Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
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त्रिविध जीवन
सो, प्रकृति एक सनातन और गुप्त अस्तित्व का विकास है अथवा उसकी एक विकसनशील आत्म-अभिव्यक्ति है; उसके तीन क्रमिक रूप उसके आरोहण के तीन पग है । अतएव, ये तीन परस्पर-आश्रित सम्भावनाएं शारीरिक जीवन, मानसिक अस्तित्व और वह आवृत आध्यात्मिक सत्ता, जो निवर्तन में दूसरे अस्तित्वों का कारण है और विकास में उनका परिणाम है, हमारी समस्त क्रियाओं की शर्ते हैं । भौतिक जीवन को सुरक्षित रखते हुए और पूर्ण बनाते हुए तथा मानसिक जीवन को चरितार्थ करते हुए प्रकृति का उद्देश्य यह होता है और हमारा भी यही होना चाहिये कि पूर्णता प्राप्त मन और शरीर में 'आत्मा' की परात्पर क्रियाएं अभिव्यक्त हो जायं । जिस प्रकार मानसिक जीवन शारीरिक जीवन के उत्कर्ष और श्रेष्ठतर उपयोग में बाधा नहीं पहुंचाता, वरन् उसके लिये कार्य करता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन को भी हमारी बौद्धिक, भाविक, सौन्दर्यात्मक और प्राणिक क्रियाओं का त्याग नहीं, वरन् रूपान्तर करना चाहिये ।
कारण, मनुष्य जो पार्थिव प्रकृति का नेता है तथा जो अकेला ही एक ऐसा पार्थिव ढांचा है जिसमें प्रकृति का पूर्ण विकास सम्भव है, त्रिविध जीवन धारण करता है । उसे एक ऐसा सजीव ढांचा मिला है जिसमें शरीर एक पात्र है और प्राण दिव्य अभिव्यक्ति का सक्रिय साधन । उसकी क्रिया एक विकसनशील मन में केन्द्रित है, इस मन का उद्देश्य है अपने-आपको और उस घर को जिसमें वह निवास करता है पूर्ण बनाना, साथ ही उस प्राणरूपी साधन को भी पूर्ण बनाना जिसका कि वह प्रयोग करता है । इसके अतिरिक्त वह एक विकसनशील आत्मोपलब्धि के द्वारा 'आत्मा' के एक रूप में अपने सच्चे स्वभाव के प्रति जाग्रत भी हो सकता है । उसका चरम विकास उसमें होता है जो वह वास्तव में सदा से था, वह प्रकाश और आनन्द से पूर्ण आत्मा है जिसका प्रयोजन ही अन्त में प्राण और मन को उस वैभव से प्रकाशित कर देना है जो इस समय छुपा हुआ है ।
क्योंकि मानवजाति में यही दिव्य शक्ति की योजना है, हमारे अस्तित्व की समस्त प्रणाली और उसके समस्त उद्देश्य को सत्ता में इन तीन तत्त्वों की पारस्परिक क्रिया के द्वारा ही कार्य करना चाहिये । क्योंकि प्रकृति में इनकी रचना अलग-अलग हुई है, मनुष्य साधारण भौतिक जीवन, मानसिक क्रिया और विकास का जीवन तथा अपरिवर्तनशील आध्यात्मिक आनन्दमय जीवन—इन तीनों प्रकार के जीवनों में चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है । किन्तु ज्यों-ज्यों वह विकसित होता है वह इन तीनों रूपों को संयुक्तु कर सकता है, इनके विरोधों को एक सामंजस्यपूर्ण लय में
विलीन कर सकता है और इस प्रकार अपने अन्दर एक पूर्ण देवता को, पूर्ण 'मनुष्य' को जन्म दे सकता है ।
साधारण 'प्रकृति' में इनमेंसे प्रत्येक का अपना विशिष्ट गुण एवं अपनी प्रधान प्रेरणा होती है ।
शारीरिक जीवन की विशेष शक्ति उतनी विकास के लिये उपयुक्त नहीं है जितनी कि स्थायित्व के लिये, उतनी व्यक्ति के विस्तार के लिये नहीं जितनी कि उसकी अपनी पुनरावृत्ति के लिये । भौतिक 'प्रकृति' में एक जाति से दूसरी जाति तक अर्थात् वनस्पति से पशु तक तथा पशु से मनुष्य तक विकास अवश्य होता है, कारण निजीर्व जड़ पदार्थ में भी मन कार्य करता है । किन्तु एक बार जब एक जाति स्थूल रूप में अपना विशेष आकार धारण कर लेती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि पार्थिव जननी का प्रमुख तात्कालिक कार्य उसके अस्तित्व को बनाये रखना होता है, और वह जाति फिर अपने प्रतिरूप को बार-बार उत्पन्न करती रहती है । कारण, जीवन सदा ही अमरत्व की चाहना करता है । किन्तु, वैयक्तिक आकार अस्थायी है और विश्व को उत्पन्न करनेवाली चेतना में आकार का विचार ही स्थायी है, — क्योंकि वहां वह नष्ट नहीं होता, — इसलिये ऐसे प्रतिरूपों को बार-बार उत्पन्न करना ही भौतिक अमरत्व का एकमात्र सम्भव रूप है । अतएव, अपनी रक्षा और पुनरावृत्ति करना तथा अपनेको बहुगुणित करना आवश्यक रूप में समस्त भौतिक अस्तित्व की प्रधान सहज-प्रवृत्तियां हैं ।
