योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १८

 

श्रद्धा और शक्ति

 

अबतक हम अपनी करणात्मक प्रकृति की पूर्णता के जिन तीन अङगों के सामान्य लक्षणों का विवेचन करते आ रहे हैं वे ये हैं--बुद्धि, हृदय, प्राणिक चेतना एवं देह की पूर्णता, मूलभूत आत्मिक शक्तियों की पूर्णता और भगवती शक्ति के प्रति अपने करणों एवं अपने कार्य के समर्पण की पूर्णता । ये तीनों अङ्ग अपनी प्रगति के प्रत्येक पग पर एक चौथी शक्ति पर निर्भर करते हैं जो प्रच्छन्न और प्रकट रूप से समस्त प्रयास और कार्य की धुरी है; वह शक्ति है श्रद्धा । पूर्ण श्रद्धा का अर्थ है हमारी समग्र सत्ता का उस सत्य को स्वीकार करना जिसका उसे साक्षात्कार दुआ है या जो उसकी स्वीकृति के लिये उसके सम्मुख प्रस्तुत किया गया है, और ऐसी श्रद्धा की केन्द्रीय क्रिया है--अस्तित्व रखने, प्राप्त करने और बन जाने के अपने संकल्प में, आत्मा और पदार्थों-विषयक अपने विचार में, तथा अपने ज्ञान में अन्तरात्मा की श्रद्धा । बुद्धि का विश्वास, हृदय की सहमत्रि प्राप्त तथा चरितार्थ करने के लिये प्राणिक मन की कामना इस केन्द्रीय श्रद्धा के बाह्य रूप हैं । यह आत्म-श्रद्धा, अपने किसी-न-किसी रूप में, हमारी सत्ता की क्रिया के लिये अनिवार्य है और इसके बिना मनुष्य अपने जीवन में एक कदम भी नहीं चल सकता, अबतक अप्राप्त पूर्णता की ओर कोई कदम आगे बढ़ाना तो दूर रहा । यह इतनी केन्द्रीय और आवश्यक वस्तु है कि इसके विषय में गीता का यह कहना उचित ही है कि किसी मनुष्य की जो भी श्रद्धा होती है, वही वह होता है, यो यच्छद्ध: स स्व स:, और, इसके साथ यह भी कहा जा सकता है कि जिस वस्तु को अपने अन्दर सम्भव के रूप में देखने और उसके लिये प्रयत्न करने की श्रद्धा उसमें होती है उस वस्तु का वह सर्जन कर सकता है तथा वही बन भी सकता है । एक प्रकार की श्रद्धा वह है जिसकी मांग पूर्णयोग एक अनिवार्य वस्तु के रूप में करता है । उसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-- भगवान् और (भगवती) शक्ति में श्रद्धा, अपने तथा जगत् के अन्दर विद्यमान भगवान् की उपस्थिति और शक्ति में श्रद्धा, यह श्रद्धा कि इस जगत् में जो कुछ भी है वह सब एकमेव भगवती शक्ति की क्रिया है, कि योग के सभी पग, उसके प्रयास और दुःख-कष्ट और विफलताएं तथा उसकी सफलताएं तुष्टियां और विजयें भागवती शक्ति की क्रियाओं के लिये उपयोगी और आवश्यक हैं और यह कि अपने अन्दर अवस्थित भगवान् एवं उनकी शक्ति पर दृढ़ एवं प्रबल निर्भरता तथा उनके प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण के द्वारा ही हम एकता,

स्वतन्त्रता, विजय और पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं ।

 

   श्रद्धा का शत्रु है सन्देह, परन्तु सन्देह की वृत्ति भी उपयोगी और आवश्यक है,

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क्योंकि मनुष्य को अपने अज्ञान में तथा ज्ञान की ओर अपने बढ़ते प्रयास में सन्देह से आक्रान्त होने की आवश्यकता होती है, अन्यथा वह एक अज्ञानयुक्त विश्वास एवं सीमित ज्ञान पर ही आग्रहपूर्वक अड़ा रहेगा और अपनी भूलों से नहीं बच सकेगा । जब हम योग के पथ पर पग रखते हैं तब भी सन्देह की यह उपयोगिता एवं आवश्यकता बिलकुल मिट नहीं जाती । पूर्णयोग का लक्ष्य केवल किसी आधारभूत तत्त्व का ज्ञान नहीं, बल्कि एक ऐसा ज्ञान एवं विज्ञान है जो समस्त जीवन और जगत्कर्म पर अपनेको प्रयुक्त करेगा तथा उसे अपने अन्दर समाविष्ट करेगा, और ज्ञान की इस खोज में हम मार्ग में मन की असंस्कृत क्रियाओं के साथ प्रवेश करते हैं तथा ये कई मीलोंतक, जबतक कि ये एक महत्तर ज्योति के द्वारा शुद्ध और रूपान्तरित नहीं हो जातीं, हमारे साथ-साथ चलती हैं : हम अपने साथ अनेक बौद्धिक विश्वासों और विचारों को लिये फिरते हैं जिनमें से सब-के-सब ही ठीक और पूर्ण नहीं होते और बाद में और भी बहुत-से नये विचार एवं सुझाव हमारे सामने आते हैं जो अपने प्रति हमारी आस्था की मांग करते हैं । परन्तु उनकी सम्भवनीय भ्रान्ति, सीमा या अपूर्णता का विचार किये बिना, जिस आकार में वे आते हैं उसीमें उन्हें लपककर पकड़ लेना और उनके साथ सदा चिपके रहना विनाशकारी होगा । निःसन्देह, योग में एक ऐसी अवस्था आती है जब किसी भी प्रकार के बौद्धिक विचार या मत को, उसका बौद्धिक रूप कोई भी क्यों न हो, निश्चित और अन्तिम मानने से इन्कार कर देना आवश्यक हो जाता है तथा जबतक उसे अतिमानसिक ज्ञान से आलोकित आध्यात्मिक अनुभव में उसका यथार्थ स्थान एवं प्रकाशमय सत्यात्मक रूप नहीं दे दिया जाता तबतक उसे विचाराधीन रूप में स्थगित रखना पड़ता है । प्राणमय मन की कामनाओं या आवेगों के साथ तो और भी अधिक ऐसा व्यवहार करना होगा । उन्हें, पूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त करने से पहले, अस्थायी रूप से आवश्यक कर्म के तात्कालिक चिह्नों के रूप में प्रायः ही कुछ समय के लिये स्वीकार करना पड़ता है, पर उन्हें अन्तरात्मा की पूर्ण स्वीकृति देकर उनके साथ सदा चिपके नहीं रहना चाहिये, क्योंकि अन्त में इन सब कामनाओं और आवेगात्मक प्रेरणाओं का त्याग करना होगा अथवा इन्हें उस दिव्य संकल्प की जो प्राण की चेष्टाओं को अपने हाथ में ले लेता है, प्रेरणाओं में रूपान्तरित करके इनके स्थान पर उन्हींको प्रतिष्ठित करना होगा । हृदय की श्रद्धा की, भावमय अन्तःकरण के विश्वासों तथा स्वीकृतियों की भी मार्ग में आवश्यकता होती है, पर वे सदा अचूक मार्गदर्शक नहीं हो सकते जबतक कि उन्हें भी ऊपर उठाकर तथा शुद्ध करके रूपान्तरित नहीं कर दिया जाता और अन्त में उनका स्थान उस दिव्य आनन्द की, जो दिव्य संकल्प और ज्ञान के साथ एकीभूत है, प्रकाशपूर्ण अनुमतियों को नहीं दे दिया जाता । निम्न प्रकृति की किसी भी चीज में-तर्कबुद्धि से लेकर प्राणिक संकल्पपर्यन्त-योग का साधक पूर्ण और स्थायी श्रद्धा नहीं रख सकता,

