योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १०

 

सिद्धि के मूलतत्त्व

 

जब आत्मा करणात्मक प्रकृति की असत्य और अव्यवस्थित क्रिया से रहित एवं शुद्ध होकर अपनी स्वयंस्थित सत्ता, चेतना, शक्ति और आनन्द में मुक्त हो जाती है और जब स्वयं प्रकृति भी संघर्षकारी गुणों तथा द्वंद्वों की इस निम्न क्रिया के जाल से मुक्त होकर दिव्य शान्ति और दिव्य कर्म के उच्च सत्य में पहुंच जाती है तब आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त. करना सम्भव हो जाता है । शुद्धि और मुक्ति सिद्धि की अनिवार्य पूर्वावस्थाएं हैं । आध्यात्मिक सिद्धि का अर्थ विकास के द्वारा भागवत सत्ता की प्रकृति के साथ एकत्व प्राप्त करना ही हो सकता है, और इसलिये भागवत सत्ता के विषय में हमारी जैसी परिकल्पना होगी वैसा ही आध्यात्मिक सिद्धि की खोज का हमारा लक्ष्य एवं प्रयत्न होगा और उसके लिये हमारी पद्धति भी वैसी ही होगी । मायावादी के लिये सत्ता का सर्वोच्च या, सच पूछो तो, एकमात्र वास्तविक सत्य निर्विकार, निर्गुण एवं आत्म-सचेतन ब्रह्म है और इसलिये आत्मा की निर्विकार शान्ति, निर्व्यक्तिकता और शुद्ध आत्म-चेतनता में विकसित होना ही उसका सिद्धि-विषयक विचार है तथा विश्वगत एवं व्यक्तिगत सत्ता का परित्याग करके शान्त आत्म-ज्ञान में प्रतिष्ठित होना ही उसका मार्ग है । बौद्धमतावलम्बी के लिये उच्चतम सत्य सत्ता का अस्वीकार है, अत: उसके लिये सत्ता की क्षणिकता और दुःखमयता का तथा कामना की विनाशकारी नि:सारता का बोध, अहंकार का तथा उसे धारण करनेवाले विचार-संस्कारों का एवं कर्म की शृंखलाओं का विलय ही सर्वांगपूर्ण मार्ग हैं । परमोच्च-सत्ताविषयक अन्य विचार इससे कम निषेधात्मक हैं; प्रत्येक दर्शन अपने-अपने विचार के अनुसार भगवान् के साथ कुछ सादृश्य प्राप्त करता है और प्रत्येक अपना-अपना मार्ग ढूंढ़ निकालता है; उदाहरणार्थ, भक्त का प्रेम और पूजन तथा प्रेम के द्वारा भगवान् के साथ सादृश्य का विकास करना । परन्तु सर्वांगीण योग कै लिये सिद्धि का अर्थ एक ऐसी दिव्य आत्मा और दिव्य प्रकृति को प्राप्त करना होगा जो जगत् में दिव्य सम्बन्ध और दिव्य कर्म को खुला क्षेत्र प्रदान करेंगे; अपने समग्र स्वरूप में उसका अर्थ सम्पूर्ण प्रकृति को दिव्य बनाना तथा उसके अस्तित्व और कर्म की समस्त असत्य ग्रन्थियों का परित्याग भी करना होगा, पर इस सिद्धि में हमारी सत्ता के किसी भी भाग का या हमारे कर्म के किसी भी क्षेत्र का परित्याग नहीं किया जायेगा । अतएव सिद्धि की ओर हमारी प्रगति, निश्चय ही, एक विशाल और जटिल क्रिया होगी और उसके परिणामों एवं व्यापारों का क्षेत्र भी असीम तथा बहुविध होगा । किसी सूत्र या पद्धति को ढ़ूंढ़ निकालने के लिये हमें सिद्धि के कुछ एक सारभूत एवं मौलिक तत्त्वों तथा

