Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ५
त्याग
यदि शुद्धता और एकाग्रता के द्वारा हमारी सत्ता के सभी अंगों के नियमन को योग के शरीर की दायीं भुजा कहा जाये तो त्याग उसकी बायीं भुजा है । नियमन या भावात्मक साधना के द्वारा हम अपने अन्दर वस्तुओं और सत्ता के सत्य को तथा ज्ञान, प्रेम और कर्मों के सत्य को परिपुष्ट करते हैं और इन्हें उन असत्यों के स्थान पर प्रतिष्ठित कर देते हैं जिन्होंने हमारी प्रकृति को आच्छादित और विकृत कर रखा है; त्याग के द्वारा हम उन असत्यों पर टूट पड़ते हैं, उन्हें जड़-मूल से उखाड़ फेंकते हैं और अपने रास्ते से निकाल बाहर करते हैं जिससे कि वे हमारे दिव्य जीवन के सुखद और समस्वर विकास को अपने दुराग्रह, प्रतिरोध या पुनरावर्तन से अब और न रोक सकें । त्याग हमारी पूर्णता का अनिवार्य साधन है ।
यह त्याग कहां तक जायेगा? इसका स्वरूप क्या होगा? और इसका प्रयोग किस प्रकार किया जायेगा? एक प्रचलित प्रथा, जिसका समर्थन महान् धार्मिक शिक्षक और गम्भीर आध्यात्मिक अनुभव से सम्पन्न व्यक्ति चिरकाल से करते आये हैं, यह है कि त्याग केवल एक साधना के रूप में ही पूर्ण नहीं होना चाहिये, बल्कि एक साध्य के रूप में भी सुनिश्चित और चरम होना चाहिये और साथ ही इसे स्वयं जीवन और हमारी पार्थिव सत्ता के त्याग से जस भी नीचा नहीं रहना चाहिये । इस विशुद्ध, उच्च और अति महान् प्रथा के विकास में अनेक कारणों ने अपना योगदान किया है । सबसे पहला और गभीरतर कारण यह है कि हमारे मानव-विकास की वर्तमान अवस्था में जागतिक जीवन जैसा आज है उसके मलिन और अपूर्ण स्वरूप तथा आध्यात्मिक जीवन के स्वरूप में आमूल विरोध है; और इस विरोध का परिणाम यह हुआ है कि जगत्-जीवन को एक मिथ्या वस्तु आत्मा का उन्माद तथा विक्षोभपूर्ण एवं दुःखदायी स्वप्न मानकर या, इसके सर्वोत्तम रूप में, इसे एक दोषमुक्त, सत्याभासी और निरर्थक-सी वस्तु मानकर पूर्णतया त्याग दिया गया है, अथवा इसे मायामय जगत् शारीरिक भोग और शैतान का राज्य कहकर वर्णित किया गया है और अतएव, भगवान् के द्वारा र्पारेचालित और आकृष्ट आत्मा के लिये इसे केवल अग्रि-परीक्षा एवं तैयारी का स्थान माना गया है, अथवा, सर्वोत्तम दृष्टि से देखने पर भी, इसे 'सर्व' -सत्तास्वरूप प्रभु की एक ऐसी लीला एवं परस्पर-विरोधी उद्देश्यों की एक ऐसी क्रीड़ा माना गया है जिसे वे उससे ऊबकर छोड़ देते हैं । इस प्रथा का दूसरा कारण है-वैयक्तिक मोक्ष के लिये तथा उस अमिश्रित आनन्द और शान्ति के किसी दूरतर या दूरतम शिखर पर भाग जाने के लिये आत्मा की लालसा जो श्रम और संघर्ष से विक्षुब्ध न हों; या फिर, इसका
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कारण है—भगवान् के आलिंगन के परमानन्द से कर्म और सेवा के निम्नतर क्षेत्र में लौटने की उसकी अनिच्छा । परन्तु कुछ अन्य अपेक्षाकृत हलके कारण भी हैं जो आध्यात्मिक अनुभव के साथ प्रासंगिक रूप से सम्बद्ध हैं, जैसे, आध्यात्मिक शान्ति तथा अध्यात्म-साक्षात्कारमय जीवन के साथ कर्ममय जीवन का मेल साधने की भारी कठिनाई का प्रबल भान एवं क्रियात्मक प्रमाण—इस कठिनाई