योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २५

 

उच्चतर और निम्नतर ज्ञान

 

ज्ञानमार्ग का विवेचन अब हम पूरा कर चुके हैं और यह भी देख चुके हैं कि यह हमें कहातक ले जाता है । ज्ञानयोग का प्रथम लक्ष्य है ईश्वर की प्राप्ति, अर्थात् दिव्य सद्वस्तु से सचेतन होकर, उसके साथ तादात्म्य लाभ करके तथा उसे अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करके प्राप्त करना और साथ ही उसके द्वारा अधिकृत होना । परन्तु हमें अपने वर्तमान जीवन से दूर हटकर किसी अमूर्त भूमिका में ही नहीं, बल्कि यहां भी उसे प्राप्त करना होगा; अतएव, अपने निज स्वरूप में स्थित भगवान् को पाने के साथ-साथ हमें इस जगत् में तथा अपने अन्दर, सब पदार्थों और सब प्राणियों के अन्दर स्थित भगवान् को भी प्राप्त करना होगा । भगवान् के साथ एकता प्राप्त करके हमें उस एकता के द्वारा विराट् सत्ता के साथ अर्थात् विश्व तथा इसके सब प्राणियों के साथ भी एकता प्राप्त करनी होगी; अतएव, एकता में अनन्त विभिन्नता को भी आयत्त करना होगा, पर इसके लिये हमें द्वैत को नहीं, वरन् एकत्व को ही अपना आधार बनाना होगा । हमें भगवान् को उनकी सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक सत्ता में, उनके शुद्ध निर्गुण स्वरूप में, तथा उनके अनन्त गुणों में, उनके कालगत तथा कालातीत रूप में, उनकी सक्रियता तथा निश्चल-नीरवता में, उनके सांत तथा अनन्त रूप में प्राप्त करना होगा । उनकी प्राप्ति हमें शुद्ध आत्मस्वरूप में ही नहीं, बल्कि आत्मामात्र में भी करनी होगी; 'पुरुष' में ही नहीं, बल्कि प्रकृति में भी, आत्मा में ही नहीं, अपितु विज्ञान, मन, प्राण और शरीर में भी करनी होगी; आत्मा के द्वारा तथा मन, प्राण और भौतिक चेतना के द्वारा भी करनी होगी; और फिर ज्ञानमार्ग के इस प्रथम लक्ष्य के अनुसार हमारी सत्ता के इन सब अंगों को भगवान् के द्वारा अधिकृत भी होना होगा जिससे कि हमारि सम्पूर्ण सत्ता उनसे एकीभूत तथा ओतप्रोत हो जाये, उनके द्वारा शासित तथा परिचालित होने लगे । अपि च, क्योंकि भगवान् एकत्व-स्वरूप हैं, हमारी स्थूल चेतना को भी जड़ जगत् की आत्मा और प्रकृति के साथ एक हो जाना होगा; हमारे प्राण को विराट् प्राण के साथ, हमारे मन को विराट् मन  के साथ तथा हमारी आत्मा को विराट् आत्मा के साथ एकत्व स्थापित करना होगा । अर्थात् उसके निरपेक्ष एवं नि:सम्बन्धस्वरूप में उसके अन्दर लय प्राप्त करने के साथ-साथ समस्त सम्बन्धों में भी उसे प्राप्त करना होगा ।

 

  ज्ञानमार्ग का दूसरा लक्ष्य दिव्य अस्तित्व एवं दिव्य प्रकृति को धारण करना है । और, ईश्वर स्वयं सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं, अतएव उनके अस्तित्व एवं उनकी प्रकृति को धारण करने का अर्थ है अपनी सत्ता को दिव्य सत्ता में, अपनी चेतना को दिव्य