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वह तो अन्तत: केवल आध्यात्मिक सत्य, शक्ति और आनन्द में ही श्रद्धा रख सकता है जो आध्यात्मिक बुद्धि में उसके कर्म के एकमात्र मार्गदर्शक, ज्योति:स्तम्भ और नियामक बन जाते हैं ।

 

   तथापि श्रद्धा आदि से अन्ततक तथा प्रत्येक पग पर आवश्यक है क्योंकि यह अन्तरात्मा की एक ऐसी अनुमति है जो अपेक्षित है और इस अनुमति के बिना किसी भी प्रकार की प्रगति नहीं हो सकती । सर्वप्रथम, योग के मूल सत्य और तत्त्वों में हमारी श्रद्धा दृढ़ होनी चाहिये, और चाहे हमारी बुद्धि के अन्दर यह श्रद्धा आच्छन्न हो जाये, हृदय के अन्दर यह निराशा से ग्रस्त हो उठे, कामनामय प्राणिक मन के अन्दर सतत निषेध और विफलता के कारण पूर्णतया क्लान्त और समाप्त हो जाये तो भी हमारी अन्तरतम आत्मा के अन्दर कोई ऐसी चीज अवश्य होनी चाहिये जो इसके साथ चिपकी रहे और इसकी ओर बार-बार लौट आये, अन्यथा हम मार्ग पर पतित हो सकते हैं अथवा दुर्बलतावश एवं अल्पकालिक पराजय, निराशा, कठिनाई और संकट को सहने में असमर्थ होने के कारण मार्ग को त्याग भी सकते हैं । जीवन की भांति योग में भी वही मनुष्य जो प्रत्येक पराजय एवं मोहभंग के सामने तथा समस्त प्रतिरोधपूर्ण, विरोधी ओर निषेधकारी घटनाओं एवं शक्तियों के समक्ष बिना थके-हारे अन्ततक डटा रहता है वही अन्त में विजयी होता है और देखता है कि उसको श्रद्धा सच्ची सिद्ध हुई है क्योंकि मनुष्य में रहनेवाली आत्मा और दिव्य शक्ति के लिये कुछ भी असम्भव नहीं है । सन्देहवादी की शंका जो हमारी आध्यात्मिक संम्भावनाओं की ओर पीठ फेरती है या संकीर्ण, क्षुद्रालोचक एवं सर्जनशून्य बुद्धि, असूया, का सतत छिद्रान्वेषण जो हमारे प्रयत्न का पीछा करके उसमें पंगूकारक अनिश्चितता ले आता है--इन दोनों की अपेक्षा एक अन्ध एवं अज्ञानयुका श्रद्धा भी अधिक अच्छी सम्पदा है । किन्तु पूर्णयोग के साधक को इन दोनों अपूर्णताओं पर विजय पानी होगी । जिस वस्तु को उसने अपनी अनुमति प्रदान की है और जिसे पाने के लिये उसने अपने मन, हृदय और संकल्पशक्ति को लगा दिया है वह अर्थात् सम्पूर्ण मानव-सत्ता की दिव्य पूर्णता सामान्य बुद्धि के लिये स्पष्टत: ही एक असम्भव वस्तु है, क्योंकि वह जीवन के यथार्थ तथ्यों के विरुद्ध है और क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभव चिरकालतक उसका विरोध करता रहेगा, जैसा कि समस्त सुदूर और दु:साध्य लक्ष्यों का हुआ ही करता है । इसके अतिरिक्त, आध्यात्मिक अनुभव रखनेवाले बहुत-से लोग भी उससे इन्कार करते हैं । उनका विश्वास है कि हमारी वर्तमान प्रकृति ही इस शरीर में मनुष्य की एकमात्र सम्भव प्रकृति है और इस पार्थिव जीवन का या यहांतक कि समस्त व्यक्तिगत सत्ता का परित्याग करके ही हम स्वर्गिक पूर्णता या निर्वाण-रूपी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । दिव्य पूर्णता के ऐसे लक्ष्य के अनुसरण में उस अज्ञ पर दृढ़ाग्रही आलोचक बुद्धि के आक्षेपों या छिद्रान्वेषणों, असूया, के लिये

