योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २२

 

विज्ञान

 

अपने पूर्ण आत्म-अतिक्रमण में हम मनोमय पुरुष के अज्ञान या अर्द्धप्रकाश के बाहर निकलकर तथा ऊपर उठकर इससे परे की महत्तर ज्ञानमय आत्मा एवं सत्य-शक्ति में पहुंच जाते हैं ताकि हम दिव्य ज्ञान की निर्बाध ज्योति में निवास कर सकें । वहां मनोमय मानव, जो कि हम हैं, विज्ञानमय पुरुष अर्थात् सत्य-सचेतन दिव्य सत्ता में परिणत हो जाता है । अपने आरोहण के ''अद्रि'' के उस धरातल पर अवस्थित होने पर हम विश्वात्मा की इस अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय स्थिति से सर्वथा भिन्न भूमिका में पहुंच जाते हैं, और इस परिवर्तन के साथ अपनी आत्मसत्ता के जीवन तथा अपने चारों ओर के जगत् के विषय में हमारा समस्त दृष्टिकोण एवं अनुभव भी परिवर्तित हो जाता है । आत्मा की एक नयी भूमिका में जन्म लेकर हम नयी प्रकृति धारण कर लेते हैं; क्योंकि आत्मा की भूमिका के अनुसार ही प्रकृति की भूमिका होती है । जड़तत्त्व से प्राण, प्राण से मन और बद्ध मन से मुक्त बुद्धि की ओर होनेवाले विश्व-आरोहण के प्रत्येक अवस्था-संक्रमण के समय ज्यों-ज्यों प्रसुप्त, अर्द्ध-व्यक्त या पहले से ही व्यक्त आत्मा सत्ता के अधिकाधिक उच्च स्तर की ओर उठती है त्यों-त्यों प्रकृति भी सत्ता की उत्कृष्टतर क्रिया, विशालतर चेतना तथा बृहत्तर शक्ति में, उसके गहनतर या विस्तृततर क्षेत्र और आनन्द में उन्नीत हो जाती है । परन्तु मनोमय पुरुष से विज्ञानमय पुरुष में संक्रमण योग में महान् और निर्णायक संक्रमण है । इसका मतलब यह है कि हमारे ऊपर विराट् अज्ञान का जो प्रभुत्व है उसके अंतिम जूए को उतार फेंकना और जगद्विषयक सत्य में तथा अन्धकार, असत्य, दुःख या भ्रम से अभेद्य एक असीम एवं सनातन चेतना में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित होना ।

 

  यह प्रथम शिखर है जो दिव्य पूर्णता अर्थात् दिव्य साधर्म्य एवं सादृश्यके लोक को स्पर्श करता है; क्योंकि शेष सब केवल ऊपर इसकी ओर दृष्टिपात करते हैं या इसके गूढ़ मर्म की कुछ किरणों को ही पकड़ पाते हैं । मन या अधिमानस के उच्चतम शिखर भी ह्रासप्राप्त अज्ञान के घेरे के अन्दर ही स्थित हैं; वे दिव्य ज्योति की किरणों को तिरछी करके अपने अन्दर प्रवेश करने दे सकते हैं पर उन्हें अक्षीण शक्ति के रूप में हमारे निम्न अंगोंतक जाने नहीं दे सकते । क्योंकि, जबतक हम मन, प्राण और शरीर के त्रिविध स्तर के भीतर रहते हैं, तबतक मन के अन्दर स्थित आत्मा को कुछ ज्ञान प्राप्त रहने पर भी हमारी सक्रिय प्रकृति अज्ञान की शक्ति के द्वारा कार्य करना जारी रखती है । और चाहे आत्मा ज्ञान की संपूर्ण विशालता को अपनी मानसिक चेतना में प्रतिबिम्बित या प्रदर्शित करे, फिर भी वह

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व्यावहारिक रूप में उसे यथावत् क्रियाशील बनाने में असमर्थ रहेगी । निःसन्देह, सत्य की क्रिया में बहुत अधिक वृद्धि हो सकती है, किन्तु फिर भी संकीर्णता सत्य के पीछे लगी ही रहेगी, साथ ही वह एक ऐसे द्वैतभाव से भी अभिशप्त रहेगा जो उसे अनन्त की शक्ति में समग्रता के साथ कार्य नहीं करने देगा । दिव्य प्रकाशयुक्त मन की शक्ति साधारण शक्तियों की तुलना में गुरुतर हों सकती है, तथापि वह अक्षमता से ग्रस्त ही होगी और अतएव कार्यसाधक संकल्प की शक्ति तथा उसे प्रेरित करनेवाली ज्ञान-ज्योति में पूर्ण सामंजस्य सम्भव नहीं होगा । अनन्त उपस्थिति वहां स्थितिशील अवस्था में विद्यमान हो सकती है, परन्तु प्रकृति की क्रियाओं की गतिशक्ति अभी निम्नतर प्रकृति से ही सम्बद्ध होती है, वह अनिवार्यतः उसके कार्य-व्यापार के त्रिगुण का अनुसरण करती है और उसके अंदर की महानता को कोई उपयुक्त रूप देने में सफल नहीं हो सकती । असफलता की, आदर्श और उसे सिद्ध करनेवाले संकल्प के बीच की खाई की, अपनी आतरिक चेतना में अनुभूत होनेवाले सत्य को जीवन्त रूप और कर्म में चरितार्थ करने में हमारी सतत असमर्थता की यह विपदा ही मन और प्राण की अपने पीछे स्थित दिव्यता के प्रति समस्त अभीप्सा का पीछा करती है । परन्तु विज्ञान केवल सत्य-चेतना ही नहीं, सत्य-शक्ति भी है, वह अनन्त और दिव्य प्रकृति की अपनी वास्तविक क्रिया है; वह एक दिव्य ज्ञान है जो स्वाभाविक, ज्योतिर्मय और अटल आत्म-चरितार्थता के बल और आनन्द में दिव्य संकल्प के साथ एक है । अतएव, विज्ञान के द्वारा हम अपनी मानव-प्रकृति को दैवी प्रकृति में परिणत कर सकते हैं ।

 

