेता है; इतना ही नहीं, वरन् दूसरों की कठिनाइयां भी हमारी कठिनाइयों में आ जुड़ती हैं और पूर्णता का विरोध करनेवाली शक्तियां पहले सें अधिक दृढ़ता के साथ अपना कार्य करती हैं, क्योंकि वे इस प्रयत्न को किसी अकेली आत्मा का उनके साम्राज्य से भाग निकलना ही नहीं समझतीं बल्कि अपने सार्वभौम राज्य पर आक्रमण तथा उसे जीतने का प्रयत्न अनुभव करती हैं । किन्तु अन्त में, हम यह भी देखते हैं कि इन कठिनाइयों को पार करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है; उच्चतर बुद्धि और संकल्पशक्ति निम्नतर
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मन पर अपना प्रभुत्व बलपूर्वक आरोपित कर देती हैं, जिससे कि वह प्रत्यक्षत: ही आध्यात्मिक प्रकृति के विशाल प्रतिरूपों में परिवर्तित हो जाता है; यहांतक कि वह सब कष्टों, बाधाओ और कठिनाइयों को अनुभव करने तथा उनका सामना और पराभव करने में भी आनन्द लेता है जिससे कि अन्त में वे उसके रूपान्तर के द्वारा दूर ही हो जाती हैं । तब हमारी सम्पूर्ण सत्ता स्वयं परम आत्मा की तथा उसकी अभिव्यक्ति की चरम शक्ति, विराट् शान्ति और हुर्षमयता में तथा उसके सर्वदर्शी आनन्द और तपस् में निवास करती है ।
समता की यह भावात्मक पद्धति किस प्रकार कार्य करती है यह देखने के लिये ज्ञान, संकल्प और वेदन की तीन महान् शक्तियों में रहनेवाले इसके तत्व को अत्यन्त संक्षेप में देख लेना उचित होगा । समस्त भावावेश, वेदन और ऐन्द्रिय सम्वेदन अन्तरात्मा का एक साधन है जिसके द्वारा वह परम आत्मा की प्रकृतिगत अभिव्यक्तियों के सम्पर्क में आती है तथा उन्हें प्रभावशाली मूल्य प्रदान करती है । परन्तु अन्तरात्मा जो कुछ अनुभव करती है वह विश्वव्यापी आनन्द ही है । इसके विपरीत, जैसा कि हम देख चुके हैं, निम्नतर मन में अवस्थित 'पुरुष ' उस आनन्द को दुःख, सुख और जड़ उदासीनता के तीन परिवर्तनशील मूल्य प्रदान करता है, जो अपनी कम अधिक मात्राओं के तारतम्य के द्वारा एक-दूसरे को अपना पुट दे देते हैं, और यह तारतम्य इसपर निर्भर करता है कि व्यक्तिभावापत्र चेतना ने अपने को पृथक्कारी वैयक्तिक रूप देकर जिस महत्तर सत्ता को अपने से बाहर कर रखा है तथा जिसे मानों अपने अनुभव के प्रति 'पर' बना रखा है उस सारी सत्ता से अपने ऊपर आनेवाले सभी आघातों का सामना करने, उन्हें जानने और पचाने तथा उनकी बराबरी करने एवं उनपर प्रभुत्व पाने के लिये उसमें कितनी शक्ति है । परन्तु हमारे अन्दर स्थित महत्तर आत्मा के कारण, हम में सदा ही एक गुप्त अन्तरात्मा भी रहती है जो इन सब चीजों में आनन्द लेती है और अपने सम्पर्क में आनेवाली सभी चीजों से शक्ति आहरण करती तथा उनके द्वारा विकसित होती है, प्रतिकूल अनुभव से भी उतना ही लाभ उठाती है जितना अनुकूल अनुभव से । यह अन्तरात्मा बाह्य कामनामय पुरुष को भी अनुभूत हो सकती है, और वस्तुत: इसी कारण हमें जीने में आनन्द आता है और हम संघर्ष तथा कष्ट में एवं जीवन के कठोरतर रूपों में भी एक प्रकार का सुख अनुभव कर सकते हैं । परन्तु विराट् आनन्द प्राप्त करने के लिये हमारे सब करणों को सभी वस्तुओं का कोई आंशिक या विकृत नहीं बल्कि मूल आनन्द ग्रहण करना सीखना होगा । सभी वस्तुओं में आनन्द का तत्त्व विद्यमान है, जिसे बुद्धि उनमें अवस्थित आनन्द के आस्वाद या उनके रस के रूप में ग्रहण कर सकती है तथा जिसे सौन्दर्यवृत्ति इसी रूप में अनुभव कर सकती है; पर साधारणत: ये इसके स्थान पर उन्हें मनमाने, विषम और विपरीत मूल्य प्रदान करती है : इन्हें वस्तुओं को आत्मा के प्रकाश में देखने और
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इन सामयिक मूल्यों को वास्तविक, सम, सारभूत एवं आध्यात्मिक रस में रूपान्तरित करने के लिये प्रेरित करना होगा । हमार अन्दर जो प्राणतत्त्व है उसका प्रयोजन आनन्द-तत्त्व के इस ग्रहण, रस-ग्रहण, को एक ऐसे प्रबल स्वत्वयुक्त भोग का रूप देना है जो सम्पूर्ण प्राणसत्ता को अपने द्वारा स्पन्दित कर दे और अपने-आपको स्वीकार करने तथा अपने में आनन्द लेने के लिये प्रेरित करे; पर कामना के वशीभूत होने के कारण यह साधारणत: अपना कार्य करने में सक्षम नहीं होता, बल्कि यह उस रसग्रहण को तीन निम्नतर रूपों में परिणत कर देता है, -सुखभोग, दु:खभोग और इन दोनों का त्याग जिसे सम्वेदनहीनता या उदासीनता कहते हैं । प्राण-तत्त्व या प्राणिक सत्ता को कामना तथा उसकी असमतापूर्ण वृत्तियों से मुक्त करना होगा तथा बुद्धि और सौन्दर्यशक्ति जिस रस को अनुभव करती हैं उसे ग्रहण करके शद्ध भोग का रूप देना होगा । तब फिर तीसरा पग उठाने के लिये करणों में और कोई बाधा नहीं रह जायेगी, उस पग के द्वारा सब कुछ आध्यात्मिक आनन्द की पूर्ण और शुद्ध उन्मादना में रूपान्तरित हो जाता है ।
ज्ञान के सम्बन्ध में भी मन की वस्तुओं के प्रति तीन प्रतिक्रियाएं होती हैं, अज्ञान, भ्रम और सत्य ज्ञान । भावात्मक समता आरम्भ में उन तीनों को आत्म-अभिव्यक्ति की गतियों के रूप में स्वीकार करेगी; यह आत्म-अभिव्यक्ति अज्ञान में से सत्य ज्ञान की ओर विकसित होती है । विकास की इस प्रक्रिया में यह आंशिक या विकृत ज्ञान में से गुजरती है जो भ्रम का मूल है । भावात्मक समता मन के अज्ञान के साथ चेतना के तत्त्व की एक तमसाच्छन्न, आवृत या परिवेष्टित अवस्था के रूप में व्यवहार करेगी जो कि उसका मनोवैज्ञानिक रूप है, इस अवस्था में सर्वज्ञ आत्मा का ज्ञान मानों एक अन्धकारमय कोष में छुपा होता है; वह उसपर मन को एकाग्र करेगी और पहले से ज्ञात सम्बद्ध सत्यों की सहायता से बुद्धि के द्वारा या अन्तर्ज्ञान की