Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २
सर्वांगीण पूर्णता
मानव-सत्ता की दिव्य पूर्णता ही हमारा लक्ष्य है । अतएव, पहले हमें यह जानना होगा कि वे मूल तत्त्व कौनसे हैं जो मनुष्य की समग्र पूर्णता का गठन करते हैं; दूसरे जब हम अपनी सत्ता की मानवीय पूर्णता से भिन्न दैवी पूर्णता की चर्चा करते हैं तो हमारा क्या मतलब होता है । समस्त विचारशील मानवजाति इस आधारभूत सत्य को सर्वसामान्य रूप से स्वीकार करती है कि मानव-प्राणी अपना विकास कर सकता है, उसका मन पूर्णता के एक आदर्श प्रतिमान की कल्पना करके एवं उसे स्थिर रूप से अपने सामने रखकर उसका अनुसरण कर सकता है तथा उस आदर्श कोटि की पूर्णता की ओर वह कम-से-कम कुछ अंश में अग्रसर हो सकता है, भले ही ऐसे लोगों की संख्या कितनी भी कम क्यों न हो जो इस सम्भावना को जीवन का एकमात्र सर्व-प्रधान लक्ष्य प्रस्तुत करनेवाली समझकर इसकी ओर ध्यान देते हों । पर कुछ लोग इस आदर्श की कल्पना एक ऐहलौकिक परिवर्तन के रूप में करते हैं तथा दूसरे एक धार्मिक कायापलट के रूप में ।
ऐहलौकिक पूर्णता की कल्पना कभी-कभी इस रूप में की जाती है कि यह एक बाह्य, सामाजिक एवं व्यावहारिक वस्तु है जिसका अभिप्राय है--अपने मानव--बन्धुओं एवं अपनी परिस्थिति के साथ अधिक बुद्धिसंगत व्यवहार, अधिक श्रेष्ठ एवं दक्षतापूर्ण नागरिक जीवन तथा अधिक उत्तमता एवं कुशलता के साथ कर्तव्यपालन, जीवन यापन करने की एक अधिक उत्कृष्ट, समृद्ध, सदय और सुखद प्रणाली जिसमें मनुष्य जीवन के अवसरों का उपभोग दूसरों के साथ मिल-जुलकर अधिक न्याय्य एवं समस्वर रूप में कर सके । और, फिर कुछ अन्य लोग एक अधिक आन्तरिक एवं आत्मनिष्ठ आदर्श का पोषण करते हैं, वह आदर्श है--बुद्धि, संकल्प और विवेक-शक्ति को शुद्ध और उन्नत करना, प्रकृति की शक्ति और क्षमता को उच्च एवं व्यवस्थित करना, भद्रतर नैतिक, समृद्धतर सौन्दर्यात्मक, सूक्ष्मतर भाविक, कहीं अधिक स्वस्थ एवं सुशासित भौतिक और प्राणिक जीवन । कभी-कभी इनमेंसे किसी एक ही तत्त्व पर बल दिया जाता है तथा अन्य सबको प्रायः पूर्ण रूप से त्याग दिया जाता है; कभी-कभी, अधिक विशाल और सुसंतुलित मन के व्यक्ति इन तत्वों के सम्पूर्ण सामञ्जस्य को ही एक समग्र पूर्णता की कल्पना के रूप में अपने सामने लाते हैं । इसके लिये जो बाह्य साधन अपनाया जाता है वह है शिक्षा और सामाजिक संस्थाओं का परिवर्तन, या फिर आन्तरिक आत्म--अनुशासन तथा विकास को एक सच्चे साधन के रूप में अधिक अच्छा समझा जाता है । अथवा उक्त दोनों लक्ष्यों को अर्थात् आन्तरिक 'व्यक्ति' की पूर्णता तथा बाह्य जीवन की
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पूर्णता को स्पष्ट रूप से संयुक्त एवं एकीभूत भी किया जा सकता है ।