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आवश्यक साधनों पर अपना ध्यान एकाग्र करना होगा; क्योंकि यदि ये सुरक्षित रूप में प्राप्त हो जायें तो शेष सब कुछ इनका एक स्वाभाविक विकास या इनकी क्रिया का एक विशेष परिणाम मात्र प्रतीत होगा । इन तत्त्वों को हम छ: विभागों में बांट सकते हैं, ये एक बड़े परिमाण में एक-दूसरे पर अवलम्बित हैं, किन्तु फिर भी अपने प्राप्त होने की क्रम की दृष्टि से ये एक प्रकार से स्वभावत: ही क्रमिक होते हैं । इनकी प्राप्ति की क्रिया आत्मा की मौलिक समता से आरम्भ होगी और ऊपर आरोहण करती हुई एक ऐसी अवस्था को प्राप्त करेगी जहां ब्राह्मी एकता की विशालता में हमारी पूर्णता-प्राप्त सत्ता के द्वारा भगवान् का आदर्श कर्म सम्पन्न हो सके ।

 

     इसके लिये प्रथम आवश्यक साधन यह है कि अन्तरात्मा अपनी तात्त्विक और प्राकृतिक दोनों प्रकार की सत्ता में एक ऐसी मूलभूत सम-स्थिति को प्राप्त करे जहां से वह प्रकृति के पदार्थों स्पर्शों और कार्य-व्यापारों को समभाव से देख सके तथा उनका सामना कर सके । इस स्थिति को हम पूर्ण समता में विकसित होकर ही प्राप्त कर सकते हैं । आत्मा, परमात्मा या ब्रह्म सबमें एक ही है और इसलिये वह सबके प्रति एक समान है; वह सम ब्रह्म है, सम ब्रह्म, जैसा कि गीता में कहा गया है, जहां समता के इस विचार का पूर्ण रूप से विकास करके कम-से-कम उनके एक पहलू के अनुभव का निर्देश किया गया है; एक सन्दर्भ में गीता ने इससे भी आगे बढ़कर यहांतक कह डाला है कि समता और योग एक ही वस्तु हैं, समत्वं योग उच्चते । अर्थात् समता ब्रह्म के साथ एकता का, ब्रह्म-स्वरूप होने का तथा अनन्त में सत्ता की अचलायमान आध्यात्मिक स्थिति के विकास का चिह्न है । इसकी महत्ता का वर्णन जितना किया जाये उतना ही थोड़ा है; क्योंकि यह इस बात का चिह्न है कि हम अपनी प्रकृति के अह्म्मूलक निर्धारणों से परे चले गये हैं, द्वंद्वों के प्रति अपनी दासतापूर्ण प्रतिक्रिया को जीत चुके हैं, गुणों के विकारशील विक्षोभ की अवस्था को पार कर गये हैं तथा मुक्ति की स्थिरता और शान्ति में प्रविष्ट हो गये हैं । समता चेतना की एक ऐसी अवस्था है जो हमारी सम्पूर्ण सत्ता और प्रकृति में अनन्त की सनातन शान्ति को ले आती है । अपिच, यह एक सुरक्षित और पूर्ण रूप से दिव्य कर्म की शर्त है; अनन्त कैं विराट् विश्व-व्यापार की सुरक्षितता एवं विशालता उसकी सनातन शान्ति पर आधारित है और इस शान्ति को वह कभी भंग नहीं करती, न कभी इससे च्युत ही होती है । पूर्ण आध्यात्मिक कर्म का स्वभाव भी ऐसा ही होना चाहिये; आत्मा, बुद्धि, मन, हृदय और प्राकुत चेतना में, --यहांतक कि अत्यन्त भौतिक चेतना में भी, --सभी वस्तुओं के प्रति सम और एक होना तथा, करणीय कार्य के प्रति उन (आत्मा, बुद्धि आदि) की बाह्य अनुकूलता कैसी भी हो, उनकी सभी क्रियाओं को सदा और अक्षुब्ध रूप में दिव्य समता और शान्ति से पूर्ण बनाना ही उसका अन्तरतम नियम होना चाहिये । इसे

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समता का निष्क्रिय या मौलिक, आधारभूत एवं ग्रहणक्षम पक्ष कहा जा सकता है, पर इसके साथ ही इसका एक सक्रिय एवं प्रभुत्वशील पक्ष भी है, एक सम आनन्द भी है, जो केवल तभी प्राप्त हो सकता है जब समता की शान्ति प्रतिष्ठित हो जाये और जो इसकी पूर्णता का आनन्दमय पुष्प है ।

 

