योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ९

 

समता की प्राप्ति और अहं का नाश

 

 समग्र आत्म-निवेदन, पूर्ण समता, अहं का निर्मम उन्मूलन, प्रकृति का उसकी अज्ञानमय कार्यशैलियों से रूपान्तरकारी उद्धार--ये सब सोपान हैं जिनसे भागवत इच्छाशक्ति के प्रति समस्त सत्ता एवं प्रकृति का समर्पण अर्थात् सच्चा, सर्वांगीण एवं अशेष आत्मदान निष्पन्न तथा सिद्ध किया जा सकता है । सर्वप्रथम आवश्यक वस्तु है अपने कर्मों में आत्म-निवेदन की पूर्ण भावना; इसे पहले-पहल सारी सत्ता में व्याप्त एक सतत संकल्प का रूप धारण करना होगा, फिर इसे उसकी एक अन्तरीय आवश्यकता बनना होगा, अन्त में इसे उसका एक स्वयं-प्रेरित पर सजीव एवं सचेतन अभ्यास तथा हममें, सभी प्राणियों में एवं विश्व के सभी व्यापारों में विद्यमान परमदेव एवं निगूढ़ शक्ति के प्रति यज्ञरूप में सब कर्म करने का एक सहज स्वभाव ही बन जाना होगा । जीवन इस यज्ञ की वेदी है, कर्म आहुति हैं, वे परात्पर और विश्वमय शक्ति एवं उपस्थिति, जिनका हमें अभी ज्ञान या साक्षात्कार तो प्राप्त नहीं हुआ है पर अनुभूति या झांकी मिली है, हमारे इष्टदेव हैं जिनके प्रति हमारे कर्म अर्पित होते हैं । इस यज्ञ या आत्म-निवेदन के दो पहलू हैं; एक तो स्वयं कर्म और दूसरा वह भाव जिससे उसे सम्पन्न किया जाता है अर्थात् जो कुछ भी हम देखते, सोचते और अनुभव करते हैं उस सबमें अपने कर्मों के स्वामी की पूजा का भाव ।

 

     अपने अज्ञान में हम जो अच्छे-से-अच्छा प्रकाश साधिकार प्राप्त कर सकते हैं उसीसे प्रारम्भ में हमारा कर्म भी निर्धारित होता है । उसीको हम करणीय कर्म समझते हैं । कर्म का मूलतत्व तो एक ही है, कर्म का रूप चाहे किसी भी हेतु से नियत क्यों न हो, चाहे वह हमारी कर्तव्य-विषयक भावना से नियत हो या अपने सजातियों के प्रति हमारी सहानुभूति से, अथवा दूसरों के लिये या संसार के लिये क्या हितकर है इस विषय में हमारी धारणा से नियत हो किंवा एक ऐसे व्यक्ति के आदेश से जिसे हम मानव गुरु मानते हैं, जो हमसे अधिक ज्ञानी है तथा हमारे लिये कर्ममात्र के उस स्वामी का प्रतिनिधि है जिसमें हम आस्था तो रखते हैं, पर जिसे हम अभी तक जानते नहीं । परन्तु कर्म-यज्ञ का मूलतत्त्व हमारे कर्मों में अवश्य होना चाहिये और वह मूलतत्त्व है अपने कर्मों के फल की समस्त कामना का समर्पण, कर्म के जिस परिणाम के लिये हम अब तक भी हाथ-पांव मारते हैं उसके प्रति आसक्तिमात्र का परित्याग । कारण, जब तक हम फल में आसक्ति रखते हुए कर्म करते हैं तब तक यज्ञ भगवान् के प्रति नहीं बल्कि हमारे अहं के प्रति ही अर्पित होता है । हम भले ही दूसरी तरह सोचें, पर हम अपने को धोखा दे

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रहे होते हैं; भगवान्-विषयक अपने विचार की, कर्तव्य-विषयक अपनी भावना की, अपने सजातीयों के प्रति सहानुभूति की, संसार के या दूसरों के हित के सम्बन्ध में अपनी धारणा की, गुरु के प्रति अपने आज्ञापालन तक की ओट में हम अपनी अहंकारमयी तृप्तियों तथा अभिरुचियों को छिपाये होते हैं तथा अपनी प्रकृति में से कामनामात्र का उन्मूलन करने की हम से जो मांग की जाती है उससे बचने के लिये इन सभी चीजों को दिखावटी ढाल के रूप में प्रयुक्त कर रहे होते हैं ।

 

