Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ६
शुद्धि
निम्नतर मन की शुद्धि
हमें इन सब करणों की जटिल क्रिया पर विचार करके इनकी शुद्धि आरम्भ करनी होगी । और इसका सबसे सरल उपाय यह होगा कि हम प्रत्येक करण में विद्यमान दो प्रकार के मौलिक दोषों पर अपनी दृष्टि एकाग्र कर और उनका मूल स्वरूप स्पष्ट रूप में समझकर उन्हें सुधारे । परन्तु एक प्रश्न यह भी है कि हम आरम्भ कहां से करें । क्योंकि, हमारे करण एक-दुसरे के साथ अत्यधिक उलझे हुए हैं तथा किसी एक करण की पूर्ण शुद्धि अन्य सब करणों की पूर्ण शुद्धि पर भी निर्भर करती है, और यह कठिनाई, निराशा तथा परेशानी का एक बड़ा कारण है, --उदाहरणार्थ, जब हम समझते हैं कि हमने बुद्धि को शुद्ध कर लिया है, तब हम यही पाते हैं कि यह अभी भी अशुद्धताओं से आक्रान्त तथा आच्छन्न हो जाती है, क्योंकि हृदय के भावावेश और संकल्पशक्ति तथा सम्वेदनात्मक मन अभी भी निम्न प्रकृति की अनेक अशुद्धताओं से प्रभावित हो जाते हैं तथा वे अशुद्धियां आलोकित बूद्धि में पुन: घुस जाती हैं और हम जिस शुद्ध सत्य की खोज कर रहे हैं उसका प्रतिबिम्ब इसे ग्रहण नहीं करने देतीं । पर, दूसरी ओर, इस अवस्था का लाभ यह होता है कि जब एक महत्त्वपूर्ण करण पर्याप्त शुद्ध हो जाता है तो उसका उपयोग दूसरे करणों की शुद्धि के साधन के रूप में किया जा सकता है, यदि एक पग दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ा लिया जाये तो उससे अन्य सब पगों का उठाना अधिक आसान हो जाता है तथा अनेकों कठिनाइयों से भी छुटकारा प्राप्त हो जाता है । तो फिर वह कौन-सा करण है जो अपनी शुद्धि और पूर्णता के द्वारा शेष करणों की पूर्णता को अत्यन्त सुगम एवं प्रभावशाली रूप में साधित कर सकता है अथवा अत्यन्त प्रबल वेग के साथ इसमें सहायता पहुंचा सकता है ?
क्योंकि हम मन के कोष में आवृत आत्मा हैं, एक ऐसी अन्तरात्मा हैं जो यहां प्राणयुक्त स्थूल शरीर में मनोमय पुरुष के रूप में विकसित हुई है, अतएव हमें इस परम वांछनीय करण की खोज स्वभावतया अपने अन्तःकरण में ही करनी होगी । और अन्तःकरण में भी, स्पष्टत: ही, मनुष्य के लिये यह अभिमत है कि उसे वह सब कार्य बुद्धि एवं उसके संकल्प के द्वारा ही करना चाहिये जिसे भौतिक या स्नायविक प्रकृति उसके लिये नहीं करती, जैसा कि वह वनस्पति और पशु में करती है । जबतक किसी उच्चतर अतिमानसिक शक्ति का विकास नहीं हो जाता तबतक बुद्धिमूलक संकल्प ही हमारी कार्यसिद्धि के लिये मुख्य साधनबल है और
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अतएव, इसे शुद्ध करना हमारा अत्यन्त प्रमुख रूप से आवश्यक कार्य हो जाता है । एक बार जब हमारी बुद्धि और संकल्पशक्ति उन सब चीजों से मुक्त होकर भली-भांति शुद्ध हो जाती हैं जो उन्हें सीमित करके उनसे अशुद्ध क्रिया कराती हैं या उन्हें अशुद्ध दिशा प्रदान करती हैं तब उन्हें सुगमता से पूर्ण बनाया जा सकता है, साथ ही उन्हें इस योग्य भी बनाया जा सकता है कि वे सत्य के सुझावों का प्रत्युत्तर दे सकें, अपने-आपको तथा शेष सारी सत्ता को समझ सकें, जो कार्य वे कर रहे हों उसे स्पष्ट रूप से तथा सूक्ष्म एवं विवेकपूर्ण यथार्थता के साथ देख सकें और द्विविधा या आतुरता