     सिद्धि के लिये अगला आवश्यक साधन यह है कि मानव-प्रकृति के सभी क्रियाशील अंगों को उनकी शक्ति एवं सामर्थ्य की उस सर्वोच्च अवस्था एवं उच्चतम क्रियात्मक भूमिकातक उठा ले जाया जाये जहां वे मुक्त, पूर्ण, आध्यामिक और दिव्य कर्म के सच्चे यन्त्रों के दिव्य स्वरूप में रूपान्तरित होने के योग्य बन जाते हैं । क्रियात्मक प्रयोजनों के लिये हम बुद्धि, हृदय, प्राण और शरीर को अपनी प्रकृति के ऐसे चार अंगों के रूप में ले सकते हैं जिनको हमें इस प्रकार तैयार करना होगा, और इसके लिये हमें उनकी पूर्णता का गठन करनेवाली अवस्थाओं को खोजना होगा । इसके अतिरिक्त, हमारे अन्दर चरित्र और आन्तरिक प्रकृति अर्थात् स्वभाव का क्रियाशील बल (वीर्य) भी विद्यमान है जो हमारे करणों की शक्ति को कार्यव्यवहार में सफल बनाता है और उन्हें उनकी विशिष्टता एवं दिशा प्रदान करता है; इस वीर्य को इसकी सीमाओं से मुक्त करना होगा, विशाल, अखण्ड और सर्वतोमुखी बनाना होगा ताकि हमारे अन्दर की समस्त मानवता दिव्य मानवता का आधार बन सके, और तब पुरुष, हमारे अन्दर का वास्तविक मानव, दिव्य 'पुरुष' इस मानव-यन्त्र में पूर्ण रूप से कार्य कर सके और इस मानव-आधार के द्वारा पूर्णरूपेण प्रकाशित हो सके । अपनी पूर्णता-प्राप्त प्रकृति को दिव्य बनाने के हित हमें दैवी शक्ति को अपनी सीमित मानव-शक्ति का स्थान लेने के लिये आवाहन करना होगा ताकि यह एक महत्तर असीम शक्ति, दैवी प्रकृति, भागवती शक्ति, की प्रतिमूर्ति में परिणत हो जाये और उसके बल से भर जाये । यह पूर्णता उसी अनुपात में बढ़ेगी जिसमें कि हम पहले तो उस शक्ति के तथा उसके स्वामी के, जो हमारे अस्तित्व और कर्मों का भी प्रभु है, मार्गदर्शन के प्रति और फिर उनकी प्रत्यक्ष क्रिया के प्रति अपने-आपको समर्पित कर सकेंगे; और इस प्रयोजन के लिये श्रद्धा, हमारी पूर्णता-प्राप्ति की अभीप्साओं में, हमारी सत्ता की एक अनिवार्य और महान् चालक शक्ति है, --यहां जिस श्रद्धा की आवश्यकता है वह भगवान् और शक्ति में श्रद्धा है जो हृदय और बुद्धि में आरम्भ होगी पर हमारी सम्पूर्ण प्रकृति को, उसकी समस्त चेतना तथा समस्त क्रियाशील प्रेरकशक्ति को अपने अधिकार में कर लेगी । ये चार चीजें सिद्धि के इस दूसरे तत्त्व के अनिवार्य साधन हैं, करणात्मक प्रकृति के अंगों की समग्र शक्तियां, आन्तरिक प्रकृति की पूर्णता-प्राप्त क्रियाशक्ति, करणों को दिव्य-शक्ति की क्रिया में रूपान्तरित करना और उस रूपान्तर का आवाहन तथा समर्थन करने के लिये हमारे सब करणों में पूर्ण श्रद्धा, शक्ति, वीर्य, दैवी प्रकृति, श्रद्धा ।

