Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय १३
समता की क्रिया
पिछले अध्याय में हमने समता के जो भेद किये हैं उनसे यह पर्याप्त स्पष्ट हो गया होगा कि समता की अवस्था का क्या अभिप्राय है । वह केवल निश्चल शांति एवं उदासीनता नहीं है, न वह अनुभव से विरत होने का ही नाम है, बल्कि उसका मतलब है मन और प्राण की वर्तमान प्रतिक्रियाओं से ऊपर उठ जाना । वह जीवन के प्रति प्रतिक्रया करने का अथवा सच पूछो तो उसका आलिंगन करके उसे अंतरात्मा और आत्मा का एक पूर्ण सक्रिय रूप बनने के लिये बाध्य करने का आध्यात्मिक मार्ग है । वह जीवन के ऊपर आत्मा के प्रभुत्व का प्रथम रहस्य है । जब हम उसे पूर्ण रूप से प्राप्त कर लेते हैं तो हम दिव्य आध्यात्मिक प्रकृति की ठेठ भूमि में प्रवेश पाते हैं । शरीर में स्थित मनोमय पुरुष प्राण को बलात् नियंत्रित करने तथा अपने अधिकार में लाने का यत्न करता है, किन्तु पग-पग पर उसी के द्वारा नियंत्रित होता है, क्योंकि वह प्राणमय सत्ता की कामनात्मक प्रतिक्रियाओं के अधीन हो जाता है । सम रहना अर्थात् कामना के किसी भी दबाव के द्वारा अभिभूत न होना वास्तविक प्रभुत्व की पहली शर्त है, आत्म-शासन इसका आधार है । परन्तु निरी मानसिक समता, वह चाहे कितनी ही महान् क्यों न हो, निष्क्रियता की प्रवृत्तिके द्वारा जकड़ी रहती है । उसे कामना सें अपने-आपको स्थिर रूप से सुरक्षित करने के लिये संकल्प और कर्म के क्षेत्र में अपने-आपको सीमित करना होता है । केवल आत्मा ही एक ऐसी सत्ता है जो संकल्प की उदात्त अक्षुब्ध तीव्रताओं को तथा असीम धैर्य को धारण कर सकती है, वही मन्द एवं सुविचारित या तीव्र एवं उप कर्म में समान रूप से यथोचित व्यवहार करती है, सुरक्षित रूप से मर्यादित, सीमित या विशाल एवं बृहत् कर्म में समानतया निरापद रहती है । वह संसार के किसी संकीर्णतम क्षेत्र में छोटे-से-छोटे कार्य को स्वीकार कर सकती है, पर वह अव्यवस्था के भँवर पर भी बुद्धिपूर्वक और सर्जन शक्ति के साथ कार्य कर सकती है; और ये सब चीजें वह इस कारण कर सकती है कि वह दोनों प्रकार के कार्यों को अनासक्ति के साथ किन्तु फिर भी घनिष्ठ भाव से स्वीकार करके उनके अन्दर अनन्त शांति, ज्ञान, संकल्प और शक्ति को धारण किये रहती है । यह अनासक्ति उसमें इस कारण होती है कि वह जिन घटनाओं, रूपों, विचारों और कार्यों को अपने क्षेत्र में समाविष्ट करती है उन सबसे ऊपर होती है; और, सब कार्यों को घनिष्ट रूप से स्वीकार करने की वृत्ति उसमें इस कारण होती है कि इस सबके होते हुए भी वह सब वस्तुओं के साथ एकमय होती है । यदि हममें यह
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मुक्त एकत्व, एकत्यमू अनुपश्यत:, नहीं है तो हमारे अन्दर आत्मा की पूर्ण समता नहीं आयी है ।