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चिरकालतक प्रचुर अवकाश रहेगा जो अपनी नींव, आपात सत्य रूप में, तात्कालिक प्रतीतियों पर तथा सुनिश्चित तथ्यों और अनुभवों की राशि पर स्थापित करती है, उनसे परे जाने से इन्कार करती है तथा आगे की ओर इंगित करनेवाले सभी संकेतों और प्रकाशों की सत्यता पर सन्देह करती है । और यदि वह इन संकीर्ण सुझावों के आगे झुक गया तो वह या तो अपने लक्ष्य पर पहुंचेगा ही नहीं या उसकी यात्रा में गम्भीर बाधा उपस्थित होगी और उसके पूरे होने में बहुत देर लग जायेगी । दूसरी ओर, श्रद्धा में रहनेवाली अज्ञानता और अन्धता विशाल सफलता में बाधक होती हैं, अत्यधिक निराशा तथा मोहभंग को निमन्त्रित करती हैं, झूठी-मूठी अन्तिम अवस्थाओं के साथ दृढ़तापूर्वक चिपक जाती हैं तथा सत्य और पूर्णता की महत्तर रचनाओं की ओर नहीं बढ़ने देतीं । भागवत शक्ति अपनी क्रियाएं करती हुई अज्ञान और अन्धता के सभी रूपों पर तथा हमारे उन सब भागों पर भी निर्दयतापूर्वक प्रहार करेगी जो उसमें गलत और अन्धश्रद्धालु ढंग से विश्वास रखते हैं । हमें श्रद्धा के रूपों के प्रति अति दुराग्रही आसक्ति का त्याग करने को उद्यत रहना होगा और केवल रक्षाकारी सत्य को ही दृढ़तापूर्वक पकड़ना होगा । एक महान् और विशाल आध्यात्मिक एवं बुद्धियुक्त श्रद्धा है, जो उच्च सम्भावनाओं को अनुमति देनेवाली विशालतर तर्कशक्ति की बुद्धि से बुद्धियुक्त हो, पूर्णयोग के लिये अपेक्षित श्रद्धा का स्वरूप है ।

 

   यह श्रद्धा-अंग्रेजी शब्द 'फेथ' इसके भाव को प्रकट करने में असमर्थ है--वस्तुत: परम आत्मा से प्राप्त प्रभाव का नाम है और इसका प्रकाश हमारी उस अतिमानसिक सत्ता से आनेवाला सन्देश है जो निम्न प्रकृति को अपने क्षुद्र वर्तमान से निकलकर महान् आत्म-अभिव्यक्ति एवं आत्म-अतिक्रमण की ओर उठने के लिये पुकार रही है । और, हमारी सत्ता का जो भाग इस प्रभाव को ग्रहण करता तथा पुकार का प्रत्युत्तर देता है वह उतना बुद्धि, हृदय या प्राणिक मन नहीं है जितना कि हमारी अन्तरात्मा--ऐसी अन्तरात्मा जो अपनी भवितव्यता और दैवी कार्य के सत्य को अधिक अच्छी तरह जानती है । जो परिस्थितियां हमें इस योग-पथ पर प्रथम पग रखने के लिये प्रोत्साहित करती हैं वे उस वस्तु की यथार्थ सूचक नहीं होतीं जो हमारे अन्दर कार्य कर रही होती हैं । बाहरी परिस्थितियों में तो बुद्धि, हृदय या प्राणिक मन की कामनाएं अथवा यहांतक कि अधिक आकस्मिक दुर्घटनाएं एवं बाह्य प्रेरणाएं एक प्रमुख स्थान ले सकती हैं; पर यदि यही सब कुछ हों, तो पुकार के प्रति हमारी निष्ठा का तथा योग में हमारी स्थायी लगन एवं अध्यवसाय का कोई निश्चित भरोसा नहीं हो सकता । बुद्धि उस विचार को, जिसने उसे आकृष्ट किया था, त्याग सकती है, हृदय श्रान्त हो सकता है या हमारा साथ छोड़ सकता है, प्राणमय मन की कामना अन्य लक्ष्यों की ओर मुड़ सकती है । परन्तु बाह्य परिस्थितियां आमा के वास्तविक व्यापारों के लिये एक आवरणमात्र

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होती हैं, और जिसे स्पर्श प्राप्त हुआ है एवं पुकार आयी है वह यदि आत्मा या अन्तरात्मा हो, तो श्रद्धा दृढ़ रहेगी और उसकी पराजय या उच्छेद के लिये जो भी प्रयत्न किये जायेंगे उन सबका प्रतिरोध करेगी । यह नहीं कि बुद्धि के सन्देह आक्रमण नहीं कर सकते, हृदय डगमगा नहीं सकता, प्राणिक मन की हताश कामना चूर होकर पथ के किनारे भूमिसात् नहीं हो सकती । ऐसा होना कभी-कभी, शायद प्रायः ही अनिवार्य-सा है, विशेषकर हम लोगों के साथ, जो बौद्धिकता और सन्देहवाद के युग की सन्तान हैं, ऐसा होना अनिवार्य ही है । यह युग आध्यात्मिक सत्य के एक ऐसे जड़वादीय निषेध का युग है जिसने महत्तर सत्तत्व के सूर्य के मुखपर से अपने रंग-बिरंगे मेघों का पर्दा अभी नहीं उठाया है और जो अभीतक भी आध्यात्मिक अन्तर्ज्ञान एवं अन्तरतम अनुभव की ज्योति के विरुद्ध है । बहुत सम्भवतः, उन कष्टप्रद अन्धकारमय कालों में से बहुत-से हमारे जीवन में आयेंगे जिनके विषय में वैदिक ऋषि भी कितनी ही बार इन शब्दों में शिकायत करते थे कि ये ''प्रकाश से बारम्बार सुदीर्घ निर्वासन'' के काल हैं, और इन कालों में अन्धकार इतना घना हो सकता है, अन्तरात्मा पर छानेवाली रात्रि इतनी काली हो सकती है मानों श्रद्धा हमें बिलकुल ही छोड़कर चली गयी हो । किन्तु इस सब के भीतर हमारी अन्तःस्थ आत्मा अपना अदृष्ट नियन्त्रण बराबर रखती रहेगी और अन्तरात्मा अपने विश्वास पर नयी शक्ति के साथ लौट आयेगी, उस विश्वास पर जिसे केवल ग्रहण लगा था, पर जो बुझा नहीं था, क्योंकि जब एक बार अन्तरात्मा अपने आन्तरिक श्रद्धा-विश्वास को जान चुकती है तथा अपना दृढ़ निश्चय कर लेती है तब वह विश्वास बुझ ही नहीं सकता । भगवान् सब अवस्थाओं के बीच हमारा हाथ पकड़े रखते हैं और यदि ऐसा दिखायी दे कि वे हमें गिरने दे रहे हैं तो यह हमें अधिक ऊंचे उठाने के लिये ही होता है । अन्तरात्मा का अपने श्रद्धा-विश्वास की ओर यह रक्षाकारी प्रत्यावर्तन हमें इतनी अधिक बार अनुभव होगा कि सन्देहमूलक अविश्वासों का उत्पन्न होना अन्त में असम्भव हो जायेगा और, जब एक बार समता की आधारशिला दृढ़तापूर्वक स्थापित हो जायेगी और, इससे भी बढ़कर, जब विज्ञान-चेतना का सूर्य उदित हो जायेगा तब स्वयं सन्देह भी नष्ट हो जायेगा क्योंकि उसका कारण और प्रयोजन समाप्त हों चुके होंगे ।