को हम स्वेच्छापूर्वक बढ़ा-चढ़ा कर एक असाध्य कठिनाई का रूप दे देते हैं; या फिर इसका कारण होता है वह आनन्द जिसे मन त्याग की क्रिया एवं अवस्थामात्र में अनुभव करने लगता है, —जैसे कि वह ऐसी किसी भी चीज में जिसे वह प्राप्त कर लेता है या जिसका अभ्यस्त हो जाता हैं, सचमुच ही आनन्द लेने लगता है, — और इसी प्रकार जगत् के प्रति तथा मनुष्य के काम्य पदार्थों के प्रति उदासीनता से शान्ति और मुक्ति की जो अनुभूति प्राप्त होती है वह भी इसका कारण बनती है । सबसे निम्न कारण हैं—वह दुर्बलता जो संघर्ष से कतराती है, अन्तरात्मा की वह विरक्ति एवं निराशा जो महान् जागतिक श्रम से पराजित होने पर उसके अन्दर उत्पन्न होती है, वह स्वार्थपरता जो इस बात की चिन्ता नहीं करती कि हमारे पीछे बच रहे लोगों का क्या बनेगा जबतक कि हम स्वयं मृत्यु और पुनर्जन्म के सदा घूमते रहनेवाले राक्षसी चक्र से मुक्त हों सकते हैं, और श्रमरत मानवता के अन्दर से उठनेवाले आर्तनाद के प्रति उदासीनता ।
पूर्णयोग के साधक के लिये इनमें से कोई भी कारण (त्याग का औचित्य सिद्ध करने के लिये) युक्तियुक्त नहीं है । दुर्बलता और स्वार्थपरता से उसका कोई सबन्ध नहीं हों सकता, भले वे अपने वेष या अपनी प्रवृत्ति में कितनी ही आध्यात्मिक क्यों न हों, वह जो कुछ, बनना चाहता है उसका असली उपादान ही हैं—दिव्य बल और साहस, दिव्य करुणा और साहाय्यकारिता, ये गुण भगवान् की वह निज प्रकृति हैं जिसे वह आध्यात्मिक प्रकाश और सौन्दर्य के बाह्य वेष के रूप में धारण करना चाहता है । यह जो विराट् चक्र निरन्तर घूम रहा है इसके चक्करों से उसे भय नहीं लगता और न इनसे उसके सिर में चक्कर ही आते हैं; अपनी आत्मा में वह इस चक्र से ऊपर उठ जाता है और वहां से इसके चक्करों के दैवी विधान और दैवी प्रयोजन को जान लेता है । दिव्य जीवन और मानव-जीवन में मेल साधने, भगवान् में रहने और फिर भी मानव-सत्ता में जीवन-यापन करने की कठिनाई ही वह कठिनाई है जो यहां समाधान करने के लिये उसके सामने उपस्थित की जाती है और उसे इससे भागना नहीं होगा । वह जान गया है कि आनन्द, शान्ति और मोक्ष तबतक एक अपूर्ण विजय एवं एक अवास्तविक प्राप्ति ही रहते हैं जबतक कि वे एक ऐसी अवस्था का निर्माण नहीं करते जो अपने-आपमें सुरक्षित हो तथा उसकी आत्मा का एक अविच्छेद्य अंग हो, जो एकान्तवास और निष्क्रियता पर आश्रित न हो, बल्कि तूफान, प्रतिस्पर्धा और युद्ध में भी सुस्थिर रहे और जो सांसारिक हर्ष या
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शोक किसी से भी कलुषित न हों\ । भगवान् के आलिंगन का दिव्यानन्द उसे छोड़ नहीं देगा, क्योंकि वह मानवजाति में रहनेवाले भगवान् के प्रति दिव्य प्रेम से प्रेरित होकर कार्य करता है; अथवा यदि यह कुछ समय के लिये उससे हटता प्रतीत होता है तो भी अनुभव द्वारा वह जानता ही होता है कि यह अभी उसकी और अधिक परीक्षा लेने एवं उसे और कसौटी पर कसने के लिये है ताकि इससे मिलने के उसके अपने ढंग में जो कोई अपूर्णता रह गयी है वह उससे झड़कर दूर हो जाये । अपनी निजी मुक्ति की उसे कोई कामना नहीं होती और यदि होती