Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ११
समता की पूर्णता
आध्यात्मिक सिद्धि के लिये सर्वप्रथम आवश्यक साधन है पूर्ण समता । योग में हम सिद्धि शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में करते हैं उसमें इसका आशय अदिव्य अपरा प्रकृति से बाहर निकलकर दिव्य पस प्रक्रति में विकसित होना है । ज्ञान की परिभाषा में इसका अर्थ है उच्चतर सत्ता के स्वरूप को धारण करना और अत्यन्त अन्धकारमय एवं खण्डित निम्नतर सत्ता को त्याग देना अथवा अपनी अपूर्ण अवस्था को अपने वास्तविक एवं आध्यात्मिक व्यक्तित्व की अखण्ड ज्योतिर्मय पूर्णता में रूपान्तरित करना । भक्ति और आराधना की परिभाषा में इसका अर्थ है अपनी प्रकृति या अपनी सत्ता के नियम के साथ, भगवान् की प्रकृति या उसकी सत्ता के नियम के साथ उत्तरोत्तर सादृश्य स्थापित करना, जिसकी हम अभीप्सा करते हैं उसके साथ एकमय होना, --क्योंकि यदि यह सादृश्य या सत्ता के नियम की यह एकता न हो तो उस परात्पर एवं विश्वगत और इस व्यक्तिगत आत्मा में एकत्व साधित नहीं हो सकता । परमोच्च दिव्य प्रकृति समता पर प्रतिष्ठित है । उसके सम्बन्ध में यह कथन सभी अवस्थाओं में सत्य है, भले हम परमोच्च सत्ता को शुद्ध एवं प्रशान्त पुरुष तथा आत्मा के रूप में देखें या विश्व-सत्ता के दिव्य स्वामी के रूप में । शुद्ध आत्मा सम और अचलायमान है, जगत् की सभी घटनाओं तथा उसके सभी सम्बन्धों का तटस्थ शान्ति के साथ अवलोकन करनेवाला साक्षी है । यद्यपि वह उनसे विरक्त नहीं होता, --विरक्ति का नाम समता नहीं है, यदि आत्मा की जगत्-सत्ता के प्रति यही वृत्ति होती तो जगत् उत्पन्न ही न हो सकता, न वह अपने विकास के वृत्तों पर आगे ही बढ़ सकता, --तथापि अनासक्ति, सम दृष्टि की शान्ति, जो प्रतिक्रियाएं बाह्य प्रकृति में फंसी आत्मा को पीड़ित करती हैं तथा जो उसे अक्षम बनानेवाली उसकी दुर्बलता हैं उनसे ऊपर होना, ये सब प्रशान्त अनन्त ब्रह्म की पवित्रता का असली सारतत्त्व हैं तथा जगत् की अनेकमुखी गति के प्रति उसकी तटस्थ स्वीकृति एवं सहायता के लिये आवश्यक अवस्थाएं हैं । परन्तु परम आत्मा की जो शक्ति इन गतियों को नियन्त्रित और विकसित करती है उसमें भी यही समता एक आधारभूत अवस्था है ।
पदार्थों का स्वामी उनकी प्रतिक्रियाओं से प्रभावित या विक्षुब्ध नहीं हो सकता; यदि वह प्रभावित या विक्षुब्ध हो जाये तो वह उनके अधीन है, उनका स्वामी नहीं, अपने प्रभुत्वशाली संकल्प और ज्ञान के अनुसार तथा उनके सम्बन्धों के पीछे जो कुछ विद्यमान है उसके आन्तरिक सत्य और उसकी आन्तरिक आवश्यकता के अनुसार उनका विकास करने के लिये स्वतन्त्र नहीं है, वरन् सच पूछो तो वह
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क्षणस्थायी आकस्मिक संयोग और दृग्विषय की मांग के अनुसार कार्य करने के लिये विवश है । सभी वस्तुओं का सत्य उनकी गहराइयों की शान्ति मे निहित है, उपरितल पर उनका जो परिवर्तनशील अस्थिर तरंगमय रूप दिखायी देता है उसमें नहीं । परम चिन्मय पुरुष अपने दिव्य ज्ञान, संकल्प और प्रेम के द्वारा इन गहराइयों से ही उनके विकास का संचालन करता है--हमारे अज्ञान को वह विकास कितनी ही बार एक क्रूर अव्यवस्था और पथ-भ्रष्टता-रूप प्रतीत होता है--किन्तु परम पुरुष उपरितल के कोलाहल से विक्षुब्ध नहीं होता । भागवत प्रकृति हमारे अन्धान्वेषणों और आवेगों में भाग नहीं लेती; जब हम भगवान् के कोप या अनुग्रह की चर्चा करते हैं या यह कहते हैं कि भगवान् मनुष्य में दुःख झेलते हैं, तो हम एक मानवीय भाषा का प्रयोग कर रहे होते हैं जो हमारे द्वारा वर्णित गति के आन्तरिक अर्थ का अशुद्ध निरूपण करती है । जब हम स्थूलतलदर्शी मन से ऊपर उठकर आध्यात्मिक सत्ता के शिखरों पर पहुंचते हैं तो हम भगवान् के कोप या प्रसाद के वास्तविक सत्य को कुछ-कुछ देख पाते हैं । कारण, तब हम देखते हैं कि, आत्मा की नीरव शान्ति में किंवा उसके विश्वगत कार्य-व्यापार