   तो यह विज्ञान क्या वस्तु है और इसका वर्णन हम किस प्रकार कर सकते हैं ? यहां पहले दो परस्पर-विपरीत भ्रान्तियों से बचना आवश्यक है, वें भ्रान्तियां दो मिथ्या धारणाएं हैं जो विज्ञान के सत्य के दो विरोधी पक्षों को विकृत कर देती हैं । उनमें से एक भ्रान्ति है बुद्धि के घेरे में बन्द विचारकों की । वे 'विज्ञान' को एक अन्य भारतीय शब्द 'बुद्धि' का पर्याय समझते हैं और 'बुद्धि' को तर्कशक्ति, विवेकबुद्धि किंवा तर्कबुद्धि का । जो दर्शन 'विज्ञान' का ऐसा अर्थ मानते हैं वे शुद्ध बुद्धि के स्तर से एकदम शुद्ध आत्मा के स्तर में चले जाते हैं । इन दोनों के बीच में वे किसी भी शक्ति को स्वीकार नहीं करते, ज्ञान की शुद्ध तर्क से अधिक दिव्य किसी भी क्रिया को वे नहीं मानते; सत्य का साक्षात्कार करने के सीमित मानवीय साधन को चेतना का ऊंचे-से-ऊंचा क्रियाशील साधन, उसकी सर्वोच्च शक्ति एवं मूल क्रिया माना जाता है । इससे उलटी भ्रान्ति किंवा मिथ्या धारणा है रहस्यवादियों की । वे 'विज्ञान' को अनन्त ब्रह्म की उस चेतना से अभिन्न मानते हैं जो समस्त अवधारणा से रहित है या फिर जिसमें विचारणामात्र विचार के एक ही सारतत्त्व में पुंजीभूत है, एकमेव के अखण्ड और अपरिवर्तनीय विचार में लीन होने के कारण अन्य शक्तिमय कार्य से विरत है । यह चेतना तो उपनिषद् में वर्णित चैतन्यघन है

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और विज्ञान की एक क्रिया है अथवा यूं कहना चाहिये कि उसकी नाम-रूपात्मक क्रिया का एक सूत्र है । परन्तु विज्ञान अनन्त सत्तत्त्व का यह घनीभूत चैतन्य ही नहीं है; इसके साथ-साथ यह अनन्त की असंख्यविध लीला का अनन्त ज्ञान भी है । समस्त विचारणा (मानसिक नहीं, अतिमानसिक) इसमें निहित है, पर यह विचारणा के द्वारा सीमित नहीं होता, क्योंकि यह समस्त विचारणात्मक क्रिया के बहुत ही परे है । विज्ञानमय विचारणा अपने स्वरूप में बौद्धिक चिन्तन भी नहीं है; जिसे हम विवेकबुद्धि कहते हैं वह यह नहीं है, न यह एकाग्र बुद्धि ही है । क्योंकि विवेकशक्ति की पद्धतियां मानसिक हैं, उसकी प्राप्तियां मानसिक होती हैं, उसका आधार भी मन के ऊपर है, किन्तु विज्ञान की विचारपद्धति स्वयं-प्रकाश है, मन से अतीत है, इससे उत्पन्न होनेवाली विचार-ज्योति स्वयं-स्फूर्त होती है, वह यत्न के द्वारा प्राप्त नहीं होती, इसके विचार का आधार सचेतन तादात्म्यों की अभिव्यक्तिरूप होता है न कि परोक्ष संपर्कों से उत्पन्न संस्कारों का किसी अन्य रूप में प्रकाशन । विचार के इन दो (मानसिक और अतिमानसिक) रूपों में परस्पर सम्बन्ध है, यहांतक कि एक प्रकार की टूटी-फूटी एकता भी है; क्योकि इनमें से पहला प्रच्छन्न रूप में दूसरे से उद्भूत होता है । मन उससे उत्पन्न होता है जो मन से परे है । परन्तु ये भिन्न स्तरों पर कार्य करते हैं और स्व-दूसरे की प्रक्रिया को उलट देते हैं ।

 

  शुद्ध से शुद्ध बुद्धि, अत्यन्त आलोकित विवेकपूर्ण बुद्धि को भी विज्ञान नहीं कह सकते । विवेकशक्ति या बुद्धि तो केवल निम्न बुद्धि है; यह अपनी क्रिया के लिये इन्द्रिय-मानस के बोधों और मनोमय बुद्धि के प्रत्ययों पर निर्भर करती है । यह विज्ञान के समान स्वयंप्रकाश, प्रामाणिक, ज्ञाता को ज्ञेय के साथ एक कर देनेवाली नहीं है । निःसन्देह, बुद्धि का एक उच्चतर रूप भी है जिसे अन्तर्ज्ञानात्मक मन या बुद्धि कह सकते हैं, और यह अन्तर्ज्ञानात्मक बुद्धि अपनी बोधियों और अन्तःप्रेरणाओं, अपने तीव्र सत्यप्रकाशक अन्तर्दर्शन तथा अपनी आलोकित अन्तर्दृष्टि और विवेकशक्ति के द्वारा बुद्धि के कार्य को अधिक उच्च सामर्थ्य, अधिक द्रुत क्रिया तथा महत्तर और सहजस्फूर्त्त निश्चयता के साथ कर सकती है । यह सत्य की एक स्वयं-ज्योति में कार्य करती है जो ऐन्द्रिय मन की चंचल उल्का-द्युतियों तथा इसके सीमित संदिग्ध बोधों पर निर्भर नहीं करती, यह बुद्धि के नहीं अन्तर्दर्शन के प्रत्ययों द्वारा अपना कार्य आरम्भ करती है : यह एक प्रकार की सत्य-दृष्टि, सत्य-श्रुति, सत्य-स्मृति एवं साक्षात् सत्य-दर्शन है । इस सच्चे और प्रामाणिक अन्तर्ज्ञान और साधारण मनोमय बुद्धि की शक्ति में जो भेद है उसे हमें समझना होगा । साधारण बुद्धि की उस शक्ति को अत्यन्त सहज रूप में ही इस अन्तर्ज्ञान के साथ मिला दिया जाता है । पर वह अन्तर्हित तर्कणा की एक शक्ति है जो एक छलांग में ही अपने निष्कर्ष पर पहुंच जाती है और तार्किक मन के साधारण क्रमों की अपेक्षा नहीं करती । तर्कप्रधान बुद्धि एक-एक पग करके आगे बढ़ती है और