 

   अपिच, योग के केवल मूल सिद्धान्त में, उसके विचारों और साधन-मार्ग में ही श्रद्धा अपेक्षित नहीं है, बल्कि हमारे अन्दर लक्ष्य को साधित करने की जो शक्ति है, मार्ग पर हमने जो कदम उठाये हैं, हमें जो आध्यात्मिक अनुभव तथा अन्तर्ज्ञान प्राप्त होते हैं, हमारे अन्दर इच्छाशक्ति और मानसिक प्रेरणा की जो मार्गदर्शक गतियां, हृदय की तीव्र द्रवित भावनाएं तथा प्राण की अभीप्साएं एवं चरितार्थताएं होती हैं जो हमारी प्रकृति के विशाल बनने में सहायक साधन-सामग्री, परिस्थितियां

 

        १ संकल्प, व्यवसाय ।

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और अवस्थाएं हैं तथा आत्मा के विकास के प्रेरक या सोपान हैं--उन सबमें दैनन्दिन कामचलाऊ श्रद्धा रखना भी आवश्यक है । इसके साथ ही यह सदा स्मरण रखना होगा कि हम अपूर्णता एवं अज्ञान से ज्योति और पूर्णता की ओर बढ़ रहे हैं, और हमारी श्रद्धा को हमारे प्रयत्न के बाह्य रूपों में तथा हमारी उपलब्धि की क्रमिक अवस्थाओं के प्रति आसक्ति से मुक्त होना चाहिये । इतना ही नहीं कि हममें ऐसा बहुत कुछ है जिसे बाहर फेंकने तथा त्यागने के लिये हमारे अन्दर प्रबल रूप से उभाड़ा जायेगा, अर्थात् अज्ञान और निम्न प्रकृति की शक्तियों तथा उनका स्थान लेनेवाली उच्चतर शक्तियों में एक संग्राम होगा, बल्कि हमारे अन्दर ऐसे अनुभव भी हैं, चिन्तन और वेदन की ऐसी अवस्थाएं तथा उपलब्धि के ऐसे रूप भी हैं जो सहायक होते हैं और जिन्हें मार्ग में स्वीकार करना ही होता है । वे हमें कुछ समय के लिये अन्तिम आध्यात्मिक सत्य प्रतीत हो सकते हैं, पर बाद में संक्रमण के पद ही सिद्ध होते हैं, उन्हें अतिक्रम करना होता है और जो व्यावहारिक श्रद्धा उन्हें आश्रय देती थी उसे उनसे हटा लेना पड़ता है ताकि उसके द्वारा उन अन्य महत्तर वस्तुओं या अधिक पूर्ण एवं व्यापक साक्षात्कारों एवं अनुभवों का समर्थन किया जा सके, जो उनका स्थान ले लेते हैं या जिनके अन्दर, एक पूर्णताकारी रूपान्तर में, उन्हें उन्नीत कर दिया जाता है । पूर्णयोग के साधक के लिये मार्ग के पड़ावों या अधबीच के विश्रामगृहों के प्रति आसक्ति का कोई स्थान नहीं हो सकता; वह तबतक सन्तुष्ट नहीं हो सकता जबतक वह अपनी पूर्णता के सभी महान् और स्थायी आधार स्थापित नहीं कर लेता तथा उसकी विशाल और मुक्त अनन्तताओं को भेदकर उनमें प्रविष्ट नहीं हो जाता, और वहां भी उसे अनन्त के और अधिक अनुभवों से अपने-आपको निरन्तर पूरित करते रहना होता है । उसका विकास एक स्तर से दूसरे स्तर की ओर आरोहणरूप होता है और प्रत्येक नया शिखर, अभी जो और बहुत-सा विकास करना है, भूरि कर्त्वभू, उसके अन्य दृश्य क्षेत्रों को सामने लाता है तथा उसके प्रत्यक्ष अन्तर्दर्शन कराता है, जिससे कि अन्त में भागवती शक्ति उसके समस्त प्रयास को अपने हाथ में ले लेती है और उसे तो केवल अपनी सहमति देनी होती है तथा शक्ति के ज्योतिर्मय कार्यों में सहमतिपूर्ण एकत्व के द्वारा सहर्ष भाग लेना होता है । श्रद्धा-विश्वास के बिना ये परिवर्तन, संघर्ष, प्रयास तथा रूपान्तर उसे निरुत्साहित और निराश कर सकते हैं, -क्योंकि बुद्धि, प्राण और भावावेश सदा बाह्य वस्तुओं का ही अत्यधिक आश्रय पकड़ते हैं, अपरिपक्व निश्चयों के साथ दृढ़तापूर्वक चिपक जाते हैं और जब उन्हें अपने पहले सहारे को छोड़ने के लिये बाध्य किया जाता है तो वे दुःखित हों सकते हैं तथा इसके लिये इच्छुक नहीं होते । इन परिवर्तनों, संघर्षों और रूपान्तरों में जो वस्तु उसे निरन्तर सहारा देगी वह है कार्यरत भागवत शक्ति में दृढ़ श्रद्धा और योगेश्वर भगवान् के मार्गदर्शन पर भरोसा । उस योगेश्वर की प्रज्ञा उतावली नहीं मचाती, और