साधक का पहला कर्तव्य यह देखना है कि उसमें पूर्ण समता है या नहीं, इस दिशा में वह कहांतक आगे बढ़ा है अथवा कहां त्रुटि रह गयी है, साथ ही उसका कर्तव्य यह भी है कि वह अपनी प्रकृति पर अपनी संकल्प शक्ति का स्थिरता--पूर्वक प्रयोग करे या फिर त्रुटि और उसके कारणों को दूर करने के लिये 'पुरुष' की संकल्पशक्ति का आवाहन करे । चार चीजें उसमें अवश्य होनी चाहियें; पहली, समता अपने अत्यन्त ठोस एवं व्यावहारिक अर्थ में, अर्थात् मानसिक, प्राणिक और शारीरिक अभिरुचियों से मुक्ति, उसके भीतर और चारों ओर परमेश्वर की जो भी क्रियाएं हो रही हैं उन सबको सम रूप से स्वीकार करना; दूसरी चीज है सुस्थिर शान्ति और समस्त क्षोभ एवं उद्वेग का अभाव; तीसरी, प्राकृत सत्ता का भावात्मक आन्तर आध्यात्मिक सुख और आध्यात्मिक आराम, सुखम् जिसे कोई भी चीज कम न कर सके चौथी, जीवन और जगत् का आलिंगन करनेवाली आत्मा का शुभ्र आनन्द और हास्य । सम होने का अर्थ है अनन्त और विश्वमय होना, अपने- आपको सीमित न करना, मन और प्राण के इस या उस रूप के साथ तथा उनकी अपूर्ण अभिरुचियों एवं कामनाओं के साथ अपने-आपको न बांधना । पर मनुष्य अपनी वर्तमान सामान्य प्रकृति में अपनी मानसिक और प्राणिक रचनाओं के अनुसार ही जीवन यापन करता है; अपनी आत्मा की स्वतन्त्रता में नहीं, इसलिये उन रचनाओं के प्रति तथा उनके अन्तर्भूत कामनाओं और अभिरुचियों के प्रति आसक्ति भी उसकी सामान्य अवस्था है । उन्हें स्वीकार करना आरम्भ में अनिवार्य होता है, उनके परे जाना अत्यन्त ही कठिन है और जबतक हम मन को अपने कार्य के प्रधान साधन के रूप में प्रयुक्त करने के लिये बाध्य होते हैं तबतक शायद उनके परे जाना पूर्णतया सम्भव भी नहीं होता । अतएव पहला आवश्यक कार्य यह है कि हम कम-से-कम उनके डंक को निकाल डालें और जब वे डटी रहें तब भी उनकी अत्यधिक हठधर्मिता तथा वर्तमान अहन्ता से और हमारी प्रकृति पर उनकी अधिक उग्र मांग से उन्हें वंचित कर दें ।
यह कार्य हमने सम्पन्न कर लिया है या नहीं इसकी कसौटी यह है कि क्या हमारे मन और आत्मा में अविचलित शान्ति उपस्थित रहती है । साधक को मन के पीछे स्थित होकर वरंच, जितनी जल्दी बन पड़े उतनी जल्दी, मन के ऊपर स्थित होकर साक्षी और संकल्पशील पुरुष के रूप में प्रकृति का निरीक्षण करना होगा और अपने मन में उत्पन्न होनेवाली अशान्ति, चिन्ता, शोक, विद्रोह और विक्षोभ के जरा से भी लक्षणों या प्रसंगों को दूर हटाना होगा । यदि ये चीजें प्रकट हों तो उसे इनके मूल कारण को, इनके द्वारा सूचित त्रुटि को, अहंकारपूर्ण मांग के दोष को, तथा उस प्राणिक कामना, भावावेश या विचार को, जिससे ये उद्भूत होती हैं,
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तुरन्त ढूंढ निकालना होगा और अपनी संकल्पशक्ति एवं अध्यात्मभावित बुद्धि के द्वारा तथा अपनी सत्ता के स्वामी के साथ अपनी आत्मिक एकता के द्वारा इस मूल दोष आदि को क्षीण एवं निस्तेज करना होगा । किसी भी कारण से इन चीजों के लिये कोई भी बहाना उसे स्वीकार नहीं करना होगा, वह चाहे कितना ही स्वाभाविक तथा देखने में न्याययुका या सत्याभासी क्यों न हो; इसी प्रकार उसे इनका समर्थन करनेवाली किसी आन्तरिक या बाह्य हेतु को भी