परन्तु लौकिक लक्ष्य वर्तमान जीवन तथा इसके अवसरों को अपना क्षेत्र मानता है; उधर धार्मिक लक्ष्य मृत्यु के बाद के किसी अन्य लोक (परलोक) के लिये तैयारी करने के आदर्श को अपने सामने रखता है, इसका साधारण--से--साधारण आदर्श है किसी प्रकार का शुद्ध साधु-स्वभाव, इसका साधन है--अपूर्ण या पापमय मानव-सत्ता को भगवत्कृपा के द्वारा रूपान्तरित करना अथवा शास्त्त्र के द्वारा प्रतिपादित या धर्मसंस्थापक के द्वारा निर्धारित नियम के अधीन रहकर उसका रूपान्तर करना । धर्म का लक्ष्य सामाजिक परिवर्तन को भी अपने अन्दर समाविष्ट कर सकता है, पर वह परिवर्तन तब एक ऐसा परिवर्तन होता है जो पवित्र जीवन के सर्वसम्मत धार्मिक आदर्श और ढंग को स्वीकार करके सम्पन्न किया जाता है, वह सन्तों का भ्रातृभाव तथा एक ऐसा देवशासन या ईश्वर--राज्य होता है जो पृथ्वी पर स्वर्ग के राज्य को प्रतिबिम्बित करता है ।
अपने अन्य अङ्गों की भांति इस अङग में भी हमारे समन्वयात्मक योग का उद्देश्य अधिक समग्र एवं सर्वग्राही होना चाहिये, उसे आत्मसिद्धि के विशालतर आवेग के इन सब तत्त्वों या प्रवृत्तियों को अपने अत्तर्गत करके इनमें सामञ्जस्य या सच पूछो तो एकत्व स्थापित करना चाहिये । इस कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिये उसे उस सत्य को अधिकृत करना होगा जो साधारण धार्मिक सिद्धान्त से अधिक विशाल तथा लौकिक सिद्धान्त से अधिक उच्च है । समस्त जीवन एक प्रच्छन्न योग है अर्थात् यह प्रकृति का अपने अन्दर छिपे दिव्य तत्त्व की खोज और चरितार्थता की ओर एक अस्पष्ट विकास है; जैसे--जैसे मनुष्य के ज्ञान, संकल्प, कार्य और जीवन के सभी करण उसके तथा जगत् के अन्दर स्थित परम आत्मा की ओर खुलते जाते हैं वैसे--वैसे यह दिव्य तत्त्व उसके अन्दर उत्तरोत्तर कम प्रच्छन्न, अधिक स्व-चेतन और प्रकाशमय तथा अधिक स्वराट् बनता जाता है । मन, प्राण, शरीर तथा हमारी प्रकृति के सभी रूप इस विकास के साधन हैं, पर ये अपनी अन्तिम पूर्णता अपनेसे परे की किसी वस्तु की ओर खुल करके ही प्राप्त करते हैं, इसका पहला कारण तो यह है कि ये मनुष्य की सत्ता का सम्पूर्ण स्वरूप नहीं हैं, दूसरा कारण यह है कि इनके अतिरिक्त जो अन्य वस्तु उसकी सत्ता का स्वरूप है वही उसकी पूर्णता की कुंजी है और वही एक ऐसा प्रकाश लाती है जो उसके लिये उसकी सत्ता के सम्पूर्ण उच्च एवं विशाल सत्स्वरूप को प्रकाशित कर देता है ।
अपनेसे परे की वस्तु की ओर खुलने पर मन एक महत्तर ज्ञान के द्वारा, जिसका केवल अधूरा प्रकाश ही इसके अन्दर है, अपनी परिपूर्णता प्राप्त कर लेता है, प्राण एक शक्ति एवं संकल्प में, जिसका यह एक बाह्य तथा अभीतक अस्पष्ट व्यापार है, अपनी सार्थकता को ढूंढ़ लेता है, शरीर जान जाता है कि वह सत्ता की जिस