विशुद्ध मन की विशेष शक्ति परिवर्तन है और जितना अधिक वह उत्कर्ष और संगठन को प्राप्त करता है उतना अधिक ही 'मन' का यह नियम एक सतत विस्तार का तथा उपलब्धियों की उत्कृष्टता और श्रेष्ठ व्यवस्था का रूप धारण कर लेता है । इस प्रकार वह एक छोटी और सरल पूर्णता से एक अधिक विशाल और जटिल पूर्णता तक का विच्छिन्न मार्ग बन जाता है । कारण, मन, शारीरिक जीवन के विपरीत, अपने क्षेत्र में असीम है, अपने विस्तार में नमनीय है, अपनी रचनाओं में सरलता से परिवर्तित हो सकता है । अतएव, परिवर्तन, आत्म-विस्तार एवं आत्म- सुधार उसकी उचित सहज-प्रवृत्तियां हैं । उसका धर्म है पूर्णता को प्राप्त करना, उसका सिद्धान्त है प्रगति करना ।
'आत्मा' का विशेष नियम एक स्वयंस्थित पूर्णता और अपरिवर्तनीय असीमता है । 'जीवन' का उद्देश्य अमरत्व और 'मन ' का लक्ष्य पूर्णत्व सदा इसके अधिकार में रहते हैं, इन्हें अपने पास रखने का उसका सहज अधिकार है । 'सनातन' सत्ता की प्राप्ति और सद्वस्तु की उपलब्धि आध्यात्मिक जीवन का वैभव है, उस सद्वस्तु की जो सब चीजों में तथा उनके आगे भी एक ही है, जो विश्व में और उसके बाहर भी समान रूप से आनन्दमय है, जो उन रूपों और क्रियाओं की जिनमें वह निवास करती है अपूर्णताओं और सीमाओं से अछूती है ।
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ऐसे प्रत्येक आकार में 'प्रकृति' वैयक्तिक और सामूहिक दोनों रूपों में काम करती है । कारण, सनातन सत्ता एक आकार और सामूहिक जीवन, दोनों में, समान रूप से अपनी स्थापना करती है, चाहे वह कुटुम्ब हो, चाहे जाति या राष्ट्र अथवा ऐसे समुदाय हों जो कम भौतिक सिद्धान्तों पर निर्भर हों, या फिर सबका सर्वोच्च समूह अर्थात् हमारी सामूहिक मानव जाति हो । मनुष्य अपनी वैयक्तिक भलाई की खोज इनमेंसे किसी या सभी कार्यक्षेत्रों में कर सकता है, या इन्हीं में समूह के साथ अपने-आपको एक कर सकता है और उसीकी खातिर जीवित रह सकता है, या फिर ऊपर उठकर इस जटिल विश्व के अधिक सच्चे बोध को प्राप्त करके वैयक्तिक उपलब्धि को सामूहिक उद्देश्य के साथ समन्वित कर सकता है । कारण, जिस प्रकार आत्मा का—जबतक वह विश्व में रहती है—सर्वोच्च सत्ता के साथ यथार्थ सम्बन्ध इसमें है कि वह न तो अहंभावयुक्त ढंग से अपनी पृथक् सत्ता की पुष्टि करे और न परिभाषातीत सत्ता में अपने-आपको मिटा ही डाले, बल्कि भगवान् और जगत् के साथ अपनी एकता स्थापित करके व्यक्ति में इन दोनों को संयुक्त कर दे, उसी प्रकार व्यक्ति का समूह के साथ यथार्थ सम्बन्ध न तो अहंभावयुक्त ढंग से बिना अपने साथियों की ओर ध्यान दिये अपनी भौतिक या मानसिक उन्नति को साधित करना या आध्यात्मिक मोक्ष को प्राप्त करना है और न समाज की खातिर अपने विकास को रोकना या कुचलना है; बल्कि उसे अपने अन्दर अपने विकास की सर्वश्रेष्ठ और पूर्णतम सम्भावनाओं को एकत्र करके उन्हें विचार, कर्म और अन्य समस्त साधनों के द्वारा अपने चारों ओर उंडेल देना है, जिससे समस्त जाति उस उपलब्धि के अधिक निकट पहुंच सके जिसे उसके महान् व्यक्ति पहले प्राप्त कर चुके हैं ।
इस सबका निष्कर्ष यह निकलता है कि भौतिक जीवन का प्रयोजन अवश्य ही सबसे पहले 'प्रकृति ' के प्राणिक उद्देश्य को पूरा करना है । भौतिक मनुष्य का समस्त उद्देश्य ही जीवित रहना है, जितना आराम और सुख रास्ते में प्राप्त हो सकता हो उतने के साथ उसे जन्म से मृत्यु तक पहुंचना है, मतलब यह कि किसी-न-किसी प्रकार जीना है । वह अपने इस उद्देश्य को निम्न स्थान भी दे सकता है, पर केवल भौतिक 'प्रकृति' की दूसरी सहज-प्रवृत्तियों की तुलना में ही; ये प्रवृत्तियां हैं—व्यक्ति के प्रतिरूप की उत्पत्ति और कुटुम्ब, जाति या समाज में उस प्रतिरूप की रक्षा । सत्ता, कौटुम्बिक जीवन, समाज और राष्ट्र की प्रचलित व्यवस्था—ये भौतिक अस्तित्व के निर्माणकारी अंग हैं । प्रकृति की मितव्ययितापूर्ण व्यवस्था में इसका अत्यधिक महत्त्व स्पष्ट है; मानव प्रतिरूप जो उसका प्रतिनिधित्व करता है उसका महत्त्व भी उतना ही है । जिस ढांचे का प्रकृति ने निर्माण किया है उसकी रक्षा का तथा उसकी पिछली उपलब्धियों की व्यवस्थित स्थिरता और सुरक्षा का वह उसे विश्वास दिलाता है ।