अङ्गीकार नहीं करना होगा । उसकी सत्ता का जो भाग क्षुब्ध होता है और शोर मचाता है वह यदि प्राण हो तो उसे उस क्षुब्ध प्राण से अपने-आपको पृथक् कर लेना होगा, अपनी उच्चतर प्रकृति को बुद्धि में स्थित रखना होगा और बुद्धि के द्वारा अपनी कामनामय आत्मा की मांग को नियन्त्रित और निराकृत करना होगा; और कोलाहल एवं उपद्रव करनेवाला भाग यदि भावप्रधान हृदय हो तो उसके साथ भी ऐसा ही बर्ताव करना होगा । इसके विपरीत, यदि दोष स्वयं संकल्पशक्ति और बुद्धि का हो तो इस उपद्रव पर काबू पाना अधिक कठिन होता है, क्योंकि तब उसका मुख्य सहायक एवं यन्त्र दिव्य संकल्पशक्ति के विरुद्ध विद्रोह करनेवालों का सङ्गी बन जाता है और निम्नतर अङ्गों के पुराने पाप इस अनुमति से लाभ उठाकर फिर से अपना सिर ऊपर उठा लेते हैं । अतएव हमें एकमात्र प्रधान विचार पर, अर्थात् अपनी सत्ता के स्वामी, अपने और विश्व के अन्दर अवस्थित भगवान, परम आत्मा एवं विराट् 'पुरुष' के प्रति आत्मसमर्पण पर, सतत और आग्रहपूर्वक बल देना होगा । बुद्धि को सदा इस प्रधान विचार पर एकाग्र रहकर अपने सब हीनतर आग्रहों और अभिरुचियों को निरुत्साहित करना होगा और सम्पूर्ण सत्ता को यह सिखाना होगा कि चाहे अहंभाव बुद्धि, व्यक्तिगत संकल्पशक्ति और हृदय के द्वारा अपनी मांग पेश करे या प्राणगत कामनापुरुष के द्वारा, पर उसे किसी भी प्रकार का वास्तविक अधिकार नहीं है और समस्त शोक, विद्रोह, अधीरता और अशान्ति सत्ता के स्वामी के विरुद्ध एक प्रकार की जोर-जबर्दस्ती है ।
इस पूर्ण आत्मसमर्पण को ही साधक को अपना मुख्य आधार बनाना चाहिये क्योंकि पूर्ण निश्चलता के तथा कर्ममात्र के प्रति पूर्ण उदासीनता के मार्ग के सिवा,--जिसका कि हमें त्याग करना होगा, --आत्मसमर्पण ही एक ऐसा मार्ग है जिसके द्वारा पूर्ण स्थिरता और शान्ति प्राप्त हो सकती हैं । अशान्ति यदि निरन्तर बनी रहे और अपने-आपको पवित्र करने एवं पूर्ण बनाने की इस क्रिया में यदि लम्बा समय लगे तो उसके कारण भी उसे निरुत्साहित और अधीर नहीं होना चाहिये । अशान्ति इसलिये लौट आती है कि उसे प्रत्युत्तर देनेवाली कोई चीज हमारी प्रकृति में अभी भी विद्यमान होती है, और वह बारम्बार लौटकर यह प्रकट करने में सहायक होती है कि अभी हमारे अन्दर त्रुटी विद्यमान है, साथ ही वह साधक को सावधान करने में तथा उस त्रुटि से मुक्त होने के लिये संकल्पशक्ति
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की एक अधिक आलोकित और संगत क्रिया को साधित करने में भी सहायता पहुंचाती है। जब अशान्ति इतनी प्रबल हों कि उसे दूर किया ही न जा सके तो उसके तूफान को गुजर जाने देना चाहिये और आध्यात्मीकृत बुद्धि की महत्तर जागरूकता तथा दृढ़ता के द्वारा उसके पुनरावर्तन को निरुत्साहित करना चाहिये । इस प्रकार दृढ़ रहने से यह अनुभव होगा कि इन चीजों का बल उत्तरोत्तर कम होता जाता है, ये अधिकाधिक बाह्य बनती जाती हैं और लौटने पर उत्तरोत्तर कम समयतक ही टिक पाती हैं, जिससे कि अन्त में शान्ति