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शक्ति के स्थूल आधार एवं भौतिक आरम्भबिन्दु के रूप में कार्य करता है उसीका एक यन्त्र बनकर रहना उसका चरम-परम उपयोग है । सबसे पहले तो स्वयं इन सबको विकसित होकर अपनी साधारण शक्यताओं को प्राप्त करना होगा, हमारा सारा ही सामान्य जीवन इन शक्यताओं की प्राप्ति का प्रयोगात्मक प्रयास है और इस प्रारम्भिक एवं प्रयोगात्मक आत्म-अनुशासन के लिये अवसर प्रदान करता है । परन्तु जीवन अपनी समग्र पूर्णता तबतक नहीं प्राप्त कर सकता जबतक वह सत्ता के महत्तर सत्स्वरूप की ओर नहीं खुल जाता; एक समृद्धतर शक्ति तथा अधिक सम्वेदनपूर्ण प्रयोग एवं सामर्थ्य के इस प्रकार के विकास के द्वारा वह इस महत्तर सत्य सत्ता का एक सुसिद्ध कार्यक्षेत्र बन जाता है ।
बुद्धि, संकल्पशक्ति, नैतिक बोध, भावमय चित्त, सौन्दर्यवृत्ति और भौतिक सत्ता की साधना और उन्नति अत्यन्त हितकर हैं, पर अन्त में हमें पता चलता है कि यह सब साधना और उन्नति निरन्तर एक ही चक्कर में घूमते रहनामात्र है जिसका कोई अन्तिम उद्धारकारी एवं आलोकप्रद लक्ष्य नहीं है; हमारी बुद्धि, संकल्पशक्ति आदि इस प्रकार का चक्कर तबतक काटती रहती हैं जबतक कि वे एक ऐसे स्थलपर नहीं पहुंच जातीं जहां वे आत्मा की शक्ति एवं उपस्थिति की ओर अपने--आपको खोलकर उसकी प्रत्यक्ष क्रियाओं को अवकाश दे सकें । इस प्रकार की प्रत्यक्ष क्रिया सम्पूर्ण सत्ता का रूपान्तर साधित कर देती है जो कि हमारी वास्तविक पूर्णता की अनिवार्य शर्त है । अतएव, आत्मा के सत्य एवं उसकी शक्ति में विकसित होना तथा उस शक्ति की प्रत्यक्ष क्रिया से उसकी आत्म-अभिव्यक्ति का उपयुक्त साधन बनना, अर्थात् मनुष्य का भगवान् में जीवन धारण करना तथा परमात्मा का मानवता में दिव्य जीवन-यापन करना ही सर्वांगपूर्ण आत्मसिद्धि योग का सिद्धान्त एवं सम्पूर्ण लक्ष्य होगा ।
इस रूपान्तर के प्रयत्न की अपनी मांग के ही कारण इसकी प्रक्रिया के अन्दर दो अवस्थाएं आवश्यक रूप से आयेंगी । प्रथम, ज्यों ही मनुष्य अपनी अन्तरात्मा तथा अपने मन और हृदय के द्वारा इस दिव्य सम्भावना को अनुभव करेगा तथा इसे जीवन का सच्चा लक्ष्य समझकर इसकी ओर मुड़ेगा त्यों ही वह इसके लिये अपने-आपको तैयार करने तथा उसके अन्दर की जो चीजें निम्न क्रिया से सम्बन्ध रखती हैं और आध्यात्मिक सत्य एवं उसकी शक्ति की ओर उसके खुलने में बाधा डालती हैं, उन सबसे मुक्त होने के लिये व्यक्तिगत रूप से प्रयत्न करने लगेगा, ताकि इस मुक्ति के द्वारा वह अपनी आध्यात्मिक सत्ता को प्राप्त करके अपनी प्रकृति की सब गतियों को उसकी आत्म-अभिव्यक्ति के निर्बाध साधनों में परिवर्तित कर सके । इस परिवर्तन के द्वारा ही, अपने लक्ष्य से सज्ञान रहनेवाले स्व-चेतन योग का आरम्भ होता है : तब एक नया जागरण होकर जीवन के उद्देश्य में ऊर्ध्वमुख परिवर्तन आ जाता है । जबतक जीवन के इस समय के सामान्य प्रयोजनों
