योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २४

 

विज्ञान और आनन्द

 

विज्ञान में आरोहण, विज्ञानमय चेतना के यत्किञ्चित् अंश की प्राप्ति अवश्य ही मनुष्य की आत्मा को ऊपर उठा ले जाती है और उसके जगज्जीवन को ज्योति और शक्ति तथा आनन्द और आनंत्य की ऐसी महिमा में उन्नीत कर देती है जो हमारे वर्तमान मानसिक और भौतिक जीवन के पंगु कर्म तथा सीमित उपलब्धियों की तुलना में एक चरम-परम पूर्णता का असली स्थितिशील और क्रियाशील रूप प्रतीत हो सकती है । और वह एक वास्तविक पूर्णता होती है, ऐसी पूर्णता जो आत्मा के आरोहण में इससे पहले कभी प्राप्त नहीं हुई है । क्योंकि मन के स्तर पर प्राप्त ऊंचे-से-ऊंचे आध्यात्मिक साक्षात्कार में भी कोई ऐसी वस्तु अवश्य रहती है जिसका ऊपरी भाग भारी-भरकम होता है और अतएव जो एकांगी एवं एकपक्षीय होती है; यहांतक कि विशाल-से-विशाल मानसिक आध्यात्मिकता भी पर्याप्त विशाल नहीं होती और अपने-आपको जीवन में व्यक्त करने की शक्ति पूर्ण न होने के कारण वह विकृत भी हो जाती है । तथापि अपने से परे की भूमिका की तुलना में यह विज्ञानमय पूर्णता भी, यह प्रथम विज्ञान-ज्योति भी, एक अधिक सर्वांगीण पूर्णता की प्राप्ति के लिये एक ज्योतित पथमात्र है । यह एक सुरक्षित तथा समुज्वल सोपान है जिसपर से हम और भी ऊपर उन चरम-परम अनन्तताओं में सुखपूर्वक आरोहण कर सकते हैं जो जन्म ग्रहण करनेवाली आत्मा का मूल धाम एवं लक्ष्य हैं । इस और भी परे के आरोहण में विज्ञान विलुप्त नहीं हो जाता, बल्कि वस्तुत: अपनी ही उस परम ज्योति में पहुंच जाता है जिसमें से वह मन और परात्पर अनन्त ब्रह्म के बीच मध्यस्थता करने के लिये अवतरित हुआ है ।

 

   उपनिषद् हमें बताती है कि जब मनोमय पुरुष से ऊपर विज्ञानमय पुरुष उपलब्ध हों जाता है और इससे नीचे के अन्नमय आदि सभी 'पुरुष' इसमें उन्नीत हो जाते हैं तो उसके बाद भी, हमारे लिये एक और, सबसे अन्तिम पग शेष रह जाता है--यद्यपि कोई पूछ सकता है : ''क्या वह सदा के लिये अन्तिम है अथवा केवल एक ऐसा अन्तिम पग है जो व्यवहारतः हमारी कल्पना में आ सकता है या जो इस समय हमारे लिये एकमात्र आवश्यक है ?'' वह पग है--अपनी विज्ञानमय सत्ता को आनन्दमय पुरुष में उठा ले जाना और वहां अनन्त भगवान् के आध्यात्मिक अन्वेषण को पूरा कर देना । आनन्द, अर्थात् सनातन परमोच्च दिव्यानन्द अपने स्वरूप में उच्चतम मानवीय हर्ष या सुख से अत्यन्त भिन्न एवं उच्चतर है । यह आनन्द ही आत्मा का सारभूत और मूल स्वभाव है । आनन्द में ही हमारी आत्मा अपनी सच्ची सत्ता को प्राप्त करेगी; आनन्द में ही वह अपनी तात्त्विक चेतना,

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अपनी सत्ता की पूर्ण शक्ति प्राप्त करेगी । देहधारी जीव का आत्मा के इस उच्चात्युच्च, निरपेक्ष, असीम एवं स्वभावसिद्ध आनन्द में प्रवेश ही अनन्त मुक्ति एवं अनन्त पूर्णता है । यह ठीक है कि निम्नतर स्तरों पर भी, जहां पुरुष अपनी खर्व और संकीर्ण प्रकृति के साथ अपना खेल करता है, इस आनन्द को प्रतिबिम्बित करके या परिमित रूप में अवतरित करके इसका यत्किच्चित उपभोग किया जा सकता है । आध्यात्मिक एवं असीम आनन्द का अनुभव जिस प्रकार ज्ञान की विज्ञानमय सत्य भूमिका में तथा इससे भी ऊपर किया जा सकता है उसी प्रकार देह, प्राण और मन के स्तरों पर भी किया जा सकता है । और जो योगी इन लघुतर अनुभूतियों में प्रवेश पा लेता है वह इन्हें इतनी पूर्ण और प्रबल अनुभव कर सकता है कि वह यह कल्पना करने लगे कि इनसे महान् और परतर कोई वस्तु नहीं है । क्योंकि, दिव्य तत्त्वों में से प्रत्येक हमारी सत्ता के अन्य छहों स्वरों की सम्पूर्ण सम्भाव्य शक्ति को बीजरूप में अपने अन्दर धारण किये हुए है; प्रकृति का प्रत्येक स्तर अपने नियमों के अधीन इन स्वरों की स्वानुरूप पूर्णता प्राप्त कर सकता है । परन्तु सर्वांगीण पूर्णता तभी प्राप्त हों सकती है जब कि निम्नतम स्तर उच्चतम की ओर ऊपर ही ऊपर आरोहण करता जाये और इसके साथ ही उच्चतम निरन्तर ही निम्नतम के अन्दर अवतरित होता रहे जिससे अन्त में हमारी सारी सत्ता अनन्त और सनातन सत्य का एक ही ठोस पिण्ड और साथ ही एक नमनीय सुधासिन्धु बन जाये ।

 

  मनुष्य की ठेठ भौतिक चेतना अर्थात् अन्नमय पुरुष इस परमोच्च आरोहण और पूर्ण अवरोहण के बिना भी सच्चिदानन्द की सत्ता को अपने अन्दर प्रतिबिम्बित कर सकता है तथा स्वयं इसमें प्रवेश भी पा सकता है । यह कार्य वह विराट् पुरुष को, उसके आनन्द, बल और आनंत्य को, जो गुप्त होते हुए भी यहां विद्यमान अवश्य हैं, भौतिक प्रकृति में प्रतिबिम्बित करके अथवा एक पृथक् वस्तु एवं सत्ता होने की अपनी भावना का अपने अन्दर या बाहर अवस्थित आत्मा में लय करके सम्पन्न कर सकता है । इसके परिणामस्वरूप स्थूल मन एक महिमान्वित निद्रा में लीन हो जाता है जिसमें अन्नमय पुरुष एक प्रकार के सचेतन निर्वाण में अपने-आपको भूल जाता है या फिर प्रकृति के हाथों में एक निर्जीव वस्तु की भांति, जड़वत् हवा में लुढ़कते पत्ते की तरह इधर-उधर गति करता रहता है । अथवा सच्चिदानन्द की सत्ता को अनुभव करने के परिणामस्वरूप कर्म के उत्तरदायित्व से मुक्त होने की शुद्ध, सुखमय और निर्बाध अवस्था, दिव्य शैशव की अवस्था भी प्राप्त हो सकती है, बालवत् । परन्तु यह ज्ञान और आनन्द के उन उच्चतर ऐश्वर्यों के बिना ही प्राप्त होती है जो एक अधिक ऊंचे स्तर की ऐसी दिव्य शैशवावस्था के वैभव हैं । पर यह सच्चिदानन्द का एक जड़ साक्षात्कार है जिसमें न तो पुरुष को प्रकृति पर किसी प्रकार का प्रभुत्व प्राप्त होता है और न प्रकृति अपनी परमोच्च शक्ति में, परा शक्ति