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किन्तु इसी उपयोगिता के कारण इस प्रकार के मनुष्य और उनका जीवन बुरे माने जाते हैं, वे सीमित और अन्यायत: अनुदार होते हैं, पृथ्वी के साथ बंधे होते हैं । प्रचलित कार्यक्रम, प्रचलित प्रथाएं, विचार के परम्परागत या अभ्यासगत रूप,—ये सब उनके नासारन्ध्रों के जीवन-श्वास होते हैं । भूतकाल में जो परिवर्तन उन्नतिशील व्यक्तियों ने किये हैं उन्हें वे स्वीकार करते हैं तथा उत्साहपूर्वक उनका समर्थन करते हैं, किन्तु साथ ही वे उतने ही उत्साह से उन परिवर्तनों का प्रतिरोध भी करते हैं जो आजकल किये जा रहे हैं । कारण, भौतिक मनुष्य के लिये विकासवादी विचारक कोरा आदर्शवादी है, स्वप्नद्रष्टा अथवा विक्षिप्त मनुष्य है । पुरानी यहूदी और अन्य जातियों के लोग जिन्होंने जीवित पैगम्बरों को पत्थरों से मारा था और मरने के बाद उनके स्मारकों की पूजा की थी, 'प्रकृति' में निहित इसी सहजप्रेरित और विवेकहीन सिद्धान्त के साक्षात् रूप थे । प्राचीन समय में भारतवर्ष में एक-जन्मा और द्वि-जन्मा में भेद किया जाता था, एक-जन्मा यही भौतिक मनुष्य कहा जा सकता है । वह 'प्रकृति' के निम्न काम करता है, उसके उच्चतर कार्यों का आधार सुनिश्चित करता है, किन्तु उसके सामने उसके दूसरे जन्म के वैभव आसानी से प्रकट नहीं होते ।
फिर भी वह इतनी आध्यात्मिकता अवश्य स्वीकार करता है जितनी उसके साधारण विचारों पर भूतकाल की महान् धार्मिक क्रान्तियों ने लादी है । वह अपनी समाजसम्बन्धी योजना में किसी पुरोहित या विद्वान् अध्यात्मवेत्ता के लिये स्थान रखता है, उससे वह आशा करता है कि वह उसे एक सुरक्षाप्रद और साधारण आध्यात्मिक भोजन देता रहे, यह स्थान आदर-योग्य तो हो सकता है, पर प्रभावपूर्ण प्रायः नहीं होता । किन्तु जो व्यक्ति आध्यात्मिक अनुभव और आध्यात्मिक जीवन की स्वतन्त्रता की बलपूर्वक मांग करता है, उसके लिये मनुष्य पुरोहित का बाना नहीं वरन् संन्यासी का चोगा निश्चित करता है, बशर्ते कि वह उसे स्वीकार कर ले । समाज के बाहर उसे अपनी भयंकर स्वतन्त्रता का उपभोग करने दिया जाता है । वह वस्तुतः एक ऐसी मानवी विद्युत्-छड़ी का काम करता है जो आत्मा की विद्युत् को ग्रहण कर लेती है, पर उसे सामाजिक ढांचे से अलग रखती है ।
पर यह सब होते हुए भी भौतिक मनुष्य और उसके जीवन की साधारण उन्नति की जा सकती है, ऐसा भौतिक मन पर उन्नति के नियम का, चेतन परिवर्तन के अभ्यास का तथा जीवन के सिद्धान्त के रूप में विकास के स्थिर विचार का प्रबल प्रभाव डालकर ही किया जाता है । यूरोप में इस साधन के द्वारा विकसनशील समाजों का निर्माण जड़ पदार्थ पर मन की एक बड़ी भारी विजय है । किन्तु भौतिक प्रकृति अपना बदला लेती है, क्योंकि तब जो उन्नति साधित होती है वह अधिक स्थूल एवं बाह्य ढंग की होती है और उसके अधिक उच्च और अधिक दुत कार्य
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के लिये किये गये प्रयत्न अत्यधिक थकावट के, तीव्र भ्रान्ति और चौंका देनेवाली अवनति के भाव ले आते हैं ।
भौतिक मन और उसके जीवन को कुछ थोड़ी-सी आध्यात्मिकता प्रदान करना इस प्रकार भी सम्भव है कि वह जीवन की समस्त प्रथाओं और उसकी साधारण क्रियाओं को धार्मिक भावना के दृष्टिकोण से विचारने का अभ्यस्त हो जाय । पूर्व में ऐसे आध्यात्मिक समाजों की उत्पत्ति वस्तुत: जड़ पदार्थ पर आत्मा की एक अत्यधिक बड़ी विजय रही है । किन्तु यहां भी इसमें एक दोष रह गया है । कारण, इसका परिणाम प्रायः ही एक धार्मिक स्वभाव को जन्म देता है जो कि आध्यात्मिकता का एक अत्यन्त बाह्य रूप है । उसकी उच्चतर अभिव्यक्तियां, उसकी अत्यधिक उत्कृष्ट और शक्तिशाली अभिव्यक्तियां भी सामाजिक जीवन से बहुत-से व्यक्तियों को बाहर ले आती हैं और इस