में, भगवान् सदा ही सच्चिदानन्द हैं, अर्थात् वे चिन्मय पुरुष की असीम सत्ता, असीम चेतना एवं स्व--प्रतिष्ठित शक्ति हैं, उसकी समस्त सत्ता में व्याप्त एक असीम आनन्द हैं । तब हम स्वयं एक समत्वपूर्ण ज्योति, शक्ति और आनन्द में निवास करने लगते हैं--वे ज्योति, शक्ति और आनन्द हमारी चेतन सत्ता के अन्दर उन दिव्य ज्ञान, संकल्प और आनन्द का ही एक विशेष रूप होते हैं जो आत्मा और पदार्थों में विद्यमान हैं तथा उपर्युक्त असीम मूलl स्रोतों से सक्रिय विराट् प्रवाहों के रूप में आते हैं । उस ज्योति, शक्ति और आनन्द के प्रभाव से हमारे अन्दर का गुप्त पुरुष एवं आत्मा मन के द्वारा प्रस्तुत जीवन-विषयक अनुभवों के विवरण के द्वैतात्मक स्वरूप को स्वीकार करता है तथा उसे सदा ही अपने पूर्ण अनुभव की पोषक सामपी में रूपान्तरित कर देता है, और यदि इस समय भी हमारे अन्दर एक गुप्त महत्तर सत्ता न होती तो हम विश्व-शक्ति का दबाव सहन न कर सकते और न इस महत और भयानक जगत् में जीवन धारण ही कर सकते । हमारी आत्मा और प्रकृति की पूर्ण समता एक ऐसा साधन है जिसके; द्वारा हम विक्षुब्ध और अज्ञ बाह्य चेतना से पीछे हटकर स्वर्ग के इस आन्तरिक राज्य में प्रवेश कर सकते हैं और आत्मा की महिमा, शान्ति और आनन्द के सनातन राज्यों, राज्यं समृद्धम् को प्राप्त कर सकते हैं । योग का आत्म-सिद्धि प्राप्त करने का लक्ष्य हमसे जिस समत्व-साधना की मांग करता है उसका पूर्ण फल एवं समग्र निमित्त दिव्य प्रकृति की ओर यह आत्म-उत्थान ही है ।
हमारी सत्ता के सम्पूर्ण तत्त को उसके विक्षुब्ध-मानसिकता--रूपी वर्तमान उपादान से आत्मा के तत्त्व में रूपान्तरित करने के लिये आत्मा की पूर्ण ममता एवं शान्ति अनिवार्य है । यदि हम अपने वर्तमान अव्यवस्थित ओर अज्ञानयुक्त कर्म के स्थान
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पर प्रकृति की शासक और विराट् पुरुष के साथ समस्वरित मुक्त आत्मा के स्वराट् और ज्योतिर्मय कर्मों को प्रतिष्ठित करने की अभीप्सा रखते हों तब भी यह समता एवं शान्ति समान रूप से अनिवार्य है । यदि हममें आत्मा की समता नहीं है और हमारी प्रकृति की चालक शक्तियों में भी समता नहीं है तो दिव्य कर्म तो क्या सर्वांगपूर्ण मानवीय कर्म भी हम नहीं कर सकते । भगवान् सबके प्रति सम हैं, अपने रचे हुए विश्व के निष्पक्ष भर्ता हैं जो सबको समत्वपूर्ग नेत्रों से देखते हैं, विकसनशील सत्ता के जिस नियम को उन्होंने अपनी सत्ता की गहराइयों में सें प्रकट किया है उसे वे स्वीकृति प्रदान करते हैं, जो कुछ सहन करना आवश्यक हो उसे सहन करते हैं, जिसे दबाना आवश्यक हो उसे दबा देते हैं, जिसे उभारना आवश्यक हो उसे उभारते हैं, समस्त कारणों और परिणामों के पूर्ण और समत्वयुक्त ज्ञान के साथ तथा सभी दृग्विषयों के आध्यात्मिक और व्यावहारिक अर्थ को कार्यान्वित करते हुए सृजन, पालन और संहार करते हैं । परमेश्वर कामना के किसी विक्षुब्ध आवेग के वश सृष्टि की रचना नहीं करते, न वे पक्षपातपूर्ण अभिरुचि-रूपी आसक्ति के द्वारा उसका धारण-पोषण करते हैं और न ही क्रोध, घृणा और वैराग्य के आवेश में आकर उसका संहार करते हैं । भगवान् बड़े और छोटे, न्यायी और अन्यायी तथा अज्ञ और विज्ञ--सबके साथ उनकी आत्मा के रूप में व्यवहार करते हैं; यह आत्मा सत्तामात्र के साथ गहरे और घनिष्ठ रूप में सम्बद्ध तथा एक होने के कारण सबको उनकी प्रकृति और आवश्यकता के अनुसार पूर्ण ज्ञान एवं शक्ति के साथ तथा यथोचित प्रमाण में परिचालित करती है । पर इस सब कार्य के द्वारा वह समस्त वस्तुओं को युगयुगव्यापी विकास-चक्रों के मूल में विद्यमान अपने विशाल लक्ष्य के अनुसार संचालित करती है तथा क्रमविकास में अन्तरात्मा को उसकी दृश्यमान प्रगति और प्रतिगति के द्वारा ऊपर की ओर, सदैव उच्च से उच्चतर विकास की ओर उठा ले जाती है जो कि विश्व में कार्य कर रही प्रेरणा का आशय हैं । आत्म-सिद्धि के लिये यत्नशील व्यक्ति को, जो भगवान् की इच्छाशक्ति के साथ एकता प्राप्त करना चाहता है तथा अपनी प्रकृति को दिव्य उद्देश्य का यन्त्र बनाने की चेष्टा करता है, मानव-अज्ञान के अहंकारमय और पक्षपातपूर्ण विचारों तथा प्रेरक-भावों से बाहर निकलकर अपनेको विशाल बनाना होगा और इस परम समता की प्रतिमूर्ति में अपने-आपको ढालना होगा ।