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मन की समस्त कठिनाइयों में उसके पग सुनिश्चित, न्यायसंगत और युक्तियुक्त होते हैं, क्योंकि वे हमारी प्रकृति की आवश्यकताओं के साथ पूर्ण-बोधयुक्त व्यवहार पर आधारित होते हैं ।

 

   योग की प्रगति का अर्थ है--मानसिक अज्ञान से यात्रा आरम्भ करके अपूर्ण रचनाओं में से होते हुए ज्ञान की पूर्ण आधारशिला और अधिकाधिक वृद्धि की ओर अग्रसर होना और अपने उन भागों में, जो अधिक सन्तोषजनक रूप से भावात्मक होते हैं, इसका अर्थ है ज्योति से महत्तर ज्योति की ओर बढ़ना और यह प्रगति तबतक नहीं रुक सकतीं जबतक हम अतिमानसिक ज्ञान की महत्तम ज्योति नहीं प्राप्त कर लेते । अवश्य ही, विकसित होते हुए मन की गतियां, कम या अधिक मात्रा में, भूलों से निश्चित होंगी और हमें अपनी श्रद्धा को मन की भूलों के ज्ञान के कारण विचलित नहीं होने देना चाहिये, और क्योंकि बुद्धि के जिन विश्वासों ने हमारी सहायता की थी वे अत्यधिक उतावली से भरे हुए और अतीव भावात्मक थे अतः उनके कारण यह कल्पना भी नहीं कर लेनी चाहिये कि आत्मा में रहनेवाली मूलभूत श्रद्धा भी असत्य थी । मानवी बुद्धि को भूल का बहुत ही भय लगता है । इसका कारण ठीक यही है कि वह निश्चितता की अपरिपक्य भावना के प्रति तथा ज्ञान का जितना अंश वह ग्रहण करती प्रतीत होती है उसमें निश्चयात्मक चरमता के लिये अत्यन्त उतावली उत्सुकता के प्रति अतीव आसक्त होती है । जैसे-जैसे हमारा आत्मानुभव बढ़ेगा, हमें पता लगता जायेगा कि हमारी भूलें भी आवश्यक गतियां थीं; वे अपने साथ अपना सत्यमय अंश या संकेत लायी थीं और उसे हमारे लिये छोड़ गयी थीं और उन्होंने ज्ञान की खोज में सहायता पहुंचायी थी या एक आवश्यक प्रयास का पोषण किया था और यह भी कि जिन निश्चयों को हमें अब त्यागना पड़ेगा वे भी हमारे ज्ञान की प्रगति में कुछ समय के लिये सत्य थे । बुद्धि आध्यात्मिक सत्य की खोज और उपलब्धि में पर्याप्त मार्गदर्शक नहीं हो सकती, पर फिर भी हमारी प्रकृति की समग्र गति में उसका उपयोग करना ही होगा । और, इसलिये जहां हमें पंगूकारक संशय या निरे बौद्धिक सन्देहवाद को त्यागना होगा, वहां जिज्ञासाशील बुद्धि को यह सिखाना होगा कि वह एक ऐसे विशेष प्रकार के, व्यापक तर्क-वितर्क अर्थात् बौद्धिक शुद्धता को स्थान दे जो अर्द्ध-सत्यों से, भ्रान्ति के मिश्रणों या निकटतम सत्यों से सन्तुष्ट न हो और, सबसे अधिक भावात्मक एवं सहायक बात यह है कि, वह पहले से अधिकृत और स्वीकृत सत्यों से उन महत्तर, संशोधक, पूरक या परतर सत्यों की ओर अग्रसर होने के लिये सदा पूर्ण रूप से उद्यत रहे जिनका दर्शन करने में वह पहले असमर्थ थी या सम्भवतः उसके लिये इच्छुक ही नहीं थी । बुद्धि की कामचलाऊ श्रद्धा अनिवार्य रूप से आवश्यक है, ऐसी अन्धविश्वासमय, दुराग्रहपूर्ण या संकीर्णताजनक श्रद्धा नहीं जो प्रत्येक अस्थायी आलम्बन या सूत्र के प्रति आसक्त हो, बल्कि शक्ति के क्रमिक संकेतों और

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सोपानों को व्यापक स्वीकृति देनेवाली श्रद्धा, ऐसी श्रद्धा जिसकी दृष्टि वास्तविक सत्यों पर जमी हो, जो लघुतर सत्यों से पूर्णतर सत्यों की ओर आगे बढ़े और समस्त मचान को भूमिसात् करके केवल विशाल और विकसनशील रचना को सुरक्षित रखने के लिये तैयार हो ।

 