एकाग्रता के द्वारा अज्ञान के पर्दे में से ज्ञान को मुक्त करेगी । वह केवल ज्ञात सत्यों में ही आसक्त नहीं रहेगी, न ही सब चीजों को जबर्दस्ती उनके छोटे-से चौखटे के अन्दर कसने का यत्न करेगी, बल्कि ज्ञात और अज्ञात सभी सत्यों पर एक ऐसे समत्वपूर्ग मन के साथ अपने को एकाग्र करेगी जो समस्त सम्भावनाओं के प्रति खुला रहता है । भ्रम के साथ भी वह इसी प्रकार बर्ताव करेगी; वह सत्य और भ्रान्ति के उलझे हुए जाल को स्वीकार करेगी, पर किसी भी सम्मति के प्रति आसक्त नहीं होगी, वरन् सभी सम्मतियों के पीछे स्थित सत्य के तत्त्व की भ्रान्ति के अन्दर छुपे ज्ञान की खोज करेगी, --क्योंकि समस्त भ्रान्ति सत्य के कुछ गलत-समझे-गये अंशों का विकृत रूप है और अपनी शक्ति वह उस सत्य से प्राप्त करती है न कि उसके मिथ्या बोध से; निर्णीत सत्यों को वह स्वीकार करेगी पर उनके द्वारा भी अपने को सीमित नहीं करेगी, बल्कि सदैव नये ज्ञान के लिये तैयार रहेगी तथा एक अधिकाधिक समग्र, अधिकाधिक विस्तृत, समन्वयकारी
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और ऐक्यसाधक ज्ञान की खोज करेगी । यह ज्ञान अपने पूर्ण रूप में तभी प्राप्त हो सकता हो यदि मनुष्य आदर्श अतिमानसतक उठ जाये, और अतएव सत्य का समत्वपूर्ण अन्वेषक बुद्धि और उसकी क्रियाओं के प्रति आसक्त नहीं रहेगा, न वह यह ही सोचेगा कि सब कुछ बुद्धि मे ही समाप्त हो जाता है, बल्कि उसे इसके परे जाने के लिये तैयार रहना होगा, आरोहण की प्रत्येक अवस्था को तथा अपनी सत्ता की प्रत्येक शक्ति की देनों को स्वीकार करना होगा, पर केवल इसलिये कि उन्हें उच्चतर सत्य में उठा ले जाया जा सके । उसे प्रत्येक वस्तु को स्वीकार करना होगा परन्तु किसीके साथ भी चिपक नहीं जाना होगा, किसी भी वस्तु से घृणापूर्वक पीछे नहीं हटना होगा, चाहे वह कितनी ही अपूर्ण क्यों न हो, अथवा रूढ़ विचारों की कितनीं ही अपूर्ण क्यों न हों, पर साथ ही किसी चीज को अपने ऊपर इस प्रकार अधिकार भी नहीं करने देना होगा कि उससे सत्य-रूपी आत्मा की स्वतन्त्र क्रिया को क्षति पहुंचे । बुद्धि की यह समता उच्चतर अतिमानसिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानतक पहुंचने के लिये एक आवश्यक शर्त है ।
हमारे अन्दर अवस्थित संकल्पशक्ति हमारी सत्ता की एक ऐसी शक्ति है जो उसके सभी अंगों में अत्यन्त सामान्य रूप से बलवती है, --हमारे अन्दर ज्ञान का संकल्प, प्राण का संकल्प और भावावेश का संकल्प है, हमारी प्रकृति के प्रत्येक भाग में ही एक संकल्पशक्ति कार्य कर रही है, --अपनी इस प्रबलता के कारण हमारी संकल्पशक्ति अनेक रूप ग्रहण करती है और पदार्थों के बाह्य स्पर्शों के उत्तर में नानाविध प्रतिक्रियाएं करती है, जैसे असमर्थता, सीमित शक्ति, स्वामित्व, अथवा