कर्म में यह समत्वपूर्ण स्थिति पूर्णयोग के साधक के लिये विशेष रूप से आवश्यक है । सर्वप्रथम उसे उस समत्वपूर्ण अनुमति एवं समबुद्धि का विकास करना होगा जो दिव्य कर्म के नियम पर अपनी अपूर्ण इच्छाशक्ति और व्यक्तिगत अभीप्सा की उग्र मांग को थोपने की चेष्टा किये बिना उस नियम के प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया करेगी । जो व्यक्ति भगवान् के पूर्ण यन्त्रों के रूप में कार्य करना चाहते हैं उनसे जिस पहली चीज की मांग की जाती है वह एक ज्ञानपूर्ण निर्व्यक्तिकता एवं
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प्रशान्त समता है, एक विश्वमयता है जो सभी वस्तुओं को भगवान् अर्थात् 'एकं सत्' की अभिव्यक्तियों के रूप में देखती है, वस्तुओं की गतिविधि के सम्बन्ध में क्रूद्ध, क्षुब्ध एवं अधीर नहीं होती और इसके दूसरी ओर उत्तेजित, अति उत्सुक और अविवेकशील भी नहीं होती, वरन् यह देखती है कि विधान का अनुसरण और काल के पदक्षेप का सम्मान करना आवश्यक है, पदार्थों और प्राणियों की वर्तमान अवस्था का निरीक्षण करती और उसे सहानुभूतिपूर्वक समझती है, पर उनके वर्तमान रूप के पीछे उनके आन्तरिक गूढ़ाशयों को भी देखती है और आगे की ओर उनकी दिव्य सम्भावनाओं के अनावरण पर भी दृष्टिपात करती है । परन्तु यह निर्व्यक्तिक अनुमति एक आधारमात्र है । मनुष्य एक ऐसे विकास का यन्त्र है जो आरम्भ में एक संघर्ष का छद्मवेश धारण करता है, पर अपने सतत, ज्ञानपूर्ण सामञ्जस्य-स्थापन-रूपी सत्यतर और गभीरतर अर्थ को अधिकाधिक प्रकट करता जाता है और विश्व की विराट् समस्वरता के गभीरतम सत्य और मर्म को उत्तरोत्तर अधिक प्रमाण में धारण करता जायेगा; वह सत्य एवं मर्म इस समय सामञ्जस्य और संघर्ष के मूल में प्रच्छन्न रूप से ही विद्यमान हैं । सिद्धिप्राप्त मानव-आत्मा को इस विकास की विधियों को द्रुत वेग प्रदान करने के लिये सदैव एक यन्त्र के रूप में कार्य करना होगा । इसके लिये एक दिव्य शक्ति को, जो अपने अन्त:स्थ दिव्य संकल्प की प्रभुता के साथ कार्य करती है, उसकी प्रकृति के अन्दर कुछ-न-कुछ मात्रा में अवश्य उपस्थित होना चाहिये । परन्तु वह शक्ति अपने कार्य को पूर्णतया सिद्ध कर सके, सतत स्थायी और धीर-स्थिर रूप से सम्पन्न कर सके और सच्चे अर्थ में दिव्य बन सके-इसके लिये उसे मानव-आत्मा की आध्यात्मिक समता, शान्ति, सर्वभूतों के साथ निर्व्यक्तिक और समत्वपूर्ण तदात्मता तथा सब शक्तियों की ठीक समझ के आधार पर ही अपना कार्य करना होगा । भगवान् विश्व के अगणित व्यापारों में अति महत् शक्ति के साथ कार्य करते हैं, पर अविचल एकता, स्वतन्त्रता और शान्ति की आश्रयदायिनी ज्योति और शक्ति के द्वारा ही करते हैं । सिद्धिप्राप्त आत्मा के दिव्य कर्मों का ढंग भी यही होना चाहिये । और समता ही सत्ता की वह अवस्था है जो कर्म करने की इस परिवर्तित भावना को सम्भव बनाती है ।
परन्तु मानवीय पूर्णता के लिये भी उसके एक अन्यतम प्रधान तत्त्व और यहांतक कि उसके आवश्यक वातावरण के रूप में समता अपरिहार्य है । मानवीय पूर्णता को यदि अपने इस नाम के योग्य बनना है तो उसके लक्ष्य में आत्म-प्रभुत्व तथा परिस्थितियों पर प्रभुत्व--ये दो चीजें अवश्य समाविष्ट होनी चाहियें; ये (प्रभुत्व-रूप) शक्तियां मानव-प्रकृति को जिस बड़ी-से-बड़ी मात्रा में प्राप्त हो सकती हैं उस मात्रा में इन्हें पाने के लिये उसे यत्न करना होगा । प्राचीन भाषा में कहें तो मनुष्य का आत्म-सिद्धिविषयक आवेग स्वराट् और सम्राट् बनने का ही आवेग है । परन्तु यदि वह निम्न प्रकृति के आक्रमण के अधीन हो, हर्ष और शोक