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के अनन्त वैभवों में, किसी प्रकार से उन्नीत ही होती है । तथापि ये दोनों अर्थात् यह प्रभुत्व और यह उन्नयन पूर्णता के दो पथ हैं, परमोच्च सनातन ब्रह्म में प्रवेश करने के लिये दो भव्य द्वार हैं ।

 

  मनुष्य में अवस्थित प्राणिक आत्मा एवं प्राणिक चेतना, प्राणमय पुरुष भी सच्चिदानन्द की सत्ता को अपने अन्दर इसी प्रकार सीधे रूप में प्रतिबिम्बित कर सकता तथा इसमें प्रवेश पा सकता है । अर्थात् इसके लिये उसे या तो विश्व-प्राण में पड़नेवाले विराट् पुरुष के व्यापक, प्रोज्ज्वल और आनन्दपूर्ण प्रतिबिम्ब को ग्रहण करना होता है अथवा अपने पृथक् जीवन एवं अस्तित्व की भावना का अपने अन्दर या बाहर विद्यमान बृहत् आत्मा में लय करना पड़ता है । इसके परिणामस्वरूप वह या तो नितान्त आत्म-विस्मृति की गहरी अवस्था में पहुंच जाता है या फिर प्राणिक प्रकृति के द्वारा प्रेरित होकर अनुत्तरदायी रूप में कार्य करने लगता है अर्थात् प्राणमय नृत्य में निरत महान् विश्व-शक्ति के प्रति आत्मोत्सर्ग करने के उदात्त उत्साह से पूरित हो उठता है । उसकी बाह्य सत्ता ईश्वर-अधिकृत उन्माद के भाव में निवास करती है, उन्मत्तवत् और तब वह अपनी तथा जगत् की परवा नहीं करती अथवा उपयुक्त मानव-कर्म के रूढ़ाचारों एवं औचित्यों की या महत्तर सत्य के सामंजस्य एवं लयताल की पूर्ण रूप से उपेक्षा करती है । वह बन्धनरहित प्राणमय पुरुष की तरह, दिव्य 'पागल' या दिव्य पिशाच की तरह कार्य करती है, पिशाचवत् । इस अवस्था में भी प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त नहीं होता, न उसका परम ऊर्ध्वगमन ही होता है । हां, इतना अवश्य होता है कि हमारा अन्तःस्थ आत्मा एक आनन्दपूर्ण निष्क्रिय अवस्था में सच्चिदानन्द को उपलब्ध कर लेता है और बाहर अवस्थित भौतिक एवं प्राणिक प्रकृति हमपर एक अनियंत्रित ढंग का सक्रिय प्रभुत्व प्राप्त कर लेती है ।

 

  मनुष्य में रहनेवाली मनोगत आत्मा एवं मानसिक चेतना, मनोमय पुरुष भी इसी प्रकार के सीधे तरीके से सच्चिदानन्द को प्रतिबिम्बित कर सकता तथा इसमें प्रवेश पा सकता है अर्थात् इसके लिये उसे ज्योतिर्मय, निर्बाध, सुखमय, नमनीय और असीम शुद्ध वैश्व मन की प्रकृति में पड़नेवाले विराट् पुरुष के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करना होता है या फिर अपने अन्दर और बाहर अवस्थित बृहत् मुक्त, अपरिच्छिन्न केंद्रातीत आत्मा में लीन होना पड़ता है । इसके परिणामस्वरूप या तो उसका मन और कर्ममात्र एक निश्चल अवस्था में लय को प्राप्त हो जाते हैं या फिर वह कामना और बन्धन से मुक्त होकर कर्म करता है और उस कर्म को उसका आन्तरिक साक्षी-पुरुष देखता रहता है पर उसमें भाग नहीं लेता । मनोमय मानव एक ऐसी एकान्तवासिनी आत्मा बन जाता है जो मानों जगत् में अकेली ही हो तथा जो किसी भी मानवीय सम्बन्ध की परवा न करती हो या फिर वह एक ऐसी निगूढ़ आत्मा बन जाता है जो उल्लासमय ईश्वर-सान्निध्य या आनन्दपूर्ण तादात्म्य में निवास करती है

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तथा सब जीवों के साथ शुद्ध प्रेम एवं परम आनन्द के सम्बन्ध रखती है । मनोमय पुरुष को आत्मा का साक्षात्कार इन तीनों स्तरों में एक साथ भी हो सकता है । तब वह ये सब चीजें (दिव्य बालक, दिव्य 'पागल' या 'पिशाच' और एकान्तवासी तपस्वी) बारी-बारी से, एक के बाद एक या फिर एक ही साथ बन सकता है । अथवा वह निम्नतर रूपों को उच्चतर भूमिका के व्यक्त रूपों में परिणत कर सकता है; वह स्वतंत्र भौतिक मन की 'बालवत्' -स्थिति या जड़ दायित्वहीनता को अथवा स्वतंत्र प्राणिक मन के दिव्य उन्माद को तथा सब नियमों, औचित्यों एवं सामंजस्यों के प्रति उसकी उपेक्षावृत्ति को ऊपर उठा ले जा सकता है और उनके द्वारा सन्त के हर्षोंद्रिक किंवा परिव्राजक की एकान्तप्रिय स्वाधीनता को अनुरंजित या आच्छादित कर सकता है । यहां भी न तो आत्मा जगत् में प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व प्राप्त करती है और न प्रकृति को ऊपर ही उठाती है, बल्कि आत्मा पर दोहरा प्रभुत्व स्थापित हो जाता है, --अन्दर तो मनोगत अनन्त अध्यात्म-सत्ता का स्वातंत्र्य एवं आनन्द उसपर अधिकार कर लेते हैं और बाहर मानसिक प्रकृति की सुखमय, स्वाभाविक और अव्यवस्थित लीला । पर, क्योंकि मनोमय पुरुष विज्ञान को एक ऐसे ढंग से ग्रहण कर सकता है जिससे कि प्राणमय और अन्नमय पुरुष ग्रहण नहीं कर सकते और क्योंकि वह इसे ज्ञान के साथ--मानसिक प्रतिक्रिया करनेवाले सीमित ज्ञान के साथ ही सही--स्वीकार कर सकता है, वह अपने बाह्य कर्म को कुछ अंश में इसकी ज्योति के द्वारा परिचालित कर सकता है अथवा यदि इतना नहीं तो कम-से-कम अपने संकल्प और विचारों को इससे आप्लावित करके शुद्ध अवश्य कर सकता है । परन्तु मन अन्तःस्थ अनन्त सत्ता और बाह्य सान्त प्रकृति के बीच केवल एक समझौता ही कर सकता है; वह अपने बाह्य कर्म में अन्त:सत्ता के ज्ञान, बल और आनन्द की अनन्तता को पूर्णता के साथ तनिक भी नहीं उंडेल सकता; अतः उसका बाह्य कर्म तो सदा ही अपूर्ण रहता है । फिर भी वह सन्तोष और स्वतंत्रता अनुभव करता है क्योंकि अन्तरस्थ प्रभु ही उसके कर्म का, वह चाहे पूर्ण हो या अपूर्ण, भार अपने ऊपर ले लेते हैं, उसकी बागडोर संभाल लेते हैं तथा उसका फल निश्चित करते हैं ।