हमारी सत्ता का विधान बन जाती है । यह नियम-पद्धति तबतक चलती रहती है जबतक मनोमय बुद्धि हमारे मुख्य करण का काम करती है; पर जब अतिमानसिक ज्योति मन और हृदय पर अधिकार कर लेती है, तब कोई अशान्ति, शोक, या क्षोभ उत्पन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वह अपने संग आलोकित शक्ति से युक्त आध्यात्मिक प्रकृति को लाती है जिसमें इन चीजों का कोई स्थान नहीं हो सकता । वहां तो एकमात्र वही स्पन्दन और भावावेश होते हैं जो दिव्य एकता की आनन्दमय प्रकृति से सम्बन्ध रखते हैं ।
सम्पूर्ण सत्ता में जो शान्ति स्थापित हो वह सभी परिस्थितियों में एक-सी बनी रहनी चाहिये, अर्थात् स्वास्थ्य और रोग में, सुख और दुःख में, यहांतक कि तीव्र-से-तीव्र शारीरिक वेदना में, सौभाग्य और दुर्भाग्य में, वह चाहे हमारा हो या उनका जिनसे हम प्रेम करते हैं, सफलता और विफलता में, मान और अपमान में, स्तुति और निन्दा में, हमारे प्रति किये गये न्याय और अन्याय में, ऐसी प्रत्येक वस्तु में जो साधारणतः मन को प्रभावित करती है, सत्ता की शान्ति एक समान बनी रहनी चाहिये । यदि हम सर्वत्र एकता का दर्शन करें, यदि हम यह अनुभव करें कि सब कुछ भगवान् की इच्छाशीका से ही घटित होता है, सबमें परमेश्वर को देखें, अर्थात् अपने शत्रुओं में या यूं कहें कि जीवन की क्रीड़ा में जो हमारे विरोधी हैं उनमें तथा अपने मित्रों में, हमारा विरोध और प्रतिरोध करनेवाली शक्तियों में, तथा हमारा पक्ष लेने और साहाय्य करनेवाली शक्तियों में, सभी बलो एवं शक्तियों में तथा सभी घटनाओं में भगवान् का साक्षात्कार करें और इसके साथ ही यदि हम यह भी अनुभव कर सकें कि कोई भी वस्तु हमारी आत्मा से विभक्त या पृथक् नहीं है, समस्त विश्व हमारी विराट् सत्ता में हमारे साथ एकीभूत है, --तो समता एवं शान्ति की इस वृत्ति को धारण करना हमारे हृदय और मन के लिये कहीं अधिक सुगम हो जायेगा । परन्तु इस विराट् साक्षात्कार को प्राप्त कर सकने या इसमें दृढ़तया स्थित हो सकने से पहले भी हमें अपने अधिकारगत सभी उपायों से इस ग्रहणशील और सक्रिय समता एवं शान्ति पर आग्रह करना होगा । इसका थोड़ा-सा भी अंश, स्वल्पमू अपि अस्य धर्मस्य, पूर्णता की ओर एक महान् पग होता है; इसमें आरम्भिक दृढ़ता मुक्ति की सिद्धि की पहली सीढ़ी होती है; इसकी सम्पूर्णता सिद्धि के अन्य सभी अंगों में द्रुत प्रगति के लिये पूर्ण आश्वासन का काम करती है । कारण, इसके बिना हमें ठोस आधार नहीं प्राप्त हो सकता; और
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इसका सुनिश्चित अभाव होने पर हम कामना, अहं, द्वंद्व और अज्ञान से युक्त निम्नतर अवस्था में पुन:--पुन: पतित होते रहेंगे ।