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एक ऐसे आदमी की तरह, जो असुरक्षित प्रदेश में चल रहा है और जिसे अपनी दृष्टि में आनेवाली चप्पा-चप्पा जमीन को अपने पैर के शंकित स्पर्श से परखना होता है, वह अपने हर एक पग की सुनिश्चितता की परीक्षा करती है । परन्तु बुद्धि की यह अन्य तर्कातीत पद्धति तीव्र अन्तर्दृष्टि या द्रुत विवेक की क्रिया है; यह एक लंबे डग या छलांग के द्वारा आगे बढ़ती है जैसे कोई आदमी एक निश्चित स्थान से दूसरे निश्चित आधारवाले--या कम-से-कम उसके द्वारा निश्चित समझे जानेवाले--स्थान पर कूद लगाता है । ऐसा आदमी कूदकर पार करने की जगह को क्षणभर में, एक ही संहत दृष्टि की चमक में देख लेता है, पर वह इसके क्रमों तथा इसकी विशेषताओं एवं परिस्थितियों को दृष्टि या स्पर्श के द्वारा पृथक्-पृथक् जानता या नापता नहीं है । बुद्धि की उक्त क्रिया में हमें अन्तर्ज्ञान की शक्ति की कुछ-कुछ अनुभूति होती है, इसमें उसकी-सी कुछ वेगमयता रहती है और उसकी ज्योति एवं निश्चयात्मकता की कुछ प्रतीति होती है, और अतएव इसे अन्तर्शान समझ लेने के लिये हम सदा ही तत्पर रहते हैं । पर हमारी धारणा भ्रमात्मक होती है और यदि हम उसपर विश्वास कर लें तो वह हमें दुःखदायी महाभ्रान्तियों की ओर लें जा सकती है ।

 

  बुद्धिवादी तो यहांतक समझते हैं कि स्वयं अन्तर्ज्ञान भी इस द्रुत प्रक्रिया से अधिक कुछ नहीं है । इस प्रक्रिया में तर्कप्रधान मन की सम्पूर्ण क्रिया वेगपूर्वक सम्पन्न हो जाती है अथवा शायद अर्द्धचेतन या अवचेतन रूप से सम्पन्न होती है; वह मन की तर्कयुक्त पद्धति के द्वारा विचारपूर्वक सम्पादित नहीं की जाती । परन्तु यह प्रक्रिया, अपने स्वरूप में, अन्तर्ज्ञान सें सर्वथा भिन्न है और यह, आवश्यक रूप से, सत्य-क्रिया ही नहीं होती । इसकी कूदने की शक्ति के परिणामस्वरूप हम ठोकर भी खा सकते हैं, इसका वेग हमें धोखा दे सकता है, इसकी निश्चयात्मकता बहुधा एक अति विश्वासपूर्ण भ्रांति ही होती है । इसके निष्कर्ष की सत्यता सिद्ध करने के लिये हमें सदा ही बाद में इन्द्रिय-बोधों की साक्षी के द्वारा इसे प्रमाणित या पुष्ट करना होता है या फिर इसके अपने निश्चय-विश्वासों की इसके प्रति व्याख्या करने के लिये बुद्धिमूलक धारणाओं को युक्तिशृंखला के द्वारा जोड़ना पड़ता है । निःसंदेह, यह निम्न ज्योति वास्तविक अन्तर्ज्ञान के मिश्रण को अपने अन्दर अनायास ही ग्रहण कर सकती है और तब मिथ्या अन्तर्ज्ञानात्मक या अर्ध-अन्तर्ज्ञानात्मक मन उत्पन्न हो जाता है जो अपनी बहुधा होनेवाली प्रोज्ज्वल सफलताओं के कारण अत्यन्त भ्रामक होता है । वे सफलताएं अत्यधिक स्वयं-निश्चित मिथ्या निश्चयों के भँवर को कुछ शान्त कर देती हैं । इसके विपरीत, सच्चा अन्तर्ज्ञान अपनी सत्यता का प्रमाण अपने अन्दर वहन किये रहता है; वह अपनी सीमा के भीतर सुनिश्चित और निर्भ्रात होता है और जबतक वह शुद्ध रहता है तथा इन्द्रिय-भ्रम या बौद्धिक विचारणा के किसी भी मिश्रण को अपने अन्दर प्रवेश नहीं करने देता, तबतक वह

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अनुभव के द्वारा कभी खंडित नहीं होता । यह ठीक है कि अन्तर्ज्ञान को पीछे तर्कबुद्धि या इन्द्रियबोध के द्वारा परखकर सत्य सिद्ध किया जा सकता है, परन्तु उसकी सत्यता इस प्रकार की सिद्धि पर निर्भर नहीं करती, वह एक स्वत:स्फूर्त स्वयं-सिद्धि के द्वारा सुनिश्चित होती है । यदि बुद्धि अपने अनुमानों के आधार पर इस महत्तर ज्योति का विरोध करे, तो अन्त में विशालतर ज्ञान प्राप्त होने पर यह पता लगेगा कि अन्तर्ज्ञान का निष्कर्ष ठीक था तथा अधिक युक्तियुक्त दीखनेवाला तर्कलब्ध एवं अनुमानमूलक निष्कर्ष भ्रांतिपूर्ण था । क्योंकि सच्चा अन्तर्ज्ञान वस्तुविषयक स्वयं-स्थित सत्य को लेकर चलता है, और उस स्वयं-स्थित सत्य के द्वारा ही प्राप्त होता है, ज्ञान-प्राप्ति की किसी परोक्ष, गौण या अन्याश्रित विधि के द्वारा नहीं ।

 