से युक्त किसी भ्रान्ति या किसी स्थलनशील विच्युति के बिना उस कार्य को करने के ठीक मार्ग का अनुसरण कर सकें । अन्त में उनकी प्रतिक्रिया को अतिमानस की पूर्ण विवेक-दृष्टियों तथा उसके अन्तर्ज्ञानों, अन्त:--प्रेरणाओं और सत्यदर्शनों की ओर खोला जा सकता है, तथा उसका विकास एक अधिकाधिक प्रकाशमय और यहांतक कि निर्भ्रान्त क्रिया के द्वारा साधित हो सकता है । परन्तु अन्तःकरण के अन्य निम्नतर भागों में शुद्धिसम्बन्धी जो प्राकृतिक बाधाएं हैं उन्हें आरम्भिक रूप से दूर किये बिना बुद्धिप्रधान संकल्प की शुद्धि साधित नहीं की जा सकती, और अन्तःकरण की सम्पूर्ण क्रिया में अर्थात् इन्द्रिय-बोध, मानसिक सम्वेदन, भावावेश, क्रियाशील आवेग, बुद्धि और संकल्प में रहनेवाली मुख्य प्राकृतिक बाधा सूक्ष्म प्राण का मिश्रण तथा उसकी प्रबल मांग है । अतएव इस प्राण से निपटना होगा, इसके प्रबल मिश्रण को बहिष्कृत करके इसकी मांग का निषेध करना होगा तथा इसे शान्त करके शुद्धि के लिये तैयार करना होगा ।
यह कहा ही जा चुका है कि प्रत्येक करण की अपनी एक विशेष और उचित क्रिया होती है और साथ ही उसकी विशेष क्रिया का एक विकृत रूप एवै अशुद्ध सिद्धान्त भी होता है । सूक्ष्म प्राण की अपनी विशेष क्रिया है शुद्ध प्राप्ति और भोग । यह प्राण जिस क्रिया के लिये हमें सूक्ष्म भौतिक आधार प्रदान करता है वह है--विचार, संकल्प, कर्म और क्रियाशील आवेग का एवं कर्म के परिणाम, भावावेश, इन्द्रियबोध और सम्वेदन का उपभोग करना तथा इनकी सहायता से पदार्थों और व्यक्तियों एवं जीवन और जगत् का भी उपभोग करना । जगत् का वस्तुत: पूर्ण उपभोग हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब हम स्वयं जगत् का या जगत् के लिये जगत् का उपभोग करने के स्थान पर उसमें विद्यमान ईश्वर का उपभोग करें, जब स्थूल पदार्थ नहीं, बल्कि उनमें विद्यमान आत्मा का आनन्द ही हमारे उपभोग का वास्तविक एवं मूल विषय होता है और जब पदार्थ तो केवल आत्मा का ही एक रूप एवं प्रतीक किंवा आनन्द के सागर की लहरें मात्र होते हैं । परन्तु इस आनन्द की प्राप्ति भी तभी हो सकती है जब हम गुप्त आध्यात्मिक सत्ता को उपलब्ध करके अपने अङ्गों में प्रतिबिम्बित कर सकें, और इसे पूर्ण रूप में तभी प्राप्त किया जा सकता है जब हम अतिमानसिक क्षेत्रों में आरोहण सम्पन्न कर लें ।
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इस बीच में इन वस्तुओं का यथोचित, स्वीकार्य एवं सर्वथा वैध मानवीय उपभोग किया जा सकता है; भारतीय मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो यह उपभोग प्रधानतया सात्त्विक ढंग का होता है । यह एक प्रकार का आलोकित उपभोग होता है जो मुख्य रूप से तो बोधग्राही, सौन्दर्यरसिक एवं भावप्रधान मन के द्वारा और केवल गौण रूप से ही सम्वेदनात्मक, स्नायविक एवं भौतिक सत्ता के द्वारा प्राप्त किया जाता है । पर यह सब भोग बुद्धि के स्पष्ट शासन के वश में होता है, अर्थात् यह यथार्थ बुद्धि, यथार्थ संकल्प, जीवन के आघातों के यथार्थ ग्रहण, यथार्थ व्यवस्था, सत्य के यथार्थ वेदन तथा वस्तुओं के नियम, आदर्श अर्थ, सौन्दर्य और उपयोग के अधीन होता है । मन उनके उपभोग का शुद्ध रस ले लेता है और जो