यह शान्ति जब एक बार प्राप्त हो जाये तो समझो कि प्राण और मन की पसन्दगी शान्ति भंग करने की सामर्थ्य को खो चुकी है; उसके बाद से वह मन का एक रूढ़ अभ्यासमात्र रह जाती है । प्राणिक स्वीकृति या निषेध अर्थात् उस घटना की अपेक्षा इसका अधिक स्वागत करने के लिये प्राण की कहीं अधिक तत्परता, मानसिक स्वीकृति या निषेध अर्थात् उस दूसरे कम अनुकूल विचार या सत्य की अपेक्षा इस अनुकूलता को अधिक पसन्द करना, उस अन्य परिणाम की अपेक्षा कहीं अधिक इस परिणाम पर अपने संकल्प को एकाग्र करना, --ये सब एक रूढ़ यान्त्रिक क्रिया का रूप धारण कर लेते हैं । हमारी सत्ता का स्वामी शक्ति को जिस दिशा में मोड़ना चाहता है या इस समय जिस दिशा में प्रवृत्त कर रहा है उसका संकेत करने के लिये वह यान्त्रिक क्रिया अभी आवश्यक होती है । किन्तु प्राण और मन की पसन्दगी में प्रबल अहंकारमय संकल्पशक्ति, असहिष्णु कामना और आग्रहपूर्ण रुचिवाला जो अशान्तिजनक तत्त्व है वह नष्ट हो जाता है । अशान्ति पैदा करनेवाली ये बाह्य वस्तुएं क्षीण रूप में कुछ समयतक टिकी रह सकतीं हैं, पर जैसे-जैसे समता की शान्ति बढ्ती जाती है तथा गहरी होकर अधिक मूलभूत और घन रूप ग्रहण करती जाती है, वैसे-वैसे ये लुप्त होती चलती हैं और मानसिक एवं प्राणिक तत्त्व को रञ्जित करना छोड़ती जाती हैं या फिर ये अत्यन्त बाह्य भौतिक मन की सतह पर बाह्य स्पर्शों के रूप में ही प्रकट होती हैं, अन्दर नहीं पैठ सकतीं और, अन्त में यह पुनरावर्तन अर्थात् मन के बाह्य द्वारों पर पुन:--पुन: प्रकट होना भी समाप्त हो जाता है । तब यह अनुभव एक सजीव सत्य के रूप में प्राप्त हो सकता है कि हमारे अन्दर जो कुछ भी होता है उस सब को सत्ता का स्वामी ही सम्पन्न और संचालित करता है, यथा प्रयुक्तोऽस्मि तथा करोमि, यह अनुभव पहले हमारे अन्दर केवल एक प्रबल धारणा एवं श्रद्धा के रूप में ही विद्यमान था; हां, अपनी वैयक्तिक प्रकृति की घटनाओं के पीछे हमें कभी- कभी, गौण रूप से, दिव्य क्रिया की झांकियां भी मिल जाती थीं । किन्तु अब ऐसा दिखायी देता है कि हमारी प्रत्येक क्रिया पुरुष के संकेतों को, हमारी अन्तःस्थ दिव्य शक्ति के द्वारा दिया गया एक रूप है; निःसन्देह यह रूप अभी भी व्यक्तिभावापन्न होता है, अभी भी निम्नतर मानसिक आकार की क्षुद्रता को लिये होता है, पर मूलतः अहंकारपूर्ण नहीं होता, यह रूप अपूर्ण अवश्य होता है पर स्पष्टत: विकृत नहीं । इसके बाद हमें इस अवस्था के भी परे जाना होगा । कारण, पूर्ण कर्म एवं अनुभव का निर्धारण किसी प्रकार की मानसिक या प्राणिक अभिरुचि को नहीं करना होगा, वह तो सत्योद्भासक और अन्तःप्रेरक आध्यात्मिक संकल्पशक्ति को करना होगा । यह संकल्पशक्ति स्वयं भागवत शक्ति ही होती है जो साक्षात् और वास्तविक रूप से कर्म और अनुभव का संचालन करती है । जब मैं यह कहता हूं कि वह मुझे जिस प्रकार