प्रकार उसे दरिद्र बना देती हैं या फिर एक क्षणिक उत्कर्ष के द्वारा थोड़े समय के लिये समाज में क्षुब्धता पैदा कर देती हैं । सत्य वस्तुतः यह है कि यदि मानसिक प्रयत्न और आध्यात्मिक प्रेरणा को अलग-अलग लिया जाय तो वे भौतिक प्रकृति के प्रबल प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करने के लिये काफी नहीं हैं । इससे पहले कि प्रकृति मनुष्यजाति में एक पूर्ण परिवर्तन लाये वह उन दोनों को एक पूर्ण प्रयत्न में एक साथ देखने की मांग करती है । किन्तु साधारणतया ये दोनों साधन ही एक-दूसरे को आवश्यक छूट देने के लिये अनिच्छुक रहते हैं ।
मानसिक जीवन सौन्दर्यात्मक, नैतिक और बौद्धिक क्रियाओं पर अपने-आपको एकाग्र करता है । मूल मानसिकता आदर्शवादी होती है और पूर्णता की खोज करती है; उधर सूक्ष्म सत्ता, देदीप्यमान आत्मा१ सदा ही स्वप्नद्रष्टा होता है । पूर्ण सौन्दर्य, पूर्ण आचार-व्यवहार और पूर्ण सत्य का स्वप्न, चाहे वह सनातन सत्ता के नये रूपों की खोज कर रहा हो या उसके पुराने रूपों में पुनः शक्ति का संचार कर रहा हो, विशुद्ध मन की वास्तविक आत्मा है, किन्तु वह 'जड़ पदार्थ' के प्रतिरोध का सामना करना नहीं जानता । वह वहीं रुक जाता है तथा अयोग्य प्रमाणित होता है, वह अनगढ़ प्रयोगों के द्वारा कार्य करता है; फिर उसे या तो संघर्ष से पीछे हटना पड़ता है या एक अन्धकारपूर्ण वास्तविकता की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है । वह भौतिक जीवन का अध्ययन करके तथा संघर्ष की शर्तों को स्वीकार करके सफल भी हो सकता है, किन्तु वह केवल एक ऐसी कृत्रिम प्रणाली को कुछ समय के लिये लादने में ही सफल होता है जिसे असीम 'प्रकृति' या तो नष्ट-भ्रष्ट करके एक
१ऐसी आत्मा जो 'स्वप्न' में निवास करती है, जो आन्तरिक रूप से चेतन है, जो अमूर्त भावों का उपभतो करती है तथा दीप्ति से युका है ।
—माण्डूक्य उपनिषद्, ४
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ओर डाल देती है या उसे इतना विरूप बना देती है कि उसे पहचानना कठिन हो जाता है, या फिर वह अपनी अस्वीकृति से उसे एक मृत आदर्श के शव के रूप में छोड़ देती है । मनुष्य के अन्दर के स्वप्नद्रष्टा को बहुत कम उपलब्धियां हुई हैं और बहुत देर के बाद प्राप्त हुई हैं । इन्हें संसार ने बड़ी गम्भीरतापूर्वक स्वीकार किया है, वह इन्हें अपनी मधुर स्मृति में रखकर पीछे की ओर देखता है तथा उसके तत्त्वों में इन्हें स्नेहपूर्वक सुरक्षित रखना चाहता है ।
जब वास्तविक जीवन और विचारक के स्वभाव के बीच की खाई अत्यधिक चौड़ी हो जाती है तो इसके परिणाम-स्वरूप हम मन को जीवन से एक प्रकार से हटता देखते हैं, जिससे कि वह अपने क्षेत्र में अधिक बडी स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सके । अपनी आलोकपूर्ण अन्तर्दृष्टियों में निवास करता हुआ कवि, अपनी कला में लीन कलाकार, अपने एकान्त कक्ष में बौद्धिक समस्याओं पर विचार करता हुआ दार्शनिक, अपने अध्ययनों और प्रयोगों की ही चिन्ता करनेवाला वैज्ञानिक और विद्वान् प्राचीन समय में, बल्कि अब भी, प्रायः ही बौद्धिक संन्यासी होते थे और होते हैं । मनुष्यजाति के लिये किये गये इनके कार्यों का पता हमें उसके प्राचीन इतिहास से लगता है ।
किन्तु यह एकान्त जीवन उनके किसी विशेष कार्य के द्वारा ही उचित ठहराया जा सकता है । मन केवल तभी अपनी पूर्ण शक्ति को प्राप्त कर सकता है और अपने कार्य को पूर्ण रूप से चरितार्थ कर सकता है जब वह अपने-आपको जीवन पर एकाग्र कर लेता है तथा उसकी सम्भावनाओं और बाधाओं को एक अधिक बड़ी आत्म-परिपूर्णता के साधन के रूप में समान रूप से स्वीकार कर लेता है । भौतिक जगत् की कठिनाइयों के साथ संघर्ष करते हुए व्यक्ति का नैतिक विकास एक सुदृढ़ आकार ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार आचार-सम्बन्धी महान् सम्प्रदाय निर्मित हो जाते हैं । जीवन के तथ्यों के सम्पर्क में आकर ही 'कला' शक्ति प्राप्त करती है, 'विचार' अपनी धारणाओं को निश्चित करता है तथा दार्शनिक के निष्कर्ष अपने-आपको विज्ञान और अनुभव की स्थिर आधारशिला पर स्थापित करते हैं ।