कुछ भी अव्यवस्थित, विक्षुब्ध एवं विकृत है उसका त्याग कर देता है । स्वच्छ और निर्मल रस को मन जो इस प्रकार ग्रहण करता है उसमें सूक्ष्म प्राण को 'जीवन का पूर्ण सम्वेदन' तथा 'समग्र सत्ता द्वारा तन्मयकारी भोग', इन तत्त्वों का सञ्चार करना होगा; इन तत्त्वों के बिना मन का रस-ग्रहण एवं उसकी प्राप्ति पर्याप्त मूर्त्त नहीं होगी, वह इतनी सूक्ष्म होगी कि देहधारी आत्मा को पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं कर सकेगी । भोग में इस प्रकार का योगदान करना ही इसका अपना विशेष कार्य है ।
जो विकृति भोग की क्रिया में घुसकर उसकी शुद्धता में बाधा डालती है वह एक प्रकार की प्राणिक वासना है; सूक्ष्म प्राण हमारी सत्ता में जो सबसे बड़ी विकृति लाता है वह कामना है । कामना का मूल, जिस वस्तु का हम अभाव अनुभव करते हैं उसे अधिकृत करने की प्राणिक वासना है, कामना का मतलब है प्राप्ति और तुष्टि के लिये हमारे सीमित प्राण की सहज प्रवृत्ति । यह अभाव की भावना को जन्म देती है, --पहले तो भूख, प्यास, कामवासना-रूपी अधिक सीधी-सादी प्राणिक लालसा को और फिर मन की इन सूक्ष्म-प्राणिक क्षुधाओं, तृषाओं और कामवृत्तियों को जन्म देती है; ये सूक्ष्म सुधाएं आदि हमारी सत्ता को कहीं अधिक वेदना पहुंचाती हैं जो तुरन्त प्रतिकार की मांग करती हैं तथा सारी सत्ता में फैल जाती हैं; कामना से उत्पन्न यह क्षुधा अनन्त होती है, क्योंकि यह एक अनन्त सत्ता की सुधा होतीं है, यह तृषा भी तृप्ति के द्वारा केवल कुछ समय के लिये ही शान्त हो सकती है, पर अपने स्वभाव में दुष्पूर ही होती है । सूक्ष्म प्राण सम्वेदनात्मक मन पर आक्रमण करके उसमें सम्वेदनों की अशान्त तृषा जगा देता है, क्रियाशील मन को यह प्रभुत्व, स्वत्व, आधिपत्य एवं सफलता के लोभ से तथा प्रत्येक आवेग की परिपूर्ति की कामना से आक्रान्त करता है, भावप्रधान मन को रुचि और अरुचि तथा राग और द्वेष के भावों को तृप्त करने की कामना से परिपूरित कर देता है, भयजनित जुगुप्साओं और आतंकों तथा आशाजनित आयासों और निराशाओं को जन्म देता है, शोक की यन्त्रणाओं तथा हर्ष के क्षणस्थायी ज्वरों एवं उसकी उत्तेजनाओं को हमपर लादता है, बुद्धि और उसके संकल्प को इन सब चीजों के
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सहायक बनाकर उन्हींके ढंग के विकृत एवं पंगु यन्त्रों में परिणत कर देता है, अर्थात् संकल्प को वासना के संकल्प में तथा बुद्धि को सीमित, अधीर और कलहरत पूर्वनिर्णय एवं सम्मति के पक्षपाती, स्थलनशील और उत्सुक अनुयायी में बदल डालता हे । कामना समस्त दुःख, निराशा और वेदना की जड़ है कारण, यद्यपि इसमें विषयों के पीछे दौड़ने तथा उनसे तुष्टि प्राप्त करने का उत्तेजनात्मक हर्ष होता है, पर, क्योंकि यह सदा ही सत्ता पर तनाव डालती है, यह अपनी दौड़-धूप तथा प्राप्ति में श्रम, क्षुधा और संघर्ष को साथ लिये फिरती है, --शीघ्र थक जाती है, परिमितता अनुभव करती है, अपनी सभी प्राप्तियों से असन्तुष्ट होकर शीघ्र ही निराश हो जाती है, सतत और अस्वाभाविक उत्तेजना, क्लेश एवं अशान्ति को अनुभव करती है । कामना से मुक्त होना सूक्ष्म प्राण की एकमात्र स्थिर और अनिवार्य शुद्धि है, -क्योंकि इस प्रकार ही हम कामनामय आत्मा को और अपने सभी करणों में उसके व्यापक मिश्रण को दूर करके उसके स्थान पर शान्त आनन्द से युक्त मनोमय पुरुष को और अपनी सत्ता तथा जगत् एवं प्रकृति के ऊपर उसके निर्मल और विशुद्ध प्रभुत्व को स्थापित कर सकते हैं; यह मनोमय पुरुष एवं इसका यह प्रभुत्व ही मानसिक जीवन और उसकी पूर्णता का स्फटिकोपम शुभ्र आधार है ।