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प्रेरित करता है उसी प्रकार मैं कर्म करता हूं तब भी मैं अपने कार्य में एक सीमाकरी वैयक्तिक तत्त्व और मानसिक प्रतिक्रिया को ले आता हूं । पर (इससे परे की अवस्था में) प्रभु ही मुझे अपना यन्त्र बनाकर मेरे द्वारा अपना कार्य करेगा और इसके लिये मेरे अन्दर कोई ऐसी मानसिक या अन्य प्रकार की अभिरुचि नहीं होनी चाहिये जो उसके कार्य को सीमित करे, उसमें हस्तक्षेप करे तथा क्रिया की अपूर्णता को जन्म दे । मन को अतिमानसिक सत्य के साक्षात्कारों के लिये तथा उसके साक्षात्कार में प्रच्छन्न रूप से कार्य कर रही संकल्पशक्ति के प्रत्यक्षानुभव के लिये एक प्रशान्त और ज्योतिर्मय वाहन बनना होगा । तब हमारा कर्म इस सर्वोच्च सत्स्वरूप प्रभु एवं सर्वोच्च सत्य का कर्म होगा, वह मन में पहुंचकर सीमित या मिथ्या रूप नहीं धारण कर लेगा । जो भी सीमा, पसन्दगी या सम्बन्ध उस कर्म पर आरोपित किया जायेगा उसे भगवान् ही व्यक्ति के अन्दर किसी विशेष समय में अपने किसी उद्देश्य के लिये अपने ऊपर स्वयं आरोपित करेंगे; वह सीमा आदि अनिवार्य, चरम किंवा अटल नहीं होगी, मन के किये हुए अज्ञानयुक्त निर्धारण के समान नहीं होगी । बल्कि तब विचार और संकल्प ज्योतिर्मय अनन्त से उद्भूत होनेवाली क्रियाओं का रूप धारण कर लेते हैं, वे एक ऐसी रचना बन जाते हैं जो अन्य रचनाओं को बहिष्कृत नहीं करती बल्कि उन्हें अपने साथ उनके सम्बन्ध की दृष्टि से उनके ठीक स्थान पर स्थापित कर देती है, यहांतक कि उन्हें अपने घेरे के अन्तर्गत कर लेती या रूपान्तरित कर देती है और दिव्य ज्ञान तथा कर्म के बृहत्तर रूपों या रचनाओं की ओर अग्रसर होती है ।
समता के फलस्वरूप सर्वप्रथम जो स्थिरता प्राप्त होती है उसका स्वरूप होता है शान्ति अर्थात् समस्त चंचलता, शोक और उद्वेग का अभाव । जैसे-जैसे समता अधिक घनीभूत होती जाती है, वैसे-वैसे वह भावात्मक सुख एवं आध्यात्मिक निर्वृति के पूर्णतर तत्त्व को ग्रहण करती जाती है । यह निर्वृति एवं सुख आत्मा का एक ऐसा हर्ष होता है जो उसे अपने ही अन्दर मिलता है और जो अपनी निरपेक्ष सत्ता के लिये किसी भी बाह्य वस्तु पर आश्रित नहीं होता, निराश्रय:; गीता में इसका वर्णन अन्त:सुखोऽन्तराराम: --इन शब्दों में किया गया है, यह निरतिशय आन्तरिक सुख होता है, ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्रुते । कोई भी चीज इसमें व्याघात नहीं पहुंचा सकती, और आगे चलकर यह आत्मा के द्वारा बाह्य वस्तुओं के अवलोकन के क्षेत्र में भी अपने-आपको विस्तारित करता है, अर्थात् उनपर भीं इस शान्त आध्यात्मिक हर्ष का नियम लागू करता है । कारण, इसका आधार होता है निश्चल शान्ति, यह सम, प्रशान्त और निरपेक्ष, अहैतुक, हर्ष होता है । और जैसे-जैसे अतिमानसिक ज्योति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे एक महत्तर आनन्द प्राप्त होता जाता है; हमारी आत्मा जो कुछ भी है तथा जो कुछ वह बनती, देखती और अनुभव करती है उस सबमें उसे जो प्रचुर हर्षातिरेक प्राप्त होता है उसके लिये यह महत्तर आनन्द आधार का काम करता है, साथ ही यह आनन्द भगवान् के कर्म को ज्ञानपूर्वक करनेवाली और सभी लोकों में
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भगवान् का आनन्द ले रही भागवत शक्ति के अट्टहास्थ का भी आधार है ।