 

  परन्तु विज्ञानमय पुरुष वह पहली सत्ता है जो सनातन के स्वातंत्र में ही नहीं बल्कि उसकी शक्ति और प्रभुता में भी भाग लेती है । क्योंकि वह अपने कार्य में देवत्व के पूणैंश्वर्य को ग्रहण करता है, देवत्व की परिपूर्णता को अनुभव करता है । वह अनन्त की मुक्त, अत्युच्च और परमोज्जल गति में भाग लेता है; वह मूल ज्ञान, विशुद्ध शक्ति और अखण्ड आनन्द का आधार है, समस्त जीवन को सनातन ज्योति, सनातन अग्नि और सनातन सोम-सुधा में रूपान्तरित कर देता है, वह आत्मा की अनन्तता और प्रकृति की अनन्तता दोनों को धारण करता है । अनन्त की सत्ता में वह अपनी प्रकृतिगत सत्ता को उतना खोता नहीं जितना कि पा लेता है । अन्य

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स्तरों पर जिनतक मनोमय पुरुष अधिक आसानी से पहुंच सकता है, मनुष्य अपने अन्दर ईश्वर को और ईश्वर में अपने-आपको अनुभव करता है; वह अपने बाह्य व्यक्तित्व या प्रकृति की अपेक्षा कहीं अधिक अपने आन्तरिक सारतत्त्व में ही दिव्य बनता है। विज्ञान में, यहांतक कि मानसभावापन्न विज्ञान में भी, सनातन भगवान् मानवरूपी प्रतीक को अधिकृत तथा रूपान्तरित करते हैं तथा उसपर अपनी छाप लगाते हैं, मानव-व्यक्तित्व एवं प्रकृति को सब ओर से व्याप लेते हैं तथा कुछ अंश में उसके अन्दर अपने-आपको प्राप्त कर लेते हैं । मनोमय पुरुष अधिक-से-अधिक उसी वस्तु को ग्रहण या प्रतिबिम्बित करता है जो सत्य, दिव्य और शाश्वत होती है; पर विज्ञानमय पुरुष सच्चे तादात्म्य को प्राप्त कर लेता है, सत्य-प्रकृति की मूल सत्ता और शक्ति को आयत्त कर लेता है । पुरुष और प्रकृति का, स्व-दूसरी की पूरक दो पृथक् शक्तियों का द्वैत सांख्यमतवालों का एक महान् सत्य है जो हमारी वर्तमान प्राकृत सत्ता के व्यावहारिक सत्य पर आधारित है । पर विज्ञान में यह द्वैत पुरुष और प्रकृति की द्वैयात्मक सत्ता में, गुह्य परात्पर के क्रियाशील रहस्य में विलीन हो जाता है । सत्य-सत्ता मूर्तिविद्यासम्बन्धी भारतीय प्रतीक के द्वारा प्रतिरूपित हरगौरी है; वह एक नर-नारीरूप द्विविध शक्ति है जो परात्पर की पराशक्ति से उत्पन्न हुई है तथा उसीके द्वारा धारण की जाती है ।

 

  अतएव ऋतचित् पुरुष अनन्त के अन्दर आत्म-विस्मृति की अवस्था में नहीं पहुंच जाता; वह अनन्त में सनातन आत्म-प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है । उसका कार्य अनियमित नहीं होता; अनन्त स्वतंत्रता में भी वह ('पुरुष') पूर्ण संयम से संपन्न होता है । निम्नतर स्तरों में 'पुरुष' स्वभावतः ही प्रकृति के अधीन होता है और नियामक तत्त्व की प्राप्ति भी उसे निम्नतर प्रकृति में ही होती है; वहां किसी प्रकार का भी नियमन करने के लिये सांत के नियम के प्रति कठोर अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है । यदि इन स्तरों पर 'पुरुष' उस नियम से हटकर अनन्त की स्वतंत्रता में प्रवेश करता है तो वह अपने स्वाभाविक केन्द्र को खो देता है और विराट् अनन्तता में एक केन्द्ररहित सत्ता बन जाता है, वह उस जीवन्त सामंजस्यपूर्ण तत्त्व से वंचित हो जाता है जिसके द्वारा वह तबतक अपनी बाह्य सत्ता का नियमन करता था और उसे अन्य कोई नियम नहीं मिलता । वैयक्तिक प्रकृति या उसका बचा-खुचा अंश केवल अपनी पुरानी चेष्टाओं को कुछ समय के लिये यंत्रवत् जारी रखता है अथवा वह व्यक्ति के देहसंस्थान के अन्दर नहीं बल्कि उसके ऊपर कार्य करनेवाली विश्व-शक्ति की तरंगों के उतार-चढ़ाव के साथ नाचता रहता है, या वह एक सर्वथा स्वच्छन्द आनन्द के उन्मत्त पदक्षेप के अनुसार इधर-उधर भटकता रहता है, या फिर वह जड़ बना रहता है और आत्मा का जो श्वास उसके भीतर था वह

 

  महादेव और उनकी अर्द्धगिनी अर्थात् ईश्वर और शक्ति का द्वयात्मक शरीर जिसका दायां अर्द्ध भाग नर-रूप है और बायां अर्द्ध भाग नारी-रूप ।

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उसे त्यागकर चला जाता है । इसके विपसरीत, यदि आत्मा स्वातंत्र-प्राप्ति के अपने आवेग में नियंत्रण के एक ऐसे अन्य एवं दिव्य केन्द्र की खोज के लिये यत्न करती है जिसके द्वारा अनन्त भगवान् व्यक्ति में अपने कर्म को सचेतन रूप से नियंत्रित कर सकें तो वह विज्ञान की ओर बढ़ रही है जहां वह केन्द्र अर्थात् सनातन समस्वरता और व्यवस्था का केन्द्र पहले से ही विद्यमान है । जब पुरुष मन और प्राण के ऊपर विज्ञान में आरोहण करता है तभी वह अपनी प्रकृति का स्वामी बनता है क्योंकि तब वह केवल पराप्रकृति के ही अधीन रहता है । कारण वहां शक्ति या संकल्प दिव्य ज्ञान के एक यथार्थ पूरक पक्ष एवं उसकी पूर्ण क्रियाशक्ति का काम करता है । और वह ज्ञान केवल 'साक्षी' की दृष्टि नहीं बल्कि ईश्वर की अन्तर्यामी दृष्टि है जो प्रबल रूप से प्रेरित करती है । उसकी ज्योतिर्मय नियामक शक्ति, जिसकी पकड़ से बचना या जिससे इन्कार करना संभव नहीं, अपनी आत्म-व्यञ्जक सामर्थ्य के द्वारा हमारे समस्त कर्म का नियमन करती है और प्रत्येक क्रिया तथा आवेग को एक सत्य, उज्ज्वल, यथार्थ और अटल रूप प्रदान करती है ।