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परन्तु जबतक यह विकास हमारी सामान्य प्रकृति के उच्चतम स्तर पर ही सम्पन्न होता है तबतक हम पूर्णता की एक प्रतिबिम्बित एवं संकुचित मूर्ति को ही अपने अन्दर धारण कर सकते हैं जो हमारे मन, प्राण ओर शरीर के अन्दर आत्मा के निम्नतर रूपों में परिणत हो जाती है, पर दिव्य विज्ञान और उसकी शक्ति की उच्चतम अवस्थाओं के रूप में हमें जो दिव्य पूर्णता प्राप्त हों सकतीं है उसे हम धारण नहीं कर सकते । वह पूर्णता तो इन निम्नतर तत्त्वों से परे अतिमानसिक विज्ञान में ही प्राप्त होगी; अतएव सिद्धि का अगला सोपान मनोमय सत्ता का विज्ञानमय सत्ता में विकास होगा । यह विकास तब साधित होता है जब हम इस मानसिक सीमा को तोड़कर इसके परे चले जाते हैं, अपनी सत्ता के उस अगले उच्चतर स्तर या प्रदेश की ओर एक डग ऊपर उठा लेते हैं जो मानसिक प्रतिबिम्बों के चमकीले आवरण के कारण इस समय हमसे  छुपा हुआ है और जब हम अपनी सम्पूर्ण सत्ता को इस महत्तर चेतना के रूपों में परिणत कर लेते हैं । स्वयं विज्ञान में भी अनेक क्रमिक स्तर हैं जो अपने उच्चतम शिखर पर पूर्ण और अनन्त आनन्द में जा खुलते हैं । जब एक बार विज्ञान का आवाहन करके उसे प्रबल रूप से सक्रिय बना दिया जायेगा तो वह बुद्धि, संकल्पशक्ति, ऐन्द्रिय मन, हृदय और प्राणिक तथा साम्वेदनिक सत्ता की सभी अवस्थाओं को उत्तरोत्तर अपने हाथ में लेकर एक ज्योतिर्मय एवं सामजस्यकारी रूपान्तर के द्वारा सत्य के एकत्व में तथा दिव्य सत्ता के बल और आनन्द में परिणत कर देगा । वह हमारी सम्पूर्ण बौद्धिक, संकल्पात्मक, क्रियाशील, नैतिक, सौन्दर्यग्राही, सम्वेदनप्रधान, प्राणिक और भौतिक सत्ता को उस ज्योति और शक्ति में ऊपर उठा ले जायेगा तथा उन्हें उनके अपने उच्चतम भाव में रूपान्तरित कर देगा । भौतिक सीमाओं को दूर करके एक अधिक पूर्ण एवं दिव्य- यन्त्र-स्वरूप शरीर का विकास करने की शक्ति भी विज्ञान में विद्यमान है । उसका प्रकाश अतिचेतन के क्षेत्रों को खोल देता है और अवचेतन में बलपूर्वक अपनी किरणें फेंककर तथा अपना ज्योतिर्मय प्रवाह उंडेलकर उसके धुंधले संकेतों एवं अवरुद्ध रहस्यों को आलोकित कर देता है । मन की ऊंची-से-ऊंची भूमिका के भी क्षीणतर आलोक के रूप में अनन्त का जो प्रकाश प्रतिबिम्बित होता है उससे अधिक महान् प्रकाश में वह हमें प्रवेश प्रदान करता है । जहां वह वैयक्तिक आत्मा और प्रकृति को, दिव्य जीवन के सच्चे अर्थ में, पूर्ण बनाता है और हमारी सत्ता की विभिन्न अवस्थाओं को एक पूर्ण सामंजस्य का रूप देता है, वहां वह अपने समस्त कार्य का आधार उस एकत्व पर स्थापित करता है जो उसका उद्गम है और फिर प्रत्येक वस्तु को उस एकत्व में ही उठा ले जाता है । व्यक्तित्व और निर्व्यक्तिक सत्, जो सत्ता के दो सनातन पक्ष हैं, पुरुषोत्तम की अध्यात्म-सत्ता और प्रकृति-देह में उसके द्वारा एक हों जाते हैं ।

 