भी है तो केवल इसलिये कि मानव की परिपूर्णता के लिये इसकी आवश्यकता है और इसलिये भी कि जो स्वयं बन्धन में है वह दूसरों को सहज में मुक्त नही कर सकता, —यद्यपि भगवान् के लिये कुछ भी असम्भव नहीं; जिस प्रकार वैयक्तिक सुखोंवाले स्वर्ग की उसे कोई लालसा नहीं उसी प्रकार व्यक्तिगत दुःखोंवाले नरक से उसे कोई भय भी नहीं लगता । यदि आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन में विरोध है तो यही वह खाई है जिसपर सेतु बांधने के लिये वह यहां आया है, यही वह विरोध है जिसे सामंजस्य में बदलने के लिये उसका यहां जन्म हुआ है । यदि आज संसार पर देहपरायणता और आसुरिकता का शासन है तो यह इस बात का और भी प्रबल कारण है कि अमरता के पुत्र (अमृतस्य पुत्रा:) इसे ईश्वर और आत्मा के निमित्त जीतने के लिये यहां उपस्थिति रहें । यदि जीवन एक प्रकार का उन्माद है तब तो करोड़ों आत्माएं ऐसी हैं जिन्हें दैवी बुद्धि का प्रकाश प्रदान करना होगा; यदि यह एक स्वप्न है तो भी यह कितने ही स्वप्न लेनेवालों के लिये अपने- आपमें वास्तविक है जिन्हें प्रेरित करना होगा कि वे या तो अधिक श्रेष्ठ स्वप्न लें या फिर जाग उठे; अथवा यदि यह एक मिथ्या-माया है तो भ्रम में पड़े लोगों को सत्य की प्राप्ति करानी होगी । यदि यह कहा जाये कि जगत् से दूर भागने के उज्ज्वल दृष्टान्त से ही हम जगत् की सहायता कर सकते हैं तो हम इस सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि महान् अवतारों का उल्टा दृष्टान्त इस बात को सिद्ध करने के लिये विद्यमान है कि जगत् की सहायता हम केवल इसके वर्तमान जीवन के त्याग से ही नहीं कर सकते, बल्कि इसे स्वीकार तथा उन्नत करके भी कर सकते हैं तथा अधिक मात्रा में कर सकते हैं । और यदि यह विराट् सस्वरूप प्रभु की लीला है तो हम इसमें सुन्दर ढंग से तथा साहस के साथ अपना भाग लेने के लिये सहज ही सहमत हो सकते हैं, इस खेल में अपने दिव्य लीला-सहचर के साथ सम्यक्तया आनन्द ले सकते हैं ।
परन्तु सबसे बढ़कर, संसार के विषय में जो दृष्टिकोण हमने अपनाया है वह हमें विश्व-जीवन का त्याग करने से मना करता है जबतक कि हम इसके उद्देश्यों को कार्यान्वित करने में ईश्वर और मनुष्य की कुछ भी सहायता कर सकते हैं । हम इस जगत् को शैतान का आविष्कार या आत्मा की भ्रान्ति नहीं, बल्कि भगवान् की
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अभिव्यक्ति समझते हैं, यद्यपि अभीतक यह अभिव्यक्ति आंशिक ही है, क्योंकि यह एक क्रमिक और विकसनशील वस्तु है । अतएव, हमारे लिये जीवन का त्याग जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता और न ही जगत् का त्याग जगत् की रचना का उद्देश्य हो सकता है । हम भगवान् के साथ अपने एकत्व का साक्षात्कार करना चाहते हैं, परन्तु हमारे लिये उस साक्षात्कार के अन्दर मनुष्य के साथ अपनी एकता का पूर्ण और चरम-परम अनुभव भी आ जाता है और हम इन दोनों को स्व-अरे से अलग नहीं कर सकते । ईसाइयों के शब्दों में कहें तो, ईश्वर का पुत्र ईसा 'मानव' का पुत्र भी है और पूर्ण ईसा-पन प्राप्त करने के लिये ईश्वरत्व और मानवत्व ये दोनों ही तत्त्व आवश्यक हैं; अथवा भारतीय विचारशैली के अनुसार कहें तो दिव्य नारायण, यह विश्व जिसकी केवल एक ही किरण है, नर में प्रकट होता है तथा अपनी पूर्ण चरितार्थता लाभ करता है; पूर्ण नर है नर-नारायण और उस पूर्णता में वह सत्ता के परम रहस्य का प्रतीक है ।