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चेतना में, अपनी शक्ति को दिव्य शक्ति में तथा अपने अस्तित्व के आनन्द को सत्ता के दिव्य आनन्द में उठा ले जाना । और, इसका मतलब अपने-आपको इस उच्चतर चेतना में उठा ले जाना ही नहीं, बल्कि अपनी समस्त सत्ता को विशाल बनाकर इसमें मिला देना है, क्योंकि यह चेतना हमें अपनी सत्ता के सभी स्तरों पर तथा अपने सभी अंगों में प्राप्त करनी होगी, जिससे कि हमारी मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता दिव्य प्रकृति से ओतप्रोत हो जाये । हमारे बुद्धिप्रधान मन को दिव्य ज्ञान-संकल्प की लीला का क्षेत्र बनना होगा; उसी प्रकार हमारे कामनामय पुरुष के मानसिक जीवन को दिव्य प्रेम और आनन्द की तथा हमारे प्राण को दिव्य प्राण की लीला का क्षेत्र बनना होगा, हमारी शारीरिक सत्ता को दिव्य उपादान का सांचा बनना होगा । अपने अन्दर ईश्वर के इस दिव्य लीला-व्यापार को अनुभव करने के लिये हमें अपने-आपको दिव्य विज्ञान और दिव्य आनन्द की ओर खोलना होगा और इसे पूर्ण रूप से अनुभव करने के लिये विज्ञान और आनन्द में आरोहण करके वहां स्थिर रूप से निवास करना होगा । कारण, यद्यपि भौतिक रूप से हम जड़ प्रकृति के स्तर पर ही निवास करते हैं और सामान्य बहिर्मुख जीवन में मन और आत्मा प्रमुख रूप से स्थूल-भौतिक अस्तित्व में ही व्यस्त रहते हैं, तथापि हमारे जीवन की यह बहिर्मुखता हमारे लिये कोई अनिवार्य बन्धन नहीं है । हम अपनी आभ्यन्तरिक चेतना को पुरुष और प्रकृति के सम्बन्धों के एक स्तर से दूसरे स्तर पर उठा ले जा सकते हैं, यहांतक कि स्थूल चेतना और प्रकृति से अभिभूत मनोमय पुरुष के स्थान पर विज्ञानमय या आनन्दमय पुरुष बन सकते हैं तथा विज्ञानमय या आनन्दमय प्रकृति को धारण कर सकते हैं । और, आन्तरिक जीवन को इस प्रकार ऊंचा उठाकर हम अपने संपूर्ण बहिर्मुख जीवन का रूपान्तर कर सकते हैं; तब हमारा जीवन जड़तत्त्व के द्वारा शासित होने के स्थान पर आत्मा के द्वारा शासित होगा तथा उसकी सब स्थिति-परिस्थिति भी आत्मा की विशुद्ध सत्ता, सान्त में भी अनन्त रहनेवाली चेतना, दिव्य शक्ति और दिव्य हर्ष एवं आनन्द के द्वारा गठित और निर्धारित होगी ।

 

  यह हुआ ज्ञानयोग का लक्ष्य; हम यह भी देख चुके हैं कि उसकी पद्धति के प्रधान अंग क्या हैं । परन्तु यहां पहले पद्धतिसम्बन्धी प्रश्न के एक पक्ष पर जिसे हमने अबतक नहीं छुआ है, संक्षेप से विचार कर लेना आवश्यक है । पूर्णयोग की पद्धति में सिद्धान्त यह होना चाहिये कि सारा जीवन ही योग का अंग है; किन्तु जिस ज्ञान का वर्णन हम करते आ रहे हैं वह किसी ऐसी वस्तु का ज्ञान नहीं प्रतीत होता जिसे हम साधारणतया 'जीवन' शब्द सें समझते हैं, वह तो किसी ऐसी वस्तु का ज्ञान मालूम होता है जो जीवन के पीछे अवस्थित है । ज्ञान दो प्रकार का है, एक तो वह जो जगत् के दृश्य पदार्थों को बाहर से, अर्थात् बाहरी उपायों या प्रक्रियाओं का आश्रय लेकर एवं बुद्धि के द्वारा समझने का यत्न करता है, --यह है