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के विक्षोभ के सुख और दुःख के प्रबल स्पर्शों के, अपने भावावेशों और आवेगों के कोलाहल के, अपनी व्यक्तिगत रुचि-अरुचियों के बन्धन के, कामना और आसक्ति की दृढ़ शृंखलाओं के आवेशमूलक पक्षपात से पूर्ण व्यक्तिगत निर्णय और सम्मति की संकीर्णता के, अपने अहंकार के सैंकड़ों स्पर्शों के तथा विचार, भाव और कर्म पर उसकी अटल छाप के अधीन हो तो वह स्वराट् बन ही नहीं सकता । ये सब चीजें निम्न 'स्व' के प्रति दासता-रूप हैं, यदि मनुष्य को अपनी प्रकृति का राजा बनना हो तो उसे चाहिये कि अपने अन्दर की महत्तर 'मैं' के द्वारा निम्न 'स्व' को अपने पैरों तले रखे । इन सब चीजों पर विजय पाना आत्म-शासन (स्वराज्य) की शर्त है; पर उस विजय की भी शर्त तथा उसकी प्रक्रिया का सार है समता । इन सब चीजों से, हो सके तो, पूर्णत: मुक्त होना या कम-से-कम इनका स्वामी तथा इनसे उच्चतर होना--इसीका नाम है समता । और फिर, जो अपना प्रभु नहीं है वह अपनी परिस्थितियों का प्रभु भी नहीं हो सकता । इस बाह्य प्रभुत्व के लिये जिस ज्ञान, संकल्प एवं सामंजस्य की जरूरत है वह आन्तरिक विजय के राज-पुरस्कार के रूप में ही प्राप्त हो सकता है । वह उस स्वराट् अन्तरात्मा एवं मन की सम्पदा है जो निष्पक्ष समता के साथ सत्य, ऋत तथा विश्वव्यापी बृहत् का अनुसरण करता है; इन सत्य, ऋत तथा बृहत् की भूमिका में ही यह प्रभुत्व प्राप्त हो सकता है,- -हमारी अपूर्णता के सम्मुख ये जो महान् आदर्श प्रस्तुत करते हैं उसका भी स्वराट् आत्मा सदा अनुसरण करता है, पर यह उस सबको भी समझता तथा पूरा अवकाश देता है जो इनका विरोध करता तथा इनकी अभिव्यक्ति में बाधा डालता प्रतीत होता है । यह नियम हमारे वर्तमान मानव-मन के स्तरों पर भी सत्य है, जहां हम केवल सीमित पूर्णता ही प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु योग अपने आदर्श की सिद्धि के लिये स्वराज्य और साम्राज्य के इस लक्ष्य को अपने हाथ में लेकर इसे एक विशालतर आध्यात्मिक आधार पर स्थापित कर देता है । वहां यह अपनी पूर्ण शक्ति प्राप्त कर लेता है, आत्मा की दिव्यतर भूमिकाओं की ओर खुल जाता है; क्योंकि अनन्त के साथ एकत्व तथा सान्त पदार्थों पर आध्यात्मिक शक्ति की क्रिया के द्वारा ही हमारी सत्ता और प्रकृति की एक प्रकार की उच्चतम सर्वांगीण पूर्णता अपना सहज-स्वाभाविक आधार प्राप्त करती है ।
आत्मा की ही नहीं बल्कि प्रकृति की भी पूर्ण समता आत्मसिद्धि-योग की शर्त है । प्रत्यक्षत: ही, इसके लिये पहला कदम यह होगा कि हम अपनी भावप्रधान और प्राणिक सत्ता पर विजय प्राप्त करें; क्योंकि बड़े-से-बड़े विक्षोभ के उद्गम, असमता और दासता की सर्वाधिक दुर्दान्त्त शक्तियां और हमारी अपूर्णता की सबसे अधिक आग्रहपूर्ण मांग हमारी भाविक और प्राणिक सत्ता में ही निहित हैं । अपनी प्रकृति के इन भागों की समता हमें शुद्धि और मुक्ति से प्राप्त होती है । हम कह सकते हैं कि समता मुक्ति का असली चिह्न ही है । प्राणिक कामना के आवेग के ७१५
आधिपत्य से तथा आत्मा पर वासनाओं के प्रचण्ड प्रभुत्व से मुक्त होने का मतलब है शान्त और समतापूर्ण हृदय को तथा एक ऐसे प्राण-तत्त्व को प्राप्त करना जो विश्वात्मा की विशाल और समदृष्टि से नियन्त्रित हो । कामना प्राण की अशुद्धि और बन्धन-शृंखला है । मुक्त प्राण का अभिप्राय है सन्तुष्ट और तृप्त प्राणमय पुरुष जो बाह्य पदार्थों के स्पर्श का सामना बिना किसी कामना के करता है और एक समान प्रत्युत्तर के साथ उनका स्वागत करता है; मुक्त होकर, रुचि और अरुचि के दासतापूर्ण द्वंद्व से ऊपर उठकर, सुख-दुःख की प्रबल प्रेरणाओं के प्रति उदासीन रहता हुआ, प्रिय वस्तुओं के द्वारा हर्षोंत्फुल्ल तथा अप्रिय के द्वारा क्षुब्ध और अभिभूत न होता हुआ, जो स्पर्श उसे पसन्द हैं उनके साथ आसक्ति के भाव में न चिपकता हुआ और जिनके प्रति उसे तीव्र