   हृदय और प्राण की अटूट श्रद्धा या स्वीकृति भी परमावश्यक है । परन्तु जब हम निम्न प्रकृति में होते हैं तो हृदय की स्वीकृति मानसिक आवेश से रंगी होती है और प्राणिक चेष्टाओं के पीछे विक्षोभकारी या आयासजनक कामनाएं उनके पुछल्ले की तरह लगी रहती हैं, और प्राणिक कामना एवं मानसिक आवेश सत्य को आलोड़ित करने तथा कम या अधिक स्थूल या सूक्ष्म रूप में परिवर्तित या विकृत करने की प्रवृत्ति रखते हैं, और हृदय एवं प्राण के द्वारा उसके साक्षात्कार में वे सदा ही कुछ संकीर्णता या अपूर्णता ले आते हैं । हृदय भी जब अपनी आसक्तियो और विश्वासों में छेड़-छाड़ किये जाने पर अशान्त हों जाता है, पराजयों और विफलताओं के कारण तथा अपनी भ्रान्ति के सम्बन्ध में निश्चय हो जाने के कारण व्याकुल हो उठता है अथवा अपनी सुनिश्चित स्थितियों से आगे की ओर बढ़ने के लिये पुकार आने पर उसे जो संघर्ष करने पड़ते हैं उनमें ग्रस्त हो जाता है, तब उसके अन्दर बारम्बार खींचतान, क्लान्ति, दुःख-शोक, विद्रोह, तथा अनिच्छा के भाव उठते हैं जो प्रगति में बाधा डालते हैं । उसे एक अधिक विशाल एवं सुनिश्चित श्रद्धा का अभ्यास करना होगा जो भागवत शक्ति की प्रणालियों एवं सोपानों के प्रति मानसिक प्रतिक्रियाएं करने के स्थान पर उन्हें शान्त या भाव-स्निग्ध आध्यात्मिक स्वीकृति प्रदान करे । उस स्वीकृति का स्वरूप यह होता है कि एक अधिकाधिक गभीर आनन्द सब आवश्यक क्रियाओं को सहमति प्रदान करता है और हृदय अपने पुराने लंगरों को त्याग कर एक महत्तर पूर्णता के आनन्द की ओर सदा आगे बढ़ने के लिये तैयार रहता है। प्राणिक मन को प्राण के उन क्रमिक उद्देश्यों, आवेगों और कार्यों को अपनी स्वीकृति देनी होगी जिन्हें मार्गदर्शक शक्ति हमारी प्रकृति के विकास के साधनों या क्षेत्रों के रूप में उसके ऊपर थोपती है, साथ ही उसे आन्तरिक योग की क्रमिक अवस्थाओं को भी अपनी अनुमति प्रदान करनी होगी, पर उसे किसी भी अवस्था के प्रति आसक्त नहीं होना होगा, न कहीं रुकना ही होगा, बल्कि पुराने आवश्यक उद्देश्य एवं कार्य का त्याग करके नयी उच्चतर गतियों और क्रियाओं को उतनी ही पूर्ण अनुमति के साथ स्वीकार करने के लिये सदा उद्यत रहना होगा और उसे कामना के स्थान पर समस्त अनुभव और कर्म में विशाल और प्रोज्जल आनन्द को प्रतिष्ठित करना सीखना होगा । बुद्धि की श्रद्धा के समान हृदय और प्राणिक मन की श्रद्धा को भी एक सतत सुधार, विस्तार और रूपान्तर के योग्य होना चाहिये ।

   यह श्रद्धा मूलत: अन्तरात्मा की निगूढ़ श्रद्धा है, और इसे उत्तरोत्तर उपरितल पर

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लाकर वहां आध्यात्मिक अनुभव की अधिकाधिक विश्वस्तता और निश्चितता के द्वारा तृप्त, धारित और वर्द्धित किया जाता है । यहां भी हमारी श्रद्धा निर्लिप्त होनी चाहिये, एक ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये जो सत्य के द्वार पर प्रतीक्षा करे और आध्यात्मिक अनुभवों-सम्बन्धी अपनी समझ को बदलने और विशाल बनाने के लिये, उनके विषय मे अपने प्रान्त या अर्द्ध-सत्य विचारों को संशोधित करने, अधिक प्रकाशप्रद बोधों को ग्रहण करने एवं अपूर्ण अन्तर्ज्ञानों के स्थान पर अधिक पूर्ण अन्तर्ज्ञानों को प्रतिष्ठित करने के लिये तैयार रहे, साथ ही जो अनुभव अपने समय मे अन्तिम तथा सन्तोषकारक प्रतीत होते थे उनका समन्वय नये अनुभव तथा महत्तर विशालताओं एवं परात्परताओं के साथ करके उन अधिक तृप्तिकारी समन्वित अनुभवों मे उन्हें निमज्जित करने के लिये भी उद्यत रहे । और विशेषकर मानसिक तथा अन्य मध्यवर्ती प्रदेशों मे असत्प्रेरक एवं प्रायः ही मोहक भ्रान्ति की सम्भावना के लिये बहुत अधिक अवकाश रहता है, और यहां भी कुछ मात्रा मे भावात्मक सन्देहवाद उपयोगी होता है और, चाहे जो हो, अत्यधिक सावधानता एवं सूक्ष्म-बौद्धिक यथार्थता की जरूरत तो होती है, पर हां, साधारण मन का वह सन्देहवाद उचित नहीं जिसका अर्थ केवल अक्षमताजनक निषेध ही होता है । पूर्णयोग मे चैत्य अनुभव को, विशेषत: उस प्रकार के अनुभव को, जो प्रायः गुह्यवाद नामक विद्या से तथा 'चामत्कारिक' के आस्वादों से सम्बद्ध होता है, आध्यात्मिक सत्य के पूर्णतया अधीन रखना चाहिये तथा उसे समझने के लिये,सके बारे मे प्रकाश और अनुमति पाने के लिये हमें सत्य के द्वार पर प्रतीक्षा करनी चाहियें । परन्तु शुद्ध आध्यात्मिक क्षेत्र मे भी कुछ ऐसे अनुभव हैं जो आशिक हैं । वे कितने ही आकर्षक होने पर भी अपनी पूर्ण प्रामाणिकता और महत्ता तभी प्राप्त करते हैं अथवा उनका ठीक प्रयोग भी तभी होता है जब हम एक पूर्णतर अनुभव की ओर बढ़ने मे समर्थ होते हैं । और कुछ अन्य ऐसे अनुभव भी हैं जो अपने-आपमें सर्वथा सत्य, पूर्ण और निरपेक्ष हैं, पर यदि हम अपने-आपको उनतक सीमित रखें तो वे आध्यात्मिक सत्य के दूसरे पहलुओं को प्रकट नहीं होने देंगे और योग की समग्रता के कुछ अंगों को क्षति पहुंचायेंगे । इस प्रकार अवैयक्तिक शान्ति की गहरी और तन्मयकारक निश्चलता, जो मन को शान्त करने से प्राप्त होती है, अपने-आपमें एक पूर्ण और निरपेक्ष वस्तु है, पर यदि हम उसीपर रुक जायें तो वह अपने सहचारी निरपेक्ष तत्त्व को अर्थात् दिव्य कर्म के आनन्द को बहिष्कृत कर देगी जो उतना ही महान्, आवश्यक और सत्य है, कम नहीं । यहां भी हमारी श्रद्धा एक ऐसी स्वीकृति होनी चाहिये जो समस्त आध्यात्मिक अनुभव को ग्रहण करे, पर सदा ही अधिकाधिक ज्योति और सत्य के लिये विशाल भाव से उन्मुक्त और उद्यत रहे, संकीर्णताजनक आसक्ति से रहित हो तथा बाह्य रूपों के प्रति ऐसा लगाव न रखे जो आध्यात्मिक सत्ता, चेतना, ज्ञान, शक्ति एवं कर्म क