     योग की इस अवस्था में और इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया में भी कामना का यह रूप एवं अहं का यह आकार एक ऐसा शत्रु होता है जिसके विरुद्ध हमें सदैव निर्निद्र जागरूकता के साथ सावधान रहना होगा । जब हम इसे अपने अन्दर छुपे हुए और सब प्रकार के भेस धारण करते हुए पायें तो हमें निरुत्साहित नहीं होना चाहिये, बल्कि इसके सभी छद्मरूपों के पीछे इसे ढूंढ़ निकालने के लिये सजग रहना चाहिये और इसके प्रभाव को दूर करने के लिये निष्ठुर । इस गति का प्रकाशप्रद शब्द गीता की यह निर्णायक पंक्ति है, ''कर्म करने में तेरा अधिकार हैं, परन्तु उसके फल पर कभी, किसी भी अवस्था में नहीं ।''   फल तो केवल कर्ममात्र के स्वामी का ही है; हमारा इससे इतना ही मतलब है कि हम सच्चाई और सावधानी के साथ कर्म करके उसका फल तैयार करें और यदि यह प्राप्त हो जाय तो इसे इसके दिव्य स्वामी को सौंप दें । जैसे हमने फल के प्रति आसक्ति का त्याग किया है वैसे ही हमें कर्म के प्रति आसक्ति भी त्यागनी होगी । एक काम, एक कार्यक्रम या एक कार्यक्षेत्र के स्थान पर दूसरे को ग्रहण करने अथवा, यदि प्रभु का स्पष्ट आदेश हो, तो सब कर्मों को छोड़ देने के लिये भी हमें प्रतिक्षण तैयार रहना होगा । अन्यथा हम कर्म प्रभु के लिये नहीं करते, बल्कि कर्म से मिलनेवाली निजी सन्तुष्टि एवं प्रसन्नता के लिये अथवा राजसिक प्रकृति को कर्म की आवश्यकता होने के कारण या अपनी रुचियों की पूर्ति के लिये करते हैं; पर ये सब तो अहं के पड़ाव और अड्डे हैं । हमारे जीवन की साधारण चेष्टाओं के लिये ये कैसे भी आवश्यक क्यों न हों, फिर भी आध्यात्मिक चेतना की प्रगति में इनका त्याग करना होगा, इनके स्थान पर इनके दिव्य प्रतिरूपों की प्रतिष्ठा करनी होगी । आनन्द, अर्थात् निर्वैयक्तिक एवं ईश्वर-प्रेरित आनन्द अप्रकाशित प्राणिक सुख सन्तोष को और भागवत शक्ति का आनन्दपूर्ण आवेग राजसिक आवश्यकता को बहिष्कृत अथवा पदच्युत कर देगा । अपनी रुचियों की पूर्त्ति करना हमारी कोई आवश्यकता या उद्देश्य नहीं रहेगा, इसके स्थान पर स्वतंत्र आत्मा और प्रकाशयुक्त प्रकृति के कर्म में एक स्वाभाविक क्रियाशील सत्य के द्वारा भगवत्संकल्प की परिपूर्त्ति करना ही हमारा उद्देश्य हो जायगा । अन्त में, जैसे कर्मफल तथा कर्म के प्रति आसक्ति हृदय से बाहर निकाल दी गयी है, वैसे ही अपने कर्त्ता होने के विचार तथा भाव के प्रति अन्तिम

 

          कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । गीता २-४७ ।

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 दृढ आसक्ति भी छोड़नी होती है; भगवती शक्ति को अपने ऊपर तथा भीतर इस रूप में जानना एवं अनुभव करना होता है कि वही सच्ची तथा एकमात्र कर्त्री है ।

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     कर्म तथा उसके फल के प्रति आसक्ति का परित्याग मन एवं अन्तरात्मा में पूर्ण समता की प्राप्ति के लिये एक विशाल गति का प्रारम्भ है; यदि हमें आत्मा में पूर्णता प्राप्त करनी है तो इस समता को सर्वतोव्यापी बनना होगा । कारण, कर्मों के स्वामी की पूजा यह मांग करती है कि हम अपनेमें, सब वस्तुओं तथा सभी घटनाओं में उनके स्वामी को स्पष्ट रूप से पहचानें तथा हर्षपूर्वक स्वीकार करें । समता इस पूजा का प्रतीक है; यह आत्मा की वेदी है जिस पर सच्चा यजन-पूजन किया जा सकता है । ईश्वर सर्वभूतों में समान रूप से विराजमान हैं, अपने-आप और दूसरों में, ज्ञानी और अज्ञानी में, मित्र और शत्रु में, मनुष्य और पशु में, पापी और पुण्यात्मा में हमें किसी प्रकार का भी तात्त्विक भेद नहीं करना चाहिये । हमें किसी से घृणा नहीं करनी चाहिये, किसीको नीच नहीं समझना चाहिये, किसी से जुगुप्सा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि सभीमें हमें उस एकमेव के दर्शन करने हैं जो स्वेच्छापूर्वक प्रकट या प्रच्छन्न है । ईश्वर पदार्थों तथा व्यक्तियों में जो भी आकार धारण करना चाहता है तथा उनकी प्रकृति में जो भी कर्म करना चाहता है उसके लिये जो कुछ सर्वोत्तम है उसके ज्ञान के अनुसार और साथ ही अपनी इच्छा के अनुसार वह किसी एक में कम प्रकट है या किसी दूसरे में अधिक, अथवा कुछ दूसरों में गुप्त तथा पूर्णत: विकृत है । सब कुछ हमारी आत्मा ही है, वही एक आत्मा जिसने अनेक रूप धारण कर रखे हैं । घृणा-द्वेष और अवज्ञा-वितृष्णा, मोह-आसक्ति और राग-अनुराग किसी विशेष अवस्था में स्वाभाविक, आवश्यक एवं अनिवार्य होते हैं; ये हमारे अन्दर प्रकृति के चुनाव का साथ देते हैं अथवा उसके करने और बनाये रखने में सहायक होते हैं । परन्तु कर्मयोगी के लिये तो ये एक पुरानी वस्तु के अवशेष होते हैं, मार्ग के विघ्न और अज्ञान की प्रक्रिया होते हैं और जैसे वह प्रगति करता है, ये उसकी प्रकृति से झड़कर अलग हो जाते हैं । शिशु-आत्मा को अपने विकास के लिये इनकी आवश्यकता होती है; परन्तु दिव्य विकास में एक प्रौढ़ आत्मा से ये पृथक् हों जाते हैं । दैवी प्रकृति में, जिसकी ओर हमें आरोहण करना है, एक वज्रोपम यहांतक कि विनाशक कठोरता हो सकती है, परन्तु घृणा नहीं; दिव्य व्यंग्य हो सकता है किन्तु तिरस्कार नहीं; शान्त, स्पष्टदर्शी और प्रबल निराकरण हो सकता है पर घृणा और जुगुप्सा नहीं । जिस वस्तु का हमें विनाश करना है उससे भी घृणा नहीं करनी होगी और यह मानना ही होगा कि वह भी उस सनातन की ही एक प्रच्छन्न एवं अस्थायी गति है ।