  परन्तु अन्तर्ज्ञानात्मक बुद्धि का नाम भी विज्ञान नहीं है, यह तो अतिमानस की ज्योति की एक धारामात्र है जो मन के भीतर पहुंचने के लिये अंधेरे एवं मेघाच्छन्न प्रदेशों में बिजली के समान अपने प्रकाश की क्षणिक प्रभाओं के द्वारा अपना मार्ग खोज रही है । इसकी अन्तःप्रेरणाएं इसके सत्य-दर्शन और अन्तर्ज्ञान, इसके स्वयंप्रकाश विवेक-गया-ज्ञान उच्चतर विज्ञान-भूमिका से आनेवाले सन्देश होते हैं जो अवसर पाते ही हमारी चेतना के निम्न स्तर में प्रविष्ट हो जाते हैं । अन्तर्ज्ञानात्मक मन का असली स्वरूप ही इसकी क्रिया तथा स्वयंपूर्ण विज्ञान की क्रिया में एक गुरुतर भेद की खाई पैदा कर देता है । सर्वप्रथम, यह पृथक् तथा सीमित आलोकों के द्वारा कार्य करता है और इसका सत्य ज्ञान के उस प्रायः ही संकुचित क्षेत्र या उस एक ही छोटे-से स्थानतक सीमित रहता है जो इसकी बिजली की-सी एक ही चमक के द्वारा प्रकाशित होता है । इसका हस्तक्षेप उस एक ही चमक से आरम्भ होता है और उसीके साथ समाप्त हो जाता है । उदाहरणार्थ, हम पशुओं में सहज-प्रेरणा की क्रिया देखते हैं--वह उस प्राणिक या ऐन्द्रिय मन में उत्पन्न यान्त्रिक-सा अन्तर्ज्ञान होती है जो पशु का सबसे ऊंचा और अचूक साधन है । उसे इसी साधन पर निर्भर करना पड़ता है, क्योंकि उसके पास बुद्धि का मानवीय प्रकाश नहीं है, है केवल अपेक्षाकृत अपक्व और अभीतक अनघड़ बुद्धि । और हम तुरन्त ही देख सकते हैं कि इस सहजप्रेरणा का अद्भुत सत्य, जो बुद्धि की अपेक्षा इतना अधिक सुनिष्चित प्रतीत होता है, पशु-पक्षी या कीटकृमि में एक विशेष और परिमित प्रयोजनतक ही सीमित रहता है जिसे पूरा करने के लिये उसे अधिकार प्राप्त है । जब पशु का प्राणिक मन उस परिमित सीमा के परे कार्य करने का यत्न करता है तो वह मनुष्य की बुद्धि की अपेक्षा कहीं अधिक अन्धे तरीके से भूलें करता और भटकता है और उसे एक के बाद एक इन्द्रियानुभवों के द्वारा कठिनाई के साथ ही शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है । परन्तु मनुष्य का उच्चतर मानसिक अन्तर्ज्ञान अन्तर्दर्शन के द्वारा लब्ध ज्ञान होता है न कि इन्द्रियलब्ध सहजज्ञान; क्योंकि वह

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बुद्धि को आलोकित करता है, ऐन्द्रिय मन को नहीं, वह आत्म-सचेतन और प्रकाशपूर्ण होता है, कोई अर्द्ध-अवचेतन अंध-ज्योति नहीं होता : वह स्वतन्त्रतापूर्वक स्वयमेव क्रिया करता है, यान्त्रिक रूप में जड़वत् गति नहीं करता । तथापि, जब वह अनुकरणात्मक मिथ्या अन्तर्ज्ञान के द्वारा दूषित नहीं होता तब भी वह मनुष्य में पशु की अन्धप्रेरणा की भांति मयादित रहता है, संकल्प या ज्ञान के एक विशेष उद्देश्य की पूर्त्तितक ही सीमित रहता है--जैसे अन्धप्रेरणा जीवन के एक विशेष प्रयोजन या प्रकृति के विशेष उद्देश्यतक ही मयादित होती है । और जब बुद्धि अपने अटलप्राय स्वभाव के अनुसार उसका उपयोग करने, उसे व्यवहार में लाने, उसमें वृद्धि करने का यत्न करती है तो वह अन्तर्ज्ञानात्मक केन्द्र के चारों ओर अपने विशिष्ट ढंग से मिश्रित सत्य और भ्रम का स्तूप खड़ा कर देती है । कितनी ही बार, अन्तर्ज्ञान के ठेठ सारतत्त्व में चुपके से ऐन्द्रिय और विचारसम्बन्धी भ्रम का तत्त्व डालकर अथवा इसपर मानसिक कल्पनाओं और भ्रान्तियों की तह चढ़ाकर वह इसके सत्य को पथच्युत ही नहीं विकृत भी कर देती है और इसे असत्य में परिणत कर डालती है । अतएव अपने सर्वोत्तम रूप में अन्तर्ज्ञान हमें एक सीमित प्रकाश ही प्रदान करता है, यद्यपि वह होता है प्रखर; अपने निकृष्टतम रूप में, हमारे द्वारा इसका दुरुपयोग या मिथ्या अनुकरण किये जाने पर, यह हमें कठिनाइयों, परेशानियों और भ्रान्तियों में ले जा सकता है । इससे कम महत्त्वाकांक्षी बौद्धिक तर्क अपनी सुरक्षित, श्रमपूर्ण पर धीमी पद्धति से सन्तुष्ट रहकर उन कठिनाइयों और भ्रमों से बच जाता है, --वह पद्धति बुद्धि के निम्न प्रयोजनों के लिये ही सुरक्षित होती है, पर वस्तुओं के आंतरिक सत्य के लिये वह कभी भी सन्तोषप्रद मार्गदर्शक नहीं हो सकती ।

 

   तर्कशील बुद्धि पर हम जितना ही गौण रूप में निर्भर रहते हैं उतना ही हम अन्तर्ज्ञानात्मक मन के प्रयोग को विकसित और विस्तृत कर सकते हैं । हम अपने मन को शिक्षित कर सकते हैं कि वह आज की भांति अन्तर्ज्ञानात्मक ज्योति की प्रत्येक पृथक् प्रभा पर अपने निम्नतर प्रयोजनों के लिये अधिकार नहीं जमाये, तुरन्त ही इसके चारों ओर हमारे विचार का घेरा न डाल दे और उसकी बौद्धिक क्रिया के द्वारा इसे बंधे-बंधाये रूप में न कस दे; हम उसे सिखा सकते हैं कि वह क्रमिक एवं सम्बद्ध अन्तर्ज्ञानों के प्रवाह के रूप में चिन्तन करे, एक प्रोज्ज्वल और जयशालिनी शृंखला के रूप में ज्योति पर ज्योति को ढारे । इस कठिन परिवर्तन में हम उतने ही सफल होंगे जितना कि हम हस्तक्षेप करनेवाली बुद्धि को शुद्ध करेंगे अर्थात् यदि हम उसमें से वस्तुओं के बाह्य रूपों के दास भौतिक विचार के तत्त्व को, निम्न प्रकृति की इच्छाओं, कामनाओं और आवेगों के दास प्राणिक विचार के तत्त्व को, हमारी बुद्धि की अभिरुचित, पूर्वनिश्चित या अनुकूल धारणाओं, कल्पनाओं, सम्मतियों तथा नियत क्रियाओं के दास मानसिक विचार के तत्त्व को