घृणा है उन्हें उग्रतापूर्वक दूर न हटाता हुआ वह अनुभव के मूल्यों की एक महत्तर प्रणाली की ओर उन्मुक्त हों जायेगा । संसार से उसके पास भय या अनुनय के साथ जो कुछ भी आयेगा उस सबको वह उच्चतर तत्त्वों के आगे अर्थात् आत्मा के प्रकाश एवं शान्त आनन्द के स्पर्श में रहनेवाले या उसके द्वारा परिवर्तित बुद्धि और हृदय के आगे विचारार्थ पेश करेगा । इस प्रकार शान्त होकर, आत्मा के वशीभूत होकर और पहले की तरह हमारे अन्दर की गभीरपर एवं सूक्ष्मतर अत्तरात्मा पर अपने प्रभुत्व को लादने की चेष्टा न करता हुआ यह प्राणमय पुरुष स्वयं अध्यात्ममय हो जायेगा और पदार्थों के साथ आत्मा के दिव्यतर व्यवहारों के विशुद्ध और उदात्त यन्त्र के रूप में कार्य करेगा । यहां प्राण-आवेग तथा उसके सहजात उपयोगों और कार्यों का वैराग्यपूर्वक उच्छेद करने का कोई प्रश्न ही नहीं है; आवश्यकता है इसका रूपान्तर करने की न कि उच्छेद । प्राण का कार्य है उपभोग, पर सत्ता का वास्तविक उपभोग एक आन्तरिक आध्यात्मिक् आनन्द है, न कि हमारे प्राणिक, भाविक या मानसिक सुख के समान मर्यादित और अशान्त आनन्द, प्राणिक, भाविक और मानसिक सुख आज स्थूल मन की प्रधानता के कारण हीनता से ग्रस्त हैं, पर वास्तविक उपभोग तो एक विराट् और गहन-गभीर आनन्द है, आध्यात्मिक आनन्द का एक पुंजीभूत सघन रूप है जो आत्मा और समस्त सत्ता के शान्त परमोल्लास में प्राप्त होता है । स्वत्व-प्राप्ति प्राण का कार्य है, स्वत्व-प्राप्ति के द्वारा ही अन्तरात्मा को पदार्थों का आनन्दोपभोग प्राप्त होता है, पर यह स्वत्व-प्राप्ति वास्तविक होती है, एक विशाल और आन्तरिक वस्तु होती है, यह उस बाहरी पकड़ पर निर्भर नहीं करती जो हमें पकड़ में लायी गयी वस्तु के अधीन कर देती है । समस्त बाह्य प्राप्ति एवं उपभोग आध्यात्मिक आनन्द की अपनी ही जगत्-सत्ता के रूपों और दृग्विषयों के साथ तृप्त और समलीला का एक साधनमात्र होगा । अहंकारमय प्राप्ति, अर्थात् भगवान् पर तथा जीवों और जगत् पर अहं के अधिकार के अर्थ में वस्तुओं को अपनी बना लेने की वृत्ति, परिग्रह, को त्यागना होगा, ताकि यह महत्तर वस्तु अर्थात् यह विशाल, विश्वमय
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और सर्वांगपूर्ण जीवन प्राप्त हो सके । त्यक्तेन भुञ्जीथा:, --कामना और प्राप्ति की अहंकारमय भावना का त्याग करने से ही आत्मा अपनी सत्ता का तथा विश्व का दिव्य रूप में आनन्दोपभोग करती है ।
इसी प्रकार मुक्त हृदय एक ऐसा हृदय होता है जो भावों और रागावेशों के आंधी-तूफान से मुक्त होता है; शोक, क्रोध, घृणा और भय का आक्रामक स्पर्श, प्रेमजनित असमता, हर्षजनित विक्षोभ और दुःखजन्य वेदना--ये सब समत्वपूर्ण हृदय से दूर हो जाते हैं जिससे कि वह एक विशाल, शान्त, सम, प्रकाशमय एवं दिव्य तत्त्व ही बना रहता है । ये वस्तुएं हमारी सत्ता की मूल प्रकृति के लिये अनिवार्य नहीं हैं, बल्कि हमारी बाह्य और सक्रिय मानसिक एवं प्राणिक प्रकृति की वर्तमान बनावट की तथा अपनी परिस्थितियों के साथ उसके व्यवहारों की उपज हैं । हमारी अहंबुद्धि ही हमारे हृदय की इन अशुद्ध क्रियाओं के लिये उत्तरदायी है क्योंकि वह हमें ऐसे पृथक् जीवों के रूप में कार्य करने के लिये प्रेरित करती है जो अपनी पृथक् व्यक्तिगत मांग और अनुभूति को विश्व के मूल्यों की कसौटी बनाते हैं । जब हम अपने अन्तःस्थ भगवान् तथा विश्वगत आत्मा के साथ एकत्व में जीवन धारण करते हैं तो ये अपूर्णताएं हमसे झड़कर अलग हो जाती हैं और आन्तर आध्यात्मिक सत्ता के शान्त और सम बल एवं आनन्द में विलीन हो जाती हैं । वह भागवत सत्ता सदा ही हमारे अन्दर विद्यमान है और इसके पूर्व कि बाह्य स्पर्श हमारे अन्तःस्थ प्रच्छन्न चैत्य पुरुष में से होते हुए उसतक पहुंचे वह उन्हें रूपान्तरित कर डालती है; यह चैत्य पुरुष उसका एक गुप्त साधन है जिसके द्वारा वह अपने सत्ता-सम्बन्धी आनन्द का उपभोग करती है । हृदय की समता के द्वारा हम अपने उपरितल पर रहनेवाले अशान्त कामनामय पुरुष से दूर हट जाते हैं, इस गभीरतर सत्ता के द्वारों को खोल डालते हैं, इसकी प्रतिक्रियाओं को प्रकाश में ले आते हैं और जो कुछ भी हमारी भावप्रधान सत्ता को प्रलोभित करता है उस सबपर उनके सच्चे दिव्य मूल्यों को आरोपित करते हैं । इस पूर्णता का फल होता है आध्यात्मिक वेदन प्राप्त करनेवाला, मुक्त, प्रसन्न, समत्वयुक्त और विश्वप्रेमी हृदय ।