 

  विज्ञान अपने से नीचे के स्तरों की उपलब्धि का परित्याग नहीं करता; उसका अर्थ हमारी व्यक्त प्रकृति का विलोप या लय अर्थात् निर्वाण नहीं बल्कि इसकी उदात्त चरितार्थता है । वह प्रारम्भिक उपलब्धियों को रूपान्तरित तथा दिव्य क्रम-विधान के तत्त्वों में परिणत करके अपनी निजी अवस्थाओं के अन्तर्गत धारण करता है । यह ठीक है कि विज्ञानमय पुरुष एक शिशु है, पर है एक राजशिशु; विज्ञानमय भूमिका एक राजोपम और सनातन शिशु की अवस्था है जिसके लिये ये सब लोक खिलौने हैं और सम्पूर्ण विश्व-प्रकृति जिसके कभी न समाप्त होनेवाले खेल की अद्भुत वाटिका है । विज्ञान दिव्य जड़ता की अवस्था को अपनाता है; पर यह अब उस वशवर्ती आत्मा की जड़ता नहीं होती जिसे प्रकृति जमीन पर पड़े पत्ते की तरह ईश्वर के निःश्वास में चाहे जिधर ठेल ले जाती है । यह तो एक सुखद निष्क्रियता होती है जो प्रकृतिरूपी आत्म-सत्ता के कर्म और आनन्द की अकल्पनीय तीव्रता को धारण करती है । वह प्रकृति अपने स्वामी 'पुरुष' के आनन्द से प्रेरित होती है और साथ ही अपने-आपको एक ऐसी पराशक्ति के रूप में जानती है जो उसके ऊपर एवं चारों ओर विद्यमान है और उसे अपने अधिकार में रखती है तथा सदा ही अपनी गोद में परमानन्दपूर्वक धारण किये रहती है । पुरुष-प्रकृति की यह द्विदल-सत्ता मानों जाज्वल्यमान सूर्य एवं दिव्य ज्योति का पुंज है जिसे उसकी अपनी ही आभ्यन्तरिक चेतना एवं शक्ति विराट् तथा सर्वोच्च परात्पर सत्ता के साथ एक होकर उसकी अपनी कक्षा पर घुमाये लिये चलती है । विज्ञान का उन्माद आनन्द का ज्ञानपूर्ण उम्माद होता है, एक परम चेतना एवं शक्ति का अपरिमेय परमोल्लास

 

   १ ऐसा ही हिराक्लिटस (Heraclitus) ने भी कहा है, ''स्वर्ग का राज्य शिशु का ही है ।

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होता है जो अपनी दिव्य जीवन-गतियों मे स्वतंत्रता और प्रखरता की अनन्त भावना से स्पन्दित रहती है । उसका कार्य अतिबौद्धिक होता है और अतएव बुद्धिप्रधान मन को वह एक बड़ा भारी उन्माद प्रतीत होता है क्योंकि इसके पास उसे समझने की कुंजी ही नहीं है । तथापि यह चीज जो उन्मादना प्रतीत होती है वास्तव में एक क्रियारत प्रज्ञा है जो अपने अन्तर्निहित तत्त्वों के स्वातंन्त्र और ऐश्वर्य के द्वारा तथा अपनी गतियों की मूलभूत सरलता में रहनेवाली अनन्त जटिलता के द्वारा मन को चकरा भर देती है, यह आनन्दोन्मादना सब लोकों के प्रभु की अपना कार्य करने की असली पद्धति ही है, एक ऐसी वस्तु है जिसकी थाह पाना किसी भी प्रकार की बौद्धिक व्यवस्था के लिये सम्भव नहीं; यह एक नृत्य भी है, अति प्रबल शक्तियों का एक भंवर है, पर नृत्य का स्वामी अपनी शक्तियों के हाथों को अपने हाथ में लिये रहता है और उन्हें अपनी रास-लीला के तालमय गतिच्छन्द के अनुसार स्वयं-निर्धारित सामंजस्यपूर्ण चक्रों में घुमाता रहता है । दिव्य 'पिशाच' की ही भांति विज्ञानमय पुरुष भी साधारण मानवजीवन के तुच्छ सदाचारों एवं औचित्यों से बंधा नहीं होता जिनके द्वारा वह निम्न प्रकृति के परेशान करनेवाले द्वंद्वों के साथ सामंजस्य साधने के लिये कोई सामयिक उपाय करता है तथा जिनकी सहायता से वह जगत् के प्रतीयमान विरोधों के बीच अपने पगों को ठीक राह पर चलाने, इसकी अनगिनत विघ्न-बाधाओ से बचने और इसके भयावह स्थलों एवं गर्त-गवह्ररों के आसपास फूंक-फूंककर कदम रखने का यत्न करता है । विज्ञानमय अतिमानसिक जीवन हमारे लिये एक असाधारण जीवन है क्योंकि वह इतना स्वतनत्र्य है कि उसमें आत्मा प्रकृति के साथ निर्भयता और यहांतक कि उग्रता से व्यवहार करती हुई समस्त दुःसाहसिक कार्यों को पूरा करती है तथा निर्भयतापूर्वक नानाविध आनन्द लाभ करती है, किन्तु फिर भी वह जीवन अनन्त भगवान् के वास्तविक सहज स्वभाव का द्योतक है तथा अपनी यथार्थ निर्भ्रान्त कार्यप्रणाली में पूर्ण रूप से सत्य के नियम के अधीन होता है । वह एक आत्म-अधिकृत ज्ञान और प्रेम के तथा संख्यातीत एकत्व में मिलनेवाले आनन्द के नियम का अनुसरण करता है । वह असाधारण केवल इसलिये प्रतीत होता है कि उसके गतिच्छन्द को मन के मन्द एवं दुर्बल कंपनों के द्वारा नापा नहीं जा सकता, फिर भी वह आश्चर्यजनक तथा परात्पर लयताल के अनुसार अपने पग रखता है ।

 

  यदि ऐसा ही है तो फिर इससे भी ऊंचे सोपान की भला क्या आवश्यकता है और विज्ञानमय पुरुष तथा आनन्दमय पुरुष में भेद ही क्या है ? तात्त्विक भेद कोई नहीं है, फिर भी भेद अवश्य है, क्योंकि पुरुष चेतना के एक अन्य ही स्तर में पहुंच जाता है और सारी स्थिति एक प्रकार से आमूल रूप में पलट जाती है, --जड़तत्त्व से लेकर उच्चतम सत्तातक आरोहण की जितनी भी भूमिकाएं हैं उनमें से हर एक की प्राप्ति के लिये चेतना का एक प्रकार का पलटाव होना आवश्यक है । प्रत्येक