वैयक्तिक मन की खातिर मनुष्य जीवन के साथ इस सम्बन्ध को प्राप्त करने की चेष्टा कर सकता है; इसमें वह भौतिक जीवन के रूपों के प्रति या जाति के उत्थान के प्रति पूर्णतया उदासीन रहता है । यह उदासीनता ऐपीक्यूरियन अर्थात् भोगवादी अनुशासन में अपने चरम रूप में दिखायी पड़ती है, 'स्टोइक' (Stoic) अर्थात् तितिक्षावादी अनुशासन-प्रणाली में भी यह पूर्णता अनुपस्थित नहीं है । यहां तक कि परार्थवाद की दृष्टि से किया गया दयापूर्ण कार्य भी जितना अपनी खातिर किया जाता है उतना उस जगत् की खातिर नहीं जिसकी सहायता के निमित्त वह किया जाता है । किन्तु यह भी एक सीमित चरितार्थता ही है । विकसनशील मन का
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सर्वश्रेष्ठ कार्य तब होता है जब वह समस्त जाति को अपने स्तर तक उठाने की कोशिश करता है; ऐसा वह या तो अपने विचार और अपनी परिपूर्णता की प्रतिमूर्त्ति के बीजों को प्रसारित करके करता है या फिर जाति के भौतिक जीवन को नये रूपों में अर्थात् धार्मिक, बौद्धिक, सामाजिक या राजनीतिक रूपों में परिवर्तित करके करता है । इन रूपों का उद्देश्य है सत्य के, सौन्दर्य, न्याय और सदाचार के उस ओदर्श का अधिक निकट रूप में प्रतिनिधित्व करना जिससे मनुष्य की अपनी आत्मा आलोकित हो चुकी है । ऐसे क्षेत्र में यदि असफलता प्राप्त हो तो इसका कोई अधिक महत्त्व नहीं । कारण, स्वयं प्रयत्न ही सक्रिय और सर्जनकारी होता है । जविन को उठाने के लिये मन का संघर्ष जीवन की उस वस्तु के द्वारा विजय की आशा और शर्त है जो मन से भी बड़ी है ।
उच्चतम जीवन अर्थात् आध्यात्मिक जीवन सनातन सत्ता के साथ सम्बन्ध अवश्य रखता है, किन्तु इसी कारण वह क्षणिक सत्ता से पूर्णतया अलग नहीं हो जाता । आध्यात्मिक मनुष्य के लिये मन का पूर्ण सौन्दर्य-सम्बन्धी स्वप्न एक ऐसे सनातन प्रेम, सौन्दर्य और आनन्द में चरितार्थ होता है जो किसीपर निर्भर नहीं है तथा जो समस्त दृश्यमान प्रतीतियों के पीछे समान रूप से स्थित है; पूर्ण सत्य-सम्बन्धी उसका स्वप्न उस सर्वोच्च, स्वयंस्थित, स्वयं-प्रत्यक्ष और सनातन सत्य में चरितार्थ होता है जो कभी परिवर्तित नहीं होता, बल्कि जो समस्त परिवर्तनों की और समस्त उन्नति के लक्ष्य को व्याख्या करता है तथा उनका रहस्य है । उसका पूर्ण-कर्म-सम्बन्धी स्वप्न उस सर्वशक्तिमान, स्वयं अपना पथ-प्रदर्शन करनेवाले दिव्य विधान में चरितार्थ होता है जो सदा समस्त वस्तुओं के अन्दर निहित है और यहां जगतों की लयपूर्ण व्यवस्था में अपने- आपको व्यक्त करता है । आलोकपूर्ण 'सत्ता' में जो अस्थिर अन्तर्दृष्टि है या सृष्टि-सम्बन्धी सतत प्रयत्न है वह 'सत्ता' में सदा स्थिर रहनेवाली एक ऐसी सद्वस्तु है जौ सब कुछ जानती है और सबकी स्वामिनी है ।१
किन्तु यदि मानसिक जीवन अपने-आपको स्थूल रूप से प्रतिरोधकारी भौतिक क्रिया के अनुकूल बनाने में बहुधा कठिनाई अनुभव करता है तो आध्यात्मिक जीवन के लिये एक ऐसे जगत् में निवास करना कितना अधिक कठिन प्रतीत होगा जो 'सत्य' से नहीं, बल्कि प्रत्येक झूठ और भ्रान्ति सै, 'प्रेम' और 'सौन्दर्य' से नहीं, बल्कि सर्वग्रासी विरोध और कुरूपता से, 'सत्य' के नियम से नहीं, बल्कि विजयी स्वार्थ और अधर्म से परिपूर्ण है ? इसीलिये आध्यात्मिक जीवन अपनानेवाले सन्त या संन्यासी को सामान्य प्रवृत्ति भौतिक जीवन को त्यागने की तथा उसे पूर्णतया
१ वह एकीकृत सत्ता है, जिसमें चेतन विचार एकाग्र रहता है, जो सर्व-आनन्दपूर्ण है तथा आनन्द की भोक्त्री है, वह बुद्धिमत्तापूर्ण सत्ता है... वह सबकी स्वामिनी है, सर्वज्ञात्री है, आन्तरिक पथ-प्रदर्शिका है ।
—माण्डुक्य अपनिषद्- ५, ६