सूक्ष्म प्राण सभी उच्चतर क्रियाओं में हस्तक्षेप करके उन्हें विकृत कर देता है, पर स्वयं उसके इस दोष का कारण यह है कि विश्वप्राण ने जड़तत्त्व में से प्रकट होते समय शरीर में जिन भौतिक करणों को विकसित किया है उनकी प्रकृति सूक्ष्म प्राण में हस्तक्षेप करके उसे विकृत कर डालती है । इसीने शरीर में विद्यमान व्यक्तिगत प्राण को विश्व के प्राण से पृथक् कर दिया है और उसपर अभाव, परिमितता, क्षुधा, तृषा, अप्राप्त वस्तु की लालसा, भोग की चिर अन्धवत् खोज एवं प्राप्ति की बाधापूर्ण और दुष्पूर आवश्यकता के स्वभाव की छाप लगा दी हैं । वस्तुओं की निरी भौतिक व्यवस्था में सुगमता से नियन्त्रित और सीमित होती हुई यह सूक्ष्म प्राण में अपने-आपको अमित रूप से विस्तृत करती है और जैसे-जैसे मन विकसित होता है एक ऐसी वस्तु बन जाती है जो कठिनता से हीं मर्यादित होनेवाली, दुष्पूर और अनियमित होती है तथा अव्यवस्था और व्याधि को उत्पन्न करने में लगी रहती है । अपिच, सूक्ष्म प्राण स्थूल जीवन के ऊपर आधार रखता है, स्थूल शरीर की स्नायविक शक्ति के द्वारा सीमित हो जाता है, उसके द्वारा मन की क्रियाओं को भी सीमित कर देता है और शरीर तथा इस (मन) के बीच एक ऐसी कड़ी का काम करता है कि यह भी शरीर पर निर्भर रहने लगता है, थकान, अक्षमता, व्याधि, अव्यवस्था, उन्मत्तता, क्षुद्रता और अनिश्चितता के वश में हो जाता है, और यहांतक कि स्थूल मन की क्रियाओं के सम्भवनीय विलय का कारण बनता है । परिणामत:, हमारा मन अपनी ही सामर्थ्य से युक्त एक शक्तिशाली करण, चेतन आत्मा का एक स्पष्ट यन्त्र तथा प्राण और शरीर का नियन्त्रण एवं प्रयोग
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करने और उन्हें पूर्ण बनाने में स्वतन्त्र और समर्थ होने के स्थान पर, एक मिश्रित रचना के रूप में प्रतीत होता है; यह प्रधानतया स्थुल मन है जो अपनी स्थुल इन्द्रियों से सीमित है तथा शरीर में रहनेवाले प्राण की मांगों एवं बाधाओं के वश में है । इस अवस्था से छुटकारा तभी प्राप्त हो सकता है यदि हम विश्लेषण की एक प्रकार की क्रियात्मक, आन्तरिक एवं मनोवैज्ञानिक क्रिया करें; उस क्रिया के द्वारा हम जान जाते हैं कि मन एक स्वतन्त्र एवं पृथक् शक्ति है, उसे स्वतन्त्र क्रिया करने के लिये पृथक् कर लेते हैं, सूक्ष्म और स्थूल प्राण में भेद भी जान लेते हैं और उन्हें पहले की तरह मन को शरीर के अधीन बनानेवाली कड़ी नहीं, बल्कि बुद्धि में कार्य कर रहे 'विचार' और 'संकल्प' को आगे पहुंचानेवाले माध्यम तथा उसके आदेशों और निर्देशों का अनुसरण करनेवाले यन्त्र बना देते हैं । प्राण तब स्थूल जीवन पर मन के प्रत्यक्ष नियन्त्रण को क्रियान्वित करने के लिये एक निष्क्रिय साधन बन जाता है । यह नियन्त्रण कार्य करने की हमारी अभ्यस्त स्थिति के लिये कितना ही असामान्य क्यों