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भूमिका में 'पुरुष' उससे ऊपर परे की किसी वस्तु की ओर नहीं देखता, बल्कि उसीमें स्थित होकर उससे नीचे की ओर उस सबपर दृष्टिपात करता है जो कि वह पहले था । निःसन्देह आनन्द की प्राप्ति सभी स्तरों पर हो सकती है, क्योंकि यह सर्वत्र विद्यमान है और सर्वत्र एक ही वस्तु है । यहांतक कि चेतना के प्रत्येक निम्न लोक में भी आनन्द भूमिका की एक प्रकार की पुनरावृत्ति होती है । परन्तु निम्नतर स्तरों में जब आनन्द प्राप्त होता है तो इसके अन्दर शुद्ध मन या प्राणिक बोध या भौतिक चेतना का एक प्रकार का लय करके ही इसे अनुभव किया जा सकता है; इतना ही नहीं, बल्कि मानों यह मन, प्राण या जड़तत्त्व के उस लय-प्राप्त रूप के कारण जो आनन्द के घोल में स्थित होता है स्वयं भी हल्का हों जाता है तथा एक तुच्छ विरल रूप में परिणत हो जाता है । वह रूप निम्न चेतना के लिये तो आश्चर्यजनक होता है पर आनन्द के वास्तविक प्रगाढ़ रूपों की बराबरी नहीं कर सकता । इसके विपरीत विज्ञान में वास्तविक चेतना की सघन ज्योति विद्यमान होती है जिसमें आनन्द की प्रगाढ़ पूर्णता उपस्थित रह सकती है । और जब विज्ञान का रूप आनन्द में लय प्राप्त करता है, तो वह सर्वथा नष्ट नहीं हो जाता बल्कि एक स्वाभाविक परिवर्तन में से गुजरता है जिसके द्वारा हमारी आत्मा अपनी चरम-परम स्वतन्त्रता में उन्नीत हो जाती है; क्योंकि वह अपने-आपको आत्मतत्त्व की निरपेक्ष सत्ता के सांचे में ढाल लेती है और अपनी पूर्णत: स्वयस्थित आनन्दमय अनन्तताओं के रूप में विस्तृत हो जाती है । अनन्त एवं निरपेक्ष भगवान् ही विज्ञान के सब कार्यों का चिन्मय उद्गम, सहचारी तत्त्व, अनिवार्य गुण-धर्म, आदर्शमान, क्षेत्र और वातावरण है; वही इसका आधार, उत्स एवं उपादान-द्रव्य है तथा इसके अन्दर निवास करने और इसे अनुप्रेरित करनेवाली उपस्थिति है; परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अपने कर्म में यह उसकी एक क्रिया के रूप में, उसके कार्यों की एक तालबद्ध पद्धति, सनातन की दिव्य मायाया प्रज्ञात्मक रचना के रूप में उससे पृथक् स्थित रहता है । विज्ञान चिच्छक्ति का दिव्य ज्ञान-संकल्प है; यह प्रकृति-पुरुष की सामंजस्यपूर्ण चेतनता और क्रिया है--दिव्य अस्तित्व के आनन्द से परिपूर्ण है । आनन्द-भूमिका में ज्ञान इन संकल्पमूलक सामंजस्यों से पीछे हटकर शुद्ध आत्म-चैतन्य में चला जाता है, संकल्प शुद्ध परात्पर शक्ति में लीन हो जाता है और फिर दोनों ही अनन्त के शुद्ध आनन्द में ऊपर उठ जाते हैं ।  आनन्द का निज उपादान एवं निज स्वरूप ही विज्ञानमय भूमिका का आधार है ।

 

  आनन्द-भूमिका की ओर आरोहण में ऐसा इसलिये घटित होता है कि यहां पूर्ण एकता की ओर होनेवाला संक्रमण पूरा हो जाता है । विज्ञान उस संक्रमण का

 

   १ चिद्घन ।

   २ भ्रम के अर्थ में नहीं, बल्कि 'माया' शब्द के मूल वैदिक अर्थ है। विज्ञानमय भूमिका में सभी कुछ वास्तविक है, आध्यात्मिक रूप में मूर्त तथा सदा ही प्रमाणित कर सकने योग्य होता है ।

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निर्णायक पग है, अन्तिम विश्रामस्थल नहीं । विज्ञान में आत्मा अपनी अनन्तता को जान लेती है तथा उसमें निवास करती है, पर इसके साथ ही वह व्यक्ति के अन्दर अनन्त की क्रीड़ा के लिये एक कार्योपयोगी केन्द्र में भी निवास करती है । वह सब भूतों के साथ एकात्मता अनुभव कर लेती है, पर वह भेदवृत्ति से रहित अपने वैशिष्टय को भी सुरक्षित रखती है जिसके द्वारा वह एक प्रकार की विभिन्नता में भी उनके साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकती है । सम्बन्ध में मिलनेवाले आनन्द के लिये आत्मा ने अपने अन्दर यह जो विशिष्टता रख छोड़ी है वही मन में जाकर भेद का ही नहीं बल्कि पार्थक्य आदि का रूप भी धारण कर लेती है । परिणामतः मन को यह अनुभव होता है कि हमारी आत्मा हमारी अन्य आत्माओं से पृथक् एवं विभक्त है, अपनी आध्यात्मिक सत्ता में उसे यह भान होता है कि वह दूसरों के अन्दर विद्यमान उस आत्मा को खो बैठा है जो हमारे साथ एकीभूत है और अतएव वह उस आनन्द को पाने के लिये यत्न करता है जिससे वह वंचित हो गया है; प्राण में आकर वह विशिष्टता अहं का अपने अन्दर डूबे रहना तथा आत्मा का अपने सुप्त एकत्व की अन्धवत् खोज करना--इन दोनों के बीच एक समझौते का रूप धारण कर लेती है । विज्ञानमय पुरुष अपनी अनन्त चेतना में भी अपने ज्ञानात्मक उद्देश्यों के लिये स्वेच्छापूर्वक एक प्रकार का सीमित व्यक्तित्व उत्पन्न करता है; यहांतक कि इसकी सत्ता का एक विशेष प्रोज्ज्वल प्रभामण्डल भी होता है जिसमें यह विचरण करता है, यद्यपि उससे परे यह सब वस्तुओं में प्रवेश करके समस्त सत्ता तथा सर्वभूतों के साथ तादात्म्य स्थापित करता है । आनन्द में सब कुछ ही पलट जाता है, केन्द्र का लोप हो जाता है । आनन्दमय कोष की प्रकृति में कोई भी केन्द्र नहीं होता, न कोई स्वेच्छारचित या आरोपित परिधि ही होती है, बल्कि सब कुछ एक ही सम सत्ता या एक ही अभिन्न आत्मा होता है, व्यष्टिरूप में भी सभी वस्तुएं वही एक सत्ता या आत्मा अनुभव होती हैं । आनन्दमय पुरुष सर्वत्र ही अपनी सत्ता को देखता एवं अनुभव करता है; उसका अपना निवासस्थान कोई नहीं, वह 'अनिकेत' है (अर्थात् निकेत या निवासस्थान से रहित है), अथवा सब कुछ (सर्व) ही उसका निवासस्थान है, या फिर, यदि वह चाहे तो सभी पदार्थ उसके अनेकानेक निवासस्थान होते हैं जो एक-दुसरे के लिये सदैव खुले रहते हैं । अन्य सभी सत्ताएं अपने सार-तत्त्व में तथा अपने सक्रिय रूप में पूर्ण रूप से उसकी अपनी ही आत्माएं होती हैं । विविधतापूर्ण एकता में सम्बन्ध स्थापित करने से जो आनन्द मिलता है वह पूर्णतया उसी आनन्द का रूप धारण कर लेता है जो संख्यातीत एकत्व में पूर्ण तादात्म्य के द्वारा प्राप्त होता है । सत्ता को अब पहले की तरह ज्ञान के रूपों में संघटित नहीं किया जाता, क्योंकि यहां ज्ञात, ज्ञान और ज्ञाता पूर्ण रूप से एक ही 'सत् आत्मा' होते हैं । यहां सबको सब कुछ निकटतम निकटता से भी 'परतर' एक अन्तरंग तादात्म्य के द्वारा ज्ञात एवं प्राप्त रहता है । अतएव, जिसे हम