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निम्नतर ज्ञान अर्थात् दृश्य जगत् का ज्ञान; दूसरे प्रकार का ज्ञान वह है जो जगत् के सत्य को अन्दर से, उसके मूल उद्गम और वास्तविक स्वरूप में तथा आध्यात्मिक साक्षात्कार के द्वारा जानने का यत्न करता है । साधारणत: इन दोनों में तीव्र रूप से भेद किया जाता है और यह माना जाता है कि जब हम उच्चतर ज्ञान अर्थात् ईश्वर-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब अन्य ज्ञान अर्थात् विश्व-ज्ञान हमारे लिये किसी मतलब का नहीं रहता; पर वास्तव में ये दोनों एक ही जिज्ञासा के दो पक्ष हैं । अन्ततोगत्वा समस्त ज्ञान ईश्वर का ही ज्ञान है जिसे हम उनके निज स्वरूप के द्वारा और प्रकृति एवं इसके कर्मों के द्वारा प्राप्त करते हैं । मनुष्यजाति को पहले-पहल इस ज्ञान की खोज बाह्य जीवन के द्वारा ही करनी होती है; क्योंकि जबतक उसका मन पर्याप्त विकसित नहीं हो जाता, तबतक वस्तुतः आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो ही नहीं सकता, और जैसे-जैसे वह विकसित होता है, वैसे-वैसे आध्यात्मिक ज्ञान की सम्भावनाएं भी अधिक समृद्ध और परिपक्व बनती जाती हैं ।

 

  विज्ञान, कला, दर्शन, नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, मनुष्य और उसके अतीत का ज्ञान तथा स्वयं कर्म--ये सभी ऐसे साधन हैं जिनकी सहायता से हम प्रकृति और जीवन के द्वारा कार्य करते हुए ईश्वर की क्रियावलि का ज्ञान प्राप्त करते हैं । प्रारम्भ में हम जीवन के कार्य-व्यापारों और प्रकृति के रूपों के ज्ञान में ही व्यस्त रहते हैं, पर जैसे-जैसे हम अधिकाधिक गहरे उतरकर एक पूर्णतर दृष्टि और अनुभव प्राप्त करते हैं वैसे-वैसे ज्ञान की इन शाखाओं में से प्रत्येक हमें ईश्वर का साक्षात्कार करा देती है । विज्ञान, यहांतक कि भौतिक विज्ञान भी, अपनी सीमाओं पर पहुंचकर अन्ततः इस जड़ जगत् में अनन्त एवं विराट् सत्ता को तथा आत्मा, दिव्य बुद्धि और इच्छाशक्ति को अनुभव करने के लिये बाध्य होता है । मानसिक एवं चैत्य विज्ञान तो अन्ततोगत्वा और भी अधिक सुगमता से इसी अनुभव पर पहुंचते हैं क्योंकि वे हमारी सत्ता की उच्चतर और सूक्ष्मतर भूमिकाओं एवं शक्तियों का वर्णन करते हैं और इस जगत् के पीछे रहनेवाले अदृष्ट लोकों के जीवों और दृग्विषयों के सम्पर्क में आते हैं । उन लोकों को हम अपनी स्थूल इन्द्रियों से नहीं जान सकते, पर अपने सूक्ष्म मन तथा इन्द्रियों से उनका सुनिश्चित ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । कला भी हमें इसी परिणाम पर पहुंचाती है; सौन्दर्यरसिक मनुष्य सौन्दर्यात्मक भावावेग के द्वारा प्रबल रूप से प्रकृति में ग्रस्त रहता है, पर अन्त में वह निश्चय ही अपने अन्दर आध्यात्मिक भावावेग को अनुभव करता है और प्रकृति में अनन्त जीवन को ही नहीं, बल्कि अनन्त उपस्थिति को भी प्रत्यक्ष देखता है । मनुष्य के जीवन में सौन्दर्य का दर्शन करने में सतत संलग्न रहते हुए वह अन्त में मानवजाति के अन्दर विद्यमान दिव्य, विराट् एवं आध्यात्मिक सत्ता को प्रत्यक्ष अनुभव करने लगता है । वस्तुओं के मूल तत्त्वों का विवेचन करता हुआ दर्शनशास्र इन सब तत्त्वों के आदितत्त्व को अनुभव करने लगता है और उसके स्वरूप तथा गुणों एवं मूल कार्यों