अतएव, निश्चय ही, त्याग हमारे लिये साध्य नहीं, वरन् एक साधनमात्र है; न ही यह हमारा एकमात्र या मुख्य साधन हो सकता है, क्योंकि हमारा लक्ष्य है मानव- सत्ता में भगवान् को चरितार्थ करना, यह एक भावात्मक लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति निषेधात्मक साधनों से नहीं हो सकती । निषेधात्मक साधन का प्रयोजन तो उस वस्तु को दूर करना मात्र हो सकता है जो भावात्मक चरितार्थता के मार्ग में बाधा डालती है । इस साधन का मतलब होना चाहिये उन सब वस्तुओं का त्याग, पूर्ण त्याग, जो दिव्य आत्म-परिपूर्णता से भिन्न तथा उसके विरुद्ध हैं और साथ ही इसका मतलब होना चाहिये उस सबका उत्तरोत्तर त्याग जो एक हीनतर या फिर केवल आशिक उपलब्धि है । अपने सांसारिक जीवन के प्रति हममें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होनी चाहिये; यदि आसक्ति हो तो हमें उसका त्याग करना होगा और पूर्ण रूप से करना होगा; पर हमें जगत् से पलायन के प्रति, मोक्ष एवं महान् आत्म-विलोप के प्रति भी किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखनी चाहिये; यदि इनके प्रति आसक्ति हो तो उसका भी हमें त्याग करना होगा और निःशेष रूप से करना होगा ।
और फिर हमारा त्याग, स्पष्ट ही, एक आन्तरिक त्याग होना चाहिये; विशेषतया और सबसे बढ़कर, वह इन तीन चीजों का त्याग होना चाहिये—इन्द्रियों और हृदय में से आसक्ति तथा कामना-लालसा का, विचार और कर्म में से अहंतापूर्ण स्वेच्छा का और चेतना के केंद्र में से अहंभाव का । क्योंकि यही चीजें वे तीन गांठें हैं जिनसे हम अपनी निम्नतर प्रकृति के साथ बंधे हुए हैं और यदि हम इनका पूर्ण रूप से त्याग कर सके तो और कोई ऐसी चीज नहीं जो हमें बांध सके । इसलिये आसक्ति और कामना को पूर्ण रूप से निकाल फेंकना होगा; इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जिसके प्रति हमें आसक्त होना चाहिये, न धन-दौलत, न गरीबी, न हर्ष, न शोक, न जीवन, न मरण, न महानता, न क्षुद्रता, न पाप, न पुण्य, न मित्र,
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न स्त्री, न सन्तान, न स्वदेश, न अपना कार्य और ध्येय, न स्वर्ग, न भूतल और न वह सब जो इनके अन्दर या इनसे परे है ।
इसका मतलब यह नहीं कि यहां ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिससे हमें प्रेम करना चाहिये, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें हमें आनन्द लेना चाहिये; क्योंकि आसक्ति का मतलब है प्रेम में रहनेवाला अहंकार न कि स्वयं प्रेम, कामना का अर्थ है सुख और सन्तोष की भूख में निहित सीमितता और सुरक्षितता, न कि वस्तुओं में विद्यमान दिव्य आनन्द की खोज । पर सार्वभौम प्रेम तो हममें अवश्य होना चाहिये, ऐसा प्रेम जो शान्त एवं स्थिर हो और फिर भी उत्कट-से-उत्कट अनुराग के क्षणिक आवेश के परे नित्य रूप से प्रगाढ़ रहनेवाला हो; इस विश्व की वस्तुओं में आनन्द हमें अवश्य लेना चाहिये, पर ऐसा आनन्द जो भगवान् में मिलनेवाले आनन्द पर आधारित होता है और जो वस्तुओं के बाह्य रूपों के साथ नहीं चिपटता, बल्कि उनके अन्दर छुपे हुए तत्त्व को मजबूती से पक्ड़े रखता है तथा जगत् के पाशों में फंसे बिना१ इसका आलिंगन करता है ।