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के लिये हम केवल एक ऐसी बौद्धिक, नैतिक एवं अन्य प्रकार की आत्म-साधना ही करते रहते हैं जो मन, प्राण और शरीर के व्यापार के साधारण घेरे के परे नहीं जाती तबतक हम विश्व-प्रकृति के अज्ञानावूत तथा अबतक-प्रकाशरहित प्रारम्भिक योग में से ही गुजर रहे हैं; हम अभी साधारण मानवीय पूर्णता की खोज कर रहे हैं । भगवान् की और दिव्य पूर्णता की, अपनी सारी सत्ता में उनके साथ एकत्व की तथा अपनी सारी प्रकृति में आध्यात्मिक पूर्णता की आध्यात्मिक कामना इस परिवर्तन का प्रभावशाली चिह्न है, हमारी सत्ता और हमारे जीवन के महान् सर्वांगीण रूपान्तर की प्रारम्भिक शक्ति है ।
व्यक्तिगत प्रयत्न के द्वारा एक प्रारम्भिक परिवर्तन एवं प्राथमिक रूपान्तर ही साधित किया जा सकता है; इसके परिणामस्वरूप हमारे मानसिक उद्देश्य, हमारा चरित्र और स्वभाव कम या अधिक मात्रा में आध्यात्मिक बन जाते हैं, तथा प्राणिक एवं शारीरिक जीवन पर प्रभुत्व प्राप्त हो जाता है, वह शान्त एवं निष्क्रिय हो जाता है या उसकी क्रिया बदल जाती है । इस रूपान्तरित आन्तरिक जीवन को भगवान् के साथ मनोमय पुरुष के किसी अन्तर्मिलन या एकत्व का तथा मनुष्य के मन में दिव्य प्रकृति के किसी आंशिक प्रतिबिम्ब का आधार बनाया जा सकता है । अन्य किसी सहायता के बिना या किसी अप्रत्यक्ष सहायता के द्वारा मनुष्य अपने प्रयत्न के बलपर बस इतनी ही दूर जा सकता है, क्योंकि वह प्रयत्न मन का होता हैं और मन अपने से परे स्थायी रूप में आरोहण नहीं कर सकता: अधिक-से-अधिक वह एक अध्यात्मभावित तथा आदर्श मनोमय स्थिति तक ही उठ सकता है । यदि वह इस सीमा के परे तीर की तरह छूटकर चला जाय तो वह अपने ऊपर अधिकार खो बैठता है, प्राण को भी अपने वश में नहीं रख पाता और फलत: लय-रूप समाधि या निष्क्रियता में पहुंच जाता है । अतः इससे अधिक महान् पूर्णता की प्राप्ति तभी हो सकती है यदि एक उच्चतर शक्ति कार्य- क्षेत्र में उतर आये तथा सत्ता की सम्पूर्ण क्रिया को अपने हाथ में ले ले । सुतरां, इस योग की दूसरी अवस्था होगी--प्रकृति की समस्त क्रिया को निरन्तर इस महत्तर शक्ति के हाथों में सौंपना व्यक्तिगत प्रयत्न का स्थान इस शक्ति के प्रभाव, अधिकार तथा कार्य-व्यवहार को देते जाना, और ऐसा तबतक करते रहना होगा जबतक कि जिन भगवान् की प्राप्ति के लिये हम अभीप्सा करते हैं वे योग के प्रत्यक्ष स्वामी बनकर सत्ता का समग्र आध्यात्मिक एवं आदर्श रूपात्तर साधित न कर दें ।
हमारे योग का यह दोहरा स्वरूप इसे पूर्णता के लौकिक आदर्श के परे उठा ले जाता है, जब कि इसके साथ ही यह उच्चतर, गभीरतर, पर अत्यधिक संकीर्ण धार्मिक सूत्र के भी परे चला जाता है । लौकिक आदर्श मनुष्य को सदा ही एक मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक सत्ता मानता है और उसका लक्ष्य बस इस सीमाओं के भीतर मानवीय पूर्णता प्राप्त करना ही होता है इस पूर्णता का अभिप्राय है मन,