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उसका कुछ संस्कार ग्रहण करके अर्जित किया जा सकता है, परन्तु आन्तरिक, गुप्त एवं उच्चतर सत्य को तो तभी ग्रहण किया जा सकता है यदि हम मन को उसके विषय पर पूर्ण रूप से एकाग्र करें और साथ ही सत्य को पाप्त करने के लिये तथा एक बार प्राप्त हो जाने पर उसे स्वाभाविक रूप से धारण करने एवं उसके साथ सुनिश्चित तादात्म्य स्थापित करने के लिये अपने संकल्प को भी उसपर पूर्ण रूप से एकाग्र करें । क्योंकि तादात्म्य पूर्ण ज्ञान और उपलब्धि की शर्त है; यह सद्वस्तु को स्वाभाविक और विशुद्ध रूप से प्रतिबिम्बित करने तथा उसपर पूर्ण एकाग्रता करने का गभीर फल है; इसकी आवश्यकता इसलिये है कि हमारे अज्ञ असंस्कृत मन की सामान्य अवस्था में भागवत सत्ता और सनातन सद्वस्तु से हमारी सत्ता का जो भेद और पार्थक्य देखने में आता है उसे पूर्णरूपेण नष्ट किया जा सके ।

  उच्चतर ज्ञान के इन उपर्युका प्रयोजनों में से कोई भी निम्नतर ज्ञान की विधियों के द्वारा पूरा नहीं हों सकता । यह ठीक है कि इनके लिये भी निम्न ज्ञान की विधियां हमें तैयार करती हैं, पर केवल एक विशेष सीमातक तथा तीव्रता की एक विशेष मात्रा में ही, और जहां उनकी क्रिया समाप्त होती है वहीं योग की क्रिया हमारे भगवन्मुख विकास को अपने हाथ में ले लेती है और उसे पूरा करने के साधन ढूंढ़ निकालती है । हम चाहे किसी भी प्रकार के ज्ञान का अनुशीलन क्यों न करें, पर यदि वह अनुशीलन अत्यन्त संसारमुखी प्रवृत्ति से कलुषित न हों तो उससे हमारी सत्ता परिष्कृत, सूक्ष्म और शुद्ध होती जाती है । जैसे-जैसे हम अधिकाधिक मनोमय बनते जाते हैं, हमारी सम्पूर्ण प्रकृति अधिकाधिक सूक्ष्म क्रिया करने लगती है तथा वह उच्चतर विचारों, शुद्धतर संकल्प, कम भौतिक सत्य और अधिक आन्तरिक प्रभावों को प्रतिबिम्बित एवं ग्रहण करने के लिये उत्तरोत्तर उपयुक्त बनती जाती है । नैतिक ज्ञान में तथा सोचने और संकल्प करने के नैतिक अभ्यास में शुद्ध करने की जो शक्ति है वह प्रत्यक्ष ही है । दर्शनशाशाश्त्र न केवल बुद्धि को शुद्ध करता है तथा विराट् और अनन्त सत्ता के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये उसमें पहले से ही रुचि उत्पन्न कर देता है, बल्कि वह अपने स्वभाव से ही हमारी प्रकृति को स्थिरता प्रदान करता है तथा ज्ञानी की-सी शान्ति को भी जन्म देता है; और शान्ति बढ़ती हुई अत्म-प्रभुता और पवित्रता का लक्षण है । विश्व-व्याप्त सौन्दर्य को, यहांतक कि इसके रसात्मक रूपों को भी प्राप्त करने के हमारे तन्मय प्रयत्न में हमारी प्रकृति को परिष्कृत और सूक्ष्म करने की तीव्र शक्ति निहित रहती है, और अपने उच्चतम रूप में यह प्रयत्न उसे शुद्ध करने के लिये एक महत् शक्ति का काम करता है । मन का वैज्ञानिक स्वभाव तथा विश्वव्यापी नियम और सत्य को जानने के लिये उसका निष्पक्ष और अनन्य प्रयत्न भी तर्कशक्ति एवं निरीक्षण-शक्ति को शुद्ध करते हैं, इतना ही नहीं, बल्कि जब अन्य प्रवृत्तियां इनके विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं करतीं तब मन और नैतिक प्रकृति पर इनका ऐसा प्रभाव