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कम कर सकेंगे, यदि उन तत्त्वों की मात्रा को कम-से-कम करके हम उसके स्थान पर वस्तुविषयक अन्तर्ज्ञानमय दृष्टि और अनुभूति को, बाह्य रूपों में पैठनेवाली बोधिमय अन्तर्दृष्टि को, अन्तर्ज्ञानात्मक संकल्प तथा विचारणा को प्रतिष्ठित कर सकेंगे । हमारी चेतना के लिये, जो स्वभावतः ही मन, प्राण और शरीर की त्रिविध रज्जु के द्वारा अपनी अपूर्णता और अपने अज्ञान के साथ बंधी हुई है, यह कार्य काफी कठिन है । इस त्रिविध रज्जु को आत्मा के बन्धन की वैदिक उपमा में उत्तम, मध्यम और अधम पाश कहा गया है । ये बाह्य रूपों के मिश्रित सत्य और अनृत के पाश हैं जिनके द्वारा शुनःशेप को यज्ञ के स्तंभ के साथ बांधा गया था ।

 

  पर यदि यह कठिन कार्य पूर्ण रूप से सम्पन्न हो भी जाय तो भी अन्तर्ज्ञान विज्ञान नहीं कहलायेगा; वह मन के अन्दर इसका एक सूक्ष्म प्रक्षेपमात्र होगा या फिर इसका प्रथम प्रविष्ट होनेवाला तीक्ष्ण अग्रभाग । अन्तर्ज्ञान और विज्ञान में जो भेद है उसे प्रतीकों के बिना निरूपित करना सुगम नहीं । उसका वर्णन उस वैदिक रूपक का आश्रय लेकर ही किया जा सकता है जिसमें सूर्य विज्ञान का प्रतिनिधि है और द्यौ, अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी मानव एवं विश्व के मन, प्राण और शरीर के प्रतिनिधि हैं । पृथ्वी पर रहते हुए अन्तरिक्ष में आरोहण करते हुए अथवा यहातक कि द्युलोक में उड़ान लेते हुए भी मनोमय पुरुष सूर्य की किरणों में ही विचरण करेगा, उसकी ज्योतिर्मय देह में नही । और इन किरणों में वह वस्तुओं को उस रूप में नहीं देखेगा जैसी कि वे हैं वरन् जैसी वे उसके दृष्टि के करण में प्रतिबिम्बित होने पर अर्थात् उस करण के दोषों से विकृत अथवा उसकी मर्यादाओं के द्वारा अपने सत्य में सीमित होने पर दीखती हैं । परन्तु विज्ञानमय पुरुष साक्षात् सूर्य में, 'ॠतं ज्योति:' की वास्तविक देह और दीप्ति में निवास करता है; वह इस ज्योति को अपनी स्वयंप्रकाश सत्ता समझता है और निम्न त्रिविध सत्ता के तथा इसके अन्दर की प्रत्येक वस्तु के सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है । उस सत्य को वह दृष्टि के मानसिक करण में पड़नेवाले उसके प्रतिबिम्ब के द्वारा नहीं बल्कि साक्षात् विज्ञान-सूर्यरूपी चक्षु के द्वारा देखता है, --क्योंकि वेद में कहा गया है कि सूर्य देवताओं का चक्षु है । मनोमय पुरुष, अन्तर्ज्ञानात्मक मन में भी, सत्य को उज्ज्वल प्रतिबिम्ब या सीमित सन्देश के द्वारा तथा मानसिक दृष्टि की सीमा-मर्यादा एवं निम्न सामर्थ्य के अधीन रहते हुए ही अनुभव कर सकता है । परन्तु विज्ञानमय पुरुष उसे स्वयं विज्ञान के द्वारा सत्य के ठेठ केन्द्र एवं उमड़ते स्रोत से, उसके असली रूप में और उसकी अपनी सहज-स्फूर्त्त एवं स्वयं-प्रकाशक प्रक्रिया के द्वारा देखता है । क्योंकि परोक्ष और मानवीय ज्ञान के विपरीत, विज्ञान प्रत्यक्ष और दिव्य ज्ञान है ।

 

  बुद्धि के प्रति विज्ञान के स्वरूप का वर्णन बुद्धि के स्वरूप से उसकी विषमता दिखाकर ही किया जा सकता है और तब भी जिन शब्दों का प्रयोग हमें करना

  १ सूर्य को वेद में ऐसा ही अर्थात् 'ॠतं ज्योति:' कहा गया है ।

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पड़ेगा वे वास्तविक अनुभव की कुछ राशि की सहायता के बिना प्रकाश नहीं डाल सकते । क्योंकि बुद्धि के द्वारा गढ़ी हुई कौन-सी भाषा भला अतिबौद्धिक वस्तु को व्यक्त कर सकती है ? इन दो शक्तियों के मूल में भेद यह है कि मानसिक बुद्धि श्रम-पूर्वक अज्ञान से सत्य की ओर बढ़ती है, पर विज्ञान में सत्य के साथ सीधा सम्पर्क रहता है, इसका प्रत्यक्ष दर्शन, इसकी सहज और सतत प्राप्ति होती है और उसे इसकी खोज करने की या किसी प्रकार की प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती । बुद्धि बाह्य रूपों से अपना कार्य आरम्भ करके उसके पीछे रहनेवाले सत्य को प्राप्त करने का यत्न करती है, उसे बाह्य रूपों का थोड़ा-बहुत आधार शायद सदा ही लेना पड़ता है; वह सत्य को बाह्य रूपों के प्रकाश में दिखलाती है । विज्ञान अपना कार्य सत्य से आरम्भ करता है और सत्य के प्रकाश में बाह्य रूपों को दिखलाता है; वह स्वयं सत्य की देह है और इसकी आत्मा भी । बुद्धि अनुमान के द्वारा अग्रसर होती है और अन्त में कोई परिणाम निकालती है, परन्तु विज्ञान तादात्म्य या अन्तर्दृष्टि के द्वारा अग्रसर होता है, --वह है, वह देखता है और जानता है । जितने प्रत्यक्ष रूप में स्थूल नेत्र पदार्थों के बाह्य रूप को देखता और ग्रहण करता है, उतने और उससे कहीं अधिक प्रत्यक्ष रूप में विज्ञान वस्तुओं के अन्तर्निहित सत्य को देखता और ग्रहण करता है । किन्तु जहां स्थूल इन्द्रिय एक परोक्ष सम्बन्ध के द्वारा अपने विषयों के साथ सम्पर्क स्थापित करती है, वहां विज्ञान प्रत्यक्ष एकता के द्वारा वस्तुओं के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है । इस प्रकार यह सब वस्तुओं को वैसे ही सहज, निष्चयोत्पादक ओर प्रत्यक्ष रूप में जान सकता है जैसे कोई मनुष्य अपनी निज की सत्ता को जानता है । बुद्धि के लिये केवल इन्द्रियलब्ध ज्ञान ही 'प्रत्यक्ष' ज्ञान होता है, बाकी सब सत्य परोक्ष रूप में ही प्राप्त होता है; विज्ञान के लिये उसका सम्पूर्ण सत्य 'प्रत्यक्ष' ज्ञान ही है । अतएव बुद्धिलभ्य सत्य एक ऐसी प्राप्ति के समान होता है जिसके ऊपर सन्देह की एक विशेष प्रकार की छाया, एक अपूर्णता, तमस् और अज्ञान या अर्द्धज्ञान की पारिपार्श्विक उपच्छाया सदा ही मंडराती रहती है । साथ ही, और आगे के ज्ञान के द्वारा उस सत्य के परिवर्तित या विलीन हो जाने की सम्भावना भी सदा बनी रहती है । किन्तु विज्ञान का सत्य संशय से मुक्त, स्वतः-सिद्ध, स्वयं-स्थित, अकाटय और निरपेक्ष होता है ।