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प्राण और शरीर की पूर्णता, बुद्धि एवं ज्ञान तथा संकल्प एवं शक्ति का विस्तार और परिष्कार, नैतिक चरित्र, लक्ष्य और आचार-व्यवहार का, सौंन्दर्य--विषयक सम्वेदनशीलता और सर्जन-शक्ति का, भावों की सन्तुलित स्थिति एवं उनके उपभोग का, प्राण और शरीर की निर्दोष अवस्था का, नियमबद्ध क्रिया और यथायथ कुशलता का विकास और परिष्कार । यह लक्ष्य विशाल और पूर्ण अवश्य है, किन्तु फिर भी जितना चाहिये उतना विशाल और पूर्ण नहीं है, क्योंकि यह हमारी सत्ता के उस अन्य महत्तर तत्त्व की उपेक्षा कर देता है जिस मन अस्पष्ट तथा एक आध्यात्मिक तत्त्व के रूप में परिकल्पित करता है । साथ ही, यह इस आध्यात्मिक तत्त्व को या तो अविकसित ही छोड़ देता है या फिर इसे केवल कभी-कभी होनेवाला एक उच्च अनुभव या एक अतिरिक्त गौण अनुभव अथवा मन के ही अपने असाधारण पक्षों की क्रिया का एक परिणाममात्र मानकर या अपनी उपस्थिति एवं स्थिरता के लिये मन पर निर्भर रहनेवाला तत्त्व समझकर पूर्ण-सन्तोषजनक रूप से विकसित नहीं करता । यह लक्ष्य उच्च तभी बन सकता है जब यह हमारे मन की उच्चतर एवं विस्तृततर भूमिकाओं को विकसित करने का यत्न करे, किन्तु फिर भी यह एक पर्याप्त उच्च लक्ष्य नहीं बन सकता, क्योंकि हमारी शुद्ध-से-शुद्ध बुद्धि, हमारा उज्जल-से-उज्ज्वल मानसिक अन्तर्ज्ञान, हमारा गभीरतम मानसिक बोध एवं वेदन, प्रबलतम मानसिक संकल्प एवं बल या सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य एवं प्रयोजन जिस मनोतीत सत्ता की मात्र फीकी किरणें हैं उसतक पहुंचने के लिये यह अभीप्सा ही नहीं करता । और फिर एक बात यह भी है कि इस लौकिक आदर्श का लक्ष्य साधारण मानव-जीवन की पार्थिव पूर्णतातक हीं सीमित है ।
पूर्णयोग किंवा समग्र पूर्णता का योग मनुष्य को एक ऐसी दिव्य आध्यात्मिक सत्ता मानता है जो मन, प्राण और शरीर के अन्दर तिरोभूत है; अतएव, इसका लक्ष्य है उसकी दिव्य प्रकृति को मुक्त करके पूर्ण बनाना । यह पूर्णविकसित आध्यात्मिक सत्ता के अन्दर निवास करने को उसका शाश्वत एवं यथार्थ जीवन बना देना चाहता है और मन, प्राण तथा शरीर की अध्यात्मभावित कार्य-प्रवृत्ति को इस यथार्थ अन्तर्जीवन का बाह्य मानव-प्राकटयमात्र । पर यह आध्यात्मिक जीवन कोई अस्पष्ट एवं अनिर्देश्य वस्तु न रह जाये अथवा इसका अनुभव अपूर्ण ही न रह जाये तथा यह मनोमय आधार एवं मानसिक सीमाओं पर ही निर्भर न रहे--इसके लिये यह पूर्णयोग मन से परे अतिमानसिक ज्ञान, संकल्प, बोध, वेदन, अन्तर्ज्ञान, प्राणिक और शारीरिक क्रिया के गतिशक्तिमय आरम्भ तथा आध्यात्मिक जीवन की अपनी समस्त स्वाभाविक क्रिया के केन्द्र की ओर जाने का यत्न करता है । यह मानव-जीवन को स्वीकार करता है, पर साथ ही जड़-पार्थिव जीवन के पीछे हो रहे विशाल अति-पार्थिव व्यापार को भी विचार में लाता है, और जो भागवत सत्ता इन सब खण्डात्मक एवं निम्नतर अवस्थाओं का परम उद्गम है, उसके साथ यह