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और, क्योंकि सब वस्तुएं अभिव्यक्तिगत आत्मा ही हैं, हमें कुरूप तथा सुन्दर, पंगु तथा पूर्ण, सभ्य तथा असभ्य, रुचिकर तथा अरुचिकर, शुभ तथा अशुभ के प्रति आत्मिक समता धारण करनी होगी । यहां भी घृणा, अवज्ञा एवं जुगुप्सा नाममात्र नहीं होगी, वरंच इनके स्थान पर होगी वह समदृष्टि जो सब वस्तुओं को उनके सत्य स्वरूप तथा नियत स्थान में देखती है । कारण, हमें जानना चाहिये कि सभी वस्तुएं यथासम्भव उत्तम रीति से या किसी अपरिहार्य त्रुटि के साथ, अपने लिये अभिमत परिस्थितियों में, अपनी प्रकृति की तात्कालिक अवस्था या इसके व्यापार या विकास के लिये सम्भवनीय ढंग से, भगवान् के किसी ऐसे सत्य या तथ्य अथवा उसकी शक्ति या शक्यता को ही प्रकाशित या आच्छादित और विकसित या विकृत करती हैं जो वर्द्धनशील अभिव्यक्ति में अपनी उपस्थिति के द्वारा वस्तुओं की वर्तमान सम्पूर्ण समष्टि के हित और अन्तिम परिणाम की पूर्णता के लिये आवश्यक होती है । उसी सत्य की हमें क्षणिक अभिव्यक्ति के पीछे खोज एवं उपलब्धि करनी होगी । तब हम प्रतीतियों से और अभिव्यक्ति की त्रुटियों या विकृतियों से अवरुद्ध न होकर उस भगवान् की पूजा कर सकेंगे जो अपने आवरणों के पीछे सदा निष्कलुष, शुद्ध, सुन्दर और परिपूर्ण है । इसमें सन्देह नहीं कि सभी कुछ बदल डालना है, कुरूपता का नहीं, बल्कि दिव्य सुन्दरता का वरण करना है, अपूर्णता को अपना विश्राम-स्थल नहीं मानना है, वरन् पूर्णता के लिये प्रयास करना है, अशिव को नहीं, बल्कि परम शिव को अपना सार्वभौम लक्ष्य बनाना है । परन्तु हम जो कुछ भी करें उसे आध्यात्मिक समझ तथा ज्ञान के साथ करना होगा; हमें केवल दिव्य शुभ, सौन्दर्य, पूर्णत्व एवं हर्ष की प्राप्ति के लिये ही चेष्टा करनी होगी, इनके मानवीय मानों की प्राप्ति के लिये नहीं । यदि हममें समता नहीं है, तो यह इस बात का चिह्न है कि अविद्या अभीतक हमारे पीछे लगी है; हम वास्तव में कुछ भी नहीं समझ पावेंगे और यह सम्भव ही नहीं वरन् निश्चित-सा है कि तब हम पुरानी अपूर्णता का नाश केवल दूसरी को जन्म देने के लिये ही करेंगे; क्योंकि हम अपने मानव-मन तथा कामनामय पुरुष की चीजों को दिव्य वस्तुओं की स्थानापन्न बना रहे हैं ।

 

     समता का अर्थ कोई नया अज्ञान अथवा अंधता नहीं है; यह हम से दृष्टि के धुंधलेपन की तथा समस्त विविधता के अन्त की मांग नहीं करती और न इसे ऐसा करने की आवश्यकता ही है । भेद का अस्तित्व है ही, अभिव्यक्ति की विविधता भीं विद्यमान हैं और इस विविधता को हम खूब अच्छी तरह समझेंगे, --पहले जब हमारी दृष्टि पक्षपातपूर्ण तथा भ्रान्तिशील प्रेम और घृणा से, स्तुति और निन्दा से, सहानुभूति और वैर-विरोध से तथा राग और द्वेष से तिमिराच्छन्न थी तब हम इस जितना समझ पाते थे उसकी अपेक्षा अब बहुत अधिक ठीक रूप में समझ पायेंगे । परन्तु इस विविधता के मूल में हम सदा उस परिपूर्ण तथा निर्विकार ब्रह्म

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को ही देखेंगे जो इसके अन्दर विराजमान है और किसी भी विशिष्ट अभिव्यक्ति के--चाहे वह हमारे मानवीय मानदण्डों को सुडौल एवं पूर्ण प्रतीत होती हो या बेडौल एव अपूर्ण और चाहै वह मिथ्या एवं अशुभ ही क्यों न प्रतीत होती हो --ज्ञानपूर्ण प्रयोजन किंवा दिव्य आवश्यकता को हम अनुभव करेंगे और जानेंगे अथवा यदि यह हमसे छिपी हुई हो तो कम-से-कम इसमें विश्वास अवश्य करेंगे ।