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समग्रता की ओर तथा एक एवं बहुविध आनन्द की सम्पूर्णता की ओर भागवत शक्ति की प्रगति मे हस्तक्षेप करे ।

 

    एक सामान्य सिद्धान्त तथा उसका सतत एवं विशिष्ट प्रयोग--इन दोनों रूपों मे जिस श्रद्धा की मांग हमसे की जाती है उसका अर्थ है ईश्वर और शक्ति के सान्निध्य एवं मार्गदर्शन के प्रति हमारी सारी सत्ता और उसके सभी अंगों की एक विशाल एवं सदा-वृद्धिशील तथा सतत शुद्धतर, पूर्णतर एवं प्रबलतर अनुमति । जबतक हम शक्ति की उपस्थिति से सचेतन और ओतप्रोत नहीं हो जाते तबतक उसमें श्रद्धा के पूर्व या कम-से-कम उसके साथ-साथ हमारे अन्दर अपनी आध्यात्मिक संकल्पशक्ति और ऊर्जा में तथा एकता, स्वतन्त्रता एवं पूर्णता की ओर सफलतापूर्वक बढ़ने की अपनी शक्ति मे सुदृ और सतेज श्रद्धा अवश्य होनी चाहिये । मनुष्य को अपनी सत्ता और अपने विचारों मे तथा अपनी शक्तियों में श्रद्धा इसलिये दी गयी है कि वह महत्तर आदर्शों के लिये कार्य करके उनका सृजन करे तथा उनकी ओर ऊपर उठे और अन्त मे अपनी शक्ति परम आत्मा की वेदी पर एक योग्य आहुति के रूप मे प्रस्तुत करे । उपनिषद् मे कहा गया है कि यह आत्मा दुर्बल के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती, नायमात्मा बलहीनेन लभ्य: । पंगु बनानेवाले समस्त आत्म-अविश्वास को, कार्यसिद्धि के बारे मे अपनी शक्ति के समस्त सन्देह को निरुत्साहित करना होगा, क्योकि उसका अर्थ हैं अक्षमता को गलत स्वीकृति देना, अपने अन्दर दुर्बलता की कल्पना करना और आत्मा की सर्वशक्तिमत्ता से इन्कार करना । वर्तमान अक्षमता हम पर कितना ही भारी दबाव क्यों न डालती प्रतीत हो, फिर भी वह श्रद्धा की एक परीक्षा तथा एक अस्थायी कठिनाईमात्र है, और असमर्थता की भावना के आगे घुटने टेकना पूर्णयोग के साधक के लिये एक मूर्खतापूर्ण बात है, क्योकि उसका लक्ष्य एक ऐसी पूर्णता को विकसित करना है जो पहले से ही विद्यमान है, सत्ता के अन्दर प्रसुप्त रूप मे उपस्थित है, क्योकि मनुष्य दिव्य जीवन का बीज अपने अन्दर, अपनी आत्मा मे धारण किये हुए है, सफलता की सम्भावना भी उसके पुरुषार्थ मेस्यूत एवं अन्तर्निहित है और विजय सुनिश्चित है, क्योकि उसके प्रयत्न के पीछे एक सर्वसमर्थ शक्ति की पुकार एवं मार्गदर्शन विद्यमान है । पर इसके साथ ही इस आत्मश्रद्धा को राजसिक अहंकार और आध्यात्मिक गर्व के समस्त स्पर्श से मुक्त एवं शुद्ध करना होगा । साधक को अपने मन मे यावत्सम्भव यह विचार रखना होगा कि उसकी सामर्थ्य अहंकारमय अर्थ मे उसकी अपनी नहीं है, बल्कि वह विराट् भागवत शक्ति की है और उसके द्वारा इसके प्रयोग मे जो भी अहंकारमय भाव होता है वह अवश्य ही संकीर्णता का कारण होता है और अन्त मे बाधक बनता है । विराट् भागवत शक्ति की जो सामर्थ्य हमारी अभीप्सा के पीछे विद्यमान है उसकी कोई सीमा नहीं, और जब उसका ठीक प्रकार से आवाहन किया जाता है तो वह अभ

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या बाद मे हमारे अन्दर अपने को प्रवाहित करने तथा हर प्रकार की अक्षमता और बाधा को दूर करने से चूक नहीं सकतीं; क्योकि हमारे संघर्ष के काल और अन्तराल यद्यपि सर्वप्रथम, एक साधन के रूप मे तथा अंशतः, हमारी श्रद्धा और पुरुषार्थ की शक्ति पर निर्भर करते हैं तथापि अन्ततः वे उस निगूपरम आत्मा के हाथों मे ही हैं जो सब वस्तुओं का ज्ञानपूर्वक निर्धारण करता है और जो अकेला ही हमारे योग का स्वामी, ईश्वर, है

 