न हो, पर यह सम्भव है, --यह वशीकरण के दृग्विषयों मे कुछ हदतक दृष्टिगोचर होता है, यद्यपि ये दृग्विषय अस्वस्थ रूप में असामान्य होते हैं, क्योंकि इनमें किसी दूसरे का संकल्प ही सुझाव और आदेश देता है, --इतना ही नहीं, बल्कि जब अन्तःस्थ उच्चतर आत्मा सम्पूर्ण सत्ता की बागडोर सीधे अपने हाथ में ले लेता है तब यह नियन्त्रण एक स्वाभाविक क्रिया बन जाता है । तथापि इसका पूर्ण प्रयोग अतिमानसिक स्तर से ही किया जा सकता है, क्योंकि वास्तविक और अमोघ विचार तथा संकल्प केवल वहीं स्थित हैं और मनोमय भूमिका में तो विचारात्मक मन, आध्यात्मिक बनकर भी, एक सीमित प्रतिनिधि ही होता है, भले उसे एक अत्यन्त शक्तिशाली प्रतिनिधि क्यों न बना लिया जाये ।
ऐसा समझा जाता है कि कामना मानव-जीवन की वास्तविक चालकशक्ति है और इसे निकाल फेंकने का अर्थ जीवन के स्रोतों को बन्द कर देना होगा; कामना की तृप्ति मनुष्य का एकमात्र भोग है और इसका उन्मूलन करने का अर्थ निवृत्तिमार्गीय वैराग्य के द्वारा जीवन के आवेग को शान्त कर देना होगा । पर आत्मा के जीवन की वास्तविक चालक-शक्ति है संकल्पशक्ति; कामना तो हमारे वर्तमान प्रभुत्वपूर्ण शारीरिक जीवन और स्थूल मन में संकल्पशक्ति का एक विकृत रूप है । जगत् पर स्वत्व प्राप्त करने तथा उसका उपभोग करने की आत्मा की मूल प्रवृत्ति आनन्द प्राप्त करने की उसकी शक्ति (इच्छाशक्ति) में निहित है, और कामना की तृप्ति-रूपी भोग तो आनन्द-प्राप्ति की इच्छा का प्राणिक एवं शारीरिक हीन-रूप है । शुद्ध इच्छाशक्ति और कामना अर्थात् आनन्द-प्राप्ति की आन्तरिक इच्छा और मन तथा शरीर की बाह्य वासना एवं कामना में भेद जानना हमारे लिये आवश्यक है । यदि हम अपनी सत्ता के अनुभव में क्रियात्मक रूप से यह भेद नहीं कर सकते तो हमारे लिये केवल दो ही मार्ग खुले रह जाते हैं, या तो हम जीवन का उच्छेद
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करनेवाले वैराग्य और जीने की स्थूल इच्छा में से किसी एक को चुन लें या फिर इन दोनों में एक भद्दा, अनिश्चित और अस्थिर समझौता करने का यत्न करें । सच पूछो तो अधिकतर लोग यही कुछ करते हैं; बहुत थोड़े-से लोग ऐसे भी होते हैं जो जीवन की सहज-प्रवृत्ति को कुचलकर तपस्वियों की-सी पूर्णता के लिये यत्न करते हैं; बहुत-से लोग जीने की स्थूल इच्छा का अनुसरण भी करते हैं, अवश्य ही, वे उसमें कुछ ऐसे परिवर्तन कर लेते हैं तथा कुछ ऐसे प्रतिबन्ध लगा लेते हैं जिन्हें समाज उनपर लागू करता है या जिन्हें अपने मन तथा कार्यों पर लागू करने की शिक्षा साधारण सामाजिक मनुष्य को दी गयी है; कुछ अन्य लोग नैतिक तपस्या तथा कामनामय मानसिक एवं प्राणिक सत्ता की संयत तृप्ति के बीच एक प्रकार के सन्तुलन का आदर्श स्थापित करते हैं और इस सन्तुलन में अविक्षिप्त मन तथा स्वस्थ मानव-जीवन के सुनहरे मध्यम मार्ग का दर्शन करते हैं । परन्तु हम जिस पूर्णता की खोज कर रहे हैं वह, अर्थात् जीवन में संकल्पशक्ति का दैवी साम्राज्य, उक्त मार्गों में से किसी से भी प्राप्त नहीं होता । प्राण अर्थात् प्राणमय सत्ता को सर्वथा कुचल डालने का अर्थ है जीवन की उस शक्ति का ही उच्छेद कर डालना जिसके द्वारा मनुष्य में स्थित देहधारी आत्मा का