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ज्ञान कहते हैं उसकी यहां जरूरत ही नहीं होती । समस्त चैतन्य अनन्त के आनन्द का ही चैतन्य होता है, समस्त शक्ति अनन्त के आनन्द की ही शक्ति होती है, सब रूप और कार्य भी अनन्त के आनन्द के रूप और कार्य होते हैं । सनातन आनन्दमय पुरुष अपनी सत्ता के इसी निरपेक्ष सत्य में निवास करता है, यहां हमारे लोक में वह विपरीत दृग्विषयों के कारण विकृत है, यहां अपनी भूमिका में वह पुनः इनके सत्य स्वरूप को प्राप्त कर उसीमें रूपान्तरित हों जाता है ।

 

   आनन्दभूमिका में भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है; उसका नाश नहीं होता, न किसी निराकार अनिर्देश्य सत्ता में उसका लय ही होता है । क्योंकि, हमारी सत्ता के प्रत्येक स्तर पर यही नियम लगू होता है; आनन्दमय भूमिका में आत्मा आत्म-आत्मामग्नता की गहरी योगनिद्रा में लीन हों सकती है, प्रभुप्राप्ति की अनिर्वचनीय गरिमा में प्रतिष्ठित हों सकती है, भारतीय शास्त्रों में आनन्दलोक, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ या गोलोक के नाम से वर्णित की गयी अपनी निज भूमिका के उच्चतम वैभव में निवास कर सकती है, यहांतक कि निम्नतर लोकों को अपनी ज्योति, शक्ति और आनन्द से परिपूरित करने के लिये उनकी ओर लौट भी सकती है । सनातन लोकों में ये भूमिकाएं एक-दूसरी में निहित रहती हैं, यहांतक कि मन से ऊपर के सभी लोकों में उत्तरोत्तर ऐसा ही देखने में आता है । क्योंकि, ये पृथक्-पृथक् नहीं हैं; बल्कि ये निरपेक्ष ब्रह्म की चेतना की सहवर्ती, यहांतक कि सुसंवादी शक्तियां हैं । आनन्द-भूमिका में अवस्थित भगवान् विश्व-लीला करने में असमर्थ हों ऐसी बात नहीं, न उन्होंनें अपने ऐश्वर्य-वैभव को किसी प्रकार प्रकट करने के सम्बन्ध में अपने ऊपर रोक ही लगा रखी है । वरन् जैसा कि उपनिषद् में बलपूर्वक कहा गया है, आनन्द ही वास्तविक सृष्टिकारी तत्त्व है । क्योंकि सब कुछ इस दिव्य आनन्द से ही उत्पन्न होता है; सब कुछ इसके अन्दर सत्ता के एक निरपेक्ष सत्य के रूप में पहले से ही विद्यमान है । विज्ञान उस सत्य को प्रकाश में लाता है और विचार तथा इसके नियम के द्वारा उसे स्वेच्छापूर्वक सीमित कर देता है । आनन्द-तत्त्व में सब नियमों का अन्त हो जाता है, इसमें किसी बांधनेवाली शर्त्त या सीमा से रहित एक पूर्ण स्वतन्त्रता का राज्य है । यह अन्य सभी तत्त्वों या कोषों से उच्चतर है और एक ही क्रिया के द्वारा उन सब तत्त्वों का उपभोग भी करता है; यह सब गुणों से मुक्त है और अपने अनन्त गुणों का भोक्ता भी है; यह सब रूपों से ऊपर है और अपने सभी रूपों तथा आकारों का निर्माता और भोक्ता भी है । यह कल्पनातीत पूर्णता ही आत्मा का, परात्पर और विराट् आत्मा का स्वरूप है, और आनन्द-भूमिका में परात्पर तथा विराट् आत्मा के साथ एक होने का अर्थ यही है कि हमारी आत्मा भी तदृप हो जाये, इससे कम नहीं । इस भूमिका में निरपेक्ष आत्मा का ही

 

    १ इसीलिये आनन्द के लोक को 'जनलोक कहा जाता है जिसमें 'जन' शब्द जन्म और आनन्द के दोहरे अर्थ का वाचक है ।

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अस्तित्व है और उसके निरपेक्ष तत्त्वों की ही लीला होती रहती है । अतएव, स्वभावत: ही, हमारे मन का कोई भी विचार इसका वर्णन नहीं कर सकता । न उन प्रातिभासिक या पारमार्थिक सत्ताओं के संकेतों के द्वारा ही इसका वर्णन किया जा सकता है जिन्हें प्रकट करने के लिये हमारे मानसिक विचार बुद्धिगत प्रतीकों का काम करते हैं । ये सत्ताएं स्वयं वास्तव में उन अवर्णनीय निरपेक्ष तत्त्वों के सापेक्ष प्रतीकमात्र हैं । प्रतीक अर्थात् निरपेक्ष तत्त्व को प्रकट करनेवाली कोई सद्वस्तु हमें स्वयं उस तत्त्व का विचार, बोध, इन्द्रियानुभव, अन्तर्दर्शन, यहांतक कि संस्पर्श भी प्रदान कर सकती है, पर अन्त में हम इस प्रतीक से परे उस मूल तत्त्व पर पहुंच जाते हैं जिसका यह प्रतीक है, विचार अन्तर्दर्शन और संस्पर्श को पार कर जाते हैं, विचारात्मक सद्वस्तुओं को भेदकर वास्तविक सद्वस्तुओं पर पहुंच जाते हैं, एकमेव, परमोच्च, कालातीत और सनातन एवं अनन्तत: अनन्त सत्ता को प्राप्त कर लेते हैं ।