 

     इसी प्रकार हम दुःखदायी वा सुखदायी सभी घटनाओं के प्रति, जय और पराजय, मान और अपमान, यश और अपयश तथा सौभाग्य और दुर्भाग्य के प्रति मन तथा आत्मा की ऐसी ही समता धारण करेंगे । कारण, सभी घटनाओं में हम अखिल कर्मों तथा फलों के स्वामी की इच्छा के दर्शन करेंगे तथा उन्हें भगवान् की विकासशील अभिव्यक्ति के सोपान अनुभव करेंगे । देखनेवाली अन्दर की आंख जिनकी खुली हुई है उनके समक्ष भगवान् अपने-आपको शक्तियों तथा उनकी क्रीड़ा एवं परिणामों में और पदार्थों एवं प्राणियों में प्रकट करता है । सब वस्तुएं एक दिव्य परिणति की ओर बढ़ रहीं हैं; हर्ष तथा सन्तोष की भांति प्रत्येक अनुभव, दुःख एवं अभाव भी वैश्व गति को, जिसे समझना तथा संपुष्ट करना हमारा कर्तव्य है, पूरा करने में एक आवश्यक कड़ी होता है । विद्रोह, निन्दा या चीख-पुकार हमारी अपरिष्कृत एवं अज्ञानयुक्त अन्ध-प्रवृत्तियों का आवेग होती है । अन्य प्रत्यक वस्तु की तरह विद्रोह के भी लीला में अनेक उपयोग हैं, यहां तक कि वह दिव्य विकास के यथासमय और यथास्थिति सम्पन्न होने के लिये आवश्यक, सहायक तथा विहित है किन्तु अज्ञानमय विद्रोह की चेष्टा आत्मा की बाल्यावस्था या उसके अप्रौढ़ यौवन से सम्बन्ध रखती है । परिपक्व आत्मा दोषारोपण नहीं करती, बल्कि समझने तथा अधिकृत करने का यत्न करती है, चीख-पुकार नहीं मचाती, बल्कि स्वीकार कर लेती है या सुधरने तथा पूर्ण बनने का प्रयास करती है, अन्दर से विद्रोह नहीं करती, वरन् आज्ञापालन करने और चरितार्थ तथा रूपान्तरित करने की कोशिश करती है । सुतरां, हम स्वामी के हाथों से सभी वस्तुओं को सम आत्मा के साथ ग्रहण करेंगे । जब तक दिव्य विजय का मुहुर्त्त नहीं आ जाता तब तक हम असफलता को भी एक प्रसंग के रूप में उसी प्रकार शान्त्तिपूर्वक स्वीकार करेंगे जिस प्रकार सफलता को । दारुणतम पीड़ा और दुःख-कष्ट से भी, यदि विधि के विधान में वे हमें प्राप्त हों, हमारी आत्माएं मन और तन चलायमान नहीं होंगे, ओर न ये तीव्र-से-तीव्र हर्ष एवं सुख से ही अभिभूत होंगे । इस प्रकार अत्यन्त सन्तुलित होकर, सभी वस्तुओं के साथ सम शान्ति से सम्पर्क में आते हुए हम स्थिरतापूर्वक अपने मार्ग पर बढ़ते जायंगे जबतक कि हम एक अधिक ऊंची अवस्था के लिये तैयार नहीं हो जाते और परम एवं विराट् आनन्द में प्रवेश नहीं कर पाते ।