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और भौतिक रूप से या आत्मिक रूप से अस्वीकार करने की होती है । वह इस संसार को तो 'अशुभ' या 'अज्ञान' का राज्य समझता है और सनातन एवं दिव्य सत्ता को या तो सुदूर स्वर्ग में या इस जगत् और जीवन से परे देखता है । वह अपने-आपको उस अपवित्रता से अलग कर लेता है; वह आध्यात्मिक सद्वस्तु का समर्थन विशुद्ध एकान्त में करता है । उसका यह त्याग भौतिक जीवन की एक अमूल्य सेवा इस बातमें करता है कि वह उसे उस वस्तु का आदर करने और उसके सामने सिर झुकाने के लिये बाध्य करता है जो उसके तुच्छ आदर्शों का और हीन चिन्ताओं और अहंभावयुक्त स्वतुष्टि का सीधा निषेध है ।
किन्तु संसार में आध्यात्मिक शक्ति जैसी सर्वोच्च शक्ति का कार्य इस प्रकार सीमित नहीं किया जा सकता । आध्यात्मिक जीवन भी भौतिक जीवन की ओर वापिस आकर उसपर क्रिया कर सकता है तथा अपनी महत्तर पूर्णता के लिये उसका एक साधन के रूप में प्रयोग कर सकता है । क्योंकि वह द्वंद्वों और बाह्य प्रतीतियों के द्वारा अन्धा होना अस्वीकार कर सकता है, वह सब बाह्य प्रतीतियों में, चाहे जो भी वे हों, उसी 'भगवान्' की, उसी सनातन 'सत्य', 'सौन्दर्य', 'प्रेम' और 'आनन्द' की झलक की खोज कर सकता है । समस्त वस्तुओं में उपस्थित 'आत्मा' का, 'आत्मा' में उपस्थित सब वस्तुओं का तथा 'आत्मा' की अभिव्यक्तियों के रूप में समस्त वस्तुओं का वैदान्तिक सूत्र इस अधिक समृद्ध और सबको अपने अन्दर धारण करनेवाले योग की कुंजी है ।
किन्तु इस प्रकार, मानसिक जीवन की भांति आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्ति के लाभ के लिये इस बाह्य अस्तित्व का प्रयोग कर सकता है; इसमें वह ऐसे जगत् के किसी भी सामूहिक उत्कर्ष की ओर से पूर्णतया उदासीन रह सकता है जो कैवल एक प्रतीकमात्र है तथा जिसका वह प्रयोग करता है । क्योंकि सनातन सत्ता सदा सब वस्तुओं में एक ही रहती है और सब वस्तुएं सनातन सत्ता के लिये भी वही रहती हैं, क्योंकि मनुष्य में उसी एक महान् उपलब्धि की चरितार्थता के मह्त्त्व की अपेक्षा कार्य करने के यथार्थ ढंग और परिणाम का महत्त्व बहुत ही कम है, यह आध्यात्मिक उदासीनता किसी भी वातावरण को, किसी भी कर्म को शान्त भाव से स्वीकार कर लेती है, पर सर्वोच्च लक्ष्य के प्राप्त होते ही वह पीछे हटने के लिये भी तैयार हो जाती है । गीता के आदर्श को बहुतों ने इसी ढंग से समझा है । या फिर आन्तरिक प्रेम और आनन्द अच्छे कार्यों, सेवा और करुणा के रूप में अपने-आपको संसार में उंडेल सकते हैं और आन्तरिक सत्य ज्ञान के रूप मैं अपने-आपको संसार में उंडेल सकता है; अतएव, वे संसार को रूपान्तरित करने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि वह अपने अविच्छेद्य स्वभाव के कारण द्वंद्वों का, पाप और पुण्य का, सत्य और भ्रान्ति का तथा सुख और दुःख का युद्ध- क्षेत्र ही बना रहता है ।
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किन्तु यदि 'उन्नति' जागतिक जीवन के प्रधान तथ्यों में से एक है और भगवान् की विकसनशील अभिव्यक्ति ही प्रकृति का सच्चा अर्थ है तो उन्नति-सम्बन्धी यह सीमा भी ठीक नहीं है । जगत् में आध्यात्मिक जीवन के लिये यह सम्भव है कि वह भौतिक जीवन को अपने प्रतिरूप में, भगवान् के प्रतिरूप में परिवर्तित कर दे, बल्कि यही उसका सच्चा कार्य है । इसीलिये, उन महान् एकान्तवासी योगियों को छोड़कर जिन्होंने अपनी मुक्ति की ही खोज की और उसे प्राप्त भी कर लिया, कुछ ऐसे महान् आध्यात्मिक गुरु भी हो चुके हैं जिन्होंने दूसरों को भी मुक्ति दिलायी है । इनसे भी अधिक ऊँची वे महान् सक्रिय आत्माएं हैं जो आत्मिक शक्ति में अपने-आपको भौतिक जगत् की सभी शक्तियों से अधिक सबल अनुभव करके एकत्रित हो गयी हैं, इन्होंने भी संसार पर कार्य किया है, प्रेमपूर्ण साम्मुख्य में उसके साथ संघर्ष किया है, तथा उसे इस बात के लिये बाध्य करने की चेष्टा की है कि वह अपने रूपान्तर के लिये अपनी स्वीकृति दे । साधारणतया मनुष्यजाति में मानसिक और नैतिक परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया जाता है, किन्तु इसका विस्तार हमारे जीवन के तथा उसके आचार-व्यवहारों के रूपों के परिवर्तन तक भी हो सकता है जिससे कि वे भी आत्मा के आन्तरिक रस को ग्रहण करने के लिये अधिक उपयुक्त सांचे बन जाएं । ये प्रयत्न मानवी आदर्शों की विकसनशील प्रगति तथा जाति की दिव्य तैयारी में सर्वोच्च संकेत रहे हैं । इनमेंसे प्रत्येक के बाह्य परिणाम चाहे जो हों उसने पृथ्वी को स्वर्ग-प्राप्ति के अधिक योग्य बना दिया है तथा 'प्रकृति' के विकासात्मक 'योग' की मंद गति को द्रुत कर दिया है ।