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अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है, ताकि सारे-के-सारास जीवन अपने दिव्य स्रोत को जान जाये और ज्ञान, संकल्प तथा वेदन की एवं इन्द्रिय और शरीर की प्रत्येक क्रिया में दिव्य प्रवर्तक मूल प्रेरणा को अनुभव करे । लौकिक लक्ष्य के जो-जो सारभूत तत्त्व हैं उनमें से किसी को भी यह त्यागता नहीं, बल्कि उसे विशाल बनाता है, उसका जो महत्तर एवं सत्यतर अर्थ उससे आज छुपा दुआ है उसे ढ़ूंढ़कर जीवन में उतारता है, उसे एक सीमित, पार्थिव एवं मर्त्य वस्तु से असीम, दिव्य और अमर मूल्योंवाली आदर्श वस्तु में रूपान्तरित कर देता है ।
पृर्णयोग धार्मिक आदर्श के साथ कई बातों में साम्य रखता है, पर इस अर्थ में उससे आगे निकल जाता है कि यह उसकी अपेक्षा कहीं अधिक विशाल है । धार्मिक आदर्श केवल इस भूलोक से परे ही दृष्टिपात नहीं करता, बल्कि इससे मुंह मोड़कर किसी स्वर्गपर अथवा यहांतक कि सब स्वर्गों से परे किसी प्रकार के निर्वाणपर भी अपनी दृष्टि गड़ाता है । इसका पूर्णता का आदर्श एक ऐसे आन्तर या बाह्य परिवर्तन तक ही सीमित है जो चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न हो, पर अन्त में आत्मा को मानव-जीवन से परे के लोक की ओर मुड़ने में सहायता पहुंचाये । पूर्णता के विषय में इसका साधारण विचार यह है कि वह धर्म्य-नैतिक परिवर्तन है, क्रियाशील और भाव-प्रधान सत्ता का एक अति प्रभावशाली शोधन है, इसके साथ-साथ प्रायः ही प्राणिक आवेगों के वैराग्यपूर्ण त्याग और निराकरण को उसके उत्कर्ष की पराकाष्ठा समझा जाता है; कम-से-कम, धर्मपरायण और सदाचारमय जीवन के अतिपार्थिव उद्देश्य और पुरस्कार या प्रतिफल को ही वह पूर्णता का स्वरूप मानता है । जहांतक यह ज्ञान, संकल्प और सौन्दर्यवृत्ति के परिवर्तन को स्वीकार भी करता है वहांतक इसका अभिप्राय उन्हें मानव-जीवन के लक्ष्यों से भिन्न किसी अन्य लक्ष्य की ओर मोड़ देना ही होता है और अन्त में इसके परिणामस्वरूप सौन्दर्यवृत्ति, संकल्प-शक्ति और ज्ञान के समस्त पार्थिव लक्ष्यों का परित्याग ही हो जाता है । इसकी पद्धति, चाहे वह वैयक्तिक प्रयत्न पर बल दे या दैवी प्रभाव पर, चाहे कर्म और ज्ञान पर बल दे या भगवत्कृपा पर, लौकिक आदर्श की तरह विकास करने की नहीं, वरंच परिवर्तन करने की पद्धति होती है; पर अन्त में इसका लक्ष्य हमारी मानसिक और भौतिक प्रकृति का परिवर्तन करना नहीं, बल्कि शुद्ध आध्यात्मिक प्रकृति और सत्ता को धारण करना ही होता है, और क्योंकि यह लक्ष्य यहां इस भूतल पर साधित नहीं हो सकता, किसी अन्य लोक में संक्रमण या समस्त जगज्जीवन के त्याग के द्वारा इसकी सिद्धि की आशा करता है ।