जब समता की क्रिया पूर्णता प्राप्त कर लेती है तो वह दिव्य आनन्दमय शक्ति के आधार पर पदार्थों के सभी मूल्यों का रूपान्तर कर देती है । बाह्य कर्म जैसा पहले था वैसा ही चलता रह सकता है अथवा बदल भी सकता है, उसका रूप वही होता है जिसके लिये कि परम आत्मा प्रेरित करता है तथा जो जगत् के लिये करने योग्य कर्म को सम्पन्न करने के लिये आवश्यक होता है, --किन्तु आन्तरिक कर्म सारे-का-सारा और ही ढंग का हो जाता है । ज्ञान, कर्म, उपभोग, सर्जन और रूपायण की अपनी विभिन्न सामर्थ्यों के साथ भागवत शक्ति जगत् के विभिन्न लक्ष्यों की ओर अपने-आपको प्रेरित करेगी, पर उसका मूल भाव और ही प्रकार का होगा; वे ऐसे लक्ष्य, फल तथा कार्यपद्धतियां होंगे जिन्हें भगवान् अपने ऊर्ध्वस्थ प्रकाश से निर्धारित करते हैं, वे कोई ऐसी चीज नहीं होंगे जिसकी मांग अहं अपने पृथक् स्वार्थ के लिये करता है । मन, हृदय, प्राण-सत्ता और यहांतक कि शरीर भी, सत्ता के स्वामी के विधान से उन्हें जो कुछ भी प्राप्त होगा उसीसे सन्तुष्ट रहेंगे और उसीमें सृक्ष्म्तम किन्तु फिर भी पूर्णतम आध्यात्मीकृत तृप्ति और आनन्द प्राप्त करेगे; पर ऊर्ध्वस्थित दिव्य ज्ञान एवं संकल्प अपने और भी परे के लक्ष्यों के लिये कार्य करते जायेंगे । यहां सफलता और असफलता दोनों के वर्तमान अर्थ लुप्त हों जाते हैं । यहां असफलता नाम की कोई चीज हो ही नहीं सकती; क्योंकि जो कुछ भी होता है वह लोकों के प्रभु का अभिमत होता है, वह अन्तिम लक्ष्य नहीं वरन् उसके मार्ग का एक सोपान होता है, और यदि वह यन्त्रभूतू सत्ता के सामने उपस्थित लक्ष्य का विरोध, पराभव, निषेध, यहांतक कि क्षणभर के लिये पूर्ण निषेध प्रतीत होता हो तो वह केवल ऊपर से देखने में ही ऐसा लगता है और बाद में वह प्रभु के कार्य की मितव्ययतापूर्ण व्यवस्था में अपने ठीक स्थान पर स्थित दिखायी देगा, --यहांतक कि एक पूर्णतर अतिमानसिक दिव्य दृष्टि उसके प्रयोजन को तथा अन्तिम परिणाम के साथ उसके सच्चे सम्बन्ध को तुरन्त या पहले से ही देख सकती है, यद्यपि वह अन्तिम परिणाम के इतना विपरीत और यहांतक कि शायद उसका निश्चित प्रतिषेध ही प्रतीत होता है । अथवा--जब प्रकाश न्यून होता है तब-यदि लक्ष्य को या कार्य की पद्धति तथा परिणाम के क्रमों को समझने के सम्बन्ध में भूल हुई हो तो असफलता उसे सुधारने के लिये आती है और इससे निरुत्साहित या संकल्प में विचलित हुए बिना इसे शान्तिपूर्वक स्वीकार कर लिया जाता है । अन्त में यह पता लगता है कि असफलता नाम की कोई चीज है ही नहीं और तब अन्तरात्मा सभी घटनाओं को भागवत संकल्पशक्ति के सोपान और रूपायण समझती हुई उनमें एक समान निष्क्रिय या सक्रिय आनन्द लेती है । सौभाग्य और दुर्भाग्य, रुचिकर और अरुचिकर अर्थात् मंगल-अमंगल और प्रिय-अप्रिय के सभी रूपों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही वृत्ति विकसित हो जाती है ।