अधिकतर कार्य-कलाप पोषण प्राप्त करता है; जीने की स्थूल इच्छा को तृप्त करने का अर्थ है अपूर्णता से तुष्ट रहना; इनमें समझौता करने का अर्थ है अधबीच में ही रुक जाना और न तो भूतल पर अधिकार पाना न स्वर्ग पर । पर यदि हम कामना के द्वारा अविकृत शुद्ध संकल्पशक्ति को और वासना के किसी भी विक्षोभ से पीड़ित या सीमित न होनेवाली आनन्द-लाभ की शान्त आन्तरिक इच्छा को अधिकृत कर सकें तो हम प्राण को इस प्रकार रूपान्तरित कर सकते हैं कि वह मन पर अत्याचार और आक्रमण करनेवाला उसका शत्रु न रहकर एक आज्ञाकारी यन्त्र बन जाये । तब हमें अनुभव द्वारा पता चलेगा कि शुद्ध संकल्पशक्ति कामना की भड़क उठनेवाली, धुंए से दबी-घुटी, शीघ्र क्लान्त एवं पराजित हो जानेवाली ज्वाला से कहीं अधिक स्वतन्त्र, शान्त, स्थिर और प्रभावपूर्ण शक्ति है । इन महत्तर शक्तियों को भी हम चाहें तो कामना के नाम से पुकार सकते हैं, पर तब हमें यह मानना होगा कि एक दिव्य कामना भी है जो प्राण की लालसा से भिन्न वस्तु है, एक भागवत कामना भी है जिसकी यह अन्य एवं निम्नतर कामना एक अन्धकारमय छाया है और जिसमें इसे रूपान्तरित करना होगा । पर जो वस्तुएं अपने स्वरूप तथा आन्तरिक कार्य में सर्वथा भिन्न हैं उनके लिये भिन्न नाम रखना ही अधिक अच्छा है ।
अतएव, शुद्धि का पहला कदम है प्राण को कामना से मुक्त करना और इसके साथ ही, प्रासंगिक रूप से, अपनी प्रकृति की साधारण स्थिति को पलटकर प्राणमय सत्ता को एक ऐसे रूप में परिणत कर देना कि वह एक कष्ट देनेवाली प्रभुत्वपूर्ण शक्ति न रहकर स्वतन्त्र और अनासक्त मन का आज्ञाकारी यन्त्र बन जाये । जैसे-
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जैसे सूक्ष्म प्राण की इस विकृति में सुधार होता है वैसे-वैसे अन्तःकरण के शेष मध्यवर्ती भागों की शुद्धि का कार्य सुगम होता जाता है, और जब यह सुधार पूरा हो जाता है तब उन्हें भी सहज में पूर्ण रूप से शुद्ध किया जा सकता है । ये मध्यवर्ती भाग हैं--भावप्रधान मन, ग्रहणशील सम्वेदनात्मक मन और सक्रिय सम्वेदनात्मक मन या क्रियाशील आवेगोंवाला मन । ये सब एक तीव्रत: जटिल परस्पर-क्रिया के साथ एक-दूसरे पर अवलम्बित हैं 1 भावप्रधान मन की विकृति राग-द्वेष अर्थात् भाविक आकर्षण और विकर्षण के द्वंद्व पर आधारित है । हमारे भावों की समस्त जटिलता का और हमारी अन्तरात्मा पर उनके अत्याचार का मूल कारण यह है कि भावों और सम्वेदनों में रहनेवाला कामनामय पुरुष इन आकर्षणों और विकर्षणों के प्रति अपने अभ्यस्त ढंग से प्रतिक्रिया करता है । राग और द्वेष, आशा और भय, हर्ष और शोक-सबके स्रोत इस एक उद्गम में ही हैं । हमारी प्रकृति अर्थात् हमारी सत्ता का प्रथम स्वभाव, या फिर हमारा निर्मित (प्रायः ही विकृत) स्वभाव अर्थात् हमारी सत्ता की दूसरी प्रकृति जिस चीज को हमारे मन के सामने प्रिय (प्रियम्) के रूप में प्रस्तुत करती है उसे हम पसन्द करते हैं, प्रेम करते हैं, उसका स्वागत और उसकी आशा करते हैं, उसमें आनन्द लेते हैं; जिस चीज को यह अप्रिय (अप्रियमू) के रूप में हमारे सामने रखती है उससे हम घृणा करते हैं, उसे नापसन्द करते हैं, उससे भयभीत होकर पीछे हटते हैं या दुःख मानते हैं । भाविक प्रकृति की यह आदत