 

  बुद्धि का पहला करण है निरीक्षण--सामान्य, विश्लेषणात्मक और समन्वयात्मक निरीक्षण । वह तुलना, वैषम्य और सादृश्य की प्रक्रियाओं की भी सहायता लेती है, --निगमन, व्याप्तिग्रह, तथा सब प्रकार के अनुमानों की तार्किक विधियों के द्वारा अनुभव से परोक्ष ज्ञान की ओर बढ़ती है, --स्मरणशक्ति का आश्रय लेती है, कल्पना के द्वारा अपनी सीमा के परे चली जाती है, निर्णय के द्वारा अपनी स्थिति को सुरक्षित करती है; यह सब अंधेरे में खोजने की ही प्रक्रिया है । पर विज्ञान

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खोज नहीं करता, उसे तो सब कुछ प्राप्त है । अथवा, यदि उसे आलोक प्रदान करना होता है, तब भी उसे इसके लिये यत्न नहीं करना पड़ता; वह प्रकट और प्रकाशित कर देता है; जो चेतना बुद्धि से विज्ञान में रूपान्तरित हो जायेगी उसमें कल्पना का स्थान सत्य-प्रेरणा ले लेगी, मानसिक निर्णय अपना स्थान स्वतःप्रकाशमान विवेक को दे देगा । तर्क से निष्कर्ष पर पहुंचने की मन्द और स्खलनशील न्यायशात्रिय प्रक्रिया को बहिष्कृत करके उसके स्थान पर द्रुत अन्तर्ज्ञानात्मक क्रिया प्रतिष्ठित हो जायगी; निष्कर्ष या तथ्य तुरन्त ही अपने निज अधिकार के साथ, अपने स्वयं-पर्याप्त प्रमाण के द्वारा दिखायी दे जायेगा और जिन प्रमाणों के द्वारा हम उस निष्कर्ष या तथ्य पर पहुंचते हैं वे सब भी तुरन्त, उसके साथ, उसी व्यापक चित्र में, दृष्टिगत हो जायेंगे, उसके प्रमाण के रूप में नहीं, बल्कि उसकी अन्तरंग अवस्थाओं तथा उसके अन्तरीय संयोजक सूत्रों एवं सम्बन्धों के रूप में, उसके निर्मायक अंगों या परिस्थिति-रूपी पार्श्वों के रूप में । मानसिक और ऐन्द्रियक निरीक्षण एक अन्तर्दृष्टि में परिवर्तित हो जायेगा जो बाह्य करणों को प्रणालिकाओं के रूप में प्रयुक्त करेगी, किन्तु उनपर इस प्रकार निर्भर नहीं रहेगी जिस प्रकार हमारा मन रहता है जो स्थूल इन्द्रियों के बिना अन्धा और बहरा ही हो जाता है । और, यह अन्तर्दृष्टि केवल वस्तु को नहीं, वरन् उसके समस्त सत्य, उसके बलों और शक्तियों तथा उसके अन्दर के नित्य तत्त्वों को भी देखेगी । हमारी अनिश्चित स्मरणशक्ति विनष्ट हो जायेगी और उसके स्थान पर हमें ज्ञान की ज्योतिर्मय प्राप्ति होगी, एक ऐसी दिव्य स्मृति प्राप्त होगी जो प्राप्त ज्ञान का भण्डार नहीं है, बल्कि सभी वस्तुओं को चेतना में सदा निहित रखती है; वह एक ही साथ भूत, वर्तमान और भविष्य की स्मृति है ।

 

  कारण, जहां बुद्धि काल के एक क्षण से दूसरे क्षण की ओर अग्रसर होती है और खोती तथा प्राप्त करती है और फिर खोती तथा फिर प्राप्त करती है, वहां विज्ञान काल को एक ही अखण्ड दृष्टि एवं शाश्वत शक्ति में अधिकृत कर लेता है और भूत, वर्तमान तथा भविष्य को उनके अविच्छेद्य सम्बन्धों के द्वारा, ज्ञान के एक ही अविच्छिन्न मानचित्र में, एक-दुसरे के पास-पास शृंखलाबद्ध कर देता हैं । विज्ञान समग्र सत्ता से आरम्भ करता है जिसे वह तत्काल ही आयत्त कर लेता है; वह खण्डों, समूहों और व्योरों को समग्र के साथ सम्बद्ध रूप में ही तथा एक ही साक्षात्कार में युगपत् देखता है; मानसिक बुद्धि समग्र को वस्तुत: बिल्कुल ही नहीं देख सकती और किसी भी 'समग्र' को पहले उसके खण्डों, समूहों और व्योरों का विश्लेषण तथा संश्लेषण किये बिना पूर्ण रूप से नहीं जान पाती । अन्यथा उसका, समग्र का अवलोकन सदैव इसके अस्पष्ट लक्ष्णों का एक अनिष्चित भान या अपूर्ण बोध या अव्यवस्थित सार ही होता है । बुद्धि उपादानों, प्रक्रियाओं और गुणों का विवेचन करती है; इनके द्वारा वह स्वयं उस वस्तु तथा उसके सत्य स्वरूप और