भारतवर्ष में, पिछले एक हजार या इससे अधिक वर्षों में आध्यात्मिक और भौतिक जीवन पास-पास चलते रहे हैं, इन्होंने मन के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया । आध्यात्मिकता ने जड़ पदार्थ के साथ यह समझौता कर लिया है कि वह सामान्य उन्नति साधित करने का प्रयोग छोड़ देगा । उसने समाज से उन सब के लिये स्वतन्त्र आध्यात्मिक उन्नति का अधिकार प्राप्त कर लिया है जो एक विशेष प्रतीक अर्थात् संन्यासी के वेश को अपना लेते हैं; उसने यह स्वीकार कर लिया है कि यही जीवन मनुष्य का लक्ष्य है और जो इसे अपनाते हैं वही पूर्ण सम्मान के योग्य हैं । उसने समाज को एक ऐसे धार्मिक सांचे में ढाल दिया है कि उसके अत्यधिक अभ्यस्त कार्यों के साथ भी जीवन और उसके अन्तिम लक्ष्य का आध्यात्मिक प्रतीक जुड़ा रहता है जिससे कि उसे इसकी याद बनी रहे । पर इसके विपरीत, समाज को अधिकार केवल तमस् और निश्चल आत्मरक्षा का ही मिला । इस छूट ने उन तथ्यों के महत्त्व को बहुत कुछ नष्ट कर दिया । जब धार्मिक सांचा नियत हो गया तो यह वैधिक ढंग से स्मरण दिलाने की रीति नित्यप्रति का क्रम हो गयी और उसने अपना सजीव अर्थ खो दिया । नये मतों और धर्मों के द्वारा सांचे को बदलने के सतत प्रयत्न एक नये क्रम में अथवा पुराने क्रम के संशोधित रूप
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में समाप्त हो गये । मुक्त और सक्रिय मन का उद्धारक तत्त्व निर्वासित हो चुका था, क्योंकि स्थूल जीवन तब अज्ञान को, उद्देश्यहीन और अमिट द्वंद्व को सौंप दिया गया था । वह एक ऐसा बोझिल और दुःखदायी जुआ बन गया जिससे भागकर ही मनुष्य बच सकता था ।
भारतीय योग की पद्धतियों ने तब स्वयं ही एक समझौता कर लिया । तब वैयक्तिक पूर्णता या मुक्ति लक्ष्य बन गया और साधारण कर्मों से एक प्रकार का सम्बन्ध-विच्छेद शर्त बन गयी और जीवन का त्याग अन्तिम उपलब्धि हो गया । गुरु अपना ज्ञान केवल कुछ शिष्यों को ही देता था । और, यदि एक विस्तृत क्षेत्र में कार्य करने के लिये प्रयत्न किया भी गया तो भी लक्ष्य व्यक्तिगत आत्मा की मुक्ति ही रहा । अधिकतर तो एक रूढ़ समाज के साथ समझौता ही काम में लाया जाता था ।
उस वक्त जो संसार की वास्तविक दशा थी उसमें इस समझौते की उपयोगिता पर सन्देह नहीं किया जा सकता । इसने भारतवर्ष में एक ऐसे समाज को सुरक्षित रखा जिसने आध्यात्मिकता की रक्षा एवं पूजा की; यह एक ऐसा देश बना रहा जिसमें एक किले की भांति सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श अपनी अत्यधिक पूर्ण विशुद्धता के साथ अपने-आपको बनाये रख सका, इस किले में वह अपने चारों ओर की शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहा । किन्तु यह केवल एक समझौता था, एक पूर्ण विजय नहीं । परिणाम-स्वरूप, भौतिक जीवन ने विकास-सम्बन्धी दिव्य प्रेरणा को खो दिया, आध्यात्मिक जीवन ने अलग रहकर अपनी उच्चता और विशुद्धता को सुरक्षित तो रखा, पर संसार की वह जो सेवा कर सकता था उसका तथा अपनी पूर्ण शक्ति का उसे बलिदान करना पड़ा । अतएव, दिव्य भवितव्यता में योगियों और संन्यासियों के देश को ठीक उसी तत्त्व के साथ अपना दृढ़ और अनिवार्य सम्बन्ध बनाना पड़ा जिसे वह पहले अस्वीकार कर चुका था, यह विकसनशील मन का तत्त्व था । यह सब इसलिये करना पड़ा कि जो चीज उसके पास अब नहीं है उसे वह पुन: प्राप्त कर सके ।
हमें यह एक बार फिर स्वीकार करना पड़ेगा कि व्यक्ति केवल अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि समूह में भी निवास करता है और यह कि वैयक्तिकि पूर्णता और मुक्ति ही संसार में भगवान् के अभिप्राय का समस्त अर्थ नहीं है । हमारी स्वाधीनता के स्वतन्त्र प्रयोग में दूसरों की बल्कि मनुष्यमात्र की मुक्ति निहित है । अपने अन्दर दिव्य प्रतीक को चरितार्थ करने के बाद, हमारी पूर्णता का प्रयोजन इसमें है कि हम इसे दूसरों में भी साधित करें, इसे बढ़ाये तथा अन्त में इस विश्वव्यापी बना दें ।