   भागवत शक्ति मे श्रद्धा हमारी सामर्थ्य के पीछे सदा ह रहनी चाहिये और जब शक्ति प्रकट हो जाये तो श्रद्धा असंदिग्ध और पूर्ण होनी या बन जानी चाहिये । ऐसी कोई चीज नहीं जो उसके लिये असम्भव हो क्योकि वह एक चिन्मय शक्ति तथा विराट् भगवती है जो सनातन काल से सबका सृजन करनेवाली जननी है तथा परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता से सुसम्पन्न है । सम्पूर्ण ज्ञान, समस्त शक्तियां, समस्त सफलता और विजय, समस्त कौशल और कर्म-कलाप उसीके हाथों मे हैं और वे परम आत्मा के ऐश्वर्यों तथा समस्त पूर्णताओं एवं सिद्धियों से परिपूर्ण हैं । वह महेश्वरी अर्थात् परम ज्ञान की देवी है, और सब प्रकार के सत्यों के लिये तथा सत्य के सभी विशाल रूपों के लिये अपनी अन्तर्दृष्टि हमें प्राप्त कराती है, हमारे अन्दर अपनी आध्यात्मिक संकल्प--सम्बन्धी यथार्थता, अपनी अतिमानसिक विशालता की शान्ति और सम्वेगशीलता तथा अपना ज्योतिर्मय आनन्द लाती है : वह महाकाली अर्थात् परम शक्ति की देवी है, और समस्त शक्तियां, आत्म-बल, तपस् की उग्रतम कठोरता, संग्राम का वेग, विजय और अट्टहास्य उसीके अन्दर विद्यमान हैं, अट्टहास्य ऐसा कि जो पराजय और मृत्यु को तथा अज्ञान की शक्तियों को तृणवत् समझता है : वह महालक्ष्मी है, परम प्रेम और आनन्द की देवी है, और उसकी देनें हैं--आत्मा की सुषमा, आनन्द की मोहकता और सुन्दरता, अभयदान और प्रत्येक प्रकार का दैवी एवं मानवीय वरदान : वह महासरस्वती है, दिव्य कौशल की तथा परम आत्मा के सब कार्यों की अधिष्ठात्री देवी है, और जिस योग को कर्म-कौशल, योग: कर्मसु कौशलम् कहा जाता है वह महासरस्वती का ही है, इसी प्रकार दिव्य ज्ञान के नाना उपयोग, आत्मा का अपने-आपको जीवन के क्षेत्र मे प्रयुक्त करना और उसकी समस्वरताओं का आनन्द महासरस्वती के ही गुण और कार्य हैं । अपनी सभी शक्तियों और अपने सभी रूपों मे वह सनातन ईश्वरी के प्रभुत्वों की परमोच्च भावना को अपने संग रखती है; साथ ही, किसी यन्त्र से जिन कार्यों की मांग की जा सकती है उन सब प्रकार के कार्यों के लिये तीव्र और दिव्य सामर्थ्य, सर्वभूतों की सभी शक्तियों के साथ एकता, सहानुभूति एवं सुखदु:खसहभागिता, मुक्त तदात्मता, और अतएव विश्व मे कार्य कर रहे समस्त दिव्य संकल्प के साथ स्वयंस्कूर्त एवं फलप्रद सामञ्जस्य--इन सब गुणों को भी वह अपने संग रखती है । उसके सान्निध्य और उसकी शक्तियों का घनिष्ठ अनुभव, और हमारे भीतर और

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चारों ओर उसकी जो क्रियाएं हों रही हैं उनके प्रति हमारी सम्पूर्ण सत्ता की सन्तुष्ट स्वीकृति--यह भागवत शक्ति मे श्रद्धा की चरम पूर्णता है

 

    और उसके पीछे ईश्वर है, उसमें विश्वास पूर्णयोग की श्रद्धा का सबसे प्रधान अंग है । हमें अपने अन्दर यह श्रद्धा धारण और पूर्णतया विकसित करनी चाहिये कि यहां का सभी कुछ परम आत्मज्ञान और प्रज्ञा की उन क्रियाओं का परिणाम है जो विश्व की विराट् परिस्थितियों मे घटित होती हैं, हमारे अन्दर या चारों ओर जो कुछ भी होता है उसमें ऐसा कुछ भी नहीं जो व्यर्थ हो या जिसका अपना नियत स्थान एवं समुचित अर्थ न हों, जब ईश्वर हमारे परमोच्च 'पुरुष' एवं आत्मा के रूप मे हमारे कार्य को अपने हाथ मे ले लेते हैं तब सभी कुछ सम्भव हों जाता है और जो कुछ वे पहले कर चुके हैं तथा जो कुछ वे भविष्य मे करेंगे वह सब उनके निर्भ्रान्त एवं पूर्वदर्शी मार्गनिदेंश का अङ्ग था और होगा, साथ ही वह हमारे योग की सफलता, हमारी पूर्णता एवं हमारे जीवन-कार्य के लिये भी अभिप्रेत था और होगा । जैसे-जैसे उच्चतर ज्ञान का द्वार खुलेगा यह श्रद्धा अधिकाधिक सार्थक सिद्ध होती जायेगी, जो बड़े एवं छोटे मर्म हमारे संकुचित मन की दृष्टि से परे थे उन्हें हम अब देखने लगेंगे और तब श्रद्धा ज्ञान मे परिणत हो जायेगी । तब हम सन्देह की जरा-सी भी सम्भावना के बिना यह देखेंगे कि सभी कुछ एक ही संकल्पशक्ति की क्रिया के अन्तर्गत घटित होता है और वह संकल्पशक्ति प्रज्ञा भी है क्योकि वह जीवन मे सदा ही आत्मा और प्रकृति की सच्ची क्रियाओं को विकसित करती है । जब हम ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करेंगे और अपनी सम्पूर्ण सत्ता एवं चेतना को एवं अपने समस्त चिन्तन, संकल्प और कर्म को उन्हींके हाथ मे अनुभव करेंगे तथा सभी वस्तुओं मे एवं अपनी आत्मा और प्रकृति के प्रत्येक करण के द्वारा परमात्मा की प्रत्यक्ष, अन्तर्यामी और प्रभुत्वशालिनी संकल्पशक्ति को अनुमति प्रदान करेंगे तब वह हमारी सत्ता की स्वीकृति अर्थात् श्रद्धा की पराकाष्ठा होगी । और श्रद्धा की वह सर्वोच्च पूर्णता दिव्य शक्ति के लिये एक अवसर एवं पूर्ण आधार का भी काम करेगी : पूर्णता प्राप्त कर लेने पर वह ज्योतिर्मय अतिमानिसक शक्ति के विकास, आविर्भाव और कार्य-कलाप का आधार बनेगी ।

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