 

   आज हम जो कुछ हैं तथा जो कुछ जानते हैं उससे बिल्कुल परे की किसी वस्तु को जब हम आन्तरिक रूप से जान लेते हैं और उसकी ओर प्रबल रूप से आकृष्ट हो जाते हैं तो हमारी प्रथम सर्वग्रासी प्रवृत्ति यह होती है कि हम अपने वर्तमान यथार्थ जीवन को त्यागकर पूर्ण रूप से उस उच्चतर सद्वस्तु में ही निवास करें । इस आकर्षण का चरम रूप तब देखने में आता है जब हम परमोच्च सत् और अनन्त आनन्द की ओर आकृष्ट होते हैं । उस चरम आकर्षण का अभिप्राय है निम्नतर तथा सांत सत्ता को भ्रम मानकर हेयता की दृष्टि से देखना तथा परतत्त्व में निर्वाण पाने के लिये अभीप्सा करना, आत्मा में लय, निमज्जन एवं निर्वाण लाभ करने के लिये उत्कट अभिलाषा करना । परन्तु वास्तविक लय अर्थात् सच्चे निर्वाण का अर्थ यह है कि हम उन सब विशिष्ट तत्त्वों को जो अनिवार्य रूप से निम्नतर सात्त से ही सम्बन्ध रखते हैं, उच्चतर सद्वस्तु की विशालतर सत्ता में ले जाकर मुक्त कर दें तथा जीवन्त-जाग्रत् परमार्थ-सत्ता अपने सजीव प्रतीक को सचेतन रूप से अपने अधिकार में कर ले । अन्त में हमें पता चलता है कि यही नहीं कि वह उच्चतर सद्वस्तु शेष सब वस्तुओं का मूल कारण है तथा उन सबको अपने अन्दर धारण किये है और उनमें विद्यमान भी है, अपितु जितना ही अधिक हम उसे उपलब्ध करते हैं उतना ही अधिक अन्य सब वस्तुएं हमारे आत्मानुभव में उच्चतर मूल्य-मानवाली वस्तुओं में रूपान्तरित हो जाती हैं और परमार्थ-सत्ता की समृद्धतर अभिव्यक्ति के, अनन्त के साथ अधिक बहुमुखी अन्तर्मिलन के तथा परात्पर की ओर विशालतर आरोहण के साधन बन जाती हैं । अन्त में, हम निरपेक्ष सत्ता तथा उसके उन परमोच्च मूल्यों के निकट पहुंच जाते हैं जो सब वस्तुओं के निरपेक्ष रूप हैं । उसके बाद हमारा मुमुक्षुत्व अर्थात् मोक्ष की कामना ही समाप्त हों जाती है जो तबतक हमें प्रेरित करती आ रहीं थी, क्योंकि अब हम उस सत्ता के घनिष्ठ सामीप्य में पहुंच गये हैं जो नित्य-मुक्त है; वह सत्ता न तो उस वस्तु से जो हमें आज

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बन्धन में डाले हुए है आकर्षित होकर उसमें आसक्त हो जाटी है और न उस वस्तु से जो हमें आज बन्धन प्रतीत होती है भय ही मानती है । हमारी प्रकृति पूर्णतया मुक्त भी तभी हो सकती है जब बद्ध आत्मा अपने मोक्ष की ऐकान्तिक लालसा को छोड़ दे । भगवान् मनुष्यों की आत्माओं को नानाविध प्रलोभनों से अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; आनन्द के सम्बन्ध में आत्मा की अपनी जो सापेक्ष और अपूर्ण धारणाएं होती हैं उन्हींसे इन सब प्रलोभनों की उत्पत्ति होती है; ये सभी आनन्द को खोजने के उसके तरीके हैं, परशु यदि अन्ततक इनसे चिमटे रहा जाय तो ये उन परतर आनन्दों के अवर्णनीय सत्य से चूक जाते हैं । इनमें से पहला प्रलोभन है ऐहिक पुरस्कार अर्थात् पार्थिव मन और देह में स्थूल भौतिक, बौद्धिक, नैतिक या अन्य किसी प्रकार के सुख का पारितोषिक । दूसरा इसी फलप्रद भ्रान्ति का एक दूरतर एवं महत्तर रूप है, अर्थात् इन ऐहिक पुरस्कारों से अत्यन्त परे के स्वर्गिक आनन्द की आशा करना; स्वर्ग की यह परिकल्पना अपनी उच्चता और पवित्रता में उन्नत होते-होते ईश्वर की शाश्वत उपस्थिति के या सनातन के साथ नित्य मिलन के शुद्ध विचारतक पहुंच जाती है । और अन्त में एक ऐसा प्रलोभन देखने में आता है जो इन सबसे सूक्ष्म है, इन सांसारिक या स्वर्गिक सुखों तथा समस्त दुःख-शोक, कष्ट-क्लेश और आयास-प्रयास से एवं सभी दृश्य पदार्थों से मुक्ति, निर्वाण, निरपेक्ष ब्रह्म में आत्म-लय, निवृत्ति एवं अनिर्वचनीय शान्ति का आनन्द । अन्ततोगत्वा मन के इन सब खिलौनों को त्यागकर इनसे परे चले जाना होगा । जन्म का भय तथा जन्म से छुटकारे की कामना-दोनों को हमें पूर्ण रूप से त्याग देना होगा । क्योंकि, प्राचीन शब्दावलि को दुहरायें तो हम कह सकते हैं कि जो आत्मा अद्वैत का साक्षात्कार कर चुकी है उसे न शोक होता है न भय; जो आत्मा ब्रह्मानन्द में प्रवेश पा चुकी है उसे किसी भी व्यक्ति या किसी भी वस्तु से भयभीत होने का कोई काम नहीं । भय, कामना और शोक मन की व्याधियां हैं; द्वैत और परिमितता की इसकी (मिथ्या) भावना से उत्पन्न होने के कारण, ये अपनेको जन्म देनेवाली मिथ्या भावना के साथ ही समाप्त हो जाते हैं । आनन्द इन व्याधियों से मुक्त है; उसपर संन्यासी का ही एकाधिकार नहीं है, न वह जगत् के प्रति वैराग्य से ही उत्पन्न होता है ।

   आनन्दमय पुरुष जन्म या अजन्म से बंधा दुआ नहीं है; वह ज्ञान की कामना से परिचालित नहीं होता न अज्ञान के भय से व्यथित ही होता है । परमोच्च आनन्दमय पुरुष को पहले से ही ज्ञान प्राप्त है और अतएव वह ज्ञान की आवश्यकतामात्र से परे है । अपनी चेतना में रूप और कर्म के द्वारा सीमित न होने के कारण, वह अज्ञान में लिप्त हुए बिना व्यक्त सृष्टि के साथ लीला कर सकता है । ऊर्ध्व भूमिका में स्थित होकर वह शाश्वत अभिव्यक्ति के रहस्य में पहले से ही अपना भाग ले रहा है और, समय आने पर, अज्ञान का दास बने बिना, प्रकृति के पहिये के