यदि हम मानवजीवन को उसकी तीनों सम्भावनाओं-सहित वास्तविक दृष्टिकोण से देखें तो हम ठीक उसी निष्कर्ष पर पंहुचते हैं जिसे हमने प्रकृति की सामान्य
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क्रियाओं तथा उसके विकासक्रम के तीनों पगों का निरीक्षण करने के बाद निकाला था और तभी हम अपने योग-सम्बन्धी समन्वय के पूर्ण उद्देश्य को समझना आरम्भ करते हैं ।
'आत्मा' वैश्व जीवन की उच्चतम चोटी है; 'जड़-पदार्थ' उसका आधार और 'मन' इन दोनोंको जोड़नेवाला सूत्र है । 'आत्मा' सनातन वस्तु है और मन और जड़-पदार्थ उसकी क्रियाएं हैं । आत्मा वह वस्तु है जो छुपी हुई है और जिसे प्रकाश में लाना है; मन और शरीर वे साधन हैं जिनके द्वारा वह अपने-आपको प्रकाश में लाने की चेष्टा करती है । आत्मा 'योग' के 'स्वामी' की प्रतिमूर्ति है; मन और शरीर वे साधन हैं जिन्हें उसने इस प्रतिमूर्ति को भौतिक जीवन में उत्पन्न करने के लिये हमें प्रदान किया है । समस्त प्रकृति इस छिपे हुए 'सत्य' को अधिकाधिक व्यक्त करने का एक प्रयत्न है, दिव्य प्रतिमूर्त्ति की एक अधिकाधिक सफल पुनरावृत्ति है ।
किन्तु जिस वस्तु को प्रकृति समुदाय के लिये एक धीमे विकास के द्वारा उत्पन्न करने की कोशिश करती है उसे 'योग' व्यक्ति के लिये एक द्रुत विकास के द्वारा साधित कर लेता है । वह उसकी समस्त शक्तियों को वेग प्रदान करके और समस्त सामर्थ्य को ऊंचा उठाकर कार्य करता है । प्रकृति आध्यात्मिक जीवन को बड़ी कठिनाई से विकसित कर पाती है और इसमें उसे सदा अपनी निम्न उपलब्धियों की प्राप्ति के लिये निम्न स्तर पर आना पड़ता है, उधर योग की दिव्यभावापन्न शक्ति और केन्द्रित प्रणाली सीधे ही मन की पूर्णता प्राप्त कर सकती है, बल्कि वह उसे अपने साथ ही ला सकती है । इतना ही नहीं, यदि उसे प्रकृति का सहयोग मिले तो वह शरीर की पूर्णता भी प्राप्त कर सकती है । प्रकृति भगवान् को अपने प्रतीकों में खोजती है । योग 'प्रकृति' से आगे 'प्रकृति' के स्वामीतक, विश्व से आगे 'परात्पर सत्ता ' तक जाता है और फिर परात्पर प्रकाश और परात्पर शक्ति सहित सर्वशक्तिमान् भगवान् के आदेश से वापिस भी लौट सकता है ।
किन्तु दोनों का उद्देश्य अन्त में एक ही है । मनुष्यजाति में 'योग' को व्यापक बनाने का अर्थ यह है कि प्रकृति अपने विलम्बों और रहस्पों पर अन्तिम विजय प्राप्त कर लै । अभी तो वह विज्ञान के विकसनशील मन के द्वारा समस्त मनुष्यजाति को मानसिक जीवन के पूर्ण विकास के लिये तैयार करने की कोशिश करती है, इसी प्रकार योग के द्वारा उसे समस्त मनुष्यजाति को एक उच्चतर विकास के लिये, एक नये जन्म अर्थात् आध्यात्मिक जीवन के लिये अनिवार्य रूप में समर्थ बनाने की कोशिश करनी चाहिये । जिस प्रकार मानसिक जीवन भौतिक जीवन का प्रयोग करके उसे पूर्ण बनाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन भी भौतिक और मानसिक जीवन का प्रयोग करके उन्हें पूर्ण बनायेगा, ये दिव्य आत्म- अभिव्यक्ति के यन्त्र होंगे । जिन युगों में यह कार्य साधित होगा वे पूरणप्रोक्त
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'सत्य' और 'कृत'१ अर्थात् प्रतीक के रूप में व्यक्त 'सत्य' के युग होंगे, ये उस महान् कार्य के युग होंगे जब कि प्रकृति मनुष्यजाति में प्रकाश, सन्तोष और आनन्द से परिपूर्ण हो जाती है तथा अपने प्रयत्न के शिखर पर पहुंचकर वहीं विश्राम करती है |
अब मनुष्य को विश्व प्रकृति का प्रयोजन समझना है, उसे विश्व-माता को गलत समझना, उसकी उपेक्षा करना, उसका दुरुपयोग करना छोड़ देना है । उसे माता के उच्चतम आदर्श को प्राप्त करने के लिये उसीके सबलतम साधनों के द्वारा सदैव अभीप्सा करनी है ।
१ सत्य, कृत अर्थात् चरितार्थ या पूर्ण ।
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