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घटनाओं की तरह व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी समता हमारी दृष्टि और वृत्ति में पूर्ण परिवर्तन ले आती है । समत्वपूर्ण मन और आत्मा का पहला परिणाम यह होता है कि वे एक वृद्धिशील उदारता को तथा सब व्यक्तियों, विचारों, दृष्टिकोणों और कार्यों के प्रति आन्तरिक सहिष्णुता को उत्पन्न करते हैं, क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि भगवान् सब प्राणियों में विद्यमान हैं और प्रत्येक प्राणी अपने स्वभाव तथा उसकी वर्तमान अभिव्यक्तियों के अनुसार कार्य करता है । जब भावात्मक सम आनन्द प्राप्त होता है तो वह उदारता एवं सहिष्णुता गहरी होकर सहानुभूतिपूर्ण समझ का तथा अन्त में एक सम सार्वभौम प्रेम का रूप धारण कर लेती है । आध्यात्मिक संकल्पशक्ति के द्वारा निर्धारित जीवन-आवश्यकता के अनुसार हमारी आन्तरिक मनोवृत्ति बाह्य जगत् के साथ जो नानाविध सम्बन्ध स्थापित करती है या जो विभिन्न रूप ग्रहण करती है उनमें उपर्युक्त उदारता, सहिष्णुता आदि कोई भी वृत्ति बाधा नहीं पहुंचा सकती, इसी प्रकार उसी संकल्पशक्ति के द्वारा निर्धारित जीवन-आवश्यकता और जीवनोद्देश्य के लिये अमुक एक विचार, दृष्टि और कार्य के विरुद्ध अमुक दूसरे को सुदृढ़ प्रश्रय देने में, अथवा जो शक्तियां विधिविहित कार्य के मार्ग मे रोड़ा अटकाने के लिये प्रेरित होती हैं उनके विरुद्ध प्रबल बाह्य या आन्तरिक प्रतिरोध, विरोध या प्रतिक्रिया करने में भी उक्त वृत्ति बाधक नहीं हो सकती । इतना ही नहीं, बल्कि रुद्र-शक्ति वेगपूर्वक प्रकट होकर मानवीय या अन्य प्रकार की बाधा पर प्रबल रूप से क्रिया कर सकती है या उसे छिन्न-भिन्न कर सकतीं है, क्योंकि यह मानव-व्यक्ति तथा जागतिक उद्देश्य दोनों के लिये आवश्यक होता है । परन्तु इन अधिक ऊपरी रचनाओं के द्वारा समत्वपूर्ण अन्तरतम वृत्ति के सारतत्त्व में कोई परिवर्तन या कमी नहीं आती । भले ही ज्ञान, संकल्प, कर्म और प्रेम की शक्ति अपना कार्य करे और अपने कार्य के लिये अपेक्षित नानाविध रूप भी धारण करे किन्तु मूल भावना एवं मूलभूत आत्मा एक ही रहती हैं । और अन्त में सब कुछ भगवान् की सत्ता में तथा ज्योतिर्मय, आध्यात्मिक, एकमेव और विश्वव्यापक शक्ति में सब व्यक्तियों, शक्तियों और वस्तुओं के साथ ज्योतिर्मय आध्यात्मिक एकत्व का रूप धारण कर लेता है । उस विश्वव्यापक एकमेव शक्ति में व्यक्ति का अपना कार्य सब के कार्य का अभेद्य अंग बन जाता है, उससे विभक्त एवं पृथक् नहीं होता, बल्कि प्रत्येक सम्बन्ध को पूर्णतया अपने विराट् एकत्व के जटिल रूपों से युक्त सर्वभूतस्थ भगवान् के साथ सम्बन्ध अनुभव करता है । यह एक ऐसी पूर्णता है जिसे भेदकारक मानसिक बुद्धि की भाषा में कदाचित् ही वर्णित किया जा सकता है क्योंकि यह उसके सभी विरोधों का उपयोग करती है किन्तु फिर भी उन्हें अतिक्रम कर जाती है; इसी प्रकार हमारे सीमित मनोविज्ञान के शब्दों में भी इसका वर्णन नहीं किया जा सकता । यह तो चेतना के एक अन्य ही प्रदेश से एवं हमारी सत्ता की एक अन्य ही भूमिका से सम्बन्ध रखती है ।
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