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पड़ता है कि वे स्थिर, उदात्त और शुद्ध हो जाते हैं, पर इस प्रभाव की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है ।

 

  विज्ञान, कला, दर्शन आदि विषयों के अनुशीलन के रूप में किये गये इन प्रयत्नों का एक प्रत्यक्ष परिणाम यह भी होता है कि सत्य को ग्रहण करने तथा उसीमें जीवन धारण करने के लिये मन की एकाग्रता साधित हो जाती है और संकल्प-शक्ति भी इसके लिये प्रशिक्षित हो जाती है, ऐसी एकाग्रता एवं प्रशिक्षा इन विषयों के लिये सतत रूप से आवश्यक भी होती है । ये सब प्रयत्न अन्त में या अपने उच्चतम तीव्र रूपों में पहले तो भागवत सद्वस्तु के बौद्धिक ज्ञान की ओर ले जा सकते हैं तथा अवश्य ले ही जाते हैं और फिर उसके प्रतिबिम्ब का दर्शन करा सकते तथा कराते ही हैं । यह दर्शन अपनी पराकाष्ठा को पहुंचकर सद्वस्तु के साथ एक प्रकार के प्रारम्भिक तादात्म्य का रूप धारण कर सकता है । परन्तु यह सब एक विशेष सीमा के परे नहीं जा सकता । भागवत सद्वस्तु को अपने अन्दर समग्र रूप में प्रतिबिम्बित तथा ग्रहण करने के लिये सम्पूर्ण सत्ता की क्रमबद्ध शुद्धि योग की विशेष विधियों के द्वारा ही सम्पन्न की जा सकती है । इसकी चरम-परम एकाग्रता को निम्नतर ज्ञान की विकीर्ण एकाअताओं का स्थान लेना होगा; निम्नतर ज्ञान तो केवल एक अस्पष्ट तथा प्रभावहीन तादात्म्य ही साधित कर सकता है, उसके स्थान पर योग के द्वारा प्राप्त होनेवाले पूर्ण, घनिष्ठ, अटल और जीवन्त एकत्व की प्रतिष्ठा करनी होगी ।

 

   तथापि योग अपने मार्ग में या अपनी उपलब्धि में निम्नतर ज्ञान के रूपों का बहिष्कार तथा त्याग नहीं करता, हां, यह बात अलग है कि जब वह एक ऐसे चरम वैराग्यवाद या फिर रहस्यवाद का रूप धारण कर लेता है जो भगवान् के इस अन्य रहस्य अर्थात् उनकी विश्व-सत्ता को बिल्कुल सहन ही नहीं करता, तब वह ज्ञान के इन रूपों का त्याग अवश्य कर सकता है । वह इन रूपों से इस बात में भिन्न है कि उसका लक्ष्य गभीर, विशाल और उच्च है तथा अपने उद्देश्य के अनुकूल उसकी अपनी विधियां भी विशिष्ट प्रकार की हैं; किन्तु वह अपने कार्य का आरम्भ इन्हींसे करता है, इतना ही नहीं बल्कि कुछ दूरतक वह इन्हें अपने साथ ले चलता है तथा अपने सहायकों के रूप में इनका प्रयोग भी करता है । इस प्रकार यह प्रत्यक्ष ही है कि नैतिक विचार और आचरण, ---बाह्य आचार-व्यवहार उतना नहीं जितना कि आन्तरिक, --योग की तैयारीरूप प्रणाली में अर्थात् उसके शुद्धि के लक्ष्य में कितने व्यापक रूप से भाग लेते हैं । और, फिर योग की सम्पूर्ण विधि मनोवैज्ञानिक है; यहांतक कि उसे पूर्ण मनोवैज्ञानिक ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट क्रियात्मक प्रयोग कहा जा सकता है । दर्शनशास्त्र के स्वीकार किये हुए सत्य उसके अवलम्बन हैं जिनके सहारे वह भगवान् को उनकी सत्ता के मूलतत्त्वों के द्वारा प्राप्त करने का कार्य आरम्भ करता है; हां, इतनी बात अवश्य है कि दर्शन तो उन तत्त्वों का एक