इस पूर्णता में भी कठोर वैराग्यमय सम्वेदनहीनता या तटस्थ आध्यात्मिक उदासीनता का अथवा आत्मदमन की कष्ट-साध्य कर्कश तपस्या का कोई प्रश्न नहीं है । यह भावप्रधान प्रकृति का उच्छेद नहीं, रूपान्तर है । यहां हमारी बाह्य प्रकृति में जो भी चीजें अपने-आपको विकृत या अपूर्ण रूपों में प्रस्तुत करती हैं उन सबका कुछ महत्त्व और उपयोग है, जब हम उनसे पीछे हटकर दिव्य सत्ता के महत्तर सत्य में प्रवेश करते हैं तो उनका महत्त्व और उपयोग प्रकट हो जाते हैं । प्रेम का उच्छेद नहीं होगा बल्कि वह पूर्णता को पहुंच जायेगा, विस्तृत होकर अपनी विशालतम क्षमता को पा लेगा, गहरा होकर अपने आध्यात्मिक हर्षोल्लास को प्राप्त कर लेगा, ईश्वर-प्रेम और मानव-प्रेम बन जायेगा, अपनी आत्मा के रूप में तथा भगवान् की
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सत्ताओं और शक्तियों के रूप में सभी वस्तुओं से प्रेम का रूप धारण कर लेगा; एक विशाल एवं सार्वभौम प्रेम, जो नानाविध सम्बन्ध स्थापित करने में सर्वथा समर्थ होगा, क्षुद्र हर्षों और शोकों तथा आग्रहपूर्ण मांगों से युक्त दावा करनेवाले, अहंकारमय और स्वार्थपरायण प्रेम का स्थान ले लेगा; यह स्वार्थपरायण प्रेम उन क्रोधों, ईर्ष्याओं, तुष्टियों, एकता-प्राप्ति के उतावले प्रयत्नों तथा क्लान्ति, सम्बन्ध--विच्छेद और विरह की गतियों के समस्त चित्र-विचित्र जाल से पीड़ित होता है जिन्हें हम आज इतना अधिक महत्त्व देते हैं । दुःख का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, पर विश्वजनीन एवं समत्वपूर्ण प्रेम और सहानुभूति उसका स्थान ले लेंगे, वह सहानुभूति दूसरों के दुःख में दुःख अनुभव करनेवाली नहीं होगी बल्कि एक ऐसी शक्ति होगी जो अपने-आप दुःखमुक्त होने के कारण दूसरों का धारण-पोषण करने, उन्हें सहायता पहुंचाने औरमुक्त करने में सक्षम होती है । मुक्त आत्मा में घृणा और क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकते, पर उसमें भगवान् की वह प्रबल रुद्र-शक्ति प्रकट हो ही सकती है जो घृणा के बिना युद्ध और क्रोध के बिना संहार कर सकती है क्योंकि वह जिन वस्तुओं का विनाश करती है उन्हें बराबर ही अपने अंग एवं अपनी अभिव्यक्तियों के रूप में जानती होती है और अतएव जिनमें ये अभिव्यक्तियां मूर्तिमन्त होती हैं उनके प्रति उसकी सहानुभूति और समझ में कोई भी अन्तर नहीं पड़ता । हमारी समस्त भावमय प्रकृति इस उच्च मोक्षसाधक रूपान्तर में से गुजरेगी; पर यह ऐसा कर सके इसके लिये पूर्ण समता एक अनिवार्य, फलप्रद अवस्था है ।
अपनी शेष सारी सत्ता में भी हमें इसी समता को स्थापित करना होगा । हमारी सम्पूर्ण क्रियाशील सत्ता असमान आवेगों के अर्थात् निम्न अज्ञानमय प्रकृति की अभिव्यक्तियों के प्रभाव के अधीन कार्य कर रही है । इन आवेगों का हम अनुसरण करते हैं या कुछ अंश में नियन्त्रण करते हैं या फिर इनपर अपनी तर्कबुद्धि, परिष्कारक सौन्दर्य-भावना और सौन्दर्यग्राही मन तथा नियामक नैतिक विचारों का परिवर्तनकारी और संशोधक प्रभाव डालते हैं । हमारे प्रयास का मिश्रित परिणाम यह होता है कि हमारे अन्दर सत्य और असत्य, उपयोगी और हानिकारक तथा सामंजस्यपूर्ण या अव्यवस्थित कार्यों का एक उलझा हुआ स्वर उत्पन्न हो जाता है, मानवीय तर्क और अतर्क, पुण्य और पाप, मान और अपमान तथा उच्च और नीच का और लोकसम्मत तथा लोकनिन्दित पदार्थों एवं कार्यों का परिवर्तनशील मानदण्ड स्थापित हो जाता है, आत्म-प्रशंसा और आत्मनिन्दा का अथवा आत्म-पवित्रता और आत्म-घृणा एवं पश्चात्ताप, लज्जा और नैतिक निराशा का अत्यधिक विक्षोभ उठ खड़ा होता है । निःसन्देह, इस समय ये चीजें हमारे आध्यात्मिक विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं । परन्तु एक महत्तर पूर्णता का अभिलाषी साधक इन सब द्वंद्वों से पीछे हटकर इन्हें सम दृष्टि से देखेगा और समता के द्वारा क्रियाशील तपस्