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     यह समता सुदीर्घ अग्नि-परीक्षा तथा धीर आत्म-साधना के बिना अधिगत नहीं हो सकती । जबतक कामना प्रबल होती है तबतक निस्तब्धता की तथा कामना की थकावट की घड़ियों को छोड़कर समता किंचित् भी प्राप्त नहीं हो सकती, और तब यह, सम्भवतः, सच्ची शान्ति तथा तात्त्विक आध्यात्मिक एकता होने की अपेक्षा कहीं अधिक निष्क्रिय उदासीनता, या कामना की ठिठक ही होगी । इसके अतिरिक्त, इस साधना के या आत्मिक समता के इस विकास के कुछ-एक आवश्यक काल एवं क्रम होते हैं । साधारणतया हमें सहिष्णुता की अवस्था से प्रारम्भ करना होता है; क्योंकि हमें सब स्पर्शों का सामना करना, उन्हें झेलना तथा आत्मसात् करना सीखना है । अपनी नस-नस को हमें यह सिखाना होगा कि जो चीज दुःख देती तथा घृणा पैदा करती है उससे यह झिझके नहीं और जो वस्तु प्रिय लगती तथा आकृष्ट करती है उसकी ओर उत्सुकतापूर्वक लपके नहीं, वरंच प्रत्येक वस्तु को स्वीकार करे, उसका सामना करे, उसे सहन करे तथा वश में करे । सभी स्पर्शों को सहने के लिये हमें सशक्त होना चाहिये, केवल उन्हींको नहीं जो हमारे लिये विशिष्ट और वैयक्तिक हों, वरन् उन्हें भी जो हमारे चारों ओर के तथा ऊपर या नीचे के लोकों एवं उनके निवासियों के साथ हमारी सहानुभूति या संघर्ष से हमें प्राप्त हों । अपने ऊपर होनेवाली मनुष्यों, पदार्थों और शक्तियों की क्रिया को तथा अपने साथ उनके संघर्षण को, देवताओं के दबाव और असुरों के आक्रमणों को हम शान्त भाव से सहन करेंगे । अपनी आत्मा की अक्षुब्ध गहराइयों में हम उस सब का सामना करेंगे और उसे अपने अन्दर पूर्ण रूप से निमज्जित कर लेंगे जो कुछ कि आत्मा के अनन्त अनुभव के रास्ते हमारे सामने सम्भवतः आ सकता है । यह समता की तैयारी का तितिक्षामय काल है, यद्यपि यह इसकी एक सर्वथा प्रारम्भिक अवस्था है तथापि यह वीरतापूर्ण काल है । परन्तु शरीर और हृदय एवं मन की इस दृढ़ सहिष्णुता को भागवत इच्छाशक्ति के प्रति आध्यात्मिक अधीनता के सुपुष्ट भाव का सहारा देना होगा; इस जीते-जागते पुतले को, अपनी पूर्णता को गढ़नेवाले भागवत हस्त के स्पर्श के प्रति, दुःख में भी, नत होना होगा--कठोर वा साहसपूर्ण सहमतिपूर्वक ही नहीं, अपितु ज्ञानपूर्वक अथवा उत्सर्ग के भाव में । ईश्वर-प्रेमी की ज्ञानपूर्ण, भक्तिपूर्ण अथवा यहांतक कि करुणापूर्ण तितिक्षा भी सम्भवनीय है और इस प्रकार की तितिक्षा उस निरी बर्बर और स्व-निर्भर सहिष्णुता से अधिक अच्छी होती है जो ईश्वर के इस आधार को अत्यन्त कठोर बना सकती है; क्योंकि इस प्रकार की तितिक्षा एक ऐसी शक्ति तैयार करती है जो ज्ञान और प्रेम को धारण कर सकती है;  इसकी स्थिरता एक ऐसी गभीरत: प्रेरित शान्ति होती है जो सहज ही आनन्द में परिणत हो जाती है । उत्सर्ग और तितिक्षा के इस काल का लाभ यह होता है कि हमें समस्त आघातों और सम्पर्कों का सामना करनेवाला आत्मबल प्राप्त हो जाता है ।

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     इसके बाद उस उच्चासीन तटस्थता एवं उदासीनता का काल आता है जिसमें आत्मा हर्ष और विषाद से मुक्त हो जाती है और सुख की लालसा के पाश से तथा दुःख-दर्द के शूलों के अंधेरे बन्धन से छूट जाती है । सभी वस्तुओं, व्यक्तियों और शक्तियों पर, अपने और दूसरों के सभी विचारों, भावों, सम्वेदनों और कार्यों पर आत्मा ऊपर से अपनी दृष्टि डालती है, पर वह स्वयं अस्पृष्ट एवं निर्विकार रहती है और इन चीजों से चलायमान नहीं होती । यह समता की तैयारी का चिन्तनात्मक काल है, एक विशाल तथा अतिमहान् गति है । परन्तु इस उदासीनता को कर्म तथा अनुभव से निष्क्रिय पराङ्मुखता के रूप में स्थायी नहीं हो जाना चाहिये; यह व्याकुलता, विरक्ति तथा अरुचि से उत्पन्न घृणा-रूप नहीं होनी चाहिये, न ही यह निराश या असन्तुष्ट कामना की ठिठक या उस पराजित एवं असन्तुष्ट अहं की उद्विग्रता होनी चाहिये जो अपने रागयुक्त लक्ष्यों से बलात् पीछे हटा दिया गया है । पीछे हटने की ये चेष्टाएं अपक्व आत्मा में अवश्यमेव प्रकट होती हैं और आतुर एवं कामना-प्रचालित प्राणिक प्रकृति को निरुत्साहित करके ये एक प्रकार से प्रगति में सहायक भी हो सकती हैं, किन्तु ये वह पूर्णता नहीं हैं जिसके लिये हम पुरुषार्थ कर रहे हैं । जिस उदासीनता या तटस्थता की प्राप्ति के लिये हमें प्रयत्न करना होगा वह है वस्तुओं के स्पर्शों से परे ऊर्ध्व-अवस्थित आत्मा की प्रशान्त उच्चता; यह उन स्पर्शों को देखती तथा स्वीकार या अस्वीकार करती है, पर अस्वीकृति की अवस्था में चलायमान नहीं होती और स्वीकृति से वशीकृत नहीं हो जाती । यह अपने-आपको उस प्रशान्त आत्मा किंवा आत्म-तत्त्व के निकट और उससे सम्बद्ध तथा एकमय अनुभव करने लगती है जो स्वयंभू है और प्रकृति के व्यापारों से पृथक् है, पर जो विश्व की गतिचेष्टा से अतीत, शान्त एवं अचल सद्वस्तु का एक अंश रहकर या उसमें निमज्जित होकर उन व्यापारों को आश्रय देता तथा सम्भव बनाता है । उच्च अतिक्रमण के इस काल के फलस्वरूप एक ऐसी आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है जो जागतिक गति की मृदुल हिलोरों अथवा तूफानी तरंगों और लहरों से आन्दोलित और उद्वेलित नहीं होती ।

 