सत्य संकल्प, असत्य या विकृत संकल्प, उदासीन प्रवृत्ति की, --नैतिक मन में पुण्य, पाप और अनैतिक प्रवृत्ति की, --तथा इस प्रकार की अन्य प्रतिक्रियाएं करती है । इन्हें भी भावात्मक समता कुछ ऐसे सामयिक एवं कामचलाऊ मूल्यों के जाल के रूप में स्वीकार करती है जिन्हें लेकर उसे अपना कार्य आरम्भ करना होगा, पर जिन्हें विराट् प्रभुत्व में, सत्य और विराट् ऋत के संकल्प में तथा कर्मगत दिव्य संकल्पशक्ति के स्वातंत्र्य में रूपान्तरित कर देना होगा । समत्वपूर्ण संकल्पशक्ति को अपने स्खलनों पर पश्चात्ताप, शोक या निराशा अनुभव करने की कोई जरूरत नहीं; यदि यान्त्रिक मन में ये प्रतिक्रियाएं घटित हों तो वह केवल यही देखेगी कि ये कहांतक किसी अपूर्णता एवं सुधारने योग्य वस्तु की ओर निर्देश करती हैं, --क्योंकि ये सदा यथार्थ निर्देशक ही नहीं होतीं, -- और इस प्रकार वह इनसे परे जाकर शान्त और सम मार्गदर्शन प्राप्त करेगी । वह देखेगी कि स्वयं ये स्खलन भी अनुभव के लिये आवश्यक हैं और अन्ततोगत्वा लक्ष्य की ओर जानेवाले पगों का काम करते हैं । हमारे अन्दर तथा संसार में जो कुछ भी घटित होता है उस सबके पीछे और भीतर वह दिव्य अर्थ तथा दिव्य मार्गदर्शन की खोज करेगी; बाहर से जबर्दस्ती लादी हुई सीमाओं से परे वह विश्व-शक्ति के उस
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स्वेच्छापूर्ण आत्म-परिसीमन को देखेगी जिसके द्वारा वह शक्ति अपने पगों और क्रमों का नियमन करती है, --वे पग और क्रम हमारी अज्ञानावस्था पर तो बाहर से लाये गये प्रतीत होते हैं पर दिव्य ज्ञान में अपने ऊपर स्वेच्छापूर्वक आरोपित होते हैं, --और इस प्रकार पर जाकर वह भगवान् की अपरिमेय शक्ति के साथ एकत्व प्राप्त करेगी । सब शक्तियों और कर्मों को वह एकमेव सत्ता से उद्भूत होती हुई शक्तियों के रूप में देखेगी तथा उनकी विकृतियों को प्रगति के लिये अपेक्षित शक्तियों की ऐसी अपूर्णताओं के रूप में देखेगी जिनका इस प्रगति में उत्पन्न होना अनिवार्य ही है । अतएव वह सभी अपूर्णताओं को उदारतापूर्वक सहन करेगी पर इसके साथ ही एक विराट् पूर्णता की प्राप्ति के लिये स्थिरतापूर्वक दबाव डालेगी । यह समता प्रकृति को दिव्य और विराट् संकल्पशक्ति के मार्गदर्शन के प्रति खोल देगी तथा इसे उस अतिमानसिक कार्य के लिये तैयार कर देगी जिसमें हमारे अन्दर की आत्मा की शक्ति ज्योतिर्मय रूप में परमोच्च आत्मा की शक्ति से पूर्ण तथा उसके साथ एकमय होतीं है ।