बुद्धिप्रधान संकल्प के मार्ग में बाधा पहुंचाती है और बहुधा ही इसे भावप्रधान सत्ता का असहाय दास बना देती है या, कम-से-कम, इसे स्वतन्त्र निर्णय तथा प्रकृति का शासन नहीं करने देती । इस विकृति को सुधारना होगा । सूक्ष्म प्राण में से कामना को तथा भाविक चित्त में से उसके मिश्रण को दूर करने से यह सुधार का कार्य सुगम हो जाता है । कारण, तब आसक्ति, जो हृदय को बांधनेवाली दृढ़ ग्रन्थि है, शिथिल होकर हृदय के तारों से अलग हो जाती है; राग-द्वेष का अनैच्छिक एवं यान्त्रिक अभ्यास बना रहता हैं, पर क्योंकि वह आसक्ति के द्वारा दृढ़ नहीं बनाया जाता, उसके साथ संकल्प और बुद्धि के द्वारा अधिक आसानी से निपटा जा सकता है । अशान्त हृदय को वश में करके राग-द्वेष के स्वभाव से मुक्त किया जा सकता है ।
पर, यदि ऐसा हो जाये तो जैसा कामना के उन्मूलन के सम्बन्ध में लोग समझते हैं, वैसे ही हृदय की शुद्धि के बारे में भी यह समझा जा सकता है कि यह भावप्रधान सत्ता की मृत्यु ही होगी । अवश्य, यह ऐसी ही होगी यदि विकृति का उन्मूलन तो कर दिया जाये, पर उसके स्थान पर भाविक चित्त की यथार्थ क्रिया को स्थापित न किया जाये; तब मन भावावेश की हलचल या तरंग से सर्वथा रहित शून्य उदासीनता की निष्क्रिय अवस्था में या शात्तिमय निष्पक्षता की ज्योतिर्मय अवस्था में पहुंच जायेगा । इनमेंसे पहली अवस्था किसी भी प्रकार वांछनीय नहीं;
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दूसरी अवस्था निवृत्तिमार्गीय साधना की सिद्धि हो सकती है, पर पूर्णयोग की सिद्धि में, जो प्रेम का परित्याग नहीं करती और आनन्द की विविध गति से भी नहीं कतराती, यह बस केवल एक ऐसी अवस्था हो सकती है जिसे पार करना होता है, एक ऐसी प्रारम्भिक निष्क्रियता हो सकती है जिसे समुचित क्रिया के प्रथम आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है । आकर्षण और विकर्षण, राग और द्वेष सामान्य मनुष्य के लिये एक आवश्यक यान्तिक क्रिया हैं, उसके चारों ओर का जगत् उसपर जो हजारों प्रीतिकर और भयङ्कर, सहायक और बाधक आघात करता है उनमेंसे स्वाभाविक और सहज-प्रेरित ढंग से चुनाव करने के लिये ये राग-द्वेष आदि प्रथम सिद्धान्त का काम करते हैं । बुद्धि इस कार्य-सामग्री को लेकर अपना कार्य शुरू करती है और एक अधिक ज्ञानपूर्ण, तर्कसंगत तथा स्वेच्छाप्रेरित चुनाव के द्वारा स्वाभाविक एवं सहजप्रेरित चुनाव को सुधारने का यत्न करती है; कारण, यह स्पष्ट ही है कि प्रिय वस्तु सदा सत्य, अधिक वांछनीय एवं वरणीय ही नहीं होती; न अप्रिय वस्तु असत्य, त्याज्य एवं अस्वीकार्य ही होती है; प्रिय और शुभ, प्रेयसू और श्रेयत् में भेद करना होगा, और चुनाव का कार्य यथार्थ तर्कबुद्धि को करना होगा, न कि आवेश की तरंग को । पर जब आवेशात्मक विचार को पीछे हटा दिया जाता है तथा हृदय ज्योतिर्मय निष्क्रियता में शान्त हो रहता है तब बुद्धि चुनाव के कार्य को कहीं अधिक अच्छे ढंग से कर सकती है । तभी हृदय की यथार्थ क्रिया उपरितल पर प्रकट हो सकती है; क्योंकि तब हम देखते हैं कि इस आवेशाधीन कामनामय पुरुष के पीछे प्रेममय, निर्मल हर्षमय एवं आनन्दस्वरूप आत्मा, शुद्ध चैत्य, सदा ही प्रतीक्षा कर रहा था, वह क्रोध, भय, घृणा, द्वेष