परन्तु पूर्णयोग अपना आधार इस धारणा पर रखता है कि आध्यात्मिक सत्ता एक सर्वव्यापक सत्ता है और उसकी पूर्णता, वास्तव में, अन्य लोकों में जाने से या अपनी जागतिक सत्ता का लय कर देने से नहीं प्राप्त होती, बल्कि हम आज अपने दृश्यमान रूप में जो कुछ हैं उसमें से निकलकर उस सर्व-व्यापक सद्वस्तु की चेतना
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में विकसित होने से प्राप्त होती है जो हमारी सत्ता के सारतत्त्व में सदा ही हमारा निज स्वरूप है । धार्मिक भक्ति के बाह्य रूप के स्थान पर वह दिव्य मिलन की पूर्णतर आध्यात्मिक स्पृहा को प्रतिष्ठित करता है । इसमें हम व्यक्तिगत प्रयत्न से साधना का आरम्भ करके भागवत प्रभाव और अधिकार के द्वारा होनेवाले रूपान्तर की ओर अग्रसर होते हैं; परन्तु यह भागवत कृपा--यदि इसे यह नाम दिया जा सकता हो तो-ऊपर सें आनेवाला कोई गुह्य प्रवाह या संस्पर्शमात्र नहीं, बल्कि एक दिव्य उपस्थिति की सर्वव्यापिनी क्रिया है । उस दिव्य उपस्थिति के बारे में हमें अपने भीतर यह ज्ञान प्राप्त होता है कि वह हमारी सत्ता की सर्वोच्च आत्मा और स्वामी की शक्ति है जो हमारी अन्तरात्मा में प्रविष्ट होकर इसे इस प्रकार अपने अधिकार में कर लेती है कि हम उस उपस्थिति को अपने निकट तथा अपनी मर्त्य प्रकृति पर दबाव डालती हुई अनुभव करते हैं, इतना ही नहीं, वरन् हम उसके नियम के अनुसार जीवन यापन करते हैं, उस नियम को जानते होते हैं और उसे अपनी अध्यात्मभावित प्रकृति की सम्पूर्ण शक्ति के रूप में अधिकृत कर लेते हैं । इस शक्ति की क्रिया जिस रूपान्तर को साधित करेगी वह एक सर्वांगीण रूपान्तर होगा जिसके द्वारा हमारी नैतिक सत्ता दिव्य प्रकृति के 'सत्य' और 'ऋत' में, हमारी बौद्धिक सत्ता दिव्य ज्ञान के प्रकाश में, हमारी भाविक सत्ता दिव्य प्रेम और एकत्व में, हमारी क्रियाशील एवं संकल्पात्मक सत्ता दिव्य शक्ति की क्रिया में, हमारी सौन्दर्यरसिक सत्ता दिव्य सौन्दर्य के पूर्ण ग्रहण और सर्जनशील उपभोग में रूपान्तरित हो जायेगी, यह रूपान्तर अन्ततोगत्वा प्राणिक और शारीरिक सत्ता के दिव्य रूपान्तर को भी अपने अन्दर समाविष्ट कर लेगा । यह (पूर्णयोग) समस्त पूर्वजीवन को इस परिवर्तन की दिशा में एक प्रकार का अनैच्छिक एवं अचेतन या अर्द्धचेतन प्राथमिक विकास मानता है और योग को इस परिवर्तन के लिये स्वेच्छापूर्ण एवं चेतन रूप से प्रयत्न करने तथा इसे चरितार्थ करने का एक साधन मानता है जिसके द्वारा अपने समस्त