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अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति की तटस्थ और विराट् क्रिया को अपने अन्दर स्थापित कर लेगा; उस तपस् में उसकी अपनी शक्ति और संकल्प दिव्य क्रिया के एक महत्तर शान्त रहस्य के शुद्ध और उपयुक्त यन्त्रों में परिणत हो जाते हैं । इस क्रियाशील समता के आधार पर वह साधारण मानसिक मानदण्डो को अतिक्रम कर जायेगा । उसकी संकल्प-दृष्टि को अपने से परे एक दिव्य सत्ता की पवित्रता की ओर तथा दिव्य ज्ञान के द्वारा परिचालित दिव्य संकल्पशक्ति की प्रेरणा की ओर देखना होगार उसकी पूर्णताप्राप्त प्रकृति उस दिव्य संकल्पशक्ति का ही एक यन्त्र बनकर रहेगी । यह सब तबतक सर्वथा असम्भव ही रहेगा जबतक क्रियाशील अहं भाविक और प्राणिक आवेगों के तथा व्यक्तिगत निर्णय की पसन्दगियों के अधीन रहकर उसके कार्य में हस्तक्षेप करता रहेगा । संकल्पशक्ति की पूर्ण समता ही वह शक्ति है जो कर्मों की निम्न प्रेरणा की इन ग्रन्थियों को छिन्न-भिन्न कर डालती है । यह समता निम्न आवेगों को प्रत्युत्तर नहीं देगी, बल्कि मन के ऊपर अवस्थित प्रकाश से आनेवाली महत्तर दृष्टिसम्पन्न प्रेरणा को प्राप्त करने के लिये सजग होकर प्रतीक्षा करेगी और बुद्धि के द्वारा निर्णय और नियन्त्रण नहीं करेगी, बल्कि अन्तर्दृष्टि के उच्चतर स्तर से प्राप्त होनेवाले प्रकाश और मार्गदर्शन की प्रतीक्षा करेगी । क्रियाशील प्रकृति जैसे-जैसे ऊपर अतिमानसिक सत्ता की ओर आरोहण करेगी और भीतर आध्यात्मिक विशालता की ओर विस्तृत होगी, वैसे-वैसे वह भाविक और प्राणिक प्रकृति की तरह रूपान्तरित होकर अध्यात्ममय बनती जायेगी और दिव्य प्रकृति की एक शक्ति के रूप में विकसित होती जायेगी । करणों का उनकी अपनी नयी क्रिया के साथ सामंजस्य साधने में अनेक स्खलन, भूलें और त्रुटियां होंगी, पर समता को अधिकाधिक धारण करती जानेवाली अन्तरात्मा इन चीजों से अत्यधिक चलायमान या व्यथित नहीं होगी, क्योंकि आत्मा के अन्दर तथा मन के ऊपर अवस्थित ज्योति और शक्ति के मार्गदर्शन की ओर उन्मुका होकर वह दृढ़ विश्वास के साथ अपने-अपने मार्ग पर बढ्ती जायेगी और रूपान्तर की प्रक्रिया के उतार--चढ़ावों तथा उसकी पूर्ति की प्रतीक्षा उत्तरोत्तर बढ्ती हुई शान्ति के साथ करेगी । गीता में भगवान् ने जो प्रतिज्ञा की है कि ''सब धर्मों का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण में आ जा; मैं तुझे सब पापों और बुराइयों से मुक्त कर दूंगा; शोक मत कर'', वह उसके दृढ़ निश्चय का लंगर होगी ।
चिन्तनात्मक मन की समता प्रकृति के करणों की पूर्णता का एक अङग एवं अत्यावश्यक अङग होगी । अपनी बौद्धिक अभिरुचियों, अपने निर्णयों और अपनी सम्मतियों तथा कल्पनाओं के प्रति, अपने मन की आधारभूत स्मृतिशक्ति के सीमाकारी संस्कारों, अपने यान्त्रिक मन की वर्तमान पुनरावृत्तियों, अपने व्यवहारलक्षी मन के आग्रहों और यहांतक कि अपने बौद्धिक सत्य-मानस की सीमाओं के प्रति हमारी वर्तमान आकर्षक एवं स्व-समर्थक आसक्ति को भी अन्य आसक्तियो की