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सारतत्त्व के विषय में धारणा बनाने की व्यर्थ ही चेष्टा करती है । परन्तु विज्ञान सबसे पहले वस्तु को उसके शुद्ध रूप में देखता है, उसके मूल और नित्य स्वरूप की तह में जाता है, उसकी प्रक्रियाओं और गुणों को उसके स्वरूप की अभिव्यक्ति के रूप में ही उसके साथ संयुक्त करता है । बुद्धि भेद-प्रभेद में निवास करती है, और उसके अन्दर कैद है; वह वस्तुओं को पृथक्-पृथक् हाथ में लेती है और प्रत्येक के साथ पृथक् सत्ता के रूप में ही व्यवहार करती है, जैसे कि वह काल के खण्डों और देश के विभागों के साथ करती है । एकता को तो वह केवल कुलयोग के रूप में या भेद-प्रभेद को बहिष्कृत करके या फिर एक सामान्य कल्पना एवं रिक्त आकृति के रूप में ही देखती है । परन्तु विज्ञान एकता में निवास करता है और इसीके द्वारा भेद-प्रभेदों के समस्त स्वरूपों को जानता है; वह एकता से अपना कार्य आरम्भ करता है और एकता के ही भेद-प्रभेद को देखता है, 'एक' का निर्माण करनेवाले भेद-प्रभेदों को नहीं, बल्कि अपने अनेकानेक रूपों का निर्माण करनेवाली एकता को देखता है । विज्ञानमय ज्ञान, विज्ञानमय अनुभव किसी वास्तविक भेद को स्वीकार नहीं करता; वह वस्तुओं के साथ इस प्रकार पृथक् रूप में व्यवहार नहीं करता मानो वे अपने सच्चे और मूल एकत्व से स्वतन्त्र हों । बुद्धि सांत के साथ व्यवहार करती है और अनन्त के सामने अपनेको असहाय पाती है; वह उसकी कल्पना इसी रूप में कर सकती है कि यह एक सीमातीत विस्तार है जिसमें सांत अपना कार्य करता है, परन्तु अनन्त के निज स्वरूप की कल्पना वह कठिनाई से ही कर सकतीं है और इसे हृदयंगम तो बिल्कुल नहीं कर सकती, न इसमें पैठ ही सकती है । परन्तु विज्ञान अनन्त में ही अपना अस्तित्व धारण करता है, उसीमें देखता और निवास करता है; वह सदा अनन्त से ही आरम्भ करता है और सांत वस्तुओं को अनन्त के साथ सम्बद्ध रूप में तथा अनन्त के अर्थ में हीं जानता हैं ।

 

  इस प्रकार, हमारी तर्कणा और बुद्धि की तुलना में हमारे लिये विज्ञान का जो रूप है उस अपूर्ण रूप में नहीं, बल्कि अपनी आत्मचेतना में वह जैसा है उस रूप में हम उसका वर्णन करना चाहें तो रूपकों और प्रतीकों के बिना हम कदाचित् उसका वर्णन कर ही नहीं सकते । और, पहले हमें यह स्मरण रखना होगा कि विज्ञान-भूमिका, अर्थात् महत् या विज्ञान हमारी चेतना का सर्वोच्च स्तर नहीं, बल्कि बीच का या जोड़नेवाला स्तर है । चरम-परम आत्मा की त्रयात्मक गरिमा अर्थात् सनातन की अनन्त सत्ता, चेतना एवं आनन्द और हमारी निम्न त्रिविध सत्ता एवं प्रकृति के बीच में रहने के कारण, वह मानो सनातन के मध्यस्थभूत, सुनिर्धारित, व्यवस्थाकारी और सर्जनशील ज्ञान, बल और आनन्द के रूप में स्थित है । विज्ञान में सच्चिदानन्द अपनी अगम सत्ता की ज्योति को एकत्र करके सत्ता के दिव्य ज्ञान, दिव्य संकल्प और दिव्य आनन्द की एक रचना और शक्ति के रूप में आत्मा पर

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उंडेलता हैं । यह ऐसा है मानों अनंत ज्योति सूर्य के सघन मण्डल में पुंजीभूत हो और उस सूर्य के आधार पर रहनेवाली सभी वस्तुओं पर नित्य-स्थायी रश्मियों के रूप में लुटा दी गयी हो । परन्तु विज्ञान केवल ज्योति ही नहीं है, वह शक्ति भी है; वह सर्जनशील ज्ञान है, वह प्रधान दिव्य 'भाव' का स्वयं शक्तिशाली सत्य है । यह भाव कोई सर्जनशील कल्पना नहीं है, कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो शून्य में रचना करती है, बल्कि यह सनातन उपादान की ज्योति और शक्ति है, सत्य-शक्ति से परिपूर्ण सत्य-ज्योति है; और यह उसी वस्तु को प्रकाश में लाता है जो सत्ता के अन्दर गुप्त रूप में विद्यमान है, किसी ऐसी काल्पनिक वस्तु की रचना नहीं करता जिसका अस्तित्व कभी था ही नहीं । विज्ञान का भाव सनातन सत् की चेतना का विकिरणशील ज्योतिर्मय तत्त्व है; प्रत्येक किरण एक सत्य है । विज्ञान का संकल्प सनातन ज्ञान की चिन्मय शक्ति है; वह सत्ता के चैतन्य और उपादान-तत्त्व को सत्य-शक्ति के ऐसे निर्भ्रान्त रूपों में प्रकट करता है जो 'भाव' को मूर्तिमन्त करते हैं और निर्दोष रूप में प्रभावशाली भी बना देते हैं । साथ ही, वह प्रत्येक सत्य- शक्ति और सत्य-आकार को उसकी प्रकृति के अनुसार सहज-स्वाभाविक और समुचित रूप में चरितार्थ करता है । दिव्य 'भाव' की इस सर्जनक्षम शक्ति को वहन करने के कारण ही सूर्य को अर्थात् विज्ञान के अधिष्ठातृदेवता एवं प्रतीक को वेद में सब वस्तुओं की उत्पादक ज्योति, 'सविता सूर्य' कहा गया है, ऐसा ज्योतिर्मय ज्ञान कहा गया हैं जो सबको व्यक्त सत्ता के रूप में प्रकाशित करता है । विज्ञान का यह सृजन-कार्य दिव्य आनन्द, सनातन आनन्द, के द्वारा प्रेरित होता है; विज्ञान अपने सत्य और अपनी शक्ति के आनन्द से परिपूर्ण है, वह आनन्द के अन्दर और आनन्द में से सृजन करता है, ऐसी वस्तु का सृजन करता है जो आनन्दमय है । अतएव, विज्ञान का लोक, अतिमानसिक लोक सत्यमय और कल्याणमय सृष्टि हैं, 'ऋतम् भद्रम्', क्योकि, इसके अन्दर की सभी वस्तुएं इसकी रचना करनेवाले पूर्ण आनन्द में भाग लेती हैं । अविचल ज्ञान की दिव्य प्रभा, अडिग संकल्प की दिव्य शक्ति और अस्सलनशील आनन्द की दिव्य विश्रांति विज्ञानमय पुरुष का स्वभाव या प्रकृति है। विज्ञानमय या अतिमानसिक भूमिका का उपादानतत्त्व उन सब वस्तुओं के पूर्ण निरपेक्ष रूपों से बना है जो यहां अपूर्ण और सापेक्ष हैं और इसकी क्रिया उन सब क्रियाओं के समन्वित परस्पर-गुंफनों तथा सुखद सम्मिश्रणों से बनी है जो यहां एक-दूसरी के विपरीत हैं । क्योंकि, इन परस्पर-विपरीत्त वस्तुओं के बाह्य रूप के पीछे इनके सत्य विद्यमान हैं और सनातन के सत्य एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं; हमारे मन और प्राण के स्तर की परस्पर- विरोधी वस्तुएं विज्ञान के अन्दर अपने सच्चे मूलभाव में रूपान्तरित होकर परस्पर संयुक्त हो जाती हैं और सनातन सद्वस्तु तथा शाश्वत आनन्द के सुरों और रंगों के रूप में दिखायी देती हैं । अतिमानस या विज्ञान परम सत्य, परम विचार, परम