हम देख ही चुके हैं कि यदि हम दिव्य कर्मों के मार्ग में पूर्ण बनना चाहें तो हमें अपने विचार और कर्म में रहनेवाली अहंतापूर्ण स्वेच्छा को सर्वथा त्याग देना होगा; उसी प्रकार यदि हमें दिव्य ज्ञान में पूर्णता प्राप्त करनी हो तब भी हमें इसका पूर्णतया त्याग करना होगा | इस स्वेच्छा का मतलब हैं मन का अहंभाव जो अपनी पसंदगियों तथा आदतों के प्रति और विचार, दृष्टिकोण एवं संकल्प की अपनी अतीत या वर्तमान रचनाओं के प्रति आसक्त हो जाता है, क्योंकि यह उन्हें 'अपना- आप' या अपनी समझता है, उनके चारों ओर ''मैं-पन'' और ''मेरे-पन'' के सूक्ष्म तन्तुओं का जाल बुन डालता है और जाले में मकड़े की तरह उनमें निवास करता है । जैसे मक्का अपने जाले पर आक्रमण बिल्कुल पसन्द नहीं करता, वैसे ही यह भी अपने साथ छेड़छाड़ बिल्कुल पसन्द नहीं करता और यदि इसे नये दृष्टि- बिन्दुओं एवं नयी धारणाओं के क्षेत्र में ले जाया जाय तो वहां यह अपने-आपको परदेसी और दुःखी अनुभव करता है जैसे मकड़े को अपने जाले के सिवाय किसी और जाले में सब कुछ विदेशी एवं विजातीय लगता है । इस आसक्ति को अपने मन से पूर्णरूपेण निकाल फेंकना होगा । इतना ही नहीं कि हमें जगत् और जीवन के प्रति उस साधारण मनोवृत्ति का त्याग करना होगा जिसे अजागरित मन अपना एक स्वाभाविक अंग समझता हुआ उसके साथ चिपटा रहता है; बल्कि हमें अपनी गढ़ी हुई किसी मानसिक धारणा में या किसी बौद्धिक विचार-पद्धति में अथवा धार्मिक सिद्धान्तों या तार्किक परिणामों की किसी क्रमशृंखला में भी नहीं बंधे रहना चाहिये; हमें केवल मन और इन्द्रियों के पाश को नहीं काटना होगा, वरन् विचारक,
१ निर्लिप्त । वस्तुओं में विद्यमान दिव्य आनन्द निष्काम और निर्लिप्त है, कामना से मुक्त और अतएव अनासक्त है ।
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धर्मगुरु और संप्रदाय-प्रवर्तक के पाश से भी, अर्थात् 'शब्द' के जाल तथा 'विचार' के बंधन से भी मुक्त होकर इनसे बहुत परे चले जाना होगा । ये सब बंधन आत्मा को बाह्य रूपों के घेरे में बन्द करने के लिये हमारे अन्दर तैयार बैठे हैं; परन्तु हमें सदा इन्हें पार करते जाना होगा, सदा ही महत्तर के लिये लघुतर को तथा अनन्त के लिये सान्त को त्यागते जाना होगा; हमें एक प्रकाश से दूसरे प्रकाश की ओर, एक अनुभव से दूसरे अनुभव तथा आत्मा की एक अवस्था से उसकी दूसरी अवस्था की ओर बढ़ने के लिये तैयार रहना होगा जिससे कि हम भगवान् की चरम परात्परता तथा चरम विश्वमयता तक पहुंच सकें । इसी प्रकार, जिन सत्यों को हम अत्यन्त सुरक्षित मानते हुए उनमें विश्वास करते हैं उनमें भी हमें आसक्त नहीं होना होगा, क्योंकि वे उस अनिर्वचनीय ब्रह्म के रूप और अभिव्यक्तियांमात्र हैं जो किसी भी रूप या अभिव्यक्तितक अपने को सीमित रखने से इंकार करता है; हमें, सदा ही, ऊपर से आनेवाले उस उच्चतर शब्द की ओर खुले रहना चाहिये जो अपने-आपको अपने अभिप्राय तक ही सीमित नहीं रखता; साथ ही हमें उस 'विचार' के प्रकाश की ओर भी खुले रहना चाहिये जो अपने अन्दर अपने से उल्टे विचारों को भी धारण किये रहता है ।