अङ्गोपाङो--सहित मानव जीवन का सम्पूर्ण लक्ष्य, उसका रूपान्तर हो जाने पर भी, चरितार्थ हो जाता है । परे के लोकों में विद्यमान विश्वातीत सत्य और जीवन को अंगीकार करते हुए यह पार्थिव सत्य एवं जीवन को भी उसी एक सत्ता का अविच्छिन्न रूप स्वीकार करता है और इस संसार के वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन के परिवर्तन को उसके दिव्य प्रयोजन का एक स्वर मानता है ।
विश्वातीत भगवान् की ओर अपने-आपको खोलना इस सर्वांगीण पूर्णता की एक आवश्यक शर्त है; विश्वगत भगवान् के साथ अपने-आपको एक करना एक अन्य आवश्यक शर्त है । यहां आत्म-पूर्णता का योग ज्ञान, कर्म और भक्ति के योगों के साथ मिल जाता है; क्योंकि जबतक परम सत्-चित्-आनन्द के साथ मिलन प्राप्त न हो जाय तथा सब पदार्थों और प्राणियों में विद्यमान उसकी विराट् आत्मा के साथ
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एकत्व उपलब्ध न हो जाये तबतक मानवी प्रकृति को दैवी प्रकृति में रूपान्तरित करना अथवा उसे सत्ता के दिव्य ज्ञान, संकल्प और आनन्द का यन्त्र बनाना सम्भव नहीं । मानव व्यक्ति दैवी प्रकृति को एक ऐसी निजी शक्ति के रूप में नहीं प्राप्त कर सकता जो उसे दूसरों से पूर्णतया पृथक् कर दे; हां, यह अलग बात है कि वह इसमें आत्म-समाहित लय अवश्य प्राप्त कर सकता है । परन्तु विराट् आत्मा के साथ उक्त एकत्व कोई ऐसा अन्तरतम आध्यात्मिक एकत्व ही नहीं होना चाहिये, जो व्यक्ति के इस मानवीय जीवन के टिके रहने तक, एक पृथक्कारी मानसिक, प्राणिक, शारीरिक सत्ता के द्वारा सीमित हो; क्योंकि समग्र पूर्णता का अभिप्राय है इस आध्यात्मिक एकत्व के द्वारा उस विराट् मन, विराट् प्राण और विराट् शरीर के साथ भी एकत्व प्राप्त करना जो विराट् पुरुष के अन्य स्थायी रूप हैं । और फिर, क्योंकि मानव-जीवन को तब भी मनुष्य के अन्दर चरितार्थ भगवान् के आत्म-प्राकटय के रूप में स्वीकार किया जायेगा, हमारे जीवन में सम्पूर्ण दैवी प्रक्रति की क्रिया अवश्य घटित होनी चाहिये; और यह बात अतिमानसिक रूपान्तर की आवश्यकता को उत्पन्न कर देती है । यह रूपान्तर स्थूल प्रकृति की अपूर्ण क्रिया का स्थान आध्यात्मिक सत्ता की अपनी स्वाभाविक क्रिया को दे देता है और इसके मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक अंगों को आध्यात्मिक आदर्श के द्वारा अध्यात्ममय बनाकर रूपान्तरित कर देता है । ये तीन तत्त्व अर्थात् परमोच्च भगवान् के साथ मिलन, विश्वात्मा के साथ एकत्व और इस परात्पर उद्गम से तथा इस विश्वात्मभाव के द्वारा, पर व्यक्ति को आत्मिक प्रणालिका तथा प्राकृतिक यन्त्र बनाकर, अतिमानस का हमारे जीवन-व्यापार को संचालित करना मनुष्य की सर्वागीण दिव्य पूर्णता का सार है ।
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