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विवेकपूर्ण बोधमात्र प्रदान करता है, पर योग इस बोध को एक ऐसी तीव्रतातक ले जाता है जो इसे विचार से परे अन्तर्दर्शन के तथा बुद्धि से परे साक्षात्कार एवं उपलब्धि के क्षेत्र में प्रवेश करा देती है; जिस वस्तु को दर्शन अमूर्त और दूरस्थ छोड़ देता है, उसे यह (योग) सजीव रूप से निकट तथा आध्यात्मिक रूप से मूर्त बना देता है । सौन्दर्यग्राही एवं भावप्रधान मन को तथा सौन्दर्यात्मक रूपों को यह ज्ञानयोग में भी एकाग्रता के अवलम्बन के रूप में प्रयुक्त करता है और यह मन और ये रूप उदात्त होकर प्रेम और आनन्द के योग की सम्पूर्ण साधन-प्रणाली का काम करते हैं जैसे जीवन और कर्म, उदात्त होकर, कर्मयोग की सम्पूर्ण साधन--प्रणाली का रूप धारण कर लेते हैं । इसी प्रकार, प्रकृति में ईश्वर का ध्यान-चिन्तन करना, मनुष्य में और उसके जीवन में तथा जगत् के भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के जीवन में ईश्वर का ध्यान-चिन्तन एवं उनकी सेवा करना भी कुछ ऐसे तत्त्व हैं जिन्हें ज्ञानयोग सभी वस्तुओं में ईश्वर का पूर्ण साक्षात्कार प्राप्त करने के लिये प्रयोग में ला सकता है । अन्तर इतना ही होता है कि सब कुछ एक ही लक्ष्य की ओर मोड़ दिया जाता है, अर्थात् भगवान् की ओर मोड़ दिया जाता है, दिव्य, असीम और विराट् सत्ता के विचार से परिपूर्ण कर दिया जाता है; फलस्वरूप, दृग्विषयों और रूपों को जानने के लिये निम्नतर ज्ञान के बहिर्मुख, इन्द्रियाश्रित एवं व्यावहारिक प्रयत्न का स्थान भगवत्प्राप्ति का अनन्य प्रयत्न ले लेता है । प्राप्ति के बाद भी निम्नतर ज्ञान के प्रयत्न का यह परिवर्तित स्वरूप ज्यों-का-त्यों बना रहता है । अर्थात् योगी सान्त में भगवान् को जानना और देखना जारी रखता है तथा जगत् में भवगच्चेतना और भगवत्कर्म का आधार बना रहता है; अतएव, जगत् का ज्ञान तथा जीवन से सम्बन्ध रखनेवाली सभी वस्तुओं को विस्तृत और उन्नत करने का कार्य उसके क्षेत्र में आ जाता है । हां, सबमें वह ईश्वर को ही देखता है, परमोच्च सद्वस्तु के ही दर्शन करता है, और उसके कर्म का हेतु भगवान् को जानने तथा परमोच्च सद्वस्तु को प्राप्त करने में मनुष्यजाति की सहायता करना ही होता है । वह विज्ञान के स्वीकृत तत्त्वों और दर्शन के निष्कर्षों के द्वारा ईश्वर को देखता है, 'सौन्दर्य' के रूपों तथा 'शुभ' के रूपों के द्वारा ईश्वर के दर्शन करता है, जीवन के समस्त कार्य-कलाप में, जगत् के अतीत तथा उसके परिणामों में, वर्तमान और उसकी प्रवृत्तियों में, भविष्य और उसकी महान् प्रगति में भी भगवान् को देखता है । इन क्षेत्रों में से किसी एक में या सभी में वह अपनी आत्मा की आलोकित दृष्टि एवं मुक्त शक्ति का उपयोग कर सकता है । उसके लिये निम्नतर ज्ञान एक ऐसा सोपान रहा है जिससे वह उच्चतर ज्ञानतक ऊपर उठा है; उच्चतर ज्ञान उसके लिये निम्नतर को आलोकित करके उसे अपना अंग बना लेता है, यद्यपि वह अंग उसका निचला सिरा एवं अत्यन्त बाह्य प्रकाश ही होता है ।

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