परन्तु समस्त प्रतिरोध का केन्द्र है अहंभाव और इसलिये इसके प्रत्येक गुप्त स्थान एवं छद्मवेश में हमें इसका पीछा करना होगा और इसे बाहर घसीट कर इसका वध कर डालना होगा; क्योंकि इसके छद्मवेशों का कोई अन्त नहीं और यह अपने छुपा सकनेवाले स्व-स्व चिथड़े के साथ यथाशक्ति चिपटा रहेगा । परोपकार और उदासीनता प्रायः ही इसके अत्यन्त शक्तिशाली छद्मवेश होते हैं; इन वेशों को पहने हुए तो यह इसका पीछा करेने के लिये नियुक्त दैवी दूतों के सामने आने पर भी उनके विरुद्ध धृष्टतापूर्वक विद्रोह करेगा । यहां परम ज्ञान का सूत्र हमारी सहायता के लिये उपस्थित होता है; अपने मूल दृष्टिबिन्दु में हमें इन विभेदों से कुछ मतलब नहीं, क्योंकि यहां न तो कोई मैं है न तू वरन् है केवल एक दिव्य आत्मा जो अपने सभी मूर्त्त रूपों में समान रूप से विद्यमान है, व्यक्ति और समूह में एकसमान व्याप्त है, और उसे उपलब्ध करना, उसे व्यक्त करना, उसकी सेवा करना तथा उसे चरितार्थ करना ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु है । स्वतुष्टि किंवा परोपकार, उपभोग किंवा उदासीनता मुख्य वस्तु नहीं हैं । यदि इस एकमेव आत्मा की उपलब्धि, चरितार्थता और सेवा हमसे एक ऐसे कार्य की मांग करती हैं जो दूसरों को, अहंकारपूर्ण अर्थ में, अपनी सेवा या अपना ही ख्यापन प्रतीत होता है या फिर अहंपूर्ण भोग एवं अहं-तुष्टि प्रतीत होता है तो भी वह कार्य हमें करना ही होगा, हमें अपने अन्दर के मार्गदर्शक के निर्देशानुसार चलना होगा न कि लोगों की सम्मतियों के अनुसार । परिस्थिति का प्रभाव प्रायः बहुत सूक्ष्म रूप में कार्य करता है; हम अचेतन-प्राय रूप में उस वेश को अधिक पसन्द करते हैं तथा उसीको
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पहन भी लेते हैं जो हमें बाहर से देखनेवाली आंख को सर्वोत्तम दीख पड़ेगा और इस प्रकार हम अपने अन्दर की आंख पर पर्दा पड़ जाने देते हैं; हम दरिद्रता के व्रत का या सेवा का बाना पहनने या फिर उदासीनता, त्याग एवं निष्कलंक साधुता के बाह्य प्रमाणों का जामा पहनने को प्रेरित होते हैं, क्योंकि परम्परा एवं लोकमत हमसे इसी चीज की मांग करता है और साथ ही इसी प्रकार हम अपनी परिस्थिति पर सर्वोत्तम प्रभाव डाल सकते हैं । परन्तु यह सब मिथ्याभिमान और भ्रममात्र है । इन चीजों का वेश भी हमें धारण करना पड़ सकता है, क्योंकि वह हमारी सेवा की वर्दी हो सकता है; पर वह ऐसा नहीं भी हो सकता । बाह्य मानव की दृष्टि का कुछ भी महत्त्व नहीं; अन्दर की आंख ही सब कुछ है ।
गीता की शिक्षा में हम देखते, हैं कि अहंभाव से मुक्ति की जो मांग की जाती है वह कितनी सूक्ष्म वस्तु है । शक्ति का मद एवं क्षत्रिय का अहंकार अर्जुन को लड़ने के लिये प्रेरित करते हैं; इससे उल्टा दुर्बलता का अहंकार उसे युद्ध से पराड़्मुख करता हैं; दुर्बलता का मतलब है उसकी जुगुप्सा, वैराग्य की भावना, मन, स्नायविक सत्ता और इन्द्रियों को अभिभूत करनेवाली मिथ्या 'कृपा',