     यदि हम आन्तर परिवर्तन की इन दो अवस्थाओं में से किसीमें भी बद्ध या अवरुद्ध हुए बिना इन्हें पार कर सकें, तो हम उस महत्तर दिव्य समता में प्रवेश पा लेंगे जो आध्यात्मिक उत्साह तथा शान्त हर्षावेश को धारण करने में समर्थ है और जो पूर्णताप्राप्त आत्मा की एक आनन्दमयी, सब कुछ समझने तथा सब कुछ अधिकृत करनेवाली समता है, --उसकी सत्ता की एक ऐसी प्रगाढ़ तथा सम विशालता एवं परिपूर्णता है जो सब वस्तुओं का आलिंगन करती है । यह सर्वोच्च अवस्था है और इसे प्राप्त करने का पथ भगवान् तथा विश्वजननी के प्रति पूर्ण आत्मदान के हर्ष में से होकर जाता है । कारण, शक्ति तब एक आनन्दपूर्ण प्रभुत्व

 

      या उदासीन ।

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से सुशोभित होती है, शान्ति सघन होकर आनन्द में परिणत हो जाती है, तब दिव्य स्थिरता की सम्पद् को उन्नीत करके दिव्य गति की सम्पद् का आधार बना दिया जाता है । परन्तु यदि यह महत्तर पूर्णता प्राप्त होनी है तो आत्मा की उस तटस्थ उदासीनता को, जो पदार्थों व्यक्तियों, गतियों और शक्तियों के प्रवाह पर ऊपर से दृक्यात करती है, परिवर्त्तित होना होगा और दृढ़ तथा शान्त नमन और सबल एवं गंभीर समर्पण के एक नये भाव में परिणत हो जाना होगा । यह नमन तब 'हरि- इच्छा' का नहीं, बल्कि सहर्ष स्वीकृति का भाव होगा; क्योंकि तब दुःख झेलने अथवा भार या कष्ट सहने का भाव तनिक भी नहीं होगा; प्रेम और आनन्द तथा आत्मदान का हर्ष ही इसका उज्वल ताना-बाना होगा । यह समर्पण केवल उस दिव्य संकल्प के प्रति ही नहीं होगा जिसे हम अनुभव और स्वीकार एवं शिरोधार्य करते हैं, वरन् इस संकल्प में निहित उस दिव्य प्रज्ञा के प्रति भी होगा जिसे हम अंगीकार करते हैं और इसके अन्तर्निहित उस दिव्य प्रेम के प्रति भी जिसे हम अनुभव करते और सोल्लास अनुमति प्रदान करते हैं, --यह उस आत्मा किंवा आत्मसत्ता की प्रज्ञा एवं प्रेम के प्रति होगा जो हमारी और सब की परम आत्मा एवं आत्मसत्ता है और जिसके साथ हम मंगलमय एवं परिपूर्ण एकत्व उपलब्ध कर सकते है । एकाकिनी शक्ति, शान्ति एवं स्थिरता ज्ञानी की चिन्तनात्मक समता का अन्तिम मंत्र है; परन्तु आत्मा अपने सर्वांग अनुभव में अपने-आपको इस स्वरचित स्थिति से मुक्त कर लेती है और सनातन के अनादि और अनन्त आनन्द के परम सर्वसमालिंगी उल्लास के सागर में अवगाहन करती है । इस प्रकार:, अन्त में हम सब स्पर्शों को आनन्दपूर्ण समता से ग्रहण करने में समर्थ हो जाते हैं, क्योंकि उनमें हम उस अक्षय प्रेम तथा आनन्द का संस्पर्श अनुभव करते हैं जो वस्तुओं के अन्तस्तल में सदा-सर्वदा विद्यमान है । विराट् एवं सम हर्षावेश के इस शिखर पर पहुंचने का परम फल यह होता है कि अध्यात्म-सुख तथा असीम आनन्द के प्रथम द्वार खुल जाते हैं और एक ऐसे दिव्य हर्ष की प्राप्ति होती है जो मन और बुद्धि से परे है ।

 

    इससे पूर्व कि कामना के नाश तथा आत्मिक समता की प्राप्ति का यह प्रयत्न अपनी चरम पराकाष्ठा एवं सफलता को प्राप्त हो, आध्यात्मिक क्रिया के उस क्रम को पूर्ण कर लेना आवश्यक है जो अहंभाव को जड़ से नष्ट कर डालता है । किन्तु कर्मी के लिये कर्म के अहंकार का त्याग इस परिवर्तन का एक परमावश्यक अंग है । कारण, यद्यपि हमने फलों तथा फलों की कामना का यज्ञ के अधीश्वर के प्रति उत्सर्ग करके राजसिक इच्छा के अहंभाव से नाता तोड़ लिया है फिर भी कर्तृत्व का अहंकार हमने शायद अभीतक बचा रखा है । अभी भी हम इस भाव के वशीभूत हैं कि स्वयं हम ही कर्म के कर्ता हैं, हम ही इसके उद्गम और हम ही अनुमतिदाता हैं । अभी भी हमारी ''मैं'' ही चुनती और निर्णय करती है, हमारी