पूर्णयोग हमारी प्रकृति की आवश्यकता तथा अन्तःस्थित आत्मा, अन्तर्यामी, के मार्गदर्शन के अनुसार निष्क्रिय तथा सक्रिय दोनों विधियों का प्रयोग करेगा । यह अपने-आपको निष्क्रिय पद्धति की सीमाओं मे बांध नहीं लेगा, क्योंकि वह केवल किसी वैयक्तिक निवृत्तिप्रधान मोक्ष की ओर या सक्रिय और विराट् आध्यात्मिक सत्ता के निषेध की ओर ले जायेगी जो कि इसके लक्ष्य की समग्रता के साथ संगत नहीं होगा । यह तितिक्षा की विधि का प्रयोग करेगा, पर अनासक्त शक्ति और प्रशान्ति पर ही नहीं रुक जायेगा, बल्कि उस भावात्मक शक्ति एवं प्रभुत्व की ओर अग्रसर होगा जिसमें फिर तितिक्षा की जरूरत ही नहीं रहेगी, क्योंकि तब आत्मा अपने अन्दर विराट् शक्ति को सुस्थिर, प्रबल और साहसिक रूप में धारण कर लेगी और एकत्व एवं आनन्द में स्थित होकर वहीं से अपनी सब प्रतिक्रियाओं को सरलता और प्रसन्नता के साथ निर्धारित करने में समर्थ बन जायेगी । वह तटस्थ उदासीनता की विधि का भी प्रयोग करेगी, पर सब वस्तुओं के प्रति विरक्त उदासीनता को ही इस योग की पराकाष्ठा नहीं मान लेगी, बल्कि जीवन की एक ऐसी उच्चासीन (उत् + आसीन) तटस्थ स्वीकृति की ओर अग्रसर होगी जो समस्त अनुभव को सम आत्मा के महत्तर मूल्यों में रूपान्तरित करने की शक्ति रखती है । वह कुछ काल के लिये नति और आत्मोत्सर्ग के मार्ग का भी प्रयोग करेगी, पर भगवान् के प्रति अपनी वैयक्तिक सत्ता के पूर्ण समर्पण के द्वारा उस सर्वसम्राट् आनन्द को प्राप्त कर लेगी जिसमें नति की आवश्यकता ही नहीं हैं, विराट् सत्ता के साथ एक ऐसा पूर्ण सामंजस्य प्राप्त कर लेगी जो कोरा नति का भाव नहीं बल्कि सबका आलिंगन करनेवाला एकत्व है, भगवान् के प्रति प्राकृत सत्ता के पूर्ण यन्त्रभाव और दास्य- भाव को प्राप्त कर लेगी जिसके द्वारा जीवात्मा भी भगवान् को
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अधिकृत कर लेती है । वह भावात्मक समता की पद्धति का पूर्ण रूप से प्रयोग करेगी, पर जगत् और जीवन को व्यक्तिगत उद्देश्य से अपनाने की ऐसी किसी भी वृत्ति से परे चली जायेगी जिसके परिणामस्वरूप जीवन केवल पूर्ण व्यक्तिगत ज्ञान, शक्ति और आनन्द का ही क्षेत्र बनकर रह जाये । व्यक्तिगत ज्ञान आदि भी उसे अवश्य प्राप्त होंगे, पर इनके साथ ही वह उस एकत्व को भी प्राप्त करेगी जिसके द्वारा वह दूसरों के अस्तित्व के रूप में केवल अपने लिये नहीं बल्कि उनके लिये भी जीवन धारण कर सके तथा उसने स्वयं जो पूर्णता प्राप्त की है उसीकी ओर उनके प्रयत्न में उनकी सहायता करने, उनके लिये एक साधन किंवा एक सम्बद्ध और सहायक शक्ति का काम करने के लिये जीवन-यापन कर सके । वह जगत्--सत्ता का त्याग न करती हुई भगवान् के लिये जीवन धारण करेगी, पर वह न तो भूतल के प्रति आसक्त होगी और न ही स्वर्गलोकों या विश्वातीत मुक्ति के प्रति, बल्कि वह भगवान् के साथ उनकी सभी भूमिकाओं में समान रूप से एकीभूत होगी और उनमें, उनके आत्मस्वरूप तथा उनकी अभिव्यक्ति में, समान रूप से निवास करने में समर्थ होगी ।
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