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तरह समाप्त हो जाना होगा और समत्वपूर्ण अन्तर्दृष्टि की तटस्थता के आगे शीश झुकाना होगा । समत्वयुक्त चिन्तनात्मक मन ज्ञान और अज्ञान एवं सत्य और भ्रान्ति के द्वंद्वों पर, जिन्हें हमारी चेतना के सीमित स्वभाव तथा हमारी बुद्धि के पक्षपात ने और उसके तर्को एवं सहजबोधों की छोटी-सी पूंजी ने जन्म दिया है, दृष्टिपात करेगा और बन्धनग्रंथी की किसी भी रज्जु से बद्ध हुए बिना उन दोनों को स्वीकार करेगा और उन दोनों से परे की ज्योतिर्मय अवस्था को प्राप्त करने के लिये प्रतीक्षा करेगा । अज्ञान के अन्दर वह एक ऐसे ज्ञान को देखेगा जो कारा में बद्ध है और मुक्त होने का यत्न कर रहा है या इसकी बाट जोह रहा है, भ्रांति में वह एक ऐसे सत्य को कार्य करते देखेगा जो अपने को खो बैठा है या जिसे अन्धान्वेषी मन ने भ्रामक रूपों में पटक दिया है । दूसरी ओर, वह अपने ज्ञान के द्वारा अपने-आपको आबद्ध एवं सीमित नहीं रखेगा अथवा उसके कारण नये प्रकाश की ओर बढ़ने से रुका नहीं रहेगा, किसी सत्य का पूर्ण रूप से उपयोग करते हुए भी उसे अति उग्रता के साथ पकड़ नहीं रखेगा, न उसे उसकी वर्तमान रूप-रचनाओं मे क्रूरतापूर्वक जकड़ ही डालेगा । विचारात्मक मन की यह पूर्ण समता अपरिहार्य है, क्योंकि इस विकास का लक्ष्य एक ऐसे महत्तर प्रकाश को पाना है जो आध्यात्मिक ज्ञान के उच्चतर स्तर का प्रकाश है । यह समता सबसे अधिक सूक्ष्म और कठिन है, मानव मन ने इसकी प्राप्ति की साधना अत्यन्त ही कम की है; जबतक अतिमानसिक ज्योति ऊर्ध्वदर्शी मन पर पूरी तरह से नहीं पड़ती तबतक इस समता को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता । परन्तु इसके पूर्व कि वह ज्योति मन के उपादान पर स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके, बुद्धि में समता की स्थापना के लिये अधिकाधिक संकल्प की आवश्यकता है । इस समता का अर्थ भी बुद्धि की जिज्ञासाओं तथा उसके वैश्व उद्देश्यों का परित्याग करना नहीं है, इसका अर्थ न तो उदासीनता या तटस्थ सन्देहवृत्ति है और न ही अनिर्वचनीय की नीरवता में समस्त विचार को शान्त कर देना । जब हमारा उद्देश्य मन को उच्चतर प्रकाश और ज्ञान का एक समत्वयुक्त वाहन बनाने के लिये उसकी आंशिक क्रियाओं से उसे मुक्त करना होता है तब मानसिक विचार को शान्त करना साधना का अंग हो सकता है; पर मन के उपादान का रूपान्तर करना भी आवश्यक है; अन्यथा उच्चतर प्रकाश मन पर पूर्ण प्रभुत्व नहीं प्राप्त कर सकता और न ही वह मनुष्य में दिव्य चेतना के व्यवस्थित कार्यों को सम्पन्न करने के लिये शक्तिशाली स्वरूप धारण कर सकता है । अनिर्वचनीय ब्रह्म की नीरवता दिव्य सत्ता का एक सत्य है, पर उस नीरवता से जो 'शब्द' निःसृत होता है वह भी एक सत्य है, और इस शब्द को ही प्रकृति के चेतन रूप में मूर्त आकार प्रदान करना है ।
परन्तु अन्ततोगत्वा, प्रकृति में समता की यह सब स्थापना इस लक्ष्य के लिये तैयारी है कि उच्चतम आध्यात्मिक समता सम्पूर्ण सत्ता को अपने अधिकार में कर
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लें तथा एक ऐसा व्यापक वायुमण्डल बनाये जिसमें भगवान् की ज्योति, शक्ति एवं आनन्द मनुष्य के अन्दर अधिकाधिक बढ्ती हुई पूर्णता के साथ प्रकट हो सकें । यह समता सच्चिदानन्द की सनातन समता है । यह अनन्त सत्ता की समता है जो स्वयंसिद्ध है, यह सनातन आत्मा की समता है, पर यह मन, हृदय, संकल्पशक्ति, प्राण और भौतिक सत्ता को अपने सांचे में ढाल देगी । यह अनन्त आध्यात्मिक चेतना की समता है जो दिव्य ज्ञान के आनन्दपूर्ण प्रवाह एवं उसकी तृप्त तरंगों को धारण करेगी तथा उनका आधार बनेगी । यह दिव्य तपसू की समता है जो समस्त प्रकृति में दिव्य संकल्प की ज्योतिर्मय क्रिया का आरम्भ करेगी । यह दिव्य आनन्द की समता है जो दिव्य विश्वव्यापी आनन्द एवं विश्वव्यापी प्रेम की, विश्वव्यापी सौन्दर्य की असीम रसशक्ति की लीला का आधार स्थापित करेगी । अनन्त की आदर्श समत्वपूर्ण शान्ति एवं स्थिरता हमारी पूर्णताप्राप्त सत्ता का विशाल व्योम होगी, पर प्रकृति के द्वारा अनन्त की आदर्श, सम और पूर्ण क्रिया जो विश्व के सम्बन्धों पर कार्य करेगी हमारी सत्ता में उसकी शक्ति का एक प्रशान्त प्रवाह होगी । पूर्णयोग के शब्दों में समता का अर्थ यही है ।
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