     विज्ञानमय सिद्धि को, जिसका स्वरूप आध्यात्मिक है, यहां इस देह में ही सम्पन्न

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 करना होगा, वह स्थूल, जगत् के जीवन को अपने एक क्षेत्र के रूप में ग्रहण करती है, यद्यपि विज्ञान जड़ जगत् से परे के स्तरों और लोकों की प्राप्ति का द्वार भी हमारे लिये खोल देता है । अतएव स्थूल शरीर कर्म का आधार, प्रतिष्ठा है जिसे तुच्छता या उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता और न जिसे आध्यात्मिक विकास से बहिष्कृत ही किया जा सकता है : भूतल पर सम्पूर्ण दिव्य जीवन के एक बाह्य यन्त्र के रूप में शरीर की पूर्णता, अनिवार्यत: ही, विज्ञानमय रूपान्तर का भाग होगी । वह परिवर्तन भौतिक चेतना और उसके करणों में विज्ञानमय पुरुष के तथा यह ऊपर की ओर जिसमें खुलता है उस आनन्दमय पुरुष के नियम को लाने से साधित होगा । इस क्रिया को यदि इसके उच्च-से-उच्च परिणामतक ले जाया जाये तो यह सम्पूर्ण भौतिक चेतना को आध्यात्मिक बनाती तथा आलोकित कर देती है और शरीर के नियम को भी दिव्य नियम में परिणत कर देती है । कारण, इस स्थूलतः प्रत्यक्ष और इन्द्रियगोचर आधार के स्थूल अन्नमय कोष के पीछे मनोमय पुरुष का सूक्ष्म शरीर है जो स्थूल शरीर को प्रच्छन्न रूप से धारण करता है तथा जिसे एक उत्कृष्टतर सूक्ष्म चेतना के द्वारा जाना जा सकता है, साथ ही इसके पीछे विज्ञानमय और आनन्दमय पुरुष का आध्यात्मिक या कारण-रूप शरीर भी है । उन शरीरों में आध्यात्मिक-देह-धारण की समस्त सिद्धि उपलब्ध हो सकती है और शरीर का जो दिव्य नियम अबतक कभी प्रकट नहीं हुआ वह भी प्रकट हो सकता है । जिन शारीरिक सिद्धियों को कुछ-एक योगी प्राप्त करते हैं उनमें से बहुत-सी सूक्ष्म शरीर के नियम के यत्किंचित् उद्घाटन से या स्थूल देह में आध्यात्मिक शरीर के नियम के किसी अंश के आवाहन से प्राप्त होती हैं । इसके लिये साधारण विधि है--हठयोग की भौतिक प्रक्रियाओं के द्वारा (जिनका कुछ अंश राजयोग में भी समाविष्ट है) या तान्त्रिक साधना की विधियों के द्वारा चक्रों को खोलना । यद्यपि किन्हीं विशेष अवस्थाओं में पूर्णयोग ऐच्छिक रूप से इन विधियों का उपयोग कर सकता है तथापि ये अनिवार्य नहीं हैं; क्योंकि यहां निम्न सत्ता का परिवर्तन करने के लिये उच्चतर सत्ता की शक्ति पर भरोसा किया जाता है, मुख्य रूप से एक ऐसी क्रिया को पसन्द किया जाता है जो ऊपर से निम्न स्तर पर की जाती है न कि इससे उल्टे ढंग से, और अतएव योग के इस भाग में करण के परिवर्तन के रूप में विज्ञान की उच्चतर शक्ति के विकास की प्रतीक्षा की जायेगी ।

 

     तब विज्ञान के आधार पर सत्ता का पूर्ण कर्म और उपभोग ही शेष रह जायेगा, क्योंकि यह तभी पूर्णतया सम्भव होगा । पुरुष अपनी अनन्त सत्ता की विविधताओं को प्रकट करने के लिये, ज्ञान, कर्म और उपभोग के लिये, अपने-आपको विराट् रूप में व्यक्त करना आरम्भ करता है; विज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान का पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त कराता है और उसके ऊपर वह दिव्य कर्म की नींव रखता है तथा जगत् एवं अस्तित्व के उपभोग को सत्य के नियम और आत्मा की मुक्ति एवं पूर्णता के