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 ''मैं'' ही उत्तरदायित्व लेती और निन्दाप्रशंसा अनुभव करती है । इस विभाजक अहंबुद्धि का नितान्त उच्छेद हमारे योग का प्रधान लक्ष्य है । यदि किसी प्रकार के अहं को कुछ समय के लिये हमारे अन्दर बचा ही रहना है तो वह इसका एक रूपमात्र है जो अपनेको रूप ही समझता है और हमारे अन्दर चेतना के सच्चे केंद्र की अभिव्यक्ति या स्थापना होने के साथ ही नष्ट हो जाने के लिये उद्यत रहता है । वह सच्चा केंद्र एकमेवाद्वितीय चेतना का ज्योतिर्मय रूपायण तथा 'एक सत्' का शुद्ध वाहन एवं यन्त्र होता है । वैश्व शक्ति की वैयक्तिक अभिव्यक्ति एवं क्रिया का आधार होता हुआ वह क्रमश: अपने पीछे हमारे सच्चे अन्तःपुरुष एवं केंद्रीय नित्य पुरुष को अर्थात् 'परम' की एक शाश्वत सत्ता, और परात्पर शक्ति की एक अंशभूत शक्ति को प्रकाशित करता है

 

     यहां, इस गति में भी, जिसके द्वारा आत्मा अहं के प्रच्छन्न आवरण शनैः -शनैः उतार फेंकती है, सुस्पष्ट क्रमों में से गुजरते हुए उन्नति होती है । कारण, केवल कर्मों के फल पर ही ईश्वर का अधिकार हो ऐसी बात नहीं, अपितु हमारे कर्म भी निश्चित रूप से उसीके होने चाहियें; जैसे वह हमारे फलों का स्वामी है वैसे ही वह हमारे कर्म का भी सच्चा स्वामी है । इस बात को केवल चिन्तनात्मक मन से समझ लेना ही हमारे लिये पर्याप्त नहीं है बल्कि यह हमारी समस्त चेतना तथा इच्छाशक्ति के प्रति पूर्णत: सत्य बन जानी चाहिये । साधक को यह केवल सोचना और जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि उसे कार्य करते समय, इसके आरम्भ में और इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया में, प्रत्यक्ष रूप से तथा गहराई के साथ यह देखना और अनुभव भी करना होगा कि उसके कर्म उसके अपने बिल्कुल नहीं हैं, वरन् वे उसके द्वारा परम सत्ता से प्रवाहित हो रहे हैं । उसको उस शक्ति, उपस्थिति एवं संकल्पशक्ति से सदा सचेतन रहना होगा जो उसकी व्यक्तिगत प्रकृति के द्वारा कार्य करती है । परन्तु ऐसी वृत्ति धारण करने में भय यह है कि वह अपनी प्रच्छन्न या उदात्तीकृत ''मैं'' या किसी निम्नतर शक्ति को भ्रान्तिवश ईश्वर समझकर इसकी मांगों को सर्वोच्च आदेशों का स्थान दे देगा । वह इस निम्नतर प्रकृति के सामन्य दांव में फंस जायगा और उच्चतर शक्ति के प्रति अपने कल्पित समर्पण को अपनी इच्छा की, यहां तक कि अपनी कामनाओं एवं आवेशों की परिवर्द्धित एवं असंयत तृप्ति का बहाना बना लेगा । अतः एक महान् सद्हृदयता की आवश्यकता है और इसे केवल अपने सचेतन मन में ही स्थापित करना काफी नहीं है, बल्कि इससे कहीं अधिक अपने उस प्रच्छन्न भाग में भी स्थापित करना आवश्यक है जो गुप्त चेष्टाओं से भरा पड़ा है । कारण वहां, विशेषकर हमारी प्रच्छन्न प्राणिक प्रकृति में, एक ऐसा मायावी और बहुरूपिया उपस्थित है जिसका सुधार करना अत्यन्त दुष्कर है । सुतरां, कामना के उन्मूलन में तथा सभी क्रियाओं एवं सभी घटनाओं के प्रति दृढ़ आत्मिक

 

       १अंश: सनातन:; पराप्रकतिर्जीवभूता । -गीता १५-७; ७-५ ।

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समता में बहुत अधिक उन्नति कर लेंने के बाद ही साधक अपने कर्मों का भार पूर्ण रूप से भगवान् को सौंप सकता है । उसे प्रतिक्षण अहंकार के छलों तथा अन्धकार की उन भ्रामक शक्तियों के दांवों पर सजग दृष्टि रखते हुए आगे बढ़ना होगा जो सदा ही अपने को प्रकाश तथा सत्य के अनन्य स्रोत के रूप में प्रदर्शित करती हैं और जिज्ञासु की आत्मा को बंदी बनाने के लिये दिव्य रूपों का स्वांग रचती हैं ।

 