जैसा कि गीता ने बल देकर कहा है, इसकी कसौटी हमारे अन्दर है । वह यह
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कि अन्तरात्मा को लालसा और आसक्ति से मुक्त रखा जाये, पर साथ ही इसे अकर्म के प्रति आसक्ति से तथा कर्म करने के अहंपूर्ण आवेग से भी मुक्त रखा जाय, पुण्य के बाह्य रूपों के प्रति आसक्ति तथा पाप के प्रति आकर्षण-दोनों से एकसमान मुक्त रखा जाये । इसका मतलब है एकमेव आत्मा में निवास करने तथा उसीमें कर्म करने के लिये ''अहंता'' और ममता से मुक्त होना; विराट् पुरुष के व्यक्तिगत केन्द्र के द्वारा कर्म करने से इंकार करने के अहंकार का त्याग करना और साथ ही अन्य सबकी सेवा को छोड़कर केवल अपने वैयक्तिक मन, प्राण और शरीर की सेवा करने के अहंकार का भी त्याग करना । आत्मा में निवास करने का अर्थ यह नहीं कि हम केवल अपने लिये अनन्त में इस प्रकार रहने लगे कि निर्व्यक्तिक आत्मानन्द के उस महासागर में निमग्न होकर सब वस्तुओं की सुध ही बिसार दें; बल्कि इसका मतलब है उस परम आत्मा की तरह तथा उसीमें निवास करना जो इस देह में तथा सब देहों में और साथ ही सब देहों से परे भी समान रूप से विद्यमान है । यही है पूर्णज्ञान ।
इससे यह स्पष्ट हो गया होगा कि त्याग के विचार को हम जो स्थान देते हैं वह इसके प्रचलित अर्थ से भिन्न है । प्रचलित रूप में इसका अर्थ है स्वार्थ-त्याग, सुख का वर्जन, सुखभोग के विषयों का त्याग । स्वार्थ-त्याग मनुष्य की अन्तरात्मा के लिये एक आवश्यक साधन है, क्योंकि उसका हृदय अज्ञानमय आसक्ति से भरा हूआ है; सुख का वर्जन आवश्यक है, क्योंकि उसकी इन्द्रियां ऐन्द्रिय तुष्टियों के पंकिल मधु में फंस जाती हैं और उसमें लथपथ होकर उसीसे चिपकी रहती हैं; सुखभोग के विषयों का त्याग उसपर बलात् थोपा जाता है, क्योंकि उसका मन विषय के साथ चिपट जाता है और उससे परे तथा अपने अन्दर जाने के लिये उसे छोड़ना नहीं चाहता । यदि मनुष्य का मन इस प्रकार अज्ञ, आसक्त, अपनी अशान्त अस्थिरता में भी आबद्ध तथा वस्तुओं के बाह्य रूपों के द्वारा विभ्रान्त न होता तो त्याग की आवश्यकता ही न पड़ती ; आत्मा आनन्द के पथ पर, अल्प आनन्द से महान् आनन्द की ओर, हर्ष से दिव्यतर हर्ष की ओर अग्रसर हो सकती, पर वर्तमान अवस्था में यह सम्भव नहीं । जिन भी चीजों के प्रति मानव-मन आसक्त है उन सबको इस अन्दर से त्याग देना होगा, ताकि यह उस तत्त्व को प्राप्त कर सके जो कि वे अपने सत्य स्वरूप में हैं । बाह्य त्याग मुख्य वस्तु नहीं है, पर वह भी कुछ समय के लिये आवश्यक होता है, अनेक विषयों में तो अनिवार्य भी होता है और कभी-कभी तो सभी विषयों में उपयोगी होता है; हम यहांतक कह सकते हैं कि पूर्ण बाह्य त्याग एक ऐसी अवस्था है जिसमें से आत्मा को अपनी उन्नति के किसी काल में अवश्य गुजरना पड़ता है, —यद्यपि यह त्याग सदा ही उन स्वच्छन्द जोर-जबर्दस्तियो तथा भीषण आत्म-यन्त्रणाओं के बिना ही करना चाहिये जो हमारे अन्दर विराजमान भगवान् के प्रति अपराधरूप होती हैं । परन्तु अन्ततः यह त्याग या