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अनुरूप ढाल देता है । परन्तु वह कर्म गुणों का निम्न व्यापार नहीं होगा और न वह उपभोग ही गुणों के निम्न व्यापार से प्राप्त होनेवाला वह अहंकारमय उपभोग होगा जो अधिकांश में राजसिक कामना की तुष्टि का उपभोग हुआ करता है--जीवन--यापन की हमारी वर्तमान प्रणाली तो ऐसा कर्म और उपभोग करने की ही है । जो कामना शेष रहेगी--यदि उसे कामना का नाम दिया जाये तो, --वह दिव्य कामना होगी, अर्थात् आनन्द प्राप्त करने के लिये 'पुरुष' की अपनी इच्छाशक्ति होगी, एक ऐसे 'पुरुष' की जो अपनी मुक्ति और सिद्धि की अवस्था में पूर्णता-प्राप्त प्रकृति तथा उसके समस्त करणों के कार्य का आनन्दोपभोग करेगा । दिव्य पराप्रकृति हमारी सम्पूर्ण मानव-प्रकृति को अपने उच्चतर दिव्य सत्य के नियम में उन्नीत कर देगी और उस नियम में कार्य करती हुई अपने कर्म और अस्तित्व का विराट् आनन्दोपभोग उस आनन्दमय ईश्वर, सत्ता और कर्मो के प्रभु आनन्दस्वरूप परम-आत्मा को अर्पित करेगी जो उसके सब कार्यों का अधिष्ठाता और नियन्ता है । व्यक्ति की आत्मा इस कर्म और अर्पण का वाहन होगी, वह ईश्वर तथा प्रकृति दोनों के साथ अपने एकत्व का एक ही साथ रसास्वादन करेगी और विराट् पुरुष तथा प्रकृति के एकत्व के उच्चतम रूपों में अनन्त और सान्त के साथ, ईश्वर और जगत् तथा इसके प्राणियों के साथ सब प्रकार के सम्बन्धो का आनन्दोपभोग करेगी ।

 

    समस्त विज्ञानमय विकास ऊपर की ओर आरोहण करता हुआ आनन्द के दिव्य तत्त्व में जा पहुंचता है; वह आनन्दतत्त्व सच्चिदानन्द या सनातन ब्रह्म की आध्यात्मिक सत्ता, चेतना और आनन्द के पूर्णैश्वर्य का आधार है । पहले वह मानसिक अनुभव में प्रतिबिम्बित होकर प्राप्त होता है, उसके बाद वह विज्ञान से प्राप्त होनेवाली घनीभूत ज्योतिर्मय चेतना, चिद्घन, में एक महत्तर पूर्णता के साथ तथा अधिक प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त होगा । सिद्ध या पूर्णता-प्राप्त 'पुरुष' इस ब्राह्मी चेतना में पुरुषोत्तम के साथ एक होकर जीवन धारण करेगा, वह 'सर्व'मय ब्रह्म, सर्व ब्रह्म में, अनन्त सत्ता और अनन्त गुणोंवाले ब्रह्म, अनन्तं ब्रह्म में, स्वयंभू-चैतन्य-स्वरूप और विश्व-विज्ञानमय ब्रह्म, ज्ञानं ब्रह्म में, स्वयंभू-आनन्द-स्वरूप और विराट् अस्तित्व-आनन्दमय ब्रह्म, आनन्द ब्रह्म में सचेतन होकर निवास करेगा । वह सम्पूर्ण विश्व को एकमेव की अभिव्यक्ति अनुभव करेगा, समस्त गुणों और कर्मों को उसकी विराट् और असीम शक्ति की क्रीड़ा तथा समस्त ज्ञान एवं सचेतन अनुभव को उस चेतना का बहि:प्रवाह अनुभव करेगा, और यह सब अनुभव उसे एकमेव आनन्द के विविध रूपों में ही होगा । उसकी भौतिक सत्ता समस्त जड़ प्रकृति के साथ एक होगी, उसकी प्राणिक सत्ता विश्व के प्राण के साथ, उसका मन वैश्व मन के साथ, उसका आध्यात्मिक ज्ञान और संकल्प दिव्य ज्ञान और संकल्प के निज स्वरूप के साथ तथा उनके इन प्रणालिकाओ के द्वारा प्रवाहित होनेवाले रूप के साथ एक होंगे, उसकी आत्मा सर्वभूतों में स्थित एकमेव आत्मा के साथ

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 एक होगी । विश्वसत्ता की समस्त विविधता उसके लिये उसी एकता में परिवर्तित हो जायेगी और उसके आध्यात्मिक अर्थ का रहस्य प्रकट हो जायेगा । कारण, इस आध्यात्मिक सत्ता और आनन्द में वह उस 'तत्' के साथ एक होगा जो समस्त सत्ता का उद्गम और आधार है, सबका अन्तर्वासी, मूल आत्मतत्त्व और उपादान- शक्ति है । यह होगी आत्मसिद्धि की पराकाष्ठा ।

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