के विकारों से आच्छादित था और इसलिये जगत् का आलिंगन राग-द्वेषरहित प्रेम तथा आनन्द के साथ नहीं कर सकता था । पर शुद्ध हृदय क्रोध, भय, घृणा तथा प्रत्येक प्रकार की जुगुप्सा एवं विकर्षण से मुक्त होता है : वह सार्वभौम प्रेम से युक्त होता है, वह इस जगत् में परमेश्वर के द्वारा प्राप्त नानाविध आनन्द को प्रशान्त मधुरता तथा निर्मलता के साथ ग्रहण कर सकता है । पर वह प्रेम और आनन्द का असंयत दास नहीं होता; वह कामना नहीं करता, कर्मों के स्वामी होने का दावा करने का यत्न नहीं करता । कर्म करने के लिये चुनाव करने की जौ क्रिया आवश्यक होती है वह मुख्य रूप से बुद्धि पर छोड़ दी जाती है और जब बुद्धि को पार कर लिया जाता है तब वह अतिमानसिक संकल्प, ज्ञान और आनन्द की भूमिका में रहनेवाली आत्मा पर छोड़ दी जाती है ।
ग्रहणशील सम्वेदनात्मक मन भावावेगों का स्नायुमय मानसिक आधार है; वह वस्तुओं के आघातों को मानसिक रूप से ग्रहण करता है और उनके प्रति मानसिक सुख और दुःख-रूपी प्रतिक्रियाएं करता है जो चित्तगत राग और द्वेष के द्वंद्व का आरम्भ-बिन्दु हैं । हृदय के सभी भावावेगों की स्नायविक मन में एक सहचारी
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प्रतिक्रिया भी होती है जो उनके अपने ही अनुरूप होती है, और हम प्रायः ही देखते हैं कि जब हृदय द्वंद्वों की मूलभूत सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है तब भी स्नायविक मन के विक्षोभ की जड़ बची रहती है, अथवा स्थूल मन में एक ऐसी स्मृति बची रहती है जिसे बुद्धि के संकल्प के द्वारा जितना ही हटाया जाता है, उतनी ही वह अधिकाधिक दूर हटकर एक सर्वथा भौतिक रूप धारण करती जाती है । अन्त में तो वह बाहर से आनेवाला एक सुझावमात्र रह जाती है जिसे मन के स्नायविक तन्तु तब भी कभी-कभी प्रत्युत्तर देते हैं जबतक कि पूर्ण शुद्धि उन्हें आनन्द की उसी प्रकाशपूर्ण विश्वमयता में ले जाकर मुक्त नहीं कर देती जिसे शुद्ध हृदय पहले ही प्राप्त कर चुका है । सक्रिय और शक्तिशाली आवेगात्मक मन प्रतिक्रिया का निम्नतर करण या वाहक है; उसकी विकृति यह है कि वह अपवित्र आवेशप्रधान एवं सम्वेदनात्मक मन के सुझाव तथा प्राण की कामना के अधीन हो जाता है, शोक, भय, घृणा, इच्छा, कामवासना, लालसा तथा अन्य सब अशान्त वृत्तियों के द्वारा प्रेरित कार्य के आवेगों का दास बन जाता है । उसके कार्य का ठीक रूप यह है कि वह बल, शौर्य और स्वभावगत सामर्थ्य से सम्पन्न एक ऐसी शुद्ध क्रियाशील शक्ति बनकर रहे जो अपने लिये या निम्न करणों का हुक्म बजाने के लिये कार्य न करे, बल्कि शुद्ध बुद्धि और संकल्प या विज्ञानमय पुरुष के आदेशों को आगे पहुंचाने के लिये एक निष्पक्ष प्रणालिका के रूप में कार्य करे । जब हम इन विकृतियों से मुक्त होकर अपने मन को कार्य के इन सत्यतर रूपों को अपनाने के लिये निर्मल बना लेते हैं तब निम्न मन शुद्ध होकर पूर्णता की प्राप्ति के लिये तैयार हो जाता है । पर यह पूर्णता शुद्ध और आलोकित बुद्धि की प्राप्ति पर निर्भर करती है; क्योंकि बुद्धि मनोमय प्राणी की प्रधान शक्ति है और साथ ही 'पुरुष' का प्रधान मानसिक करण है ।
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