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स्वार्थत्याग सदा एक साधन ही होता है और इसकी उपयोगिताका काल आकर चला जाता है । किसी पदार्थ का परित्याग करना उस समय आवश्यक ही नहीं रह जाता जब कि वह हमें अपने जाल में अब और नहीं फंसा सकता, क्योंकि आत्मा जिसका आनन्द लेती है वह पदार्थ के रूप में पदार्थ नहीं होता, बल्कि उसके द्वारा व्यक्त होनेवाला भगवान् ही होता है; सुख-भोग के वर्जन की तब और आवश्यकता नहीं रहती जब कि आत्मा पहले की तरह सुख की खोज नहीं करती, बल्कि स्वयं पदार्थ पर व्यक्तिगत या भौतिक स्वत्व प्राप्त करने की आवश्यकता के बिना सभी पदार्थों में भगवान् का आनन्द समान रूप से प्राप्त कर लेती है; आत्म- त्याग का कोई क्षेत्र ही नहीं रह जाता जब कि आत्मा पहले की तरह किसी चीज की मांग नहीं करती, बल्कि भूतमात्र में विद्यमान एक ही आत्मा के संकल्प का सचेतन रूप से अनुसरण करती है । तभी हम नियम के बंधन से मुक्त होकर आत्मा का स्वातंत्र्य प्राप्त करते हैं ।
हमें केवल उस चीज को ही मार्ग पर अपने पीछे छोड़ देने के लिये तैयार नहीं रहना होगा जिसे हम अशुभ मानकर उसकी निन्दा करते हैं, बल्कि उस चीज को भी, जो हमें शुभ प्रतीत होती है, किन्तु फिर भी जो एकमात्र शुभ वस्तु नहीं है, छोड़ देने के लिये तैयार रहना होगा । इस मार्ग में ऐसी कई चीजें हैं जो लाभदायक तथा सहायक होती हैं, जो शायद किसी समय एकमात्र काम्य वस्तु प्रतीत होती हैं, और फिर भी एक बार उनका कार्य पूरा हो जाने पर, एक बार उनके प्राप्त हो जाने पर जब हमें उनसे आगे बढ़ने के लिये पुकार आती है तो वे बाधक वस्तुएं और यहांतक कि विरोधी शक्तियां बन जाती हैं । आत्मा की कुछ ऐसी स्पृहणीय भूमिकग़रं हैं जिनमें, उनपर प्रभुत्व पा लेने के बाद, टिके रहना खतरनाक होता है, क्योंकि तब हम इनसे परे स्थित परमेश्वर के विशालतर साम्राज्यों की ओर प्रगति नहीं करते । किन्हीं भी दैवी साक्षात्कारों के साथ हमें चिपटे नहीं रहना होगा यदि वे वह भागवत साक्षात्कार न हों जो चरम रूप से तात्त्विक एवं समग्र होता है । 'सर्व'मय भगवान् से कम तथा चरम परात्पर से नीचे की किसी भी वस्तु पर हमें नहीं रुकना होगा और यदि हमारी आत्मा इस प्रकार मुक्त हो सके तो भगवान् की कार्यलीला का समस्त चमत्कार हमें ज्ञात हो जायेगा; हमें पता लग जायेगा कि अन्दर से हर एक चीज का त्याग करने में हमनें कुछ भी खोया नहीं । ''इस सबका त्याग करके तू 'सर्व' का उपभोग कर'' ।१ कारण, वहां प्रत्येक वस्तु हमारे लिये सुरक्षित रखी हुई है और हमें पुनः प्रदान भी की जाती है, पर तब उसमें अद्भुत परिवर्तन एवं रूपान्तर आ जाता है, —वह उस सर्वमंगलमय तथा सर्व-सुन्दर में, भगवान् की पूर्ण-ज्योति एवं पूर्ण-आनन्द मे रूपान्तरित हों जाती है जो नित्य शुद्ध और अनन्त है, उस रहस्य एवं चमत्कार में परिणत हो जाती है जो युग- युगान्तरों से अविरत चला आ रहा है।
१ तेन त्यक्तेन भूञ्जीथा: —ईशोपनिषद्, १ ।
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