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चक्करों में फंसे बिना, यहां अवतरित होकर जन्म ग्रहण करेगा । क्योंकि, वह जानता है कि देहबद्ध आत्मा के लिये जन्म-मरण के चक्रों का प्रयोजन और नियम यह है कि वह एक स्तर से दूसरे स्तर पर आरोहण करे और सदा ही निम्नतर लीला के नियम के स्थान पर उच्चतर लीला के नियम को, स्थूल-भौतिक स्तर-पर्यन्त, प्रतिष्ठित करता जाये । आनन्दमय पुरुष न तो इस आरोहण के लिये ऊपर से हमारी आत्मा की सहायता करने से घृणा करता है और न ही भागवत सत्ता की सोपान-परम्परा से अवतरित होकर स्थूल जन्म ग्रहण करने से तथा उसे अपनी आनन्दमय प्रकृति की शक्ति प्रदान करके दिव्य शक्तियों के ऊर्ध्वमुख आकर्षण में सहायता पहुंचाने से भय मानता है । विकसित होते हुए काल-पुरुष के उस अति अद्भुत आविर्भाव की वेला अभी आयी नहीं है । सामान्यतया मानव अभी आनन्दमय प्रकृति में आरोहण नहीं कर सकता; पहले उसे मन की अधिक ऊंची चोटियों पर स्थिर रूप में प्रतिष्ठित होना होगा तथा उनसे विज्ञान की ओर आरोहण करना होगा; सम्पूर्ण आनन्द-शक्ति को इस पार्थिव प्रकृति में उतार लाना तो उसके लिये और भी कम सम्भव है; इसके लिये तो उसे पहले मनोमय मनुष्य रहना छोड़कर अतिमानव बनना होगा । इस समय तो वह बस उसकी शक्ति का कुछ अंश अपनी आत्मा के अन्दर कम या अधिक मात्रा में ग्रहण भर कर सकता है, वह अंश भी उसकी निम्नतर चेतना में से गुजरता हुआ उसतक पहुंचने के कारण कुछ क्षीण हो जाता है; पर उतने से भी उसे परमोल्कास और अपार दिव्यानन्द की अनुभूति होती है ।

 

  किन्तु जब आनन्दमय प्रकृति नयी अतिमानवीय जाति में प्रकट होगी तो उसका स्वरूप क्या होगा ? पूर्ण-विकसित आत्मा गभीर और असीम आनन्द की चेतना की अनुभूति के स्थितिशील स्वरूप और क्रियाशील प्रभाव में सब प्राणियों के साथ एकमय होगी । और, क्योंकि प्रेम ही आनन्दात्मक एकत्व का अमोघ बल और आत्मिक प्रतीक है, वह विश्वप्रेम के द्वार से ही इस एकत्व के निकट पहुंचेगा तथा इसमें प्रवेश करेगा, वह विश्वप्रेम पहले-पहल तो मानवीय प्रेम का एक उदात्त रूपमात्र होता है, पीछे वह दिव्य प्रेम बन जाता है, अपनी पराकाष्ठा को पहुंचने पर वह सौन्दर्य, माधुर्य और वैभव से सम्पन्न एक ऐसी वस्तु बन जाता है जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते । आनन्द-चेतना में वह समस्त विश्व-लीला तथा इसकी शक्तियों और घटनाओं के साथ एकमय होगा और हमारी शक्ति तथा तमसाच्छन्न मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता का शोक और भय, तृष्णा और दुःख सदा के लिये निवासित हो जायेंगे । वह आनन्द-मुक्ति की उस शक्ति को प्राप्त कर लेगा जिसमें हमारी सत्ता के सब परस्पर-विरोधी तत्त्व अपने निरपेक्ष मूल्यों को प्राप्त कर उनमें एकीभूत हो जायेंगे । तब समस्त अशुभ बाध्य होकर शुभ में परिवर्तित हों जायेगा; सर्व-सुन्दर का विराट् सौन्दर्य अपने विनष्ट राज्यों को अपने

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अधिकार में कर लेगा; अन्धकार का प्रत्येक क्षेत्र प्रकाश के परिपूर्ण वैभव में परिणत हो जायेगा तथा सत्य, शिव और सुन्दर एवं शक्ति प्रेम और ज्ञान के बीच हमारा मन जिन विरोधों की सृष्टि करता है वे सब एकत्व के इस सनातन शिखर पर, इन असीम विस्तारों में जहां ये सब चीजें सदा ही एक हैं विलीन हो जायेंगे ।

 

  मन, प्राण और शरीर में रहनेवाला 'पुरुष' प्रकृति से पृथक् है तथा इसके साथ संघर्ष में रत रहता है । इसके जिस भी अंश को वह मूर्त्त रूप दे सकता है उसका वह अपनी 'पुरुष'--शक्ति से नियन्त्रण और दमन करने का प्रयास करता है और फिर भी इसके कष्टप्रद द्वंद्वों के अधीन है और सच पूछो तो सिर से पैर तक, आदि से अन्त तक इसका खिलौना है । विज्ञान में वह इसके साथ 'एक में दो' के रूप में संयुक्त है, अपनी प्रकृति के स्वामी के रूप में वह दोनों के (पुरुष-प्रकृति के) समन्वय और सामंजस्य को उनकी मूल एकता के आधार पर प्राप्त कर लेता है, पर इसके साथ ही वह परमोच्च दिव्य प्रकृति से युक्त परात्पर आत्मा के प्रति असीम आनन्दपूर्ण अधीनता भी स्वीकार करता है जो उसके अपने स्वामित्व तथा सर्वविध स्वातंत्र की शर्त्त है । विज्ञान के शिखर पर तथा आनन्द की भूमिका में वह प्रकृति के साथ एक हो जाता है और पहले की तरह इसके साथ केवल 'एक में दो' के रूप में ही संयुक्त नहीं रहता । अज्ञान में प्रकृति आत्मा के साथ उसे विमूढ़ कर देनेवाली जो लीला करती है वह तब समाप्त हो जाती है; तब तो बस आत्मा अपनी निज की तथा अनन्त की आनन्दमय प्रकृति में अपने साथ और अपनी सब आत्माओं के साथ एवं परात्पर पुरुष और दिव्य शक्ति के साथ सचेतन रूप से लीला करता है । यही है परम 'गुह्य', सर्वोच्च रहस्य । हमारे मानसिक विचारों के लिये तथा अपनेसे परे की वस्तु को समझने के लिये यत्न करती हुई हमारी सीमित बुद्धि के लिये यह कितना ही दुर्बोध और जटिल कयों न हो, पर हमारे अनुभव के निकट यह बिल्कुल सरल ही है । सच्चिदानन्द के आत्मानन्द की मुक्त अनन्तता में जो लीला होती है वह भागवत 'शिशु' की लीला या अनन्त प्रेमी की रासलीला है । इस लीला के गुह्य आत्मिक प्रतीक एक कालातीत 'सनातन' सत्ता में सौन्दर्य के संकेतों तथा आनन्द के लयतालों एवं सामंजस्योंके रूप में पुन:--पुन: प्रकट होते रहते हैं ।

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