     इसके पश्चात् उसे तुरन्त ही अपनेकी साक्षी की स्थिति के प्रति अर्पित करने का अगला कदम उठाना होगा । प्रकृति से पृथक्, निर्वैयक्तिक तथा वीतराग होकर, उसे अपने भीतर काम करती हुई कर्त्री प्रकृति-शक्ति का निरीक्षण करना तथा उसकी क्रिया को समझना होगा । इस पार्थक्य के द्वारा उसे प्रकृति की वैश्व शक्तियों की क्रीड़ा को पहचानना सीखना होगा, उषा और निशा एवं दिव्यता और अदिव्यता के प्रकृतिकृत सम्मिश्रण को अलग-अलग करके देखना और प्रकृति की उन भीषण शक्तियों एवं सत्ताओं को जानना होगा जो अज्ञानी मानव प्राणी का अपने कार्य के लिये उपयोग करती हैं । गीता कहती है कि विश्वशक्ति (Nature) हमारे अन्दर प्रकृति के त्रिविध गुण--प्रकाश तथा सत् के गुण, आवेश एवं कामना के गुण और अन्धता तथा जड़ता के गुण-के द्वारा कार्य करती है । जिज्ञासु को अपनी प्रकृति के इस राज्य में होनेवाली सब कार्रवाई के तटस्थ तथा विवेचक साक्षी के रूप में इन गुणों की पृथक् तथा सम्मिलित क्रिया में भेद करना सीखना होगा । वैश्व शक्तियों की सूक्ष्म अगोचर प्रणालियों तथा छद्मवेशों के समस्त गोरखधन्धे में उसे अपने अन्दर इनकी क्रियाओं का अनुसंधान करना होगा और इस गड़बड़झाले की प्रत्येक पेचीदगी को समझना होगा । ज्यों-ज्यों वह इस ज्ञान में अग्रसर होगा त्यों- त्यों वह अनुमन्ता बनने में समर्थ होता जायगा और आगे को प्रकृति का मूढ़ यन्त्र नहीं रहेगा । सर्वप्रथम उसे प्रकृति-शक्ति को इस बात के लिये प्रेरित करना होगा कि वह उसके करणों पर अपनी क्रिया करते हुए अपने दो निम्नतर गुणों के व्यापार को अभिभूत करके उन्हें प्रकाश एवं सत् के गुण के वशीभूत कर दे और, तदनन्तर, उसे इस सत्त्वगुण को भी इसके लिये प्रेरित करना होगा कि यह भी अपने को अर्पित करे, ताकि एक उच्चतर दिव्य शक्ति तीनों को ही इनके दिव्य प्रतिफलों में, परम विश्रान्ति और शम, दिव्य ज्ञानदीप्ति और आनन्द तथा नित्य दिव्य बल- क्रिया वा तपस् में रूपान्तरित कर सके । इस साधना तथा परिवर्तन का प्रथम भाग हमारी मानसिक सत्ता की संकल्प-शक्ति के द्वारा सिद्धान्त-रूप में दृढ़तापूर्वक सम्पन्न हो सकता है; परन्तु इसकी पूर्ण सिद्धि तथा परिणामभूत रूपान्तर तो तभी सम्पन्न हो सकते हैं जब गभीरतर अन्तरात्मा प्रकृति पर अपने प्रभुत्वको अधिक दृढ़ करके प्रकृति के शासक के रूप में मनोमय पुरुष का स्थान ग्रहण कर ले । ऐसा हो जाने पर जिज्ञासु केवल अभीप्सा तथा भावना एवं प्रारम्भिक तथा वृद्धिशील आत्मोत्सर्ग

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के साथ ही नहीं, अपितु अत्यन्त सबल रूप में यथार्थ एवं सक्रिय आत्मदान के साथ अपने कर्मों का परम इच्छाशक्ति के प्रति पूर्ण समर्पण करने के लिये तैयार हो जायगा । उसके अपूर्ण मानव-बुद्धिवाले मन के स्थान पर क्रमश: एक आध्यात्मिक और ज्ञानदीप्त मन प्रतिष्ठित होता जायगा और यह भी अन्त में अतिमानसिक सत्य-ज्योति में प्रवेश कर सकेगा । तब वह अस्तव्यस्त एवं अपूर्ण क्रिया करनेवाले तीन गुणों से सम्पन्न अपनी अज्ञानमय प्रकृति के द्वारा नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शान्ति, ज्योति, शक्ति एवं आनन्द की दिव्यतर प्रकृति के द्वारा कर्म करेगा । वह अपने कर्म और भी अज्ञतर भावुक हृदय की प्रेरणा, प्राण-सत्ता की कामना, शरीर के आवेग एवं अन्धप्रवृत्ति तथा अज्ञ मन एवं संकल्प के पारस्परिक मिश्रण के द्वारा नहीं करेगा, बल्कि पहले आध्यात्मीकृत सत्ता एवं प्रकृति के द्वारा और अन्त में अतिमानसिक सत्य-चेतना तथा उसकी परा प्रकृति की दिव्य शक्ति के द्वारा करेगा ।

 

     इस प्रकार वे अन्तिम पग उठाये जा सकते हैं जिनसे प्रकृति का पर्दा हट सकता है और जिज्ञासु समस्त सत्ता के स्वामी का साक्षात्कार कर सकता है और उसके सभी कर्म उस परम शक्ति के कर्म में निमज्जित हो सकते हैं जो सदा शुद्ध, सत्य, पूर्ण और आनन्दमय है । इस प्रकार वह अपने कर्मों और कर्मफलों को अतिमानसिक शक्ति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित करके केवल उस सनातन कर्त्ता के एक सचेतन यन्त्र के रूप में कार्य कर सकता है । तब वह अनुमति नहीं देगा, वरन् भगवान् के आदेश को अपने करणों में ग्रहण करके और अतिमानसिक शक्ति के हाथों का यन्त्र बन कर उस आदेश का अनुसरण करेगा । तब वह कर्म नहीं करेगा, बल्कि अतिमानस की निर्निद्र शक्ति को अपने द्वारा कार्य करने देगा । तब वह यह नहीं चाहेगा कि उसकी मानसिक कल्पनाएं चरितार्थ हों तथा उसकी भाविक कामनाएं पूरी हों, बल्कि वह एक ऐसे सर्वशक्तिमान् संकल्प का अनुसरण करेगा और उसमें सहयोग देगा जो सर्ववित् ज्ञान है तथा गुह्य, चमत्कारक एवं अगाध प्रेम है और है सत्ता के नित्य आनन्द का विशाल अतल सागर ।

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