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शब्द, परम ज्योति एवं परम संकल्प भाव है, यह देशातीत अनन्त सत्ता का आन्तर और बाह्य विस्तार है, कालातीत सनातन का निर्मुक्त काल है, निरपेक्ष सत्ता के सब निरपेक्ष सत्यों का दिव्य सामञ्जस्य है ।

 

  प्रत्यक्षदर्शी मन के लिये विज्ञान की तीन शक्तियां हैं । इसकी सर्वोच्च शक्ति ईश्वर की सम्पूर्ण अनन्त सत्ता, चेतना और आनन्द को जानती है तथा उन्हें ऊपर से अपने अन्दर ग्रहण करती हैं; अपने उच्चतम शिखर पर यह सनातन सच्चिदानन्द का पूर्ण ज्ञान और बल है । इसकी दूसरी शक्ति अनन्त को सघन ज्योतिर्मय चेतना अर्थात् चैतन्यघन या चिद्घन के रूप मे घनीभूत कर देती है, यह चिद्घन दिव्य चेतना की बीजावस्था है जिसमें दिव्य सत्ता के सभी अपरिवर्तनीय तत्त्व और दिव्य चिन्मय भाव और प्रकृति के सभी अलंध्य सत्य जीवन्त और मूर्त रूप में निहित हैं । इसकी तीसरी शक्ति इन वतुओं को अमोघ विचार और अन्तर्दर्शन के द्वारा तथा दिव्य ज्ञान के यथार्थ तादात्म्यों, दिव्य संकल्पशक्ति की गति एवं दिव्य आनन्दोद्रेकों के स्पन्दन के द्वारा विराट् विश्व-सामञ्जस्य और असीम विविधता के रूप में, इनकी शक्तियों और आकृतियों के तथा सजीव परिणामों की परस्पर-लीला के बहुविध लयताल के रूप में प्रकाशित या निर्मुक्त कर देती है । विज्ञानमय पुरुष की ओर आरोहण करते हुए मनोमय पुरुष को इन तीन शक्तियों में आरोहण करना होगा । उसे अपनी गतियों को विज्ञान की गतियों में, अपने मानसिक बोध, विचार, संकल्प और सुख को दिव्य ज्ञान की दीप्तियों, दिव्य संकल्पशक्ति के स्पन्दनों और दिव्य आनन्द-सिंधुओं की तरंगों एवं प्रवाहों में परिणत करके रूपान्तर प्राप्त करना होगा । उसे अपनी मानसिक प्रकृति के चेतन उपादान को 'चिद्घन' या सघन स्वयंप्रकाश चेतना में परिणत करना होगा । उसे अपने चिन्मय सारतत्त्व को अनन्त सच्चिदानन्द के विज्ञानमय या सत्यमय आत्म-स्वरूप में रूपान्तरित करना होगा । इन तीन गतियों का वर्णन ईश उपनिषद् में इस प्रकार किया गया है, --पहली गति है 'व्यूह' अर्थात् विज्ञान-सूर्य की किरणों को सत्य-चेतना के विधान-क्रम में व्यवस्थित करनार दूसरी 'समूह' अर्थात् उन किरणों को विज्ञान-सूर्य के तेजोमय शरीर में एकत्र करना; तीसरी, सूर्य के उस कल्याणतम रूप का साक्षात्कार जिसमें आत्मा अनन्त पुरुष के साथ अपने एकत्व को अत्यन्त अन्तरंग रूप में प्राप्त कर लेती है। जो मनोमय प्राणी विज्ञान के पूर्ण रूप में रूपान्तरित, परितृप्त और उन्नीत हो जाता है

 

   १ सूर्य, व्यूह रश्मीन् समूह, तेजो यत् ते रूपं कल्याणतमं तत् ते पत्थामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमस्मि । वेद में विज्ञान-भूमिका को 'ऋतम् सत्यम् बृहत्' कहा गया है, अर्थात् यही त्रिविध विचार वहां भिन्न प्रकार से वर्णित है । 'ऋतम्' का अर्थ है सत्य-चेतना की लाला के अनुसार दिव्य-ज्ञान, संकल्प और आनन्द की क्रिया । 'सत्यम्' का अर्थ है सत्ता का वह सत्य जो इस प्रकार क्रिया करताहै, अर्थात् सत्य-चेतना का क्रियाशील सारतत्त्व । बृहत् का अर्थ है सच्चिदानन्द की अनन्तता जिसमें से अन्य दोनों उत्पन्न होते हैं और जिसपर वे आधारित हैं ।

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उसका मूल अनुभव यह है--उसके ऊपर, अन्दर, चारों ओर, सर्वत्र परम पुरुष विद्यमान होते हैं और उसकी आत्मा परम पुरुष में निवास करती तथा उसके साथ एकीभूत होती है, --भगवान् की अनन्त शक्ति, सामर्थ्य और सत्य उसकी एकाग्र ज्योतिर्मय आत्मिक प्रकृति में केंद्रित होते हैं, --दिव्य ज्ञान, संकल्प और आनन्द की तेजोमय क्रिया प्रकृति के स्वाभाविक कर्म में पूर्णता के साथ प्रतिष्ठित होती है ।

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